Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् (हिन्दी अनुवाद सहित) वाचना प्रमुख प्रधान संपादक आचार्य तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ संपादक/अनुवादक आगम मनीषी मुनि दुलहराज Jain Education international For Private & Personal use only . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि दुलहराजजी श्रमिकवृत्ति के मुनि हैं। वे मुनि बनकर मेरे पास आए। तब से लेकर अब तक सतत उनकी श्रमनिष्ठा को अखंडरूप में देख रहा हूं। यह सौभाग्य की बात है कि उन्होंने श्रम की साधना में कभी थकान का अनुभव नहीं किया। आचार्य तुलसी ने आगम-संपादन के भगीरथ कार्य को हाथ में लिया और उसके संचालन का दायित्व मुझे दिया। उस दायित्व की अनुभूति में मुनि दुलहराजजी अनन्य सहयोगी बने रहे। आगम-संपादन के कार्य में वे पहले दिन से संलग्न रहे और आज भी इस कार्य में संलग्न हैं। उनकी श्रमनिष्ठा और संलग्नता ने ही उन्हें आगम-मनीषी के अलंकरण से अलंकृत किया है। इस संपादन कार्य से पूर्व वे व्यवहारभाष्य का अनुवाद और संपादन भी कर चुके हैं। वह भाष्य भी साढ़े चार हजार से अधिक गाथाओं का विशाल ग्रंथ है। यदि मन की विशालता हो तो सागर की विशालता को भीमापा जा सकता है। मेरी दृष्टि में ये भाष्य ग्रंथ सागर की उपमा से उपमित किए जा सकते हैं। इनको नापने का प्रयत्न निष्ठा, साहस और दत्तचित्तता का कार्य है। मुनि दुलहराजजी इस कसौटी में सफल हुए हैं। उनका वर्तमान आगम का वर्तमान है। उनका भविष्य भी आगम का भविष्य बनारहे। आचार्य महाप्रज्ञ Jain Education international Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु भगवओ महावीरस्स बृहत्कल्पभाष्यम् (हिन्दी अनुवाद सहित) खण्ड -२ (गाथा ३६७६ से ६४६०) वाचना प्रमुख नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें.... जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ गणा संपादक/अनुवादक आगम मनीषी मुनि दुलहराज सहयोगी मुनि राजेन्द्रकुमार मुनि जितेन्द्रकुमार घि जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं - ३४१ ३०६ (राज.) ©जैन विश्व भारती, लाडनूं ISBN: 81-7195-133-3 सौजन्य : सेठिया परिवार (दुधोड़-बैंगलोर) द्वारा उनके संसारपक्षीय चाचा आगम मनीषी मुनि दुलहराजजी के दीक्षा के साठवें वर्ष-प्रवेश पर। प्रथम संस्करण : २००७ पृष्ठ संख्या : ४२२+४८४७० मूल्य : ५००/- (पांच सौ रुपया मात्र) दाईप सेटिंग : सर्वोत्तम प्रिण्ट एण्ड आर्ट मुद्रक : पायोराईट प्रिण्ट मीडिया प्रा. लि. उदयपुर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRHATKALPABHASYAM (With Hindi Translation) PART - 2 Vachanapramukh Ganadhipati Tulsi Chief Editor Acharya Mahaprajna Editor/Translator Āgama Manişhi Muni Dulaharaj Assisted by Muni Rajendrakumar Muni Jitendrakumar JAIN VISHVA BHARATI, LADNUN Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers: Jain Vishva Bharati Ladnun 341 306 (Raj.) Jain Vishva Bharati, Ladnun ISBN 81-7195-133-3 Courtsey Sethia Family (Dudhor-Banglore) On the eve of entry into Sixtyeth year of the ascetic life by their uncle Agama-Manishi Dulharaj ji. First Edition: 2007 Price: 500/ Pages: 422+48-470 Type Setting: Sarvottam Print & Art Printed by: PAYORITE PRINT MEDIA PVT. LTD. UDIPUR Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ।।१।। पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था । सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से।। ।।२।। विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिंतन, जयाचार्य को विमल भाव से ।। ।।३।। पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में । हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ।। विनयावनत आचार्य तुलसी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन सकत हा छेदसूत्रों की श्रृंखला में एक सूत्र है-कल्प। विषयवस्तु और आकार के कारण उसका नाम हो गया-बहदकल्प। मूल प्राकृत, भाष्य प्राकृत भाषा में और टीका संस्कृत में। अपेक्ष थी-इसका हिन्दी में अनुवाद हो। इसकी पूर्ति मुनि दुलहराजजी ने की। अपेक्षा अंग्रेजी अनुवाद की भी है। उसकी पूर्ति पर भी विचार किया जाएगा। स्वास्थ्य की अनुकूलता की स्थिति में मुनि दुलहराजजी इस कार्य का दायित्व निभा सकते हैं। 'बृहद्कल्पभाष्य' एक विशाल ग्रंथ है। यह ६४९० गाथाओं में निबद्ध है। विषयवस्तु की दष्टि से आकर ग्रंथ है। इस आकर ग्रंथ के प्रथम और चरम बिन्दुओं को मिलाकर एक रेखा का निर्माण करना एक श्रमसाध्य कार्य है। मुनि दुलहराजजी श्रमिकवृत्ति के मुनि हैं। वे मुनि बनकर मेरे पास आए। तब से लेकर अब तक सतत उनकी श्रमनिष्ठा को अखंडरूप में देख रहा हूं। यह सौभाग्य की बात है कि उन्होंने श्रम की साधना में कभी थकान का अनुभव नहीं किया। आचार्य तुलसी ने आगमसंपादन के भगीरथ कार्य को हाथ में लिया और उसके संचालन का दायित्व मुझे दिया। उस दायित्व की अनुभूति में मुनि दुलहराजजी अनन्य सहयोगी बने रहे। आगम-संपादन के कार्य में वे पहले दिन से संलग्न रहे और आज भी इस कार्य में संलग्न हैं। उनकी श्रमनिष्ठा और संलग्नता ने ही उन्हें आगम-मनीषी के अलंकरण से अलंकृत किया है। इस संपादन कार्य से पूर्व वे व्यवहारभाष्य का अनुवाद और संपादन भी कर चुके हैं। वह भाष्य भी साढ़े चार हजार से अधिक गाथाओं का विशाल ग्रंथ है। यदि मन की विशालता हो तो सागर की विशालता को भी मापा जा सकता है। मेरी दृष्टि में ये भाष्यग्रंथ सागर की उपमा से उपमित किए जा सकते हैं। इनको नापने का प्रयत्न निष्ठा, साहस और दत्तचित्तता का कार्य है। मुनि दुलहराजजी इस कसौटी में सफल हए हैं। उनका वर्तमान आगम का वर्तमान है। उनका भविष्य भी आगम का भविष्य बना रहे। आचार्य महाप्रज्ञ धनतेरस, वि. सं. २०६४ उदयपुर (राज.) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय जैन परंपरा में मुख्य रूप से चार भाष्य प्रचलित हैं-दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ। इनका नि!हण पूर्वो से हुआ, इसलिए इनका बहुत महत्त्व है। इनके नियूहण कर्ता भद्रबाहु 'प्रथम' माने जाते हैं। निशीथ के नि!हण के विषय में मतैक्य नहीं है। ___ कुछ वर्ष पूर्व व्यवहार भाष्य का संपादित पाठ के साथ, बीस-पचीस परिशिष्टों से युक्त, पदानुक्रम तथा भूमिका से संयुक्त संस्करण प्रस्तुत किया था। तत्पश्चात् जलगांव मर्यादा महोत्सव पर व्यवहारभाष्य का सानुवाद संस्करण जनता के समक्ष आया। आचार्यप्रवर ने राजस्थान से अहिंसा यात्रा के लिए प्रस्थान किया। उस यात्रा के दौरान गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश की यात्रा कर रहे थे। आचार्यप्रवर उस यात्रा के मध्य महाराष्ट्र के चौपड़ा गांव में पधारे। वहां विवेकानन्द हाई स्कूल में विराजना हुआ। मध्याह्न में आचार्यश्री ने अपने हाथों से बृहत्कल्पभाष्य का अनुवाद प्रारंभ करते हुए प्रथम श्लोक का अनुवाद अपनी हस्तलिपि से लिखा और फिर मुझे निर्दिष्ट करते हुए फरमाया अब तुम इस अनुवाद को आगे बढ़ाओ और पूरा करो। मैंने उसी दिन से यात्रा में भी इस कार्य को आगे बढ़ाया। वह दिन था ५ फरवरी २००४। यात्रा चलती रही। यात्रा में हम बीकानेर संभाग में आए। वहां उदासर में मैंने इस बृहद् काय ग्रंथ का अनुवाद संपन्न कर दिया। इस ग्रंथ में ६४९० गाथाएं हैं। इसके भाष्य के प्रणयिता संघदासगणी माने जाते हैं। टीकाकार इसकी टीका के दो रचयिता हैं महान् टीकाकार आचार्य मलयगिरि और आचार्य क्षेमकीर्ति सूरी। आचार्य मलयगिरि ने प्रारंभिक ६०६ गाथाओं की टीका लिखी। फिर उससे विरत हो गए। आचार्य क्षेमकीर्ति ने उसे आगे बढ़ाया और पुरे भाष्य की टीका संपन्न की। टीका प्रशस्त और विस्तृत है। आचार्य मलयगिरि ने इसे बीच में क्यों छोड़ा. यह अन्वेषणीय है। आचार्य क्षेमकीर्ति ने लिखा 'श्रीमलयगिरिप्रभवो, यां कर्तुमुपाक्रामन्त मतिमंतः। सा कल्पशास्त्रटीका मयाऽनुसंधीयतेऽल्पधिया।' बृहत्कल्प पर लघुभाष्य और चूर्णि भी है। निशीथभाष्य और प्रस्तुत भाष्य की अनेक-अनेक गाथाएं समान हैं। टीका संयुक्त भाष्य का प्रकाशन मुनि पुण्यविजयजी ने टीका युक्त पूरे ग्रंथ को छह भागों में प्रकाशित किया है। उस संस्करण में पाठान्तरों का उल्लेख भी है। ८० पृष्ठों में पदानुक्रम दिया हुआ है, परन्तु वह इतना शुद्ध नहीं है। यत्र-तत्र त्रुटियां दृग्गोचर होती हैं। हमने पदानुक्रम को नए सिरे से तैयार किया है। इस ग्रंथ के अनुवाद कार्य में मुझे दो वर्ष और दस माह लगे। इस अवधि में यात्रा निरंतर चलती रही। प्रतिदिन विहार और नए-नए गांवों में निवास। पूरे यात्राकाल में अनुकूल स्थान मिलते या नहीं भी मिलते, परन्तु कार्य निरंतर चलता रहता। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् हमने संपूर्ण टेक्सट पुण्यविजयजी द्वारा संपादित ग्रंथ के अनुसार लिया है। कहीं-कहीं मूल पाठ और टीका में संवादिता नहीं है, फिर भी हमने मूल पाठ के साथ छेड़छाड़ नहीं की है। हमने पूर्वानुपर का अनुसंधान कर अनुवाद को आगे बढ़ाया है। अनुवादक की इयत्ता मैंने बृहद्कल्पभाष्य का अनुवाद प्रारंभ किया। स्थान-स्थान पर भाष्यकार ने तथा वृत्तिकार ने मूर्तिपूजक संप्रदाय की मान्यताओं का विस्तार से उल्लेख कर उनकी करणीयता को सिद्ध किया है। विषय है-चैत्य आदि, अनुयान रथयात्रामें करणीय कार्य, भावग्राम के अंतर्गत प्रतिमाओं का पूजन, तीर्थंकरों के जन्मकल्याणक आदि गांवों में जाने से दर्शन शुद्धि आदि होती है। इन तीर्थ स्थानों में जाने की प्रेरणा। यद्यपि हम इन सारी विधियों से सहमत नहीं है। फिर भी हमने यथावत् अनुवाद प्रस्तुत किया है क्योंकि यह अनुवादक का धर्म है। वह जिस ग्रंथ का अनुवाद कर रहा है, वह उस ग्रंथ की गाथाओं में परिवर्तन या परिवर्द्धन नहीं कर सकता। वह टिप्पण में अपने अभिप्राय को स्पष्ट कर सकता है, परन्तु उनमें फेरबदल नहीं कर सकता। मैंने टिप्पण देने के बदले संपादकीय में इस विषय को स्पष्ट किया है। मैंने कुछ वर्षों पूर्व “भरत बाहुबली महाकाव्यम्' का अनुवाद प्रस्तुत किया था। उसमें महाराज भरत द्वारा कृत चैत्यपूजा, मूर्तिपूजा तथा शाश्वत चैत्य का उल्लेख है। मैंने यथार्थ अनुवाद किया। इस अनुवाद को मूर्तिपूजक आचार्यों और मुनियों ने खूब उछाला और लिखा 'तेरापंथी मुनि ने मूर्तिपूजा स्वीकार कर ली है।' पेम्पलेट, परदों पर बड़े-बड़े अक्षरों छापा, प्रचार-प्रसार किया। आज भी कर रहे हैं। हमें इसकी चिंता नहीं। सब अपना अपना कर्म करते हैं। __मैं विश्वास करता हूं कि पाठक अनुवादक की इयत्ता का अनुभव कर, यथार्थ को जानने का प्रयास करेंगे। अन्त में हमने इस ग्रंथ को दो खण्डों में विभक्त किया है। पहले खण्ड में भूमिका, विस्तृत संपादकीय तथा पीठिका साहित प्रथम दो उद्देशक हैं। दूसरे खण्ड में तीसरे उद्देशक से छठ्ठा उद्देशक तथा चार परिशिष्ट हैं-१. कथा परिशिष्ट २. सूक्त और सुभाषित ३. आयुर्वेद और आरोग्य ४. गाथानुक्रम। प्रथम खण्ड का विषयानुक्रम प्रथम खण्ड में, दूसरे का दूसरे में है। पुनश्च इस ग्रंथ के आकार लेने तक जिस किसी का भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिला है उनके प्रति भी मंगलकामना। शुभं भवतु, कल्याणमस्तु। मुनि दुलहराज १ अगस्त २००७ महाप्रज्ञ विहार, भुवाणा (उदयपुर) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय मुझे यह लिखते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि 'जैन विश्व भारती' द्वारा आगम-प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य हुआ है, वह अभूतपूर्व तथा मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और बहुमूल्य बताया गया है। हम बत्तीस आगमों का पाठान्तर शब्दसूची तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सुसंपादित मूलपाठ प्रकाशित कर चुके हैं। उसके साथ-साथ आगम-ग्रंथों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद प्राचीनतम व्याख्या-सामग्री के आधार पर प्रस्तुत हुआ है। उसमें सूक्ष्म ऊहापोह के साथ विस्तृत मौलिक टिप्पण तथा अनेक परिशिष्टों से मंडित संस्करणों को भी सम्मिलित किया गया है। इस श्रृंखला में दसवेआलियं, उत्तराध्ययन, सूयगडो, ठाणं, नंदी, समवाओ आदि अनेक आगम ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं और विशाल ग्रंथ भगवई के चार खंड प्रकाशित होकर जनता के सामने आ चुके हैं। भाष्य लिखने की परम्परा बहुत प्राचीन रही है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने संस्कृत में 'आयारो' का भाष्य लिखकर भाष्यजगत् में एक नूतन कार्य किया है। वह कार्य भाष्य परम्परा को अक्षुण्ण बनाने का श्रमसाध्य प्रयत्न है। आचारांग भी मूलपाठसहित हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुका है। __ प्रस्तुत ग्रंथ 'बृहत्कल्पभाष्यम्' आगम व्याख्या साहित्य की बहुमूल्य धरोहर है। छेदसूत्रों में यह बृहत्काय ग्रंथ है। इसमें ६४९० गाथाएं गुंफित हैं। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख आचार्यश्री तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञ के नेतृत्व में आगमसंपादन का भगीरथ कार्य हो रहा है। आगम साहित्य के इस महान् अभिक्रम में आगम मनीषी मुनिश्री दुलहराजजी प्रारंभ से ही जुड़े रहे हैं। वे श्रद्धेय आचार्यश्री महाप्रज्ञ के अंतेवासी बहुश्रुत संत हैं। उन्होंने इस विशाल ग्रंथ का संपादन एवं अनुवाद किया है। मुनिश्री ने इस ग्रंथ की निष्पत्ति में जो श्रम किया है वह ग्रंथ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा। इससे पूर्व मुनिश्री द्वारा संपादित/अनूदित सानुवाद व्यवहारभाष्य भी प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत ग्रंथ की विशालता देखते हुए इसे दो खण्डों में विभक्त किया है। पहले खण्ड में संपादकीय, भूमिका तथा पीठिका सहित प्रथम दो उद्देशक समाविष्ट हैं। दूसरे खण्ड में तीसरे उद्देशक से छट्ठा उद्देशक तथा चार परिशिष्ट संलग्न हैं। इस ग्रंथ की भूमिका महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी ने अपने बहुमूल्य समय का नियोजन कर. लिखी है। संपादन में मुनि राजेन्द्रकुमारजी, मुनि जितेन्द्रकुमारजी सहयोगी रहे हैं। उन्होंने इसे सुसज्जित करने में अनवरत श्रम किया है। इसकी कंपोजिंग में सर्वोत्तम प्रिण्ट एण्ड आर्ट के श्रीकिशन जैन एवं श्रीप्रमोद प्रसाद का योग रहा है। ऐसे सुसम्पादित आगम ग्रंथ को प्रकाशित करने का सौभाग्य जैन विश्व भारती को प्राप्त हुआ है। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वज्जनों की दृष्टि में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा। १ नवम्बर २००७ उदयपुर (राज.) सुरेन्द्र चोरड़िया अध्यक्ष, जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या विषय ३६७९-३६८१ गणधर वस्त्र प्रवर्तिनी को सौंपे। ३६८२ ३६८३ ३६८४ ३६८५ २६८६ ३६९८ ३६९९ ३७०० तीसरा उद्देशक निग्गंथि उवस्सय-पदं सूत्र १ ३६८७ निष्कारण आर्या उपाश्रय जाने का निषेध | - ३६८८, ३६८९ आर्या उपाश्रय में स्थान, निषीदन आदि करने से प्रायश्चित्त ३६९०,३६९१ आर्या प्रतिश्रय में प्रवेश के चार विकल्प। ३६९२ आर्या उपाश्रय के अग्रद्वार, मूलद्वार आदि स्थानों में प्रवेश करने पर प्राप्त प्रायश्चित | ३६९३-३६९५ आर्या उपाश्रय में प्रवेश से होने वाले अपाय । ३६९६,३६९७ बाज पक्षी के दृष्टान्त द्वारा अकस्मात् आर्या प्रतिश्रय में गमन से आर्याओं को कष्ट । वस्त आर्याओं से होने वाले दोष आर्या उपाश्रय में मुनि के जाने से ग्लान साध्वी के कालातिक्रमण। ३७०१ विषयानुक्रम बिना आचार्य की आज्ञा से आर्याओं के उपाश्रय में जाने पर प्रायश्चित्त । आचार्य आदि बिना कारण आर्या उपाश्रय में जाए तो प्रायश्चित्त । आर्या उपाश्रय में जाने के दस स्थान । स्मृति करण क्या ? दस स्थानों से निष्पन्न प्रायश्चित्त मुनि के अचानक प्रवेश से तपस्विनी आर्या के होने वाली विराधना । साधु के आर्या उपाश्रय के द्वारमूल में खड़े होने से होने वाली विराधना। ३७०२ साधु के आगमन से भिक्षा काल का अतिक्रमण । ३७०३ साधु के आगमन से स्वाध्याय में व्याघात कैसे ? ३७०४, ३७०५ संयम रूपी तालाब का निदर्शन। तथा पालि भेद का कथन । गाथा संख्या विषय ३७०६ आर्या उपाश्रय में श्रमण को देखकर एकाकिनी वसति संरक्षिका आर्या के होने वाली मानसिक उथल-पुथल । ३७०७-३७१३ एकाकिनी आर्या और एकाकी साधु के परस्पर संभाषण से उत्पन्न भाव संबंध का विवेचन । प्रचला, त्वग्वर्त्तन आदि की द्वार गाथा । ३७१४ ३७१५-३७१७ प्रचला आदि का संक्षेप में विवेचन और आर्या उपाश्रय में इनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त । ३७१८,३७१९ निष्कारण विधिपूर्वक भी आर्या उपाश्रय जाने से वे ही पूर्वोक्त दोष। कारणवश अविधि से प्रवेश से भी वे ही पूर्वोक्त दोष तथा कारणवश विधि से प्रवेश शुद्ध । कारणवश प्रतिश्रय गमन की द्वार गाथा | ३७२१ ३७२२,३७२३ आर्या उपाश्रय से जाने के कारणों का विवेचन। ३७२४ आर्यिकाओं को वसति, संस्तारक आदि स्वयं ३७२० ३७२५ ३७२६ ३७२७, ३७२८ मुनि आर्या उपाश्रय में कब जाए ? ३७२९-३७३६ आचार्य आर्या उपाश्रय में कब पधारे ? ३७३७-३७४० साध्वी को अनुशिष्टि में क्या कहे ? ३७४१-३७४३ आर्या उपाश्रय में आचार्य आदि के प्रवेश के अन्य ३७४४ ३७४५ ग्रहण करना अकल्पनीय । गणधर का आर्या उपाश्रय में जाने के कारण। प्राघूर्णक का आर्या उपाश्रय में जाने के कारण । प्राघूर्णक कौन ? ३७४६ ३७४७ ३७४८ ३७४९ कारण । प्राघूर्णक मुनि के लिए आर्या उपाश्रय में जाने की विधि तथा उपाश्रय में साध्वियों की बैठने की विधि। प्राघूर्ण आदि के लिए काष्ठमय आसन्दक आदि लाने की यतना। शय्यातरकुल दिखाने / कहने की विधि | अविधिपूर्वक दिखाने से होने वाले दोष । आर्या वसति में धर्मदेशना और अनुशिष्टि । इस विषय में अन्य आदेश मत का विवेचन । . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या विषय ३७५० वसति के अभाव में एक वसति में श्रमण-श्रमणी को रहने का विवेक। ३७५१ एक वसति में रात्री प्रवास की विधि। ३७५२ वहां परस्पर आलाप संलाप आदि करने पर निष्पन्न प्रायश्चित्त। ३७५३ वहां स्थित साधुओं की उच्चार, प्रस्रवण विधि। ३७५४ अधिक दिन वहां प्रवासित होना हो तो अन्य वसति की गवेषणा आवश्यक। ३७५५,३७५६ आगाढ़ कारण हो तो गणधर का दिन-रात में भी आर्या उपाश्रय में जाना कल्पनीय। ३७५७ महर्द्धिक कौन? ३७५८ गणधर तथा प्रव्रजित महर्द्धिक के आर्या उपाश्रय में जाने से लाभ। ३७५९ महर्द्धिक को देख अस्थिर साध्वी में स्थिरता। ३७६०,३७६१ दीक्षित राजकुमारों का दृष्टान्त। ३७६२,३७६३ परीषह पराजित प्रथम राजकुमार को आचार्य द्वारा अनुशिष्टि। ३७६४ द्वितीय राजकुमार की निर्भयता। ३७६५-३५६७ तृतीय राजकुमार की रक्षा हेतु आचार्य द्वारा आर्या । उपाश्रय में भेजने की विधि। ३७६८ ग्लान साध्वी और प्रतिचरक साधु की चतुर्भंगी। ३७६९-३७७३ अपवाद में ग्लान साध्वी की साधु द्वारा परिचर्या की विधि। ३७७४-३७७६ परिचारक साधु में आवश्यक गुण। ३७७७ ग्लान आर्या के परिचर्या में साधु द्वारा की जाने वाली क्रियाएं। ३७७८-३७८० ग्लान आर्या के प्रतिचर्या में परिचारक का आवश्यक ज्ञान। ३७८१ परिचारक साधु की उपाश्रय आदि में रहने की विधि। ३७८२,३७८३ आगाढ़ कारण में परिचारक की रात्री में आर्या उपाश्रय में रहने की विधि। ३७८४ आर्या का परिचारक साधु तीर्थंकरों की आज्ञा में। ३७८५,३७८६ स्वस्थ होने पर साध्वी को स्वगण में पुनः स्थापित करने की विधि। ३७८७ ग्लान आर्या की चिकित्सा में साधु का समाधि संधान। ३७८८ असहिष्णु मुनि यतनापूर्वक चिकित्सा करे। ३७८९-३७९२ ग्लान आर्या का परिचारक साधु से संलाप। बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ३७९३ साधु यदि असहिष्णु हो तो ग्लान आर्या के प्रति उसका कर्तव्य। ३७९४-३७९६ असहिष्णु साधु की यतना का विवेचन। ३७९७-३७९९ असहिष्णु साध्वी की काम याचना सुनने पर भी परिचारक साधु मेरु की भांति अप्रकंप रहे। ३८०० असहिष्णु साध्वी की भर्त्सना कर पुनः संयम में स्थापित करने का प्रयास आवश्यक। ३८०१ प्रतिपक्ष वसति में जाने का निषेध। निग्गंथ उवस्सयं पदं सूत्र २ ३८०२ पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का संबंध। ३८०३ आर्या द्वारा ग्लान साधु की परिचर्या का उल्लेख। ३८०४ असहिष्णु आर्या द्वारा साधर्मिक साधु आदि की मार्गणा। चम्मं पदं सूत्र ३ ३८०५ ब्रह्मचर्य व्रत की पीड़ा से बचने का उपाय। ३८०६ प्रस्तुत सूत्र के प्रारंभ का हार्द। ३८०७,३८०८ श्रमणियों के लिए सलोम चर्म विषयक आरोपणा व प्रायश्चित्त। ३८०९-३८११ सलोम चर्म के उपयोग से होने वाली __ आत्मविराधना व संयमविराधना। ३८१२-३८१४ सलोम-निर्लोम चर्म के उपयोग से संयतियों में होने वाले दोष। ३८१५ चर्म विषयक अपवाद पद कल्पनीय। ३८१६,३८१७ अपवादों का उल्लेख। ३८१८,३८१९ अपवाद में चर्म ग्रहण की यतना तथा परिभोग की विधि। ३८२० ३८२१ ३८२२ ३८२३ ३८२४ सूत्र ४ निर्ग्रन्थ को परिभुक्त प्रातिहारिक सलोम चर्म । कल्पनीय। उत्सर्गतः निर्ग्रन्थ को भी सलोम चर्म अकल्पनीय तथा शुषिर सलोमचर्म के प्रकार। पुस्तकपंचक तथा तृणपंचक का स्वरूप। वस्त्रपंचक तथा दुःप्रत्युपेक्ष्य दूष्यपंचक का स्वरूप। अप्रत्युपेक्ष्य दूष्यपंचक तथा चर्म पंचक का स्वरूप। साधु-साध्वियों को सलोम तथा निर्लोम चर्म के ग्रहण से निष्पन्न प्रायश्चित्त। ३८२५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ३८८५ गाथा संख्या विषय ३८२६,३८२७ पुस्तकपंचक के दोष। ३८२८-३८३१ पुस्तकीय जीव पलायन नहीं कर सकते। समझाने हेतु वागुरा लेप, जाल और चक्र का दृष्टान्त। ३८३२ तृणपंचक में भी आत्म तथा संयमविराधना। ३८३३ तृण का परिभोग करने पर निष्पन्न प्रायश्चित्त। ३८३४-३८३७ सलोम चर्म तथा निर्लोम चर्म के उपयोग में दोष है फिर प्रस्तुत सूत्र में उसकी अनुज्ञा क्यों ? शिष्य द्वारा प्रश्न आचार्य द्वारा समाधान। ३८३८ कुंभकार, लोहकार आदि द्वारा दिन में परिभुक्त चर्म ग्रहण की विधि। ३८३९,३८४० निर्लोम चर्म ग्रहण के कारण। ३८४१-३८४३ आगाढ़ कारण में सलोम चर्म तथा पश्चानुपूर्वी से पुस्तकपंचक पर्यन्त भी कल्पनीय। सूत्र ५ ३८४४,३८४५ प्रस्तुत सूत्र में चर्म का प्रमाण और उपयोग। ३८४६ कृत्स्न चर्म के चार प्रकार। उनके ग्रहण का निषेध। ३८४७ चारों कृत्स्न चर्म का स्वरूप। ३८४८ सकल कृत्स्न की व्याख्या। ३८४९ प्रमाण कृत्स्न की व्याख्या। ३८५० वागुरा, खपुसा, जंघा तथा अर्धजंघा का वर्णन। ३८५१ वर्ण तथा बंधन कृत्स्न की व्याख्या। ३८५२-३८५५ चारों कृत्स्न ग्रहण करने पर अलग-अलग प्रायश्चित्त। ३८५६-३८६१ कृत्स्न चर्म के उपयोग से होने वाले जीवोपघात आदि द्रव्यात्मक तथा गर्व आदि भावात्मक दोषों का वर्णन। ३८६२,३८६३ कृत्स्न चर्म ग्रहण की अनुज्ञा के कारण। ३८६४-३८६६ क्रमणिका का उपयोग कब? कैसे? ३८६७,३८६८ वर्ण कृत्स्न चर्म ग्रहण का क्रम। ३८६९ पूर्वकृत कृत्स्न या अकृत्स्न चर्म ही साधुओं को कल्पनीय। ३८७० तीन बंध कौन-कौन से? ३८७१ उपानह आदि साधु न करे न कराए। तद्गत प्रायश्चित्त। सूत्र ६ ३८७२ सूत्र में अनुज्ञात होने पर अकृत्स्न चर्म का ग्रहण कल्पनीय नहीं। अपवाद में भी विधिपूर्वक कल्पनीय। गाथा संख्या विषय ३८७३-३८७८ अकृत्स्न चर्म के अठारह भाग क्यों ? कैसे? वत्थ पदं सूत्र ७,८ ३८७९ चर्म की तरह वस्त्र आपवादिक नही। ३८८० कृत्स्न वस्त्र के ६ निक्षेप। ३८८१ द्रव्य कृत्स्न के प्रकार। ३८८२ सकल द्रव्य कृत्स्न का स्वरूप। ३८८३ प्रमाण द्रव्य कृत्स्न का स्वरूप। ३८८४ क्षेत्रकृत्स्न वस्त्र कौन सा? कालकृत्स्न वस्त्र कौन सा? ३८८६ भावकृत्स्न वस्त्र के दो प्रकार। ३८८७ वर्ण कृत्स्न और उसके प्रकार। ३८८८,३२८९ कृत्स्न वस्त्र में तीन प्रकार की आरोपणा तथा वर्णकृस्त्न में भी यही आरोपणा। ३८९० मूल्ययुत वस्त्र के तीन प्रकार। ३९९१,३८९२ उत्तरापथ तथा दक्षिणा पथ के रूपक के मूल्य का अंतर। ३८९३-३८९८ अठारह रूपक मूल्य वस्त्र ग्रहण से लक्षरूपक मूल्य पर्यन्त वस्त्र ग्रहण का तीन प्रकार से प्रायश्चित्त। ३८९९ भावकृत्स्न का स्वरूप तथा उसके प्रकार। ३९००,३९०१ द्रव्य कृत्स्न वस्त्र ग्रहण करने पर उत्पन्न होने वाले दोष। भाव कृत्स्न के दोष। ३९०३,३९०४ रत्नकंबल का दृष्टान्त। ३९०५ स्तेनभय आदि न होने पर सकलकृत्स्न वस्त्र कल्पनीय किन्तु किनारी का छेदन आवश्यक। ३९०६ सिन्धु आदि जनपदों के वस्त्रों के किनारी का छेदन आवश्यक नहीं। ३९०७ किनारीयुक्त वस्त्र ग्रहण के कारण। ३९०८ प्रमाणातिरिक्त वस्त्रों का छेदन न करने का कथन कब ? क्यों? ३९०९ किन कारणों से अपवाद का अपवाद योजनीय। ३९१०,३९११ भाव कृत्स्न वस्त्रों का ग्रहण और धारणा। ३९१२,३९१३ कृत्स्न वस्त्रों का धारण किन-किन देशों में। ३९१४ महाराष्ट्र देश में कौन सा वस्त्र कब धारण करें? इसका विवेचन। ३९१५,३९१६ भावकृत्स्न वस्त्र किसके लिए अनुज्ञात ? ३९०२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ३९१७ द्रव्य कृत्स्न वस्त्र और भाव कृत्स्न वस्त्र का अलग-अलग समाविष्टी। सूत्र ९ ३९१८ कृत्स्न, अकृत्स्न, भिन्न-अभिन्न की चतुर्भगी। ३९१९ अभिन्न में भी उत्सर्ग और अपवाद विषयक चर्चा। ३९२०,३९२१ शिष्य द्वारा प्रश्न-क्या इससे पुनरुक्त दोष नहीं? आचार्य द्वारा समाधान। ३९२२,३९२३ पुनः शिष्य द्वारा प्रश्न-क्या वस्त्र छेदन से उत्पन्न शब्द तथा पक्ष्म से वायु काय की हिंसा नहीं ? ३९२४-३९२६ वस्त्र का छेदन सदोष है। इसलिए वह वांछनीय नहीं। जीव के चेष्टाओं के साथ वस्त्र के छेदन की तुलना उपयुक्त नहीं। ३९२७-३९३४ वस्त्र छेदन विषयक शिष्य के प्रश्न आचार्य का आगमिक संदर्भो में समाधान। ३९३५ कर्मबंध के तीन हेतु। ३९३६ राग आदि परिणामों की तीव्रता आदि की द्वारगाथा। ३९३७ हिंसादि करने में रागादिक की तीव्रता-मन्दता से कर्मबंध की तीव्रता और अल्पता का निरूपण। ३९३८,३९३९ ज्ञात-अज्ञात में हिंसा करने पर कर्मबंध में महान् अंतर की प्ररूपणा। ३९४०,३९४१ क्षायोपशमिक भाव और औदयिक भाव आदि में वर्तन करने वाले के भावों के नानात्व के कारण कर्मबंध की विचित्रता। ३९४२ अधिकरण के चार प्रकार। उनके नाम तथा संक्षेप में दो प्रकार। ३९४३-३९४६ अधिकरण का भागी कौन ? वस्तुओं का निर्माण करने-कराने में दोनों की सहभागिता। जैसा परिणाम वैसा कर्मबंध। . ३९४७ निर्वर्तना और संयोजना अधिकरण कब? ३९४८ समस्त संहननों में प्राणी छहस्थानगत कैसे? ३९४९ वीर्य के तीन प्रकार। उनके बंधी-अबंधी होने का निरूपण। ३९५० सभी जीव बंधक नहीं। बंधक होने पर भी समान रूप और असमानरूप बंधक कौन? ३९५१ कौनसा व्यापार अदोषवान् ? ३९५२-३९५५ किनारी फाड़ देनी आवश्यक अथवा रखनी आवश्यक ? शिष्य द्वारा स्वमत प्रस्तुत करते हुए प्रश्न, आचार्य का समाधान। गाथा संख्या विषय ३९५६ वस्त्र गुणकारी अगुणकारी कब ? ३९५७-३९६० शिष्य का प्रश्न हमारे लिए लक्षणयुक्त वस्त्र के ग्रहण का क्या प्रयोजन? द्रमक का दृष्टान्त देते हुए आचार्य द्वारा समाधान। ३९६१ वस्त्रप्रमाण के दो प्रकारों का निरूपण। ३९६२-३९६५ जिनकल्पिक तथा स्थविरकल्प की उपधि के प्रकार तथा उनका प्रमाण। ३९६६-३९६८ जिनकल्पिक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट उपधि की संख्या और उनका प्रमाण। जिनकल्पिक की शय्या का आकार-प्रकार और सोने की विधि अथवा ध्यान विधि। ३९६९-३९७२ स्थविरकल्पी मुनियों के कल्प का मध्यम, उत्कृष्ट प्रमाण तथा पात्रक बंध और रजस्त्राण का प्रमाण। ३९७३-३९७६ काल विभाग के तीन प्रकार। ग्रीष्म, शिशिर और वर्षाऋतु के आश्रित पटलों की उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य के आधार पर उनकी संख्या एवं उनका माप। इसी प्रकार काल विभाग के आधार पर तीन प्रकार के पटलक। पात्र की संख्या का परिमाण। ३९७७-३९७९ रजोहरण का स्वरूप और उसका प्रमाण। ३९८०-३९८३ संस्तारक, उत्तरपट्ट, चोलपट्टक, ऊन की निषद्या, सूत की निषद्या, मुखवस्त्रिका, गोच्छक, पात्रप्रत्युपेक्षणिका और पात्रस्थापनक के प्रमाण का निरूपण। ३९८४,३९८५ स्थविरकल्पी मुनि के लिए तीन वस्त्र ग्रहणीय। शीत आदि सहन करने में असमर्थ होने पर सात वस्त्र ग्रहणीय की आज्ञा। ३९८६,३९८७ भिक्षु किस प्रकार वस्त्रों को धारण करे? उनका लक्षण। ३९८८,३९८९ गणचिंतक द्वारा प्रमाणातिरिक्त उपधि रखने का कारण। ३९९० उपधि की अधिकता अथवा हीनता से लगने वाले दोष। ३९९१,३९९२ वस्त्र परिकर्म की सकारण-निष्कारण पद के साथ चतुर्भगी। कारण में विधिपूर्वक परिकर्म की शुद्ध, शेष तीनों में प्रायश्चित्त। ३९९३-३९९६ विभूषा निमित्त उपधि का प्रक्षालन करने वाला प्रायश्चित्त का अधिकारी और प्रक्षालन के कारणों का निरूपण। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम १७ गाथा संख्या विषय ३९९७,३९९८ मूर्छापूर्वक महामूल्य, अल्पमूल्य वस्त्रों का उपयोग नहीं करने वाला प्रायश्चित्त का भागी। ३९९९,४००० पात्र विषयक विवेचन। ४००१-४००४ प्रमाणातिरिक्त पात्र को धारण करने अथवा अप्रमाणयुक्त पात्र को धारण करने पर लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। - ४००५-४०११ हीन प्रमाण वाले तथा ऊन अर्थात् अभरित पात्र से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त विधि। ४०१२ खरड़े भाजन को धोने तथा न धोने से दोष। ४०१३ पात्र प्रमाण का विवेचन। ४०१४,४०१५ उत्कृष्ट पात्र का उपयोग कब? ४०१६,४०१७ अज्ञानवश हीनाधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करने पर प्रायश्चित्त तथा प्रमाणयुक्त असंप्राप्ति में रखने का अपवाद। ४०१८,४०१९ ऋद्धिगौरव क्या है? शिष्य की शंका आचार्य द्वारा उसका समाधान। ४०२०-४०२५ महत्तर भाजन ग्रहण करने का कारण। पात्र के लक्षण-अलक्षण तथा उसके लाभ और हानि। ४०२६ अपलक्षणयुक्त पात्रों को धारण करने पर प्रायश्चित्त का विधान। ४०२७,४०२८ पात्र के तीन प्रकार। प्रत्येक के तीन अवान्तर प्रकार। उनके ग्रहण के विपर्यास में प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। ४०२९ पात्र को लाने वाला कौन? आचार्य का उत्तर। पात्र को लाने की उत्सर्ग-अपवाद विधि। ४०३० पात्र का गवेषी कौन? ४०३१-४०३३ पात्र प्राप्ति की गवेषणा का कालमान। तथा उसके विविध प्रकारों की ग्रहणविधि। ४०३४-४०३६ पात्र मिलने के स्थान तथा वहां से ग्रहण करने की विधि। ४०३७-४०४२ किन-किन से भावित पात्र कल्पनीय-अकल्पनीय और कल्पनीय की ग्रहण विधि। ४०४३-४०५० पात्रग्रहण संबंधी जघन्य यतना। तत्संबंधी गुरुलघु प्रायश्चित्त। कारण-अकारण में यतना का स्वरूप और अल्पपरिकर्म और सपरिकर्म की कल्प्याकल्प्यविधि। ४०५१,४०५२ असत् के प्रकार। उनकी व्याख्या। असत् में कौन से यथाकृत पात्रों की कल्पनीयता। तद्विषयक प्रायश्चित्त का निरूपण। गुण-अगुण की परिभाषा। गाथा संख्या विषय ४०५३-४०५८ प्रमाणयुक्त पात्र के न मिलने पर उपयोगपूर्वक पात्र का छेदन तथा अल्पपरिकर्म तथा सपरिकर्म पात्र का ग्रहण। ४०५९,४०६० अल्पपरिकर्म तथा सपरिकर्म पात्र के मुख का प्रमाण तथा उसके तीन प्रकार। ४०६१-४०६३ मुनि को मात्रक ग्रहण करने की अनुज्ञा है या नहीं? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। ४०६४ मात्रक अग्रहण के दोष। तद्विषयक द्वार गाथा। ४०६५,४०६६ मात्रक को ग्रहण न करने पर प्रायश्चित्त विधि तथा लगने वाले दोष। 'वारत्तग' का दृष्टांत। ४०६७-४०६९ मात्रक का प्रमाण तथा उसकी उपयोगिता। ४०७०-४०७२ प्रमाण से छोटे और बड़े मात्रक रखने से होने वाले दोष। ४०७३-४०७५ हीनाधिक मात्रक में भक्तपान लाने से प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त। मात्रक में परिभोग के अधिकारी। ४०७६,४०७७ मात्रक के लेप की विधि। सूत्र १० ४०७८,४०७९ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के भिन्न-भिन्न उपधि की विवचेना। ४०८०-४०८३ आर्यिकाओं की ओघ उपधि के पचीस प्रकार। ४०८४-४०९१ निर्ग्रन्थियों के शरीर को ढांकने में काम आने वाली ग्यारह प्रकार की ओघ-उपधियों का उपयोग, प्रमाण और उनका स्वरूप। ४०९२ उपधि का संक्षेप में दो प्रकार संघातिम और असंघातिम। ४०९३-४०९९ जिनकल्पिक, स्थविरकल्पिक साधु तथा आर्यिकाओं की उपधि का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट विभाग। उग्गहवत्थ-पदं सूत्र ११ ४१००-४१०४ निर्ग्रन्थ को अवग्रहान्तक और अवग्रह पट्ट को धारण करने पर आने वाला प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। अपवाद स्वरूप रखने की आज्ञा और उनकी संख्या। सूत्र १२ ४१०५-४११० साध्वियों को अवग्रहान्तक और पट्टक धारण न करने पर प्रायश्चित्त। उनका उपयोग न करने पर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय गाथा संख्या विषय लोक उपहास तथा उनसे लगने वाले दोष और बताने पर, प्रवर्तिनी द्वारा भिक्षुणियों को और अपवाद। भिक्षुणियों द्वारा उसे स्वीकार न करने पर ४१११-४१२८ पचपन वर्षों से ऊपर वृद्धा साध्वी को प्रायश्चित्त के भिन्न-भिन्न प्रकार। अवग्रहान्तक धारण न करने की छूट। भिक्षा ४१५३-४१५८ पुरुष अथवा स्त्री द्वारा आर्याओं को वस्त्र देने निर्गमन के दो प्रकार। दोनों का स्वरूप तथा और स्वयं वस्त्र लेने पर लगने वाले दोष। उनसे होने वाले गुण-दोष। गुण दोष के विषय में ४१५९ सूत्र की सार्थकता कैसे? योद्धा, मुरुण्ड राजा का हाथी, नर्तकी, नटिनी ४१६०-४१६३ आर्यिकाओं द्वारा वस्त्र का प्रमाण और वर्ण का और केले के तने का उदाहरण। अवलोकन कर आचार्य और गणिनी को निवेदन। ४१२९-४१३३ धर्षित आर्या के परिपालन की विधि तथा उसकी उनके ऐसा न करने पर प्रायश्चित्त। स्वनिश्रा से अवर्णवाद-अवहेलना करने वाले को प्रायश्चित्त भी स्वयं वस्त्र ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त। आदि। ४१६४-४१७१ आचार्य द्वारा आर्याओं को उपधि देने से पूर्व ४१३४-४१३७ प्रसूता साध्वी के दो प्रकार। उनके परिपालन की उसके संस्कार करने तथा देने की विधि। विधि तथा अवज्ञा न करने का निषेध। कुकर्म के ४१७२-४१८२ भद्रक और अभद्रक श्रावकों के पास से वस्त्र लेने विषय में केशि और सत्यकी का उदाहरण। की विधि। आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणी, ४१३८,४१३९ पांच स्थानों से स्त्री पुरुष के साथ असंवास गणधर तथा गणावच्छेदी के एक-एक के अभाव करती हुई भी गर्भ धारण कर सकती है। उन पांच में अपर की निश्रा में वस्त्रग्रहण की विधि। स्थानों का स्वरूप। ४१८३ अपवाद की स्थिति में अकेली आर्या को गृहस्थ ४१४०,४१४१ आर्यिका की गर्भ स्थिति में आचार्य द्वारा श्रावकों की निश्रा में रहने की कल्पनीयता। घर की के घर स्थापित करने की विधि तथा श्रावकों का निर्दोषता का स्वरूप। दायित्व। ४१८४-४१८७ अकेली साध्वी को शय्यातर की निश्रा में वस्त्र ४१४२-४१४५ प्रतिसेवना आदि का अनुमोदन करने पर क्रमशः ग्रहण की विधि। प्रायश्चित्त वृद्धि तथा अपत्य के स्तनपान से ४१८८ मैथुन सेवन के लिए वस्त्र दाता के लक्षण। विरत न होने तक तपोर्ह प्रायश्चित्त नहीं। सूत्र १४ ४१४६,४१४७ प्रतिसेवना करने वाली आर्या की खिंसना करने ४१८९ श्रमणों अथवा मुमुक्षुओं के लिए वस्त्र ग्रहण का वाले मुनि और साध्वी को प्रायश्चित्त तथा कथन। प्रतिसेवना की आलोचना कर प्रतिनिवृत्त होने ४१९०,४१९१ द्रव्यतः प्रव्रजित की चतुभंगी। द्रव्य निर्ग्रन्थ और वाली आर्यिका की खिंसना करने पर भी भाव निर्ग्रन्थ का स्वरूप। प्रायश्चित्त। ४१९२ संवास के चार प्रकार। चतुष्टय के आधार पर वत्थगहण-पद षोडशभंगी का निरूपण। सूत्र १३ ४१९३,४१९४'अहवण' का तात्पर्य और उसके अन्तर्भूत होने ४१४८ निर्ग्रन्थी के सचेल होने की नियमा। उसके बिना वाले सोलह भंगों का चार भंगों में निरूपण। संयम की च्युति। अतः वस्त्रग्रहण की विधि का मनुष्यणी के साथ संवास करने वाले यक्ष का निर्देश। दृष्टान्त। ४१४९,४१५० स्वयं आर्या के वस्त्रग्रहण करने का प्रतिषेध और ४१९५ रजोहरण, गोच्छग और प्रतिग्रह का क्रमशः साधुओं द्वारा आर्यिकाओं के वस्त्र लेने की विमध्य, जघन्य, उत्कृष्ट उपधि के रूप में निरूपण। अनुज्ञा। कृत्स्न वस्त्र के ग्रहण का तात्पर्य। ४१५१ कारण में स्वयं आर्यिका को किसी की निश्रा में ४१९७-४१९९ प्रव्रजित होने वाला मुमुक्षु का धर्मसंघ के प्रति वस्त्र ग्रहण करने की अनुज्ञा। निश्रा की व्याख्या। कर्तव्य। असामर्थ्य की स्थिति में यथाक्रम हानि ४१५२ निश्रा के विषय में आचार्य द्वारा प्रवर्तिनी को न करते हुए शिष्य को गुरु द्वारा सब कुछ देय। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम शाला गाथा संख्या विषय ४२००,४२०१ निर्दिष्ट-अनिर्दिष्ट के आधार पर क्रीतकृत के प्रकार। ४२०२-४२१० विशोधिकोटि विषयक अथवा अविशोधिकोटि विषयक क्रीतकृत का स्वरूप। तद्विषयक आचार्यों के मत-मतान्तर। उससे संबंधित सहस्रानुपातिविष और मेरु महीधर का दृष्टान्त। ४२११ उद्गमकोटि के भेद तथा विशोधिकोटि के भेद के आधार पर प्रत्येकभंग और मिश्रभंगक का निरूपण। ४२१२-४२१७ रजोहरण आदि उपकरण खरीदने योग्य कुत्रिकापण। उसके स्वरूप का वर्णन। क्रायक और ग्राहक के आधार पर वस्तु के मूल्य का निर्धारण। ४२१८ कुत्रिकापण की उत्पत्ति कैसे? उनका वर्णन। ४२१९-४२२३ प्राचीन काल में किन-किन नगरों में कुत्रिकापण की सुविधा? ४२२४-४२२८ प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले मुमुक्षु के लिए सात निर्योगों का निर्देश। उनको आचार्य आदि को देने की व्यवस्था कब और कैसे? ४२२९-४२३२ एक बार दीक्षा लेकर गृहवास में जाने पर पुनः प्रव्रज्या में अभ्युत्थान की सिद्धि कैसे? शिष्य की जिज्ञासा। इस प्रसंग में वीरणसढक का दृष्टान्त। अभ्युत्थान के दो प्रकार तथा उनका स्वरूप। सूत्र १५ ४२३३,४२३४ प्रव्रज्या ग्रहण करने वाली निर्ग्रन्थी के लिए निर्योग ग्रहण की संख्या तथा उनको कब और कैसे आचार्य आदि को देने की व्यवस्था। सूत्र १६,१७ ४२३५,४२३६ प्रथम समवसरण काल (वर्षाकाल) में वस्त्र ग्रहण की अकल्पनीयता तथा दूसरे वर्षाकाल में कल्पनीयता। सोपधिकशैक्षलक्षण द्रव्य कब, कहां ग्राह्य और अग्राह्य ? ४२३७-४२४१ शिष्य की जिज्ञासा-उद्देश कृत वस्त्र की अकल्पनीयता में क्या आधाकर्म आदि पन्द्रह उद्गम दोष वस्त्र का ग्रहण कल्पनीय हो सकता है ? आचार्य द्वारा समाधान। ४२४२-४२४५ समवसरण के उद्देशों की विधि निक्षेपों के द्वारा व्याख्या। गाथा संख्या विषय ४२४६-४२४८ क्षेत्र और काल से प्राप्त-अप्राप्त की चतुर्भगी। उसका स्वरूप। ४२४९-४२५१ वर्षा ऋतु योग्य कल्प से अधिक उपधि लेने की आज्ञा। उसका कारण और उससे संबंधित कुटुम्बी का दृष्टान्त। ४२५२-४२५८ वर्षाऋतु योग्य अधिक उपकरण नहीं रखने से होने वाली संयमविराधना-आत्मविराधना आदि दोष। ४२५९-४२६२ वर्षाऋतु योग्य अधिक उपकरण रखने में आपवादिक कारण। वर्षा ऋतु के योग्य उपकरण। ४२६४-४२६६ प्रथम समवसरण में वर्षाऋतु योग्य उपकरण लिए जा सकते हैं या नहीं? शिष्य की शंका। यदि लिए जा सकते हैं तो उनका क्रम तथा तद्विषयक उत्सर्ग-अपवाद मार्ग की विधि। ४२६७-४२७१ वर्षा ऋतु में आने वाले व्याघात तथा तन्निमित्तक उपकरणों की गवेषणा करने के स्थानों का क्रमशः विवेचन। ४२७२-४२७६ कारणवश वर्षा क्षेत्र से बाहर जाने और वस्त्रादि ग्रहण करने में गुणवृद्धि । वर्षा काल में जाने की दूरी का प्रमाण तथा कारण वश वस्त्रग्रहण करने के १६ दोष। प्रथम समवसरण में उन दोषों की वर्जना नहीं। ४२७७-४२७९ दर्पवश प्रथम समवसरण में गृहीत पात्र-वस्त्र परिष्ठापनीय तथा प्रायश्चित्त। ४२८०-४२८४ किस काल में, किस विधि से तथा कितने मास पर्यन्त चौमासे में रहना चाहिए, उसका निरूपण तथा उसके कारण। ४२८५ वर्षावास के तीन प्रकार। ४२८६ ज्येष्ठावग्रह-उत्कृष्ट वर्षावास का कालमान। ४२८७ चातुर्मास के बाद विहार के काल का निर्धारण अन्यथा प्रायश्चित्त। ४२८८-४२९० वर्षावास क्षेत्र को छोड़कर श्रमण श्रमणियों के अन्य ग्राम, नगरों में वस्त्रादि ग्रहण करने की विधि। ४२९१-४२९६ अशिव, दुर्भिक्ष आदि कारणों से चतुर्मास के बाद विहार न होने पर वस्त्रग्रहण का प्रतिषेध । समयावधि में वस्त्रग्रहण का निर्देश। ४२९७-४३०० ऋतुबद्धकाल में वस्त्रादि ग्रहण की विधि और Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० बृहत्कल्पभाष्यम् मल गाथा संख्या विषय अपवाद आदि। अविधि में अदत्तादि दोष और प्रायश्चित्त। ४३०१-४३०७ अविधि और विधि भेद से पृच्छा के दो प्रकार। वस्त्र गवेषणा के लिए विधि पृच्छा। आपवादिक कारण। - सूत्र १८ ४३०८ यथारात्निक वस्त्रों के विभाजन की सार्थकता। अविनय आदि दोषों की निःशेषता। ४३०९-४३१४ एकाचार्य प्रतिबद्ध, साम्भोगिक-असाम्भोगिक तथा अनेकाचार्यप्रतिबद्ध क्षेत्र में निर्ग्रन्थ संघाटक के वस्त्र लाने की विधि। वृषभ मुनियों द्वारा वस्त्रों का यथारानिकों को क्रम से देने का विधान तथा गुरु के योग्य वस्त्र। ४३१५-४३१८ रत्नाधिक कौन? उनका स्वरूप। किसको कब और कैसे वस्त्र देने का विधान। ४३१९-४३२४ अनेक साधुओं द्वारा आनीत वस्त्र के विभाजन की विधि। वस्त्र लाने वाले निर्ग्रन्थों द्वारा संक्षोभ अथवा कलह करने पर वस्त्रों के विभाग का अलग अलग प्रकार। ४३२५-४३२८ असंतुष्ट साधुओं द्वारा विभाजन की पद्धति मान्य न होने पर उनको समझाने की पद्धति। समझाने पर भी शांत न होने पर उनको मनोनुकूल वस्त्र देकर संबंध विच्छेद का निर्देश। अपनी गलती को स्वीकार करने पर खरंटना और भर्त्सना की पद्धति। पाशे फेंकना आदि शेष विधियों का परामर्श देने वालों को भी प्रायश्चित्त का विधान। ४३२९ वस्त्रों के समविभाग करने का स्वरूप और उनको देने की पद्धति। ४३३०,४३३१ क्षपक द्वारा लाए गए वस्त्रों के विभाजन की विधि। ४३३२-४३३४ क्षपक द्वारा आनीत तथा उसी के द्वारा दीयमान वस्त्रों को देखकर मुनि द्वारा निषेध किए जाने पर क्षपक द्वारा सचित्त-अचित्त तथा मिश्र ग्रहण की विधि का प्रतिपादन। ४३३५-४३३८ सचित्त ग्रहण का स्वरूप-आचार्य, अभिषेक, भिक्षु, क्षुल्लक और स्थविर-इन पांच निर्ग्रन्थों के पानी, अग्नि, चोर, दुर्भिक्ष आदि में फंस जाने अथवा घिर जाने पर उनमें किसको किस क्रम से बचाया जाए, तद्विषयक विधि। गाथा संख्या विषय ४३३९-४३४१ प्रवर्तिनी, अभिषेका, स्थविरा, भिक्षुणी और क्षुल्लिका-इन पांच निर्ग्रन्थियों के पानी आदि में फंस जाने पर उनको क्रम से बचाने की विधि। ४३४२-४३४६ बाल, वृद्ध अजंगम भी अनुकंपनीय हैं फिर आचार्य आदि का ही निस्तारण क्यों ? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। ४३४७-४३५२ मिश्र ग्रहण का स्वरूप आचार्य, उपाध्याय आदि निर्ग्रन्थ तथा प्रवर्तिनी उपाध्याया आदि निन्थियों-इन उभय पक्षों के एक साथ पानी आदि उपद्रव में फंसने पर उनको क्रम से पार उतारने की विधि। ४३५३-४३५९ अचित्त ग्रहण के दो प्रकार अभिनव-ग्रहण और पुराण ग्रहण। इनका स्वरूप और इनके नाना भेद। ४३६० यथायोग्य औधिक और औपग्रहिक उपकरणों के परिभोग की तालिका। ४३६१ पूर्व कथनीय को पश्चात् कहने पर प्रायश्चित्त । ४३६२ अहंकारयुक्त वचन कहने का निषेध। ४३६३ मूल के बिना वृक्ष की शोभा नहीं। ४३६४-४३६६ दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों का निरूपण। सूत्र १९ ४३६७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को यथारात्निक के क्रम से शय्या और संस्तारक लेने की कल्पनीयता। ४३६८ शय्या-संस्तारक का अर्थ। शय्या-संस्तारक के ग्रहण का काल। अग्रहण में प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। ४३६९ विकाल में वसति ग्रहण के दोष तथा तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त। ४३७०-४३७२ पूर्वाह्न में वसति ग्रहण करें या नहीं? शिष्य का प्रश्न आचार्य द्वारा समाधान। ४३७३,४३७४ मंडलीबंध में भोजन करने से लगने वाले दोष। ४३७५ विकालवेला में वसति में याचना करने पर तथा वेश्यापाटक आदि जुगुप्सित स्थान में निवास करे तो प्रायश्चित्त। ४३७६,४३७७ विकालवेला में श्वापद, चोर आदि का भय। स्तेन के दो प्रकार। पृथक्-पृथक् रूप में वसति में रहने की परवशता। उनसे होने वाले दोष। ४३७८,४३७९ अप्रत्युपेक्षित वसति में रहने से होने वाली विराधना और दोष। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ४३८० मूत्र, मल तथा वमन आदि का निरोध करने से उत्पन्न होने वाली शारीरिक व्याधियां। ४३८१,४३८२ विवक्षित गांव में वसति की याचना कब, कैसे? और प्रवेश विधि। ४३८३ उपाश्रय नहीं मिलने पर शून्यगृह आदि में रहने का विधान। ४३८४ शून्यगृह आदि में लोगों का आवागमन होने पर आहार करने की विधि, तत्पश्चात् गांव प्रवेश का कथन। ४३८५,४३८६ रात्री में वसति प्रवेश विधि और गच्छ प्रवेश की विधि। ४३८७ आचार्य के लिए तीन संस्तारक भूमियों का निर्धारण। वसति के तीन प्रकार और उनका स्वरूप। ४३८८ शयनविधि के उल्लंघन में प्रायश्चित्त और अधिकरण आदि दोष। ४३८९ संस्तारक ग्रहण काल में वेटिका उत्क्षेपण का विधान। ४३९० वेटिका उठाने से होने वाले लाभ। ४३९१ संस्तारकग्रहण काल में माया करने के दोष और प्रायश्चित्त। ४३९२-४३९५ मायाकरण के प्रकार और प्रायश्चित्त। ४३९६ धर्मकथा करने से होने वाले गुण। ४३९७ मायावी निद्रालु का लक्षण और उसे प्रायश्चित्त। ४३९८,४३९९ रत्नाधिक मुनियों का संस्तारक ग्रहण करने का क्रम। ४४०० इच्छापूर्वक अभिग्रह ही अनुमत। ४४०१ अपावृत मुनि पर अनुग्रह क्यों? ४४०२,४४०३ क्षुल्लक को उचित स्थान में सुलाने का कारण। ४४०४ वैयावृत्यकर और शैक्ष को किसके पास रखा जाए? ४४०५-४४०९ किस मुनि को किस वसति में सोना चाहिए तथा परस्पर शयनभूमि के आदान-प्रदान की विधि। ४४१० कलहशील दो मुनियों को एक साथ रखने का निषेध। ४४११-४४१३ समागत प्राघूर्णक को यथायोग्य संस्तारकभूमि देने की विधि। 'रंगभूमी में ऋद्धिमान् पुरुषों' का उदाहरण। गाथा संख्या विषय सूत्र २० ४४१४ मुनि के लिए वाचिक कृतिकर्म और वंदन करने का विधान। ४४१५ कृतिकर्म के प्रकार। ४४१६-४४२० निग्रंथ-निग्रंथियों को पार्श्वस्थ, अन्यतीर्थिक, गृहस्थ, यथाच्छंद, अन्यतीर्थिनी और संयतीवर्ग को अभ्युत्थान करने से आने वाला प्रायश्चित्त और संभावनीय दोषों का वर्णन। ४४२१-४४२६ प्राघूर्णक, आचार्य, अभिषेक, भिक्षु और क्षुल्लक के आने पर अभ्युत्थान न करने पर प्रायश्चित्त विधि। ४४२७ भिन्नमास आदि द्वितीय आदेश का प्रवर्तन क्यों? उसका समाधान। ४४२८,४४२९ बाल साधु को गुरुतम प्रायश्चित्त क्यों ? उसका समाधान। ४४३०-४४३६ प्राघूर्णक और आचार्य के प्रति अभ्युत्थान नहीं करने पर होने वाली हानि। इस विषय में दास राजा का दृष्टांत और उसका प्रशस्त-अप्रशस्त उपनय। ४४३७ स्वगच्छ के आचार्य का देखकर अनेक कार्यों में व्याप्त साधुओं द्वारा अभ्युत्थान नहीं करने पर प्रायश्चित्त। ४४३८ शिष्यों द्वारा आचार्य का अभ्युत्थान करने की विधि। ४४३९-४४४२ अभ्युत्थान करने से विनय, आदि अनेक लाभों की चर्चा। ४४४३-४४४६ चंक्रमण करते हुए, प्रस्रवण भूमी और संज्ञाभूमी से आने पर साध्वियों, श्रावकों, असंज्ञियों, संज्ञिनी स्त्रियों, राजा, अमात्य तथा संघ आदि के साथ आने पर आचार्य का अभ्युत्थान नहीं करने पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त और उनका कारण। ४४४७ चंक्रमण करते हुए आचार्य का अभ्युत्थान क्यों ? शिष्य का प्रश्न। ४४४८ जीव का स्पन्दन निष्कारण नहीं तो चंक्रमण क्यों ? ४४४९ योग संग्रह के प्रकार। उपयुक्त योग गुणकारी। ४४५० समितियों और गुप्तियों में स्थित मुनि सचेष्ट और अगुप्तिजनक प्रमाद का निरोध करता है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ४४५१-४४५४ जो समित है वह नियमतः गुप्त कैसे? इसका समाधान। ४४५५ हाथ आदि की चेष्टाएं भी ईर्यासमिति के अंतर्गत। ४४५६ चंक्रमण के लाभ। ४४५७ अभ्युत्थान करना विकल्पनीय कब? ४४५८ चंक्रमण करते हुए आचार्य का अभ्युत्थान आवश्यक। 'भद्रक भोजिक' का दृष्टान्त। ४४५९ वृषभ मुनियों द्वारा अभ्युत्थान न करने वाले शिष्यों की सारणा नहीं करने पर प्रायश्चित्त। गच्छ में प्रतीच्छक मुनियों के दो प्रकार। ४४६० गच्छ में रहने वाले प्रतीच्छक पंजरभग्न शिष्यों का चिंतन। ४४६१ उद्यतचरण वाले मुनियों का चिंतन तथा पंजरभग्न मुनियों के प्रति उदासीनता। ४४६२ पार्श्वस्थ आदि को छोड़कर आए हुए श्रमण को देखकर अन्य साधुओं में श्रद्धा का भाव वृद्धिंगत। ४४६३ मर्यादा की हानि देखकर संयमाभिमुख श्रमण के दूसरे गच्छ में जाने से होने वाली हानि। ४४६४ कौन सा गच्छ तजनीय ? ४४६५,४४६६ आचार्य आदि का अभ्युत्थान न करने वाले के प्रकारान्तर से प्रायश्चित्त। ४४६७ दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिकादि आवश्यक में आचार्यादि को वंदना न देने पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्तों का विधान। ४४६८ आचार्य, वृषभ, भिक्षु और क्षुल्लक के काल और तप से होने वाला विशेषित प्रायश्चित्त का विधान। ४४६९ दैवसिक और रात्रिक में चौदह वंदनक देने की विधि। न देने पर प्रायश्चित्त। आवश्यक बोलते समय विपरीत उच्चारण करने अथवा कम या अधिक पदापद बोलने पर प्रायश्चित्त। ४४७० वंदनक विषयक पचीस आवश्यक न करने पर प्रत्येक का मासलघु। ४४७१-४४९५ वंदनक विषयक अनादृत, स्तब्ध प्रवृद्ध परिपिंडित आदि बतीस दोष। उनका स्वरूप तथा उनसे होने वाला प्रायश्चित्त। ४४९६ आचार्य आदि का कृतिकर्म करने की विधि। अविधि में प्रायश्चित्त। ४४९७ प्रतिक्रमण पूरा होने पर पश्चात् वन्दनविधि। गाथा संख्या विषय उसका प्राचीन स्वरूप। वर्तमान में वंदना की विधि। ४४९८,४४९९ मौलिक वन्दन विधि को बदलने का कारण, शिष्य की शंका। आचार्य का समाधान। ४५००-४५०२ आचार्य से पर्याय ज्येष्ठ होने पर आचार्य को वन्दन करना या नहीं? उसकी विधि तथा आचार्य से रत्नाधिकों का स्वरूप। ४५०३-४४०५ कृतिकर्म किसे करना चाहिए, किसे नहीं ? उसका स्वरूप। श्रेणीस्थित को वन्दन करने की विधि। ४५०६ निश्चयनय के अनुसार चारित्र अध्यवसाय किस समय कौनसा ? आचार्य द्वारा समाधान । व्यवहार का स्वीकरण। ४५०७ अर्हत्-केवली छद्मस्थ मुनि को क्यों और कब तक वन्दन करते हैं ? आचार्य द्वारा उसका समाधान। ४५०८ वह केवली है, यह कैसे जाना जाता है ? उसका उत्तर। ४५०९,४५१० संयमश्रेणी के प्रकार और जीव प्ररूपणा के दस प्रतिद्वार। ४५११ अविभाग परिच्छेद का स्वरूप। ४५१२ चारित्र के प्रदेश कितने? उसका समाधान। ४५१३,४५१४ जीव किस भव में कब और कैसे सिद्ध होता है ? उसका उत्तर। ४५१५ कृतिकर्म किसका आवश्यक ? बाह्य श्रेणी के चार भेद। ४५१६-४५१९ शिष्य की जिज्ञासा-रजोहरण आदि से मुक्त मुनि संयमश्रेणी से निर्गत होता है, पर प्रकट लिंग मुनि संयमश्रेणी से कैसे निर्गत माना जा सकता है। आचार्य द्वारा शर्करा घटों का दृष्टान्त और उनका उपनय। ४५२० संयम से भ्रष्ट होने के विविध कारण। ४५२१-४५२३ मूल गुण का प्रतिसेवी और उत्तरगुण का प्रतिसेवी किस प्रकार कब भ्रष्ट होता है, उसको समझाने के लिए संकर-कचरे, सर्षपशकट, सर्षपमंडप, तैल भावित वस्त्र और मरुक-ब्राह्मण का दृष्टांत। ४५२४ कृतिकर्म के वर्ण्य कौन? ४५२५ पुलाक की भांति पूज्य कौन ? ४५२६ दोष को प्राप्त नहीं होने के कारण? ४५२७ किस मुनि की संयम कारक अयतना दोषकारक नहीं मानी जाती? Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ४५२८-४५३० संयत असंयत में भेदरेखा। धनिक का दृष्टान्त। ४५३१ संसार सागर में गिरने वाला और पार होने वाला कौन ? दृष्टान्तपूर्वक विवेचना। ४५३२ वन्दन कार्य और कार्यकार्य की विवेचना तथा इन दोनों में भजनीय कौन? ४५३३ कृतिकर्म, कुलकार्य से बाह्य कौन ? ४५३४ गच्छ में नियमतः कार्य करने वाले चार प्रकार के मुनियों की विकल्पनीयता। ४५३५-४५४० वन्दना किसको, किसको नहीं। वन्दना करने के आपवादिक कारण। कारण में वंदन न करने पर 'अजापालक वाचक' के शिष्यों की भांति दोष भागिता। ४५४१ पार्श्वस्थ आदि के प्रति दोनों प्रकार का कृतिकर्म का प्रतिषेध । आपवादिक स्थिति में अनुज्ञा। ४५४२,४५४३ पार्श्वस्थ आदि की गवेषणा करने के कारण तथा गवेषणीय स्थान। ४५४४,४५४५ संयमधुरा को छोड़ने वालों के प्रति वन्दन व्यवहार के विविध प्रकार। ४५४६ पार्श्वस्थ आदि का कृतिकर्म परिहार्य क्यों? ४५४७ अकार्य करने वालों को दंड। ४५४८ पार्श्वस्थ आदि का अपाय देखकर उसकी वर्जना के उपाय। ४५४९ पार्श्वस्थों को यथायोगग्य वाङ्नमस्कार नहीं करने पर होने वाले दोष। ४५५०-४५५३ पार्श्वस्थों के परिवार आदि में ज्ञान, दर्शन, चारित्र को देखकर, जानकर कृतिकर्म करने का विधान। अंतरगिह-पदं सूत्र २१,२२ ४५५४ रत्नाधिक के लिए दो गृहों के अंतराल में रहने की कल्पनीयता। ४५५५,४५५६ गृहान्तर के प्रकार और व्याख्या। मुनि के लिए दोनों गृहान्तरों में गोचरी जाने का निषेध। वहां रहने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। ४५५७ गृहान्तर में बैठने और ठहरने की अनुज्ञा क्यों नहीं? ४५५८ गृहान्तरों में स्थविर आदि के बैठने की अनुज्ञा।। ४५५९-४५६५ औषध, संखड़ी, संघाटक, वर्षा, प्रत्यनीक आदि कारणों से गृहान्तर में बैठने, खड़े होने तथा ठहरने का विधान और उससे संबंधित यतनाएं। गाथा संख्या विषय सूत्र २३ ४५६६ अन्तरगृह में गाथोपदेश करने की वर्जना। ४५६७-४५७५ भिक्षा के लिए निर्गत मुनि को गृहस्थ के घर में संहिताकर्षण आदि क्यों नहीं करना चाहिए? तद्विषयक लगने वाले दोषों का वर्णन, प्रायश्चित्त और अन्तर गृह में बैठने के दोष। ४५७६-४५८६ विवक्षित अर्थ का समर्थक दृष्टान्त-उदक का दृष्टान्त तथा व्याकरण का अर्थ। खड़े खड़े अथवा भिक्षा के लिए घूमते-घूमते धर्म कथन करना वर्जित। ४५८७-४५८९ चलते हुए मुनि को धर्म कथन का वर्जन। श्रमण को कैसी कथा करनी चाहिए, कैसी नहीं करनी चाहिए, उसका निर्देश। ४५९०-४५९७ जिनवचन की महिमा। धर्मकथा का अन्तरगृह में वर्णन करने पर लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त । सेज्जा संथारय-पदं सूत्र २५ ४५९८ प्रतिश्रय के मध्य संस्तारक-निक्षेपण की अकल्पनीयता। ४५९९-४६०३ शय्या अथवा संस्तारक के दो प्रकार। उनको बिना संभलाए विहार करने पर प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। ४६०४ अनेक मुनियों द्वारा भिन्न घरों से संस्तारक लाने पर प्रत्यर्पण काल में उसी घर में भुलाने की विधि। अन्यथा माया दोष। ४६०५ संस्तारक के एक-अनेक पदों से आठ प्रकार की भजना। ४६०६ संस्तारक के आनयन और प्रत्यर्पण की भजना का रूप। ४६०७-४६०९ विशेष स्थिति में संस्तारक मालिक को न देने पर अथवा अन्य किसी गृहस्वामी को देने का अपवाद। सूत्र २६ ४६१० संस्तारक के दो प्रकार। ४६११-४६१४ सागारिकसत्क संस्तारक को प्रस्थान करते समय बिखेरने की विधि। अन्यथा प्रायश्चित्त और दोष। उत्सर्ग और अपवादविधि। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ गाया संख्या विषय ४६१५ ४६१६ ४६१९ संस्तारक कोई ले न जाए, अतः वसति को सर्वथा शून्य न करने का निर्देश। वैसा करने पर तद्विषयक प्रायश्चित्त वसतिपाल के रूप में बाल, ग्लान या अव्यक्त मुनि को स्थापित करने पर प्रायश्चित्त । ४६२०,४६२१ वसति को सुरक्षित करने पर संस्तारक का विनाश ही नहीं होगा और वसतिपाल स्थापनीय से प्रस्तुत सूत्र की सार्थकता कैसे रहेगी? शंका और उसका समाधान । ४६२२-४६२४ मुनि की निश्रा में संस्तारक को किसी के ले जाने पर समझाने के लिए धर्मकथा आदि करने की विधि । द्रमक को भय दिखाने का निर्देश । चोरी करना इहलोक और परलोक के लिए अहितकारी। ४६२५ सूत्र २७ संस्तारक के गुम होने अथवा किसी के ले जाने पर अप्रमाद के लिए गवेषणा समाचारी का निर्देश | ४६२६, ४६२७ पिता, पुत्र आदि द्वारा संस्तारक लिए जाने पर उनके अभिभावकों से कहे। न माने तो महत्तर को कहने का विधान । ४६२८ संस्तारक ग्रहण करने के लिए पहले भोजिक को, फिर आरक्षक को, अंत में राजा तक पहुंचाने का निर्देश | राजा को शिकायत अंत में क्यों ? ४६२९ ४६३०,४६३१ दृष्ट संस्तारक को अर्पित करने की विधि। अदृष्ट संस्तारक की गवेषणा विधि। ४६३२ ४६३३ संस्तारक के चोर को पकड़ने के लिए आभोगिनी विद्या आदि के प्रयोग का निर्देश। ४६३४-४६३६ भोजिक आदि के द्वारा गवेषणा न करने पर स्वयं साधु द्वारा व्यक्ति को हराने का निर्देश। ४६३७-४६३९ संस्तारक को प्राप्त करने की विधियां । सचित्त पृथ्वीकाय आदि पर निक्षिप्त संस्तारक को ग्रहण कर मूल स्वामी को देने की विधि । न मिलने पर दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञापना । ४६४०-४६४८ संस्तारक आदि नष्ट या अपहृत हो जाने पर स्वामी यदि उसकी मांग पर अड़ा रहे तो उसको समझाने अथवा अन्य प्रान्त उपकरण देकर गाथा संख्या विषय ४६४९ ४६५० ४६५१ ४६५२ ४६५३ ४६५४ ४६५५ का कथन । अवग्रह और प्रव्रजित पुरुष के प्रकार । शैक्ष के दो प्रकार । जानने वाले शैक्ष के चार प्रकार । ४६५६,४६५७ वास्तव्य शैक्ष के पांच प्रकार तथा उनका स्वरूप। ४६५८ आगन्तुक शैक्ष के भी क्रमशः प्रकार । ४६५९-४६६२ वास्तव्य और वाताहृत शिष्य का द्वार गाथाओं से वर्णन | ४६८३ बृहत्कल्पभाष्यम् ४६६३-४६७२ रूपज्ञ, शब्दज्ञ, उभयज्ञ और यशः कीर्तिज्ञ वास्तव्य तथा वाताहृत शैक्षविषयक चार नवकनवभंगी तथा तद्विषयक अवग्रह का स्वरूप। ४६७३-४६७६ पूर्व परिचित साधुओं के विहरण के पश्चात् दीक्षा लेने का इच्छुक शैक्ष यदि उन्हीं के पास प्रव्रज्याग्रहण करना चाहता है तो आगन्तुक श्रमणों का उसको प्रतिबोध | ४६७७-४६७९ ज्ञापित और इतर वाताहत और क्षेत्रिकों की यशः कीर्ति को नहीं जानने वाले वास्तव्य शैक्ष के चार नवक आगन्तुक आचार्य द्वारा उनको क्षेत्रिक आचार्य के पास प्रेषित करने की विधि। न भेजने पर प्रायश्चित्त । ४६८०-४६८२ स्वग्रामविषयक और परग्रामविषयक पुरुष के छह-छह प्रकार। मुण्डित पुरुष और स्त्री, ज्ञायक और ज्ञापित तथा शिखा वाले शैक्ष के चार द्वादशक। अव्याहत, यावज्जीव और पराजित तीनों शैक्षों के स्वग्राम परग्राम विषयक बारह प्रकार । ऋजु अऋजु आचार्य का लक्षण | ४६८४ उसको संतुष्ट करने का उपक्रम । मुनि के लिए संस्तारक गवेषणा नहीं करने के आपवादिक कारण। ओग्गह-पदं सूत्र २८ साधुओं के विहरण करने के पश्चात् पूर्व क्षेत्र कितने समय तक अवग्रहयुक्त रहता है, उसकी प्ररूपणा । शैक्षविषयक अवराह की उत्पत्ति की संभावना । अवग्रह का चिंतन कब ? क्षेत्रावग्रह के कालप्रमाण की अवधि । भिन्नभिन्न आचार्य की मान्यता । आचार्य द्वारा विधि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ४६८५-४६८७ आभाव्य अनाभाव्य का विभाग । ४६८८ ४६८९, ४६९० अचित्तविषयक विधि का प्रतिपादन । ४६९१-४६९९ एक अथवा अनेक आचार्यों को उद्दिष्ट कर आने वाले शैक्षविषयक आभाव्य-अनाभाव्य का विभाग। ४७००-४७०९ अपनी इच्छा से अभाव्य, उपशान्तक का आभाव्य आदि आभाव्य के नाना रूप । द्व्यक्षर ४७१० ४७११ ४७१२ ४७१७ प्रकार | ४७१३,४७१४ जिनके पास शैक्ष भेजा गया है वे यदि उसे स्वीकार नहीं करते हैं तो उनको प्रायश्चित्त । ४७१५,४७१६ मुंडित अथवा अमुंडित शैक्ष कब आभाव्य नहीं होता, उसका वर्णन। दीक्षा संकेत देने के बाद जब तक दीक्षित न करे तब तक शैक्ष द्वारा कृत हिंसा की अनुमोदना साधु को । ४७१८-४७३८ शैक्षविषयक अनेक प्रकार के संकेत । संकेत किए हुए शैक्षविषयक आभाव्य अनाभाव्य की विधि । शिष्य के विपरिणामन का स्वरूप ज्ञान दर्शनचारित्रविषयक गर्हा का तथा मन-वचन-कायाविषयक ग का स्वरूप | कल्पविधि के अतिरिक्त अन्य कल्पविधि का आचारण करने पर होने वाले परिणाम। सूत्र २९ अस्वाधीन साधर्मिक के अवग्रह का प्रतिपादन । किंचिद् शब्द से ग्राह्य आहार और उपधि के दोदो प्रकार । ४७३९ ४७४० ४७४१ सचित-अचित्त का विभाग । अचित्त के दो प्रकार । सोपधिक शैक्ष कौन होता है ? ४७४२ ४७४३ ४७४४ खरदृष्टान्त का दृष्टान्त । ग्लान की सेवा में संलग्न मुनि यदि प्रव्रजित शैक्ष की सार-संभाल न कर पाए तो दीक्षा का प्रतिषेध । दीक्षा देने पर प्रायश्चित्त । मुंडितअमंडित शैक्ष के प्रकार । शैक्ष की वैयावृत्य न करने पर प्रायश्चित्त । प्रव्रजित शैक्ष को दूसरे के पास भेजने के छह - गाथा संख्या विषय और उपधि के अवग्रह के ग्रहण की विधि । ४७४५-४७६१ तीर्ना संन्ध्याओं में उपाश्रय की प्रत्युपेक्षणा की विधि । न करने पर उससे लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त । अवग्रहविषयक अनेक प्रकार की यतनाएं। साधुओं के लिए प्रायोग्य की अनुज्ञापना है तो अर्थजात अप्रायोग्य है, उसका ग्रहण करना अतिप्रसंग है। शिष्य की शंका। भाष्यकार का समाधान । ४७६२ सूत्र ३० स्वामी द्वारा त्यक्त या अत्यक्त अवग्रह का प्रतिपावन । क्षेत्र के प्रकार और उनकी व्याख्या । क्षेत्र के दो प्रकारान्तर भेद तथा गृह के दो भेद । ४७६५-४७७२ वस्तु के तीन प्रकार । अव्यापृत, अव्याकृत, अपरपरिगृहीत, अमरपरिगृहीत पदों की व्याख्या तथा उनके उदाहरण । ४७६३ ४७६४ २५ ४७७३- ४७७६ जो अवग्रह जिस देव या मनुष्य से परिगृहीत है। उनसे अनुज्ञा लेकर वहां जाने की विधि। ४७७७ ४७७८ मुनियों के लिए अनुपभोज्य भक्तपान और उपधि । लन्द शब्द का अर्थ । प्रतिश्रय में रहते हुए अवग्रह का स्वरूप । प्रतिश्रय में पहले से रहने वाले वृषभों द्वारा आहार ४७८९ ४७७९-४७८६ महाराज भरत का भक्तपान लेकर अष्टापद पर्वत पर भगवान ऋषभ के दर्शनार्थ जाना। भरत के द्वारा भक्तपान अनेषणीय और अकल्पनीय जानकर साधुओं द्वारा अस्वीकार देवेन्द्र द्वारा भरत को अवग्रह का स्वरूप जानने के लिए भगवान से निवेदन की प्रार्थना । भगवान के द्वारा पांचों प्रकार के अवग्रहों का निरूपण भरत की संतुष्टि तथा साधुओं के लिए प्रायोग्य भक्तपान का वितरण । ४७८७,४७८८ अवग्रह विधि को जानकर भी अज्ञानवश उसे ग्रहण करने पर तीन प्रायश्चित्तों का विधान | किसको ग्रहण करने पर कौनसा प्रायश्चित ? उनके नाम । सूत्र ३१ राजावग्रह की मार्गणा का प्रतिपादन । अवग्रह के पांच प्रकार कौनसा अवग्रह अनवस्थित और कौन सा अवस्थित है ? सूत्र ३२ सागारिक अवग्रह और राजावग्रह के परिमाण का Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ गाथा संख्या विषय प्रतिपादन | ४७९०-४७९३ अनुकड्य, अनुभित्ति आदि पदों की व्याख्या तथा उनसे संबंधित अवग्रहों का प्रमाण । राजा के अधीन अवग्रहों का स्वरूप तथा उनका प्रमाण । ४७९४ ४७९५ ४७९६,४७९७ मासकल्प वाले क्षेत्र में शत्रुसेना, अशिव, अवमौदर्य आदि कारण जानकर वहां से निर्गमन की विधि । अन्यथा प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष । ४७९८ अवधिज्ञान आदि के द्वारा अशिव होने की सूचना जानकर उससे पहले ही निर्गमन करने की विधि। किन कारणों में क्षेत्र से निर्गमन नहीं किया जा सकता ? ४८००-४८०९ कई कारणों से क्षेत्र से निर्गमन न होने पर यहां किन-किन यतनाओं का अनुवर्तन होना चाहिए, उसका विवेक । यतना के पांच प्रकार । ४८१० ४८११-४८२० रोध के समय आठ वसतियों की प्रत्युपेक्षा करने की विधि। उनमें एक-एक मास रहने का कल्प। आठ वसतियों के अभाव में क्रमशः हानि होते होते एक ही वसति की प्रत्युपेक्षा । उसमें रहने की विधि और यतनाएं। ४७९९ ४८२१-४८२३ प्रथम स्थंडिल की प्राप्ति न होने पर शेष स्थंडिलों में गमन करते समय मात्रकग्रहण तथा व्युत्सर्ग करने की विधि। ४८२४ ४८२५ ४८२६ सेणा पर्व सूत्र ३३ गांव के चारों ओर परिखायुक्त प्राकार के निर्माण का कारण तथा राजा के अवग्रह में बहिर्गमन और प्रवेश विधि | ४८२७ ४८२८ मुनि के शव को परिष्ठापित करने की विधि | राजाज्ञा से शव को परलिंग करने का कारणविधि तथा न करने पर दोष । रोध के समय गोचरी कहां और कहां नहीं करनी चाहिए ? तद्विषयक यतना। आभ्यन्तर में प्रचुर अन्नपान की प्राप्ति होने पर बाहर जाने का निषेध उससे लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त आभ्यन्तर में पर्याप्त भक्तपान न मिलने पर गाथा संख्या विषय पंचक प्रायश्चित्त विधि से एषणा का प्रयत्न । अविशोधि कोटि दोषयुक्त भक्तपान लेने की विधि। ४८२९-४८३१ रोध के समय गोचरी के लिए द्वारपाल को जताकर बाहर जाने की अनुमति। आरक्षकों के द्वारा भक्तपान की व्यवस्था । ४८३२ बाहर जाने वाले मुनियों के गुण । ४८३३,४८३४ बहिर्गमन करने वाले मुनि के लिए अन्यजनों से सावध बातें सुनते हुए भी प्रत्युत्तर देने का निषेध | ४८३५,४८३६ मुनि कहां भोजन करे कहां नहीं? बहिर्गमन में सचित्त अर्थात् शैक्ष को प्रव्रज्या देने का निषेध | ४८३७,४८३८ बाहर भोजन करने के बाद नगर में प्रवेश करते समय द्वारपाल को भोजन देने न देने की विधि तथा चारिका की आशंका न हो, इस कारण से द्वारपाल को निवेदन । बहिर्निर्गत मुनि के लिए बाहर रहने के आपवादिक कारण। ४८३९ सूत्र ३४ ४८४० क्षेत्र प्रमाणविषयक सूत्र का कथन । ४८४१-४८४५ अवग्रह की विविध दृष्टिकोणों से व्याख्या । ४८४६-४८४८ अन्तरपल्लियों का अवग्रह तीन गच्छों के लिए साधारण दोनों प्रकार की उपधि और शैक्ष क्षेत्रीय मुनियों के आभाव्य । क्षेत्रीय मुनि आदि अक्षेत्रीय मुनियों को वस्त्र नहीं दे तो तीन प्रकार का प्रायश्चित्त । ४८४९ ४८५० ४८५१ ४८५२ बृहत्कल्पभाष्यम् ४८५७ ४८५३-४८५५ अवग्रह कहां नहीं ? ४८५६ ४८५८ ४८५९ ४८६० अक्षेत्रीय मुनियों का क्षेत्रीय मुनियों के स्थान में रहने से असंस्तरण पर प्रायश्चित्त । सीमा बनाकर रहने का निर्देश । वृषभग्राम की व्याख्या और उसमें रहने वाले मुनियों की संख्या का निर्देश । गृहस्थों को वस्त्रादिक देने का निषेध करने वालों से गण को हानि। एक वसति में स्थित मुनियों के अवग्रह की मार्गणा । उपाश्रय में स्वाध्याय भूमी आदि सबके लिए साधारण । चल क्षेत्र कौन से ? साधारण अवग्रह कब ? कैसे ? www.jainelibrary.arg Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ર૭. गाथा संख्या विषय ४८६१ गोचर, गोपानस्थान आदि अवग्रह नहीं होते। ४८६२ जिस व्रजिका में दो गच्छ स्थित हो वहां दोनों का अवग्रह समान। ४८६३-४८६५ वजिका के अवग्रह की भिन्न-भिन्न मार्गणाएं। ४८६६-४८७५ सार्थ संबंधी अवग्रह की मार्गणा। ४८७६ नगर संबंधी संवर्त में अवग्रह नहीं। चौथा उद्देशक पायच्छित्त-पदं सूत्र १ ४८७७ सूत्र के द्वारा सूत्र अथवा अर्थ से दूसरा सूत्र ग्रथित होता है। ४८७८ प्रस्तुत सूत्र का प्रयोजन। ४८७९ भिक्षाचर्या के लिए गए हुए मुनि के वहीं रात्रिवास करने पर प्रायश्चित्त। ४८८०,४८८१ वजिका में निवास करने वाले मुनि के दोषों का दिग्दर्शन। ४८८२ एक के निक्षेप पश्चात् तीन की निष्पत्ति। ४८८३ नाम, स्थापना आदि सात पद एक-एक होते हैं। ४८८४ द्रव्य तथा मातृकापद के तीन प्रकार तथा संग्रह एकक बहुत्व होने पर भी एक वचन। ४८८५ पर्याय और भाव के दो प्रकार। त्रिक का निक्षेप सात प्रकार से। ४८८७ द्रव्यत्रिक के प्रकार। ૪૮૮૮ परमाणुत्रिक आदि अचित्त तथा क्षेत्रत्रय के प्रकार। ४८८९ भाव के दो प्रकार। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार। ४८९०-४८९४ उद्घातिक और अनुद्घातिक का निक्षेप और उनकी व्याख्या। ४८९५,४८९६ हस्त के चार प्रकार तथा उनके भेद-प्रभेद। ४८९७ कर्मपद के चार निक्षेप। ४८९८ भावकर्म के प्रकार। ४८९९-४९१० असंक्लिष्ट कर्म के आठ प्रकार तथा उनके भेद प्रभेद और व्याख्या। ४९११-४९१४ यथानुपूर्वी संक्लिष्ट हस्तकर्म की परिभाषा। स्त्री की प्रतिमा के विविध भेद और यवन देश में प्रचलित स्त्री रूप प्रतिमा का दृष्टान्त। ४९१६ तत्रगत और आगंतुक सचित्त रूप का स्वरूप। गाथा संख्या विषय ४९१७-४९१९ स्त्रियों के आलिंगन आदि को देखने से मोहाग्नि का प्रदीप्त होना संभव। प्रदीप्त होने से होने वाले दोष और तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त। ४९२० छोटे गच्छ का बड़े प्रतिश्रय में रहने से दोष। ४९२१ अशिव आदि कारणों से विस्तृत वसति में रहने का निर्देश। ४९२२ विशाल उपाश्रय में साधुओं द्वारा भूमि पर संस्तारकों को अस्त-व्यस्त करने का निर्देश। ४९२३ विशाल उपाश्रय में रात्री वेला में रक्षणीय यतना। वेश्या स्त्री आदि को वर्जन। न माने तो वहां से प्रस्थान का निर्देश। ४९२४,४९२५ अपवाद में परुष वचनों से समझाने का निर्देश। न समझे तो व्यवहार करने का निर्देश। ४९२६-४९२८ उत्सर्गतः घंघशाला में ठहरने का निषेध। अपवाद में वहां रक्षणीय यतनाओं का स्वरूप। ४९२९,४९३० प्रतिसेवना करते देखकर सुविहित मुनि के कर्मोदय कैसे? उसका समाधान। ४९३१ हस्तकर्म करने से प्रायश्चित्त विधान के प्रकार। ४९३२-४९३९ अदृदधृति वाले मुनि के हस्तकर्म सेवन से प्रायश्चित्त के नाना प्रकार तथा प्रतिसेवना के लिए सदोष-अदोष भाषा का प्रयोग कर उसे कहने वालों को भी प्रायश्चित्त का विधान। ४९४० साध्वियों को हस्तकर्म कराने के लिए कहने वालों को प्रायश्चित्त का प्रकार। ४९४१ मैथुन के तीन प्रकार। ४९४२ मैथुन के तीनों प्रकारों में अपवाद से प्रतिसेवना करने पर प्रायश्चित्त क्यों? ४९४३ आचार्य द्वारा समाधान-प्रतिसेवना के दो प्रकार। किससे आराधना और किससे विराधना। ४९४४ मैथुन भाव में उत्सर्ग धर्मता ही अनुमत, अपवाद नहीं। अन्य पदों में दोनों अनुमत। ४९४५ कुशल आलम्बन के द्वारा अथवा अन्य किसी आलम्बन से अकृत्य का सेवन होने पर प्रायश्चित्त की हानि और वृद्धि। ४९४६ गीतार्थ मुनि के लिए कारण में यतनापूर्वक प्रतिसेवना निर्दोष, निष्कारण में सदोष। ४९४७ मैथुन की सदोषता निर्दोषता कब? ४९४८-४९५४ उपाय के निरूपण में बुद्धि का प्राधान्य। निर्वंशीय दृष्टान्त तथा मैथुनविषयक नाना स्थितियों में ४८८६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ बृहत्कल्पभाष्यम् ५०१२ गाथा संख्या विषय गाथा संख्या विषय भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त। मुनियों को देने की विधि। ४९५५-४९६० दुर्भिक्ष काल में गुरु के द्वारा संघ विसर्जित न होने ५००५ कषायदुष्ट के परिणामों की चर्चा। पर प्रायश्चित्त। भोजन के न मिलने पर होने वाली ५००६ विषयदुष्ट पारांचिक की स्वपक्ष-परपक्षदुष्ट गच्छ की हानि। क्षुल्लक मुनि का दृष्टान्त। द्वारा चतुभंगी। शिष्य द्वारा जिज्ञासा-तीन प्रकार के मैथुन में ५००७ प्रथम तथा दूसरे भंग में पारांचिक प्रायश्चित्त का इच्छा कैसे उत्पन्न होती है? उसके कारणों की विधान। व्याख्या। ५००८-५०१० रजोहरण आदि से युक्त संयमी द्वारा संयती के ४९६१-४९६७ रात्री भोजन करने पर प्रायश्चित्त का निर्देश। साथ प्रतिसेवना से लगने वाले दोष। तविषयक अपवाद और यतनाएं। ५०११ क्षेत्रिक दोष की उत्पत्ति से होने वाला क्षेत्र सूत्र २ पारांचिक। ४९६८,४९६९ देशतः और सर्वतः भेद से छेद के दो प्रकार। देश उपाश्रय-पारांचिक, कुल-पारांचिक, निवेशनछेद का कालमान और सर्वछेद के तीन प्रकार तथा पारांचिक, पाटक-पारांचिक आदि का स्वरूप। उनमें पारांचिक छेद का अधिकार। ५०१३ साधक को उपाश्रय आदि स्थानों से पारांचिक ४९७० सूत्र में छेद का उल्लेख क्यों नहीं? आचार्य द्वारा क्यों किया जाता है? शिष्य का प्रश्न आचार्य समाधान। द्वारा समाधान। ४९७१ पारांचिक पद की व्युत्पत्ति और उसका तात्पर्य। ५०१४ जिन स्थानों में संयतियां विहरण करें वहां संयत ४९७२ पारांचिक के दो प्रकार। प्रत्येक के दो-दो प्रकार। विहरण की वर्जना। ४९७३ परिणामों की तरतमता से होने वाले चारित्रिक ५०१५ कषायदुष्ट तथा विषयदुष्ट का अधिकार। दोष। ५०१६ पांच प्रकार के प्रमाद तथा निद्रा के पांच प्रकार। ४९७४ अपराध की तुल्यता में परिणामों का अथवा ५०१७-५०२२ स्त्यानर्द्धि निद्रा का लक्षण और उसके परिणामों की तुल्यता में अपराधों का नानात्व। उदाहरण-पुद्गल-मांस, मोदक, कुंभकार, दांत ४९७५-४९८४ तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत आदि की आशातना, और वट वृक्ष की शाखा को तोड़ना। उसका स्वरूप और आशातना करने वालों के ५०२३ स्त्यानर्द्धि साधु का बल सामान्य मनुष्य से लिए प्रायश्चित्त की मार्गणा। अधिक। उस साधु का वेश हरण करने का ४९८५ प्रतिसेवना पारांची के तीन प्रकार। निर्देश। ४९८६ दुष्टपारांचिक तथा कषायदुष्ट के दो-दो प्रकार। ५०२४ स्त्यानर्द्धि मुनि को लिंग न देने, लिंगापहार स्वपक्षदुष्ट तथा परपक्षदुष्टपद की चतुर्भंगी। करने तथा रात्री में सोए हुए को छोड़ने का निर्देश। ४९८७-४९९३ स्वपक्ष कषाय दुष्ट के चार दृष्टान्त-सरसों की ५०२५ भाजी, मुख वस्त्रिका, उलूकाक्ष और शिखरिणी। सुविहित श्रमणों के लिए परस्पर करण-मुख-पायु प्रयोग से सेवन अकल्पनीय। ४९९४-४९९७ परपक्षकषायदुष्टादि के अनेकविध प्रकार और उनका स्वरूप। ५०२६ मुख और पायु का सेवन करने वाले द्विवेदक ४९९८ साधुओं के लिए आचार्य के प्रायोग्य द्रव्य को नपुंसक के लिंग विवेक करने का निर्देश। ग्रहण करने की विधि और आचार्य के लिए यतनापूर्वक परित्याग करने का निर्देश। यतनापूर्वक भोजन करने का निर्देश। ५०२७ विषयदुष्ट, कषायदुष्ट, प्रमत्त तथा अन्योन्यसेवी ४९९९ शिष्य द्वारा आनीत का ग्रहण संबंधी दूसरा को कब और किस प्रकार का पारांचिक आदेश। प्रायश्चित्त आता है उसका वर्णन। ५०००,५००१ आचार्य जिन शिष्यों से भक्तपान ग्रहण करते हैं, ५०२८-५०३१ तपःपारांचिक का स्वरूप तथा उसके योग्य उनका स्वरूप। व्यक्ति के गुणों का कथन। ५००२-५००४ गुरु के भोजन करने पर शेष भोजन बाल आदि ५०३२ आशातनापारांचिक तथा प्रतिसेवनापारांचिक की Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय कालमर्यादा। ५०३३,५०३४ पारांचिक आचार्य की स्वगण से जाने की विधि और परगण में जाने का कारण। ५०३५ पारांचिक आचार्य की सामाचारी। ५०३६-५०४० कालपारांचिक आचार्य जिस आचार्य की निश्रा में प्रायश्चित्त का वहन करे उस आचार्य की कालपारांचिक आचार्य के प्रति संवेदना-व्यवहार आदि का निरूपण। ५०४१ वे कारण जिनसे आचार्य कालपारांचिक आचार्य के पास नहीं जा सकते। ५०४२ वे कार्य जिनके कारण आचार्य कालपारांचिक आचार्य के पास नहीं जा सकते। ५०४३ स्वयं आचार्य के न जा पाने पर उपाध्याय और गीतार्थ मुनि को वहां भेजने की विधि और पूछे या न पूछे जाने पर भी आचार्य के अनागमन का कारण जताने का निर्देश। ५०४४ उपाध्याय द्वारा पारांचिक के माहात्म्य को प्रकट करने की विधि। ५०४५ संघ की महिमा का प्रतिपादन। ५०४६-५०५४ पारांचिक मुनि द्वारा राजा को समझाने की विधि। राजा के समझने पर प्रतिबंधितों का विसर्जन, संघपूजा और राजा की प्रार्थना से प्रायश्चित्त वहन करने वाले पारांचिक मुनि की प्रायश्चित्त से मुक्ति। संघ रक्षण से उसकी निर्दोषता। ५०५५-५०५७ देश, देश-देश प्रायश्चित्त का स्वरूप और काल मर्यादा। संघ के पास प्रायश्चित्त वहन करवाने अथवा विसर्जित करने का अधिकार। सूत्र ३ ५०५८ अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त उपाध्याय विषयक विशोधि का हेतु है। ५०५९ अनवस्थाप्य के दो प्रकार। प्रत्येक के दो-दो भेद। ५०६०,५०६१ तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत आदि की आशातना करने पर आने वाले भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त। ५०६२ प्रतिसेवना अनवस्थाप्य के तीन प्रकार। ५०६३ साधर्मिक स्तैन्य का स्वरूप और उससे संबंधित प्रायश्चित्त। ५०६४-५०६७ उपधि स्तैन्य का स्वरूप। तद्विषयक प्रायश्चित्त कब, कहां और किसको? ५०६८ गुरु द्वारा उपधि लाने के लिए भेजे गए शिष्य द्वारा गाथा संख्या विषय यदि बाहर ही उसका विभाजन कर उसे ग्रहण कर लेने पर प्रायश्चित्त। वस्त्र गुरु को न देने पर प्रायश्चित्त। ५०६९,५०७० वस्त्र ग्रहण के लिए आचार्य को निमंत्रण। निषेध करने पर वस्त्र के प्रति लुब्ध साधु द्वारा माया पूर्वक ग्रहण कर लेने पर दोष तथा तन्निष्पन्न अप्रीति और प्रायश्चित्त। ५०७१ उपधि दग्ध हो जाने पर प्रलुब्ध शिष्य स्वयं यदि श्रावक के घर से गुरु के दिए बिना उपधि को ग्रहण करता है तो प्रायश्चित्त। गुरु द्वारा उपधि न देने पर प्रायश्चित्त। ५०७२ आचार्य द्वारा उत्कृष्ट पात्र दिए जाने पर यदि शिष्य उसमें लुब्ध होकर उसे लेना चाहे और निर्दिष्ट आचार्य को नहीं दे तो प्रायश्चित्त। ५०७३-५०८४ ससहायक-असहायक शैक्ष-शैक्षिका के अपहरण के प्रकार। उनसे लगने वाला दोष तथा तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त। शैक्ष-अपहरण के आपवादिक कारण। ५०८५ स्थापनागृह का अर्थ। बिना आज्ञा के तथा मायापूर्वक वहां गोचरी जाने पर प्राप्त होने वाले नाना प्रायश्चित्त। ५०८६ गुरु की आज्ञा के बिना स्थापनाकुलों में जाने तथा श्राद्ध लोगों को भ्रम में डालने पर प्रायश्चित्त का विधान। ५०८७ विपरिणत श्राद्ध द्वारा आचार्य, ग्लान, क्षपक, प्राघूर्णक, बाल-वृद्धों के लिए प्रायोग्य द्रव्य न देने पर मुनि को प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त। ५०८८ परधार्मिक के दो प्रकार। उनके स्तैन्य के तीन तीन प्रकार। ५०८९-५०९५ आहार, उपधि तथा सचित्त के विषय में शिष्य शिष्यों से संबंधित स्तैन्य का स्वरूप। उनसे लगने वाला प्रायश्चित्त तथा अपवाद। ५०९६ गृहस्थविषयक स्तैन्य के तीन प्रकार। उनका आहार आदि का स्तैन्य करने पर लगने वाले दोष। ५०९७ आहार विषयक स्तैन्य का एक प्रकार। ५०९८ माता पिता आदि निज पुरुषों की आज्ञा के बिना अप्राप्तवय पुरुष को दीक्षित करना भी स्तैन्य का एक प्रकार। ५०९९ बिना आज्ञा स्त्री को प्रवजित नहीं किया जा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय सकता। अपवाद में प्रव्राजनीय। ५१००-५१०२ आहार-उपधि और सचित्त विषयक स्तैन्य का अपवाद। ५१०३ हस्ताताल, हस्तालम्ब और अर्थदान-तीनों पाठों का स्वीकरण। ५१०४-५१०६ हस्ताताल का स्वरूप। तद्विषयक प्रायश्चित्त और अपवाद। हस्तालम्ब का स्वरूप। ५१०७,५१०८ विनय की शिक्षा देने के लिए हस्ताताल की पीड़ाकारक क्रिया अनुमत कैसे? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। ५१०९,५११० लौकिक कलाओं-शिल्प, गणित को सीखने वाले शिष्य जैसे गुरुओं के प्रहारों के सहन करते हैं वैसे मुनि भी इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए गुरु की ताड़ना सहते है। हस्तताल की इच्छा कब? ५११२,५११३ अशिव आदि उपद्रव की उपशांति के लिए आचार्य द्वारा अभिचारुक मंत्रों का प्रयोग। हस्तालम्बदायी को उपस्थापना परीक्षा के पश्चात्। ५११४-५११९ अर्थादान का स्वरूप और उसको समझाने के लिए अवसन्न आचार्य का दृष्टान्त। ५१२० हस्ताताल, हस्तालम्ब और अर्थादान-तीनों में प्रथम दो को छोड़कर अर्थादान में लिंग देने की भजना। ५१२१-५१२३ अर्थादान के रहते हुए देश में लिंग देने का निषेध। कारणस्वरूप क्षेत्र में लिंग देने का अपवाद। ५१२४ साधर्मिक स्तैन्य और अन्य धार्मिक स्तैन्य के प्रायश्चित्त का प्रकार। ५१२५ सामान्य साधु, गणी आदि के लिए आहार स्तैन्य में प्रायश्चित्त के अलग-अलग प्रकार। शिष्य की जिज्ञासा-सूत्र में सामान्यतः अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का कथन है फिर प्रायश्चित्त की विविधता क्यों? आचार्य का उत्तर। ५१२६ आचार्य और उपाध्याय द्वारा समान अपराध का सेवन करने पर भी प्रायश्चित्त की भिन्नता। ५१२७ उपाध्याय तथा मुनि द्वारा साधर्मिक स्तैन्य आदि का बार-बार प्रतिसेवना करने से आने गाथा संख्या विषय वाला भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त। ५१२८ अर्थादान क्षेत्रतः समाख्यात है। तद्विषयक विधि। ५१२९-५१३५ अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त किन गुणों से युक्त मुनि को आता है? उस मुनि की विधि और सामाचारी। ५१३६,५१३७ अनवस्थाप्य को वहन करने वाले मुनि के लिए क्या क्या अकल्पनीय ? उनका वर्णन। पव्वज्जादि-अजोग्ग-पदं सूत्र ४ ५१३८ अनवस्थाप्य का अर्थ। पंडक का द्रव्यलिंग और भावलिंग में अस्थापन। ५१३९ बीस प्रकार के मनुष्य अप्रव्राज्य। प्रस्तुत सूत्र में तीन का अधिकार-पंडक, क्लीब और वातिक। ५१४० पृच्छापूर्वक गीतार्थ मुनि ही प्रव्राजना देने का अधिकारी। बिना पूछे प्रायश्चित्त। ५१४१-५१४३ दीक्षार्थी से पूछताछ करने की विधि। लक्षणों से पंडक जानकर उसका परिहार्य। ५१४४-५१४७ पंडक की पहचान के छह लक्षण तथा उनका स्वरूप। तीन प्रकार के वेदों के प्रत्येक के तीन तीन भंग। ५१४८ तीन वेदों के लक्षण तथा प्रत्येक वेद का अपना अपना स्थान को छोड़कर शेष दो वेदों में भी वर्तन। ५१४९ पंडक के दो प्रकार तथा उन दोनों में से उपघात पंडक के दो प्रकार। ५१५०,५१५१ दूषी कौन कहलाता है? दूषी के प्रकारों का स्वरूप। ५१५२,५१५३ वेदोपघात पंडक का स्वरूप तथा उस विषय में हेमकुमार का उदाहरण। ५१५४-५१५६ उपकरणोपघातपंडक का स्वरूप तथा तद्विषयक कपिल का दृष्टान्त, जिसने एक जन्म में तीनों वेदों का अनुभव किया। ५१५७-५१६३ प्रवजित पंडक को पहचानने की चेष्टाएं, क्रियाएं आदि। जानते हुए भी उसको संघ में रखने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। ५१६४ क्लीब का निरुक्त और उसका स्वरूप। क्लीब के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ५२०० अविनीत आदि तीनों पदों की अष्टभंगी। ५२०१-५२०४ अविनीत आदि को ज्ञान देने पर होने वाली हानियां और ज्ञान देने के आपवादिक कारण। ५२०५ योगवाही मुनि द्वारा कृत माया का रूप। तप के बिना श्रुतज्ञान का ग्रहण अफलित। ५२०७ अव्यवशमित कलह की व्याख्या। ५२०८ अव्यवशमित कलह वाले मुनि को वाचना देने से होने वाली हानि। ५२०९ अपात्र को वाचना देने पर इहलोक-परलोक की परित्यक्ति तथा विनय की हानि। ५२१० आपवादिक कारण जिनसे अपात्र को वाचना दी जा सकती है। गाथा संख्या विषय चार प्रकार तथा प्रत्येक का वर्णन। वातिक नपुंसक का स्वरूप। तद्विषयक बौद्ध उपासक का उदाहरण। ५१६६,५१६७ नपुंसक के १६ भेद। उनका स्वरूप। उनमें कौन- कौन से अप्रव्राजनीय और कौन से प्रव्राजनीय? ५१६८ प्रथम दस नपुंसकों को आचार्य द्वारा दीक्षा देने पर तथा दसों को प्रव्रज्या के लिए कहने पर तथा शेष छह को प्रव्रजित करने वाले आचार्य और प्रव्रज्या के लिए कहने वालों को प्रायश्चित्त। ५१६९-५१७१ नपुंसक वेदोदय को धारण करता है, उसको प्रव्रज्या देने में क्या दोष है ? शिष्य की शंका और आचार्य द्वारा समाधान। इस प्रसंग में वत्स और आम्र का दृष्टान्त। ५१७२-५१७४ पंडक को दीक्षा देने के कारण। ५१७५ कार्य संपन्न हो जाने पर नपुंसक मुनियों का विवेचन आवश्यक। ५१७६-५१८९ नपुंसक के दो प्रकार। दोनों को दीक्षा के लिए अयोग्य जानकर उनको श्रावक धर्म के पालन के लिए कथन । जनता के विश्वास के लिए कटिपट्टक आदि धारण करने का निर्देश। लिंग छुड़ाने के लिए अन्यान्य विधियों, सामाचारी की शिक्षा, सूत्रादि का अभ्यास तथा वेष आदि के त्याग के प्रयोग। उनको येन-केन प्रकारेण छोड़ने के उपाय। सूत्र ५ ५१९०-५१९६ अज्ञात अवस्था में पंडक आदि को प्रव्रजित कर देने पर वह ज्ञात हो जाए तो मुंडन आदि पंचक की क्रमशः कल्पनीय विधि। दुसण्णप्प-सुसण्णप्प-पदं सूत्र ८ ५२११ दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित ये सम्यक्त्व-ग्रहण, प्रव्रज्या और वाचना के लिए अयोग्य। ५२१२,५२१३ दुःसंज्ञाप्य के तीन प्रकार तथा तीनों पदों की अष्टभंगी। ५२१४ मूढ़ पद के निक्षेप के आठ प्रकार। ५२१५ द्रव्यमूढ़ का स्वरूप तथा तद्विषयक घटिकावोद्र वणिक् का दृष्टान्त। ५२१६ दिग्मूढ़, क्षेत्रमूढ़ और कालमूढ़ का स्वरूप। कालमूढ़ संबंधी पिंडार का उदाहरण। ५२१७ गणनामूढ़ तथा सादृश्यमूढ़ का स्वरूप। दोनों से संबंधित क्रमशः उष्ट्रारूढ़ और कुटुम्बिसंग्राम का दृष्टान्त। ५२१८ अभिभवमूढ़ और वेदमूढ़ का स्वरूप तथा वेदमूढ़ विषयक अनंगरतिराजा का दृष्टान्त। ५२१९-५२२२ वेदमूढ़ आदि से संबंधित दृष्टान्त का स्वरूप। ५२२३-५२२८ व्युद्ग्राहित का स्वरूप तथा उससे संबद्ध द्वीपजातपुरुष, पंचशैल वास्तव्य स्वर्णकार आदि का दृष्टान्त। ५२२९ मूढ़ और व्युद्ग्राहित संबंधित कथानकों का विभाग। ५२३० दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित में दीक्षा के योग्य अयोग्य का विभाग और उसका कारण। ५२३१-५२३३ व्युद्ग्राहित आदि व्यक्तियों में चारित्रगुण कैसे हो ५१९७ ५१९८ अवायणिज्ज-वायणिज्ज-पदं सूत्र ६,७ अविनीत, विगय-प्रतिबद्ध और कलह को उपशांत नहीं करने वाला ये तीनों वाचना के लिए अयोग्य। अविनीत आदि तीनों को ग्रहण शिक्षा के अतिरिक्त शेष स्थानों में एकान्ततः प्रतिषेध का निषेध। विकृति प्रतिबद्ध अविनीत को वाचना देने पर प्रायश्चित्त विधि तथा आपवादिक कारणों में वाचना देने का निर्देश। ५१९९ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय सकता है ? जिज्ञासा और उसका समाधान। पचा ५२३४ कालिकश्रुत की धर्मता। ५२३५ कालिकश्रुत में अर्थापत्ति का निषेध तथा कालिकश्रुत का स्वरूप। गिलायमाण-पदं सूत्र १०,११ ५२३६ ग्लानसूत्र का प्रारंभ। ५२३७ धर्म पुरुषप्रधान है फिर भी स्त्री (निग्रंथी) का निर्देश पहले क्यों? ५२३८ सुविहित मुनि के लिए आलिंगन आदि की वर्जना। ५२३९,३२४० निर्ग्रन्थी, स्त्री और गृहस्थ का आलिंगन करने से आने वाला प्रायश्चित्त। ५२४१ आलिंगन करने से होने वाले दोष। ५२४२ संक्रमित होने वाले रोग और उनकी चतुभंगी। ५२४३ गृहस्थों, संयतों के साथ आलिंगन करने से लगने वाले दोष। ५२४४-५२४८ कारण में ग्लान सेवा के लिए आलिंगन संबंधी यतनाएं। ५२४९-५२५२ मार्ग-अमार्ग अथवा दूसरों के अभाव में आत्यन्तिक ग्लानत्व में परिकर्म संबंधी यतनाएं। ५२५३-५२५९ यतना किए जाने पर भी निर्ग्रन्थी यदि पुरुष स्पर्श का आस्वादन करती है तो प्रायश्चित्त। ग्लान अवस्था में भी मैथुनाभिलाषा से संबद्ध शशक-मशक का उदाहरण। ५२६०-५२६२ निर्ग्रन्थ के द्वारा निर्ग्रन्थी का आलिंगन करने पर प्रायश्चित्त और दोष की नियमा। स्पर्श आस्वादन संबंधी भगिनीयुगल का उदाहरण। कालातिक्वंत-भोयण-पदं सूत्र १२,१३ ५२६३ ब्रह्मव्रत के परिणाम के अनतिक्रम का प्रतिपादन। ५२६४,५२६५ अशन आदि का कालातिक्रम करने पर प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। ५२६६ मुनि के लिए अशन आदि का संचय करने का प्रतिषेध। ५२६७ अयतना से होने वाली हानियां। ५२६८-५२७० भक्तपान को स्थापित करने और परिष्ठापन से गाथा संख्या विषय होने वाले दोष। प्रथम प्रहर में ग्रहण किए हुए भक्तपान की प्रथम प्रहर में ही उपयोग विधि। शिष्य की जिज्ञासा-भिक्षा ग्रहण करते-करते यदि दूसरा पहर आ जाए तो शोधि कैसे? आचार्य द्वारा समाधान। ५२७१ आहार आदि शेष रहने के कारण। ५२७२ पौरुषी का प्रत्याख्यान करने वाले मुनि के लिए पौरुषी बीत जाने पर सर्व आहार करने की विधि। समाप्ति न होने पर दूसरों को देने और मात्रक में रखने का निर्देश। ५२७३ प्रथम प्रहर में आनीत अशन का उपयोग कौन से प्रहर तक संभव? ५२७४ स्थापित आहार आदि की यतना। ५२७५-५२७७ अपायों में दोषों की नियमा। ५२७८ आहार ही न किया जाए तो अपाय होंगे ही नहीं, शिष्य की शंका, आचार्य का समाधान। ५२७९ कार्य के दो प्रकार। असाध्य कार्य कभी सिद्ध नहीं होता। ५२८० आहार के झंझटों से मुक्त होने संबंधी शिष्य की जिज्ञासा। ५२८१ आहार क्यों? ५२८२ अनुज्ञात काल का अतिक्रमण करने वाला अविद्यमान दोषों में भी प्रायश्चित्तभागी। ५२८३ जिनकल्पी के समान प्रथम पौरुषी में भक्तपान ग्रहण कर पश्चिम पौरुषी का अतिक्रमण दोषयुक्त। ५२८४ चरम पौरुषी के अतिक्रान्त होने के कारण। ५२८५ समय अतिक्रान्त होने पर भोजन परिष्ठापनीय। अन्य अशन की अप्राप्ति में उसी का परिभोग। ५२८६ आपवादिक कारणों में अतिक्रान्त काल में भोजन करना निर्दोष। ५२८७ अर्द्धयोजन से आगे अशन आदि ले जाने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। ५२८८ क्षेत्रातिक्रान्त से होने वाले दोषों का स्वरूप। ५२८९-५२९१ जिनकल्पिक और गच्छवासी मुनि के लिए क्षेत्र की अपनी-अपनी मर्यादा। ५२९२-५२९४ आचार्य के लिए प्रायोग्य द्रव्य लाने के लिए संघाटक की नियुक्ति। तदसंबंधी अगारी और कृपण वणिक् का दृष्टान्त। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ५२९५ विधायक सोच से भिक्षा की सुलभता। ५२९६ कुल परिश्रान्त क्यों? ५२९७-५२९९ तरुण मुनि के लिए बहिर्ग्राम में भिक्षाचर्या के लिए जाने की सामाचारी। उससे संबद्ध बदरीवृक्ष का दृष्टान्त। ५३००,५३०१ तरुण मुनियों द्वारा बहिमि में भिक्षाचर्या करने के लाभ और दोषों से निवृत्ति। ५३०२,५३०३ उद्यान से आगे जाकर भिक्षा लाने में लगने वाले दोष तथा वहीं भोजन करने पर आने वाला प्रायश्चित्त। ५३०४,५३०५ यदि आचार्य के बिना भी तप-नियम गुण होते हैं तो आहार की गवेषणा की बात क्यों ? शिष्य की शंका। आचार्य का समाधान। ५३०६ बहिमि से गोचरी कर आचार्य के पास क्यों लानी चाहिए? ५३०७ आचार्य द्वारा शिष्यों को प्रथमालिका करने की अनुमति देने के कारण। ५३०८ प्रथमालिका करने के दोष। उसके प्रमाण के दो प्रकार। ५३०९,५३१० साधुओं की पात्र संख्या और उनमें भक्तपान लेने की विधि। ५३११ आपवादिक कारणों में बहिाम में विधिपूर्वक भोजन करने का निर्देश। ५३१२ अन्तरपल्ली में गृहीत सारे भोजन को खाने का निर्देश। ५३१३ पात्र भर जाने पर पर्याप्त खाकर पुनः भिक्षा के लिए जाने का निर्देश अथवा काल अतिक्रान्त की आशंका से बीच में खाने का निर्देश। ५३१४ अजानकारी में कालातिक्रान्त होने पर उत्सर्ग अपवाद विधि। अणेसणिज्ज पाण-भोयण-पदं सूत्र १४ ५३१५ अशुद्ध अचित्त आहार ग्रहण होने पर विधि का प्रतिपादन। अनेषणीय अचित्त द्रव्य की वर्जना। ५३१७-५३२७ अनाभोग से अनेषणीय आहार की यतना। अयतना के दोष। अयतना से दिए जाने वाले भक्तपान से शैक्ष के मन में उठने वाली शंकाएं। ५३२८,५३२९ अनुलोम वचनों से शिष्यों को प्रज्ञापित करने की गाथा संख्या विषय विधि। ५३३० शैक्ष मुनि के विपरिणत होने का कारण। ५३३१ शैक्ष को अनेषणीय भक्त देने पर आने वाला प्रायश्चित्त। ५३३२ शैक्ष को प्रायोग्य अनेषणीय भक्तपान देने की विधि। ५३३३-५३३५ शैक्ष के लिए निजी व्यक्तियों द्वारा भक्तपान देने पर आचार्य को वर्जना करने का निषेध। ५३३६ अनेषणीय भोजन शैक्ष को देने की और उसके परिष्ठापन की विधि। ५३३७ ऋद्धिमान् के प्रवजित होने पर होने वाले गुण । अनुवर्तना न करने पर प्रायश्चित्त। ५३३८ अशिव आदि कारणों में अनेषणीय भोजन करने पर प्रायश्चित्त नहीं। कप्पट्ठिय-अकप्पट्ठिय-पदं सूत्र १५ ५३३९ शैक्ष के अनेषणीय कल्प का कारण। ५३४० कल्पस्थित-अकल्पस्थित का स्वरूप। ५३४१ आधाकर्म भोजन के लिए साधुओं को निमंत्रण। ५३४२ आधाकर्म के एकार्थक। ५३४३-५३५० आधाकर्म किसको कल्पता है किसको नहीं? उसका विभाग और वर्णन। ५३५१-५३५३ मुनियों के तीन प्रकार। कौन से तीर्थंकर के किस प्रकार के मुनि होते हैं ? नटप्रेक्षण का दृष्टान्त। भक्तपान निषेध से दृष्टान्त का उपनय। ५३५४,५३५५ प्रथम तीर्थंकर के साधुओं की तरह संज्ञातक (गृहस्थ) भी ऋजुजड़। ५३५६ ऋजुजड़ मुनियों तथा गृहस्थों का स्वरूप। ५३५७ ऋजुप्राज्ञ मुनियों और गृहस्थों का स्वरूप। ५३५८ वक्रजड़ मुनियों और गृहस्थों का स्वरूप। ५३५९ आचार्य, अभिषेक और भिक्षुओं में से कोई ग्लान होने पर आधाकर्म की भजना। ५३६० आचार्य द्वारा स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण करने की विधि और उसका स्वरूप। ५३६१ तीर्थंकरों द्वारा धर्मदेशना करने का प्रयोजन। अण्णगण-उवसंपदा-पदं सूत्र १६ ५३६२ ज्ञान आदि के कारण गच्छान्तर में संक्रमण विधायक सूत्र। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ गाथा संख्या विषय ५३६३,५३६४ तीन स्थानों-कारणों से गण से अपक्रमण करने की विधि, तथा उनसे लगने वाले अतिचार। ५३६५-५३७७ किस अतिचार से आने वाला कौनसा प्रायश्चित्त। उनका स्वरूप। ५३७८-५३८१ आने वाले शैक्ष को अभिघारित आचार्य के पास भेजने की विधि। ५३८२ प्रतीच्छक द्वारा गृहीत सचित्तादि किसका आभाव्य? ५३८३ आगन्तुक शैक्ष के साथ स्वयंदिग्बंध कब करे? ५३८४ अकेले आचार्य को परिषद् ग्रहण करने की अनुमति। ५३८५ अभिघारित आचार्य के कालगत हो जाने पर अन्य आचार्य के पास जाना भी शुद्ध । ५३८६ प्रतीच्छक के प्रकार और उनका लाभ। ५३८७ व्यक्त-अव्यक्त की चतुर्भंगी। ५३८८,५३८९ सहायक साधु के प्रकार और उनका कर्तव्य। ५३९० एकाकी जाने वाले शैक्ष द्वारा गृहीत द्रव्य किसका आभाव्य? ५३९१,५३९२ एकाकी जाने वाला शैक्ष यदि रुग्ण हो जाए और दो आचार्य उसकी सुखपृच्छा करने के लिए आए तो वह तथा उसके द्वारा गृहीत द्रव्य का कौन आभाव्य होगा? ५३९३,५३९४ आचार्य द्वारा विसर्जित शिष्य के आभाव्य की मर्यादा। ५३९५ आचार्य द्वारा अविसर्जित शिष्य यदि गमन करता है तो प्रायश्चित्त का भागी। ५३९६ आचार्य के द्वारा शिष्य को विसर्जित न करने पर आचार्य को अनुकूल वचनों से प्रज्ञापित करने का निर्देश। ५३९७ ज्ञान के निमित्त गण से अपक्रमण करने वाले शिष्य को आचार्य द्वारा विसर्जित नहीं करने पर अविसर्जित प्रस्थान करने की विधि। ५३९८ अविसर्जित विधि से आए शिष्य को स्वीकार करने का निर्देश। ५३९९,५४०० आचार्य को व्युत्सर्ग कर गमन करने से शिष्य, प्रतिच्छक और आचार्य तीनों को प्रायश्चित्त। ५४०१-५४०३ ज्ञानार्थ दूसरे गच्छ में प्रस्थान करने के आपवादिक कारण। ५४०४ अनाभाव्य के साथ आत्मीय दिग्बंध कब? बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ५४०५ शैक्ष को शिष्य के रूप में स्वीकृत करने के कुछ मानदंड। ५४०६ आचार्य के कालगत हो जाने पर शैक्ष और प्रतीच्छक द्वारा गण की सार-संभाल। ५४०७ आचार्य के कालगत होने पर वर्षगत आभाव्य की मार्गणा। ५४०८,५४०९ क्षेत्रोपसंपन्न और सुखदुःखोपसंपन्न को मिलने वाला लाभ। ५४१०-५४१७ आभाव्य कब? किसका? ५४१८ शिष्य का निर्माण कैसे? ५४१९ निर्माण न होने के कारण कुलस्थविर का कर्तव्य ? ५४२०,५४२१ प्रव्रज्या के एकपाक्षिक कौन ? उनका कार्य। ५४२२ एकपाक्षिक होने के कारण। ५४२३ उपसंपदा के पांच प्रकार और उनका आभवद् व्यवहार। ५४२४ निकट के व्यक्तियों से उपसंपदा ग्रहण करने का कारण। ५४२५ दर्शन की प्रभावना के लिए अन्य गण में गमन। ५४२६-५४२९ वाद में आचार्य द्वारा मौन रहने पर शिष्य दर्शन शास्त्र का अध्ययन कर पुनः वाद में समीचिन उत्तर दे। ५४३०-५४३२ शिष्य द्वारा आचार्य को छेद सूत्र की वाचना के लिए निवेदन करना और अन्यत्र एकान्त में जाने के लिए कहना। न मानने पर गहरी नींद में उठा कर ले जाना। ५४३३ शिष्य द्वारा शास्त्रों का अध्ययन कर आचार्य को निह्नवों से छुड़ाने का प्रयत्न। ५४३४ विधि से गमन ही श्रेयस्कर। अविधि में प्रायश्चित्त। दर्शन के प्रभावक शास्त्रों के अध्ययन के लिए तीन पक्षों को पूछकर अन्य गण में जाने का निर्देश। ५४३६ अविसर्जित विधि से आए शिष्य को स्वीकार करने का निर्देश। ५४३७,५४३८ आचार्य को व्युत्सर्ग कर गमन करने से शिष्य, प्रतीच्छक और आचार्य तीनों को प्रायश्चित्त। ५४३९ ज्ञान के लिए गच्छान्तर में प्रस्थान करने के आपवादिक कारण। ५४३५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय गाथा संख्या विषय ५४४० चारित्र के लिए गमन के दो प्रकार तथा प्रत्येक के ५४६७ असंविग्न मुनि के असंविग्न गच्छ में संक्रमण दो-दो प्रकार। करने की स्वच्छन्द विधि। ५४४१ किन कारणों से किन दशों में नहीं जाना चाहिए। ५४६८,५४६९ पार्श्वस्थ आदि पांच में से किसी एक के आने पर ५४४२ अशिव आदि कारणों से गए हुए साधुओं को आलोचना की विधि। वापिस लौटने का निर्देश] सूत्र २०,२१ ५४४३ गुरु को पूछकर कहां कब तक रहा जा सकता है? ५४७० गणावच्छेदी, गणी, आचार्य नियमतः गीतार्थ। ५४४४ अध्युपपन्न की स्थिति में आचार्य को पूछकर जाने सूत्र २२ का निर्देश। ५४७१ ज्ञान-दर्शन और चारित्र के लिए आचार्य आदि ५४४५ अविसर्जित शिष्य को स्वीकार करने का निर्देश। को उद्दिष्ट करने की आज्ञा। ५४४६,५४४७ आचार्य को व्युत्सृष्ट कर गमन करने से शिष्य, ५४७२ महाकल्पश्रुत की वाचना शिष्यत्व स्वीकार करने प्रतीच्छक और आचार्य-तीनों के प्रायश्चित्त का वाले को ही, यह मर्यादा जिनाज्ञा से बाहर। विधान। ५४७३ दर्शनार्थ उद्दिष्ट होने वाले ग्रंथ। चारित्रार्थ उद्दिष्ट ५४४८ आगाढ़ कारण में संविग्न अथवा असंविग्न को होने के प्रकार। आचार्य के बिना पूछे प्रस्थान का निर्देश। ५४७४ अवसन्न के छह प्रकार। ५४४९ चारित्र भ्रष्ट आचार्य का उपाय से परिहार का ५४७५ आचार्य पद योग्य शिष्य के व्यक्त-अव्यक्त की निर्देश। मार्गणा और व्यक्त-अव्यक्त की चतुर्भंगी। सूत्र १७,१८ ५४७६ शिष्य द्वारा आचार्य को प्रेरित करने का कालमान ५४५० गणावच्छेदिक, उपाध्याय और आचार्य की अन्य और आचार्य के सर्वथा इन्कार करने पर स्वयं गण में जाने की विधि। गणावच्छेदिक नियमतः द्वारा गण का वर्तापन। व्यक्त। ५४७७ गण के लिए अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करने से ५४५१ निग्रन्थियों के लिए उपर्युक्त विधि विहित। होने वाला परिणाम। ५४५२ ज्ञान के लिए अन्य गण में निग्रन्थी के जाने कि ५४७८,५४७९ गण का वर्तापन कब कैसे? लिए आठ पक्षों की पृच्छा। ५४८०-५४८४ गण के वर्तापन की चतुर्भगी। ५४८५,५४८६ संविग्न-अगीतार्थ, असंविग्न-अगीतार्थ, ५४५३-५४५७ एक मंडली में भोजन करने के कारण। चारित्र के असंविग्न-गीतार्थ इनको आचार्य के रूप में लिए उपसंपन्न की चतुभंगी ओर उनका विवरण। उद्दिष्ट करने पर प्रायश्चित्त विधि। ५४५८ गण से विलग गीतार्थ-अगीतार्थ मुनि के पुनः गण में आने पर आलोचना की विधि और उपधि ५४८७,५४८८ संविग्न गीतार्थ को उद्दीष्ट करने में अपेक्षणीय गुण। की मार्गणा। ५४८९-५४९० अवसन्न आचार्य को शिष्य द्वारा गण५४५९ गीतार्थ और अगीतार्थ मुनि के उपधि का उपहनन कब नहीं होता? वर्तापन के लिए निवेदन विधि। शिष्य का प्रश्न और आचार्य का उत्तर। ५४६० किसे आरोपणा प्रायश्चित्त नहीं आता? गीतार्थ और अगीतार्थ के उपधि के तीन प्रकार। ५४६१ ५४९१ ऋण से उऋण होने का उपाय। ५४६२ गीतार्थ की उपधि को अन्य उपधि में मिलाने न सूत्र २३,२४ मिलाने का कारण। ५४९२-५४९६ गणावच्छेदी और आचार्य के गणनिक्षेपण की ५४६३ संविग्न मुनि का संविग्न मुनि के गच्छ में संक्रमण विधि। विधि का प्रतिपादन। वीसुंभवण-पदं ५४६४-५४६६ संविग्न मुनि के असंविग्न गच्छ में संक्रमण करने सूत्र २५ के दोष। ५४९७ तीन कारणों से अन्य आचार्य के उद्देशन की ... Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बृहत्कल्पभाष्यम् ५५९३ गाथा संख्या विषय विधि। आचार्य के कालगत होने पर अन्य आचार्य का उद्देशन कैसे? ५४९८-५५६५ कालगत मुनि क परिष्ठापन की विधि तथा मुनियों का कर्तव्य। अहिगरण-पदं सूत्र २६ ५५६६ मुनि कलह क्यों करता है? ५५६७ अधिकरण क्यों? ५५६८ अधिकरण करने पर उसका उपशमन और आलोचना करने का निर्देश। ५५६९ अधिकरण करने वाले मुनि के अपसरण की विधि। गुरु द्वारा वृषभ मुनि को गृहस्थ के पास भेजने का निर्देश। ५५७०-५५७२ वृषभ मुनि को गृहस्थ के पास न भेजने से होने वाली हानियां। ५५७३-५५७५ वृषभ मुनि द्वारा गृहस्थ को समझाने और कलहकारी साधु को अपने साथ ले जाने की विधि। ५५७६ गृहस्थ को उपशांत करने की अन्य विधि। ५५७७,५५७८ कलह को उपशांत किए बिना मुनि यदि भिक्षा आदि के लिए गमन करे तो प्रायश्चित्त। गण संक्रमण करने वाले को पुनः उसी गण में रहने का निर्देश क्यों? ५५७९ अनुपशान्त साधु के गणान्तर में संक्रान्त हो जाने पर मूल आचार्य द्वारा संघाटक को भेजने की विधि। नहीं भेजने पर प्रायश्चित्त। ५५८० गृहस्थ के उपशांत होने पर क्षमायाचना का निर्देश। ५५८१,५५८२ गृहस्थ के प्रति अनिष्ट चिंतन, मारने आदि का संकल्प करने पर प्रायश्चित्त। ५५८३ मुनि को आया हुआ देखकर गृहस्थ के द्वारा मारण-ताड़न आदि अनिष्ट की संभावना। परिहारकप्पट्ठिय-पदं सूत्र २७,२८ ५५८४,५४८५ साधु के गृहस्थ के घर एकाकी जाने की वर्जना। साथ में किसी अन्य को ले जाने का प्रावधान। ५५८६,५५८७ भिक्षु के मन में हिंसा के विविधि प्रकारों में भिन्न- भिन्न प्रायश्चित्तों का विधान। गणी-उपाध्याय, आचार्य तथा गणावच्छेदिक के लिए भी नियमतः अनेक प्रायश्चित्त। गाथा संख्या विषय ५५८८ तप और काल से प्रायश्चित्तों में नानात्व। ५५८९,५५९० सूत्र द्वारा प्रायश्चित्त की प्रस्थापना का निर्देश। ५५९१ सूत्रादेश से अधिक या न्यून प्रायश्चित्त देने पर देने वाले को प्रायश्चित्त। ५५९२ अधिकरण के आपवादिक कारण। स्वयं असमर्थ हो तो पांच पदों की सहायता लेने का निर्देश। प्रत्यनीक पर अनुशासन करने वाले में अपेक्षणीय गुण। ५५९४ परिहार तप को वहन करने वाले की मर्यादा। ५५९५ नियमतः परिहारतप का प्रायश्चित्त किसको? ५५९६ परिहार तप क्यों? ५५९७,५५९८ परिहारतप को स्वीकार करने पर मुनि की साधना-विधि। ५५९९ गच्छ साधुओं को दस पदों का आचरण करने पर प्राप्त होने वाला विविध प्रायश्चित्त। ५६०० गच्छवासी साधुओं के साथ दस पदों का समाचरण करने वाले पारिहारिक मुनि को आने वाला प्रायश्चित्त। ५६०१ दस पदों को पारिहारिक मुनि के साथ करने पर लगने वाले दोष। ५६०२-५६१३ पारिहारिक मुनि के प्रति आचार्य तथा मुनियों का व्यवहार एवं कर्तव्य। ५६१४-५६१७ गच्छ में आगाढ़ कारण होने पर पारिहारिक मुनि का कर्तव्य। महानदी-पदं सूत्र २९ ५६१८ स्थलगत मार्ग में पानी होने पर मुनि का कर्तव्य। ५६१९-५६२५ पांच महानदियों के नाम तथा नौका आदि से उनको पार करने पर लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त विधि। मुरुंडराजा का दृष्टान्त। ५६२६ अन्तःपुर में जाने पर लगने वाले दोष। ५६२७,५६२८ प्रत्यनीकता विषयक विविध दोषों का वर्णन और तद्विषयक महावीर-सुदाढा और कम्बल-शबल का उदाहरण। ५६२९-५६३५ प्रत्यनीक के दोष तथा उससे होने वाली संयम तथा आत्मविराधना। ५६३६,५६३७ महानदी उत्तरणविषयक संघट्ट, लेप, लेपोपरि-ये तीन प्रकार और उनसे लगने वाले दोष। सूत्र ३० ५६३८ ऐरावती नदी को पार करने की विधि। मास कल्प Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ गाथा संख्या विषय ५६८० अधोमुक्त मुकुट उपाश्रय में रहने पर प्रायश्चित्त । आगाढ़ कारण में रहने की अनुज्ञा। ५६८१ वसति में सर्प आदि के होने पर चंदोवा आदि बांधने की विधि। ५८४ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय में दो-तीन बार उतरने की कल्पनीयता। ५६३९ ऐरावती नदी कहां? और उसका प्रमाण। ५६४०-५६५२ नदी उतरने के मार्ग क तीन प्रकार। मुनि को किस मार्ग से जाना चाहिए? तीनों मार्गों का स्वरूप और उनसे लगने वाले दोष तथा ६४ भंगों के प्रकार। ५६५३,५६५४ कितने संघट्टनों तक जाना कल्पनीय? उससे होने वाले लाभ। ५६५५ किन कारणों से शेषकाल में नदी-उत्तरण विहित ? ५६५६,५६५७ किन स्थितियों में नौका आरोहण का निषेध ? क्यों? ५६५८ स्थल संक्रमण की यतना। ५६५९ संघट्ट और लेपयुक्त मार्ग में जाने का विकल्प कब? क्यों? ५६६०,५६६१ साधु के पानी में उतरने की विधि और वहां रक्षणीय यतना। ५६६२ लेप तथा लेपोपरी जल में जाने की विधि। ५६६३ अपवाद पद में मुनि के कर्तव्य का निर्देश। ५६६४ नौका में चढ़ने-उतरने की विधि। उवस्सय-पदं सूत्र ३१-३४ ५६६५ ऋतुबद्ध और वर्षावास ऋतु के योग्य उपाश्रय विषयक सूत्र। ५६६६ वसति प्रमाण विषयक सूत्र का आरंभ। ५६६७ तृण और पलाल ग्रहण से किसका ग्रहण ? ५६६८ अल्प शब्द का तात्पर्य है अभाव। ५६६९-५६७१ अप्पप्पाणा की जगह अपाणा क्यों नहीं? शिष्य का प्रश्न आचार्य का समाधान। ५६७२ बीज आदि विविध वनस्पतियों तथा उदक आदि पर बैठने से आने वाला प्रायश्चित्त। ५६७३ श्रवणप्रमाण वसति का स्वरूप। वहां रहने से लगने वाले दोष। ५६७४,५६७५ भिन्न-भिन्न वसतियों में रहने की यतनाएं। ५६७६ वर्षाकाल में रहने योग्य वसति का आकार। ५६७७,५६७८ उपाश्रय में सोने और बैठने के लिए फलक और संस्तारक का प्रमाण। ५६७९ कायोत्सर्ग में स्थित मुनि के आधार पर कौनसी वसति में वर्षावास की कल्पनीयता? पांचवां उद्देशक मेहुणपडिसेवणा-पदं सूत्र १-४ ५६८२ मुनियों के लिए तृणपुंज विजन-जन संपातरहित स्थान में रहने का दोष। ५६८३ 'अपि च' का अर्थ तथा उपसर्ग के दो प्रकार। ५६८४ ब्रह्मवतापाय का प्रतिपादक सूत्र। ५६८५,५६८६ सदृशाधिकारिक सूत्र होने पर भी अन्य अधिकारों का समावेश। जातरूप का दृष्टान्त। ५६८७ अन्योन्याश्रित संबंधों की चर्चा । ५६८८ निर्ग्रन्थ प्रतिसेवना के लिए देवता या देवी की विकुर्वणा और तद्विषयक प्रायश्चित्त। ५६८९ गच्छ निर्गम के दो प्रकार। ५६९०,५६९१ गच्छ में व्याघात के कारण और वहां से निर्गमन। ५६९२ महर्द्धिक को धर्म कहने का कारण। ५६९३,५६९४ किनसे व्याघात होता है? ५६९५ आचार्य द्वारा उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त। ५६९६-५७०० स्वाध्याय के व्याघात का स्वरूप। ५७०१-५७११ तीन प्रकार के उपसर्ग। देवीकृत उपसर्ग का निरूपण तथा तद्विषयक प्रायश्चित्त। ५७१२ अनुज्ञा के बिना गण को छोड़ने के दोष। ५७१३-५७२० गुरुकुलवास न छोड़ने के गुण। ५७२१-५७२५ निर्ग्रन्थी के लिए देवताकृत उपसर्ग का स्वरूप। अहिगरण-पदं सूत्र ५ ५७२६-५७४९ गण में कलह होने के कारण। उनका स्वरूप तथा प्रायश्चित्त विधि । भावाधिकरण का तात्पर्य। तीनों गतियों के गमन में उसका स्वरूप। अधिकरण के दोष आदि। ५७५०-५७६१ कलह करके परगण में जाने वाले भिक्षु, उपाध्याय, आचार्य आदि को प्राप्त होने वाला नानाविध प्रायश्चित्त और तद्विषयक साहुकार की चार पत्नियों का उदाहरण। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ५७६२-५७८० कलह के कारण गच्छ से अनिर्गत अथवा क्लेशयुक्तचित्त से गच्छ में रहने वाले भिक्षु, उपाध्याय तथा आचार्य आदि को शान्त करने की विधि । अनुपशान्त में लगने वाला प्रायश्चित्त दोष और अपवाद आदि। कुमार का दृष्टान्त। ५७८१ पुरुष विशेष की अपेक्षा से दंड के तीन प्रकार। ५७८२ परगच्छ में पद स्थापना की भिन्न-भिन्न व्यवस्था और प्रायश्चित्त का नानात्व। ५७८३ कारण समाप्त होने पर अयोग्य को गण से निर्गत न करने पर कलह आदि दोष। राईभोयण-पदं सूत्र ६-९ ५७८४ रात्री में आहार ग्रहण के आपवादिक कारण। ५७८५ चार सूत्रों के नाम तथा प्रथम सूत्र में तीन प्रकार से प्रायश्चित्त। ५७८६ अभी सूर्योदय नहीं हुआ है, इस मनोगत संकल्प से, शंकित मनःसंकल्प से भोजन करने पर प्रायश्चित्त की गुरुता-लघुता। ५७८७ सूर्य अस्तगत हो गया है, इस संकल्प से अथवा शंकित अवस्था में भोजन करने पर प्रायश्चित्त की गुरुता-लघुता। ५७८८ अनुदित सूर्य को मनः संकल्प से उदित मानकर भोजन करने वाला अदोषी और उदित सूर्य होने पर भी अनुदित मनःसंकल्प से भोजन करने वाला दोषी। संखड़ी के दो प्रकार। उनका अनुदित-उदित सूर्य के साथ संबंध। ५७८९ सूर्य के उदित, अनुदित, अस्तमित, अनस्तमित के विषय में होने वाले संकल्प के नाना प्रकार। ५७९० अनुदित, उद्गत, अनस्तमित, अस्तगत मनःसंकल्प में भक्तपान की गवेषणा, ग्रहण और भोजन करने से घटित होने वाले चार-चार भंगों की प्ररूपणा। ५७९१,५७९२ अनुदित मनःसंकल्प की चार लताएं। ५७९३-५८०० लताओं की शुद्ध-अशुद्ध की मार्गणा। ५८०१ सूर्य के अनुद्गत अथवा अस्तमित होने पर भोजन करने वालों में महादोषी कौन? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। ५८०२ अनुदित और अस्तमित समय में भक्तपान को गाथा संख्या विषय ग्रहण करने वाला मुनि प्रायश्चित्त को कब प्राप्त करता है? ५८०३ सूर्य के अनुदित और अस्तमित को जानते हुए भी मुनि के कवलप्रमाण की अपेक्षा से भोजन करने पर प्रायश्चित्तों का नानात्व। ५८०४ सूर्य के अनुदित और अस्तमित को जानते हुए गणी-उपाध्याय और आचार्य के कवल प्रमाण की अपेक्षा से भोजन करने पर प्रायश्चित्तों की तरतमता। ५८०५,५८०६ सूर्य के अनुदित और अस्तमित के ज्ञात-अज्ञात अवस्था में कवल आहार करने पर अथवा बार बार के ग्रहण पर प्रायश्चित्तों की तरतमता। ५८०७ संस्तृत-असंस्तृत पदों की व्याख्या। ५८०८,५८०९ मुनि के अशुद्ध परिणामों के कारण प्रायश्चित्त। शुद्ध में प्रायश्चित्त नहीं। ५८१० सूर्य के अनुद्गत या अस्तमित की पहचान। ५८११ सूर्य के उदित अथवा अस्तमित के भ्रम के कारण। ५८१२,५८१३ सूर्य के अनुद्गत या अस्तमित की स्थिति में मुंह अथवा पात्र में गृहीत भक्तपान का परिष्ठापन, अन्यथा प्रायश्चित्त। विवेचन और विशोधन में नानात्व। ५८१४ रात्रीभक्तव्रत का अतिक्रमण-अनतिक्रमण करने वाला कौन? ५८१५ विचिकित्स सूत्र का स्वरूप। ५८१६ सूर्य अनुदित या उदित, सूर्य अस्तमित या अनस्तमित-इन विकल्पों के आधार पर होने वाले विविध भंग। ५८१७-५८२७ असंस्तृत के तीन प्रकार तथा उनका स्वरूप। उनसे निष्पन्न विविध प्रायश्चित्त आदि। . उग्गाल-पदं सूत्र १० ५८२८ अभ्रसंस्तृत विचिकित्सा का स्वरूप तथा प्रायश्चित्त आदि। ५८२९ रात्री में आने वाले उद्गार को निगलने का प्रतिषेधात्मक सूत्र तथा द्रव्य प्रमाण का प्रतिपादन। ५८३०-५८३२ भिक्षु, आचार्य आदि को उद्गार संबंधी प्रायश्चित्त तथा दोष। अमात्यवटुक का उदाहरण। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ५८३३ उद्गार होने का कारण। ५८३४-५८४५ संखड़ी भोजी साधु के दो प्रकार तथा उनके प्रकारान्तर और स्वरूप। तद्विषयक विविध पदों से संबंधित प्रायश्चित्त और प्रायश्चित्त के प्रस्तार की रचना। ५८४६-५८५४ उद्गार को लक्षित कर परिमित भोजन संबंधी विविध निर्देश। लोही कवल्ली का दृष्टांत। भोजन के प्रमाण विषयक अनादेश। आचार्य द्वारा समाधान। ५८५५ मुंह से निर्गत ससिक्थ द्रव को चबाने से भिक्षु, उपाध्याय आदि को प्राप्त होने वाला नानाविध प्रायश्चित्त। अदृष्ट में लघु, दृष्ट में गुरु। ५८५६-५८६० उद्गार निगलने संबंधी अपवाद और तद्विषयक रत्नवणिक् का दृष्टान्त। आहारविहि-पदं . सूत्र ११ ५८६१ वान्त अनेषणीय ग्रहण की अयुक्तता। ५८६२ प्राण, बीज, रज आदि पदों की व्याख्या। ५८६३,५८६४ वस जीवों के दो प्रकार तथा उनका स्वरूप। ५८६५,५८६६ यतनापूर्वक भक्तपान का ग्रहण। ग्रहण करने पर पात्र में लिए हुए आहार की प्रेक्षा। अन्यथा प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। ५८६७ भक्त आदि प्राणियों से संसक्त देश में जाने का संकल्प आदि करने से प्रायश्चित्त का नानात्व। ५८६८-५८७५ अशिव आदि कारणों से संसक्त देश में जाने पर संसजिम द्रव्यों को लेने के उपाय। ५८७६ क्षिप्र का अर्थ और उसका कालमान। ५८७७-५८८० प्राणीसंसक्त ओदन आदि द्रव्यों का परिष्ठापन कहां, कब, कैसे करना चाहिए? तदर्थ विधि। ५८८१-५८८३ संसक्त सक्तू के ग्रहण, प्रत्युपेक्षण, परिष्ठापन आदि की विधि। ५८८४ कांजी के संसक्त होने पर उसके शोधि की विधि तथा अन्य जलों के ग्रहण की विधि। ५८८५-५८९६ ग्लानत्व, अवम आदि आपवादिक कारणों में पिंड आदि की अप्रत्युपेक्षण विधि। ग्रहण, उपयोगविधि और यतनाएं। पाणगविहि-पदं सूत्र १२ ५८९७ पानक विधि विधायक सत्र तथा पानक के कायचतुष्क। गाथा संख्या विषय ५८९८ दक, दकरज, दक स्पर्शित आदि पदों की व्याख्या। . ५८९९-५९१८ उदक ग्रहण की विधि। अशुद्ध ज्ञात होने पर परिष्ठापन विधि। उष्ण-शीत के संगम से चतुर्भगी का प्रतिपादन तथा अपवाद विधि। मेहुणपडिसेवणा-पदं सूत्र १३-१४ ५९१९ प्रस्तुत सूत्र ब्रह्मव्रत रक्षा हेतु इन्द्रिय-श्रोत विषयक चर्चा। ५९२० पशु और पक्षी गण के उदाहरण। अनायतन में आर्याओं के अवस्थान, प्रस्रवण और उच्चार आदि के लिए जाना प्रतिषिद्ध । अन्यथा आज्ञाभंग आदि दोष और प्रायश्चित्त विधि। ५९२२-५९२४ पशु-पक्षियों के स्थान पर जाने से होने वाले दोष। ५९२५ आर्याओं के लिए हाथ में दंड लेकर बाहर निकलने की विधि। ५९२६ जहां पशु-पक्षी स्रोतोवगाहन करते हैं वहां रहने वाली आर्याओं को लगने वाला प्रायश्चित्त। ५९२७ कारणवश एकाकिनी साध्वी का रात्री में देह चिन्ता निवारण के लिए जाने की विधि। ५९२८ किसी साध्वी के मोह उत्पन्न होने पर उसे विविध उपायों से उपशांत करने की विधि। बंभचेरसुरक्खा -पदं सूत्र १५ ५९२९ ब्रह्मव्रत रक्षार्थ संयती वर्ग के लिए प्रतिपादक सूत्र तथा निर्ग्रन्थों के लिए एकाकिसूत्र का निरूपण। ५९३०-५९३३ एकाकिनी साध्वी द्वारा भिक्षा आदि के लिए गमन करने पर प्राप्त होने वाला प्रायश्चित्त, दोष और उससे अपवाद। ५९३४ कारण में एकाकिनी साध्वी के लिए मार्गगत यतना। सूत्र १६ ५९३५ आर्याओं के लिए अचेलकत्व का निषेधसूत्र । ५९३६,५९३७ साध्वी अचेलिका क्यों नहीं हो सकती? ५९३८,५८३९ साध्वी के अचेलिका रहने पर आने वाला प्रायश्चित्त, दोष और अपवाद। सूत्र १७ ५९४०-५९४२ साध्वियों को पावरहित रहना अकल्पनीय। स्नषा का दृष्टांत। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० गाथा संख्या विषय ५९४३ साध्वी पात्ररहित कब ? सूत्र १८ आर्यिका के लिए व्युत्सृष्टकाय होने की अकल्पनीयता अपवाद में उसकी कल्पनीयता । सूत्र १९, २० आतापना के तीन प्रकार तथा उनका अर्थ । निपन्न आतापना के तीन प्रकार तथा उसका वर्णन | निषण्ण आतापना तथा जघन्य आतापना के तीन-तीन प्रकार । मध्यम और जघन्य आतापना के तीन-तीन प्रकार | निपन आतापना उत्कृष्ट क्यों ? उसका कारण । नौ प्रकार की आतापनाओं में से आर्यिकाओं के लिए कौन सी अनुज्ञात ? ५९५१,५९५२ आर्या का आतापना कहां लेनी चाहिए ? अविधि मैं दोष ५९४४ ५९४५ ५९४६ ५९४७ ५९४८ ५९४९ ५९५० सूत्र २१-२३ ५९५३,५९५४ स्थानायत, प्रतिमास्थित आदि पदों की व्याख्या । उसकी पांच निषधाएं आर्याओं के लिए उनका निषेध | ऊर्ध्वस्थान के स्थानविशेष में स्थित आर्याओं को होने वाली हानियां । आर्याओं के लिए कौन से आसन कल्पनीय तथा कौन से अकल्पनीय ? अभिग्रहरूप तप कर्म निर्जरा के लिए, फिर साध्वियों को प्रतिषेध क्यों ? शिष्य की जिज्ञासा । आचार्य का समाधान । कायोत्सर्ग के दो प्रकार तथा आर्यिकाओं के लिए कौन सा कायोत्सर्ग प्रतिषिद्ध ? कौन सी आर्या मुनियों के लिए प्रशंसनीय नहीं होती ? ५९५५ ५९५६ ५९५७ ५९५८ ५९५९ ५९६०,५९६१ कौन सी आर्यिकाएं शुद्ध ? ५९६२ ५९६३ ५९६४ केवली स्त्री भी गच्छवास में रहती है तो संयती के गच्छवास में रहने में क्या आपत्ति ? स्त्रीवेद के प्रज्वलित होने का कारण । गीतार्थ अमीतार्थ के लिए व्युत्सृष्टकायिक पद कारण- अकारण में कल्पनीय । गाथा संख्या विषय आकुंचण पट्टादिपदं सूत्र २४, २५ ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए निर्ग्रन्थियों के लिए पट्ट आदि की अकल्पनीयता तथा निर्ग्रन्थों के लिए कल्पनीयता । ५९६६, ५९६७ पर्यस्तिकापट्ट को धारण करने पर साध्वी को लगने वाले दोष तथा उससे संबद्ध यतनाएं और अपवाद । पर्यस्तिकापट्ट की बनावट, प्रमाण और ग्रहण का प्रयोजन | ५९६५ ५९६८ ५९६९ ५९७० ५९७१ ५९७२ ५९७३ ५९७४ ५९७५ बृहत्कल्पभाष्यम् ५९८१ सूत्र २६-२९ पीढ फलक पर बैठने से आर्थिकाओं को लगने वाले दोष अपवाद में स्थविरा साध्वी के लिए उस पर बैठने की कल्पनीयता । मुनियों द्वारा कब स्थविरा साध्वी के लिए सविषाण पीढ फलक लाने की विधि । श्रमणों के लिए पीढ फलक की आज्ञा । फलक को ग्रहण करने के कारण। सूत्र ३०,३१ साध्वी के लिए वृत्त सहित अलामुपात्र रखने की अकल्पनीयता उससे लगने वाले बोध तथा उसके रखने की अपवाद विधि । सूत्र ३२,३३ निर्ग्रन्थियों के लिए दण्डयुक्त पात्रकेसरिका रखने की अनाज्ञा । उससे लगने वाला प्रायश्चित्त, अप्रतिलेखना और विराधना आदि दोष । सूत्र ३६ ५९७६ संयत संयती के लिए मोक सूत्र का प्रतिपादन ५९७७-५९८० संयत संयती का तथा संयती संयत का मोक प्रस्रवण को निशाकल्प मानकर रात्री में आचमन करने से प्रायश्चित्तविधि, आज्ञाभंग आदि दोष तथा अपवादविधि | मोक आचमन से शैक्ष के मन में होने वाला अन्यथा भाव। सूत्र ३४,३५ निर्ग्रन्थियों को सनालपात्र और दारुदंडक को कारणवश ग्रहण करने की विधि । पासवण पदं www.jainelibrary.arg Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ५९८२ प्रत्यनीक सार्थवाह को आभिचारुका विद्या से अनुकूल करने की विधि। ५९८३ मोक आचमन से तथा उच्छिष्ट मंत्र द्वारा साधु को वेदनामुक्त करने का उपाय। ५९८४ निशाकल्प गीतार्थ के लिए आचीर्ण। रात्री में मोक से आचमन की विधि। द्रव न रखने की पद्धति और अपवाद विधि। ५९८५ रात्री में शैक्ष द्वारा यतनापूर्वक द्रव रखने की विधि तथा मलनिरोध से होने वाले दोष। ५८८६-५९८८ परस्पर एक दूसरे का मोक पीने से होने वाले दोष तथा प्रायश्चित्त। देवी का दृष्टान्त। संयती का मोक पीने से होने वाले दोष। ५९८९ मोक का आचमन कब और कैसे? ५९९०-५९९६ मुनि को सर्प द्वारा काटे जाने पर स्वपक्ष का मोक विहित। आपवादिक आदि कारणों में साध्वियों के प्रतिश्रय में जाने की तथा वहां से मोक लाने की विधि। वहां रक्षणीय यतना। परिवासियभोयण पदं सूत्र ३७ ५९९७ रात्री में मोक पीने की पद्धति तथा शेष आहार का अनाभोग। ५९९८-६००४ आहार-आनाहार क्या? शिष्य की जिज्ञासा आचार्य का उत्तर। आहार के चार प्रकार तथा उनका स्वरूप। ६००५-६०१२ परिवासित आहार तथा अनाहार विषयक दोषों का वर्णन और अपवादादि। सूत्र ३८ ६०१३,६०१४ आलेप तथा लोमाहार विषयक सूत्र का प्रतिपादन। ६०१५-६०१७ व्रण चिकित्सा में आलेपन और म्रक्षण-दोनों में पौर्वापर्य संबंध है या नहीं? शिष्य की जिज्ञासा तथा आचार्य द्वारा एकांतमत का खंडन। ६०१८ सूत्र में कथित होने के कारण रात्री में आलेप रखने से प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग दोष आदि तथा विराधना। ६०१९-६०२४ आलेपन तथा परिवासित रात्री में रखने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त। सूत्र ३९ ६०२५ आलेपन के दो प्रकार तथा व्रण की चिकित्सा आलेप और म्रक्षण से करने की विधि। गाथा संख्या विषय ६०२६,६०२७ यदि परिवासित से रक्षण करना नहीं कल्पता तो क्या उसी दिन आनीत द्रव्य से रक्षण करना कैसे कल्पेगा? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य द्वारा समाधान। द्रव्य से म्रक्षण करने पर प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष और विराधना का प्रसंग आदि। ६०२८,६०२९ अपवादपद में यतनापूर्वक म्रक्षण करने की विधि। ६०३०-६०३२ तद्दिवस आनीत म्रक्षण की भांति परिवासित की भी कल्पनीयता तथा उससे चिकित्सा की विधि। अहालहुसगववहार-पदं सूत्र ४० ६०३३ मुनि के परिहारतप के कारणों का निर्देश। ६०३४,६०३५ पारिहारिक तप करने वाले मुनि के लिए वाद का प्रसंग उपस्थित हो जाने पर उसके द्वारा की जाने वाली प्रतिसेवनाओं का स्वरूप। ६०३६ पारिहारिक के लिए आचार्य द्वारा परिषद् में प्रायश्चित्त की प्रस्थापना। ६०३७ पारिहारिक को प्रायश्चित्त देने के अधिकारी कौन? ६०३८ दूसरों के विश्वास के लिए व्यवहार-प्रस्थापना की विधि। ६०३९,६०४० व्यवहार के तीन प्रकार तथा तीनों के तीन-तीन प्रकार। इन व्यवहारों से यथानुपूर्वी प्रायश्चित्तों का निरूपण। ६०४१ गुरुक व्यवहार पक्ष में प्रायश्चित्त प्रतिपत्ति का स्वरूप। ६०४२ लघुक व्यवहार पक्ष में तथा लघुस्वक व्यवहार पक्ष में प्रायश्चित्त प्रतिपत्ति का स्वरूप। ६०४३ गुरु व्यवहार के पूर्ति विषयक तपःप्रतिपत्ति का निरूपण। ६०४४ तीन प्रकार के लधुक व्यवहार की तथा लघुस्वक व्यवहार, लघुतरकव्यवहार और यथालघुकव्यवहार की तपःप्रतिपत्ति का निरूपण। परिहारतपप्रायश्चित्त वहन करते मुनि के प्रति यथालघुस्वक व्यवहार की प्रस्थापना करने की विधि। शुद्धि का स्वरूप। ६०४५,६०४६ शिष्य द्वारा प्रायश्चित्त लेने और आचार्य द्वारा प्रायश्चित्त देने की विधि। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय पुलागभत्त-पदं सूत्र ४१ ६०४७ व्रतिनी विषयक यश संरक्षणार्थ प्रतिपादन सूत्र। ६०४८ पुलाक के तीन प्रकार तथा आचार्य, प्रवर्तिनी के द्वारा सूत्र न कहने पर, आर्याओं द्वारा स्वीकार न करने पर तथा सुभिक्ष में पुलाक ग्रहण करने पर सभी को प्रायश्चित्त। ६०४९ धान्यपुलाक, गंधपुलाक, रसपुलाक का स्वरूप। ६०५० पुलाक का अर्थ तथा उनकी निस्सारता का कारण। ६०५१-६०५७ तीनों प्रकार के पुलाकों के ग्रहण से लगने वाले दोषों का वर्णन तथा दुर्भिक्ष आदि कारणों में पुलाक भक्त के ग्रहण और खाने के बाद की यतनाएं। ६०५८ अवम आदि स्थानों में मद्य, पलांडु, लहसुन आदि द्रव्यों के ग्रहण का निषेध। पूर्व में गृहीत हो तो उन्हीं का भोजन करने की विधि तथा आतिथ्य के लिए अपवाद। ६०५९ निर्ग्रन्थों के लिए पुलाक संबंधी यतना। छठा उद्देशक अवयण-पदं सूत्र १ ६०६०-६०६२ साध्वी के लिए कारणवश गंध पुलाक पीकर अलीक वचनों के बोलने का निषेध तथा पारिहारिक मुनि के लिए छह वचनों को छोड़कर वाद करने की विधि। ६०६३ अवक्तव्य वचनों के छह प्रकार। ६०६४ वक्ता और वचनीय का स्वरूप। ६०६५ अलीक वचन कहने वाले के भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रायश्चित्त की वक्तव्यता। ६०६६-६०८७ अलीक वचन के विविध स्थान। उनका स्वरूप तथा उनसे लगने वाला प्रायश्चित्त। ६०८८,६०८९ हीला, खिंसा, परुष, गृहस्थवचन आदि वचन बोलने वालों को लगने वाला प्रायश्चित्त। ६०९० हीलित वचन के दो आधार तथा उनका स्वरूप। ६०९१-६०९८ खिसितवचन का स्वरूप तथा तविषयक खिंसना करने वाले साधु का दृष्टान्त। ६०९९-६१०१ परुष वचन के दो प्रकार तथा लौकिक परुष गाथा संख्या विषय वचन का स्वरूप तथा उससे संबद्ध व्याध और कौटुम्बिक पुत्रियों का दृष्टान्त। ६१०२-६१०४ लोकोत्तरिकपरुष वचन का स्वरूप। उसकी उत्पत्ति के पांच स्थान। तद्विषयक चंडरुद्र आचार्य का दृष्टान्त। ६१०५-६१०८ लोकोत्तरिक परुष वचन के पांच प्रकार तथा उनसे आने वाले प्रायश्चित्त की विविधता का स्वरूप। ६१०९,६११० आचार्य की भांति उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर तथा क्षुल्लक के साथ आलप्त आदि पदों में मौन आदि छह प्रकारों में यथाक्रम एक-एक प्रायश्चित्त की न्यूनता। ६१११ निर्ग्रन्थी वर्ग के पद के पांच प्रकार तथा उनके आश्रित प्रायश्चित्त की चारणिका। ६११२ सामान्य आगाढ़, निष्ठुर और कर्कश वचन बोलने पर तथा परुष वचन बोलकर प्रद्वेष से जो कुछ किया जाए, उनमें आने वाले प्रायश्चित्त की विविधता। ६११३-६१२० निष्ठुर, कर्कश, अगारस्थित और व्यवशमित उदीरणा वचन का स्वरूप तथा तद्विषयक प्रायश्चित्त। ६१२१-६१२८ अलीक आदि छह प्रकार के वचन किस किस के लिए वक्तव्य होते हैं। उनका वर्णन तथा तद्विषयक अपवाद और यतनाएं। कप्पस्स पत्थार-पदं सूत्र २ ६१२९ शोधिदान का अधिकृत सूत्र का निरूपण। ६१३० प्रस्तार का अर्थ। प्रस्तार के चार प्रकार। प्रायश्चित्त के दो भेद। तथा उनके अनेक भेद प्रभेद। ६१३२ मुनि कब और कैसे दोष का स्वयं भागी बन जाता है? ६१३३ प्रस्तार के छह प्रकार। ६१३४-६१४१ प्राणवध विषयक प्रायश्चित्त प्रस्तार और तद्विषयक दर्दुर, शुनक, सर्प, मूषक आदि का दृष्टान्त। ६१४२-६१४८ मृषावाद और अदत्तादान विषयक प्रायश्चित्त प्रस्तार और उनसे संबद्ध क्रमशः संखड़ी और • मोदक का दृष्टान्त। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय ६१४९-६१५२ अविरतिवाद विषयक प्रायश्चित्त प्रस्तार तथा रत्नाधिक के प्रति प्रतिशोध की भावना से अवमरात्निक का व्यवहार। वातद का दृष्टान्त। ६१५३-६१५६ अपुरुषवाद विषयक प्रायश्चित्त प्रस्तार। ६१५७-६१६१ दासवाद विषयक प्रायश्चित्त प्रस्तार। ६१६२ प्रस्तार विषयक अपवाद। कंटकादिनीहरण-पदं सूत्र ३-६ ६१६३ कल्पिक सूत्रों और अकल्पिक सूत्रों का भाजन। ६१६४ सूत्रतः अनुज्ञात का अर्थतः प्रतिषेध क्यों? उसका समाधान। ६१६५ अभ्याख्यान सिद्ध न करने पर उसी को प्रायश्चित्त। ६१६६ श्रमण के पैरों में कांटा लगने अथवा आंख में कणुक गिरने पर श्रमण द्वारा निकालने की विधि। व्यत्यास करने पर प्रायश्चित्त। ६१६७-६१७० निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के परस्पर कांटा निकालने तथा आंखों से कणुक निकालने पर होने वाले रागजनित दोष और स्पर्श से भाव संबंध होने की संभावना तथा अजापालक और रोहा परिव्राजिका का दृष्टान्त। ६१७१,६१७२ परस्पर कंटकोद्धरण करवाने पर प्राप्त होने वाला विविध प्रायश्चित्त। ६१७४,६१७५ श्रमण के अभाव में अन्य गृहस्थों से कंटकोहरण की विधि। ६१७६,६१७७ गृहस्थ के अभाव में नालबद्ध-अनालबद्ध स्त्रियों से कंटकोद्धरण की विधि। ६१७८,६१७९ कंटकोद्धरण करने साधुओं का अभाव कब? स्वपक्ष परपक्ष यतना का स्वरूप। ६१८० स्त्री द्वारा कंटकोद्धरण की विधि। ६१८१ साध्वी द्वारा साधु के आंख से तृण अपनयन की विधि। सुभद्रा का उदाहरण। निग्गंथी अवलंबण-पदं सूत्र ७-९ ६१८२ पंकविषयक तथा नौ विषयक सूत्र का प्रतिपादन। दुर्ग के तीन प्रकार तथा उनका स्वरूप। तीनों प्रकार के दुर्गों में निर्ग्रन्थ-निन्थी को निष्कारण अवलंबन देने से प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। गाथा संख्या विषय ६१८४ निर्ग्रन्थी को अवलम्बन देने से लगने वाले दोष। ६१८५ विषम के तीन प्रकार। नौका आदि में निष्कारण निर्ग्रन्थी को अवलम्बन देने से दोष। कारण में यतनापूर्वक अवलम्बन देने की विधि। ६१८६ प्रस्खलन, प्रपतन का स्वरूप। ६१८७ निर्ग्रन्थी को दुर्ग या विषम में अवलम्बन देने वाला गीतार्थ तथा स्थविर निर्ग्रन्थ निर्दोष। ६१८८,६१८९ पंक, पनक तथा सेक आदि पदों की व्याख्या। तथा उनका स्वरूप। ६१९०,६१९१ निर्ग्रन्थ द्वारा निर्ग्रन्थी को नौका चढ़ाते समय अथवा जल के भीतर उसे अवलम्बन देने पर होने वाले दोष। अपवाद में यतनाएं। ६१९२ ग्रहण तथा अवलम्बन का अर्थ। उपरोक्त विधि से व्रतिनी द्वारा व्रती को ग्रहण करने या अवलम्बन देने पर मर्यादा का लोप नहीं। ६१९३ बाल, वृद्ध आदि अशक्त व्यक्ति के दुर्ग में जाने पर नालबद्ध-अनालबद्ध साध्वी द्वारा संरक्षण देना विहित। सूत्र १० क्षिप्तचित्त के संबंध सूत्र की व्याख्या। ६१९५-६१९९ क्षिप्तचित्त होने के तीन कारण तथा उनके सोमिल आदि लौकिक उदाहरण। ६२००-६२०५ क्षिप्तचित्त को स्वस्थ करने की विधि। ६२०६-६२०९ हाथी, सिंह, शस्त्र, अग्नि आदि के भय से क्षिसचित्त साध्वी के लिए रक्षणीय यतना। यतना न करने पर प्रायश्चित्त। ६२१०-६२१७ क्षिप्तचित्त साध्वी की यतनापूर्वक संरक्षण के . कारण और विधि। सार-संभाल न करने वाले को प्रायश्चित्त। ६२१८-६२२१ क्षिसचित्त साध्वी की प्रतिचर्या का कालमान। स्वस्थ न होने पर प्रतिचरण की विधि। ६२२२ दैविक तथा धातुक्षोभ विषयक यतनाएं। ६२२३ क्षिसचित्त साध्वी के स्वस्थ होने पर प्रायश्चित्त विषयक तीन आदेश। ६२२४,६२२५ वृद्धि हानि के आधार पर चारित्र विषयक चार भंग। किस किस श्रेणी वाले का चारित्र घटता बढ़ता है, उसका निदर्शन। ६२२६,६२२७ क्षिप्तचित्त साध्वी के कर्मबंध न होने का कारण। ६२२८ कर्म के बंधक कौन ? ६१८३ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ६२२९-६२३४ शिष्य की जिज्ञासा-यंत्रमयी नर्तकी परतंत्र होते हुए क्रिया के फल से युक्त नहीं होती तो क्षिप्तचित्त साध्वी विरुद्ध क्रियाएं करती हुई भी क्रिया फल से संबद्ध नहीं होती। आचार्य का युक्तिपूर्ण समाधान। ६२३५-६२४० व्यवहार के प्रकार तथा उनके आधार पर प्रायश्चित्त की गुरुता-लघुता। सूत्र ११ ६२४१ निर्ग्रन्थी के दीप्तचित्त ज्ञायक सूत्र का निर्देश। ६२४२-६२४९ दीप्तचित्त होने के कारण। लाभमद से मत्त विषयक सातवाहन का दृष्टान्त। ६२५० किन प्रसंगों से लाकोत्तरिक दीप्तचित्त? ६२५१-६२५५ दीप्तचित्त साध्वी को युक्तपूर्ण उपाय से स्वस्थ करने की विधि। सूत्र १२ ६२५६,६२५७ क्षिप्तचित्त और दीप्सचित्त-इन दोनों की भेदरेखा। ६२५८-६२६१ दीप्तचित्त में यक्षाविष्ट होने के दो कारण। उनसे संबंधित सपत्नी तथा मृतक सहोदर भाई का दृष्टान्त। ६२६२ यक्षाविष्ट साध्वी की चिकित्सा के लिए भूतचिकित्सा कराने का निर्देश। सूत्र १३ ६२६३ मोह जनित उन्माद के विषय का प्रतिपादक सूत्र । ६२६४-६२६७ उन्माद होने के कारण। उसके तीन प्रकार तथा उनके प्रतिकार की विधि। सूत्र १४ ६२६८ आत्मसंवेदिक उपसर्ग की परिभाषा। ६२६९,६२७० उपसर्ग के तीन प्रकार। उनका स्वरूप। मनुष्य कृत उपसर्ग के प्रतिकार की विधि। तिर्यंचकृत उपसर्गों को स्वयं निवारित करने का विधान। ६२७१-६२७५ अभियोग के दो प्रकार। दोनों को लक्षण के द्वारा जानने की विधि। अभियोजित साध्वी के प्रतिकार की विधि। ६२७६ तिर्यंचों के उपसर्ग से उपद्रुत संयती की रक्षा करने का निर्देश। अन्यथा श्रमण के लिए प्रायश्चित्त का विधान। सूत्र १५ ६२७७ किसी गृहस्थ अथवा परिजन द्वारा श्रमणी का अभिभव करने पर होने वाले कलह को मुनि द्वारा उपशांत करने का निर्देश। गाथा संख्या विषय ६२७८ संयती का गृहस्थ के साथ कलह उत्पन्न होने पर गृहस्थ को शांत और निवारित करने की विधि। सूत्र १६ ६२७९ कलह करके, क्षमायाचना कर साध्वी को प्रायश्चित्त देने की विधि। ६२८० साध्वी को प्रायश्चित्तमुक्त कब करना चाहिए? प्रायश्चित्त वहन करती हुई क्लान्त साध्वी को आश्वासन देने की विधि तथा क्षिप्तचित्त होने पर चिकित्सा कराने का निर्देश। सूत्र १७ ६२८१,६२८२ प्रायश्चित्त तप के दो प्रकार। अनशन में साध्वी को आलम्बन देना निर्ग्रन्थ के लिए कल्पनीय। ६२८३ असमाधि की अवस्था में साध्वी को समाधि उपजाने के उपाय। ६२८४ असमाधि अवस्था में साध्वी द्वारा अनशन का निर्वहन न कर सकने के कारण व्यवहारप्रायश्चित्त देने की विधि। दूसरे गच्छ में जाने पर मिथ्यादुष्कृत से शुद्धि। सूत्र १८ ६२८५ अनशनग्रहण करने वाली 'यह मेरी सेवा करेगी' इस दृष्टि से दासी आदि को दीक्षित करना कल्पनीय। ६२९६-६२९१ अर्थजात की आवश्यकता कब? कहां? इनसे संबंधित राज सेवक की भार्या, अपरिग्रहगणिका आदि का उदाहरण। ६२९२-६३०९ ऋणार्त्त को मुक्त कराने के उपाय। ऋषिकन्या और मुनिपिता का उदाहरण। परायत्त को दीक्षा देने और अनार्य देश में जाने की विधि। पलिमंथू-पदं ६३१० ६३१२ ६३१३ ६३१४ ६३१५ सूत्र १९ दर्प से परायत्त को दीक्षित अथवा अनार्य देश में विहरण करने से परिमंथ। परिमंथ क्या? उसका स्वरूप। अन्त्य षट्कद्वय का प्रारंभ। परिमंथ निक्षेप के चार प्रकार और एकार्थक नाम। द्रव्य परिमंथ तथा भाव परिमंथ के चार-चार प्रकार और उनका स्वरूप। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम गाथा संख्या विषय द्रव्यपरिमंथ मंथिक अर्थात् मन्थान के समान। साधु-समाचार भी परिमंथ से विनष्ट। ६३१७,६३१८ कौन सा परिमंथ किसका? उसका निर्देश। ६३१९,६३२० कौत्कुचिक के तीन प्रकार। उनका अर्थ और उनसे आने वाला प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष। ६३२१,६३२२ स्थान कौत्कुचिक का स्वरूप तथा उससे लगने वाली आत्म तथा संयमविराधना आदि दोष। ६३२३ शरीर कौत्कुचिक का स्वरूप। ६३२४,२४२५ भाषा कौत्कुचिक का स्वरूप। उससे होने वाले दोष। तद्विषयक श्रेष्ठी का दृष्टान्त। ६३२६ पूर्व उल्लिखित मृत तथा सुप्त मुनि का दृष्टान्त। ६३२७,६३२८ मौखरिक का स्वरूप तथा उससे निष्पन्न दोष और प्रायश्चित्त। तद्संबद्ध लेखहारक का दृष्टान्त। ६३२९-६३३१ चक्षु लोलुप का स्वरूप तथा उससे लगने वाले दोष। ६३३२ तितिणिक का स्वरूप तथा इच्छालोभ का अर्थ तद्विषयक प्रायश्चित्त और दोष। ६३३३,६३३४ निदान करने के दोष तथा उनका वर्जन। ६३३५-६३४२ साध्वाचार के छह परिमंथ से संबद्ध अपवाद आदि की विवेचना। ६३४३ निदान में अपवाद नहीं होने का कारण। ६३४४ निदान करने से भववृद्धि। ६३४५ दरिद्र के भव की वांछा करने वालों के लिए बहुमूल्य रत्न को अल्पमूल्य में बेचने का उदाहरण। ६३४६ मुक्त कौन होता है? ६३४७ बोधि प्राप्ति का हेतु क्या है? ६३४८ कर्मबंध का कारण क्या है? गाथा संख्या विषय ६३५५ कल्प के प्रकार की तरह स्थिति के प्रकार तथा स्थिति और मर्यादा की एकार्थता। ६३५६ प्रतिष्ठा आदि आठ पदों की एकार्थकता तथा स्थिति के तीन विशेष रूप। ६३५७ षड्विध कल्पस्थिति का प्रतिपादन। ६३५८,६३५९ सामायिक कल्पस्थिति का निरूपण। वह कितने स्थानों में स्थित, अस्थित और कितने स्थानों में प्रतिष्ठित हैं? ६२६० पहली कल्पस्थिति कितने स्थानों में स्थित और कितने में अस्थित। दूसरी कल्पस्थिति कितने स्थानों में स्थित होती है तथा निर्विशमान तथा निर्विष्ट कल्प का अर्थ। ६३६१ अवस्थित कल्प के चार प्रकार। ६३६२ अनवस्थित कल्प के छह प्रकार | ६३६३,६३६४ छेदोपस्थापनीय संयत की दसस्थानस्थितकल्प का निरूपण। ६३६५-६३६८ अचेल के दो प्रकार। उनका स्वरूप। ६३६९,६३७० तीर्थंकर परम्परा में अचेलकत्व और सचेलकत्व का विभाग। वस्त्रों का स्वरूप। ६३७१ उत्कृष्ट उपधि आदि धारण करने के आपवादिक कारण। ६३७२,६३७३ निरुपहत के द्वारा लिंगभेद करने पर प्रायश्चित्त। लिंगभेद करने के आपवादिक कारण तथा लिंगभेद के प्रकार। ६३७४ अन्यलिंग कब और कैसे? ६३७५ आधाकर्म के एकार्थक तथा आधाकर्म के ग्रहण संबंधी प्रश्न। ६३७६ स्थितकल्प अथवा अस्थितकल्प साधु-साध्वियों के लिए कौन से भक्तपान की कल्पाकल्पनीयता। ६३७७ आधाकर्म भोजन किसको और कब कल्पनीय? ६३७८ शय्यातर पिंड का प्रतिषेध तथा उसके ग्रहण करने पर अनेक दोष। ६३७९ शय्यातरपिंड ग्रहण किन कारणों में। ६३८० कृतयोगी मुनि सागारिकपिंड की निषेवना कब करे? ६३८१ राजपिंड विषयक ग्रहण-अग्रहण की सभी दृष्टियों से मीमांसा। ६३८२ राजा के दो प्रकार तथा उनका स्वरूप। 323 राजा की चतुभंगी तथा उनमें किसका राजपिंड ग्रहणीय ? सूत्र २० ६३४९ कल्पस्थिति की व्याख्या। ६३५० निश्चय और व्यवहार नय के आधार पर कल्प और स्थिति का निरूपण।। ६३५१-६३५३ स्थिति और स्थान, गति और गमन का एकत्व क्यों? ६३५४ स्थान और स्थिति, गमन और गति में किस अपेक्षा से नानात्व-अनानात्व? Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ गाथा संख्या विषय ६३८४ ६३८५ राजपिंड के आठ प्रकार ।. आठ प्रकार के राजपिंड में किसी भी प्रकार का राजपिंड ग्रहण करने से लगने वाले दोष । ६३८६-६३८८ भिक्षार्थ गए हुए भिक्षु के ईश्वर आदि के निर्गमन और प्रवेश करते समय व्याघात के कारण तथा ईश्वर आदि पदों का तात्पर्य । ६३८९-६३९७ राजभवन में भिक्षा के लिए जाने पर लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त विधि | कृतिकर्म के दो प्रकार । श्रमण श्रमणियों को परस्पर करणीय। श्रमणियों के लिए श्रमणों का कृतिकर्म करना क्यों आवश्यक ? ६३९८ ६३९९ ६४००,६४०१ साधु द्वारा साध्वी वन्दनीय क्यों नहीं ? ६४०२ ६४०३ कौन-कौन से तीर्थंकरों के साधुओं का कल्प दुर्विशोध्य, दुरनुपाल्य और सुविशोध्य होता है ? ६४०४-६४०६ प्रथम तथा चरम तीर्थंकर के मुनियों पर अनुशासन करना कष्टप्रद क्यों ? मध्यम तीर्थंकर के मुनियों पर अनुशासन करना सुगम क्यों ? ६४०७ पंचयाम धर्म के प्रवर्तक तथा चतुर्याम धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर । ६४०८ ६४०९ कृतिकर्मज्येष्ठ कौन ? जिन स्थानों में उपस्थापन होती है, उन स्थानों का उल्लेख। उसके तीन आदेश । ६४१०,६४११ पहले आदेश का स्वरूप । ६४१२,६४१३ दूसरे आवेश का स्वरूप। ६४१४ तीसरे आदेश का स्वरूप | ६४१५ ६४१६ ६४१७ ६४१८ ६४१९ उपस्थापना कब ? मिथ्यादुष्कृत मात्र से मुनि की शुद्धि कब ? पुनः उपस्थापना किसको नहीं ? मूलतः उपस्थापना कब ? किसको ? क्षिप्तचित्त आदि के कारण षड्जीवनिकाय की विराधना करने पर गुरु के पास आलोचना आवश्यक । ६४२० मूलच्छेद्य प्रायश्चित्त कैसे कराए ? ६४२१,६४२२ प्रायश्चित्त योग्य को अनुचित प्रायश्चित्त, अप्रायश्चित्ती को प्रायश्चित्त तथा प्रायश्चित्ती को अतिमात्रा में प्रायश्चित्त देना मोक्ष मार्ग की विराधना का हेतु। गाथा संख्या ६४२३ ६४२४ ६४२५ विषय सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त देने पर लगने वाले दोष । उन्मार्ग देशना से महामोह का बंधन | - प्रतिक्रमणयुक्त धर्म किन किन तीर्थंकरों का होता है? कौन से साधु गमनागमन आदि करते हुए नियमतः प्रातः सायं का प्रतिक्रमण करते हैं ? ६४२७-६४३० अतिचार न होने पर प्रतिक्रमण निरर्थक है। शिष्य की शंका | आचार्य द्वारा उदाहरण पूर्वक ६४२६ ६४३१ ६४३२ ६४३३ ६४३४ ६४३७ ६४३८ ६४३५, ६४३६ मध्यम तीर्थंकरों के स्थविरकल्पी और जिनकल्पी मुनि तथा महाविदेह के स्थविरकल्पी और जिनकल्पी मुनि अस्थितकल्पी । स्थितकल्प और अस्थितकल्प विषयक मर्यादा में ६४३९ बृहत्कल्पभाष्यम् ६४४३ ६४४४ ६४४७ समाधान । मासकल्प के दो प्रकार । प्रत्येक के दो-दो प्रकार | पर्युषणाकल्प किसको और कितने प्रकार का होता है ? पार्श्वस्थ आदि के स्थान का विवर्जन करने वाला मुनि शुद्ध । ६४४०,६४४१ कैसे साधु के साथ संभोज का व्यवहार रखे ? ६४४२ स्थापनाकल्प के दो प्रकार तथा अकल्पिक से आहार ग्रहण करने और उसे देने का निषेध | शैक्षस्थापना कल्प का स्वरूप । उत्तरगुणकल्पिक का स्वरूप। ६४४५,६४४६ सदृशकल्पी आदि साधुओं के साथ संस्तव करने तथा उनसे भक्तपान ग्रहण करने का निर्देश । परिहारकल्प का निरूपण तथा उसकी सामाचारी का आनुपूर्वी से कथन। कल्प के प्ररूपक कौन होते हैं ? ६४४८ पर्युषणाकल्प का कालमान तथा किन तीर्थंकरों के स्थित और किन तीर्थंकरों के अस्थित होता है? पर्युषणाकल्प में व्यत्यास का कारण । प्रथम- चरम तीर्थंकरों के स्थविरकल्पी के पर्युषण कल्प का कालमान तथा ऋतुबद्ध का कालमान । अशिव आदि में हीनाधिक। जिनकल्पिक साधुओं के वही और ऋतुबद्धकाल में पर्युषणाकल्प की मर्यादा। प्रमाद करने वाला पार्श्वस्थ । पार्श्वस्थ के स्थान की गवेषणा करने वाला असंविग्नविहारी। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पाया गाथा संख्या विषय ६४४९-६४५२ पूर्व-पश्चिम तीर्थंकरों के परिहारकल्पिकों का गच्छ कितने काल-संयोग तक परम्परा से अनुवर्तित होता है ? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। ६४५३ कल्प का स्वीकार किससे? ६४५४-६४५६ परिहारकल्प के स्वीकार करने वाले मुनियों की अर्हताएं। ६४५७ अरिहंतों से पूछकर कल्प को स्वीकार करने की विधि। तथा उनके द्वारा सामाचारी आदि का निदर्शन। ६४५८ अरिहंतों द्वारा गणप्रमाण, उपधिप्रमाण आदि का उपदेश। ६४५९ भक्तपान विषयक तथा उपधि विषयक क्रमशः सात-पांच एषणाएं। उनमें अभिग्रह धारण की विधि। ६४६० कल्प को स्वीकार करने का समय तथा तीन गणों की स्थापना। ६४६१ तीन गणों में जघन्यतः और उत्कृष्टतः पुरुष संख्या। ६४६२ गणों की उत्कृष्टतः और जघन्यतः संख्या प्रमाण। ६४६३ नौ पुरुषों में कल्पस्थित, पारिहारिक, अनुपारिहारिक की स्थापना विधि। ६४६४,६४६५ कल्प प्रतिपन्न के अठारह महीने तक उपद्रव नहीं। उसके पश्चात् उपद्रव संभव। ६४६६ कल्प के स्थापित होने पर एक-दो या अनेक व्यक्तियों के उपसंपन्न होने पर वे पारिहारिकों के अकल्पनीय नहीं। ६४६७ कल्प के न्यून हो जाने पर उतने ही मुनियों का गण में प्रवेश। ६४६८ कल्प अन्यून हो, प्रविष्ट होने वाले उपसंपन्न मुनि यदि नौ हो तो अन्य गण की स्थापना का निर्देश। कल्प में पारिहारिकों द्वारा अथवा अनुपारिहारिकों के द्वारा अपराध हो जाने पर कल्पस्थित तथा गीतार्थ मुनि प्रायश्चित्त देने में प्रमाणभूत। ६४७० पारिहारिक और अनुपारिहारिक मुनियों की कल्पस्थित के सम्मुख आलोचना लेने की तथा गाथा संख्या विषय अनुपारिहारिकों की पारिहारिकों के पीछे-पीछे घूमने की विधि। ६४७१ पारिहारिकों के लिए नौ आदमियों के साथ सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा आदि करने की अकल्पनीयता। कारण में आलाप आदि की विधि। ६४७२,६४७३ पारिहारिककल्प मुनियों के विविध तपस्या की तालिका तथा कल्पस्थित के लिए पारिहारिक मुनियों द्वारा भक्तपान लाने की विधि। ६४७४ पारिहारिक, अनुपारिहारिक तथा कल्पस्थित मुनियों की तपस्या का क्रम। ६४७५ अनुपारिहारिक और पारिहारिक मुनियों के परस्पर अन्यस्थानों में कालभेद से वैयावृत्य करने की विधि। ६४७६-६४७८ छह-छह महीनों तक क्रमशः पारिहारिक, अनुपारिहारिक तथा कल्पस्थित मुनियों के तपस्या करने की विधि। ६४७९ अठारह महिने का कल्प संपन्न करने के पश्चात् उनमें से जिनकल्पी मुनि के लिए आगे साधना की विधि। ६४८० स्थविरकल्पिक मुनियों के अठारह मास पूर्ण होने पर पुनः गच्छ में आने की विधि। ६४८१ निर्विशमानक तथा निर्विष्टकायिक कल्पस्थिति का निरूपण। ६४८२ जिनकल्पी के श्रुत-संहनन का निरूपण। ६४८३,६४८४ जिनकल्पचारित्र तथा जिनकल्पस्थिति को स्वीकार करने की अर्हताएं। ६४८५ स्थविरकल्पी की विशेषताएं। ६४८६ उत्सर्गतः अपवादतः स्थविरकल्प की स्थिति। ६४८७ प्रलंब सूत्र से षड्विधकल्प पर्यन्त उत्सर्ग में अपवाद और अपवाद में उत्सर्ग करने वाला आशातना का भागी। ६४८८ षड्विधकल्पस्थिति को जानकर श्रद्धा आदि करने वाले को लाभ। ६४८९ छेद सूत्र के रहस्यों को अयोग्य शिष्य को बताने वाला अनन्तसंसारी। ६४९० योग्य शिष्य को छेद सूत्रों के रहस्य बताने वाला मोक्ष का अधिकारी। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक (गाथा ३६७९-४८७६) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक निग्गंथिउवस्सय-पदं नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथीणं उवस्सयंसि चिद्वित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारमाहारेत्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिट्ठवेत्तए, सज्झायं वा करेत्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए॥ (सूत्र १) ३६७९.वत्थाणि एवमादीणि गणहरो गेण्हिउं सयं चेव। वच्चति वतिणीवसहि, पवत्तिणीए पणामेउं॥ दूसरे उद्देशक के अंतिम में दो सूत्रों में कथित वस्त्र, जो निर्ग्रन्थी के प्रायोग्य हों, उन्हें लेकर गणधर साध्वियों की वसति में जाए और वे वस्त्र स्वयं प्रवर्तिनी को सौंप दे। ३६८०.बीएहिं उ संसत्तो, बितियस्सातिम्मि इह उ इत्थीहिं। बितिए उवस्सगा वा, पगता इहई पि सो चेव॥ दूसरे उद्देशक में बीजों से संसक्त उपाश्रय की बात कही थी। तीसरे उद्देशक में स्त्रियों से संसक्त उपाश्रय का कथन है। अथवा दूसरे उद्देशक के अनेक सूत्रों में उपाश्रय का कथन है जिनमें साधुओं को रहना नहीं कल्पता। प्रस्तुत उद्देशक के आदिसूत्र में उसी उपाश्रय का कथन है। ३६८१.तत्थ अकारण गमणं, पडुच्च सुत्तं इमं समुदियं तु। __ कज्जेण वा गते तू, तुवट्टमादीणि वारेति॥ प्रस्तुत सूत्र साध्वियों के उपाश्रय में बिना कारण जाने के विषय में है। बिना कारण वहां जाने का प्रतिषेध है। यदि कार्यवश जाए तो वहां त्वगवर्तन आदि न करे। ३६८२.आपुच्छमणापुच्छा, व अकज्जे चउगुरुं तु वच्चंते। आपुच्छिय पडिसिद्धे, सुद्धा लग्गा उवेहंता॥ आचार्य को पूछ कर या बिना पूछे बिना कोई कार्य आर्या के उपाश्रय में जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। यदि आचार्य पूछने पर प्रतिषेध करते हैं तो वे शुद्ध हैं-प्रायश्चित्त के भागी नहीं हैं। यदि वे उपेक्षा करते हैं तो प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। ३६८३.चउरो गुरुगा लहुगा, मासो गुरुगो य होति लहुगो य। आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि य गीतऽगीतत्थे। आचार्य यदि बिना कारण आर्या के उपाश्रय में जाते हैं तो चतुर्गुरु, अभिषेक को चतुर्लघु, गीतार्थ भिक्षु को गुरुमास और अगीतार्थ मुनि को लघुमास-ये प्रायश्चित्त विहित हैं। ३६८४.गमणे दूरे संकिय, णिस्संकऽभिलाव कक्ख सतिकरणं। ओभासण पडिसुणणे, संपत्ताऽऽरोवणा भणिता॥ १. संयति के उपाश्रय में निष्कारण गमन करना। २. वहां दूर स्थित साध्वियों को पहचानना। ३. कौन-कौन हैं ऐसी शंका करना। ४. अमुक-अमुक हैं ऐसे निःशंकित होना। ५. उनके साथ बातचीत करना। ६. कक्षांतर आदि देखना। ७. अपनी भार्या की स्मृति करना। ८. प्रतिसेवना की बात करना। ९. साध्वी द्वारा स्वीकृति प्राप्त कर लेना। १०.समागम करना। इन दसों स्थानों में वक्ष्यमाण आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। ३६८५.भावम्मि उ संबंधो, सतिकरणं एरिसा वा सा आसि। अहवा णं इणमटुं, पणएमि सती भवति एसा।। आर्या के साथ भावतः संबंध स्थापित हो जाने पर स्मृति होती है कि वह मेरी आर्या भी ऐसी ही थी। अथवा इस आर्या को मैं प्रतिसेवना के लिए प्रार्थना करूं यह स्मृतिकरण है। ३६८६.चउरो य अणुग्धाया,लहगो लहगा य होति गुरुगा य। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च। आर्या के प्रतिश्रय में गमन करने पर चार अनुद्घात Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ बृहत्कल्पभाष्यम् मास, दूर-दर्शन में लघुमास, शंका में चतुर्लघु, निःशंकिता में जाने पर चतुर्लघु, मध्यभाग में एक पैर भी रखने पर चतुर्गुरु, आलाप में षट् लघुमास, कक्षान्तर आदि के चतुर्गुरु। शिष्य पूछता हैअवलोकन में षड्गुरु, स्मृतिकरण में छेद, प्रतिसेवना की ३६९३.पाणाइवायमादी, असेवतो केण होति गुरुगा उ। बात कहने पर मूल, स्वीकृति की अनवस्थाप्य और कीस व बाहिं लहुगा, अंतो गुरु चोतग! सुणेहिं॥ प्रतिसेवना में पारांचिक। भंते! प्राणातिपात आदि का सेवन न करने पर भी ३६८७.निक्कारणगमणम्मि, बहवे दोसा य पच्चवाता य। चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त क्यों होता है? द्वारमूल में स्थित के जिण-थेरपडिक्कुट्ठा, तेसिं चाऽऽरोवणा इणमो॥ चतुर्लघु और अंतःप्रविष्ट के चतुर्गुरु क्यों? आचार्य कहते आर्या के उपाश्रय में निष्कारण गमन करने में अनेक हैं-शिष्य! सुनो। दोष और प्रत्यपाय हैं। जिनेश्वर ने और स्थविरों ने ३६९४.वीसत्था य गिलाणा, इसका प्रतिषेध किया है। इन दोषों की यह आरोपणा खमिय वियारे य भिक्ख सज्झाए। प्रायश्चित्त है। पालीय होइ भेदो, ३६८८.चिट्ठित्त णिसीइत्ता, तुयट्ट णिद्दा य पयल सज्झाए। अप्पाण परे तदुभए य॥ झाणा-ऽऽहार-विहारे, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ कोई आर्या वहां विश्वस्त अर्थात् अपावृत बैठी हो, अथवा आर्या के उपाश्रय में खड़े रहना, बैठना, विश्राम करना, कोई ग्लान या तपस्विनी साध्वी बैठी हो, विचारभूमी या निद्रा लेना, प्रचला लेना, स्वाध्याय-ध्यान करना, आहार भिक्षाचर्या के लिए या स्वाध्यायभूमी में प्रस्थित हों तो उनके करना, विहार करना या उच्चार-प्रस्रवण करना कायोत्सर्ग व्याघात होता है। साध्वी के पाली अर्थात् मर्यादा (अथवा करना नहीं कल्पता। ये सब करने पर प्रायश्चित्त की मार्गणा वसतिपालिका) का भेद होता है। वह भेद आत्मसमुत्थ, होती है। परसमुत्थ और उभयसमुत्थ हो सकता है। ३६८९.एतेसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणा विभागो य।। ३६९५.काई सुहवीसत्था, दरजिमिय अवाउडा य पयजाति। जो एत्थं आवण्णोऽणावण्णो वा वि जो एत्थं॥ अतिगतमेत्ते य तहिं, संकिय पपलाइया थद्धा ।। इन पदों में प्रत्येक की प्ररूपणा और विभाग करना अपने उपाश्रय में कोई आर्या अपावृत होकर सुखपूर्वक चाहिए। जो इन पदों के दोषों को प्राप्त है या नहीं उसका बैठी है। कोई आधा भोजन कर बैठी है। कोई अपावृत होकर कथन करना चाहिए। बैठी-बैठी नींद ले रही है। संयत के अकस्मात् प्रवेश करने ३६९०.निक्कारणमविहीए, निक्कारणओ तहेव य विहीए। मात्र से वह आर्या सोचती है इस संयत ने मुझे अपावृत देख कारणओ अविहीए, कारणतो चेव य विहीए॥ लिया है-इस शंकामात्र से वह वहां से पलायन कर जाती है ३६९१.आदिभयणाण तिण्हं, अण्णतरीए उ संजतीसेज्जं। और स्तब्ध हो जाती है। जे भिक्खू पविसेज्जा, सो पावति आणमादीणि॥ ३६९६.वीरल्लसउणवित्तासियं जहा सउणिवंदयं वुण्णं। आर्या के प्रतिश्रय में प्रवेश के चार विकल्प हैं वच्चति णिरावयक्खं, दिसि-विदिसाओ विभज्जंतं ।। १. निष्कारण अविधि से। ३६९७.तम्मि य अतिगतमित्ते, वित्तत्थाओ जहेव ता सउणी। २. निष्कारण विधिपूर्वक। गेण्हति य संघाडिं, रयहरणे यावि मग्गंति। ३. कारण में अविधि से। जैसे बाज पक्षी से अत्यंत त्रस्त होकर पक्षियों का समूह ४. कारण में विधिपूर्वक। विषण्ण होकर, अपने शावकों से निरपेक्ष होकर, दिशाओं प्रथम तीन विकल्पों में से किसी भी विकल्प में आर्या के और विदिशाओं में विभक्त होकर पलायन कर जाते हैं, दशों प्रतिश्रय में जो भिक्षु प्रवेश करता है वह आज्ञाभंग आदि। दिशाओं में उड़ जाते हैं। उसी प्रकार उस आर्या-वसति में दोषों को प्राप्त होता है। संयत के अकस्मात् आने मात्र से साध्वीवृन्द भी त्रस्त होकर ३६९२.निक्कारणम्मि गुरुगा, तीसु वि ठाणेसु मासियं गुरुगं। इधर-उधर चला जाता है। कोई आर्या अपनी संघाटी को लहुगा य दारमूले, अतिगयमेत्ते गुरू पुच्छा॥ संभालती है, कोई रजोहरण की मार्गणा करती है, ढूंढती है। आर्या की वसति में निष्कारण जाने पर चतुर्गुरुक, तीनों ३६९८.छक्कायाण विराहण, पक्खुलणं खाणु कंटए विलिया। स्थानों में अविधि से प्रवेश करने पर गुरुमास। तीन स्थान ये थद्धा य पेच्छिउं भावभेओ दोसा उ वीसत्थे। हैं-अग्रद्वार, मध्यभाग, निकटभाग। अग्रद्वार के समीप ठहर वस्त होकर इधर-उधर पलायन करने पर षट्काय की Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ३८३ विराधना हो सकती है। आर्या प्रस्खलित होकर गिर सकती ३७०३.सज्झाए वाघातो, विहारभूमिं व पत्थिय णियत्ता। है। पैरों में स्थाणु और कांटे लग सकते हैं। 'विलिया' अकरण णासाऽऽरोवण, सुत्तऽत्थ विणा य जे दोसा। लज्जित होकर वह फांसी आदि ले सकती है। वह स्तब्ध हो स्वाध्याय में व्याघात होता है। साध्वियां विहारभूमीसकती है। उस अवस्था में उस संयती को देखकर अन्य स्वाध्याय भूमी के लिए प्रस्थित हैं, परन्तु मुनि को वहां आए आर्याकाओं का भावभेद हो सकता है। ये सारे दोष अपावृत हुए देखकर वे निवृत्त हो जाती हैं, नहीं जाती। सूत्रपौरुषी और आर्या के विषय में हो सकते हैं। अर्थपौरुषी न करने पर सूत्र और अर्थ का नाश होता है। ३६९९.कालाइक्कमदाणे, गाढतरं होज्ज व पउणेज्जा । उसका यह प्रायश्चित्त है-सूत्र का नाश होने पर चतुर्लघु और संखोभेण णिरोधो, मुच्छा मरणं व असमाही॥ अर्थ का नाश होने पर चतुर्गुरु। सूत्र और अर्थ के बिना मुनि के कारण ग्लान साध्वी के कालातिक्रमण होने चरण-करण की हानि आदि जो दोष होते हैं, उनसे निष्पन्न से-विलम्ब से भक्तपान देने से ग्लानत्व गाढ़तर हो जाता है। प्रायश्चित्त भी आता है। यह सारा प्रायश्चित्त आगन्तुक और वह साध्वी आरोग्यलाभ नहीं कर पाती। संक्षोभ से संयत को वहन करना होता है। कायिकी और संज्ञा का निरोध होता है। उससे मूर्छा, मृत्यु ३७०४.संजममहातलागस्स णाणवेरग्गसुपडिपुण्णस्स। या असमाधि होती है। सुद्धपरिणामजुत्तो, तस्स उ अणइक्कमो पाली।। ३७००.पारणगपट्ठिया आणियं च अविगडियऽदंसिय ण भुंजे। संयमरूपी एक महान् तालाब है। वह ज्ञान और वैराग्य से ___ अचियत्त अंतराए, परिताव असम्भवयणे य॥ प्रतिपूर्ण है। वह शुद्ध परिणामों से युक्त है। उसका अतिक्रमण तपस्विनी आर्या पारणक के लिए प्रस्थित हुई अथवा न करना यह उसकी पालि है। पारणक ले आई। प्रवर्तिनी समागत मुनि के पास बैठी ३७०५.संजमअभिमुहस्स वि, विसुद्धपरिणामभावजुत्तस्स। हैं। उस स्थिति में उनको दिखाए बिना, बिना आलोचना विकहादिसमुप्पण्णो, तस्स उ भेदो मुणेयव्वो॥ किए वह उसका उपभोग नहीं करती। ऐसी स्थिति जो मुनि संयम के अभिमुख है, जो विशुद्धपरिणामभाव से में उसके अप्रीति बढ़ती है, अंतराय होता है, आगाढ़ युक्त है, उसके भी विकथा आदि करने से समुत्पन्न भेद परिताप होता है। वह आगंतुक मुनि के प्रति असभ्यवचन पालिभेद जानना चाहिए। बोलती है-'यह हमारे कार्य में कीलक बनकर कहां से ३७०६.अहवा पालयतीति, उवस्सयं तेण होति सा पाली। आ गया?' तीसे जायति भेदो, अप्पाण-परोभयसमुत्थो। ३७०१.नोल्लेऊण ण सक्का, अंतो वा होज्ज णत्थि वीयारो। अथवा जो उपाश्रय का पालन-रक्षण करती है, वह है - संते वा ण पवत्तति, णिच्छुभण विणास गरिहा य॥ पालि। उस पालीभूत (वसतिपालिका) आर्या के मन में संयत साधु द्वारमूल में स्थित होने के कारण उसका उल्लंघन को देखकर आत्मसमुत्थ, परसमुत्थ या उभयसमुत्थ भेद नहीं किया जा सकता। उपाश्रय के भीतर विचारभूमी है, होता है। परंतु शय्यातर ने उसकी अनुज्ञा नहीं दी है। यदि अनुज्ञा दी ३७०७.मोहतिगिच्छा खमणं, भी हो तो प्रतिदिन संज्ञा-निवृत्ति के लिए बाहर जाने की करेमि अहमवि य बोहि पुच्छा य। आदत के कारण वहां संज्ञा से निवृत्ति नहीं होती। यदि मरणं वा अचियत्ता, अननुज्ञात स्थान में संज्ञा-निवृत्ति की जाती है तो शय्यातर __ अहमवि एमेव संबंधो॥ वहां से निष्काशन भी कर सकता है। उससे विनाश और (मुनि साध्वी के उपाश्रय में गया। वहां वसतिपालिका गर्दा हो सकती है। अकेली साध्वी थी। मुनि ने पूछा-क्या भिक्षा के लिए नहीं ३७०२.सइकालफेडणे एसणादिपेल्लंतऽपेल्लणे हाणी। गई?' उसने कहा-आज उपवास है। मुनि ने पूछा-क्यों ? संकायऽभाविएसु य, कुलेसु दोसा चरंतीणं॥ साध्वी बोली-) 'मैं मोह की चिकित्सा के लिए क्षपण कर संयत के आगमन से भिक्षा का सत्काल-देश-काल बीत रही हूं।' मुनि ने भी कहा–'मैं भी मोह-चिकित्सा के लिए जाता है। अवेला में भिक्षा के लिए घूमने पर साध्वियों को क्षपण कर रहा हूं।' मुनि ने पूछा-'आर्ये! आपको बोधि कैसे एषणा की शुद्धि के लिए बहुत प्रयत्न करना होता है। प्रयत्न प्राप्त हुई ?' आर्यिका बोली-'मेरे भर्ती की मृत्यु हो गई। न करने पर हानि होती है। अभावितकुलों में भिक्षा के लिए अथवा मैं उसके लिए प्रिय नहीं रही, इसलिए प्रव्रजित हो अवेला में जाने पर शंका आदि अनेक दोष होते हैं। गई।' आर्यिका के पूछने पर मुनि ने कहा-'मैं भी अपनी प्रिय Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ बृहत्कल्पभाष्यम् से पत्नी का वियोग हो जाने पर प्रवजित हो गया। इस प्रकार दोनों में भावसंबंध हो गया। ३७०८.ओमाणस्स व दोसा, तस्स व गमणेण सग्गलोगस्स। __ महतरियपभावेण य, लद्धा मे संजमे बोही॥ ३७०९.पदूमिता मि घरासे, तेण हतासेण तो ठिता धम्मे। सिटुं दाइ रहस्सं, ण कहिज्जइ जं अणत्तस्स॥ आर्यिका कहती है-'सौत के कारण मेरा पति मुझे अपमान की दृष्टि से देखने लगा, इस दोष के कारण अथवा पति के स्वर्गगमन कर देने पर तथा महत्तरिका के प्रवचनों के प्रभाव से मुझे संयम में बोधि प्राप्त हुई। मैं दीक्षित हो गई। अथवा गृहवास में कुपति से बहुत अधिक क्लेश प्राप्त कर अन्त में मैं इस प्रकार धर्म में स्थित हुई हूं। मैंने यह रहस्य अभी आपके समक्ष प्रगट किया है। यह रहस्य किसी अनाप्त व्यक्ति के समक्ष नहीं कहा जा सकता।' ३७१०.रिक्खस्स वा वि दोसो, अलक्खणो सा अभागधिज्जो णु। न य निग्गुणा मि अज्जो!, तुब्भे वि य नाहिइ विसेसं॥ अथवा 'मेरे पाणिग्रहण के समय जो नक्षत्र था, उसका कोई दोष हो कि मुझे अलक्षणवाला तथा भाग्यहीन भर्त्ता मिला। आर्य! मैं निर्गुण नहीं हूं। आप मेरे विषय में विशेष जान पायेंगे।' ३७११.इट्ठकलत्तविओगे, अण्णम्मि य तारिसे अविज्जंते। महतरयपभावेण य, अहमवि एमेव संबंधो॥ आर्यिका का यह कथन सुनकर मुनि बोला-'प्रिय पत्नी का वियोग हो जाने पर तथा दूसरी वैसी पत्नी की अविद्यमानता में, तथा महत्तर-आचार्य के धर्म प्रवचनों के प्रभाव से मैं भी प्रव्रजित हो गया।' इस प्रकार दोनों का परस्पर भाव-संबंध हो जाता है। ३७१२.किं पिच्छह सारिक्खं, मोहं मे णेति मज्झ वि तहेव। उच्छंगगता मि मता, इहरा ण वि पत्तियंतो मि॥ मुनि संयती की ओर देखने लगा। आर्या ने कहा-'क्या देख रहे हैं ?' मुनि ने कहा-'मेरी पत्नी तुम्हारे सदृश थी, इसलिए तुम्हारे प्रति मोह हो रहा है।' आर्यिका बोली-'आपके प्रति भी इसी प्रकार मेरा मोह हो रहा है।' मुनि बोला-'मेरी पत्नी जब मेरे गोद में सो रही थी, तब उसकी मौत हो गई। इसलिए मैंने मान लिया कि वह मर गई, १. जब वह मुनि उस आर्या के साथ मैथुन की प्रतिसेवना करता है तो उसके नरकायुष्क का बंध होता है, महती आशातना और बोधि की दुर्लभता होती है। कहा है अन्यथा मैं कभी विश्वास नहीं कर पाता कि वह मर गई।' ३७१३.इय संदसण-संभासणेहिं भिन्नकध-विरहजोएहिं। सेज्जातरादिपासण, वोच्छेद दुदिठ्ठधम्म ति॥ इस प्रकार परस्पर संदर्शन, मिलन, संभाषण, उसके साथ भिन्नकथा करना, एकान्तयोग होना-इन सबसे चारित्र का भंग होता है। शय्यातर अथवा अन्य लोग उसकी इन चेष्टाओं को देखकर द्रव्यों का व्यवच्छेद कर देते हैं और वे कहने लगते हैं ये साधु दुर्दृष्टधर्मा हैं। ३७१४.पयला निद्द तुअट्टे, अच्छिद्दिट्टम्मि चमढणे मूलं । पासवणे सच्चित्ते, संका वुच्छम्मि उड्डाहो।। प्रचला, निद्रा, त्वग्वर्तन, अक्षिचमढन, दृष्ट, मूल, प्रस्रवण, सच्चित्त संयती, शंका, व्युत्सर्जन, उड्डाह। यह अक्षरार्थ है। विस्तृत अर्थ आगे की गाथाओं में। ३७१५.पयला निद्द तुअट्टे, अच्छीणं चमढणम्मि चउगुरुगा। दिद्वे वि य संकाए, गुरुगा सेसेसु वि पदेसु॥ प्रचला-बैठे-बैठे झपकी लेना, निद्रा-बैठे-बैठे सोना, त्ववर्तन-बिछौना बिछाकर सोना, अक्षिचमढन-संयती की आंख से आंख मिलना यदि मुनि ये सब क्रियाएं आर्यिका के उपाश्रय में करता है तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ये क्रियाएं किसी द्वारा देखे जाने पर शंका होती है। इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। शेष सभी पदों-अशन, समुद्देशन आदि को देखने पर भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३७१६.सज्झाएण णु खिण्णो, आउं अण्णेण जेण पयलाति। संकाए हुंति गुरुगा, मूलं पुण होति णिस्संके। यह शंका होती है क्या यह संयम स्वाध्याय से खिन्न है ? अथवा अन्य किसी प्रसंग से खिन्न होकर प्रचला आदि में रत है? शंका होने पर चतुर्गुरु तथा निःशंक का प्रायश्चित्त है मूल। ३७१७.अन्नत्थ मोय गुरुओ, संजतिवोसिरणभूमिए गुरुगा। जोणोगाहण बीए, केयी धाराए मूलं तु॥ आर्यिकाओं की कायिकी भूमी को छोड़कर अन्यत्र मूत्र विसर्जित करने पर मासगुरु और आर्यिका की व्युत्सर्जनभूमी में मूत्र विसर्जित करने पर चतुर्गुरु। वहां शुक्र-बीज आर्यिका के प्रस्रवण की धारा से आहत होकर ऊर्ध्वमुखी होकर आर्यिका की योनि में प्रवेश कर जाता है। इसका प्रायश्चित्त है-मूल। लिंगेण लिंगिणीए, संपत्तिं जइ निगच्छई मूढो। निरयाउयं निबंधइ, आसायणया अबोही य॥ (वृ. पृ. १०३०) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक= = ३८५ ३७१८.निक्कारणे विधीय वि, दोसा ते चेव जे भणिय पुव्विं। हो जाने पर। विचारभूमी में उपद्रव आदि होने पर। पुत्र, पिता ___ वीसत्थाई मुत्तुं, गेलन्नाई उवरिमा उ॥ आदि के कालगत होने पर। आर्यिकाओं के स्वजन के संगम निष्कारण विधिपूर्वक भी आर्यिका के उपाश्रय में यदि के लिए। आर्यिका के संलेखना, व्युत्सर्जन-भक्तप्रत्याख्यान मुनि जाते हैं तो वे ही पूर्वोक्त दोष प्राप्त होते हैं। विश्वस्त- करने की इच्छा होने पर। किसी आर्यिका के अनशन कर देने विषयक दोषों को छोड़कर जो ग्लान्य आदि विषयक दोष । पर-मुनि आर्यिकाओं के स्थान पर जा सकता है। अथवा होते हैं, वे द्वितीय भंग में संभव हैं। किसी आर्यिका के दिवंगत हो जाने पर तीन दिन के पश्चात् ३७१९.निक्कारणे विधीय वि, तिट्ठाणे गुरुगो जेण पडिकुटुं। आचार्य उनके स्थान पर जाए। कारणगमणे सुद्धो, णवरिं अविधीय मासतियं॥ ३७२४.अज्जाणं पडिकुटुं, वसही-संथारगाण गहणं तु। आर्यिका के उपाश्रय में विधिपूर्वक जाने पर भी जो तीन ओभासिउ दाउं वा, वच्चेज्जा गणहरो तेणं॥ स्थानों में नैषेधिकी का प्रयोग करता है, परन्तु यदि वह मुनि आर्यिकाओं के लिए स्वयं वसति, संस्तारक आदि को निष्कारण वहां जाता है तो उसे मासगुरु का प्रायश्चित्त आता ग्रहण करना प्रतिषिद्धि है। अतः वसति के प्रसंग में गणधर है। क्योंकि निष्कारण जाना प्रतिकुष्ट है। कारणवश जाने पर स्वयं वहां जाते हैं और आर्यिकाओं को संस्तारक आदि वह शुद्ध है। परन्तु यदि वह नैषेधिकीत्रय नहीं करता है तो देते हैं। उसे मासलघुत्रय का प्रायश्चित्त आता है। ३७२५.पडियं पम्हुटुं वा, पलावियं अवहियं व उग्गमियं। ३७२०.कारणतो अविधीए, दोसा ते चेव जे भणिय पुव्विं। उवहिं भाएतुं जे, दाएउं वा वि वच्चेज्जा। कारणे विधीय ‘सुद्धो, इच्छं तं कारणं किन्न । आर्यिकाओं का कोई उपकरण गिर गया हो, वे कहीं भूल जो कारणवश भी अविधि से प्रवेश करता है तो वे ही गई हों या पानी में बह गया हो या चोरों द्वारा अपहृत हो दोष होते हैं जो पहले कहे गए हैं। कारणवश विधिपूर्वक गया हो और वे उपकरण साधुओं को प्राप्त हो गए हों अथवा प्रवेश करने वाला शुद्ध है। शिष्य ने पूछा-भंते ! मैं जानना अन्य उपधि उत्पादित की हों-उन उपकरणों को विभाग कर चाहता हूं कि वे कारण क्या हैं? देने के लिए गणधर आर्यिका के उपाश्रय में जाए। ३७२१.गम्मइ कारणजाए, पाहुणए गणहरे महिड्डीए। ३७२६.ओहाणाभिमुहीणं, थिरकरणं काउ अज्जियाणं तु। पच्छादणा य सेहे, असहुस्स चउक्कभयणा उ॥ गच्छेज्जा पाहुणओ, संघ-कुलथेर-गणथेरो॥ कारण उपस्थित होने पर आर्यिका के उपाश्रय में जाया जो आर्यिकाएं गण को छोड़कर पलायन करने के जा सकता है। प्राघूणक, गणधर, महर्द्धिक, शैक्ष का अभिमुख हैं, उनको पुनः संयम में स्थिर करने के लिए प्रच्छादन, असहिष्णु साधु-साध्वी की चतुर्भंगी। (इस गाथा प्राघुणक जाए। शिष्य ने पूछा-कौन होते हैं प्राघुणक? का विस्तार अगली गाथाओं में।) आचार्य ने कहा-संघस्थविर, कुलस्थविर और गणस्थविर ३७२२.उवस्सए य संथारे, उवही संघपाहुणे। प्राघुणक होते हैं। सेहट्ठवणुदेसे, अणुन्ना भंडणे गणे॥ ३७२७.अन्नत्थ अप्पसत्था,होज्ज पसत्था य अज्जिगोवसए। ३७२३.अणप्पज्झ' अगणि आऊ, वीआर पुत्त संगमे। एएण कारणेणं, गच्छेज्ज उवट्ठवेउं जे॥ संलेहण वोसिरणे, वोसटे निट्ठिए तिहं।। अन्यत्र शैक्ष को उपस्थापना देना अप्रशस्त है और आर्यिका के उपाश्रय में मुनि इन कारणों से जा सकता आर्यिका के उपाश्रय में शैक्ष को उपस्थापित करना प्रशस्त है-उपाश्रय, संस्तारक तथा उपधि देने के लिए, साध्वियों माना जाता है। शैक्ष को उपस्थापित करने के प्रयोजन से मुनि को संयम में स्थिर करने के लिए संघप्राघुणकी जाए। शैक्ष आर्यिका के प्रतिश्रय में जा सकता है। की उपस्थापना अथवा स्थापनाकुलों की स्थापना करने के ३७२८.ठवणकुलाई ठवेडं, तासिं ठवियाणि वा निवेएउं। लिए। श्रुत के उद्देश अथवा अनुज्ञा के लिए। कलह का परिहरिउं ठवियाणिं, ठवणाऽऽदियणं व वोत्तुं जे॥ उपशमन करने के लिए। प्रवर्तिनी के कालगत हो जाने पर ___ स्थापनाकुलों को स्थापित करने के लिए अथवा स्थापित गण की चिंता के लिए। किसी आर्यिका के अनात्मवश स्थापनाकुलों का निवेदन करने के लिए, अथवा उन स्थापित (यक्षाविष्ट आदि के कारण) हो जाने पर। आर्यिका की कुलों का परिहार करने के लिए, अथवा पहले जिन कुलों का वसति अग्नि से दग्ध हो जाने पर पानी के पूर से आप्लावित प्रसंगवश परिहार किया गया था, उनमें आदान-ग्रहण किया १. अणप्पज्झ-देशीपदमनात्मवशवाचकम्। (वृ. पृ. १०३३) २. देखें-गाथा ३७२६। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ जा सकता है यह अनुज्ञापना करने के लिए आर्यिका के उपाश्रय में मुनि जा सकता है। ३७२९, वसहीए असन्झाए, गोरव भय सद्ध मंगले चेव । उद्देसादी कार्ड, बाउं वा वि गच्छेज्जा ॥ स्वयं की वसति में अस्वाध्यायिक होने पर संयती के उपाश्रय में जाया जा सकता है। अथवा आचार्य स्वयं आर्यिकाओं को उद्देशन देने के लिए वहां जा सकते हैं। आचार्य के जाने से उनका गौरव, भय, श्रद्धा और मंगल बना रहता है। साध्वियों को वाचना देने वाली प्रवर्तिनी की मृत्यु हो जाने पर आचार्य स्वयं उनको वाचना देने वहां जाते हैं। ३७३०. उप्पन्ने अहिगरणे, विओसवेडं तहिं पसत्यं तु । अच्छेति खउरियाओ, संजमसारं ठवेडं जे ॥ आर्यिकाओं में परस्पर अधिकरण हो जाने पर, वे संयम के सारभूत तत्त्व-उपशम के एक ओर रखकर परस्पर कलुषितचित्त वाली होकर बातचीत नहीं करतीं, ऐसी स्थिति में उनको उपशांत करने के लिए आचार्य का वहां जाना प्रशस्त है। ३७३१.जइ कालगया गणिणी, एतेण कारणेणं, गणचिंताए वि गच्छेज्जा ॥ यदि प्रवर्तिनी कालगत हो गई हो और दूसरी कोई आर्यिका गणभार को वहन करने में समर्थ न हो, इस कारण से आचार्य गणचिन्ता करने के लिए वहां जा सकते हैं। ३७३२. अन्नं जक्खाइड, (व) खित्तचित्तं व वित्तचित्तं वा । उम्मायं पत्तं वा, काउं गच्छेज्ज अप्पन्नं ॥ कोई आर्या यक्षाविष्ट, क्षिप्तचित्त, तृप्तचित्त, उन्मादप्राप्त हो गई हो इनको स्वस्थचित्त करने के लिए आचार्य जा सकते हैं। नत्थि उ अन्ना उ गणहरसमत्था । ३७३३. जइ अगणिणा उ वसही, वडा उज्झ व उज्झिहिति व ति नाऊण व सोऊण व, उवधेतुं जे व जाएजा ॥ आर्यिकाओं की वसति जल गई है, जल रही है या जलेगी यह जानकर अथवा लोगों से सुनकर, अग्नि का निवारण करने के लिए वहां जाया जा सकता है। ३७३४. नइपूरेण व वसही, वुज्झइ वूढा व वुज्झिहिति वत्ति । उदगभरियं व सोच्या उवधेत्तुं तं तु बच्चेज्जा ॥ आर्यिकाओं की वसति नदी के पूर से बह गई है, बह रही है या बह जाएगी अथवा वसति पानी से भर गई है बृहत्कल्पभाष्यम् यह सुनकर उसका निवारण करने के लिए वहां जाया जा सकता है। ३७३५. घोडेहि व धुत्तेहि व अहवा वि जतीवियारभूमीए । जयणाए व करेजं, संठवणाए व बच्चेज्जा ।। घोडकों - किसी अन्य संप्रदाय के साधुओं तथा धूर्त्त व्यक्तियों द्वारा उपसर्गित हो रही हों, उनका निवारण करने के लिए, या आर्यिकाएं यतियों की विचारभूमी में जाती हैं, इसका निवारण करने के लिए या यतनापूर्वक उनके लिए विचारभूमी की व्यवस्था करने के लिए या पूर्वकृत विचारभूमी की संस्थापना करने के लिए वहां जाया जा सकता है। ३७३६. पुत्तो वा भाया वा, भगिणी वा होज्ज ताण कालगया । अज्जाए दुक्खियाए, अणुसडीए वि गच्छेज्जा ॥ आर्थिका के पुत्र, भाई, भगिनी की मृत्यु हो जाने पर जो आर्यिकाएं दुःखसागर में निमग्न हैं, उनको अनुशिष्टि देने के लिए वहां जाना होता है। ३७३७. तेलोक्कदेवमहिया, तित्थयरा नीरया गया सिद्धिं । थेरा वि गया केई, चरणगुणपभावया धीरा ॥ ३७३८. बंभी य सुंदरी या, अन्ना वि य जाउ लोगजेट्टाओ । ताओ वि य कालगया, किं पुण सेसाउ अज्जाउ ॥ ३७३९. न हु होइ सोइयव्वो, जो कालगओ दढो चरित्तम्मि | सो होइ सोतियव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे ॥ ३७४०, लळूण माणुसत्तं, संजमसारं च बुल्लभं जीवा । आणाइ पमाएणं, दोग्गइभयवगुणा होति ॥ अनुशिष्टि में उनको कहे भुवनत्रयवासी देवताओं से पूजित तीर्थंकर भी कर्मरजों से मुक्त होकर सिद्धिगति को प्राप्त हो गए। अनेक स्थविर मुनि तथा चरमशरीरी चरणगुणप्रभावक तथा धीर आचार्य भी दिवंगत हो गए । ब्राह्मी, सुंदरी तथा अन्य लोकज्येष्ठ साध्वियां भी कालगत हो गईं तो फिर शेष आर्यिकाओं की बात ही क्या ? उसके विषय में कोई शोक नहीं करना चाहिए जो चारित्र में दृढ़ रहकर कालगत हुआ है। वही शोचनीय होता है जो संयम में दुर्बल होकर विहरण करता है, जीता है। मनुष्य जीवन को पाकर भी जीवों के लिए संयमसार की प्राप्ति दुर्लभ होती है। उसको पाकर जो जीव भगवान् की आज्ञा के पालन में प्रमाद करते हैं, वे दुर्गति के भय को बढ़ाने वाले होते हैं। ३७४१. पुत्तो पिया व भाया, अज्जाणं आगओ तहिं कोई। घित्तूण गणहरो तं · वच्चति तो संजतीवसहिं ॥ यदि आर्याओं का पुत्र, पिता, भ्राता कोई वहां आया Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ३८७ के इशारे से या लकड़ी के माध्यम से न पूछे और न दिखाये। ऐसा पूछने या दिखाने पर अनेक दोष होते हैं। ३७४७.तेणेहि अगणिणा वा, जीवियववरोवणं व पडिणीए। खरए खरिया सुण्हा, नट्टे वट्टक्खुरे संका।। चोरों ने उस घर में चोरी की हो, अग्नि से उसे जला दिया हो या किसी शत्रु ने उस घर में किसी की हत्या कर दी हो, किसी ने दास या दासी का अपहरण कर दिया हो, पुत्रवधू किसी के साथ भाग गई हो, वृत्तक्षुर-प्रधान घोड़े का किसी ने अपहरण कर लिया हो तो मुनियों के प्रति यह शंका हो सकती है कि इन्होंने ही अपहरण किया है, जलाया है आदि। हो तो गणधर उसे साथ ले आर्यिका के प्रतिश्रय में जा सकता है। ३७४२.संलिहियं पि य तिविहं, वोसिरियव्वं च तिविह वोसटुं। कालगय त्ति य सोच्चा, सरीरमहिमाइ गच्छेज्जा। संलेखित तथा संलेख्यमान वस्तु तीन प्रकार की है- आहार, शरीर और उपधि। इसी प्रकार व्युत्स्रष्टव्य तथा व्युत्स्रष्ट भी तीन प्रकार का है-आहार, शरीर और उपधि। इन तीनों में आर्यिका को स्थिर करने के लिए वहां जाया जा सकता है। आर्यिका कालगत हो गई है यह सुनकर उसके शरीर-महिमा के लिए आचार्य स्वयं वहां जाएं। ३७४३.जाहे विय कालगया, ताहे वि य दुन्नि तिन्नि वा दिवसे। गच्छेज्ज संजईणं, अणुस४ि गणहरो दाउं।। जब भी कोई विशिष्ट साध्वी (प्रवर्तिनी आदि) कालगत हो तो आचार्य दो-तीन दिन तक आर्यिकाओं को अनुशिष्टि देने के लिए वहां जाएं। ३७४४.अप्पबिति अप्पतितिया,पाहुणया आगया सउवचारा। सिज्जायर मामाए, पडिकुट्ठद्देसिए पुच्छा। प्राघुणक मुनि आए। वे दो-तीन आदि हैं। वे आर्यिका के स्थान में जाना चाहे तो सोपचार वहां जाएं। उपचार यह है-तीन स्थानों में वे नैषधिकी शब्द करें। अथवा वे मुनि जब आर्यिका के उपाश्रय में जाते हैं तब आर्यिकाओं द्वारा जो उपचार करना होता है वह यह है-प्रवर्तिनी यदि स्थविरा होती है तो वह एक साध्वी को साथ ले मुनि के सामने बैठे, यदि तरुणी हो तो दो साध्वियों के साथ बाहर जाए। जो स्थविरा हो वह मुनियों के सामने बैठे। तब मुनि उनको शय्यातरकुल, मामाककुल तथा प्रतिक्रुष्टकुल तथा जिन कुलों में औद्देशिक बनाया जाता है, उनके विषय में प्रवर्तिनी को पूछते हैं। ३७४५.आसंदग कट्ठमओ, भिसिया वा पीढगं व कट्ठमयं। तक्खणलंभे असई, पडिहारिग पेहऽभोगऽण्णे॥ मुनियों के आने पर काष्ठमय आसन्दक अथवा काष्ठमय वृषिका या पीढग तत्काल मिले तो वह ग्रहण करे। तत्काल प्राप्त न होने की स्थिति में प्रातिहारिक लेकर स्थापित करे। उनकी प्रतिलेखना करे परन्तु अन्य उनका उपभोग न करे। ३७४६.बाहाइ अंगुलीइ व, लट्ठीइ व उज्जु ठिओ संतो। न पुच्छेज्ज न दाएज्जा, पच्चावाया भवे तत्थ॥ मुनि शय्यातरकुल आदि के विषय में किस विधि से पूछे और साध्वियां किस विधि से उन्हें दिखाएं/कहें ? शय्यातरकुल के विषय में पूछते हुए या दिखाते हुए उस घर के सम्मुख स्थित होकर न बाहु को फैलाकर, या अंगुली ३७४८.सेज्जायराण धम्म, कहिंति अज्जाण देति अणुसडिं। धम्मम्मि य कहियम्मि य, सव्वे संवेगमावन्ना। ____ मुनि वहां शय्यातरों को धर्मदेशना देते हैं और आर्यिकाओं को, जो विषादग्रस्त या संयम में अस्थिर हों, अनुशिष्टि देते हैं। धर्मदेशना करने पर श्रावक और साध्वियां सभी संवेग को प्राप्त हो जाते हैं। ३७४९.अन्नो वि अ आएसो, पाहुणग अभासिया उ तेणभए। चिलिमिणिअंतरिया खलु, चाउस्साले वसेज्जा थे। इस विषय में एक अन्य आदेश-मत भी है। यदि प्राघुणक मुनि अभाषिक-तत्रस्थ भाषा को जानने वाले न हों, द्रविड़ आदि देशों से आए हुए हों तो साध्वियां उनके लिए उपाश्रय की गवेषणा करती हैं। न मिलने पर, बाहर स्तेनभय होने पर, मुनि आर्यिकाओं की वसति में चतुःशाला हो तो उसमें चिलिमिलिका से अंतरित होकर, उसे बांधकर वहां रह सकते हैं। ३७५०.कुटुंतरस्स असती, कडओ पुत्ती व अंतरे थेरा। तेसंतरिया खुड्डा, समणीण वि मग्गणा एवं ।। वसति के अभाव में साधु-साध्वी एक ही वसति में रहते हुए कुड्यान्तरित होकर रहें। इसके अभाव में दोनों की स्थायिका के मध्य कटक या वस्त्र का परदा (चिलिमिलिका) बांधे। पहले स्थविर, पश्चात् क्षुल्लक, मध्यम और उनके पश्चात् तरुण स्थायिका करें। इसी प्रकार श्रमणीवर्ग की भी मार्गणा करें--स्थविर साधुओं के आसन्न क्षुल्लिका, फिर स्थविरा, फिर मध्यमा और फिर तरुण साध्वियां। ३७५१.अन्नाए आभोगं, नाए ससदं करेंति सज्झायं। अच्चुव्वाया व सुवे, अच्छंति व अन्नहिं दिवसं। ___ यदि जनता से अज्ञात वे वहां स्थित हों तो रात्री में आभोग-उपयोग करते हैं अर्थात् मौन रहते हैं। यदि ज्ञात हो गए हों तो जोर-जोर से स्वाध्याय करते हैं। यदि वे अत्यन्त Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ थके हुए हों तो सो जाते हैं यदि वे दो-तीन दिन वहीं रहना चाहें तो दिन में अन्यत्र रहकर रात्री में पुनः वहीं लौट आते हैं। ३७५२. समणी समण पविट्ठे, निसंत उल्लावऽकारणे गुरुगा। पयला निद्द तुवट्टे, अच्छीमलणे गिही मूलं ॥ श्रमण तथा श्रमणी कायिकी से निवृत्त होकर उपाश्रय में प्रविष्ट होकर यदि उस निशांत बेला में बिना किसी कारणवश परस्पर उल्लाप करते हैं तो उसका प्रायश्चित्त है चतुर्गुरुक। अथवा मुनि वहीं रहकर दिन में झपकी लेता है, बैठे-बैठे नींद लेता है, बिछौना बिछाकर सोता है या आंखों को मसलता है तो गृही के मन में शंका होती है। उसका प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु और निःशंक होने पर मूल का प्रायश्चित्त आता है। ॥ ३७५३. उच्चारं पासवणं, व अन्नहिं मत्तसु व जयंति । अधि पविट्ठा वा अदि णितेधरा भयिता ॥ वहां स्थित मुनि उच्चार, प्रस्रवण आर्यिकाओं की कायिकी भूमी को छोड़कर अन्यत्र करते हैं अथवा मात्रक में कर यतनापूर्वक परिष्ठापन करते हैं। उस समय यदि गृहस्थों द्वारा अदृष्ट प्रविष्ट हों तो अदृष्ट ही बाहर जाएं। यदि दृष्टप्रविष्ट हो तो उसमें भजना है अर्थात् दृष्ट या अदृष्ट बाहर जाएं। ३७५४. तत्थऽन्नत्थ व दिवस, अच्छंता परिहरंति निद्दाई | जयणाए व सुविंती, उभयं पि य मग्गए वसहिं ॥ रात्री में आर्या की वसति में रहकर, दिन में वहीं अथवा उद्यान आदि में रहते हुए निद्रा आदि का परिहार करते हैं अथवा यतनापूर्वक सोते हैं। अधिक दिनों तक वहां रहने की स्थिति में दोनों अर्थात् श्रमण और श्रमणी अन्य वसति की मार्गणा करे। प्राप्त हो जाने पर साधु वहां रहें। ३७५५. अहिणा विसूइका वा, सहसा डाहो व होज्ज सासो वा । जति आगाढं अज्जाण होइ गमणं गणहरस्स ॥ यदि आर्या को सांप ने डस लिया, विसूचिका हो गई, सहसा दाह ज्वर हो गया, श्वास का प्रकोप हो गया-यदि इस प्रकार का आगाद कारण हो जाए तो गणधर रात या दिन में आर्यिका के प्रतिश्रय में जा सकते हैं। ३७५६. पडिणीय मेच्छ मालव, गय गोणा महिस तेणगाई वा । आसन्ने उवसग्गे, कप्पइ गमणं गणहरस्स ॥ प्रत्यनीक, म्लेच्छ, मालवस्तेन, हाथी, गाय, महिष, स्टेन- ये संयतियों को उपसर्ग दे रहे हैं अथवा निकट समय में उनका उपसर्ग होने वाला है, तो गणधर को उनके प्रतिश्रय में जाना कल्पता है। बृहत्कल्पभाष्यम् ३७५७.रायाऽमच्चे सेट्ठी, पुरोहिए सत्थवाह पुत्ते य । गामउडे रउडे, जे य य गणहरे महिड्डीए ॥ राजा, अमात्य, श्रेष्ठी पुरोहित, सार्थवाह तथा राजपुत्र, अमात्यपुत्र, श्रेष्ठीपुत्र, पुरोहितपुत्र और सार्थवाहपुत्र, ग्रामकूट — ग्राममहत्तर, राष्ट्रकूट -राष्ट्रमहत्तर- ये सब महर्द्धिक माने जाते हैं (टीकाकार का अभिमत है कि ये सब प्रब्रजित अवस्था के गृहीत हैं।) गणधर भी महर्द्धिक माने जाते हैं। ३७५८. अज्जाण तेयजणणं, दुज्जण सचमक्कारया य गोरवया । तम्हा समणुण्णायं, गणहर गमणं महिडीए ॥ न महर्द्धिक व्यक्तियों के आर्थिका के उपाश्रय में जाने पर आर्याओं का माहात्म्य बढ़ता है दुर्जन व्यक्तियों के मन में चमत्कार होता है, वे दुर्जनता नहीं करते। लोगों में आर्याओं के प्रति गौरव बढ़ता है। इसलिए गणधर तथा प्रव्रजित महर्द्धिक व्यक्तियों का आर्यिका के प्रतिश्रय में जाना अनुज्ञात है। ३७५९. संतविभवा जइ तवं, करेंति अवइज्झिऊण इड्डीओ | सीयंतथिरीकरणं, तित्थविबडी य वण्णो य ॥ श्रमणियां उन महर्द्धिक व्यक्तियों को देखकर सोचती हैंइन व्यक्तियों ने अपनी प्राप्त ऋद्धि को छोड़कर तप करना प्रारंभ किया है तो हम प्रमाद क्यों कर रही हैं ? इस प्रकार संयम में अस्थिर श्रमणियां संयम में स्थिर हो जाती हैं। इससे तीर्थ की विशेष वृद्धि होती है और उससे यश बढ़ता है। ३७६०. वीसुंभिओ य राया, लक्खणजुत्तो न विज्जती कुमरो । पडिणीएहि व कहिए, आहावंती दवदवस्स ॥ एक राजा के तीनों पुत्र प्रब्रजित हो गए। राजा भी कालगत हो गया। अमात्य ने लक्षणयुक्त किसी राजपुत्र की अन्वेषणा की। ऐसा राजपुत्र नहीं मिला। कुछ प्रत्यनीक व्यक्तियों ने अमात्य से कहा प्रब्रजित तीनों राजपुत्र यहां उद्यान में आए हुए हैं। तब अमात्य आदि राजपुरुष अत्यंत शीघ्रता से उद्यान में आए। ३७६१. अइ सिं जणम्मि वन्नो, य आयति इहिमतपूया य रायसुयदिक्खिणं, तित्थविवह्नी व लद्धी य॥ प्रत्यनीकों ने यह बात क्यों कही ? इस राजपुत्र के दीक्षित होने पर लोगों में अतीव यश हो रहा है। इससे इन श्रमणों की आयति-संतति अव्यवच्छिन्न होगी। ऋद्धिमान् पुरुष इनकी पूजा इसीलिए करते हैं। राजपुत्र दीक्षित हुआ है इससे तीर्थ की वृद्धि होती है। इसीसे आहार, वस्त्र आदि की . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक लब्धि-प्राप्ति प्रचुरमात्रा में होती है। (यदि यह राजकुमार उत्प्रव्रजित हो जाता है तो श्रमणों का यश आदि न्यून हो जायेंगे। यह सोचकर प्रत्यनीक अमात्य को यह बात कहते हैं।) ३७६२.दट्ठण य राइडिं, परीसहपराइतो तहिं कोइ। आपुच्छइ आयरिए, सम्मत्ते अप्पमाओ हु॥ ३७६३.नाऊण य माणुस्सं, सुदुल्लभं जीवियं च निस्सारं। संघस्स चेतियाण य, वच्छल्लत्तं करेज्जाहि॥ परीषहों से पराजित एक राजपुत्र राजसमृद्धि को देखकर अमात्य के साथ जाने के लिए आचार्य से पूछता है। तब आचार्य कहते हैं-'वत्स! सम्यक्त्व में निश्चितरूप से अप्रमत्त रहो। मनुष्यत्व अत्यंत दुर्लभ है और जीवन निस्सार है, यह जानकर संघ, चैत्यों की वत्सलता-भक्ति करो।' ३७६४.किं काहिंति ममेते, पडलग्गतणं व मे जढा इड्डी। __ को वाऽनिट्ठफलेसुं, विभवेसु चलेसु रज्जेज्जा। दूसरे राजपुत्र मुनि ने कहा ये अमात्य आदि मेरा क्या करेंगे? मैंने पट पर लगे तृण की भांति राज्यऋद्धि का परित्याग कर दिया है। ये राज्यविभव अनिष्टफल वाले तथा चल हैं, अस्थिर हैं। इनमें कौन आसक्त होगा? ३७६५.तइओ संजमअट्ठी, आयरिए पणमिऊण तिविहेणं। गेलन्नं नियडीए, अज्जाण उवस्सगमतीति॥ तीसरा राजपुत्र मुनि संयमार्थी था। उसको आचार्य ने कहा-'तुम आर्यिका के प्रतिश्रय में छुप जाओ।' तब वह तीन करण-योग से आचार्य को प्रणाम कर मायापूर्वक ग्लानत्व कर आर्यिकाओं के उपाश्रय में प्रवेश करता है। ३७६६.अंतद्धाणा असई, जइ मंसू लोय अंबिलीबीए। पीसित्ता देंति मुहे, अपगासे ठवेंति य विरेगो॥ यदि मुनियों के पास अन्तर्धान करने के साधन हों तो उनका प्रयोग कर उस मुनि को अपने उपाश्रय में ही रख दें। यदि साधन न हों तो आर्यिका के वस्त्र पहना कर उसे उनके प्रतिश्रय में ले जाए। यदि उसके दाढ़ी-मूंछ हो तो उसका लोच करें और अम्ली बीजों की पिष्टी बनाकर मुंह पर उसका लेप करे। आर्यिका की वसति में उसे अप्रकाश में स्थापित करे और उसके लिए विरेचन का। प्रयोग करे। ३७६७.संथार कुसंघाडी, अमणुन्ने पाणए य परिसेओ। घंसण पीसण ओसह, अद्धिति खरकम्मि मा बोलं॥ उसको मुनि संस्तारक पर सुलाए। उसे मलिन शाटिका से प्रावृत कर दे। अमनोज्ञ अर्थात् दुर्गन्ध पानक से उसको परिषेक-आचमन कराए। वहां कुछ साध्वियां चंदन घिसे ३८९ और कुछ औषधी को पीसे। कुछ साध्वियां अधृति-शोकमग्न होकर वहां बैठे। वहां जब खरकर्मिक-राजपुरुष आएं तो उन्हें कहे-ग्लान साध्वी बोलचाल की ध्वनि को सहन नहीं कर पाती। (अमात्य आदि तथा अन्य राजपुरुष वहां से लौट आते हैं।) ३७६८.दोन्नि वि सह भवंती, सो वऽसहू सा व होज्ज ऊ असहू। दोण्हं पि उ असहूणं, तिगिच्छ जयणाय कायव्वा॥ ग्लान साध्वी और प्रतिचरक साधु की चतुर्भंगी१. ग्लान साध्वी और प्रतिचरक साधु-दोनों सहिष्णु। २. साध्वी सहिष्णु, साधु असहिष्णु। ३. साध्वी असहिष्णु, साधु सहिष्णु। ४. दोनों असहिष्णु। इन चारों विकल्पों से यतनापूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए। ३७६९.सोऊण ऊ गिलाणं, पंथे गामे व भिक्खवेलाए। जइ तुरियं नागच्छइ, लग्गइ गुरुए चउम्मासे॥ यदि मुनि ग्लान साध्वी के विषय में विहरण करते हुए, या गांव में अथवा भिक्षावेला में सुने और तत्काल वहां उसके पास नहीं जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ३७७०.लोलंती छग-मुत्ते, सोउं घेत्तुं दवं तु आगच्छे। तूरंतो तं वसहिं, णिवेयणं छायणऽज्जाए। एक गृहस्थ ने मुनि से कहा-'महाराज! आपकी एक साध्वी यहां ग्लान है। क्या आप उसकी प्रतिजागरणा करेंगे?' उसने आगे कहा-'यहां वह साध्वी अपने ही मलमूत्र में लुठ रही है।' यह सुनते ही मुनि द्रव-पानक लेकर शीघ्रगति से संयती वसति पर पहुंचे और शय्यातरी से निवेदन कराए कि मुनि आए हैं। वह शय्यातरी उस ग्लान साध्वी को भलीभांति प्रावृत कर दे। ३७७१.आसासो वीसासो, मा भाहि इति थिरीकरण तीसे। धुविउं चीरऽत्थुरणं, तीसेऽप्पण बाहि कप्पो य॥ __पश्चात् मुनि भीतर जाकर उस ग्लान साध्वी से कहे'तुम आश्वस्त हो जाओ। मैं तुम्हारा वैयावृत्य करूंगा। तुम विश्वस्त होकर मुझ पर भरोसा करो। मेरे से तुम डरो मत।' इस प्रकार कहकर उसका स्थिरीकरण करे। उसके वस्त्र और आस्तरण को धोए और उसी के औपग्रहिक वस्त्रों को पहनने के लिए दे। यदि न हो तो स्वयं का संस्तारक बिछाए, वस्त्र भी दे। फिर खरड़े हुए वस्त्रों आदि का उपाश्रय के बाहर प्रक्षालन करे, भूमी का भी उपलेपन करे। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० = बृहत्कल्पभाष्यम् ३७७२.एएहिं कारणेहिं पविसंते ऊ णिसीहिया तिन्नि। जो आर्या क्रियातीत-चिकित्सा से अतीत है, वह जो चाहे ठिच्चाणं कायव्वा, अंतर दूरे पवेसे य॥ वह द्रव्य शुद्ध एषणा से प्राप्त कर उसे दे। फिर उसमें यह इन ग्लानत्व आदि कारणों से आर्यिका की वसति में श्रद्धा पैदा करे कि वह अनशन स्वीकार कर सके। अनशन प्रवेश करता हुआ मुनि तीन नैषेधिकी करे। पहली नैषेधिकी स्वीकार करने के पश्चात् उसका प्रतिचरण करे। धर्मकथा करने के पश्चात् कुछ समय बाद दूसरी और फिर तीसरी करे और अन्त में उसको नमस्कार महामंत्र सुनाए। नैषेधिकी करे। पहली नैषेधिकी दूर अर्थात् अग्रद्वार पर, ३७७९.दव्वं तु जाणियव्वं, समाधिकारं तु जस्स जं होति। दूसरी मध्यभाग में और तीसरी मूलद्वार पर करे। ___णायम्मि य दव्वम्मि, गवेसणा तस्स कायव्वा॥ ३७७३.पडिहारिए पवेसो, तक्कज्जसमाणणा य जयणाए। परिचारक को जानना चाहिए कि किस रोग में कौनसा गेलण्णे चिट्ठणादी, परिहरमाणो जतो खिप्पं॥ द्रव्य समाधिकारक होता है। ज्ञात होने पर उस द्रव्य की शय्यातरी द्वारा प्रतिहारित-आर्या को ज्ञापित करने पर गवेषणा करनी चाहिए। प्रवेश करे। प्रवेश करने के पश्चात् ग्लान आर्या के कार्य का ३७८०.सयमेव दिट्ठपाढी, करेति पुच्छति अजाणओ वेज्ज। यतना से समापन करे। उस समय मुनि वहां बैठे, खड़ा रहे दीवण दव्वादिम्मि य, उवदेसे ठाति जा लंभो॥ आदि कार्य करे। वहां वह ग्लान संबंधी कार्यों को जो दृष्टपाठी होता है वह स्वयं चिकित्सा करता है। यदि आत्मसमुत्थ, परसमुत्थ और उभयसमुत्थ दोषों का परिहार वह चिकित्साविधि का अजानकर हो तो वैद्य को पूछे। वैद्य करता हुआ शीघ्रता से संपन्न करे। का दीपन (स्पष्ट कथन) करे-उसे कहे 'मैं अकेला हूं, इसका ३७७४.पियधम्मो दढधम्मो, मियवादी अप्पकोतुहल्लो य। अपशकुन न मानें। जब वैद्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का अज्जं गिलाणियं खलु, पडिजग्गति एरिसो साहू॥ उपदेश दे तो उससे कहे यदि वह द्रव्य न मिले तो क्या दें। साध्वी की परिचर्या करने वाला मुनि प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, वैद्य द्रव्यान्तर की बात कहते कहते विरत हो जाए तो जिस मितवादी तथा कौतूहल से वर्जित हो। ऐसा मुनि ग्लान आर्या द्रव्य से निश्चित लाभ हो उसको जान ले। की वैयावृत्य कर सकता है। ३७८१.अब्भासे व वसेज्जा, संबद्ध उवस्सगस्स वा दारे। ३७७५.सो परिणामविहिण्णू, इंदियदारेहिं संवरियदारो। आगाढे गेलण्णे, उवस्सए चिलिमिणिविभत्ते॥ जं किंचि दुब्भिगंधं, सयमेव विगिंचणं कुणति॥ संयती प्रतिश्रय में समीप असंबद्ध अन्यगृह में रहे। वह न ३७७६.गुज्झंग-वदण-कक्खोरुअंतरे तह थणंतरे दहूँ। हो तो संबद्ध गृह में रहे। उसके अभाव में उपाश्रय के द्वार साहरति ततो दिळिं, न य बंधति दिट्ठिए दिढिं। पर रहे। आगाढ़ ग्लानकार्य हो तो उपाश्रय में चिलिमिलिका वह मुनि परिणामविधिज्ञ, इन्द्रियद्वारों को पूर्णरूप से से विभक्त कर उस स्थान में रहे। संवृत करने वाला हो। ऐसा मुनि ही आर्या का यत्किंचित् ३७८२.उव्वत्तण परियत्तण, उभयविगिंचट्ठ पाणगट्ठा वा। संज्ञा आदि जो दुर्गन्धयुक्त हो उसको स्वयमेव दूर करता है, तक्करभय भीरू अध, णमोकारट्ठा वसे तत्थ॥ उसका परिष्ठापन करता है। वह मुनि आर्या के गुह्यांग, मुंह, उस आर्या को करवट बदलवाने, परिवर्तन करने, उच्चारकांख, ऊरु आदि के अवकाशों तथा स्तनान्तरों को देखकर प्रस्रवण-दोनों का परिष्ठापन करने, पानक देने के लिए, अपनी दृष्टि को वहां से हटा ले तथा वह आर्या की दृष्टि से आर्या स्वाभाविकरूप से भीरू हो तो उसकी तस्कर-भय से अपनी दृष्टि न मिलाये। रक्षा करने के लिए अथवा मरणवेला में नमस्कार का पाठ देने ३७७७.उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए विगिंचणया। के लिए वह मुनि रात्री में भी वहां रह सकता है। उव्वत्तण परियत्तण, णंगत णिल्लेवण सरीरे॥ ३७८३.धिइ-बलजुत्तो वि मुणी, आर्या के उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म तथा सिंघान का सेज्जातर-सण्णि-सिज्झगादिजुतो। परिष्ठापन करे। उसको करवट बदलाए, उसका एक दिशा वसति परपच्चयट्ठा, से दूसरी दिशा में परिवर्तन कराए। उसका शरीर तथा सलाहणट्ठा य अवराणं॥ कपड़े मल-मूत्र से खरंटित हो गए हों तो उन्हें पानी से साफ यद्यपि वह मुनि धृति और बल से युक्त है, फिर भी वह कर दे। शय्यातर, संजी-श्रावक अथवा सहवासी के साथ संयती ३७७८.किरियातीतं णाउं, जं इच्छति एसणाए जं तत्थ। वसति में रहता है। यह इसलिए कि दूसरों में विश्वास उत्पन्न सद्धावणा परिण्णा, पडियरण कहा णमोक्कारो॥ हो तथा अन्यतीर्थिकों में निर्ग्रन्थ प्रवचन की श्लाघा हो। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ३७८४.सो निज्जराए वट्टति, कुणति य आणं अणंतणाणीणं । उस आर्या के शब्द सुनकर, रूप देखकर, परस्पर स बितिज्जओ कहेती, परियट्टेगागि वसमाणो॥ आलाप-संलाप से तथा बार-बार स्पर्श से मुनि के मन में उस वैयावृत्य में प्रवर्तमान साधु निर्जरा का भागी होता है मोह उत्पन्न हो सकता है। इन सबको सहन करने में असमर्थ और इससे अनन्तज्ञानियों की आज्ञा का पालन होता है। वह मुनि यतनापूर्वक चिकित्सा करे। दूसरे के साथ रहता हुआ दूसरे को धर्मकथा कहता है और ३७८९.अविकोविया उ पुट्ठा, भणाइ किं मं न पाससी णियए। एकाकी रहता है तो रात्री में जागृत अवस्था में रहता है। छग-मुत्ते लोलंतिं, तो पुच्छसि किं सहू असहू।। ३७८५.पडिजग्गिया य खिप्पं,दोण्ह सहूणं तिगिच्छ जतणाए। अगीतार्थ ग्लान साध्वी को पूछने पर वह कहती है-'क्या तत्थेव गणहरो अण्णहिं व जयणाए तो नेइ॥ तुम नहीं देखते कि मैं अपने ही मल-मूत्र में लुठ रही हूं। फिर उस साधु के द्वारा प्रतिजागरित वह ग्लान आर्या शीघ्र भी तुम पूछ रहे हो कि क्या मैं सहिष्णु हूं या असहिष्णु?' स्वस्थ हो जाती है। यदि प्रतिचरक साधु और वह ग्लान साधु ने कहासाध्वी दोनों सहिष्णु हों तो यतनापूर्वक चिकित्सा करना ३७९०.पासामि णाम एतं, देहावत्थं तु भगिणि! जा तुज्झं। उचित है। यदि उस साध्वी का गणधर निकट हो तो मुनि __ पुच्छामि धितिबलं ते, मा बंभविराहणा होज्जा। उसे वहां पहुंचा देता है। यदि गणधर अन्यत्र हों तो सार्थवाह 'भगिनी! तुम्हारी जो शरीर की अवस्था है, उसे मैं देख के साथ उसे भेजता है अथवा स्वयं यतनापूर्वक उसे वहां ले __रहा हूं। मैं तुम्हारे धृतिबल के विषय में पूछ रहा हूं। तुम्हारे जाता है। और मेरे ब्रह्मव्रत का खंडन न हो।' ३७८६.निक्कारणिगिं चमढण, कारणिगिं णेति अहव अप्पाहे। ३७९१.इहरा वि ताव सद्दे, रूवाणि य बहुविहाणि पुरिसाणं। गमणित्थि मिस्स संबंधि वज्जिते असति एगागी। . सोऊण व दट्टण व, ण मणक्खोभो महं कोति।। यदि वह साध्वी निष्कारण ही गण से निकलकर ३७९२.संलवमाणी वि अहं, ण यामि विगतिं ण संफुसित्ताणं । एकाकिनी हुई हो तो उसकी निर्भर्त्सना की जाती है। हट्ठा वि किन्तु एण्हिं, तं पुण णियगं धितिं जाण ॥ कारणवश अकेली हुई हो तो वह मुनि स्वयं उसे ले जाता है साध्वी कहती है-'मैं जब नीरोग थी तब भी पुरुषों के अथवा वह आर्या जिस गच्छ की हो उस आचार्य को संदेश शब्द सुनकर अथवा बहुविध रूप देखकर भी मेरे मन में कभी भेजता है। यदि उस आर्या को लेने के लिए कोई साध्वी क्षोभ नहीं हुआ। मैं उनके साथ संलाप करती हुई, उनके संघाटक नहीं आता है तो मुनि स्वयं उसे स्त्रीसार्थ के साथ, हाथों का स्पर्श करती हुई भी विकार को प्राप्त नहीं हुई। मैं अथवा उसके संबंधी मिश्र सार्थ के साथ अथवा संबंधीवर्जित नीरोग अवस्था में भी सहिष्णु थी, अब तो बात ही क्या है? सार्थ के साथ उसे भेजे। इन सबके अभाव में साधु उस तुम अपनी धृति को जानो।' अकेली साध्वी को गन्तव्य की ओर ले जाए। मुनि आगे ३७९३.सो मग्गति साहम्मि, सण्णि अहाभद्दिगं व सूई वा। चले और वह साध्वी न अतिनिकट और न अतिदूर, पीछे देति य से वेदणगं, भत्तं पाणं व पाउग्गं॥ पीछे चले। साधु असहिष्णु है। वह तब अन्य साधर्मिकी साध्वी की ३७८७.न वि य समत्थो सव्वो, मार्गणा करता है। उसके अभाव में संज्ञिनी-श्राविका की, हवेज्ज एतारिसम्मि कज्जम्मि। उसके अभाव में यथाभद्रिका की, उसके अभाव में सूतिका' कायव्वो पुरिसकारो, की गवेषणा करता है। वह यदि ग्लान साध्वी का वैयावृत्य समाहिसंधाणणट्ठाए॥ करने की इच्छुक हो तो उसे वेतन, भक्त-पान तथा प्रायोग्य ऐसे कार्य में अर्थात् साध्वी की परिचर्या करने में सभी देकर वैयावृत्य कराता है। साधु मनोनिग्रह करने में समर्थ नहीं होते। परंतु समाधि के ३७९४.एयासिं असतीए, ण कहेति जहा अहं खु मिं असहू। संधान के लिए मुनि को ऐसा पुरुषकार करना चाहिए जिससे सद्दादीजयणं पुण, करेमो एसा खलु जिणाणा॥ उस साध्वी की चिकित्सा भी हो और स्वयं का शील भी उपरोक्त प्रकार की स्त्रियों के अभाव में वह साधु उस खंडित न हो। ग्लान आर्या को यह न कहे कि मैं असहिष्णु हूं। वह तब ३७८८.सोऊण य पासित्ता, संलावेणं तहेव फासेणं। सोचता है हम शब्द आदि के विषय की यतना करेंगे। यह ____एतेहि असहमाणे, तिगिच्छ जयणाइ कायव्वा॥ जिनाज्ञा है। १. सूतिका-नवप्रसूतस्त्रीसूतिकर्मकारिणी। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ३७९५. सद्दम्मि हत्थ - वत्थादिएहिं दिद्विम्मि चिलिमिणंतरिओ । संलावम्मि परम्मुहो, गोवालगकंचुतो फासे ॥ यदि वह मुनि शब्द में असहिष्णु हो तो उस ग्लान आर्या से कहे मुझे वचनों से न बुलाए किन्तु हाथ, वस्त्र या अंगुली के इशारे से बुलाए। यदि वह दृष्टि से क्लीब हो तो सारा वैयावृत्य चिलिमिलिका से अन्तरित होकर करे। यदि वह संलाप में असहिष्णु हो तो पराङ्मुख होकर संलाप करे। यदि वह स्पर्श में क्लीब हो तो गोपालककंचुक से प्रावृत होकर उसका स्पर्श करे। ३७९६. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीए वि होति असहूए । दोहं पि हु असहूणं, तिगिच्छ जयणाए कायव्वा ॥ यही विकल्प नियमतः आर्या के असहिष्णु होने पर है। यदि दोनों असहिष्णु हों तो यतनापूर्वक चिकित्सा कराए। ३७९७. आयंकविप्पमुक्का, हट्टा बलिया य णिव्वुया संती । अज्जा भणेज्ज काई, जेदृज्जा ! वीसमामो ता ॥ ३७९८. दिवं च परामुट्ठे च रहस्सं गुज्झ एक्कमेक्स्स । तं वीसमामो अम्हे, पच्छा वि तवं चरिस्सामो ॥ रोग से मुक्त होकर, हृष्ट, बल प्राप्त कर, स्वस्थ होने पर वह आर्या कहे- 'ज्येष्ठ आर्य! अब हम कुछ समय तक विश्राम करें। क्योंकि हम दोनों ने परस्पर एक-दूसरे का एकान्तयोग्य उद्वर्तन-परिवर्तनजन्य जो सुख था उसे देखा है, परामृष्ट किया है। अब हम कुछ काल तक विश्राम करें। पश्चिम काल में हम दोनों तप का आचरण करेंगे।' ३७९९. तं सोच्चा सो भगवं, संविग्गोऽवज्जभीरू दढधम्मो । अपरिमियसत्तजुत्तो, णिक्कंपो मंदरो चेव ॥ आर्यिका के इस वचन को सुनकर वह संविग्न, पापभीरू, दृढधर्मी, अपरिमितसत्त्ववाला ज्ञानवान् मुनि मंदरपर्वत की भांति अप्रकंप रहा। ३८००.उद्धंसिया य तेणं, सुड्डु वि जाणाविया य अप्पाणं । चरसु तवं निस्संका, उ सासियं सो उ चेतेइ ॥ उस मुनि ने उस आर्या की अत्यंत भर्त्सना की और उसे अपनी बात भलीभांति समझा दी। मुनि ने कहा- निःशंक होकर तप-संयम का पालन कर। यह अनुशासन कर मुनि वहां से विहार कर गया। ३८०१.बिइयपयमणप्पज्झे, पविसे अविकोविए व अप्पज्झे । तेणऽगणि-आउसंभम, बोहिकतेणेसु जाणमवि ॥ अपवादपद में संयती की वसति में अनात्मवश कोई मुनि १. संवर-स्नानिकाशोधकम्। (बृ. पृ. १०५०) बृहत्कल्पभाष्यम् प्रवेश कर दे। कोई अकोविद शैक्ष भी वहां प्रवेश कर दे। अथवा स्तेन, अग्नि, अप्कायसंभ्रम, बोधिकस्तेन अथवा जानता हुआ गीतार्थ भी प्रवेश कर दे। निग्गंथउवस्सय-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं निग्गंथाणं उवस्सयसि चिट्ठित्तए वा जाव काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए ॥ (सूत्र २) ३८०२. पडिवक्खेणं जोगो, तासिं पि ण कप्पती जतीणिलयं । णिक्कारणगमणादी, जं जुज्जति तत्थ तं यं ॥ प्रतिपक्ष वचन से पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का संबंध है। आर्याओं को भी यतिनिलय में बिना कारण जाना नहीं कल्पता। यहां जिस प्रवृत्ति का जो प्रायश्चित्त हो उसे जानना चाहिए। ३८०३. एसेव गमो णियमा, पण्णवण परूवणासु अज्जाणं । पडिजग्गती गिलाणं, साहुं जतणाए अज्जा वि ॥ यही अर्थात् पूर्व सूत्रोक्त विकल्प नियमतः आर्याओं के लिए प्रज्ञापन और प्ररूपण के विषय में जानना चाहिए। आर्या भी ग्लान मुनि का यतनापूर्वक वैयावृत्य कर सकती है। ३८०४. सा मग्गइ साधम्मिं, सण्णि अहाभद्द संवरादी वा । देति य से वेदणयं, भत्तं पाणं च पायोग्गं ॥ वह आर्या (दूसरे-तीसरे चौथे भंग में) साधर्मिक साधु की मार्गणा करती है। उसके अभाव में श्रावक की, फिर यथाभद्र की, फिर संवर' अर्थात् स्नानशोधक आदि की मार्गणा करे। यदि ये बिना मूल्य काम करना न चाहे तो वेतन देकर, भक्त-पान तथा प्रायोग्य प्रदान कर उनकी सेवा ले। चम्म-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाइं चम्माई अहिट्ठित्त ॥ (सूत्र ३) ३८०५. बंभवयपालणट्ठा, अण्णोण्णउवस्सयं ण गच्छति । उवकरणं पिण इच्छति, जहिं पीला तस्स जोगोऽयं ॥ ब्रह्मचर्य के पालन के लिए साधु-साध्वी एक दूसरे के उपाश्रय में न जाए और परस्पर ऐसे उपकरण भी ग्रहण न Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ३९३ करे जिनसे ब्रह्मव्रत की पीड़ा हो। यह पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र प्रत्युपेक्षण भी शुद्ध नहीं होता। वर्षा में कुन्थु, पनक आदि का योग है-संबंध है। चर्म में लग जाते हैं। उसका प्रतापन करने से अग्नि की ३८०६.सतिकरणादी दोसा, अण्णोण्णउवस्सगाभिगमणेण। विराधना होती है और प्रतापन न करने पर प्राणियों की उसमें सतिकरण-कोउहल्ला, मा होज्ज सलोमए अहवा॥ उत्पत्ति होती है-इस प्रकार दोनों ओर से दोष होता है। अन्योन्य उपाश्रय में अभिगमन करने से स्मृतिकरण ३८१२.आगंतु तदुब्भूया, सत्ताऽझुसिरे वि गिण्तुिं दुक्खं । आदि दोष होते हैं। सलोम वाले चर्म को ग्रहण करने से आर्या अह उज्झति तो मरणं, सलोम-णिल्लोमचम्मेयं ।। के स्मृतिकरण और कौतूहल न हो इसलिए प्रस्तुत सूत्र का अशुषिर उपधि आदि से आगंतुक सत्त्वों तथा तद् उद्भूत प्रारंभ होता है। अथवा यह अपर संबंध-सूत्र है। सत्त्वों को निकालना कष्टप्रद होता है तो फिर शुषिर सलोम३८०७.चम्मम्मि सलोमम्मि, णिग्गंथीणं उवेसमाणीणं। चर्म की तो बात ही क्या? यदि उन जन्तुओं को छोड़ा जाता चउगुरुगाऽऽयरियादी, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ है तो उनका मरण हो सकता है। यह सलोमचर्म की बात लोमयुक्त चर्म पर बैठने वाली आर्या को चतुर्गुरुक और है। अब सलोम-निर्लोमचर्म-दोनों के दोषों के विषय में यह यदि आचार्य इस सूत्र को प्रवर्तिनी को नहीं कहते हैं तो वे भी कथन है। चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। प्रवर्तिनी श्रमणियों को ३८१३.भारो भय परितावण,मारण अहिकरणमेव अविदिण्णे। न कहे तो चतुर्गुरु और श्रमणियां स्वीकार न करे तो तित्थकर-गणहरेहिं, सतिकरणं भुत्तभोगीणं ।। लघुमास तथा सभी में आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। सलोम-निर्लोमचर्म को वहन करना भारी होता है। भय ३८०८.गहणे चिट्ठ णिसीयण, तुयट्टणे य गुरुगा सलोमम्मि। होता है। जीवों का परितापन और मारण होता है। अधिकरण णिल्लोमे चउलहुगा, समणीणारोवणा चम्मे॥ की संभावना होती है। यह उपधि तीर्थंकरों और गणधरों सलोम चर्म ग्रहण करना, उस पर खड़े होना, बैठना, द्वारा अदत्त है, अननुज्ञात है। सलोमचर्म का उपभोग करने सोना-इन सबमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। निर्लोमचर्म में वाली भुक्तभोगिनी श्रमणियों के स्मृतिकरण और अन्य चतुर्लघु। यह श्रमणियों के लिए चर्मविषयक आरोपणा है। श्रमणियों के मन में कुतूहल होता है। ३८०९.कुंथु-पणगाइ संजमे, कंटग-अहि-विच्छुगाइ आयाए। ३८१४.जइ ता अचेतणम्मि, अयिणे फरिसो उ एरिसो होति। भारो भयभुत्तियरे, पडिगमणाई सलोमम्मि॥ किमुया सचेतणम्मि, पुरिसे फरिसो उ गमणादी। सलोम चर्म में कुन्थु, पनक आदि होते हैं। उस पर बैठने वह श्रमणी सोचती है-यदि अचेतन चर्म में भी ऐसा आदि से संयम की विराधना होती है। उस पर बैठे हुए स्पर्श होता है तो सचेतन पुरुष का स्पर्श कैसा होता होगा? कंटक, अहि, बिच्छु आदि से उपघात होने पर आत्म- यह सोचकर वह संयम से पलायन कर जाती है। विराधना होती है। सलोम चर्म का भार बहुत होता है। चोरों ३८१५.बिइयपय कारणम्मि, चम्मुव्वलणं तु होति णिल्लोमं। का भय रहता है। भुक्तभोगिनियों का स्मृतिकरण और आगाढ कारणम्मि, चम्म सलोमं पि जतणाए। अभुक्तभोगिनी श्रमणियों के मन में कुतूहल होता है। इससे वे अपवादपद में चर्म ग्रहण किया जा सकता है। किसी प्रतिगमन कर सकती हैं, गृहवास कर सकती हैं। आर्या के अभ्यंगन के प्रयोजन से निर्लोम चर्म और ३८१०.तसपाणविराहणया, चम्म सलोमे उ होति अहिकरणं। आगाढ़ कारण में सलोम चर्म का यतनापूर्वक परिभोग किया णिल्लोमे तसपाणा, संकुयमाणे य करणं वा॥ जाता है। सलोम चर्म में त्रसप्राणियों की विराधना होती है, ३८१६.उड्डम्मि वातम्मि धणुग्गहे वा, अधिकरण होता है। निर्लोम चर्म में त्रस प्राणियों की विराधना अरिसासु सूले व विमोइते वा। होती है। उसके संकचित होने पर श्रमणी पादकर्म कर ___एगंग-सव्वंगगए व वाते, सकती है। अब्भंगिता चिट्ठति चम्मऽलोमे। ३८११.अविदिण्णोवधि पाणा, किसी आर्या के ऊर्ध्ववायु का प्रकोप हो गया हो, कोई पडिलेहा वि य ण सुज्झति सलोमे।। धनुर्ग्रह पीड़ित हो, किसी के अर्श, शूल आदि हो, किसी के वासासु य संसज्जति, हाथ-पैर अपने स्थान से चलित हो गए हों, किसी के एक पतावमपतावणे दोसा॥ अंग में अथवा पूरे अंग में वायु उत्पन्न हो गया हो, वह आर्या सलोमचर्म रूपी उपधि अवितीर्ण है, अननुज्ञात है। इसका अभ्यंगित होकर निर्लोम चर्म पर बैठ सकती है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ ३८१७.तरच्छचम्म अणिलामइस्स, कडि व वेढेति जहिं व वातो। एरंड-ऽणेरंडसुणेण डक्वं, वेढेंति सोविंति व दीविचम्मे॥ जो आर्या वात रोग से ग्रस्त है उसकी कटी तरक्ष के चर्म से वेष्टित की जाती है तथा जहां-कहीं वायु की पीड़ा हो वहां वह चर्म बांधा जाता है। जिस आर्या को कुत्ते ने या हडक्किय कुत्ते ने काटा हो, उसको चर्म में वेष्टित कर दिया जाता है अथवा हाथी के चर्म पर सुलाया जाता है। ३८१८.पुया व घस्संति अणत्थुयम्मि, __पासा व घस्संति व थेरियाए। लोहारमादीदिवसोवभुत्ते, लोमाणि काउं अह संपिहंति॥ स्थविरा आर्या बिना संस्तृत भूमी पर बैठती है तो उसके पुत घिस जाते हैं, सोती है तो दोनों पार्श्व घिस जाते हैं। वह स्थविरा आर्या लुहार आदि द्वारा दिन में परिभुक्त चर्म को प्रातिहारिक रूप में प्रतिदिन ग्रहण कर, उस चर्म के लोमों को नीचे कर, उसका परिभोग करे। ३८१९.दिवसे दिवसे व दुल्लभे, उच्चत्ता घेत्तुं तमाइणं। लोमेहिं उण संविजोअए, मउअट्ठा व न ते समुद्धरे॥ प्रतिदिन उसकी प्राप्ति दुर्लभ हो तो उच्चत्ता-अपनी निश्रा में उस चर्म को ग्रहण कर उसके सारे लोम निकाल दे। लोम निकालने से वह चर्म परुषस्पर्श वाला हो जाता है अतः मृदुता के लिए लोम को यथावत् न रखें। कप्पइ निग्गंथाणं सलोमाइं चम्माई अहिद्वित्तए, से वि य परिभुत्ते नो चेव णं अपरिभुत्ते, पाडिहारिए नो चेव णं अपाडिहारिए, से वि य पाडिहारिए नो चेव णं अप्पाडिहारिए, से वि य एगराइए नो चेव णं अणेगराइए॥ (सूत्र ४) ३८२०.दोसा तु जे होति तवस्सिणीणं, लोमाइणे ते ण जतीण तम्मि। तं कप्पती तेसि सुतोवदेसा, जंकप्पती तासि ण तं जतीणं॥ सलोमचर्म के उपभोग से जो दोष आर्याओं के होते हैं वे दोष यतियों के नहीं होते। इसलिए उनको श्रुतोपदेश से १. पुस्तकों के स्वरूप के लिए देखें-वृ. पृ. १०५४। बृहत्कल्पभाष्यम् उनका परिभोग कल्पता है। श्रमणियों को जो निर्लोम चर्म कल्पता है वह यतियों को नहीं कल्पता। सलोम चर्म भी निर्ग्रन्थों को उत्सर्गतः नहीं कल्पता। ३८२१.निग्गंथाण सलोम, ण कप्पती झुसिर तं तु पंचविहं। पोत्थग-तणपण दूसं, दुविहं चम्मम्मि पणगं च॥ सलोम चर्म शुषिर होता है, अतः वह मुनियों को नहीं कल्पता। शुषिर पांच प्रकार का है-पुस्तकपंचक, तृणपंचक, दूष्यपंचक यह दो प्रकार का है-अप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपंचक, दुःप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपंचक तथा चर्मपंचक। ३८२२.गंडी कच्छति मुट्ठी, छिवाडि संपुडग पोत्थगा पंच। तिण सालि-वीहि-कोदव-रालग-आरण्णगतणं च॥ पुस्तकपंचक-गंडीपुस्तक, कच्छपीपुस्तक, मुष्टिपुस्तक, छेदपाटीपुस्तक, सम्पुटफलकपुस्तक।' तृणपंचक-शाली, व्रीही, कोद्रव, रालक, आरण्यकतृण। ३८२३.कोयव पावारग दाढिआलि पूरी तधेव विरली य। एयं दुपेहपणयं, इणमण्णं अपडिलेहाणं। दूष्यपंचक१. कोयवि-रूई से भरा हुआ पट 'रजाई'। २. प्रावारक-नेपाल आदि में निर्मित प्रचुर रोम वाली बृहत्कंबल। ३. दाढिआली-ब्राह्मणों का एक परिधान, जिसके दोनों ओर किनारी हो और जो दंतपंक्ति की भांति प्रतीत हो रही हो। ४. पूरिका-स्थूल शणमय डोरी से निष्पन्न वस्त्र-जैसे धान्यगोणी। ५. विरलिका-द्विसरोवाली सूत्रपटी। इन दूष्यपंचक का सम्यग्रूप से प्रत्युपेक्षण नहीं हो सकता, अतः ये दुःप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपंचक कहलाते हैं। ३८२४.उवहाण तूलि आलिंगणी उ गंडोवहाण य मसूरा। गो-माहिस-अय-एलग-रणमियाणं च चम्मं तु।। अन्य अप्रत्युपेक्ष्यदूष्यपंचक१. उपधान-रूई या हंसरोम आदि से भरा हुआ तकिया। २. तूली-साफ की हुई रूई या अर्कतूल से भरा हुआ तकिया या गादी। ३. आलिंगनिका-पुरुष के प्रमाणवाला लंबा बिछौना जो सोने वाले के घुटने और कोहनी के नीचे रखा जाता है। ४. गंडोपधान-गाल के पास रखा जाने वाला तकिया। ५. मसूरक-चर्मकृत या वस्त्रकृत गोल तकिया। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक चर्मपंचक-(१) गोचर्म (२) महिषचर्म (३) अजाचर्म- छगलिका का चर्म (४) एडकचर्म-भेड़ का चर्म (५) आरण्यकमृग-अरण्य के पशुओं मृग, शशक आदि का चर्म। ३८२५.जहिं गुरुगा तहिं लहुगा, जहिं लहुगा चउगुरू तहिं ठाणे। दोहिं लहू कालगुरू, तवगुरुगा दोहि वी गुरुगा॥ आर्याओं के लिए सलोमचर्म का प्रायश्चित्त है चतुर्गुरुक और मुनियों के लिए है-चतुर्लघुक तथा निर्लोम चर्म का प्रायश्चित्त आर्याओं के लिए चतुर्लघुक और मुनियों के लिए है चतुर्गुरुक। आर्याओं और मुनियों के प्रथम स्थान में अर्थात् ग्रहण करने में तप और काल से लघु, ऊर्ध्वस्थान में कालगुरु, निषीदन में तपोगुरु, शयन में दोनों अर्थात् तप और काल से गुरु। (पुस्तकपंचक, तृणपंचक, दोनों प्रकार के दूष्यपंचक- इनमें श्रमण-श्रमणियों का प्रायश्चित्त है चतुर्लघु।) ३८२६.संघस अपडिलेहा, भारो अहिकरणमेव अविदिण्णं। संकामण पलिमंथो, पमाय परिकम्मणा लिहणा॥ पुस्तकपंचक के दोष-ग्रामान्तर ले जाते समय कंधों का संघर्षण होता है। पूरा प्रत्युपेक्षण नहीं होता। भार लगता है। कुंथु, पनक आदि की संसक्ति के कारण अधिकरण होता है। यह अदत्त उपधि है। उनके संक्रमण से पलिमंथु होता है। प्रमाद-पुस्तक में लिखा हुआ है अतः स्वाध्याय न करने से श्रुत का नाश होता है। उनके परिकर्म में सूत्रार्थ की हानि और अक्षरलेखन में प्राणव्यपरोपण होता है। ३८२७.पोत्थग जिण दिढतो, वग्गुर लेवे य जाल चक्के य। लोहित लहुगा आणादि मुयण संघट्टणा बंधे॥ पुस्तकें शुषिर होती हैं। वहां जो जंतुओं का उपघात होता है, उस विषयक जिनेश्वर देव ने चार दृष्टांत दिए हैं-वागुरा, लेप, जाल और चक्र। उन पुस्तकों के अंतर्गत जन्तुओं की हत्या हो सकती है। उनका रुधिर अक्षरों पर फैल सकता है। जितनी बार पुस्तक को खोलता है, बांधता है, अक्षरों का पुनः लेखन करता है उतने चतुर्लघु तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। पुस्तक को खोलने या बांधने में जीवों की संघट्टना होती है। तद्विषयक प्रायश्चित्त आता है। ३८२८. चउरंगवग्गुरापरिवुडो वि फिट्टेज्ज अवि मिगो रण्णे। छीर खउर लेवे वा, पडिओ सउणो पलाएज्जा। चतुरंगवागुरा से परिवृत मृग भी उससे छूट कर अरण्य में भाग जाता है, किन्तु पुस्तकों के पत्रान्तर में प्रविष्ट जंतु ३९५ निकल नहीं सकते। शकुन-पक्षी अर्थात् मक्षिका दूध में, खपुर-चिकने द्रव्य में, लेप में गिरने पर भी पलायन कर जाती है किन्तु पुस्तकजीव कहीं पलायन नहीं कर सकते। ३८२९.सिद्धत्थगजालेण व, गहितो मच्छो वि णिप्फिडेन्जा हि। तिलकीडगा व चक्के, तिला व ण य ते ततो जीवा।। सिद्धार्थकजाल अर्थात् जिस जाल के द्वारा सर्षप गृहीत होते हैं, उस जाल में फंसा मत्स्य भी कदाचित् निकल कर पलायन कर जाता है, तिलपीडनयंत्र में प्रविष्ट तिलकीटक अथवा तिल भी बच जाते हैं, किन्तु उन पुस्तकों में प्रविष्ट जीव निकल नहीं पाते, बच नहीं पाते। ३८३०.जइ तेसिं जीवाणं, तत्थगयाणं तु लोहियं होज्जा। पीलिज्जंते धणियं, गलेज्ज तं अक्खरे फुसितं॥ यदि पुस्तकपत्रान्तरों में स्थित उन जीवों का खून हो जाए या पुस्तक बांधने के समय उनका अधिक मसले जाने पर उनका रक्त अक्षरों का स्पर्श करता हुआ बाहर निकलने लगता है। ३८३१.जत्तियमेत्ता वारा, उ मुंचई बंधई व जति वारा। जति अक्खराणि लिहति व, तति लहुगा जं च आवजे॥ जितनी बार पुस्तकों को खोलता है और जितनी बार बांधता है, जितने अक्षर लिखता है, उतने ही चतुर्लघु प्रायश्चित्त हैं। तथा जीवों का संघट्टन और परितापन होता है, तान्निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। ३८३२.तणपणगम्मि वि दोसा, विराहणा होति संजमा-ऽऽताए। सेसेसु वि पणगेसुं, विराहणा संजमे होति॥ तुणपंचक में भी दोष और संयम तथा आत्मविराधना होती है। शेष पंचकों में भी संयमविराधना होती है। ३८३३.अहि-विच्चुग-विसकंडगमादीहि खयं व होज्ज आयाए। कुंथादि संजमम्मि, जति उव्वत्तादि तति लहुगा॥ तृण शुषिर होते हैं अतः उनमें सांप, वृश्चिक, विषकंटक आदि से डसा जा सकता है तथा क्षत होने पर आत्मविराधना होती है। कुंथु आदि जीवों के व्यपरोपण से संयमविराधना होती है। तृणों पर सोकर जितनी बार उद्वर्तन, परिवर्तन, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = बृहत्कल्पभाष्यम् आकुंचन, प्रसारण करता है उतनी ही बार चतुर्लघु का अवयाण आदि तैल से ग्लान का अभ्यंगन करने पर, प्रायश्चित्त आता है। वर्म के लिए, जिसके पार्श्व घिस गए हों, गलितकुष्ठ और ३८३४.दिट्ठ सलोमे दोसा, णिल्लोमं णाम कप्पती घेत्तुं। अर्श के रोगी के लिए निर्लोमचर्म लिया जा सकता है। गिण्हणे गुरुगा पडिलेह पणग तसपाण सतिकरणं॥ ३८४०.सोणिय-पूयालित्ते, दुक्खं धुवणा दिणे दिणे चीरे। सलोमचर्म के उपभोग में दोष देखे गए हैं अतः श्रमणों कच्छुल्ले किडिभिल्ले, छप्पतिगिल्ले व णिल्लोमं॥ को निर्लोमचर्म ग्रहण करना कल्पता है। उसके ग्रहण में रक्त और पीव से लिस वस्त्रों को प्रतिदिन धोना कष्टप्रद चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। उसका प्रत्युपेक्षण शुद्ध नहीं होता। होता है। खाज, कटिभ-एक प्रकार का कुष्ठ, षट्पदिकापनक, त्रस प्राणी आदि उत्पन्न हो जाते हैं तथा स्मृतिकरण वान्-इनके लिए निर्लोमचर्म का ग्रहण किया जा सकता है। भी होता है। ३८४१.जह कारणे निल्लोमं, तु कप्पती तह भवेज्ज इयरं पि। ३८३५.भुत्तस्स सतीकरणं सरिसं इत्थीण एयफासेणं। आगाढि सलोमं आदिकाउ जा पोत्थए गहणं । __ जति ता अचेयणम्मि, फासो किमु चेयणे इतरे॥ जैसे कारण में निर्लोमचर्म कल्पता है, वैसे ही सलोमचर्म भुक्तभोगी इस प्रकार स्मृति करता है-इस चर्म का स्पर्श भी कल्पता है। आगाढ़ कारण में सलोमचर्म से प्रारंभ कर स्त्रियों के स्पर्श सदृश है। यदि अचेतन चर्म में यह स्पर्श है पश्चानुपूर्वी से पुस्तक पर्यन्त का भी ग्रहण करना चाहिए। तो सचेतन स्त्री के शरीर का स्पर्श कैसा होता होगा? ३८४२.भत्तपरिण गिलाणे, इसलिए निर्लोमचर्म भी नहीं लेना चाहिए। कुसमाइ खराऽसती तु झुसिरा वि। ३८३६.सुत्तनिवाओ वुड्ढे, गिलाण तद्दिवस भुत्त जतणाए। अप्पडिलेहियदूसाऽसती य आगाढ गिलाणे मक्खणट्ठ, घट्टे भिण्णे व अरिसाउ॥ पच्छा तणा होती॥ प्रस्तुत सूत्र में सलोमचर्म की अनुज्ञा कैसे? यह भक्तपरिज्ञावान् (अनशनी) तथा ग्लान के लिए यदि परुष सूत्रनिपात वृद्ध तथा ग्लान मुनियों के लिए है। जो चर्म उस तृणों की प्राप्ति न हो तो कुश आदि अशुषिर तृण लिए जाएं। दिन कुंभकार आदि से परिभुक्त हो उसे यतनापूर्वक लेकर उनके लिए अप्रत्युपेक्ष्यदूष्य ग्रहण करे। उसकी प्राप्ति न हो उसका उपभोग करे तथा आगाढ़ ग्लानत्व होने पर, तैल से तो यथाक्रम शुषिर, अशुषिर पश्चात् तृण ग्रहण करे। मर्दन किए जाने पर, जिसके पुत घिस गए हों, जो भिन्नकुष्ठी ३८४३.दुप्पडिलेहियदूसे, अद्धाणादी विवित्त गेहंति। हो, जिसके अर्श हो गया हो, उनके लिए निर्लोमचर्म लिया घेप्पति पोत्थगपणगं, कालिय-णिज्जुत्तिकोसट्ठा॥ जा सकता है। _ विहार करते समय मार्ग में चोरों ने उपधि चुराली हो तो ३८३७.संथारट्ठ गिलाणे, अमिलादीचम्म घेप्पति सलोमं। वे दुष्प्रत्युपेक्ष्यदूष्य ग्रहण कर सकते हैं। वे कालिक वुड्डा-ऽसहु-बालाण व, अच्छुरणट्ठा वि एमेव॥ उत्कालिकश्रुत की नियुक्ति आदि संगृहीत होंगी भांडागार की ग्लान के संस्तारक के लिए अमिला (अविला-भेड़) भांति होंगी, यह सोचकर पुस्तकपंचक भी ग्रहण करते हैं। आदि का सलोमचर्म ग्रहण किया जा सकता है। इसी प्रकार नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वृद्ध, असहिष्णु तथा बाल मुनियों के आस्तरण के लिए भी वह चर्म ग्रहण किया जा सकता है। कसिणाई चम्माइं धारित्तए वा परिहरित्तए ३८३८.कुम्भार-लोहकारेहिं दिवसमलियं तु तं तसविहणं । वा॥ उवरि लोमे काउं, सोत्तं गोसे समप्येति॥ (सूत्र ५) ___ जो चर्म कुंभकार, लोहकार आदि के द्वारा दिन में परिभुक्त है वह बस प्राणी रहित होता है। संध्या समय में ३८४४.चम्मं चैवाहिकयं, तस्स पमाणमिह मिस्सिए सुत्ते। जब वे चले जाते हैं तब प्रातिहारिक रूप में ग्रहण कर, लोगों __ अपमाणं पडिसिज्झति, ण उ गहणं एस संबंधो।। को ऊपर कर रात में सोकर फिर प्रातः उसका प्रत्यार्पण कर पूर्वसूत्र में चर्म का अधिकार था। प्रस्तुत निर्ग्रन्थदेते हैं। निर्ग्रन्थीप्रतिबद्ध सूत्र में उस चर्म का प्रमाण प्ररूपित है। ३८३९.अवताणगादि णिल्लोम तेल्ल वम्मट्ठ घेप्पती चम्म। अप्रमाण वाले चर्म का प्रतिषेध किया गया है, सर्वथा चर्म घट्ठा व जस्स पासा, गलंतकोढेऽरिसासुं वा॥ ग्रहण करने का निषेध नहीं है। यह संबंध है। १. अवताण-यह 'लगाम' के अर्थ में देशी शब्द है। लगाम आदि चर्म पर लगाया जाने वाला तैल। . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ३९७ ३८४५.अहवा अच्छुरणट्ठा, तं वुत्तमिदं तु पादरक्खट्ठा। ३८५२.लहुओ लहुगा दुपुडादिएसु गुरुगा य खल्लगादीसु। तस्स वि य वण्णमादी, पडिसेहेती इहं सुत्ते॥ आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽदाए। अथवा पूर्वसूत्र में चर्म का ग्रहण आस्तरण के लिए कहा सकलकृत्स्न लेने पर लघुमास, द्विपुट आदि में चतुर्लघु, गया था, प्रस्तुत सूत्र में उसका ग्रहण पादरक्षार्थ कहा गया खल्लक आदि में चतुर्गुरु तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा है। उस चर्म के वर्ण आदि जो गुण, इस सूत्र में कहे हैं, संयम और आत्मविराधना होती है। उनका प्रतिषेध है। ३८५३.अंगुलिकोसे पणगं, सगले सुक्के य खल्लगे लहओ। ३८४६.सगल प्पमाण वण्णे, बंधणकसिणे य होइ णायव्वे। बंधण वण्ण पमाणे, लहुगा तह पूरपुण्णे य॥ अकसिणमट्ठारसगं, दोसु वि पासेसु खंडाई॥ अंगुलीकोश में पंचक, सकलकृत्स्न तथा शुष्क खल्लक कृत्स्न चार प्रकार का है-सकलकृत्स्न, प्रमाणकृत्स्न, में लघुमास तथा बंधनकृत्स्न, वर्णकृत्स्न, प्रमाणकृत्स्न तथा वर्णकृत्स्न और बंधनकृत्स्न। ये चारों प्रकार के चर्म का पूरपूर्ण खल्लक में चतुर्लघु। ग्रहण नहीं कल्पता। जो अकृत्स्न चर्म है, उसके अठारह ३८५४.अद्धे समत्त खल्लग, वग्गुरि खपुसा य अद्धजंघा य। खंड करने चाहिए। उन खंडों को दोनों पार्श्व में पहनना गुरुगा दोहि विसिट्ठा, वग्गुरिए अण्णतरएणं॥ चाहिए। अर्द्धखल्लक में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त जो तप और काल से ३८४७.एगपुड सकलकसिणं, दुपुडादीयं पमाणतो कसिणं। लघु होता है, समस्तखल्लक में कालगुरु, वागुरिका में तप ___ खल्लग खउसा वग्गुरि, कोसग जंघऽड्डजंघा य॥ और काल में गुरु, खपुसा में तप गुरु, अर्द्धजंघा या एकतल वाला चर्म सकलकृत्स्न कहलाता है। दो, तीन समस्तजंघा में तप और काल से गुरु। आदि पुट वाला चर्म प्रमाणकृत्स्न कहलाता है। खल्लक, ३८५५.जत्तियमित्ता वारा, तु बंधते मुंचते व जति वारा। खपुसा, वागुरा, कोशक, जंघा तथा अर्धजंघा ये सब सट्ठाणं तति वारे, होति विवड्डी य पच्छित्ते॥ प्रमाणकृत्स्न हैं। इनकी व्याख्या आगे की गाथाओं में। जितनी मात्रा में तथा जितनी बार अंगुलीकोश आदि ३८४८.पायस्स जं पमाणं, तेण पमाणेण जा भवे कमणी। बांधता है या खोलता है उसका उतनी बार स्वस्थान मज्झम्मि तु अक्खंडा, अण्णत्थ व सकलकसिणं तु॥ प्रायश्चित्त (जिसका जो प्रायश्चित्त हो वह) आता है तथा पैरों के प्रमाण से युक्त जो क्रमणिका मध्य में तथा अन्यत्र आज्ञाभंग आदि होने पर प्रायश्चित्त में वृद्धि होती है। भी अखंड होती है वह सकलकृत्स्न कहलाती है। ३८५६.गव्वो णिम्मदवता, णिरवेक्खो निद्दतो णिरंतरता। ३८४९.दुपुडादि अद्धखल्ला, समत्तखल्ला य वग्गुरी खपुसा। भूताणं उवघाओ, कसिणे चम्मम्मि छहोसा॥ ___ अद्धजंघ समत्ता य, पमाणकसिणं मुणेयव्वं॥ उपानत से गर्व और निर्मार्दवता होती है, जीवों से दो पुटवाले उपानत अथवा अर्द्धखल्ल अथवा समस्त- निरपेक्ष और निर्दयता होती है, निरंतर भूमी का स्पर्श करने खल्ल अथवा वागुरा, खपुसा, अर्द्धजंघा अथवा समस्त- के कारण प्राणियों का घात होता है तथा कृत्स्न चर्म में छह जंघा इन सबको प्रमाणकृत्स्न जानना चाहिए। दोष होते हैं। ३८५०.उवरिं तु अंगुलीओ, जा छाए सा तु वग्गुरी होति। ३८५७.आसगता हत्थिगतो, खपुसा य खलुगमेत्तं, अद्धं सव्वं च दो इयरे॥ गव्विज्जइ भूमितो य कमणिल्लो। जो पैर और अंगुलियों को तथा ऊपरी भाग को पादो उ समाउक्को, आच्छादित करता है, वह वागुरा है। जो धुंटक मात्र तक कमणीउ खरा अवि य भारो॥ आच्छादित करता है वह है जंघा और जो अर्धजंघा को जैसे अश्वारूढ़ और हाथी पर आरूढ़ व्यक्ति गर्वित हो आच्छादित करता है, वह है अर्धजंघा। जाता है, उसी प्रकार भूमीगत व्यक्ति जो पैरों में क्रमणिका ३८५१.वण्णड्ड वण्णकसिणं, तं पंचविहं तु होइ नायव्वं । पहने हुए हो वह भी गर्वित होता है। पैर स्वभावतः मृदु होते बहुबंधणकसिणं पुण, परेण जं तिण्ह बंधाणं॥ हैं, उनसे जीवोपघात नहीं होता। क्रमणिका पहन लेने पर पैरों जो चर्म वर्ण से आढ्य-उज्ज्वल होता है वह वर्णकृत्स्न का स्पर्श कर्कश हो जाता है, उनसे जीवोपघात होता है। है। वह कृष्ण वर्ण आदि के भेद से पांच प्रकार का है। जो ३८५८.कंटाई देहतो, जीवे वि हु सो तहेव देहिज्जा। तीन बंधनों से अधिक बहुत बंधनों से बद्ध है वह बंधनकृत्स्न अत्थि महं ति य कमणी, णावेक्खइ कंटएण जिए॥ होता है। बिना जूते पहने चलने वाला व्यक्ति जैसे कांटों आदि को Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बृहत्कल्पभाष्यम् देखता है वैसे ही जीवों को भी देखता है, उनका घात नहीं ३८६४.अरिसिल्लस्स व अरिसा, करता। जो व्यक्ति यह सोचता है कि मैं जूते पहने हुए हूं, वह ___मा खुब्भे तेण बंधते कमणी। निरपेक्ष होकर न कांटों को देखता है और न जीवों को। असहुमवंताहरणं, ३८५९.पुट्विं अदया भूएसु होति बंधति कमेसु तो कमणी। पादो घट्टो तु गिरिदेसे॥ जायति हु तदब्भासा, सुदयालुस्सावि णिहयया॥ अर्श का रोगी यह सोचता है कि पादतल की दुर्बलता जो व्यक्ति पहले ही प्राणियों के प्रति निर्दय होता है, वह के कारण अर्श क्षुब्ध न हो जाएं इसलिए वह पैरों में पैरों में जूते बांध लेने के बाद, उसके अभ्यास से वह क्रमणिका बांधता है। क्रमणिका के बिना न चल सकने सदयालु होने पर भी निर्दय हो जाता है। वाला असहिष्णु क्रमणिका का प्रयोग करता है। इसमें ३८६०.अवि यंउंबखुज्जपादेण पेल्लितो अंतरंगुलगतो वा। अवंतीसुकुमार का उदाहरण ज्ञातव्य है।' गिरिदेश में मुच्चेज्ज कुलिंगादी, ण य कमणीपेल्लितो जियती॥ विहरण करने वाले मुनि के पादतल घिस जाएं तो वह जैसे आम्रकुब्ज व्यक्ति के पैरों के नीचे आया हुआ क्रमणिका बांध सकता है। कुलिंगी-विकलेन्द्रिय प्राणी, उसके अंगुलियों के मध्य में ३८६५.कुट्ठिस्स सक्करादीहि वा वि भिण्णो कमो मधूला वा। आया हुआ भी, मरता नहीं, बच जाता है, किन्तु क्रमणिका बालो असंफरो पुण, अज्जा विहि दोच्च पासादी। से आक्रान्त जीव बच नहीं सकता, अवश्य मर जाता है। जिस कुष्ठरोगी के पैर कंकड़, कांटें आदि से फट गए ३८६१.किह भूयाणुवघातो, ण होहिती पगतिपेलवतणूणं। हों वह क्रमणिका बांधता है। जिसके मधूल-पैरों में फोड़ा सभराहि पेल्लियाणं, कक्खडफासाहिं कमणीहिं॥ हो गया हो वह अथवा असंवृत (असंस्फर) बाल तथा आर्या प्राणी स्वभाव से ही अदृढ़शरीर वाले होते हैं। पुरुष के को जिस मार्ग से ले जाना हो वहां चोर आदि का भय हो, भार से आक्रान्त, कर्कशस्पर्शवाले जूतों से प्रेरित होने पर वहां वृषभ मुनि क्रमणिका पहनकर मार्ग को छोड़कर वहां भूतोपधात कैसे नहीं होगा? पार्श्वस्थित अर्थात् उत्पथ से चलते हैं। सभी उस उत्पथ से ३८६२.विह अतराऽसहु संभम, जाते हैं। कोट्ठाऽरिस चक्खुदुब्बले बाले। ३८६६.कुलमाइकज्ज दंडिय, पासादी तुरियधावणट्ठा वा। अज्जा कारणजाते, कारणजाते वऽण्णे, सागारमसागरे जतणा॥ कसिणग्गहणं अणुण्णायं॥ कुल, गण, संघ आदि के कार्य में दंडिकावलगन के लिए इन कारणों से कृत्स्नचर्म का ग्रहण अनुज्ञात है-विह त्वरित गमन के लिए, अथवा उत्पथ में या आगे-पीछे चलते अर्थात् यात्रा में, ग्लान के लिए, असहिष्णु के लिए, हुए अथवा शीघ्रता से दौड़ने के लिए, कारण उपस्थित होने संभ्रम-चोर आदि के भय में, यदि कुष्ठरोगी, अर्शरोगी, पर या किसी अन्य आगाढ़ कारण में सागारिक तथा आंख से दुर्बल हो, बाल हो, कारणवश आर्या को ले जाना असागारिक विषय की यतना रखते हुए क्रमणिका का पड़े, कुल-गण-संघ का कार्य उपस्थित होने पर। उपयोग करे। (यदि सागारिक उड्डाह करते हों तो क्रमणिका ३८६३.कंटा-हि-सीयरक्खट्ठता विहे खवुसमादि जा गहणं।। निकाल कर गांव में प्रवेश करे।) ओसहपाण गिलाणे, अहुणुट्ठियभेसयट्ठा वा॥ ३८६७.पंचविहम्मि विकसिणे, मार्ग में चलते समय कंटक, सर्प और शीत की रक्षा के किण्हग्गहणं तु पढमतो कुज्जा। लिए अंगुलीरक्षक अथवा खल्लक आदि का ग्रहण होता है। किण्हम्मि असंतम्मि, इसी प्रकार खपुस, अर्धजंघा, समस्तजंघा का भी ग्रहण विवण्णकसिणं तहिं कुज्जा। किया जाता है। औषधपान आदि सेवन करने वाला ग्लान वैद्य पांच प्रकार के वर्णकृत्स्न चर्म में सबसे पहले कृष्ण वर्ण के उपदेश से बिना क्रमणिका के नहीं चल सकता, अथवा वाले कृत्स्न चर्म को ग्रहण करे। यदि कृष्णवर्णवाले कृत्स्नचर्म ग्लानत्व से तत्काल उठा हुआ ग्लान क्रमणिका का उपयोग की अप्राप्ति हो तो लोहित आदि वर्णकृत्स्न आदि चर्म ग्रहण करता है, अन्यथा पृथ्वी की शीतलता के कारण अन्न ___करे। उसे विवर्णकृत्स्न कर दे। उचितरूप में नहीं पचता। अथवा भैषज के लिए ग्रामान्तर ३८६८.किण्हं पि गेण्हमाणो, झुसिरग्गहणं तु वज्जए साहू। जाना पड़े तो ग्लान क्रमणिका का प्रयोग करता है। बहुबंधणकसिणं पुण, वज्जेयव्वं पयत्तेणं। १. कथानक के लिए देखें-आवश्यक, हारि. वृ. पृ. ६७०। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक कृष्णवर्ण चर्म का ग्रहण करते हुए भी शुषिर के ग्रहण का वर्जन करे तथा बहुबंधन कृत्स्न की भी प्रयत्नपूर्वक वर्जना करे। ३८६९.दोरेहि व वज्झेहि व, दुविहं तिविहं व बंधणं तस्स । अणुमोदन कारावण, पुव्वकतम्मिं अधीकारो ॥ डोरों से अथवा चर्म-रज्जु से दो प्रकार या तीन प्रकार से उस चर्म का बंधन होता है अर्थात् दो या तीन बंधन वाला चर्म अनुज्ञात है। कृत्स्न या अकृत्स्न चर्म स्वयं साधु न करे, न कराए और करने वाले का अनुमोदन भी न करे। जो पूर्वकृत है उसे ग्रहण करे, उसका अधिकार हैप्रयोजन है। ३८७०. खुलए एगो बंधो, एगो पंचंगुलस्स दोण्णेते । खुलए एगो अंगुट्ट बितिय चउरंगुले ततितो ॥ खुलक में एक बंध होता है। पांचों अंगुलियों का एक बंध होता है। ये दो बंध होते हैं। जहां तीन बंध होते हैं वहां एक बंध खुलक का, एक बंध अंगुष्ठ का और एक बंध चारों अंगुलियों का । ३८७१. सयकरणे चउलहुगा, परकरणे मासियं अणुग्घायं । अणुमोदणे वि लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ यदि स्वयं कोई चर्म का ( उपानह आदि) करता है, उसे चतुर्लघु, कराने पर मासिक अनुद्घात और अनुमोदन में मासलघु तथा सर्वत्र आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३८७२.अकसिणचम्मग्गहणे, लहुओ मासो उ दोस आणादी । बितियपद घेप्पमाणे, अट्ठारस जाव उक्कोसा ॥ सूत्र में अनुज्ञात होने पर भी अकृत्स्नचर्म का ग्रहण नहीं कल्पता । यदि ग्रहण किया जाता है तो लघुमास का प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अपवाद पद में ग्रहण भी विधिपूर्वक होना चाहिए। यदि अकृत्स्न चर्म ग्रहण किया जाए तो दोनों उपानहों के उत्कृष्टतः अठारह खंड करे । कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई चम्माई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ॥ (सूत्र ६) ३८७३.अकसिणमट्ठारसगं, एगपुड विवण्ण एगबंधं च । तं कारणम्मि कप्पति, णिक्कारण धारणे लहुओ ॥ वह अकृत्स्न चर्म १८ खंड वाला, एक पुट, विवर्ण ३९९ और एक बंध वाला हो। ऐसा चर्म कारण में कल्पता है, बिना कारण धारण करने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३८७४. जइ अकसिणस्स गहणं, भाए काउं कमेण अट्ठदस । एगपुड- विवण्णेहि य, तहिं तहिं बंधते कज्जे ॥ यदि अकृत्स्नचर्म का ग्रहण किया जाता है तो उसके क्रमशः अठारह भाग कर, एक पुट, विवर्ण और एक बंध वाले उनको पैर में जहां-जहां आबाधा हो वहां-वहां कार्यवश बांधा जाता है। ३८७५. पंचंगुल पत्तेयं, अंगुट्ठमज्झे य छट्ट खण्डं तु । सत्तममग्गतलम्मी, मज्झऽट्ठम पहिया णवमं ।। अठारह खंड कैसे होते हैं ? पैर की प्रत्येक अंगुली का एक-एक खंड, अंगुष्ठ के मध्य छठा खंड, अग्रतल में सातवां खंड, मध्यतल में आठवां और पार्ष्णिका में नौवां । इस प्रकार एक पैर के उपानह के नौ खंड हुए। दूसरे पैर के उपानह के भी नौ खंड करने पर सर्व खंड अठारह हुए । ३८७६. एवइयाणं गहणे, मासो मुच्चंति होति पलिमंथो । बितियपद घेप्पमाणे दो खंडा मज्झपडिबंधा ॥ इतने खंडों के ग्रहण करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त आता है तथा इतने खंड करने पर सूत्रार्थ का परिमंथ होता है। अपवाद पद में चर्म ग्रहण करना पड़े तो मध्य से प्रतिबद्ध दो खंड करे । ३८७७.पडिलेहा पलिमंथो, णदिमादुदए य मंच - बंधते । सत्थफिडणेण तेणा, अंतरवेधो य डंकणता ॥ अठारह खंड करने पर प्रत्युपेक्षा का परिमंथ होता है। सार्थ के साथ जाता हुआ मुनि यदि नदी को पार करना चाहे तो उन अठारह स्थानों को खोलने तथा पार करने पर पुनः उन्हें बांधने में जो समय लगता है, उतने समय में सार्थ आगे चला जाता है और वह सार्थ से बिछुड़ जाता है। वह चोरों द्वारा उपद्रुत होता है। अनेक खंडों के बीच से कांटों द्वारा बींधा जाता है और पैरों में घाव हो जाते हैं। ३८७८. तज्जायमतज्जायं, दुविहं तिविहं व बंधणं तस्स । तज्जायम्मि वि लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ खंडद्वय में दो प्रकार का बंध होता है-तज्जातबंध और अतज्जातबंध। तज्जातबंध देने पर भी मासलघु प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। तज्जातबंध का अर्थ है- उसी चर्म का बंध और अतज्जातबंध का अर्थ है-डोरी आदि से बांधना । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० वत्थ-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा कसिणारं वत्थाइं धारित्तए वा परिहरित्तए वा। (सूत्र ७) कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई वत्थाई धारित वा परिहरित्तए वा ॥ ( सत्र ८ ) ३८७९. पडिसिद्धं खलु कसिणं, अववादियं तु चम्मं, ण वत्थमिति जोगणाणत्तं ॥ पूर्वसूत्र में कृत्स्नचर्म का प्रतिषेध किया गया है वैसे ही वस्त्रकृत्स्न भी हमें ग्राह्य नहीं है। जैसे चर्म आपवादिक है, वैसे वस्त्र आपवादिक नहीं है, क्योंकि यह सदा परिभोग में आता है। यही संबंध का नानात्व प्रकारान्तर है। ३८८०. कसिणस्स उ वत्थस्सा, णिक्खेवो छव्विहो तु कातव्वो । नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य भावे य ॥ कृत्स्न वस्त्र के छह निक्षेप होते हैं-नामकृत्स्न, स्थापनाकृत्स्न, द्रव्यकृत्स्न, क्षेत्रकृत्स्न, कालकृत्स्न और भावकृत्स्न । ३८८१. दुविहं तु दव्वकसिणं, सकलक्कसिणं पमाणकसिणं च । एतेसिं दोन्हं पी, पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥ द्रव्यकृत्स्न के दो प्रकार हैं-सकलकृत्स्न और प्रमाणकृत्स्न। इन दोनों में प्रत्येक की पृथक् प्ररूपणा करूंगा । ३८८२. घण मसिणं णिरुवहयं, जं वत्थं लब्भते सदसियागं । एतं तु सकलकसिणं, जहण्णगं मज्झिमुक्कोसं ॥ सघन, मृदु, निरुपहत तथा सदशाक - किनारी वाला जो वस्त्र प्राप्त होता है वह सकलकृत्स्न कहलाता है। उसके तीन प्रकार हैं- जघन्य मुखपोतिका आदि, मध्यम-पटलक और उत्कृष्ट - कल्प आदि । ३८८३.वित्थारा-ऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भए समतिरेगं । एयं पमाणकसिणं, जहणणयं मज्झिमुक्कोसं ॥ जो वस्त्र विस्तार- चौड़ाई और आयाम - लंबाई में समतिरिक्त प्राप्त होता है, वह प्रमाणकृत्स्न है । उसके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट - ये तीन प्रकार हैं। चम्मं वत्थकसिणं पि णेच्छाभो । बृहत्कल्पभाष्यम् ३८८४. जं वत्थ जम्मि देसम्मि दुल्लहं अच्चियं व जं जत्थ । तं खित्तजुयं कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ जो वस्त्र जिस देश में दुर्लभ हो, जो वस्त्र जहां अर्चित अर्थात् मंहगा हो वह क्षेत्रयुतकृत्स्न कहलाता है। उसके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-ये तीन प्रकार हैं। ३८८५.जं वत्थ जम्मि कालम्मि अग्घितं दुल्लभं व जं जत्थ । तं कालजुतं कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ जो वस्त्र जिस काल में बहुमूल्य वाला है और जो जहां दुर्लभ है, वह कालयुतकृत्स्न है। उसके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट - ये तीन प्रकार हैं। ३८८६.दुविहं च भावकसिणं, वण्णजुतं चेव होति मोल्लजुयं । वण्णजुयं पंचविहं, तिविहं पुण होइ मोल्लजुतं ॥ भावकृत्स्न के दो प्रकार हैं- वर्णयुत और मूल्ययुत । वर्णयुत के पांच और मूल्ययुत के तीन प्रकार हैं। ३८८७. पंचन्हं वण्णाणं, अण्णतराएण जं तु वण्णङ्कं । तं वण्णजुयं कसिणं जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ॥ पांचों वर्णों में जो वर्ण आढ्य- समृद्ध होता है वह वर्णयुतकृत्स्न कहलाता है। वह भी तीन प्रकार का है - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । ३८८८. चाउम्मासुक्कोसे, मासो मज्झे य पंच य जहण्णे । तिविहम्मि वि वत्थम्मिं, तिविधा आरोवणा भणिया ॥ उत्कृष्ट कृत्स्न में चतुर्लघु, मध्यम में लघुमास और जघन्य में पांच रात-दिन इस प्रकार तीनों प्रकार के कृत्स्न वस्त्र में तीन प्रकार की आरोपणा होती है। ३८८९.दव्वाइतिविहकसिणे, एसा आरोवणा भवे तिविहा । एसेव वण्णकसिणे, चउरो लहुगा व तिविधे वि ॥ यह तीन प्रकार की आरोपणा द्रव्य आदि तीन प्रकार के कृत्स्न- द्रव्यकृत्स्न, क्षेत्रकृत्स्न, और कालकृत्स्न में होती है। यही वर्णकृत्स्न में होती है। अथवा वर्णकृत्स्न के जघन्य आदि तीनों भेद में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। ३८९०. मुल्यं पय तिविहं, जहण्णगं मज्झिमं च उक्कोसं । जहणणेणऽट्ठारसगं, सतसाहस्सं च उक्कोसं ॥ मूल्ययुत भी तीन प्रकार का है- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । अठारह रूपक मूल्य वाला जघन्य, एक लाख रूपक मूल्य वाला उत्कृष्ट और इनके बीच का मूल्य वाला मध्यम है। ३८९९. दो साभरगा दीविच्चगा तु सो उत्तरापथे एक्को । दो उत्तरापहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एक्को ॥ सौराष्ट्र के दक्षिण दिशा में समुद्र का अवगाहन कर जो द्वीप है, वहां के दो 'साभरक' (रूपक) उत्तरापथ में एक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक रूपक होता है। उत्तरापथ के दो रूपक पाटलिपुत्र के एक रूपक होता है। ३८९२. दो दक्खिणावहा तू, कंचीए णेलओ स दुगुणो य एगो कुसुमणगरगो, तेण पमाणं इमं होति ॥ दक्षिणापथ के दो रूपक कांचीपुरं का एक 'नेलक' (रूपक) होता है। ये दो नेलक कुसुमनगर (पाटलिपुत्र ) का एक रूपक होता है। इस प्रमाण से अठारह आदि (श्लोक ३८९०) उपरोक्त प्रमाण को जानना चाहिए। ३८९.३. अद्वारस वीसा या, अगुणापण्णा य पंच व सवाई। एगूणगं सहस्सं, दस पण्णासं सतसहस्सं ॥ ३८९४.चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं च होइ बोद्धव्वं । अणवट्टप्पो य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ॥ अठारह रूपक मूल्य का वस्त्र ग्रहण करने पर चतुर्लघु, बीस रूपक मूल्य का चतुर्गुरु, उनपचास रूपक का छहलघु, पांच सौ रूपक का षड्गुरु, नो सौ निन्यानवें रूपक का छेद, दश हजार का मूल, पचास हजार रूपक का अनवस्थाप्य, एक लाख रूपक का पारांचिक ये प्रायश्चित्त विहित हैं। ३८९५. अट्ठारस बीसा या सयमद्वाइज पंच य सयाहं । सहसं च दससहस्सा, पण्णास तधा सतसहस्सं ॥ ३८९६.लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहुग गुरुगाय । छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो य पारंची ॥ अथवा अठारह रूपक लघुमास, बीस रूपक चतुर्लघु, सौ रूपक चतुर्गुरु, ढाई सौ रूपक षड्लघु, पांच सौ रूपक षड्गुरु, सहस्ररूपक छेद, दशसहस्ररूपक मूल, पचाससहस्ररूपक अनवस्थाप्य, लाख रूपक पारांचिक । ३८९७. अट्ठारस वीसा या, पण्णास तधा सयं सहस्सं च । पण्णासं च सहस्सा, तत्तो य भवे सबसहस्सं ॥ ३८९८. चउगुरुग छच्च लहु गुरू, छेदो मूलं च होति बोद्धव्वं । अणवट्टप्पो य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ॥ अथवा अठारहरूपक चतुर्गुरु, बीसरूपक षड्लघु, पचासरूपक षड्गुरु, सौरूपक छेद, सहस्ररूपक मूल, पचाससहस्र अनवस्थाप्य, शतसहस्र पारांचिक । ३८९९. अहवा रागसहगतो, वत्थं धारेति दोससहितो वा । एवं तु भावकसिणं, तिविहं परिणामणिप्फण्णं ॥ अथवा रागसहित या द्वेषसहित वस्त्र को धारण करना भावकृत्स्न है। यह परिणाम से निष्पन्न तीन प्रकार का है-राग-द्वेष के जघन्य परिणाम से जघन्य मध्यम परिणाम से मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम से उत्कृष्ट । ४०१ ३९००, भारो भय परियावण, पडिलेहाऽऽणालोवो, मणसंतावो उवायाणं ॥ द्रव्यकृत्स्न वस्त्र के ग्रहण में ये दोष होते हैं भार, चोरों का भय, उनके द्वारा परितापन, मारण और अधिकरण होता है। तथा क्षेत्रकृत्स्न तथा कालकृत्स्न उपधि का ग्रहण करने पर उसको कोई देख न ले, इसलिए यदि उसकी प्रत्युपेक्षा नहीं की जाती है तो आज्ञा का लोप होता है। देखते हुए प्रत्युपेक्षा करने पर कोई उसका अपहरण कर ले तो मानसिक संताप होता है अथवा शैक्ष आदि उसका अपहरण कर उत्प्रव्रजित हो जाता है। मारण अहिगरण दव्यकसिणम्मि ३९०१.गहणं च गोम्मिएहिं परितावण धोव कम्मबंधो य । ७ अन्ने वि तत्थ संभइ, तेणक ते वा अहव अन्ने ॥ कृत्स्नवस्त्र होने पर गौल्मिक-शुल्कपालक उसका ग्रहण करते हैं, उसको पकड़ लेते हैं, परितापना देते हैं, वे वस्त्र का स्वयं उपयोग कर उसको धोते हैं। उससे कर्मबंध होता है। वे गौल्मिक अन्य साधुओं को भी रोक कर परितापना देते हैं। वे ही गौल्मिक दूसरे मार्ग से स्तेन बन जाते हैं अथवा उनके द्वारा प्रेरित होकर दूसरे लोग अपहरण कर लेते हैं। ३९०२. भावकसिणम्मि दोसा ते च्चेव उ नवरि तेणदितो। देसी गिलाण जावोग्गहो उ दव्वम्मि बितियपयं ॥ भावकृत्स्न में भी वे ही दोष अर्थात् भार, भय और परितापन आदि होते हैं। इसमें स्तेन का दृष्टांत है । देशविशेष अथवा ग्लान को लक्षित कर सकलकृत्स्न और प्रमाणकृत्स्न भी लिया जा सकता है द्रव्यकृत्स्न में अपवादपद यह है कि जब तक आचार्य के समक्ष वस्वावग्रह अनुज्ञापित नहीं किया जाता, तब तक उसकी किनारी न काटी जाए । ३९०३. उवसामिओ णरिंदो कंबलरयणेहिं छंदए गच्छं । णिब्बंध एगगहणं, णिववयणे पाउतो णीति ॥ ३९०४. तेणाऽऽलोग णिसिज्जा, रत्तिं तेणागमो गुरुग्गहणं । दरिसणमपत्तियंते, सिव्वावणया य रोसेणं ॥ एक आचार्य ने राजा को उपशांत किया। राजा ने समस्त गच्छ के मुनियों को रत्नकंबल देने के लिए आचार्य को निवेदन किया। राजा के अत्यधिक आग्रह करने पर एक रत्नकंबल लिया और उससे प्रावृत होकर वहां से निकले । चोर ने यह देख लिया। आचार्य ने वसति में आकर उस रत्नकंबल को फाड़कर निषद्याएं बना लीं। रात्री में चोर वहां आया और आचार्य को पकड़ कर रत्नकंबल देने के लिए . Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ बृहत्कल्पभाष्यम् कहा। आचार्य ने कहा-'मैंने उसके टुकड़े कर दिए हैं।' चोर ३९०९.अववायाववादो वा, एत्थ जुज्जइ कारणे। को विश्वास नहीं हुआ तब आचार्य ने उसे टुकड़े दिखाए। सट्ठाणं व तमब्भेति, अच्छिज्जं जं उदाहडं। चोर ने रोष में आकर, टुकड़ों को पुनः सिलाकर रत्नकंबल अपवाद का अपवाद इन कारणों से योजनीय है। स्वस्थान ले लिया। अर्थात् कृत्स्नवस्त्र भी जो अछेदनीय के रूप में उदाहृत है ३९०५.न पारदोच्चा गरिहा व लोए, अर्थात् जिस वस्त्र की प्रमाणातिरिक्त किनारियां का छेदन थूणाइएसुं विहरिज्ज एवं। नहीं किया जाता वह कृत्स्नवस्त्र ही है। (अपवाद का अपवाद भोगाऽइरित्ताऽऽरभडा विभूसा, जैसे-स्थूणा जनपद में कृत्स्नवस्त्र ग्रहण करना कल्पता कप्पेज्जमिच्चेव दसाउ तत्थ॥ है-यह उल्लेख अपवाद है। उसमें यह भी है कि किनारी का जहां 'पारदोच्च'-चोर का भय न हो, जहां के लोग छेदन किया जाए-यह अपवाद में उत्सर्ग है। किनारी से वस्त्र गर्हा न करते हों वहां स्थूणा आदि जनपदों में सकलकृत्स्न दृढ़ रहता है, इसलिए किनारी का छेदन न किया जाए, यह वस्त्र से प्रावृत होकर विहरण किया जा सकता है। परंतु अपवाद के उत्सर्ग का भी अपोह है-छेदन किया जाए यह उस वस्त्र की किनारी काट देनी चाहिए, क्योंकि किनारी अपवाद का अपवाद है।) वाले वस्त्रों का भोग नहीं कल्पता, वह अतिरिक्त उपधि हो ३९१०.देसी गिलाण जावोग्गहो उ भावम्मि होति बितियपदं। जाती है, उसकी प्रत्युपेक्षा करते समय आरभड दोष लगता तब्भाविते य तत्तो, ओमादिउवग्गहट्ठा वा॥ है, विभूषा मानी जाती है। इसलिए किनारी का छेदन कर देशी, ग्लान से लेकर अवग्रहपद तक भावकृत्स्न का देना चाहिए। अपवाद पद है। तद्भावित व्यक्ति भावकृत्स्न का परिभोग कर ३९०६.पासगंतेसु बढेसु, दढं होहिति तेण तु। सकता है। अवमौदर्य तथा गच्छ के उपग्रह के लिए __णातिदिग्घदसं वा वि, ण तं छिंदिज्ज देसिओ॥ भावकृत्स्न वस्त्रों को धारण करे। __ वस्त्र दोनों पाश्र्यों में किनारी से बंधा हुआ हो तो वह दृढ़ ३९११.देसी गिलाण जावोग्गहो उ दव्वकसिणम्मि जं वुत्तं। हो जाता है और लंबे समय तक काम में आ सकता है, तह चेव होति भावे, तं पुण सदसं व अदसं वा।। इसलिए उसकी किनारी न काटे। सिन्धु आदि जनपदों में देशी, ग्लान से लेकर अवग्रहद्वार में द्रव्यकृत्स्न का जो वस्त्र लंबी किनारी वाले नहीं होते, अतः उनकी किनारी का अपवादपद है वही भावकृत्स्न अपवादपद है। वह वस्त्र भले छेदन न किया जाए। ही किनारी वाला हो या अकिनारीवाला-उसे अपवादपद में ३९०७.असंफुरगिलाणट्ठा, तेण माणाधियं सिया। ग्रहण किया जा सकता है। सदसं वेज्जकज्जे वा, विसकुंभट्ठयाति वा॥ ३९१२.नेमालि तामलित्तीय, सिंधूसोवीरमादिसु। असंस्फर ग्लान वह होता है जो अत्यंत क्षीण होने के सव्वलोकोवभोज्जाइं, धरिज्ज कसिणाई वि॥ कारण पैरों को संकुचित कर सो नहीं सकता, उसके लिए नेपाल, ताम्रलिप्ती, सिन्धू-सौवीर जनपदों में सर्वलोकोपप्रमाण से अधिक लंबा वस्त्र भी ग्रहण किया जा सकता है। भोज्य कृत्स्नवस्त्रों को भी धारण किया जा सकता है। अथवा उसके चिकित्सक के प्रयोजन से, उसको देने के लिए ३९१३.आइन्नता ण चोरादी, भयं णेव य गारवो। तथा विषकुंभ-विषैले फोड़े के कारण किनारी वाला वस्त्र उज्झाइवत्थवं चेव, सिंधूमादीसु गरहितो॥ लिया जा सकता है। नेपाल आदि देशों में लोकों द्वारा ऐसे वस्त्रों की ३९०८.अविभत्ता ण छिज्जंति, लाभो छिज्जिज्ज मा खलु। आचीर्णता है। वहां न भय है और न गौरव का प्रश्न है। पारदोच्चाववादस्स, पडिपक्खो व होज्ज उ॥ सिन्धु आदि जनपदों में 'उज्झाइवत्थ' अर्थात् विरूप वस्त्र जब तक आचार्य वस्त्रों का विभाग न कर दे तब तक गर्हित माने जाते हैं। प्रमाणातिरिक्त वस्त्रों का छेदन न करे, क्योंकि वैसा करने से ३९१४.नीलकंबलमादी तु, उण्णियं होति अच्चियं । वस्त्रों के लाभ का व्यवच्छेद न हो जाए। स्थूणा आदि जनपद सिसिरे तं पि धारेज्जा, सीतं नऽण्णेण रुब्भति॥ में जो कृत्स्नवस्त्रों का प्रावरण अनुज्ञात है वह पारदोच्च महाराष्ट्र देश में नीलकंबल आदि और्णिक वस्त्र अर्चित (गाथा ३९०५) का अपवाद है। पारदोच्च का प्रतिपक्ष यह अर्थात् बहुमूल्य वाला माना जाता है। शिशिर में उसको है-अविभक्त वस्त्रों की किनारी का भी छेदन कर देना ओढ़े। उसके बिना अन्य कंबल से शीत को नहीं रोका जा चाहिए। सकता। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ४०३ ३९१५.न लभइ खरेहिं निरं, अरतिं च करिति से दिवसतो वि। उज्झाइगं व मण्णति, थूलेहिं अभावितो जाव॥ जिसे स्थल चीवरों में नींद नहीं आती है और दिन में भी अरति होती है, उसको धारण करने में जुगुप्सा होती है और जो आज तक स्थूल चीवरों से भावित नहीं हुआ है उनके लिए भावकृत्स्नवस्त्र अनुज्ञात हैं। ३९१६.ओमा-ऽसिव-दुद्वेसू, सीमढेऊण तं असंथरणे। गच्छो नित्थारिज्जति, जाव पुणो होति संथरणं॥ अवमौदर्य, अशिव तथा राजद्विष्ट आदि स्थिति में यदि गच्छ का असंस्तरण होता है तो मूल्यवान् वस्त्र को 'सीमढेऊण' बेचकर गच्छ का निस्तारण करे, तब तक जब तक पुनः संस्तरण की स्थिति न हो। ३९१७.माणाहियं दसाधिय, एताइं पडंति दव्वकसिणम्मि। तस्सेव य जो वण्णो, मुल्लं च गुणो य तं भावे॥ क्षेत्रकृत्स्न और कालकृत्स्न में जो वस्त्र मानाधिकप्रमाणातिरिक्त हो, जो वस्त्र किनारीयुक्त हो-ये सारे द्रव्यकृत्स्न में समाविष्ट होते हैं। उनमें जो वस्त्र कृष्ण आदि वर्णवान् है, अठारह रूपक का मूल्य वाला है तथा जो मृदुत्व आदि गुणों से सहित है, वह वस्त्र भावकृत्स्न में समाविष्ट होता है। ३९१९.तम्मि वि सो चेव गमो, उस्सग्ग-ऽववादतो जहा कसिणे। भिण्णग्गहणं तम्हा, असती य सयं पि भिंदिज्जा। अभिन्न में भी उत्सर्ग और अपवाद विषयक वही प्रकार है जो कृत्स्न विषय में है। इसलिए भिन्न वस्त्र का ग्रहण करना चाहिए। यदि भिन्न प्राप्त न हो तो स्वयं उसका भेद करे अर्थात् जितना प्रमाणातिरिक्त हो उसका भेद कर उसे प्रमाणयुत बना दे। ३९२०.पुणरुत्तदोसो एवं, पिट्ठस्स व पीसणं णिरत्थं तु। कारणमवेक्खति सुतं, दुविहपमाणं इहं सुत्ते॥ शिष्य ने पूछा-इसमें पुनरुक्तदोष आता है। पीसे हुए को पुनः पीसना निरर्थक होता है। आचार्य कहते हैं-यह सूत्र कारण और अपेक्षा से विहित है। प्रस्तुत सूत्र में दो प्रकार के प्रमाण हैं-गणनालक्षण और प्रमाणलक्षण अर्थात् कितना और किस प्रमाण का ग्रहण करना है। ३९२१.तम्हा उ भिंदियव्वं, केई पम्हेहि अह व तह चेव । लोगते पाणादीविराधणा तेसि पडिघातो॥ अभिन्न वस्त्र को धारण करने से पूर्व-सूत्रोक्त दोष होते हैं, इसलिए प्रमाणातिरिक्त वस्त्र का स्वयं भेदन करे। कुछेक शिष्य कहते हैं-'वस्त्रों को फाड़ने पर सूक्ष्मपक्ष्म उड़कर लोकान्त तक चले जाते हैं। उनसे प्राणियों की विराधना होती है। अतः जैसा प्राप्त हो वैसा ही ग्रहण करना चाहिए, धारण करना चाहिए।' इस प्रकार कहने वाले शिष्यों का प्रतिघातनिराकरण करना चाहिए। ३९२२.सहो तहिं मुच्छति छेदणा वा, धावंति ते दो विउ जाव लोगो। वत्थस्स देहस्स य जो विकंपो, ततो वि वादादि भरिति लोग। पुनः शिष्य कहता है वस्त्र का छेदन करने पर शब्द होता है, पक्ष्म भी उड़ते हैं। दोनों लोकान्त तक जाते हैं। तथा वस्त्र और देह का जो विकंप होता है, तब उनसे विनिर्गत वायु भी सारे लोक को भर देती है। ३९२३.अहिच्छसे जंति न ते उ दूरं, संखोभिया तेहऽवरे वयंति। उर्ल्ड अधे यावि चउद्दिसिं पि, पूरिति लोगं तु खणेण सव्वं॥ यदि आप कहते हैं कि वस्त्रछेदन से समुत्थ शब्द-पक्ष्मवायु आदि के पुद्गल दूर तक नहीं जाते, किन्तु उनसे संक्षोभित-चालित दूसरे पुद्गल लोकान्त तक चले जाते हैं। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अभिन्नाइं वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ९) ३९१८.अकसिण भिण्णमभिण्णं, व होज्ज भिण्णं तु अकसिणे भइत। कसिणा-ऽकसिणे य तहा, भिन्नमभिन्ने य चउभंगो॥ पूर्वसूत्र में अकृत्स्न वस्त्र की बात कही, वह वस्त्र भिन्न अथवा अभिन्न हो सकता है। अकृत्स्न वस्त्र भिन्न होने पर भी अकृत्स्न या कृत्स्न हो सकता है। इसलिए कृत्स्न, अकृत्स्न तथा भिन्न, अभिन्न की चतुर्भगी होती है, जैसे १. कृत्स्न अभिन्न २. कृत्स्न भिन्न ३. अकृत्स्न अभिन्न ४. अकृत्स्न भिन्न। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ इस प्रकार एक-दूसरे से प्रेरित पुद्गल क्षणभर में ऊर्ध्व, अधः तथा तिर्यक् और चारों दिशाओं में संपूर्ण लोक को भर देते हैं। ३९२४.विन्नाय आरंभमिणं सदोसं, तम्हा जहालद्धमधिट्ठिहिज्जा। वुत्तं सएयो खलु जाव देही, ण होति सो अंतकरी तु ताव॥ अतः यह आरंभ सदोष है, ऐसा जानकर जैसा वस्त्र प्राप्त हो, उसी का उपभोग करना चाहिए। इसीलिए व्याख्याप्रज्ञप्ति में कहा है कि जीव सैज होता है-सकंप होता है, चेष्टावान् होता है। जब तक वह संकप होता है तब तक वह अन्तकारी नहीं होता। ३९२५.जा यावि चिट्ठा इरियाइआओ, संपस्सहेताहिं विणा न देहो। संचिट्ठए नेवमछिज्जमाणे, वत्थम्मि संजायइ देहनासो॥ जो ईर्या आदि की चेष्टाएं देखी जाती हैं, उनके बिना देह का निर्वहन नहीं होता, देह के बिना संयम का भी व्यवच्छेद हो जाता है किन्तु वस्त्र का छेदन न करने पर देह का नाश नहीं होता। ३९२६.जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो। निरुद्धजोगिस्स व से ण होति, अछिद्दपोतस्स व अंबुणाधे॥ जैसे-जैसे जीव का अल्पतर योग-चेष्टा होती है वैसेवैसे कर्मों का बंध भी अल्पतर होता है। शैलेशी अवस्था में निरुद्धयोगी के कर्मबंध नहीं होता जैसे समुद्र में बहती हुई अच्छिद्रनौका में पानी का प्रवेश नहीं होता। ३९२७.आरंभमिट्टो जति आसवाय, गुत्तीय सेआय तधा तु साधू। मा फंद वारेहि व छिज्जमाणं, पतिण्णहाणी व अतोऽण्णहा ते॥ आचार्य कहते हैं-शिष्य! यदि तुम्हें यह सिद्धांत इष्ट हो कि आरंभ आश्रव अर्थात् कर्मों के उपादान का हेतु है और गुप्ति श्रेयस् अर्थात् कर्मों के अनुपादान के लिए है तो तुम कोई स्पन्दन मत करो और वस्त्र का छेदन करने वालों को भी मत रोको। (क्योंकि यदि तुम वस्त्रछेदन को आरंभ मानते हो और वह कर्मबंधन का हेतु है तो उसके प्रतिषेध में हाथ आदि का स्पंदन करते हो या शब्दों द्वारा प्रतिषेध बृहत्कल्पभाष्यम् करते हो तो वह भी आरंभ है, चेष्टा है। यदि ऐसा करते हो तो प्रतिज्ञाहानि-स्ववचन का विरोध है। यह स्व-कथन से अन्यथा है। इससे दोष लगता है। ३९२८.अदोसवं ते जति एस सद्दो, अण्णो वि कम्हा ण भवे अदोसो। अधिच्छया तुज्झ सदोस एक्को, एवं सती कस्स भवे न सिद्धी। यदि तुम यह मानते हो कि वस्त्र छेदन के प्रतिषेधक शब्द के उच्चारण से दोष नहीं लगता तो अन्य अर्थात् वस्त्रछेदन आदि के लिए किया जाने वाला शब्दोच्चारण अदोष वाला क्यों नहीं होगा। यदि अपनी इच्छा के अनुसार एक क्रिया सदोष है और दूसरी अदोष तो फिर किस स्वपक्ष की सिद्धि नहीं होगी? ३९२९.तं छिंदओ होज्ज सतिं तु दोसो, खोभादि तं चेव जतो करेति। जं पेहतो होति दिणे दिणे तु, संपाउणंते य णिबुज्झ ते वी॥ वस्त्र का छेदन करने से एक बार दोष होता है क्योंकि जब उसको छेदा जाता है तब वह अन्य पुद्गलों को क्षुब्ध करता है। किन्तु जो वस्त्र छेदा नहीं जाता उस प्रमाणातिरिक्त वस्त्र की प्रत्युपेक्षणा से प्रतिदिन दोष लगता है। तथा उस वस्त्र को ओढ़ने पर विभूषा आदि दोष होते हैं, इन दोषों को भी समझो। ३९३०.घेत्तव्वगं भिन्नमहिच्छितं ते, जा मग्गते हाणि सुतादि ताव। अप्पेस दोसो गुणभूतिजुत्तो, पमाणमेवं तु जतो करिति॥ यदि लंबी गवेषणा कर भिन्न वस्त्र ही लेना तुम्हें इष्ट हो तो जितना समय गवेषणा में लगेगा उतने समय तक सूत्रार्थ की हानि होगी। जो वस्त्रछेदनरूप दोष है, वह गुणों की संपदा से युक्त है। (प्रत्युपेक्षणाशुद्धि और विभूषापरिहार-ये गुण हैं।) इसलिए वे मुनि वस्त्र का प्रमाण करते हैं, प्रमाणातिरिक्त वस्त्र का ग्रहण नहीं करते। ३९३१.आहार-णीहारविहीसु जोगो, सव्वो अदोसाय जहा जतस्स। हियाय सस्सम्मि व सस्सियस्स, ___भंडस्स एवं परिकम्मणं तु॥ जो यतनावान् मुनि हैं उनके द्वारा आहार-नीहार आदि विधि विषय के सारे योग तथा भांड का परिकर्म भी निर्दोष Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ४०५ है। जैसे सास्यिक कृषक के लिए सस्यविषयक परिकर्म हित राग आदि परिणामों की तीव्रता, मंदता, ज्ञात-अज्ञात, के लिए होता है, वैसे ही साधु के लिए भांडपरिकर्म हितकारी भावाधिकरण, वीर्य-इन में जो नानात्व होता है, वैसे ही होता है। कर्मबंध में नानात्व होता है, ऐसा जानो। (व्याख्या आगे) ३९३२.अप्पेव सिद्धंतमजाणमाणो, ३९३७.तिव्वेहि होति तिव्वो, रागादीएहिं उवचओ कम्मे। तं हिंसगं भाससि जोगवंतं। मंदेहि होति मंदो, मज्झिमपरिणामतो मज्झो। दव्वेण भावेण य संविभत्ता, राग आदि की तीव्रता होने पर तीव्र कर्मबंध का उपचय चत्तारि भंगा खलु हिंसगत्ते॥ होता है, मंद होने पर मंद और मध्यम होने पर मध्यम इस प्रकार तुम योगवान्-प्रवृत्ति करने वाले को हिंसक कर्मबंध होता है। मानते हो, इसका तात्पर्य है कि तुम सिद्धांत को नहीं जानते। ३९३८.जाणं करेति एक्को. हिंसमजाणमपरो अविरतो य। द्रव्य और भाव से विभक्त चार भंग हिंसकत्व में होते हैं तत्थ वि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए। १. द्रव्य से हिंसा, भावतः नहीं एक व्यक्ति जानकर हिंसा करता है और दूसरा २. भावतः हिंसा द्रव्यतः नहीं अजानकारी में हिंसा करता है। दोनों अविरत हैं, फिर भी उन ३. द्रव्यतः और भावतः हिंसा दोनों के कर्मबंध में महान् अन्तर है, ऐसा सिद्धांत में कहा है। ४. न द्रव्यतः हिंसा और न भावतः हिंसा। ३९३९.विरतो पुण जो जाणं, कुणति अजाणं व अप्पमत्तो वा। ३९३३.आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, तत्थ वि अज्झत्थसमा, संजायति णिज्जरा ण चयो॥ . सा दव्वतो होति ण भावतो उ। जो विरत है-संयत है, वह गीतार्थ मुनि विशेष प्रयोजनभावेण हिंसा तु असंजतस्सा, वश जानता हुआ भी हिंसा करता है अथवा वह अप्रमत्त है जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति॥ और कदाचित् अजानकारी में प्राणव्यपरोपण हो जाता है, ३९३४.संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, वहां भी अध्यात्मसभा-चित्तप्रणिधान के आधार पर निर्जरा सा दव्वहिंसा खलु भावतो य।। होती है, कर्मबंध नहीं होता। अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होज्जा, ३९४०.एगो खओवसमिए, वट्टति भावेऽवरो उ ओदइए। वधेण जोगो दुहतो वऽहिंसा॥ तत्थ वि बंधविसेसो, संजायति भावणाणत्ता॥ समित अर्थात् ईर्यासमिति में उपयुक्त मुनि के कदाचित् एक क्षायोपशमिक भाव में वर्तन कर रहा है और दूसरा हिंसा हो जाती है, वह द्रव्यतः हिंसा है, भावतः नहीं। द्रव्यतः औदयिक भाव में, वहां भी भावों के नानात्व के कारण हिंसा नहीं, किन्तु भावतः हिंसा असंयत व्यक्ति के तथा कर्मबंध भी विशेष होता है। अनुपयुक्त संयत के होती है, यद्यपि सदा वह उन सत्वों को ३९४१.एमेव ओवसमिए, खओवसमिए तहेव खइए य। नहीं मारता फिर भी उनका वह हिंसक है। जब उन जीवों का बंधा-ऽबंधविसेसो, ण तुल्लबंधा य जे बंधी॥ प्राणव्यपरोपण करता है तब वह द्रव्य हिंसा तथा भावहिंसा- इसी प्रकार औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भाव दोनों है। जो अध्यात्मशुद्ध है अर्थात् जिसका चित्तप्रणिधान में बंध-अबंध विशेष का सम्यग् उपयोग वक्तव्य है। जो शुद्ध है, उसका जब वध के साथ योग नहीं होता तो वह द्रव्य कर्मबंधक जीव हैं, वे भी तुल्यबंधक नहीं होते। और भाव दोनों से अहिंसक है। ३९४२.अहिकरणं पुव्वुत्तं, चउव्विहं तं समासओ दुविहं। ३९३५.रागो य दोसो य तहेव मोहो, णिव्वत्तणताए वा, संजोगे चेवऽणेगविधं ॥ ते बंधहेतू तु तओ वि जाणे। अधिकरण के चार प्रकार पहले (प्रथमोद्देशक में) कहे जा णाणत्तगं तेसि जधा य होति, चुके हैं। वे ये हैं-निर्वर्तना, निक्षेपणा, संयोजना और निसर्जना। संक्षेप में अधिकरण के दो प्रकार हैं-निर्वर्तना में राग, द्वेष और मोह-ये तीनों बंध के हेतु हैं, यह तुम तथा संयोजना में। इनके अनेक प्रकार हैं। जानो। जब ये तीनों विशेष होते हैं तब कर्म-बंध भी विशेष ____३९४३.एगो करेति परसुं, णिव्वत्तेति णखछेदणं अवरो। होता है, यह जानो। कुंत-कणगे य वेज्झे, आरिय सूई अ अवरो उ॥ ३९३६.तिव्वे मंदे णातमणाए भावाधिकरण विरिए य। एक लोहकार पशु-कुठार का निर्माण करता है और जह दीसति णाणत्तं, तह जाणसु कम्मबंधे वि॥ दूसरा नखच्छेदनक बनाता है। एक लोहकार भाला और Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश बृहत्कल्पभाष्यम् कनक-बाण विशेष तथा वेधक-परशरीर वेधक शस्त्र बनाता अथवा बाल आदि की अपेक्षा से संक्षेप में वीर्य तीन है और दूसरा आरिका, सूची आदि बनाता है। (जो कुठार, प्रकार का होता है-बालवीर्य, बालपंडितवीर्य और पंडितभाला, बाण बनाने वाला तीव्र कर्मबंध करता है और जो वीर्य। इन तीनों में कर्मबंधविशेष होता है। पंडितवीर्य वाला नखच्छेदनक, आरिका, सूची आदि बनाता है वह स्वल्प व्यक्ति बंधी, अबंधी दोनों होता है। कर्मबंध करता है।) ३९५०.तम्हा ण सव्वजीवा, उ बंधगा व बंधणा तुल्ला। ३९४४.सूईसुं पि विसेसो, कारणसूईसु सिव्वणीसुं च। अधिकिच्च संपरागं, इरियावहिबंधगा तुल्ला॥ संगामिय परियाणिय, एमेव य जाणमादीसु॥ इस प्रकार सभी जीव बंधक नहीं हैं और जो बंधक हैं वे सूची में भी विशेष है-कारणसूची और सीवनसूची। इसी भी समानरूप से बंधक नहीं हैं क्योंकि उनका सांपरायप्रकार यान आदि हैं-सांग्रामिक यान और पारियानिकर कषायप्रत्ययिक कर्म का बंध तुल्य नहीं होता। जो ऐर्यायान। पथिक-योगमात्र प्रत्यय से होने वाला बंध की अपेक्षा से सभी ३९४५.कारग-करेंतगाणं, अधिकरणं चेव तं तहा कुणति। तुल्य होते हैं, क्योंकि उनके सातवेदनीय कर्म का बंध दो जह परिणामविसेसो, संजायति तेसु वत्थूसु॥ समय की स्थितिवाला होता है। सभी के यह तुल्य होता है। उन उन वस्तुओं के निर्माण में वैसे-वैसे परिणाम विशेष ३९५१.संजमहेऊ जोगो, पउज्जमाणो अदोसवं होइ। उत्पन्न होते हैं। उन वस्तुओं को कराने वाला और करने जह आरोग्गणिमित्तं, गंडच्छेदो व विज्जस्स। वाला-दोनों अधिकरण के भागी हैं। अतः परिणामों की संयमहेतुक जो व्यापार होता है वह अदोषवान् होता है। विचित्रता से ही कर्मबंध विशेष होता है। जैसे वैद्य रोगी के आरोग्य के निमित्त व्रण आदि का छेदन ३९४६.संजोययते कूडं, हलं पडं ओसहे य अण्णोण्णे। करता है, वह अदोषवान् है। भोयणविहिं च अण्णे, तत्थ वि णाणत्तगं बहुहा॥ ३९५२.भिन्नम्मि माउगंतम्मि केइ अहिकरण गहिय पडिसेहो। कोई शिकारी मृगों को फंसाने के लिए कूट (मृग को एवं खु भिज्जमाणं, अलक्खणं होइ उद्धं च। बांधने का यंत्र) का संयोजन करता है, कोई कृषक हल को वस्त्र की किनारी को फाड़ देने पर, यदि स्तेन उसे चुरा जुए से योजित करता है, कोई एक वस्त्र को दूसरे वस्त्र के लेते हैं तो भी कलह नहीं होता, क्योंकि वह धारण करने साथ सीकर जोड़ता है, कोई वैद्य औषधियों का संयोजन योग्य नहीं होता। ऐसा जो आचार्य कहते हैं उनका प्रतिषेध करता है, कोई भोजन विधि को परस्पर संयोजित करता है। करना चाहिए कि इस प्रकार वस्त्र का छेदन करने पर वह इन सबमें कर्मबंध का बहधा नानात्व होता है। वस्त्र अलक्षणवाला हो जायेगा। तब कोई कहता है उसे ऊर्ध्व ३९४७.निव्वत्तणा य संजोयणा य सगडाइएसु अ भवंति। भिन्न किया जाए। (व्याख्या आगे) आसज्जुत्तरकरणं, निव्वत्ती मूलकरणं तु॥ ३९५३.उभओ पासिं छिज्जउ, मा दसिया उक्किरिज्ज एगत्तो। निर्वर्तना और संयोजना अधिकरण ये दोनों शकट आदि अहिकरणं णेवं खलु, उद्धो फालो व मज्झम्मि। में होते हैं। इनमें प्रथमतः निर्वर्तना है मूलकरण और कोई कहता है-वस्त्र की दोनों ओर की किनारी निकाल उत्तरकरण के आधार पर संयोजना है। देनी चाहिए। कारण पूछने पर कहता है-एक ओर की ३९४८. देहबलं खलु विरियं बलसरिसो चेव होति परिणामो। किनारी का छेदन करने पर उस कपड़े का अपहर्ता छेदी हुई ___आसज्ज देहविरियं, छट्ठाणगया तु सव्वत्तो॥ किनारी का उत्किरण कर बड़े मूल्य में बेच सकता है। दोनों देह की शक्ति वीर्य कहलाती है। बल के समान होता है ओर की किनारी छिन्न कर देने पर अधिकरण नहीं होता। परिणाम। देहवीर्य के आधार पर ही समस्त संहननों में प्राणी तथा उस वस्त्र को मध्य से दो भागों में फाड़ देना चाहिए। छहस्थानगत होते हैं। इन सभी प्राणियों के अपने देहबल की ३९५४.भन्नइ दुहतो छिन्ने, उभतो दसियाई किण्ण जायंति। विचित्रता से परिणामों की तरतमता से कर्मबंध भी विचित्र कुप्पासए करेंति व, अदसाणि व किं ण भुंजंति॥ होता है। इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं यदि दोनों ओर से ३९४९.अहवा बालादीयं तिविहं विरियं समासतो होति। किनारी का छेदन कर दिया जाए तो भी दोनों ओर से बंधविसेसो तिण्ह वि, पंडिय बंधी अबंधी य॥ किनारी का उत्किरण कर दिया जाएगा। वे उसकी कंचुकी १. कारणसूची-अपराधी के नखों में जो कूटी जाती है। यान के निर्माण से महान् कर्मबंध होता है। २. युद्धस्थली में योद्धा द्वारा प्रयुक्त यान। कारणसूची और सांग्रामिक ३. यात्रा के लिए निर्मित यान। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = बना देंगे। क्या बिना किनारी वाले वस्त्रों का वे उपभोग हुए द्रमक का अश्वपालक की लड़की के साथ स्नेह हो गया। नहीं करते? वर्ष पूरा होने पर उसने लड़की से पूछा कि वह कौनसे दो ३९५५.उद्धप्फालाणि करेंति अणिहुआ दुब्बलं च तं होति। अश्व ले? लड़की ने कहा-जो अश्व लक्षणयुक्त हों उनकी ___ कज्जं तं च ण पुस्सति, असिव्व-सिव्वंतदोसा य॥ मांग करना। द्रमक ने पुनः पूछा-वे लक्षणयुक्त घोड़े कौन से ऊर्ध्वफाल वाले वस्त्र अनिभृत अर्थात् त्रिदंडी उपभोग में हैं? तब लड़की बोली-सारे अश्वों को जंगल में ले जाओ। लाते हैं। मध्य में फाड़ा हुआ वस्त्र दुर्बल होता है। वह ओढ़ने एक वृक्ष की छाया में उनको विश्राम करने के लिए बिठा दो। आदि का प्रयोजन पूरा नहीं कर पाता। फट जाने पर, न सीने एक चर्ममय कुतप को पत्थरों से भरकर व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ से वह और अधिक फट जाता है। सीने पर सूत्रार्थ की जाए और नीचे बैठे घोड़ों को डराने के लिए उस कुतुप को परिहानि होती है। नीचे फेंके। उन पत्थरों की खड़खड़ाहट से जो अश्व भयभीत ३९५६.छिन्नम्मि माउगंते, अलक्खणं मज्झफालियं चेव। न हों, वे लक्षणयुक्त होते हैं। वैसे दो अश्वों को तुम मांग गुणबुद्धा जं गहियं, न करेति गुणं अलं तेणं॥ लेना। उस द्रमक ने अश्वपालस्वामी से उन लक्षणयुक्त दो - दोनों ओर की किनारी का छेदन कर देने पर तथा वस्त्र अश्वों की मांग की। स्वामी ने कहा-तुम अन्य अश्वों को ले को मध्य से फाड़ देने पर, वह वस्त्र लक्षणहीन हो जायेगा। लो। उसने कहा-स्वामिन् ! मुझे अन्य अश्वों से क्या गुण की बुद्धि से जो वस्त्र ग्रहण किया था, वह लक्षणहीन हो प्रयोजन ! इन दो अश्वों को ही आप मुझे दें।' स्वामी चिंतन में जाने पर गुणकारी नहीं रहता। ऐसे वस्त्र को लेने-रखने से । डूब गया। उसने अपनी भार्या से कहा-अपनी पुत्री का विवाह क्या प्रयोजन? . इस द्रमक के साथ कर दें तो यह गृहजामाता बन कर यहीं ३९५७.किं लक्खणेण अम्हं, सव्वणियत्ताण पावविरयाणं। रह जायेगा। फिर अश्वों को देने-लेने की बात समाप्त हो लक्खणमिच्छंति गिही, धण-धण्णे-कोसपरिवुड्डी॥ जाएगी। उसने भार्या के अवबोध के लिए वर्द्धकिपुत्र का शिष्य बोला-भंते ! हम सब समस्त परिग्रह से निवृत्त हैं, दृष्टांत प्रस्तुत किया। पापों से विरत हैं, फिर हमारे लिए लक्षण वाले वस्त्र से एक बढ़ई ने अपनी पुत्री का विवाह अपने भानजे के साथ क्या? गृहस्थ वस्त्रों के लक्षण चाहता है क्योंकि वह धन, कर उसे गृहजामाता कर दिया। वह प्रतिदिन लकड़ी काटने धान्य, कोश आदि की परिवृद्धि का इच्छुक होता है। जंगल में जाता, परन्तु अच्छी लकड़ी की प्राप्ति के अभाव में ३९५८.लक्खणहीणो उवही, उवहणती णाण-दसण-चरित्ते। वह खाली हाथ लौट आता। इस प्रकार छह महीने बीत गए। तम्हा लक्खणजुत्तो, गच्छे दमएण दिÉतो॥ एक दिन उसे 'कृष्णचित्रककाष्ठ' मिल गया। वह उसे घर ले शिष्य! लक्षणहीन उपधि ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आया और उसका कुलक-धान्य मापने का एक पात्र विशेष उपहनन करती है। इसलिए गच्छ में लक्षणयुक्त वस्त्र का बना दिया। उसने अपनी भार्या से कहा कि इस कुलक को ग्रहण-धारण करने से रत्नत्रयी की वृद्धि होती है। यहां द्रमक बाजार में एक लाख रुपयों में बेचना। वह उसे लेकर गई। का दृष्टांत है। लोगों ने मूल्य सुनकर उसका उपहास किया। इतने में ही ३९५९.थाइणि वलवा वरिसं, दमओ पालेति तस्स भाएणं। एक बुद्धिमान् व्यक्ति ने उसे देखा। उसने उसका गुण जान चेडीघडण निकायण, उविट्ठ दुम चम्म भेसणया॥ लिया कि इस माप-पात्र से धान्य को मापने पर वह धान्य ३९६०.दुण्ह वि तेसिं गहणं, कम नहीं होता। उसने एक लाख रुपये देकर उसको खरीद अलं मि अस्सेहि अस्सिगं भणइ। लिया। इस प्रकार उस गृहजामाता ने सारे कुटुम्ब को धनवड्ढइ भच्चइ धूयापयाण धान्य से संपन्न कर दिया। इसी प्रकार गच्छ में भी कुलएण ओवम्म॥ लक्षणयुक्त उपधि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि होती पारस देश के एक नगर में एक अश्वपालक रहता था। है। इसलिए वस्त्र का छेदन विधि से करना चाहिए जिससे उसके पास अनेक घोड़ियां प्रतिवर्ष प्रसव करने वाली थीं। वह प्रमाणयुक्त हो जाए। उसने एक द्रमक को अश्वशाला की रक्षा के लिए रखा। वह ३९६१.दव्वप्पमाण अतिरेग हीण, सभी घोड़े-घोड़ियों का पालन-रक्षण करता था। अश्वपालक परिकम्म विभूसणा य मुच्छा य। ने उसको इस शर्त पर रखा था कि वह प्रतिवर्ष अपने उवहिस्स य प्पमाणं, मनपसंद के दो अश्व भृति के रूप में ले सकेगा। वहां रहते जिण थेर अहक्कम वोच्छं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ द्रव्य अर्थात् वस्त्र का प्रमाण दो प्रकार से होता है-गणना से तथा प्रमाण से । अतिरिक्त और हीन वस्त्र, परिकर्म, विभूषणा, मूर्च्छा जिनकल्प तथा स्थविरकल्प मुनियों की उपधि का प्रमाण यथाक्रम में कहूंगा (व्याख्या आगे) ३९६२. पत्तं पत्ताबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया । पदलाई रहताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ ३९६३.तिन्नेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती । एसो दुवालसविहो, उबही जिणकप्पियाणं तु ॥ जिनकल्पिक मुनियों के बारह प्रकार की उपाधि इस प्रकार है- (१) पात्र (२) पात्रबंध (३) पात्रस्थापन - वह कंबल का टुकड़ा जिस पर पात्र रखे जाएं (४) पात्र केसरिका (पात्र प्रत्युपेक्षण का वस्त्र) (५) पटलिका - भिक्षाचर्या में पात्र को ढंकने का वस्त्र (६) रजस्त्राण पात्रवेष्टन (७) गोच्छक पात्र को ढंकने का कंबलमय वस्त्र यह सात प्रकार का पात्रपरिकर अर्थात् उपकरणकलाप है। (८,९,१०) तीन प्रच्छादक-दो सौत्रिक और एक ऊर्णामय (११) रजोहरण (१२) मुखपोतिका । १ ३९६४. एए चेव दुवालस, मत्तग अइरेग चोलपट्टो य । एसो उ चउदसविहो, उवही पुण थेरकप्पम्मि ॥ स्थविरकल्प मुनियों के ये उपरोक्त बारह उपधि तथा एक मात्रक अतिरिक्त तथा एक चोलपक- यह चौदह प्रकार की उपधि होती है। ३९६५. जिणा , बारसरूवाई, थेरा चउदसरूविणो । ओहेण उवहिमिच्छंति, अओ उ उवग्गहो ॥ जिनकल्पी मुनि उपकरणों के बारह रूप धारण करते हैं और स्थविरकल्पी मुनि उपकरणों के चौदह रूप धारण करते हैं ओघ से यह उपधि है इससे अतिरिक्त उपग्रह उपधि कहलाती है, जैसे-दंडक, चिलिमिलि आदि । ३९६६.चत्तारि य उक्कोसा, मज्झिमग जहन्नगा वि चत्तारि । कप्पाणं तु पमाणं, संडासो दो य रयणीओ ॥ जिनकल्पिकों का चार उपकरण उत्कृष्ट होते हैं-तीन कल्प और एक प्रतिग्रह । मध्यम उपकरण भी चार हैं-पटलक, रजस्त्राण, रजोहरण और पात्रकबंध तथा जघन्य १. जिनकल्पी मुनि दो प्रकार के होते हैं-पाणिपात्र और प्रतिग्रहधारक । ये दोनों दो-दो प्रकार के हैं-अप्रावरण और सप्रावरण। जो अप्रावरण पाणिपात्र होते हैं उनके दो प्रकार की उपधि होती है-रजोहरण और मुखपोतिका । सप्रावरण मुनियों के लिए तीन, चार या पांच प्रकार की उपधि होती है। तीन उपधि (१) रजोहरण (२) मुखपोतिका (३) एक सौत्रिक कल्प । चार उपधि-उपरोक्त तीन के साथ चौथा और और्णिक कल्प। पांच उपधि-उपरोक्त चार तथा एक और सौत्रिक कल्प | जो प्रावरणरहित प्रतिग्रहधारी के नौ प्रकार की उपधि बृहत्कल्पभाष्यम् उपकरण भी चार हैं - मुखवस्त्रिका, पात्रकेसरिका, पात्रस्थापन तथा गोच्च्छक उनके कल्पों का प्रमाण यह है-दो हाथ लंबा और डेढ़ हाथ चौड़ा। ३९६७. अन्नो विय आएसो, संडासो सत्थिए णुवन्ने य जं खंडियं दढं तं, छम्मासे दुब्बलं इयरं ॥ एक दूसरा आदेश भी है- संदंशक और स्वस्तिक । एक जिनकल्पी मुनि उत्कटुक आसन में बैठे हैं। उनके घुटने से प्रारंभ कर पुत और पृष्ठभाग को आच्छादित करते हुए कन्धे पर जितना वस्त्र आ सके, यह उनके कल्प की लंबाई है। यह संदेशक कहलाता है। उसी कल्प के दोनों छोरों को पकड़ कर दोनों भुजाओं और सिर तक जितना वस्त्र आता है, उसको स्वस्तिक कहते हैं। दांए हाथ से बांया भुजशीर्ष और बांए हाथ से दाहिना भुजशीर्ष, इस प्रकार दोनों कलाचिकाओं (कलाईयों) का हृदय पर जो विन्यास होता है, वह स्वस्तिकाकार होता है, इसलिए इसे स्वस्तिक कहा जाता है यह चौडाई का प्रमाण है। 'णुवन्न' - इसका अर्थ है निपन्न अर्थात् सोया हुआ । इन स्थविरकल्पिक मुनियों के भी दो आदेश हैं ( ३९६९) । जिनकल्पिक मुनि जो वस्त्र खंडित हो गया है, फिर भी यदि वह दृढ़ है और छह मास तक काम में आ सकता है तो ये उसे ग्रहण करते हैं, जो ऐसा न हो, दुर्बल हो तो वे उसे ग्रहण नहीं करते। ३९६८.संडासछिड्डेण हिमादि एति, गुत्ता वडगुत्ता विय तस्स सेज्जा । हत्थेहि सो सोत्यिकडेहि घेतुं, वत्थस्स कोणे सुवई व झाती ॥ जिनकल्पी मुनि की शय्या गुप्त धनकुड्य-कपाटयुक्त अथवा अगुप्त होती है। संवंशक के छिद्र से ठंडी हवा आदि का प्रवेश होता है। उसकी रक्षा के लिए मुनि स्वस्तिकाकार मैं निवेशित दोनों हाथों से वस्त्र के दोनों कोणों को पकड़कर उत्कटुक आसन में सो जाता है या ध्यान करता है। ३९६९. कप्पा आयपमाणा, अड्डाइज्जा उ वित्थडा हत्था । एवं मज्झिम माणं, उक्कोसं होंति चत्तारि ॥ होती हे पात्र, पाकबंध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका, पटलक, रजस्त्राण, गोच्छक, रजोहरण और मुखपोतिका । जो प्रावरणसहित हैं उनके ये नौ उपधि, इनमें एक कल्प प्रेक्षप करें तो दस, दो कल्प के प्रक्षेप से ग्यारह, कल्पत्रय का प्रक्षेप करें तो बारह-यह बारह प्रकार की उत्कृष्ट उपधि है जिनकल्पिक मुनियों की । अन्यान्य गच्छनिर्गत मुनियों की उपधि का भी यही परिमाण है। २. कुछ आचार्य कहते हैं कि वह जिनकल्पी मुनि उत्कटुक आसन में ही रात्री के तीसरे प्रहर में क्षणमात्र के लिए सोता है। (वृ. पृ. १०८९) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक स्थविरकल्पी मुनियों का कल्प आत्मप्रमाण - साढ़े तीन हाथ प्रमाण लंबा और ढाई हाथ चौड़ा होता है। यह मध्यम प्रमाण है । उत्कर्षतः चार हाथ लंबा होता है। ३९००, संकुचिय तरुण आयप्पमाण सुवणे न सीवसंफासो । दुहओ पेल्लण थेरे, अणुचिय पाणाइरक्खाऽऽया ॥ जो भिक्षु तरुण होता है, वह पैरों को संकुचित कर सो सकता है। इस स्थिति में उसे शीतस्पर्श का कष्ट नहीं होता। इसलिए उसके आत्मप्रमाण कल्पों का निर्देश है। स्थविर मुनि पैरों को संकुचित कर नहीं सो सकता। अतः इसके लिए शिर और पादान्त- दोनों पार्श्व तक जो वस्त्र का वेष्टन हो जाता है, उससे शीतस्पर्श का कष्ट नहीं होता । अनुचित अर्थात् अभावित शैक्ष के लिए भी कल्प का यही प्रमाण है। इस प्रकार प्राणियों तथा स्वयं की रक्षा हो जाती है। कायव्वं । उ ॥ ३९७१.पत्ताबंधपमाणं, भाणपमाणेण होइ चउरंगुलं कमंता, पत्ताबंघस्स पत्ताबंधस्स कोणा पात्रकबंधप्रमाण माजनप्रमाण से करना चाहिए पात्र यदि जघन्य या मध्यम हो तो पात्रकबंध भी उसीके अनुसार होगा। यदि गांठ देने पर पात्रकबंध के कोण चार अंगुल का अतिक्रमण भी करते हैं तो भी वही प्रमाण है। ३९७२. रयताणस्स पमाणं, भाणपमाणेण होति कायव्वं । पायाहिणं करितं मज्झे चउरंगुलं कमति ॥ रजस्त्राण का प्रमाण भी भाजनप्रमाण के अनुसार करना चाहिए । पात्र का प्रादक्षिण्य से वेष्टन करने पर चार अंगुल तक रजस्त्राण का अतिक्रमण करता है, वह है रजस्त्राण का ॥ प्रमाण । ३९७३. तिविहम्मि कालछेए, तिविहा पडला उ होंति पायस्स । निम्ह सिसिर वासासं, उल्कोसा मज्झिम जहन्ना ॥ कालच्छेद अर्थात् कालविभाग तीन प्रकार का है। इसलिए तीन प्रकार के पटलक होते हैं-ग्रीष्म में उत्कृष्ट, शिशिर में मध्यम और वर्षा में जघन्य । अत्यन्त दृढ-उत्कृष्ट, दृढ-दुर्बल- मध्यम, दुर्बल जघन्य । ३९७४. गिम्हासु तिन्नि पडला, चउरो हेमंते पंच वासासु । उक्कोसगा उ एए, एत्तो वोच्छामि मज्झिमए ॥ ग्रीष्म के चार महीनों में तीन पटल, हेमन्त में चार और वर्षा में पांच पटलक होते हैं। ये उत्कृष्ट पटलक हैं। आगे मैं मध्यम पटलक की बात कहूंगा। ३९७५. गिम्हासु होंति चउरो, पंच य हेमंते छच्च वासासु । मज्झिमगा खलु एए, एत्तो उ जहन्नए वोच्छं ।। ग्रीष्म में चार, हेमन्त में पांच, वर्षा में छह । ये सारे ४०९ मध्यम पटलक हैं। आगे जघन्य पटलक के विषय में कहूंगा। ३९७६. गिम्हासु पंच पडला, हेमंते छच्च सत्त वावासु । तिविहम्मि कालछेए, तिविहा पडला उ पायस्स ॥ ग्रीष्म में पांच, हेमंत में छह और वर्षा में सात ये जघन्य पटलक हैं। इस प्रकार तीन प्रकार के कालविभाग में तीन प्रकार के पटलक पात्र के होते हैं। ३९७७ घणं मूले थिरं मज्झे, अग्गे मद्दवनुत्तया । तिपासियं ॥ एमंगियं अझुसरं पोरायामं - रजोहरण का प्रमाण - मूल में घन - निबिडवेष्टित, मध्य में स्थिर दृढ और अग्र में मार्दवयुक्तता - मृदुस्पर्शवाली दशिकाएं हों वह एकांगिक, अशुषिर, पर्व आयाम बाला तथा तिपासिय-तीन डोरों से वेष्टित-बद्ध हो । ३९७८. अप्पोल्लं मिदुपम्हं च, पडिपुन्नं हत्थपूरिमं । तिपरियल्लमणीस, रयहरणं धारए मुणी ॥ वह अप्पोल्ल - अशुषिर दंडवाला, मृदुपक्ष्मवाला - कोमल दशिका से युक्त, प्रतिपूर्ण निषद्याद्वय से युक्त, हस्तपुरिमहस्त के प्रमाण वाला, त्रिपरिवर्त तीन वेष्टनयुक्त, अनिसृष्टहस्तप्रमाण का अतिक्रम न करने वाला रजोहरण मुनि को धारण करना चाहिए। ३९७९. उन्नियं उट्टिय चेव, कंबलं पायपुंछणं । रयणीपमाणमित्तं, कुज्जा पोरपरिम्महं ॥ और्णिक अथवा औष्ट्रिक उष्टरोममय जो कंबल हो उसका पादप्रोंछन अर्थात् रजोहरण करना चाहिए। वह रत्निप्रमाणमात्र हस्तप्रमाण आयाम दंड वाला, तथा पर्वपरिग्रहवाला रजोहरण करना चाहिए । ३९८०.संथारुत्तरपट्टा, अड्डाइज्जा उ आयया हत्थे । तेसिं विक्खंभो पुण हत्थं चतुरंगुलं चेव ॥ संस्तारक के दोनों उत्तरपट्ट ढ़ाई हाथ लंबे होते हैं और उनकी चौड़ाई एक हाथ चार अंगुल होती है। ३९८१. दुगुणो चतुग्गुणो वा, हत्यो चतुरंसो चोलपट्टो उ। एगगुणा उ निसेज्जा, हत्थपमाणा सपच्छाया ।। दुगुना या चतुर्गुना करने पर एक हाथ प्रमाण का चतुरस्र होता है, वैसा चोलपट्टक करना चाहिए। द्विगुणा स्थविरों के लिए तथा चतुर्गुना तरुणों के लिए। निषद्या एक गुना, हस्तप्रमाण वाली तथा सौत्रिक प्रच्छादन निषद्या से युक्त होनी चाहिए। ३९८२. चउरंगुलं विहत्थी, एयं मुहणंतगस्स उ पमाणं । वितियं पि य प्यमाणं, मुहप्पमाणेण कायव्यं ॥ मुखान्तक अर्थात् मुखवस्त्रिका का प्रमाण यह है एक . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् वितस्ति और चार अंगुल। दूसरा प्रमाण यह है-अपने-अपने गणचिन्तक विशुद्ध आलंबन के प्रयोजन से औधिक या मुंह के प्रमाण से मुखवस्त्रिका हो। औपग्रहिक सारी उपधि दुगुनी, तीनगुनी या चारगुनी भी ३९८३.गोच्छक पडिलेहणिया, पायट्ठवणं च होइ तह चेव। अपने परिग्रह में रखते हैं, क्योंकि वह उपधि महाजन अर्थात् तिण्हं पि य प्पमाणं, विहत्थि चउरंगुलं चेव॥ गच्छ के लिए उपकारी होती है। गोच्छक, पात्रप्रत्युपेक्षणिका, पात्रस्थापनक का प्रमाण ३९९०.पेहा-ऽपेहादोसा, भारो अहिकरणमेव अतिरित्ते। भी निरूपणीय है। इन तीनों का प्रमाण है-एक वितस्ति और एए भवंति दोसा, कज्जविवत्ती य हीणम्मि॥ चार अंगुल। अतिरिक्त उपधि रखने से उसकी प्रत्युपेक्षा से सूत्रार्थ की ३९८४.जो वि तिवत्थ दुवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ। हानि होती है, प्रत्युपेक्षा न करने से भी दोष लगता है। न हु ते खिंसंति परं, सव्वेण वि तिन्नि घेत्तव्वा॥ उसका भार वहन करना होता है। अधिकरण भी हो सकता जो मुनि तीन वस्त्र, दो वस्त्र, एक वस्त्र या अचेलक रहते है। ये अतिरिक्त उपधि के दोष हैं। हीन उपधि से कार्य की हैं, वे अधिक वस्त्र रखने वालों की खिंसना न करें। स्थविर विपत्ति अर्थात् प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। अतः अतिरिक्त और कल्पी मुनि तीन कल्प अवश्य ग्रहण करे। हीन उपधि-दोनों में दोष हैं। ३९८५.अप्पा असंथरंतो, निवारिओ होइ तीहि वत्थेहिं। ३९९१.परिकम्मणि चउभंगो, गिण्हति गुरूविदिण्णे, पगासपडिलेहणे सत्त॥ कारणे विहि बितिओ कारणे अविही। यदि आत्मा-शरीर शीत आदि को सहन करने में निक्कारणम्मि उ विही, असमर्थ हो तो तीन वस्त्रों से उसका निवारण करे। यदि वे चउत्थो निक्कारणे अविही॥ जीर्ण हो जाए और शीत निवारण में सक्षम न हों तो गुरु परिकर्म की चतुर्भंगी इस प्रकार हैद्वारा वितीर्ण प्रकाशप्रत्युपेक्षणीय उत्कर्षतः सात वस्त्रों को १. कारण में विधिपूर्वक परिकर्म। ग्रहण करे। २. कारण में अविधि से परिकर्म। ३९८६.तिन्नि कसिणे जहन्ने, पंच य दढदुब्बलाइं गेण्हेज्जा। ३. निष्कारण विधि से परिकर्म। सत्त य परिजुन्नाइं, एयं उक्कोसगं गहणं॥ ४. निष्कारण अविधि से परिकर्म। जघन्यः तीन वस्त्र ऐसे ग्रहण करे जो कृत्स्न अर्थात् ३९९२.कारणे अणुन्न विहिणा, सुद्धो सेसेसु मासिका तिन्नि। सघन और कोमल हों तथा पांच वस्त्र ऐसे ग्रहण करे जो तव-कालेसु विसिट्ठा, अंते गुरुगा य दोहिं पि॥ दृढ़दुर्बल हों और सात वस्त्र परिजीर्ण ग्रहण करे। यह कारण में विधि से परिकर्म अनुज्ञात है। यह शुद्ध है। शेष उत्कृष्ट ग्रहण है। तीनों भंगों में तप और काल से विशेषित तीन मास का ३९८७.भिन्नं गणणाजुत्तं, पमाण इंगाल-धूमपरिसुद्धं। प्रायश्चित्त है। दूसरे भंग में कालगुरुक और तीसरे भंग में उवहिं धारए भिक्खु, जो गणचिंतं न चिंतेइ॥ तपोगुरुक तथा अन्त्य अर्थात् चौथे भंग में दोनों अर्थात् तप जो भिक्षु गणचिन्ता से मुक्त है अर्थात् जो सामान्य भिक्षु और काल से गुरुक। है वह जो वस्त्र भिन्न है अर्थात् किनारी रहित है, पूरा नहीं ३९९३.उदाहडा जे हरियाहडीए, है-टुकड़ा है, जो गणनायुक्त है, प्रमाणयुक्त है तथा जो परेहि धोयाइपया उ वत्थे। अंगारधूम से शुद्ध है अर्थात् राग-द्वेष परिणामों से शुद्ध भूसानिमित्तं खलु ते करिति, है-विरहित है वैसी उपधि धारण करे। __ उग्घातिमा वत्थे सवित्थरा उ॥ ३९८८.गणचिंतगस्स एत्तो, उक्कोसो मज्झिमो जहन्नो य। इसी सूत्र के प्रथम उद्देशक के हृताहतिका सूत्र (सू. सव्वो वि होइ उवही, उवग्गहकरो महाणस्स॥ ४५) में स्तेनों द्वारा कृत धौत आदि पद जो वस्त्रों के संबंध गणचिंतक-गणावच्छेदिक आदि की उत्कृष्ट, मध्यम ___में कथित हैं, उनको यदि कोई मुनि स्वयं की विभूषा के और जघन्य सारी उपधि महाजन के अर्थात् गच्छ के लिए निमित्त करता है तो सविस्तार चार उद्घातिम मास का उपग्रहकरी होती है। प्रायश्चित्त आता है। सविस्तार का अर्थ है-धौत आदि पद ३९८९.आलंबणे विसुद्धे, दुगुणो तिगुणो चउग्गुणो वा वि। करने वाला जो आत्मविराधना करता है, तन्निष्पन्न सव्वो वि होइ उवही, उव्वग्गहकरो महाणस्स॥ प्रायश्चित्त भी आता है। १.जीर्ण होने के कारण वैसे वस्त्र चोरों द्वारा अपहत नहीं होते, अतः वे बाहर प्रत्युपेक्षणीय होते हैं। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ४११ ३९९४.मलेण घत्थं बहुणा उ वत्थं, उज्झाइगो हं चिमिणा भवामि। हं तस्स धोव्वम्मि करेति तत्तिं, . वरं न जोगो मलिणाण जोगो॥ मेरा वस्त्र मैल से अत्यधिक मैला हो गया है, इससे मैं 'उज्झाइय' विरूप लग रहा हूं। इससे मैं 'चिमिण'-रोमांचित हो जाता हूं। उसको धोने में मुझे तप्ति होती है, कष्ट होता है। अच्छा है मलिनवस्त्रों के साथ मेरा योग न हो, मलिन वस्त्रों को पहनने से, न पहनना अच्छा है। कारण में वस्त्रों को धोना शुद्ध है। ३९९५.कामं विभूसा खलु लोभदोसो, तहा वि तं पाउणओ न दोसो। मा हीलणिज्जो इमिणा भविस्सं, पुविड्ढिमाई इय संजई वि॥ यह अनुमत है कि विभूषा लोभ के दोष से होती है। फिर भी धोए हुए वस्त्रों को पहनना दोषयुक्त नहीं है। मुनि सोचता हैं-मैं मलिनवस्त्रों से हीलणीय न हो जाऊं इसलिए वह शुचीभूत वस्त्र धारण करता है। श्रमणियां भी ऋद्धियुक्त परिवारों से प्रवजित हुई हैं अतः वे भी सफेद वस्त्रों को धारण कर रहती हैं, घूमती हैं। ३९९६.न तस्स वत्थाइसु कोइ संगो, रज्जं तणं चेव जढं तु तेणं। जो सो उ उज्झाइय वत्थजोगो, तं गारवा सो न चएति मोत्तुं॥ जो व्यक्ति ऋद्धियुक्त घरों से प्रव्रजित हुआ है, उसका वस्त्र आदि के प्रति कोई रागभाव नहीं होता, क्योंकि उसने राज्य को (समृद्धि को) तृण की तरह छोड़ दिया है। मैं इन मलिन वस्त्रों के योग से 'उज्झाइय'-विरूप न लगू, इस अभिप्राय से वह उस धौत वस्त्रों को पहनने की वृत्ति को ऋद्धिगौरव के कारण छोड़ नहीं सकता। ३९९७.महद्धणे अप्पधणे व वत्थे, मुच्छिज्जती जो अविवित्तभावो। सतं पि नो भुंजति मा हु झिज्झे, वारेति चऽन्नं कसिणा दुगा दो॥ जो मुनि महामूल्य वाले या अल्पमूल्य वाले वस्त्रों के प्रति अविविक्तभाव-विवेक विकलभाव से मूर्छित होता है, वह स्वयं भी उन वस्त्रों का उपभोग नहीं करता, यह सोचता है कि उनका उपभोग करने से वे जीर्ण हो जायेंगे, तथा वह दूसरों को भी उनके परिभोग से वर्जना करता है। उसका प्रायश्चित्त है संपूर्ण चार मास। ३९९८.देसिल्लगं वन्नजुयं मणुन्नं, चिरादणं दाइं सिणेहओ वा। लब्भं च अन्नं पि इमप्पभावा, मुच्छिज्जई ईय भिसं कुसत्तो। जो मुनि यह सोचकर कि यह वस्त्र अमुकदेश में निर्मित है, वर्ण वाला है, मनोज्ञ है, चिरन्तन-आचार्य की परंपरा से प्राप्त है, इस वस्त्र के प्रभाव से मुझे अन्यान्य वस्त्रों की उपलब्धि भी सहज हो जाती है अथवा उस वस्त्र के प्रदाता के प्रति मुनि का स्नेह उभर आता है तब वह मुनि उक्त कारणों से उस वस्त्र के प्रति अत्यन्त मूर्छित हो जाता है और उसका परिभोग नहीं करता। ३९९९.दव्वप्पमाणअतिरेगहीणदोसा तहेव अववाए। लक्खणमलक्खणं तिविह उवहि वोच्चत्थ आणादी॥ ४०००.को पोरुसी य कालो, आगर चाउल जहन्न जयणाए। चोदग असती असिव, प्पमाण उवओग छेयण मुहे य॥ अब पात्र विषयक विवेचन१. पात्र का प्रमाण, प्रमाण से अतिरिक्त या हीन पात्र के दोष। २. अपवाद। ३. पात्र के लक्षण, अलक्षण। ४. तीन प्रकार की उपधि। ५. विपर्यय में प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। ६. पात्र कौन ग्रहण करता है? ७. पौरुषी? ८. काल का प्रमाण। ९. आकार। १०. चाउल-तन्दुलघावन। ११. जघन्य यतना। १२. शिष्य का प्रश्न। १३. पात्र के अभाव में या अशिव आदि में। १४. प्रमाण, उपयोग तथा छेदन। १५. मुखकरण। -ये सारे पात्र की विचारणा के द्वार हैं। विस्तार आगे की गाथाओं में। ४००१.पमाणातिरेगधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ = बृहत्कल्पभाष्यम् से विद्ध हो जाता है, विषम स्थान में स्खलित हो जाता है, अभिहनन आदि दोषों को नहीं देखता-यह आत्मविराधना है। ईर्या का शोधन नहीं करता, भाजन से भक्त-पान झरता है, यह देखकर चोर उसका हरण कर सकते हैं, भाजनभेद हो सकता है, षट्कायविराधना होती हैं-यह संयमविराधना है। ४००८.गुरु पाहुण खम दुब्बल, बाले वुड्ढे गिलाण सेहे य। लाभाऽऽलाभऽद्धाणे, अणुकंपा लाभवोच्छेदो।। गुरु, प्राघुणक, क्षपक, दुर्बल, बाल, वृद्ध, ग्लान और शैक्ष-प्रमाणहीन भाजन रखने से इनका उपष्टंभ नहीं होता। लाभ-अलाभ की परीक्षा कैसे? अध्वा में कोई अनुकंपा से देना चाहे तो लघु भाजन में लाभ का व्यवच्छेद होता है। प्रमाणातिरिक्त पात्र को धारण करने पर चार उद्घातिक मास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष और आत्मविराधना तथा संयमविराधना होती है। ४००२.गणणाए पमाणेण य,गणणाए समत्तओ पडिग्गहओ। पलिमंथ भरुटुंडुग, अतिप्पमाणे इमे दोसा॥ पात्र का प्रमाण गणना और प्रमाण से होता है। गणना में मात्रकसहित पात्र मानना चाहिए। इससे अधिक रखने पर परिमंथ, भार तथा उडुण्डुक जनोपहास होता है। अतिप्रमाण में रखने पर ये दोष होते हैं। ४००३.भारेण वेयणा वा, अभिहणमाई ण पेहए दोसा। रीयाइ संजमम्मि य, छक्काया भाणभेओ य॥ भार से वेदना, अभिहनन आदि, प्रेक्षा संबंधी दोष-ये आत्मविराधना संबंधी दोष हैं। संयमविराधना संबंधी ये दोष होते हैं-ईर्या आदि का शोधन नहीं करता, षट्काय की विराधना होती है, भाजन टूट सकता है। ४००४.भाणऽप्पमाणगहणे, भुंजणे गेलन्नऽभुंज उज्झिमिगा। एसणपेल्लण भेओ, हाणि अडते दुविह दोसा॥ अप्रमाणयुक्त भाजन के ग्रहण से ये दोष होते हैं-बृहत्तर भाजन के कारण अतिमात्र भोजन से ग्लानत्व हो सकता है। न खाने से परिष्ठापनिका करनी होती है। उस भाजन से एषणा में पीड़ा होती है। पात्र टूट सकता है। पात्र के बिना कार्यहानि होती है। बृहदाकार भाजन से दोनों दोष-आत्मविराधना और संयमविराधना-होते हैं। आत्मविराधनाअतिभार से कटि-स्कंध आदि में पीड़ा तथा संयमविराधनाईर्या आदि अशोधन, षट्काय की विराधना। ४००५.हीणप्पमाणधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए॥ हीनप्रमाण वाले पात्र के धारण पर चार उद्घातिम मास का प्रायश्चित्त आता है। तथा आज्ञाभंग आदि दोष और आत्मविराधना और संयमविराधना-दोनों होती हैं। ४००६.ऊणेण न पूरिस्सं, आकंठा तेण गिण्हती उभयं। __मा लेवकडं ति पुणो, तत्थुवओगो न भूमीए॥ ऊन अर्थात् अभरित पात्र से मेरी पूर्ति नहीं होगी, यह सोचकर वह भाजन को आकंठ तक ओदन और कुसण-दोनों से भर देता है। अतः पात्रबंध लेपकृत न हो इसलिए वह पात्र से निकलने वाले कुसण आदि का पात्रबंध को खरंटित करने में उपयोग करता है, भूमी पर नहीं गिराता। ४००७.खाणू कंटग विसमे, अभिहणमाई ण पेहए दोसे। रीया पगलिय तेणग, भायणभेए य छक्काया॥ जो ईर्या में अनुपयुक्त होता है, वह स्थाणु, कंटक आदि ४००९.गुरुगा य गुरु-गिलाणे, पाहुण-खमए य चउलहू होति। सेहस्स होइ गुरुओ, दुब्बल जुयले य मासलहू॥ गुरु और ग्लान का उपष्टंभ न करने पर चार गुरुमास, प्राघुणक और क्षपक का उपष्टंभ न करने पर चार लघुमास, शैक्ष का न करने पर मासगुरु और दुर्बल, बाल और वृद्ध का उपष्टंभ न करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४०१०.अप्प-परपरिच्चाओ, गुरुमाईणं अदेंत-देंतस्स। अपरिच्छिए य दोसा, वोच्छेओ निज्जराऽलाभे॥ लघुतर भाजन में गृहीत यदि गुरु आदि को देता है तो आत्मपरित्याग अर्थात् स्वयं के लिए कुछ नहीं बचता और यदि नहीं देता है तो गुरु आदि उपष्टंभ नहीं होता। क्षेत्रप्रत्युपेक्षण के लिए गया हुआ मुनि लघुपात्र के कारण लाभअलाभ की परीक्षा कैसे कर सकता है? ये दोष होते हैं। लघुपात्र के कारण भक्तपान के लाभ का तथा निर्जरा का व्यवच्छेद होता है। इसके अन्य दोष भी हैं, जैसे४०११.लेवकडे वोसटे, सुक्खे लग्गे य कोडिते सिहरे। एए हवंति दोसा, डहरे भाणे य उड्डाहो॥ उस लघु भाजन से तरल पदार्थ व्युत्सृष्ट-बाहर निकल कर पात्र को लिप्त कर देते हैं, अतः वह उस भाजन में शुष्क भक्त ही लेता है। उसको खाने पर वह कंठ या उदर में लग जाता है, चिपक जाता है। उससे अजीर्ण होता है। कोडित-गाढ़रूप से चिपक जाने पर जठराग्नि मंद हो जाती है। वह मुनि उस लघु भाजन में शुष्क आहार को शिखर तक भर लेता है। लोग उसका उड्डाह करते हैं। लघु भाजन के ये दोष होते हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ४०१२.धुवणा-ऽधुवणे दोसा, वोसटुंते य काय आउसिणे। सुक्खे लग्गाऽजीरग, कोडिय सिहरे य उड्डाहो। उस खरड़े हुए भाजन को धोने और न धोने में भी दोष हैं। धोने से पानी का बहाव होता है और न धोने से रात्रीभोजनव्रत का भंग होता है। पात्र से गिरते हुए भक्त-पान से षट्काय की विराधना होती है। गिरते हुए उष्ण द्रव्य से स्वयं की विराधना होती है। शुष्क भोजन गले आदि में चिपक जाने पर अजीर्ण रोग होता है। गाढ़रूप में चिपक जाने पर अग्निमांद्य पैदा करता है। पात्र को शिखर तक भरने से उड्डाह होता है। ४०१३.तिन्नि विहत्थी चउरंगुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं। एत्तो हीण जहन्नं, अतिरेगयरं तु उक्कोसं॥ पात्र की परिधि डोरे से मापी जाए। यदि वह डोरी तीन वितस्ति और चार अंगुल की होती है तो वह भाजन का मध्यमप्रमाण है। मध्यमप्रमाण से हीन पात्र जघन्यप्रमाण वाला है और मध्यमप्रमाण से अतिरिक्ततर हो तो वह उत्कृष्ट प्रमाण वाला है। ४०१४.उक्कोसतिसामासे, दुगाउअद्धाणमागओ साहू। चउरंगुलवज्जं भत्त-पाण पज्जत्तियं हेट्ठा।। उत्कृष्ट तृषामास वह होता है जिसमें प्रबल प्यास लगती है। वे दो मास हैं-जेठ और आषाढ़। उस काल में दो कोश मार्ग पर चलकर आए हुए मुनि के लिए ऊपर से चार अंगुल वयं, नीचे से पूरा भक्त-पान से भरा हुआ पात्र पर्याप्त होता है। यह उसके पात्र का प्रमाण है। ४०१५.एयं चेव पमाणं, सविसेसयरं अणुग्गहपवत्तं। कंतारे दुब्भिक्खे, रोहगमाईसु भइयव्वं॥ जिसके भाजन का यही प्रमाण सविशेषतर होता है वह गच्छ के अनुग्रह के लिए प्रवर्तित होता है। कान्तार, दुर्भिक्ष, नगरावरोध आदि के समय ऐसे भाजन का उपयोग किया जाता है। ४०१६.अन्नाणे गारवे लुद्धे, असपत्ती य जाणए। लहुओ लहुया गुरुगा, चउत्थो सुद्धो उ जाणओ॥ अज्ञानवश हीनाधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करने पर लघु मास, गौरव के कारण धारण करने पर चतुर्लघु, लोभवश करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। पात्र की असंप्राप्ति के कारण हीनाधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करने वाला शुद्ध है। पात्र के लक्षणों का ज्ञायक यदि हीनाधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करता है तो वह भी शुद्ध है। ४०१७.हीणा-ऽदिरेगदोसे, अजाणओ सो धरिज्ज हीण-ऽहियं। पगईय थोवभोगी, सति लाभे वा करेतोमं ।। जो मुनि पात्र के हीन और अतिरिक्त विषयक दोषों को नहीं जानता वह हीन-अधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करता है। जो मुनि स्वभावतः अल्पभोजी है और वह ऋद्धिगौरव के कारण भक्त-पान का प्रचुर लाभ होने पर भी 'यह मुनि अल्पाहारी है' यह दिखाने के लिए पात्र में स्वल्प लेता है। ४०१८.ईसरनिक्खंतो वा, आयरिओ वा वि एस डहरेणं । इति गारवेण ओम, अइप्पमाणं चिमेहिं तु॥ ४०१९.अणिगूहियबल-विरिओ, वेयावच्चं करेति अहो! समणो। मम तुल्लो न य कोयी, पसंसकामी महल्लेणं॥ शिष्य ने पूछा-उसका ऋद्धिगौरव क्या है? आचार्य कहते हैं-वह ईश्वरनिष्क्रान्त अर्थात् राजा आदि महर्द्धिक व्यक्ति प्रव्रजित हो, अथवा वह आचार्य हो-लोग देखकर कहते हैं-'इतने लघु भाजन से भिक्षा में पर्यटन कर रहे हैं। इस प्रकार की गौरव प्राप्ति के लिए अवम भाजन धारण करते हैं। अतिप्रमाण वाले पात्र को धारण करने का यह कारण हो सकता हैं-अहो! यह श्रमण अपने बल और वीर्य को छुपाने वाला नहीं है इसलिए यह बृहद् भाजन से समस्त गच्छ की वैयावृत्य करता है। मेरे सदृश कोई नहीं है इस प्रकार की प्रशंसा का कामी वह मुनि महत् प्रमाण वाला भाजन धारण करता है। ४०२०.अंतं न होइ देयं, थोवासी एस देह से सुद्धं । उक्कोसस्स व लंभे, कहि घेच्छ महल्ल लोभेणं॥ लघु भाजन वाले मुनि को देखकर गृहस्वामी कहता है-देखो! यह मुनि अल्पाहारी है। इसको अन्त-प्रान्त भोजन मत देना। इसको शुद्ध अर्थात् उत्कृष्ट द्रव्य देना। उत्कृष्ट द्रव्य का लाभ होने पर, वह मुनि सोचता है-ऐसा द्रव्य और कहां से लूंगा, यह सोचकर वह लोभवश महत्तर भाजन ग्रहण करता है। ४०२१.जुत्तपमाणस्सऽसती, हीण-ऽतिरित्तं चउत्थो धारेति। लक्खणजुय हीण-ऽहियं, नंदी गच्छट्ठ वा चरिमो॥ यथोक्तप्रमाण वाले पात्र की प्राप्ति होने पर हीन या अतिरिक्तप्रमाण वाला पात्र चौथे क्रम में धारण करता है। जो पात्र लक्षणयुक्त है, वह चाहे प्रमाण से हीन या अधिक हो, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् उसको लक्षणवेत्ता मुनि ग्रहण करता है। चरमद्वारवर्ती अर्थात् ज्ञायक गच्छ के उपग्रह के लिए नंदी भाजन को धारण करता है। ४०२२.वढें समचउरंसं, होइ थिरं थावरं च वन्नडं। हुंडं वायाइद्धं, भिन्नं च आधारणिज्जाइं॥ जो पात्र वर्तुल होने पर भी समचतुरस्र हो, स्थिर अर्थात् दृढ़ हो, स्थावर-अप्रातिहारिक हो तथा स्निग्ध वर्ण से उपेत हो-वह लक्षणयुक्त पात्र माना जाता है। जो पात्र हुंड- विषमसंस्थित हो, वाताविद्ध-झुर्रियों वाला हो, सच्छिद्र या राजियुक्त हो, वह पात्र अलाक्षणिक होता है, अधारणीय होता है। ४०२३.संठियम्मि भवे लाभो, पतिट्ठा सुपतिट्ठिए। निव्वणे कित्तिमारोग्गं, वन्नड्ढे नाणसंपया॥ ४०२४.हुण्डे चरित्तभेओ, सबलम्मि य चित्तविब्भमं जाणे। दुप्पुते खीलसंठाणे, नत्थि हाणं ति निदिसे॥ ४०२५.पउमुप्पले अकुसलं, सव्वणे वणमाइसे। अंतो बहिं व दड्ढे, मरणं तत्थ निद्दिसे॥ संस्थित (वृत्त-समचतुरस्र) पात्र को धारण करने से भक्त-पान का लाभ होता है। सुप्रतिष्ठित (स्थिर) पात्र से गण आदि में स्थिरता होती है। निव्रण पात्र से कीर्ति और आरोग्य प्राप्त होता है। वर्णाढ्य (स्निग्धवर्ण) पात्र से ज्ञानसंपदा बढ़ती है। हुंड पात्र से चारित्र का भेद होता है। शबल-विचित्र-वर्णवाले पात्र से चित्तविभ्रम होता है। जो पात्र दुप्पुय (दुष्पुत)-पुष्पकमूल में प्रतिष्ठित नहीं है, जो कीलकसंस्थान वाला है-इनको धारण करने से गण और चारित्र में स्थान नहीं रहता-ऐसा निर्देश देता है। पद्मोत्पल के आकार वाले पात्र से अकुशल, सव्रण वाले पात्र से पात्रधारक के व्रण होते हैं। अन्दर से अथवा बाहर से दग्ध पात्र को धारण करने पर मरण का निर्देश करे। ४०२६.दड्ढे पुप्फगभिन्ने, पउमुप्पल सव्वणे य चउगुरुगा। सेसगभिन्ने लहुगा, हुंडादीएसु मासलहू॥ दग्ध, पुष्पकभिन्न-नाभि से भिन्न, पदमोत्पल के आकारवाला, सव्रण-इन पांचों को धारण करने पर चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कुक्षि आदि स्थानों से भिन्न पात्र के चतुर्लघुक और हुंड आदि पात्रों को धारण करने से मासलघु का प्रायश्चित्त है। ४०२७.तिविहं च होइ पायं, अहाकडं अप्प-सपरिकम्मं च। पुव्वमहाकडगहणं, तस्सऽसति कमेण दोण्णियरे॥ पात्र तीन प्रकार के होते हैं-अलाबुमय, दारुमय और मृत्तिकामय। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-यथाकृत, अल्पपरिकर्म, सपरिकर्म। पूर्व यथाकृत का ग्रहण। उसके अभाव में क्रमशः दोनों दूसरे। ४०२८.तिविहे परूवियम्मि, वोच्चत्थे गहणे लहुग आणादी। छेदण-भेदणकरणे, जा जहिं आरोवणा भणिता॥ तीन प्रकार के पात्रों की प्ररूपणा कर देने पर जो मुनि उनके ग्रहण में विपर्यास करता है, उसे चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं। छेदन, भेदन करने पर गाथा (६६८) में कथित आरोपणा यहां भी वक्तव्य है। ४०२९.को गेण्हति गीयत्थो, असतीए पायकप्पिओ जो उ। उस्सग्ग-ऽववाएहिं, कहिज्जती पायगहणं से॥ पात्र कौन ग्रहण करता है-लाता है? आचार्य ने कहागीतार्थ। उसके अभाव में जो पात्रकल्पिक होता है वह लाता है। उसके अभाव में जो मुनि पात्रग्रहण के उत्सर्ग, अपवाद को जानता है, वह पात्र ग्रहण करता है। ४०३०.हुंडादि एकबंधे, सुत्तत्थे करेंते मग्गणं कुज्जा। दुग-तिगबंधे सुत्तं, तिण्हुवरि दो वि वज्जेज्जा॥ जो मुनि हुंड आदि पात्रों की तथा एकबंध वाले पात्र का परिभोग करता है तथा सूत्र और अर्थपौरुषी-दोनों करता है, वह यथाकृत आदि पात्र की गवेषण करे। जो द्विबंध, त्रिबंध वाले पात्र का परिभोग करता है वह सूत्रपौरुषी करके, अर्थपौरुषी बिना किए, पात्र की गवेषणा करे। जो तीन बंधों से अतिरिक्त बंधों वाले पात्र का परिभोग करता है, वह दोनों पौरुषियों की वर्जना कर पात्र की गवेषणा करे। ४०३१.चत्तारि अहाकडए, दो मासा होति अप्पपरिकम्मे। तेण पर मग्गियम्मि य, असति ग्गहणं सपरिकम्मे॥ हुंड आदि पात्र को धारण करने वाला चार मास तक यथाकत की मार्गणा करे। यदि उस अवधि में पात्र न मिले तो दो मास तक अल्पपरिकर्म वाले पात्र की मार्गणा करे। उसकी प्राप्ति न होने पर सपरिकर्म पात्र का ग्रहण करे। ४०३२.पणयालीसं दिवसे, मग्गित्ता जा न लब्भए ततियं। तेण परेण न गिण्हइ, मा पक्खेणं न रज्जेज्जा। यदि पैंतालीस दिन तक मार्गणा करने पर भी वह तृतीय अर्थात् सपरिकर्म वाला पात्र प्राप्त नहीं होता है तो उस अवधि के बाद बहुपरिकर्म वाला पात्र ग्रहण न करे, क्योंकि उतनी अवधि में उसको नहीं रंगा जा सकता। ४०३३.कुत्तीय सिद्ध-निण्हग-पवंच-पडिमाउवासगाईसु। कुत्तियवज्जं बितियं, आगारमाईसु वा दो वि॥ यथाकृत पात्र की मार्गणा कुत्रिकापण में करनी चाहिए। सिद्धपुत्र, निह्नवण, प्रपंचश्रमण (?) तथा उपासक की ग्यारह Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ इनम तीसरा उद्देशक प्रतिमाओं को संपन्न कर आए हुए उपासक के पास यथाकृत पात्र मिल सकता है। कुत्रिकापण को छोड़कर सिद्धपुत्र आदि के पास द्वितीय अर्थात् अल्प परिकर्म वाला पात्र प्राप्त हो सकता है। आकर आदि में दोनों अर्थात् अल्पपरिकर्म वाला या सपरिकर्मवाला पात्र प्राप्त होता है। ४०३४.आगर नई कुडंगे, वाहे तेणे य भिक्ख जंत विही। कय कारियं व कीतं, जइ कप्पइ घेप्पतू अज्जो!" आकर अर्थात् भिल्लपल्ली आदि, नदी, कुडंग, व्याध-पल्ली, स्तेनपल्ली, भिक्षाचर, यंत्रशाला, आदि में विधि-पूर्वक पात्र ग्रहण करे। यदि वे कहे-कृत, कारित और क्रीत पात्र यदि आपको ग्रहण करना कल्पता है तो आर्य! आप उसे ग्रहण करें। (विस्तार आगे की गाथाओं में) ४०३५.आगर पल्लीमाई, निच्चुदग नदी कुडंगमुस्सरणं। वाहे तेणे भिक्खे, जंते परिभोगऽसंसत्तं। ४०३६.तुब्भऽट्ठाए कयमिणं, अन्नेसट्टाए अहवण सअट्ठा। जो घेच्छति व तदट्ठा, एमेव य कीय-पामिच्चे ।। आकर का अर्थ है-भिल्लपल्ली अथवा भिल्लकोट्ट-इनमें अलाबू प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। अगाध जलवाली महानदियों को तैरने में अलाबू का प्रयोग होता है? वहां उसके पात्र मिल सकते हैं। कुडंग-सघन वृक्षवाले स्थान में तुंबिकाओं का उत्सरण-वपन किया जाता है। व्याधपल्ली तथा स्तेनपल्ली में तुम्बों में कांजी आदि रखे जाते हैं क्योंकि वहां मिट्टी के बर्तन नहीं होते। भिक्षाचरों के पास तुम्बे मिलते हैं। यंत्रशाला में गुड़ के उत्सेचन के लिए तुम्बे रखे जाते हैं। आकर आदि में तुम्बों का प्रतिदिन परिभोग होता है। वह जंतुओं से असंसक्त रहता है। ये किसके लिए किए हैं-ऐसा पूछने पर यदि दाता कहे कि यह आपके लिए किए हैं या दूसरे साधुओं के लिए करवाए हैं अथवा स्वयं के लिए किए हैं अथवा जो इनको ग्रहण करेगा, उसके लिए किए हैं। इसी प्रकार क्रीत और प्रामित्य के लिए भी कहना चाहिए। जो आत्मार्थकृत हो, वह कल्पता है, आधाकर्मिकादि नहीं कल्पता। ४०३७. चाउल उण्होदग तुयरे कुसणे तहेव तक्के य। जं होइ भावियं तं, कप्पति भइयव्वगं सेसं॥ चाउल-तन्दुलधावन, उष्णोदक, तुवर--कुसुंभोदक, कुसण-मूंग आदि का पानी, तक्र-इनसे जो पात्र भावित होता है वह कल्पता है। शेष पानी आदि से भावित हो तो वह विकल्पनीय है। १.तीन स्थान ये है-मणिबंध, हस्ततल और भूमि । (वृ. पृ. १९८) ४०३८.सीतजलभावियं अविगते तु सीतोदए ण गिण्हति। मज्ज-वस-तेल्ल-सप्पी-महुमादीभावियं भयितं॥ शीतजल से भावित पात्र में जो शीतोदक है, वह अविगत अपरिणत हो तो उसे नहीं लेना चाहिए। मद्य, वसा, तैल, सर्पि तथा मधु से भावित हो तो विकल्पित है। ४०३९.ओभासणा य पुच्छा, दिटे रिक्के मुहं वहंते य। संसटे निक्खित्ते, सुक्खे य पगास दट्टणं॥ पात्र के उत्पादन (प्राप्ति) विषयक अवभाषण करना चाहिए। ये आठ पृच्छाएं करनी चाहिए (१) यह दृष्ट-प्रशस्य है अथवा अदृष्ट ? (२) यह रिक्त है अथवा अरिक्त? (३) इसका मुख किया हुआ है या नहीं? (४) यह वहमानक है अथवा अवहमानक ? (५) यह संसृष्ट है या असंसृष्ट ? (६) यह निक्षिप्त है या नहीं? (७) यह शुष्क है अथवा आर्द्र ? (८) यह प्रकाशमुखवाला है या अप्रकाशमुखवाला ? पात्र यदि देखने पर निर्दोष लगे तो उसे ग्रहण करे। ४०४०.ओमंथ पाणमाई, पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य। तिट्ठाणे तिक्खुत्तो, सुद्धो ससिणिद्धमादीसु॥ पात्र को ओंधा कर तीन स्थानों में, तीन बार प्रस्फोटित करे। शिष्य ने पूछा-पात्र विषयक मूलगुण और उत्तरगुण क्या हैं? जिस पात्र में पहले अप्काय था, वह आज सस्निग्ध हो सकता है। तीन बार उसको प्रस्फोटन करके ले, वह पात्र शुद्ध है। ४०४१.दाहिणकरेण कोणं, घेत्तुत्ताणेण वाममणिबंधे। घट्टेइ तिन्नि वारे, तिन्नि तले तिन्नि भूमीय।। दक्षिण हाथ से पात्र का कर्ण पकड़ कर, पात्र को ओंधा कर वाम हाथ के मणिबंध पर तीन बार उस पात्र का प्रस्फोटन करे, फिर तीन बार हाथ के तल पर और फिर भूमी पर तीन बार उसका प्रस्फोटन करे। ४०४२.तस बीयम्मि वि दिवे, न गेण्हती गेण्हती तु अघिटे। गहणम्मि उ परिसुद्धे, कप्पति दिढेहि वि बहूहिं।। यदि इस प्रकार नौ बार प्रस्फोटन करने पर त्रस जीव अथवा बीज आदि न दीख पड़े तो उसे ग्रहण करे, दीख पड़े तो ग्रहण न करे। परिशुद्ध-निर्दोष जानकर ग्रहण किए हुए पात्र को लेकर उपाश्रय में आ जाने पर यदि उसमें अनेक बीज आदि दृग्गोचर हों तो भी वह पात्र कल्पनीय है। (उस पात्र को अप्रासुक समझकर न गृहस्थ को पुनः लौटाया जा २. देखें-गाथा ६६८। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ सकता है और न परिष्ठापित किया जा सकता है, क्योंकि वह श्रुतप्रामाण्य से गृहीत है। किन्तु एकांत में उन दृष्ट बीजों का परिष्ठापन कर - पात्र काम में लिया जा सकता है।) ४०४३. च्छित्त पण जहण्णं, तेण उ तव्वुड्डिए य जयणाए । जहन्ना व सासवादी, तेहिं उ जयणेयर कलादी । जघन्य प्रायश्चित्त है पंचक। यह जघन्य यतना है । उस पंचक की वृद्धि से पात्र की असत्ता में प्रयत्न करते हैं। अथवा सर्षप आदि बीज जघन्य हैं, उनसे युक्त पात्र को षड्भागकर - वृद्धि की यतना से ग्रहण करें | इतर अर्थात् चने आदि बादर बीजत (इनकी यतना आगे) ४०४४.छब्भागकए हत्थे, सुहुमेसू पढमपव्व पणगं तू । दस बितिए राइदिणा, अंगुलिमूलेसु पन्नरस ॥ ४०४५. वीसं तु आउलेहा, अंगुट्टंतो य होइ पणुवीसा । पसयम्मि होइ मासो, चाउम्मासा भवे चउसु ॥ हाथ के छह भाग किए जाएं • प्रथम पर्वों तक पहला भाग । • दूसरे पर्वों तक दूसर भाग । • अंगुली के मूल तक तीसरा भाग । ● आयुष्य की रेखा तक चौथा । • अंगुष्ठ बुध्न (जड़) तक पांचवां अंगुष्ठ के बाद का सारा भाग छठा । प्रथम पर्व मात्र के सूक्ष्म बीजों के लिए पंचक अर्थात् पांच रात-दिन का प्रायश्चित, दूसरे पर्वमात्र के लिए दस रातदिन, अंगुलीमूल के लिए पन्द्रह रात-दिन, आयुरेखामात्र के लिए बीस रात-दिन, अंगुष्ठबुध्नमात्र के लिए पचीस रातदिन, प्रसूति प्रमाण तक मासलघु, चार प्रसूति प्रमाण तक लघु चार मास । ४०४६. एसेव कमो नियमा, थूलेसु वि बीयपव्वमारहो। अंजलि चउक्क लहुगा, ते च्चिय गुरुगा अणंतेसु ॥ नियमतः यही क्रम स्थूल बीजों के विषय में है। यह दूसरे पर्वों से प्रारंभ होता है। चार अंजलि प्रमाण में चतुर्लघु । वह सारा प्रत्येक बीज विषयक प्रायश्चित्त है। सूक्ष्म या स्थूल अनन्त बीज विषयक ये ही प्रायश्चित्त क्रमशः गुरुक हो जाते हैं। ४०४७. निक्कारणम्मि एए, पच्छित्ता वन्निया उ बीएसु । नायव्वा अणुपुब्वी, एसेव उ कारणे जयणा ॥ ये सारे प्रायश्चित्त निष्कारण बीजयुक्त पात्र को ग्रहण करने पर प्राप्त होते हैं। कारण में क्रमशः यही यतना जाननी चाहिए अर्थात् पंचक आदि की यतना जाननी चाहिए। बृहत्कल्पभाष्यम् ४०४८. वोस पि हु कप्पर, बीयाईणं अधाकडं पायं । न य अप्प सपरिकम्मा, तहेव अप्पं सपरिकम्मा ॥ यथाकृत पात्र बीजों से आकंठ भरा होने पर भी वह कल्पता है, परन्तु अल्पपरिकर्म तथा सपरिकर्मवाला शुद्ध होने पर भी नहीं कल्पता इसी प्रकार अल्पपरिकर्म वाला पात्र भरा होने पर भी कल्पता है, सपरिकर्म पात्र नहीं कल्पता । ४०४९. थूला वा सुहुमा वा, अवहंते वा असंथरंतम्मि । आगंतुअ संकामिय, संकामिय, अप्पबहु असंथरंतम्मि ॥ बीज स्थूल हों या सूक्ष्म यदि मुनि का पात्र तत्काल रंगा हुआ होने के कारण उनको वहन नहीं कर सकता अथवा उस पात्र से संस्तरण नहीं होता हो अथवा उसके पास दूसरा पात्र है ही नहीं तो अल्प- बहुत्व गुण के आधार पर विचार कर यथाकृत पात्र जो आगंतुक बीजों से भरा हुआ हो, उसके बीजों का अन्यत्र संक्रमण कर वह पात्र लिया जा सकता है। ४०५०. थूल - सुहुमेसु वुत्तं, पच्छित्तं तेसु चेव भरिओ वि । 3 जं कप्पइ त्ति भणिअं ण जुज्जई पुव्वमवरेणं ॥ स्थूल तथा सूक्ष्म बीजों के विषय में प्रायश्चित्त कहा गया है। उन बीजों से भृत पात्र भी, जो यथाकृत हो, वह लिया जा सकता है, यह जो कहा है वह पहले से भरा लिया जा सकता है, दूसरा नहीं । ४०५१. चोयग ! दुविहा असई, संताऽसंता य संत असिवादी । इयरा उशामिवाई, संते भणिया उ सा सोही ॥ हे शिष्य ! असत् दो प्रकार का होता है-सद् असत्ता, और असत् असत्ता । जिस गांव या नगर में पात्र हैं, परन्तु वहां अशिव है, वह सद्-असत्ता है इतरा अर्थात् असत्असत्ता यह है - पात्र अग्नि में जल गया है अथवा चोरों ने उसका अपहरण कर लिया है। इन दोनों प्रकार के असत् में यथाकृतपात्र आगंतुक बीजों से भूत हो तो भी वह कल्पता है, न कि शुद्ध अपरिकर्म पात्र जो शोधि- प्रायश्चित्त कहा गया है वह दोनों प्रकार के असत् के अभाव में जो पात्र गृहीत होता है, उस विषयक है। ४०५२. जो उ गुणो दोसकरो, न सो गुणो दोसमेव तं जाणे । अगुणो वि होति उ गुणो, विणिच्छयो सुंदरी जस्स ॥ जो गुण दोष करने वाला होता है, वह वास्तव में गुण नहीं होता, उसको दोष ही जानना चाहिए। वह अगुण भी गुण है। जिसका विनिश्चय परिणाम सुन्दर होता है। ४०५३. असइ तिगे पुण जुत्ते, जोगे ओहोवही उवग्गहिए । छेयण-भेयणकरणे, सुद्धो जं निज्जरा बिउला ।। यदि तीन बार प्रयत्न करने पर भी यथाकृत पात्र की . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक प्राप्ति नहीं होती है तो अल्पपरिकर्मवाला पात्र लिया जा ४०५९.बितिय-ततिएसु नियमा, सकता है, उसके अभाव में बहुपरिकर्मवाला पात्र भी लिया मुहकरणं होज्ज तस्सिमं माणं। जा सकता है। यही विधि ओघ उपधि और औपग्रहिक उपधि तं चिय तिविहं पायं, के विषय में है। वह मुनि क्रम से प्रास पात्र का ग्रहण कर करंडगं दीह वर्ल्ड च।। छेदन-भेदन करता है तो भी वह शुद्ध है, प्रायश्चित्तभाक् नहीं दूसरे और तीसरे अर्थात् अल्पपरिकर्मवाले तथा है। वह विधियुक्त कार्य करता है, इसलिए उसके विपुल सपरिकर्मवाले पात्र के नियमतः मुखकरण होता है। उस मुख निर्जरा होती है। का यह मान होता है। वह मुख तीन प्रकार का होता है४०५४.चोयग! एताए च्चिय, असईय अहाकडस्स दो इयरे। करंडकाकार, दीर्घ और वृत्त । कप्पंति छेयणे पुण, उवओगं मा दुवे दोसा॥ ४०६०.अकरंडगम्मि भाणे, हत्थो उर्दु जहा न घट्टेति। हे शिष्य! पहले जो दो प्रकार की असत्ता प्ररूपित की है, एयं जहन्नगमुहं, वत्थु पप्पा विसालतरं॥ इसी यथाकृत असत्ता से दो दूसरे पात्र-अल्पपरिकर्म और ___ अकरंडकाकार भाजन में अर्थात् दीर्घ और वृत्त पात्र में सपरिकर्म वाले ग्रहण किए जा सकते हैं। परंतु उनके छेदन में हाथ डालने और निकलने में वह हाथ पात्र के ओष्ठ-कर्ण का महान् उपयोग-प्रयत्न करता है जिससे कि दो प्रकार का स्पर्श नहीं करता, वह जघन्य मुख प्रमाण है। इसके पश्चात् दोष-संयमविराधना और आत्मविराधना न हो। वस्तु के आधार पर विशालतर मुख किया जाता है। ४०५५.अहवा वि कतो जेणं, उवओगो न वि य लब्भती पढम। ४०६१.दव्वे एगं पायं, भणिओ तरुणो य एगपाओ उ। हीणाहियं व लब्भति, सपमाणा तेण दो इयरे॥ अप्पोवही पसत्थो, चोएति न मत्ततो तम्हा॥ अथवा साधु ने प्रथम प्रकार का पात्र प्राप्त करने का तीर्थंकरों ने मुनि के लिए द्रव्य अवमौदरिका में एक ही प्रयत्न किया परंतु वह प्राप्त नहीं हुआ अथवा प्रमाण से हीन पात्र रखने की अनुज्ञा दी है। तरुण मुनि एक पात्र ही रखे। या अधिक प्राप्त होता है तो दो दूसरे-अल्पपरिकर्म वाले या मुनि के लिए अल्प उपधि प्रशस्त होती है। इसलिए उनको सपरिकर्म वाले पात्र क्रमशः ग्रहण करे। मात्रक नहीं रखना चाहिए। यह शिष्य कहता है। ४०५६.जह सपरिकम्मलंभे, मग्गंते अहाकडं भवे विपुला। ४०६२.जिणकप्पे तं सुत्तं, सपडिग्गहकस्स तस्स तं एगं। निज्जरमेवमलंभे, बितियस्सियरे भवे विउला। नियमा थेराण पुणो, बितिज्जओ मत्तो होइ।। जैसे सपरिकर्म पात्र का लाभ होने पर भी मुनि यथाकृत आचार्य कहते हैं-यह कथन जिनकल्प विषयक है। जो पात्र की मार्गणा करता है, उसके विपुल निर्जरा होती है। जिनकल्प सप्रतिग्रह है, उसके लिए एक पात्र का विधान है। यथाकृत पात्र की अप्राप्ति होने पर तथा बहुपरिकर्मवाले पात्र स्थविर मुनियों के लिए नियमतः दूसरा पात्र मात्रक होता है। का लाभ होने पर भी दूसरे अर्थात् अल्पपरिकर्मवाले पात्र की ४०६३.नणु दव्वोमोयरिया, तरुणाइविसेसओ य मत्तओ वि। मार्गणा में भी विपुल निर्जरा होती है। अप्पोवही दुपत्तो, जेणं तिप्पभित्ति बहसदो॥ ४०५७.असिवे ओमोदरिए, रायद्दद्वे भए व गेलन्ने। द्रव्य अवमौदरिका में एक पात्र की अनुज्ञा है। तरुण आदि सेहे चरित्त सावयभए य ततियं पि गिण्हिज्जा॥ के विशेषण के योग से मात्रक भी अनुज्ञात है। जो अल्पोपधि गांव में यथाकृत अथवा अल्पपरिकर्मवाला पात्र प्राप्त है, की बात कही गई है, वह दो पात्र होने पर भी अल्पोपधि ही परन्तु वहां अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट, भय (चोरों आदि होती है। तीन आदि के लिए बहु शब्द का प्रयोग होता है। का), ग्लानत्व या शैक्ष के विपरिणमन का भय है, श्वापद का ४०६४.अग्गहणे वारत्तग, पमाण हीणाऽधि सोहि अववाए। भय है-इनके होने पर मुनि अपने स्थान पर ही तीसरा अर्थात् परिभोग गहण-बितियपय-लक्खणाई मुहं जाव।। बहुपरिकर्मवाला पात्र भी ग्रहण कर सकता है। मात्रक का ग्रहण न करने पर अनेक दोष होते हैं। यहां ४०५८.आगंतुगाणि ताणि य, चिरपरिकम्मे य सुत्तपरिहाणी।। वारत्तग का दृष्टांत वक्तव्य है। प्रमाण हीन-अधिक। शोधि। एएण कारणेणं, अहाकडे होति गहणं तु॥ अपवाद। परिभोग, ग्रहण, द्वितीयपद, लक्षण आदि मुख यथाकृत पात्र में आगंतुकबीजों का भराव होता है, तथा । पर्यन्त। यह द्वार गाथा है। विस्तार आगे की गाथाओं में। चिरकाल परिकर्मवाले पात्र को ग्रहण करने से सूत्रार्थ की ४०६५.मत्तअगेण्हणे गुरुगा, मिच्छत्ते अप्प-परपरिच्चाओ। परिहानि होती है। अतः इन कारणों से यथाकृत पात्र का संसत्तगगहणम्मि, संजमदोसा सवित्थारा॥ ग्रहण करना चाहिए। मात्रक का ग्रहण न करने पर चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है। Jain Education international Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ =बृहत्कल्पभाष्यम् शैक्ष आदि मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकते हैं। यदि आचार्य के ४०७१.पडणं अवंगुतम्मि, पुढवी-तसपाण-तरुगणादीणं । लिए पात्रक में ग्रहण करते हैं तो आत्मपरित्याग होता है। आणिज्जंते गामंतरातो गलणे य छक्काया। यदि स्वयं के लिए ग्रहण करता है तो आचार्य आदि के लिए छोटा पात्र पूरा भरा हुआ हो और खुला हो तो उसमें नहीं लिया जाता, वे परित्यक्त हो जाते हैं। यदि संसक्त- पृथ्वी की रजें, त्रसप्राणी तथा वृक्षों के पत्ते आदि गिर सकते भक्तपान ग्रहण करते हैं तो संयमदोष विस्तार के साथ हैं। अथवा ग्रामान्तर से वैसा भरा हुआ पात्र लाने पर उसमें (गा. ४६१, ७८२, २७७१ आदि) लगते हैं। से गलित होते द्रव्य से छहकाय की विराधना होती है। ४०६६.वारत्तग पव्वज्जा, पुत्तो तप्पडिम देवथलि साहू। ४०७२.अहियस्स इमे दोसा, एगतरस्सोग्गहम्मि भरितम्मि। पडियरणेगपडिग्गह, आयमणुव्वालणा छेओ।। सहसा मत्तगभरणे, भारादि, विगिंचणियमादी॥ वारत्तग नगर के राजा अभयसेन का अमात्य वारत्तग प्रमाण से बड़े पात्र के ये दोष हैं-भक्त अथवा पानक से प्रत्येक बुद्ध था। वह प्रव्रजित हो गया। उसके पुत्र ने उसकी उसको भर लेने पर, दूसरे मात्रक में अन्यद् ग्रहण करता प्रतिमा बनवा कर एक देवकुल में स्थापित कर दी। वह । है। उस मात्रक को सहसा भर लेने पर, दोनों के भार के स्थली प्रवर्तित हो गई। एक साधु एक पात्र से वहां भिक्षा के कारण मुनि स्थाणु, कंटक आदि को बचाने में समर्थ नहीं लिए आया। उस पात्र में भिक्षा लेकर, भोजन कर, उसी में होता, उससे आत्मविराधना होती है और ईर्या का सम्यग् पानी लेकर स्थंडिल में गया। संज्ञा का व्युत्सर्जन कर, शुचि शोधन न कर सकने के कारण संयमविराधना भी होती है। लेकर आया। लोगों ने देख लिया। उन्होंने उसकी पात्रों को अत्यधिक भर लेने के कारण परिष्ठापन करना उद्वालना-निष्काशना कर दी तथा अन्य साधुओं का भी होता है। न करने पर, अत्यधिक भक्षण से ग्लानत्व हो व्यवच्छेद कर डाला। अतः मात्रक के ग्रहण के बिना ये दोष सकता है। होते हैं। ४०७३.जइ भोयणमावहती, दिवसेणं तत्तिया चउम्मासा। ४०६७.जो मागहओ पत्थो, सविसेसतरं तु मत्तगपमाणं। दिवसे दिवसे तस्स उ, बितिएणारोवणा भणिया॥ दोसु वि दव्वग्गहणं, वासावासासु अहिकारो॥ मुनि एक दिन में जितनी बार मात्रक में भक्त-पान लाता है मगध देश के प्रस्थ से सविशेषतर प्रमाणवाला होता है उतने ही चतुर्लघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रतिदिन मात्रक। उस मात्रक से दोनों कालों वर्षावास और ऋतुबद्ध में मात्रक में लाता है, खाता है तो आरोपणा प्रायश्चित्त प्राप्त भक्त-पान लिया जा सकता है। वर्षावास में मात्रक का विशेष होता है, जैसे-दूसरे दिन जितनी बार मात्रक में खाता है अधिकार है। उतने चतुर्गुरु, तीसरे दिन षड्लघु, चौथे दिन षड्गुरु, पांचवें ४०६८.सुक्खोल्लओदणस्सा, दुगाउतद्धाणमागओ साहू।। दिन छेद, छठे दिन मूल, सातवें दिन अनवस्थाप्य और आठवें भुंजति एगट्ठाणे, एतं खलु मत्तगपमाणं॥ दिन पारांचिक। एक पात्र में शुष्क ओदन है और दूसरे पात्र में तीमन। ४०७४.अण्णाणे गारवे लुद्धे, असंपत्ती य जाणए। उस तीमन से ओदन आर्द्र है। दो गव्युति से समायात साधु लहुगो लहुगा गुरुगा, चउत्थो सुद्धो उ जाणओ॥ उसे खा लेता है। इसे मात्रक का प्रमाण जानना चाहिए। अज्ञानवश हीनाधिक प्रमाण वाला मात्रक धारण करने पर ४०६९.भत्तस्स व पाणस्स व, एगतरागस्स जो भवे भरिओ। लघुमास, गौरव के कारण धारण करने पर चतुर्लघु, लोभवश पज्जत्तो साहुस्स उ, बितियं पि य मत्तयपमाणं॥ करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। मात्रक की भक्त या पानक अथवा इन दोनों में से एक से भरा पात्र असंप्राप्ति के कारण हीनाधिक प्रमाण वाला मात्रक धारण एक साधु के लिए पर्याप्त होता है। यह दूसरे प्रकार से मात्रक करने वाला शुद्ध है। मात्रक के लक्षणों का ज्ञायक यदि का प्रमाण है। हीनाधिक प्रमाण वाला मात्रक धारण करता है तो वह भी ४०७०.डहरस्सेमे दोसा, ओभावण खिंसणा गलंते य।। छण्हं विराहणा भाणभेदो जं वा गिलाणस्स॥ ४०७५.बाले वुड्ढे सेहे, आयरिय गिलाण खमग पाहुणए। छोटे प्रमाण वाले मात्रक के ये दोष हैं। अपभ्राजना, दुल्लभ संसत्त असंथरंत अद्धाणकप्पम्मि।। खिंसना तथा उससे द्रव्य के नीचे गिरने से छह काय की बाल, वृद्ध, शैक्ष, आचार्य, ग्लान, क्षपक, तथा प्राघूणकविराधना होती है। भाजन का भेद हो सकता है तथा छोटे ये मात्रक में परिभोग कर सकते हैं। दुर्लभ द्रव्य, भक्त-पान पात्र में लिया गया द्रव्य ग्लान के लिए अपर्याप्त होता है। जिस पात्र में संसक्त हो, वैसी स्थिति में, असंस्तरण की Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ४१९ स्थिति में तथा अध्वानकल्प की स्थिति में इन स्थितियों में ४०८१.तिण्णेव य पच्छाया, रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती। मात्रक में भक्त-पान लिया जा सकता है। तत्तो य मत्तए खलु, चोद्दसमे कमढए होति॥ ४०७६.हरिए बीए चले जुत्ते, वच्छे साणे जलट्ठिए। ४०८२.उग्गहणंतग पट्टो, अड्डोरुअ चलणिया य बोधव्वा। पुढवी संपातिमा सामा, महावाए महियाऽमिते॥ अभिंतर-बाहिणियंसणी य तह कंचुए चेव॥ शकट हरित पर, बीज पर प्रतिष्ठित हो, चल हो, बैलों ४०८३.उक्कच्छिय वेकच्छिय, संघाडी चेव खंधकरणी य। से जुता हुआ हो, उसके एक बछड़ा बंधा हो, शकट के नीचे ओहोवहिम्मि एते, अज्जाणं पण्णवीसं त॥ कुत्ता हो, शकट जल के ऊपर अथवा सचित्त पृथ्वीकाय पर आर्यिकाओं के पचीस प्रकार की उपधिस्थित हो, संपातिम जीवों का उपद्रव हो, रात हो, महावात १. पात्र १४. कमढ़क चल रहा हो, महिका गिर रही हो-इस प्रकार की स्थिति में २. पात्रबंध १५. अवग्रहानन्तक थोड़ा या अमित पात्र लेप का ग्रहण अनुज्ञात नहीं है। ३. पात्रस्थापन ४०७७.पुव्वण्हे लेवदाणं, लेवग्गहणं सुसंवरं काउं। ४. पात्रकेसरिका १७. अोरुक लेवस्स आणणा लिंपणा य जतणाय कायव्वा॥ ५. पटलिका १८. चलनिका __ पूर्वाह्न में लेप लाने के लिए जाए। लेपग्रहण कर ६. रजस्त्राण १९. अभ्यंतर निवसनी सुसंवररूप से लेप का आनयन करे और फिर यतनापूर्वक ७. गोच्छग २०. बहिर्निवसनी लेप लगाए। ८,९,१०. तीन पच्छादक २१. कंचुक ११. रजोहरण २२. औपकक्षिकी कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा १२. मुखवस्त्रिका २३. वैकक्षिकी २४. संघाटी १३. मात्रक भिन्नाइं वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए २५. स्कंधकरणी वा॥ आर्यिकाओं की ये पचीस प्रकार की ओघ उपधि है। (सूत्र १०) ४०८४.नावनिभो उग्गहणंतओ उ सो गुज्झदेसरक्खट्ठा। सो य पमाणेणेक्को, घण-मसिणो देहमासज्ज। ४०७८.अव्वोगडो उ भणितो, उवधिविभागो उ आदिसुत्तेसु। 'अवग्रह' यह स्त्री की योनि की सामयिकी संज्ञा है। सो पुण विभज्जमाणो, उवरिसुए वोगडो होति॥ उसका अंतक अर्थात् वस्त्र अवग्रहान्तक कहलाता है। योनि आदिसूत्रों अर्थात् पूर्वसूत्रों में उपधि का विभाग का आकार नावा के सदृश होता है। उसकी रक्षा के लिए सामान्यतः निरूपित हुआ है। वह उपधि का विभाग प्रस्तुत अवग्रहान्तक किया जाता है। वह प्रमाण से एक, सघन और सूत्र में स्पष्टरूप में (विभाजित होकर) हुआ है, जैसे यह मुलायम वस्त्र से बनाया जाता है। स्त्री के देह के अनुसार उपधि-विभाग जिनकल्पी मुनियों का, यह स्थविरकल्पी उसका निर्माण होता है। मुनियों का, यह आर्यिकाओं का। ४०८५. पट्टो वि होइ एक्को, देहपमाणेण सो उ भइयव्वो। ४०७९.चोद्दसग पण्णवीसो, ओहोवधुवग्गहो अणेगविधो। छादंतोग्गहणतं, कडिबद्धो मल्लकच्छा वा॥ संथारपट्टमादी, उभयोपक्खम्मि णेयव्वो॥ पट्ट भी गणना से एक तथा शरीर के अनुसार होता है। उपधि के दो प्रकार हैं-औधिक उपधि और औपग्रहिक वह देह के अनुसार छोटा या बड़ा होता है। वह अवग्रहान्तक उपधि। जिनकल्पी मुनियों के औधिक उपधि ही होती है, के दोनों पार्यों से ढंकता हुआ, कटिबद्ध होकर मल्लकक्षा औपग्रहिक नहीं। स्थविरकल्पी मुनियों के दोनों प्रकार की की भांति होता है। उपधि होती है। मुनियों के चौदह प्रकार की और साध्वियों४०८६.अड्डोरुगो वि ते दो, वि गिव्हिडं छादए कडीभागं। के पचीस प्रकार की ओघ उपधि होती है। औपग्रहिक उपधि जाणुप्पमाण चलणी, असिव्विया लंखियाए व॥ के अनेक प्रकार हैं, जैसे संस्तारक, पट्ट आदि। यह उभयपक्ष अोरुक भी दोनों-अवग्रहान्तक तथा पट्ट के ऊपर लेकर अर्थात् साधु-साध्वी दोनों के होती है। सारे कटिभाग को आच्छादित करता है। चलनिका ४०८०.पत्तं पत्ताबंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिया। जानुप्रमाणवाली होती है। वह नटिनी के परिधान की भांति पडलाइं रयत्ताणं, च गोच्छओ पायनिज्जोगो॥ बिना सिलाई की होती है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० = बृहत्कल्पभाष्यम् ४०८७.अंतोनियंसणी पुण, लीणतरा जाव अद्धजंघातो। ४०९२.संघातिमेतरो वा, सव्वोऽवेसो समासओ उवधी। बाहिर खुलगपमाणा, कडीय दोरेण पडिबद्धा। पासगबद्धमझुसिरो, जं चाऽऽइण्णं तगं णेयं॥ अन्तर्निवसनी कटिभाग से ऊपर-नीचे अर्द्धजंघा प्रमाण उपरोक्त समस्त उपधि के संक्षेप में दो प्रकार की होती है। वह पहनते समय शरीर से लीनतर होती है। हैं-संघातिम और इतर अर्थात् असंघातिम। असंघातिम बहिर्निवसनी कटिभाग से प्रारंभ होकर चरणगुल्फ प्रमाण की उपधि पाशक-बद्ध कसाबद्ध तथा अशुषिर अर्थात् असीवित होती है। उसे डोरी से कटिभाग में बांधा जाता है। होता है। जिसका आचरण पूर्व आचार्यों ने किया है, वह सारा ४०८८.छादेति अणुक्कुयिते, उरोरुहे कंचुओ असिव्वितओ। यहां ज्ञातव्य है। एमेव य उक्कच्छी, सा णवरं दाहिणे पासे॥ ४०९३.उक्कोसओ जिणाणं, चउब्विहो मज्झिमो वि य तहेव। कंचुक अपने हाथ से ढ़ाई हाथ प्रमाण लंबा और एक हाथ जहण्णो चउब्विहो खलु, एत्तो थेराण वोच्छामि। प्रमाण चौड़े कपड़े का किया जाता है। उसकी सिलाई नहीं जिनकल्पी मुनियों के उत्कृष्ट उपधि चार प्रकार की होती। वह श्लथ स्तनों को आच्छादित करने के लिए उपयोग है-तीन कल्प और एक पात्र। मध्यम उपधि भी चार प्रकार में आता है। कंचुक की भांति ही औपकक्षिकी होती है। वह की है-रजोहरण, पटलक, पात्रबंध तथा रजस्त्राण। जघन्य दक्षिण पार्श्व में समचतुरस्र डेढ़ हाथ प्रमाण होती है तथा भी चार प्रकार की है-मुखपोतिका, पादकेसरिया, गोच्छग स्तनों तथा पीठ को आच्छादित करती है। वह वीटक से बद्ध और पात्र-स्थापन। आगे स्थविरकल्पी मुनियों की उपधि के वामपार्श्व में धारण की जाती है। विषय में कहूंगा। ४०८९.वेगच्छिया उ पट्टो, कंचुकमुक्कच्छियं च छादेति। ४०९४.उक्कोसो थेराणं, चउब्विहो छब्विहो य मज्झिमओ। संघाडीओ चउरो, तत्थ दुहत्था उ वसधीए॥ जहण्णो चउब्विहो खलु, एत्तो अज्जाण वोच्छामि। ४०९०.दुन्नि तिहत्थायामा, भिक्खट्ठा एग एग उच्चारे। स्थविरकल्पी मुनियों के उत्कृष्ट और जघन्य उपधि ओसरणे चउहत्थाऽनिसन्नपच्छाइणी मसिणा॥ जिनकल्पी मुनियों की भांति चार-चार प्रकार की है। उनके वैकक्षिकी नामक पट्ट कंचुक तथा औपकक्षिकी को मध्यम उपधि छह प्रकार की है-रजोहरण, पटलक, पात्रकआच्छादित करता है और उसे वामपार्श्व में पहना जाता है। बंध, रजस्त्राण, मात्रक और चोलपट्टक। आगे आर्यिकाओं की तथा प्रत्येक साध्वी को चार संघाटियां कल्पती हैं-एक दो उपधि कहूंगा। हाथ लंबी, दो तीन हाथ वाली और एक चार हाथ लंबी। ये ४०९५.उक्कोसो अट्ठविहो, मज्झिमओ होइ तेरसविहो उ। चार संघाटियां हैं। इनमें से दो हाथ वाली संघाटी वसति में, जहण्णो चउव्विहो खलु, एत्तो उ उवग्गहं वोच्छं। तीन हाथ लंबी एक संघाटी भिक्षा के लिए जाते समय, और आर्यिकाओं की उत्कृष्ट उपधि के आठ प्रकार, मध्यम के एक संघाटी उच्चार के लिए जाते समय तथा चार हाथ लंबी तेरह प्रकार और जघन्य के चार प्रकार हैं। आगे औपग्रहिक संघाटी व्याख्यान सुनने समवसरण में जाते समय धारण की उपधि का कथन करूंगा। जाती है। वह संघाटी अन्य संघाटियों से बृहत्तर प्रमाण वाली ४०९६.पीढग णिसिज्ज दंडगपमज्जणी घट्टए डगलमादी। होती है। वह अनिषण्ण अवस्था के लिए है। अतः आर्यिकाएं पिप्पलग सूयि णहरणि, सोहणगदुगं जहण्णो उ॥ बैठे नहीं, खड़े-खड़े ही अनुयोग आदि सुने। वह संघाटी स्कंध जघन्य औपग्रहिक उपकरण-पीढ़क, निषद्या, दंडकसे लेकर पैरों तक आच्छादन करती है। वह मसृण होती है। प्रमार्जनी, घट्टक-लिप्त पात्र को चिकना करने का पत्थर, उसको ऊपर ओढ़ने से प्रवचन की प्रभावना होती है। डगलक, पिप्पलक, सूची, नखहरणी, शोधनद्विक४०९१.खंधकरणी उ चउहत्थवित्थरा वायविहुतरक्खट्ठा। कर्णशोधक, दंतशोधक। खुज्जकरणी उ कीरति, रूववतीणं कुडहहेउं॥ ४०९७.वासत्ताणे पणगं, चिलिमिणिपणगं दुगं च संथारे। स्कंधकरणी चार हाथ विस्तृत और समचतुरस्र होती है। दंडादीपणगं पुण, मत्तगतिग पादलेहणिया। वस्त्र को वायु से उड़ने से बचाती है। रूपवती श्रमणियों की ४०९८.चम्मतिगं पट्टदुगं, णायव्वो मज्झिमोवही एसो। निरूपता करने के लिए कुटुभ (कूबड़ेपन) के लिए अज्जाण वारए पुण, मज्झिमए होति अतिरित्तो॥ कुब्जकरणी की जाती है। पीठ पर लपेट कर औपकक्षिकी मध्यम औपग्रहिक उपकरण-वर्षात्राण पंचक (बालमय, और वैकक्षिकी से निषद्ध कर उससे कुटुभ (कुबड़ापन) किया सूत्रमय, सूचीमय, कुटशीर्षक और छत्रक), चिलिमिलिपंचक जाता है। (बालमयी, सूत्रमयी, वल्कमयी, कटमयी और दंडमयी), दो Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक: ४२१ प्रकार का संस्तारक-शुषिर और अशुषिर, दंडादिपंचक (दंडक, विदंडक, यष्टि, वियष्टि और नालिका), मात्रकत्रिक (खेलमात्रक, प्रस्रवणमात्रक, उच्चारमात्रक), पादलेखनिका, चर्मत्रिक (कृत्ति, तलिका, वध्र), पट्टद्विक-(संस्तारपट्ट तथा उत्तरपट्ट) यह साधुओं की मध्यम उपधि है। आर्याओं के भी यही मध्यम उपधि है। उनके वारक अतिरिक्त होता है। ४०९९.अक्खा संथारो या, दुविहो एगंगिएतरो चेव। पोत्थगपणगं फलगं, बितियपदे होति उक्कोसो॥ उत्कृष्ट उपधि यह है-अक्ष-गुरु जब अनुयोग देते हैं तब उसके भंगों की चारणिका के लिए काम आने वाला उपकरण, दो प्रकार के संस्तारक-एकांगिक और इतर, पुस्तकपंचक और फलक-यह उत्कृष्ट औपग्रहिक उपधि है। मवाद, रसी-पीव रक्त आदि बहता हो तो उड्डाह, स्वाध्याय और दया के निमित्त मुनि अवग्रहान्तक और पट्टक बांधता है। यह अपवाद पद है। ४१०३.पूय-लसिगा उवस्सए, धोव्वति असहुस्स पट्टो रुहिरं च। उग्गह पट्टं च सहू, वीयारे लोहियं धुवति॥ पूत और रसी-मवाद और पीव से अस्वाध्यायिक नहीं होता, अतः उसका प्रक्षालन उपाश्रय में ही किया जाता है। यदि भगंदर का रोगी बाहर जाने में असमर्थ हो तो उसका पट्ट और रुधिर उपाश्रय में मात्रक में धोकर वह पानी उपाश्रय में दूर फेंका जाता है। यदि वह बाहर जाने में समर्थ हो तो विचारभूमी में जाकर वह स्वयं अवग्राहान्तक और रुधिर का प्रक्षालन करता है। ४१०४.ते पुण होति दुगादी, दिवसंतरिएहिं बज्झए तेहिं। अरुगं इहरा कुच्छइ, ते वि य कुच्छंति णिच्चोला। अवग्रहान्तक और पट्ट दो, तीन आदि रखने चाहिए जिससे कि उसका उपयोग दिवसान्तर-एक दिन छोड़कर दूसरे दिन किया जा सकता है, उनसे व्रण बांधा जा सकता है। प्रतिदिन यदि एक ही पट्ट बांधा जाता है तो वह व्रण कुथित हो जाता है तथा वे पट्ट आदि भी सदा आर्द्र रहकर कुथित हो जाते हैं। उग्गहवत्थ-पदं नो कप्पइ निग्गंथाणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ११) कप्पइ निग्गंथीणं उग्गहणंतगं वा उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र १२) ४१००.उभयम्मि वि अविसिटुं, वत्थग्गहणं तु वण्णियं एयं। ___ जं जस्स होति जोग्गं, इदाणि तं तं परिकहेति॥ दोनों सूत्रों-भिन्न और अभिन्न में अविशिष्ट प्रतिपादन है-यह साधुओं को कल्पता है और यह नहीं, ऐसा उल्लेख नहीं है। पहले सूत्र में वस्त्रग्रहण वर्णित है। अब जिसके जो योग्य है, उसके लिए उस उसका परिकथन किया जाता है। ४१०१.निग्गंथोग्गहधरणे, चउरो लहुगा य दोस आणादी। ___ अतिरेगउवहि तह लिंगभेद बितियं अरिसमादी। यदि निर्ग्रन्थ अवग्रहान्तक और पट्ट को धारण करते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होता है। वह अतिरिक्त उपधि होने के कारण अधिकरण भी हो सकता है। तथा लिंगभेद होता है-साध्वी का लिंग धारण किए हुए के समान होता है। द्वितीयपद अर्थात् अपवादपद के अर्श आदि रोग के समय अवग्रहान्तक और पट्टक को धारण किए के समान होता है। ४१०२.भगंदलं जस्सऽरिसा व णिच्चं, गलंति पूर्य लसि सोणियं वा। उड्डाह-सज्झाय-दयाणिमित्तं, सो उग्गहं बंधति पट्टगं च॥ जिसके भगन्दर या अर्श हो और जिनसे नित्य पूत- ४१०५.निग्गंथीण अगिण्हणे,चउरो गुरुगा य आयरियमादी। तच्चण्णिय ओगाहण, णिवारणऽण्णेसि ओहसणं॥ यदि साध्वियां अवग्रहान्तक और पट्टक ग्रहण नहीं करती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि आचार्य प्रस्तुत सूत्र का कथन प्रवर्तिनी को नहीं करते हैं, प्रवर्तिनी आर्याओं को नहीं करती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि आर्यिकाएं इसको स्वीकार नहीं करती हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। अवग्रहान्तक और पट्टक का उपयोग न कर, भिक्षा के लिए गई हुई साध्वी के तच्चन्निक-रुधिर प्रसृत हो गया। अन्य दिवसों में अवग्रहान्तक और पट्टक के कारण वह प्रसृत नहीं हुआ, परन्तु उस दिन प्रसृत रुधिर को देखकर लोग उपहास करने लग जाते हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ = बृहत्कल्पभाष्यम् ४१०६.भिक्खाइ गयाए निग्गयं, जो नटिनी रंगस्थान-नाट्यस्थान में काम करना चाहती रुहिरं दट्ठमसंजता वदे। है, वह प्रारंभ में घर के मध्य लज्जा से अभिनय करती है धिगहो! बत! केणऽयं जणो, और जब कालान्तर में उसकी लज्जा निकल जाती है तब दोसमिणं असमिक्ख दिक्खिओ॥ वह लज्जारहित होकर लोगों के मध्य हावभाव दिखाती हुई भिक्षा के लिए गई हुई साध्वी के रुधिर को प्रसृत होते नर्तन करती है। (उसी प्रकार आर्या भी उपाश्रय में लज्जावश हुए देखकर असंयत व्यक्ति कहते हैं लोगो! देखो, देखो, सुप्रावृत होकर भिक्षाटन करने निकलती है। परंतु तरुणों को किसने स्त्रियों के इस दोष को देखे बिना, उसकी समीक्षा देखकर सहज ही लज्जा को जीत लेती है।) किए बिना, इनको दीक्षित कर डाला। ४१११.असईय णंतगस्स उ, ४१०७.छक्कायाण विराहण, पडिगमणादीणि जाणि ठाणाणि। पणवण्णुत्तिण्णिगा व ण उ गिण्हे। तब्भाव पिच्छिऊणं, बितियं असती अहव जुण्णा।। निग्गमणं पुण दुविहं, तथा शोणित के परिगलित होने पर छह काय की विधि अविही तत्थिमा अविही॥ विराधना होती है। वह साध्वी प्रतिगमन के जो स्थान हैं उनमें अवग्रहान्तक के अभाव में पचपन वर्षों को पार कर चुकी प्रतिगमन करने से प्रवर्तिनी को प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आर्या अवग्रहान्तक आदि को ग्रहण न करे तो भी कोई शोणित के परिगलन भाव को देखकर तरुण व्यक्ति उपसर्ग आपत्ति नहीं है। भिक्षा के लिए निर्गमन के दो प्रकार कर सकते हैं। इसमें अपवादपद यह है कि यदि अवग्रहान्तक हैं-विधियुक्त और अविधियुक्त। अविधि यह हैऔर पट्टक न हो अथवा साध्वी वृद्ध हो तो उनको ग्रहण न ४११२.उग्गहमादीहि विणा, भी करे। दुणियत्था वा वि उक्खुलणियत्था। ४१०८.दिटुं अदिट्ठव्व महं जणेणं, एक्का दुवे य अविही, लज्जाए कुज्जा गमणाइगाई। चउगुरु आणा य अणवत्था॥ लज्जाए भंगो व हवेज्ज तीसे, अवग्रहान्तक के बिना भिक्षा के लिए जाना, उचितरूप के लज्जाविणासे व स किं न कुज्जा ॥. कपड़े न पहनना, कपड़े पहनने में विधि का पालन न करना, साध्वी सोचती है-जनता ने जो मेरा अद्रष्टव्य था उसे एक या दो आर्याओं का इस प्रकार भिक्षा के लिए जाना यह देख लिया है, अतः अब मैं यहां नहीं रह सकती, यह सारी अविधि है। इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग सोचकर वह लज्जावश प्रतिगमन आदि कर लेती है। अथवा तथा अनवस्था दोष प्राप्त होता है। उस आर्या के लज्जा का भंग हो जाने पर वह क्या अनर्थ नहीं ४११३.मिच्छत्त पवडियाए, वाएण व उद्ध्यम्मि पाउरणे। कर सकती? गोयरगया व गहिया, धरिसणदोसे इमे लहति॥ ४१०९.तं पासिउं भावमुदिण्णकम्मा, कोई साध्वी अवग्रहान्तक आदि के बिना भिक्षा के लिए पेल्लेज्ज सज्जेज्ज व सा वि तत्थ। जाती है और आकस्मिकरूप में मूर्छा से नीचे गिर जाती है। तं लोहियं वा वि सरक्खमादी, उसका प्रावरण हवा से उड़कर अस्त-व्यस्त हो जाता है। विज्जा समालब्भऽभिजोययंति॥ तब उसको अपावृत देखकर लोग मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाते उस रुधिर के परिगलनरूप भाव को देखकर कुछेक हैं। गोचराग्र गई हुई किसी आर्या को विट ग्रहण कर लेता है तरुणों के कर्मों की उदीरणा होती है और तब वे उस साध्वी तब वह इन धर्षणदोषों को प्राप्त होती है। (वे दोष ४११६को प्रतिसेवना के लिए प्रेरित करते हैं। तब वह साध्वी भी ४११८ में बताए जायेंगे।) उनसे संग करती है, प्रतिसेवना करती है। अथवा उस ४११४.अड्डोरुगा-दीहणियासणादी, रक्तरंजित साध्वी को कापालिक आदि प्राप्त कर विद्याप्रयोग सारक्खिया होति पदे वि जाव। से उसे वश में कर लेते हैं। तिण्हं पि बोलेण जणोऽभिजातो, ४११०.अंतो घरस्सेव जतं करेती, एक्कंबरा खिप्पमुवेति णासं॥ जहा णडी रंगमुवेउकामा। विधियुक्तगमन के गुण ये हैं-जो आर्या अधोरुक तथा लज्जापहीणा अह सा जणोघं, दीर्घवस्त्र से सुप्रावृत होती है, वह प्रत्येक स्थान पर संरक्षित संपप्प ते ते पकरेति हावे॥ होती है। तथा तीन आर्याओं के चिल्लाने से अभिजात-शिष्ट Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = = ४२३ व्यक्ति एकत्रित हो जाते हैं। जो आर्या एक वस्त्र धारण कर होने पर भी शीलरहित और लज्जाहीन हो तो वह शोभित निर्गमन करती है वह शीघ्र ही संयम से भ्रष्ट हो जाती है। नहीं होती।) ४११५.उव्वेल्लिए गुज्झमपस्सतो से, ४११९.पट्टड्ढोरुय चलणी, अंतो तह बाहिरा णियंसणिया। हाहक्कितस्सेव महाजणेणं। संघाडि खुज्जकरणी, अणागते चेव सतिकाले॥ धिद्धि त्ति ओथुक्ति-तालियस्सा, पट्ट, अधोरुक, चलनिका, अंतर्निवसनी और बहिर्निवसनी पत्तो समं रणदवो व वेदो॥ संघाटिका, कुब्जकरणी आदि उपकरणों से भिक्षा-काल से विधियुक्त निर्गमन करने वाली आर्या को यदि कोई पहले ही आर्या को प्रावृत रहना चाहिए। उद्वेलित करता है, बाह्य वस्त्रों को अपसृत कर देता है ४१२०.उग्गहणमादिएहिं, अज्जाओ अतुरियाउ भिक्खस्स। परन्तु जब तक वह आर्या के गृह्य प्रदेश को नहीं देख लेता . जोहो ब्व लंखिया वा, अगिण्हणे गुरुग आणादी॥ तब तक आर्या द्वारा हाहाकार करने पर, महाजनों द्वारा उस साध्वियां भिक्षा के लिए अनातुर रहती हुई अवग्रहान्तक व्यक्ति को ओथुक्कित-अत्यन्त धिक्कार दिए जाने पर तथा आदि उपकरणों से स्वयं को भावित रखती है। जैसे योद्धा ताड़ित किए जाने पर, उस व्यक्ति का मोहोदय अरण्य के संग्राम के लिए जाते समय कवच आदि से सुसन्नद्ध होता है दावानल की भांति शांत हो जाता है। तथा नटिनी रंगभूमी में प्रवेश करने से पूर्व अपने आपको ४११६.तत्थेव य पडिबंधो,पडिगमणादीणि जाणि ठाणाणि।। सुसज्जित करती है वैसे ही आर्या भी अवग्रहान्तक आदि डिंडी य बंभचेरे, विधिणिग्गमणे पुणो वोच्छं॥ से सुप्रावृत होकर उपाश्रय से बाहर निकलती है। ऐसा न वह साध्वी जिस कारण से (अविधिनिर्गमन आदि) धर्षित करने से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होती है उसी के प्रति अनुरक्त हो जाती है और वह प्रतिगमन प्राप्त होते हैं। आदि जितने स्थानों का सेवन करती है, उनसे निष्पन्न ४१२१.जोहो मुझंडजड्डो, णाडइणी लंखिया कतलिखंभो। प्रायश्चित्त प्रवर्तिनी को वहन करना पड़ता है। यदि वह आर्या अज्जाभिक्खग्गहणे, आहरणा होति णायव्वा।। ऋतुसमय में गृहीत हो तो डिंडिमबंध हो सकता है। ब्रह्मचर्य आर्या के भिक्षाग्रहण के समय जिन उपकरणों का प्रावरण की विराधना तो होती ही है। विधियुक्त निर्गमन करने के होता है, तत्संबंधी पांच उदाहरण हैं-१. योद्धा २. मुरुंड अनेक गुण कहूंगा। राजा का हाथी ३. नर्तकी ४. नटिनी ५. केले का तना। ४११७.न केवलं जा उ विहम्मिआ सती, ४१२२.वणिओ पराजितो मारिओ व संखे अवम्मितो जोहो। सवच्चतामेति मधूमुहे जणे। सावरणे पडिपक्खो, भयं च कुरुते विवक्खस्स॥ उवेति अन्ना वि उ वच्चपत्ततं, जो योद्धा संग्राम में अवर्मित होकर जाता है, वह व्रणित, अपाउता जा अणियंसिया य॥ पराजित होता है या मारा जाता है। और जो योद्धा इसके केवल वही आर्या जो शीलव्रत से च्यावित कर दी गई है, प्रतिपक्ष में अर्थात् वर्मित होकर संग्राम में प्रवेश करता है वह मधुमुख-दुर्जन लोगों में सवाच्यता-कलंकित नहीं होती न व्रणित होता है और न पराजित होता है और न मारा जाता किन्तु अन्य साध्वियां भी 'वाच्यपात्रता'-निन्दनीय योग्यता है। प्रत्युत वह शत्रुओं के लिए भय पैदा करता है। इसी को प्राप्त होती हैं। तथा लोग उनको भी कलंकित करते हैं जो प्रकार आर्या भी उचित उपकरणों से प्रावृत हुए बिना निर्गमन साध्वियां अप्रावत और जो अनिवसित-सही ढंग से कपड़े करती है तो वह तरुणों द्वारा उपद्रुत होती है। सुप्रावृत आर्या पहने हुए न हों। उनके लिए अगम्य होती है। ४११८.ण भूसणं भूसयते सरीरं, ४१२३.विहवससा उ मुरुंडं, आपुच्छति पव्वयामऽहं कत्थ। ___ विभूसणं सील हिरी य इत्थिए। पासंडे य परिक्खति, वेसग्गहणेण सो राया।। गिरा हि संखारजुया वि संसती, ४१२४.डोंबेहिं च धरिसणा, माउग्गामस्स होइ कुसुमपुरे। अपेसला होइ असाहुवादिणी॥ उब्भावणा पवयणे, णिवारणा पावकम्माणं ।। कोई आभूषण शरीर को भूषित नहीं करते। स्त्रियों का ४१२५.उज्झसु चीरे सा यावि णिवपहे मुयति जे जहाबाहिं। आभूषण है शील और लज्जा। संस्कारयुक्त वाणी भी यदि उच्छूरिया णडी विव, दीसति कुप्पासगादीहिं। सभा में असाधुवादिनी होती है तो वह शोभित नहीं होती। ४१२६.धिद्धिक्कतो य हाहक्कतो य लोएण तज्जितो मेंठो। (इसी प्रकार स्त्री भी यदि विविध आभूषणों से भूषित ओलोयणहितेण य, णिवारितो रायसीहेण। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ = =बृहत्कल्पभाष्यम् मुरुंड राजा का हाथी वाली हो तो भी उसका परित्याग नहीं करना चाहिए। कुसुमपुर नगर के राजा मुरुंड की बहिन विधवा थी। शय्यातर या स्वयं उसकी यथोचित क्रिया संपादित करनी उसने एक दिन राजा से पूछा-मैं कहां प्रव्रजित होऊं? तब चाहिए। राजा पाषंडियों का वेश ग्रहण कर उसकी परीक्षा करनी ४१३०.विहिणिग्गता उ एक्का, गोयरियाए गहिता गिहत्थेहिं। चाही। उसने अपने महावतों को आदेश दिया कि कुसुमपुर संवरियपभावेण य, फिडिया अविराहियचरित्ता।। में पाषंडियों की स्त्रियों की धर्षणा करो। उनसे एक कोई आर्या उपाश्रय से विधिपूर्वक निर्गमन कर कहो-राजाज्ञा है। सभी स्त्रियां कपड़ों को उतारकर यहां गोचरचर्या में घूम रही है। गृहस्थों ने उसे पकड़ लिया। रख दो, अन्यथा हाथी के पैरों तले कुचल दी जाओगी। भय उसके सुप्रावरण के प्रभाव से गृहस्थ उसके चारित्र की-शील के कारण वे सभी स्त्रियां अपने कपड़े उतार कर नग्न हो की विराधना नहीं कर सके। वह वहां से छिटक गई। गईं। इतने में ही एक साध्वी राजपथ पर आ गई। महावत ४१३१.लोएण वारितो वा, दह्रण सयं व तं सुणेवत्थं। ने उससे भी कपड़े उतारने के लिए कहा। साध्वी ने एक सुद्दिलु तुवसंतो, सविम्हओ खामयति पच्छा। एक कर सारे बाह्य कपड़े उतार दिए। जब वह (नटी की एक व्यक्ति आर्या को धर्षित कर रहा था तब लोगों ने भांति) कंचुकी आदि से सुप्रावृत दीखी तब लोगों ने उसे वारित किया अथवा स्वयं उसने आर्या को सुप्रावृत आक्रन्द किया और धिक्कार करते हुए हाहाकार किया और देखकर, इनका धर्म सुदृष्ट है ऐसा सोचकर वह उपशांत महावत की तर्जना की। गवाक्ष में बैठे राजा ने यह सारा हो गया और आश्चर्यचकित होकर उसने आर्या से दृश्य देखा, महावत की निवारणा की। तब राजा ने क्षमायाचना की। अपनी विधवा बहिन को अर्हत् तीर्थ में प्रव्रजित होने की ४१३२.णाभोग पमादेण व, असती पट्टस्स णिग्गया गहणे। अनुज्ञा दी। विहिणिग्गतमाहच्च व, बाहाडितधाडणे गुरुगा। ४१२७.पाए वि उक्खिवंती, न लज्जती पट्टिया सुणेवत्था। कोई आर्या अनाभोग अर्थात् अत्यन्त विस्मृति अथवा उच्छूरिया व रंगम्मि लंखिया उप्पयंती वि॥ प्रमाद के कारण अथवा अवग्रहपट्ट के अभाव में भिक्षा के जैसे सुनेपथ्य वाली नर्तकी पैरों को ऊपर उछालती हुई। लिए निर्गत हुई, इस प्रकार किसी ने उसे पकड़ लिया, भी लज्जित नहीं होती तथा नटिनी रंगभूमी में अनेक प्रकार अथवा विधिपूर्वक निर्गत आर्या को कदाचित् किसी ने पकड़ के करतब दिखाती हुई भी यदि 'उच्छूरित'-सुप्रावृत होती है लिया तो गुरु के पास आकर निवेदन करना चाहिए। तो लज्जित नहीं होती, इसी प्रकार आर्या भी सुप्रावृत होने वह यदि प्रसवधर्मा हो गई हो और कोई यदि उसे पर लज्जित नहीं होती। निष्काशित कर देता है तो उसे चतर्गरु का प्रायश्चित्त प्राप्त ४१२८.कयलीखंभो व जहा, उव्वेल्लेउं सुदुक्करं होति। होता है। ___इय अज्जाउवसग्गे, सीलस्स विराहणा दुक्खं॥ ४१३३.निज्जूढ पदुट्ठा सा, भणेइ एतेहिं चेव कतमेतं। जैसे बहुलपटल वाले कदली स्तम्भ के पटलकों को राय-गिहीहि सयं वा, तं च पसासंति मा बितियं॥ उधेड़ने में अत्यंत कष्ट होता है, वैसे ही अनेक उपकरणों से निष्काशित होकर वह साधुसंघ के प्रति प्रद्विष्ट हो प्रावृत आर्यिका को उपसर्गित करने वाले व्यक्ति के लिए सकती है और कहने लगती है कि इन साधुओं ने ही मेरे उसके शील की विराधना करना दुष्कर होता है। साथ ऐसा किया है। जिस व्यक्ति ने उस आर्या के साथ ऐसा ४१२९.एक्का मुक्का एक्का य धरिसिया अनर्थ किया है, राजा उस पर अनुशासन करता है या गृहस्थ णिवेदण जतणाय होति कायव्वा। उसे शिक्षा देते हैं या आचार्य यदि समर्थ हों तो वे स्वयं बाहाड न जहितव्वा, उस व्यक्ति पर शासन करते हैं, जिससे कि वह पुनः ऐसा सेज्जतरादी सयं वा वि॥ एक कोई आर्या सुप्रावत होकर विधिपूर्वक उपाश्रय से निर्गत हुई। वह दूसरों द्वारा गृहीत होने पर भी मुक्त हो गई। सब्भावे सिं कहिते, सारिती जा थणं पियती॥ दूसरी आर्या विधिपूर्वक निर्गत न होने के कारण धर्षित हो वह प्रसूता साध्वी दो प्रकार की होती है-ज्ञातगर्भवाली गई। सभी आर्यिकाएं यतना को नहीं जानतीं, इसलिए गुरु और अज्ञातगर्भवाली। जो अज्ञातगर्भा है उसे अगीतार्थ मुनि को निवेदन करना चाहिए। यदि वह धर्षित आर्या प्रसव करने न जान पाए ऐसे संज्ञी गृहस्थों के कुलों में स्थापित करते हैं। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक उन श्रावकों को वस्तुस्थिति से अवगत करा दिया जाता है। वे उसकी पालना तब तक करते हैं जब तक उसके द्वारा प्रसूत शिशु स्तन्यपान करता है। ४१३५. जत्य उ जणेण णातं, उवस्सए चेव तत्थ ण य भिक्खं । किं सक्का छड्डेउ, बेंति अगीते असति सहे । जनता ने जिसके गर्भ को जान लिया उस आर्या को उपाश्रय में ही रखा जाता है। उसे भिक्षा के लिए नहीं भेजा जाता अन्य साध्वियां उसका पोषण करती हैं। अगीतार्थ कहते हैं - ऐसे संग्रह से क्या प्रयोजन ? आचार्य कहते हैं-क्या उस स्थिति में उसको छोड़ना शक्य हो सकता है? यदि वे अगीतार्थ इसे स्वीकार नहीं करते तो श्रावकों को प्रज्ञापित करते हैं। ४१३६. दुरतिक्कमं खु विधियं, अवि य अकामा तवस्सिणी गहिता । को जाणति अण्णस्स वि, हवेज्ज तं सारवेमो णं ॥ यह स्थिति दुरतिक्रम है। क्योंकि किसी दुरात्मा ने आर्या के साथ ऐसा अनर्थ कर डाला। उसके न चाहने पर भी बलात् उस पापात्मा ने उस तपस्विनी आर्या के साथ ऐसा कुकर्म कर डाला तो कौन जान सकता है कि अन्य आर्या के साथ भी ऐसा वृत्तान्त न हो। इसलिए वर्तमान में हम इस आर्या की परिपालना करते हैं। ४१३७. माय अवण्णं काहिह, किं ण सुतं केसि - सच्चईणं भे । जम्मं ण य वयभंगो, संजातो तासि अज्जाणं ॥ इस आर्या की अवज्ञा न करें। क्या केशि और सत्यकी के जन्म के विषय में नहीं सुना ? उन दोनों आर्याओं का व्रतभंग भी नहीं हुआ।" , ४१३८. अवि य हु इमेहिं पंचहिं, ठाणेहिं थी असंक्रांती वि। पुरिसेण लभति गन्धं लोएण वि गाइयं एयं ॥ इन पांच स्थानों से स्त्री पुरुष के साथ असंवास करती हुई भी गर्भ को धारण करती है। हम ही ऐसा नहीं कहते लोग भी यही कहते हैं। ४१३९. दुव्वियड- दुण्णिसण्णा, वत्थे वा संसट्टे, सयं परो वा सि पोग्गले छुभति । ४२५ वे पांच स्थान ये हैं १. नग्न अवस्था में विरूपतया उपविष्ट स्त्री, पुरुष द्वारा निसृष्ट आसनस्थ शुक्रपुद्गलों को ग्रहण करने पर । २. स्वयं शुक्रपुद्गलों को योनि में प्रवेश कराने पर ३. दूसरा कोई उसकी योनि में शुक्रपुद्गलों का प्रक्षेप करने पर । ४. शुक्रपुद्गलों से संसृष्ट वस्त्र का योनि से स्पृष्ट हो पर । ५. पूर्वपतित शुक्रपुद्गल युक्त पानी से आचमन (शौच ) करने पर। वे पुद्गल योनि में प्रवेश कर लेते हैं। ४१४०. अविदिय जण गब्भम्मि य, लार्केति फासूपणं, लिंगविवेगो य जा पिवति ॥ लोगों को आर्या के गर्भ की जानकारी न होने पर आचार्य उस आर्या को श्रावक, यथाभद्रक गृहस्थों के घर में, उसी गांव में या अन्यत्र ग्राम में स्थापित करते हैं। वे श्रावक आदि उस आर्या का प्रासुक अन्न-जल से निर्वाह करते हैं। जब तक प्रसूत संतति स्तन्यपान करती है तब तक उस आर्यों का लिंगविवेक कर देना चाहिए। सणीमादीसु तत्थ वऽण्णत्था । ४१४१. एएसिं असतीए, सण्णायम णालबद्धकित फासुं। अण्णो वि जो परिणतो, स सिद्धवेसेतरीऽगारी ॥ यदि गांव में श्रावक आदि न हों तो आर्या को उसके संज्ञातक के घर में रखा जाए। यदि वहां संज्ञातक भी न हो तो जो नालबद्ध वृद्ध मुनि हो तो उसको श्रावक का वेष धारण कराकर, आर्या को गृहस्थ वेश कराकर दोनों साथ रहे और प्रासुक आहार पानी से निर्वाह करे। यदि नालबद्ध संयत न हो तो अन्य गृहस्थ जो परिणत हो, उसे सिद्धपुत्रवेश धारण कराकर, आर्या को गृहस्थ वेश धारण कराकर स्थापित करे। ४१४२. मूलं वा जाव थणा, छेदो छम्गुरुग जं च धालहुअं वितियपदे असतीए, उवस्सए वा अहव जुण्णा ॥ यदि वह आर्या प्रतिसेवना काल में हर्षित हुई हो तो मूल, गर्भ रहा है यह जानकर प्रसन्न हुई हो तो छेद, अपत्य हुआ है, यह जानकर हर्षित हुई हों तो षदगुरु प्रायश्चित्त आता है। यदि वह किसी भी स्थिति में हर्षित दगआयमणेण वा पविसे ॥ १. इनकी कथानक पंचकल्प और आवश्यक टीका में है। -दो आर्यिकाओं से इनका जन्म हुआ। आर्याओं ने पुरुष का संवास नहीं किया। फिर भी संयोगवश शुक्रबीज योनि में प्रविष्ट हुआ और दोनों ने प्रसव कर डाला । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ =बृहत्कल्पभाष्यम् नहीं होती तो यथालघु प्रायश्चित्त का विधान है। जब तक वत्थगहण-पदं उसका अपत्य स्तन्य-पानोपजीवी होता है तब तक उस आर्या को तपोर्ह प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। अपवादपद निग्गंथीए य गाहावइकुलं में अवग्रहान्तक के अभाव में, उपाश्रय में रहती हुई पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठाए चेलद्वे अथवा वृद्ध आर्या हो तो अवग्रहान्तक को ग्रहण न भी कर समुप्पज्जेज्जा, नो से कप्पइ अप्पणो सकती है। नीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए, कप्पइ से ४१४३.सेविज्जते अणुमए, मूलं छेओ तु डिंडिमं दिस्स। पवत्तिणिनीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए। होहिति सहातगं मे, जातं दट्ठण छग्गुरुगा॥ प्रतिसेवना का अनुमोदन करने पर मूल, गर्भ को देखकर नो तत्थ पवत्तिणी सामाणा सिया जे हर्षित होने पर छेद, होने वाला पुत्र मेरा सहायक होगा, यह तत्थ सामाणे आयरिए वा उवज्झाए वा मानने पर षड्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। पवत्ती वा थेरे वा गणी वा गणधरे वा ४१४४.तेण परं चउगुरुगा, छम्मासा जा ण ताव पूरिंति। गणावच्छेइए वा, जं चण्णं पुरओ कट्ट जा तु तवारिह सोही, अणवत्थणिते ण तं देती। विहरइ कप्पइ से तन्नीसाए चेलं प्रसव के अनन्तर छह मास जब तक पूरे नहीं होते तब पडिग्गाहित्तए॥ तक वह आर्या जहां जहां आनंदित होती है, उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। जब तक उसका अपत्य स्तन्यपान (सूत्र १३) से विरत नहीं हो जाता तब तक उसे तपोर्ह प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। ४१४८.नियमा सचेल इत्थी, चालिज्जति संजमा विणा तेणं। ४१४५.मेहुण्णे गब्भे आहिते य सातिज्जियं जति ण तीए। उग्गहमादीचेलाण गेण्हणे तेण जोगोऽयं ।। परपच्चया लहुसगं, तहा वि से दिति पच्छित्तं॥ नियमतः स्त्री-निर्ग्रन्थी सचेल ही होती हैं। वस्त्रों के बिना प्रतिसेव्यमान मैथुन के समय तथा गर्भ रह जाने पर भी वह संयम से च्युत हो जाती है। यह प्रस्तुत सूत्र में बताया उस आर्या ने उसका अनुमोदन नहीं किया, फिर दूसरों के गया है। इसलिए अवग्रहान्तक आदि वस्त्रों के ग्रहण की प्रत्यय के लिए आचार्य उसे लघु प्रायश्चित्त देते हैं। विधि बताई जाती है। यही इस सूत्र का योग है, संबंध है। ४१४६.खिसाए होति गुरुगा, ४१४९.चेलेहि विणा दोसं, णाउं मा ताणि अप्पणा गेण्हे। लज्जा णिच्छक्कतो य गमणादी। तत्थ वि ते च्चिय दोसा, तव्वारणकारणा सुत्तं।। दप्पकते वाऽऽउट्टे, वस्त्रों के बिना आर्या के अनेक दोष होते हैं, यह जानकर जति खिसति तत्थ वि तहेव॥ वे आर्याएं स्वयं वस्त्र ग्रहण न करें। क्योंकि स्वयं वस्त्र ग्रहण जो उस आर्या की खिंसना करता है उस मुनि या साध्वी करने में वे ही दोष होते हैं जो पहले वस्त्र के ग्रहण न करने को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तिरस्कृत होने पर पर होते हैं। प्रस्तुत सूत्र स्वयं के ग्रहण का प्रतिषेध करने के वह आर्या लज्जा से प्रतिगमन कर सकती है अथवा और लिए है। अधिक निर्लज्ज हो सकती है। अथवा दर्प से उसने ४१५०.सयगहणं पडिसेहति, चेलग्गहणं ण सव्वसो तासिं। प्रतिसेवना की, फिर आलोचना आदि कर प्रतिनिवृत्त हो गई। संडासतिरो वण्ही, ण डहति कुरुए य किच्चाई॥ उस आर्या की भी जो कोई खिंसना करता है, वह भी चतुर्गुरु प्रस्तुत सूत्र स्वयं के ग्रहण का प्रतिषेध करता है, न प्रायश्चित्त का भागी होता है। सर्वथा उनके वस्त्रों का प्रतिषेध करता है। संडासी से गृहीत ४१४७. उम्मग्गेण वि गंतुं, ण होति किं सोतवाहिणी सलिला।। अग्नि नहीं जलाती प्रत्युत धान्य पकाना आदि अनेक कार्य कालेण फुफुगा वि य, विलीयते हसहसेऊणं॥ करती है। इसी प्रकार आर्याओं के लिए साधुओं द्वारा वस्त्रक्या उन्मार्ग में बहने वाली नदी स्रोतोवहिनी-मार्गगामी ग्रहण दूषित नहीं होता, प्रत्युत वह उनकी साधुचर्या में नहीं होती? जाज्वल्यमान करीषाग्नि भी कालान्तर में विलीन सहायक होता है। हो जाती है। वैसे ही उद्दीप्त कामाग्नि भी कालान्तर में ४१५१.चेलद्वे पुव्व भणिते, पडिसेहो कारणे जहा गहणं। उपशांत हो जाती है। णवरं पुण णाणत्तं, णीसागहणं ण उ अणीसा॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = %D ४२७ __पूर्व अर्थात् प्रथम उद्देशक में वस्त्र विषयक जो चर्चा है ४१५६. वत्थेहि वच्चमाणी, दाएंती वा वि उयध वत्थे मे। तथा आर्याओं को स्वयं वस्त्र-ग्रहण करने का प्रतिषेध किया मच्छरियाओ बेंती, धिरत्थु वत्थाण तो तुज्झं। गया है और कारण में ग्रहण करने की अनुज्ञा है, उसी ४१५७.हिंडामो सच्छंदा, णेव सयं गेण्हिमो य पवयामो। प्रकार यहां भी समझना चाहिए। यहां विशेष इतना ही है कि ण य जं जणो वियाणति, कम्मं जाणामो तं काउं॥ यदि आर्याएं स्वयं वस्त्रग्रहण करती हैं तो वे किसी की कोई आर्यिका गौरववश वस्त्रों से अपने-आपको ख्यापित निश्राय में करें, अनिश्राय में नहीं। (वृत्तिकार ने निश्रा को इस करती है, अथवा स्वयं आनीत वस्त्रों को दिखाती हुई कहती प्रकार समझाया है-आर्या प्रवर्तिनी को वस्त्रदाता के विषय में है-'उयह'-देखो-मेरे वस्त्रों को। दूसरी आर्यिकाएं मत्सरवश बताती है। प्रवर्तिनी गणधर को निवेदन करती है। गणधर कहती हैं-धिक्कार है तुमको तथा तुम्हारे वस्त्रों को जो तुम स्वयं जाकर वस्त्र को परीक्षाशुद्ध कर ग्रहण करता है। यह स्वयं की इतनी प्रशंसा कर रही हो। तुम जैसे स्वच्छंद घूमती निश्रा है।) हो, वैसे हम नहीं घूमतीं और न हम स्वयं वस्त्र ग्रहण करती ४१५२.आयरिओ गणिणीए, हैं और न आत्मश्लाघा करती हैं। तुम जैसे कंटल आदि कर्म पवत्तिणी भिक्खणीण ण कधेति।। करना जानती हो वैसा कर्म हम नहीं जानतीं। गुरुगा लहुगा लहुगो, ४१५८.जम्हा य एवमादी, दोसा तासिं तु गिण्हमाणीणं । तासिं अप्पडिसुणंतीणं। तम्हा तासि णिसिद्धं, वत्थग्गहणं अणीसाए। आचार्य यदि प्रस्तुत सूत्र को गणिनी को नहीं बताते हैं तो आर्याओं के वस्त्र-ग्रहण के ये दोष होते हैं इसीलिए चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी यदि भिक्षुणियों को अनिश्रा से वस्त्र-ग्रहण आर्याओं के लिए निषिद्ध है। नहीं कहती है जो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। जो भिक्षुणियां ४१५९.सुत्तं णिरत्थगं खलु, कारणियं तं च कारणमिणं तु। इसे स्वीकार नहीं करतीं, उनको मासलघु का प्रायश्चित्त है। असती पाउग्गे वा, मन्नक्खो वा इमा जतणा॥ ४१५३.मिच्छत्ते संकादी, विराहणा लोभे आभियोगे य। शिष्य ने कहा-तब तो यह सूत्र निरर्थक है। सूरी कहते तुच्छा ण सहति गारव, भंडण अट्ठाणठवणं च॥ हैं-यह सूत्र कारणिक है। कारण यह है-आर्याओं के वस्त्र पुरुष द्वारा आर्याओं को वस्त्र देते हुए देखकर शैक्ष को नहीं हैं अथवा प्रायोग्य वस्त्र नहीं हैं अथवा आर्याओं के मिथ्यात्व आ सकता है, शंका आदि दोष हो सकते हैं। संज्ञातकों में 'मन्नक्खो'-महान् दौर्मनस्य हो जाता है तब यह विराधना, वस्त्रदान से प्रलोभन, अभियोग, तुच्छ होने के यतना करनी होती है। कारण गौरव को सहन नहीं कर पाती, भंडण, अस्थानस्थापन ४१६०.तरुणीण य पव्वज्जा, णियएहिं णिमंतणा य वत्थेहिं। आदि होते हैं। (व्याख्या आगे के श्लोकों में) पडिसेहण णिब्बंधे, लक्खण गुरुणो णिवेदेज्जा। ४१५४.इत्थी वि ताव देंती, संकिज्जइ किं णु केणति पयुत्ता। किसी आचार्य के पास अनेक तरुण स्त्रियों ने प्रव्रज्या किं पुण पुरिसो देंतो, परिजुण्णाई पि जुण्णाए॥ ग्रहण की। दूरस्थ देश में विहरण कर पुनः उसी गांव में स्त्री भी यदि आर्या को वस्त्र देती है तो यह शंका होती है आचार्य का आगमन हुआ। तब उन तरुण साध्वियों के कि क्या किसी कामुक व्यक्ति से प्रेरित होकर यह वस्त्र दे संबंधियों ने वस्त्र लेने के लिए निमंत्रण दिया। साध्वियों ने रही हैं या धर्मार्थ ? पुरुष की तो बात ही क्या ? यदि वह कहा-हमें वस्त्र लेना नहीं कल्पता। अत्यन्त आग्रह करने पर जीर्ण वस्त्र भी वृद्ध आर्या को देता है तो भी शंका का स्थान उन ज्ञातिजनों से कहे-हमारे गुरु ही वस्त्र के लक्षणों को बना रहता है। जानते हैं, इसलिए हम गुरु को निवेदन करेंगी। ४१५५.नामिज्जइ थोवेणं, जच्चसुवण्णं व सारणी वा वि। ४१६१.थेरा परिच्छंति कधेमु तेसिं, अभियोगियवस्थेण व, कड्डिज्जइ पट्टए नातं॥ णाहेति ते दिस्स अजोग्ग जोग्गं। जात्यस्वर्ण और सारणी-नौका या नाला थोड़े से प्रयत्न पिच्छामु ता तस्स पमाण-वण्णे, से मुड़ जाता है, वैसे ही आर्या भी थोड़े से वस्त्र आदि के तो णं कधेस्सामो तहा गुरूणं॥ दान से प्रलुब्ध हो जाती है। अथवा वस्त्र मंत्र आदि के ४१६२.सागारऽकडे लहुगो, बल से आभियोगिक वशीकरण योग्य किया गया हो, उस गुरुगो पुण होति चिंधऽकरणम्मि। वस्त्र को लेने से वह आर्या उसके अभिमुख आकर्षित गणिणीअसिढे लहुगा, हो जाती है। यहां पट्टक का दृष्टांत है। (देखें-गाथा २८१९) गुरुगा पुण आयनीसाए। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् ४२८ आचार्य वस्त्र की परीक्षा करेंगे, इसलिए हम उनको कहेंगी। वे वस्त्र को देखते ही हमारे वह योग्य है अथवा अयोग्य-यह जान लेंगे। परन्तु हम उस वस्त्र का प्रमाण और वर्ण पहले देख लें। फिर हम गुरु को उसका प्रमाण और वर्ण बतायेंगी। इस प्रकार वह वस्त्र साकारकृत कहलाता है। ऐसा न करने पर मासलघु। साकारकृत करके यदि प्रमाण और वर्ण से चिन्हित नहीं करते हैं तो मासगुरु। यदि गणिनी के समक्ष उस वस्त्र का प्रमाण और वर्ण को नहीं कहती हैं तो चतुर्लघु और यदि स्वनिश्रा से स्वयं उस वस्त्र को ग्रहण करती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ४१६३.जइ भे रोयति गिण्हध, ण वयं गणिणिं गुरुं व जाणामो। इय वि भणिया वि गणिणो, कधेति ण य तं पडिच्छंति॥ गृहस्थ कहते हैं-यदि आपको यह वस्त्र रुचिकर लगता हो तो आप इसे ग्रहण करें। हम न तो गुरुणी को जानते हैं और न आचार्य को। फिर भी वे साध्वियां जाकर आचार्य को कहती हैं। परंतु वे स्वयं वस्त्र-ग्रहण नहीं करतीं। ४१६४.कतरो भे णत्थुवधी, जो दिज्जउ भणह मा विसूरित्था। पुव्वुप्पण्णो दिज्जति, तस्सऽसतीए इमा जयणा॥ आचार्य उन आर्याओं को कहते हैं-'बताओ, तुम्हारे पास कौनसी उपधि नहीं है, जो दी जा सकती है। उपधि के बिना खिन्न मत होओ।' तब वे आर्याएं जिस उपधि का अभाव है, उसको कहती हैं। वह यदि पहले प्राप्त है तो आचार्य उसे देते हैं। यदि वह प्राप्त न हो तो यह यतना है। ४१६५.नाऊण या परीत्तं, वावारे तत्थ लद्धिसंपण्णे। गंधड्ढे परिभुत्ते, कप्पकते दाण गहणं वा॥ साध्वियों के पास उपधि का परीत्त अभाव जानकर आचार्य लब्धिसंपन्न मुनियों को उस उपधि की प्राप्ति के लिए व्यापृत करते हैं। वे मुनि वस्त्र लाकर आचार्य को समर्पित करते हैं। वे वस्त्र सुगंधित और परिभुक्त हो सकते हैं। उनका कल्प कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह है-उन वस्त्रों को प्रक्षालित कर सात दिनों तक वैसे ही रखना चाहिए। यदि उनमें कोई विकृति न हो तो गणधर उन वस्त्रों को प्रवर्तिनी को दे दे और फिर प्रवर्तिनी के हाथों से आर्याएं ग्रहण करे। ४१६६.गुरुस्स आणाए गवेसिऊणं, वावारिता ते अहछंदिया वा। दुधापमाणेण जहोदियाई, गुरूण पाएसु णिवेदयंति॥ गुरु द्वारा व्याप्त अथवा यथाच्छन्दिक (आभिग्रहिकी) मुनि-दोनों आचार्य की आज्ञा से वस्त्रों की गवेषणा करते हैं और द्विधाप्रमाण-गणनाप्रमाण और प्रमाणप्रमाण से भगवान के कथनानुसार वस्त्रों को लाकर गुरु के चरणों में निवेदित करते हैं। ४१६७.गंधड्ड अपरिभुत्ते, वि धोविउं देति किमुअ पडिपक्खे। गणिणीए णिवेदेज्जा, चतुगुरु सय दाण अट्ठाणे॥ जो गंधाढ्य वस्त्र हैं और अपरिभुक्त हैं, फिर भी उन्हें धोकर आर्याओं को देते हैं तो फिर परिभुक्त वस्त्रों की तो बात ही क्या? स्थविर मुनि सात दिनों तक उन प्रक्षालित वस्त्रों का उपभोग करते हैं और जब यह निश्चय हो जाता है कि ये वस्त्र आभियोगकृत नहीं हैं, तो गणधर उनको प्रवर्तिनी को समर्पित करते हैं। प्रवर्तिनी आर्याओं को वे वस्त्र देती है। यदि गणधर स्वयं आर्याओं को वे वस्त्र देते हैं तो उनको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। किसी एक साध्वी को वस्त्र देते हैं तो शेष साध्वियां अस्थान में स्थापित हो जाती है। अन्य साध्वियों के मन में शंका भी होती हैं। ४१६८.इहरह वि ताव मेहा, माणं भंजंति पणइणिजणस्स। किं पुण बलाग-सुरचाव-विज्जुपज्जोविया संता।। इतरथा अर्थात् बलाका और इंद्रधनुष्य के बिना भी मेघ गगनमंडल में आकर गर्जन करते हुए प्रणयीजन के मान का भंजन करते हैं। उन मेघों की तो बात ही क्या जो बलाका, इन्द्रधनुष्य तथा विद्युत् से प्रद्योतित होते हैं? वे तो निश्चित ही प्रणयीजन के मान का भंजन करते ही हैं। (इसी प्रकार गणधर द्वारा एक साध्वी को वस्त्र देते हुए देखकर अन्य साध्वियां स्वयं को अपमानित समझती हैं।) ४१६९.दुल्लभवत्थे व सिया,आसण्णणियाण वा वि णिब्बंधे। पुच्छंतऽज्जं थेरा, वत्थपमाणं च वण्णं च। वह प्रदेश दुर्लभवस्त्र वाला हो सकता है। साध्वियों के अतीव निकट के संबंधियों ने वस्त्र के लिए उन्हें निमंत्रित किया हो। उनके आग्रह को टाला नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में आचार्य आर्या को वस्त्र का प्रमाण और वर्ण के विषय में पूछते हैं। आर्या कहती है४१७०.सेयं व सिंधवण्णं, अहवा मइलं च ततियगं वत्थं । तस्सेव होति गहणं, विवज्जए भाव जाणित्ता। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = एक वस्त्र श्वेत है, दूसरा सैन्धव वर्ण वाला है और तीसरा मलिन है। तब आचार्य स्वयं वहां जाते हैं और उसी वस्त्र को ग्रहण करते हैं। वे गृहस्थ आचार्य को अन्य वस्त्र दिखाते हैं, तब आचार्य उनके भावों को जानकर अन्य वस्त्रों को ग्रहण न करे। ४१७१.पुव्वगता भे पडिच्छह, अम्हे वि य एमु ता तहिं गंतुं। गुरुआगमण कधेत्ता, णीणावेंताऽऽगते तम्मि॥ आचार्य प्रवर्तनी से कहते हैं-तुम वहां पहले जाओ और हमारी प्रतीक्षा करो। हम भी वहीं आ रहे हैं। आर्याएं गृहस्थ के घर जाकर गुरु के आगमन की बात कहती हैं और गुरु के आने पर उस गृहस्थ से कहती हैं-उन वस्त्रों को निकालो, जिनके लिए तुमने हमको निमंत्रित किया था। ४१७२.अन्नं इंद ति पुट्ठा, भणंति किह तुब्भ तारिसं देमो। _ इति भद्दे पंतेसु तु, धुणंति सीसं ण तं एतं॥ तब आचार्य कहते हैं-'ये वस्त्र वे नहीं हैं, जिनके लिए तुमने आर्याओं को निमंत्रित किया था।' यह पूछने पर गृहस्थ कहते हैं-'आचार्य! आपको वैसे वस्त्र कैसे दें?' इस प्रकार भद्र श्रावक कह सकते हैं और वर्णाढ्य वस्त्र प्रस्तुत करते हैं। जो प्रान्त श्रावक वर्णाढ्य वस्त्र देना चाहें तो आचार्य अपना शिर धुनते हैं और कहते हैं-ये वे वस्त्र नहीं हैं जो आर्याओं को दिखाए थे। ४१७३.बहु जाणिया ण सक्का, वंचेउं तेसि जाणिउं भावं। णेच्छंति भद्दएसु तु, पहठ्ठभावेसु गेण्हति॥ तब वे गृहस्थ सोचते हैं-अरे! ये आचार्य तो बहुत जानते हैं। हम इनको नहीं ठग सकते। आचार्य भी उन दाताओं के भावों को जानकर वस्त्र-ग्रहण करना नहीं चाहते। प्रसन्नभाव वाले भद्रक श्रावकों से वस्त्र-ग्रहण करते हैं। ४१७४.न वि एयं तं वत्थं, जं तं अज्जाण णीणियं भे ति। त अजाण णाणिय भ त्ति। तुब्भे इमं पडिच्छध, तं चिय एताण दाहामो॥ भद्रकों को भी आचार्य कहते हैं-ये वे वस्त्र नहीं हैं, जो वस्त्र आर्याओं को तुमने दिखाए थे। तब वे कहते हैं आप इन वस्त्रों को ग्रहण करें। हम उन्हीं वस्त्रों को आर्याओं को देंगे। ४१७५.अण्णेण णे ण कज्जं, एतट्ठा चेव गेण्हिमो अम्हे। जति ताणि वि इति वुत्ते, णीणेति दुए वि गिण्हति॥ हमारे अन्य वस्त्रों से प्रयोजन नहीं है। हम इन आर्याओं के लिए ही वस्त्र ग्रहण कर रहे हैं। तब यदि वे गृहस्थ उन वस्त्रों को ले आते हैं, तब आचार्य उन वस्त्रों को तथा जो दूसरे वस्त्र दिखाए थे, दोनों का ग्रहण कर ले। ४२९ ४१७६.ताणि वि उवस्सयम्मि,सत्त दिणे ठविय कप्प काऊणं। थेरा परिच्छिऊणं, विहिणा अप्पेंति तेणेव॥ उन वस्त्रों को लेकर उपाश्रय में आकर उनको सात दिनों तक स्थापित कर, फिर उनका कल्प करके स्थविर मुनि या आचार्य उन वस्त्रों को ओढ़कर उनका उपभोग कर परीक्षा करे और फिर उक्त विधि के अनुसार आर्याओं को अर्पित करे। ४१७७.आयरिए उवज्झाए, पवत्ति थेरे गणी गणधरे य। गणवच्छेइयणीसा, पवित्तिणी तत्थ आणेति॥ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्ती, स्थविर, गणी, गणधर तथा गणावच्छेदी-इनकी निश्रा में वस्त्र ग्रहण करना चाहिए। इनके अभाव में प्रवर्तिनी गृहस्थकुलों में जाकर स्वयं वस्त्र लाए। ४१७८.आयरिए असधीणे, साहीणे वा वि वाउल गिलाणे। एक्वेक्कगपरिहाणी, एमादीकारणेहिं तु॥ वहां यदि आचार्य स्वाधीन या अस्वाधीन हैं तथा वे कुलादि कार्य में व्याकुल-व्याप्त हैं अथवा ग्लान हैं तो उपाध्याय की निश्रा में वस्त्र ग्रहण किया जा सकता है। इसी प्रकार एक-एक के अभाव में अपर की निश्रा में वस्त्र-ग्रहण किया जा सकता है। इन कारणों से संयतियों का वस्त्र ग्रहण होता है। ४१७९.सुत्तणिवातो थेरी, गहणं तु पवत्तिणीय नीसाए। तरुणीण य अग्गहणं, पवत्तिणी तत्थ आणेति॥ सूत्रनिपात अर्थात् सूत्र का आशय यह है कि आचार्य आदि के अभाव में प्रवर्तिनी की निश्रा में स्थविरा साध्वी स्वयं वस्त्र लाती है। तरुण साध्वियों को सामान्यतः वस्त्रग्रहण निषिद्ध है। प्रवर्तिनी स्वयं गृहस्थ के घर जाकर वस्त्र लाती है। ४१८०.साहू जया तत्थ न होज्ज कोई, छदेज्ज णीया तरुणी जया य। पवत्तिणी गंतु सयं तु गेण्हे, आसंकभीया तरुणी न नेति॥ आचार्य के साथ कोई गीतार्थ साधु नहीं है और जब तरुण साध्वी के संज्ञाती वस्त्र के लिए निमंत्रण देते हैं तो प्रवर्तिनी स्वयं जाकर वस्त्र ग्रहण करती है। वह अपाय की शंका से डरकर तरुण साध्वी को साथ नहीं ले जाती। ४१८१.असती पवत्तिणीए, आयरियादि व्व जं व णीसाए। आगाढकारणम्मि उ, गिहिणीसाए वसंतीणं ।। प्रवर्तिनी के अभाव में आचार्य, उपाध्याय अथवा सामान्य साधु की निश्रा में विहरण करे, ग्रहण करे। आगाढ़ कारण Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० = बृहत्कल्पभाष्यम् पितरों को भी तर्पित करना होता है। आपको वस्त्र देने में हमें धर्म होगा और आपकी प्रियता बढ़ेगी। इसलिए हम आपको दूसरा वस्त्र देंगे। ४१८८.वेवहु चला य दिट्ठी, अण्णोण्णणिरिक्खियं खलति वाया। देण्णं मुहवेवण्णं, ण याणुरागो उ कारीणं॥ जो मैथुन सेवन के लिए वस्त्रदान करते हैं, उनको कैसे जाना जाए? उनके सामान्यतः ये लक्षण होते हैं-उनका शरीर प्रकंपित होता है, दृष्टि चल होती है। वह एक दूसरे को देखती है और उसकी वाणी स्खलित होती है। मुख पर दीनता और वैवर्ण्य परिलक्षित होता है तथा उनका अनुराग हृष्टपुष्ट लक्षण वाला नहीं होता। होने पर, गृही की निश्रा में रहने वाली साध्वियां स्वयं भी ग्रहण कर सकती हैं। ४१८२.असती पवत्तिणीए, अभिसेगादी विवज्जए णीसा। गेण्हति थेरिया पुण, दुगमादी दोण्ह वी असती॥ प्रवर्तिनी के अभाव में तथा अभिषेका और गणावच्छेदिनी भी नहीं हैं तो परस्पर निश्रा से स्थविरा आर्यिका ग्रहण करे। वे दो-तीन आदि की संख्या में पर्यटन करती हैं। यदि दो भी न हों तो वक्ष्यमाण विधि से ग्रहण करना चाहिए। ४१८३.दुब्भूइमाईसु उ कारणेसुं, गिहत्थणीसा वइणी वसंती। जे नालबद्धा तह भाविया वा, निहोस सन्नी व तहिं वसेज्जा॥ दुर्भूति-अशिव तथा अवमौदर्य आदि कारण में अकेली आर्या गृहस्थ की निश्रा में रहती है। जो नालबद्ध या भावित या जो निर्दोष-हास्य, कन्दर्प आदि से रहित हैं या संज्ञी हैं, उनके घर में रहे। ४१८४.सेज्जायरो व सण्णी, व जाणति वत्थलक्खणं अम्हं। तेण परिच्छियमेतं, तदणुण्णातं परिग्धेच्छं। यदि उस आर्या को कोई वस्त्र-ग्रहण के लिए निमंत्रित करे तो उसे कहना चाहिए कि शय्यातर अथवा संज्ञी-श्रावक हमारे प्रायोग्य वस्त्रों के लक्षणों को जानते हैं। अतः उनके द्वारा परीक्षित तथा अनुज्ञात होने पर ही मैं वह वस्त्र-ग्रहण करूंगी। ४१८५.पंतो दट्ठण तगं, संकाए अवणयं करेज्जाहि। अण्णासिं वा दिण्णं, वइतं णीयं व हसिता व॥ जब वह आर्या शय्यातर या श्रावक को लाती है तो उनको देखकर वह प्रान्त गृहस्थ वस्त्र का अपनयन कर देता है और कहता है वह वस्त्र दूसरों को दे दिया अथवा वजिका में ले गया अथवा वह हंसने लग जाता है। ४१८६.तुब्भे वि कहं विमुहे, काहामो तेण देमो से अण्णं। इति पंते वज्जणता, भद्देसु तधेव गेण्हती॥ वह प्रान्त गृहस्थ तब कहता है-मैं आपको कैसे विमुख कर सकता हूं? इन्कार कर सकता हूं? उस दूसरी साध्वी को हम दूसरा वस्त्र दे देंगे। यह आप ले लें। जो प्रान्त गृहस्थ इस प्रकार कहता है उसकी वर्जना करनी चाहिए। उसका वस्त्र नहीं लेना चाहिए। भद्र गृहस्थ से पूर्वोक्त प्रकार से ग्रहण कर लेना चाहिए। ४१८७.अंबा वि होति सित्ता, पियरो वि य तप्पिया वदे भद्दो। धम्मो य णे भविस्सति, तुब्भं च पियं अतो अण्णं॥ भद्रक कहता है-सिंचाई करने पर ही आम फलते हैं और निग्गंथस्स तप्पढमयाए संपव्वयमाणस्स कप्पइ रयहरण-गोच्छगपडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहि आयाए संपव्वइत्तए। से य पुव्वोवट्ठिए सिया, एवं से नो कप्पइ रयहरण-गोच्छयपडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए, कप्पइ से अहापरिग्गहियाइं वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए॥ (सूत्र १४) ४१८९.णिग्गथिचेलगहण, भणिय समणाणिदाणि वोच्छामि। निक्खंते वा वुत्तं, निक्खममाणे इमं सुत्तं॥ आर्याओं के वस्त्र-ग्रहण की विधि कह दी गई है। अब श्रमणों के वस्त्र-ग्रहण की विधि कहूंगा। अथवा दीक्षित के वस्त्र-ग्रहण के विषय में कहा जा चुका है। अब दीक्षा ग्रहण करने के लिए तत्पर मुमुक्षु के वस्त्र-ग्रहण विषयक प्रस्तुत सूत्र है। ४१९०.दव्वम्मि य भावम्मि य, पव्वइए एत्थ होति चउभंगो। दव्वेण लिंगसहितो, ओहावति जो उ णीसंको॥ ४१९१.पवज्जाए अभिमुहो, परलिंगे कारणेण वा बितिओ। ततितो उ उभयसहितो, उभओविजढे चरिम भंगो।। द्रव्यतः और भावतः प्रव्रजित की चतुर्भंगी होती है१. द्रव्यतः निर्ग्रन्थ, न भावतः। २. भावतः निर्ग्रन्थ, न द्रव्यतः। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ३. द्रव्यतः और भावतः-दोनों से निर्ग्रन्थ। निवास योग्य स्थान पाकर उसके घर के द्वारमूल में सो गया। ४. न द्रव्यतः और न भावतः निर्ग्रन्थ। वह तरुणी कुशील थी। वहां प्रतिदिन एक यक्ष आता और द्रव्यतः निर्ग्रन्थ वह होता है जो लिंगधारी है परन्तु रात्रीवास तरुणी के साथ बिता कर प्रभात में अपने स्थान पर निःशंक होकर उत्प्रवजित हो जाता है। जो प्रव्रज्याभिमुख है, चला जाता। उस दिन यक्ष नहीं आया। दूसरे दिन उसी परंतु कारणवश परलिंग में है, वह दूसरे भंग में आता है। जो तरुणी के घर के द्वारमूल पर एक लिंगधारी आकर सो गया। उभयसहित है वह तीसरे भंग में और जो उभय अर्थात् द्रव्य उस दिन यक्ष आया। उस तरुणी ने पूछा-कल क्यों नहीं और भाव से रहित है, वह चरम भंग में आता है। आए? यक्ष बोला-कल यहां द्वार पर एक यति सो रहा था। ४१९२.चउधा खलु संवासो, देवाऽसुर रक्खसे मणुस्से य। यति का उल्लंघन कर मैं आ नहीं सकता। तरुणी ने अण्णोण्णकामणेण य, संजोगा सोलस्स हवंति॥ कहा-झूठ क्यों कह रहे हो? यति तो आज यहां सो रहा है। संवास चार प्रकार का है-देवसंवास, असुरसंवास, कल तो एक तरुण सोया था। यक्ष बोला-आज यहां राक्षससंवास और मनुष्यसंवास। एक-दूसरे की कामना से सोनेवाला यति नहीं है। वह चारित्र से भ्रष्ट है, केवल इनके सोलह भंग होते हैं वेशधारी है। यह आज यहां चोरी करने के लिए आया हुआ १. देव देवी के साथ, ९. राक्षस देवी के साथ है। अतः इसे यतिवेष में चोर मानना चाहिए। इस दृष्टांत से २. देव असुरी के साथ १०. राक्षस असुरी के साथ यह प्रमाणित होता है कि प्रव्रज्याभिमुख व्यक्ति भी प्रव्रजित ३. देव राक्षसी के साथ ११. राक्षस राक्षसी के साथ ही माना जाता है। . ४. देव मनुष्यणी के साथ १२. राक्षस मनुष्यणी के साथ ४१९५.रयहरणेण विमज्झो, गुच्छगगहणे जहण्णगहणं तु। ५. असुर देवी के साथ १३. मनुष्य देवी के साथ भवति पडिग्गहगहणे, गहणं उक्कोसउवधिस्स। ६. असुर असुरी के साथ १४. मनुष्य असुरी के साथ रजोहरण विमध्य उपधि है। गोच्छग का ग्रहण जघन्य ७. असुर राक्षसी के साथ १५. मनुष्य राक्षसी के साथ उपधि का ग्रहण है। प्रतिग्रह का ग्रहण उत्कृष्ट उपधि का ८. असुर मनुष्यणी के साथ १६. मनुष्य मनुष्यणी के साथ। ग्रहण है। (देव शब्द से वैमानिक अथवा ज्योतिष्क देव, असुरशब्द ४१९६.पडिपुण्णा पडुकारा, कसिणग्गहणेण अप्पणो तिण्णि। से भवनवासी, राक्षस शब्द से व्यंतर।) पुव्विं उवहितो पुण, जो पुव्वं दिक्खितो आसी॥ ४१९३.अधवण देव-छवीणं, संवासे एत्थ होति चउभंगो। कृत्स्नवस्त्र के ग्रहण का तात्पर्य यह है कि प्रव्रजित होते पव्वज्जाभिमुहंतर, गुज्झग उम्भामिया वासो॥ समय अपने योग्य तीन प्रत्यवतार' प्रतिपूर्ण ग्रहण करने ४१९४.बितियणिसाए पुच्छा, चाहिए। पूर्व उपस्थित वह होता है जो पूर्व में दीक्षित था। एत्थ जती आसि तेण मि न आतो। ४१९७.सोऊण कोइ धम्म, उवसंतो परिणओ य पव्वज्ज। जतिवेसोऽयं चोरो, पुच्छति पूयं आयरिय उवज्झाए, पवत्ति संघाडए चेव ।। जो अज्ज तुहं वसति दारे। कोई मुमुक्षु धर्म को सुनकर उपशांत-प्रतिबुद्ध होकर 'अहवण'-यह प्रकारान्तर द्योतक अव्यय है। प्रकारान्तर प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए परिणत हुआ। वह आचार्य को से उपरोक्त सोलह भंग चार भंगों में अंतर्भूत हो जाते हैं। वे पूछता है-आर्य! मुझे अनुज्ञा दें, मैं क्या करूं? आचार्य कहते चार भंग है। हैं आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्ती तथा संघाटक के मुनियों की १. देव देवी के साथ वस्त्र आदि से पूजा करो। २. देव छविमति अर्थात् मनुष्यणी के साथ ४१९८.णंतग-घत-गुल-गोरस, ३. छविमान् अर्थात् मनुष्य देवी के साथ फासुग पडिलाभणं समणसंघे। ४. छविमान् छविमती के साथ। असति गणि-वायगाणं, (देव शब्द सामान्यतः चतुर्विध देवनिकाय के लिए और तदसति सव्वस्स गच्छस्स। छविमान् मनुष्य के लिए है। अतः सोलह भंग इन चार भंगों वह दीक्षित होने के इच्छुक व्यक्ति समस्त श्रमणसंघ को में समाविष्ट हो जाते हैं।) एक तरुण प्रव्रज्या लेने के लिए प्रासुक वस्त्र, घृत, गुड़, दूध आदि की उपलब्धि कराता है। गुरु के पास जा रहा था। रास्ते में एक तरुणी के घर में यदि इतना अवकाश न हो तो आचार्य, वाचक आदि के लिए १. प्रत्यवतार-वर्षाकाल में होने वाले संपूर्ण वस्त्रों का एक प्रत्यवतार होता है। कोई 1 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ प्राप्ति कराता है। यदि इतना भी अवकाश न हो तो जिस गच्छ में वह प्रव्रजित होना चाहता है, उस गच्छ के सभी सदस्यों को प्रतिलाभित करता है। ४१९९. तदसति पुव्वुत्ताणं, चउण्ह सीसति य तेसि वावारो । हाणी जा तिणि सयं, तदभावे गुरू उ सव्वं पि ॥ यदि गच्छ को प्रतिलाभित करने की शक्ति न हो तो पूर्वोक्त चार-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्ती तथा संघाटक साधुओं की पूजा करता है। उसके सामने इन चारों की प्रवृत्ति का कथन किया जाता है, जैसे आचार्य अर्थ का व्याख्यान करते हैं, उपाध्याय सूत्र की वाचना देते हैं, प्रवर्ती तप संयम आदि में प्रवृत्त करते हैं और संघाटक के साधु भिक्षा आदि में सहायक होते हैं इसलिए इनकी पूजा करो। यदि इतनी भी शक्ति न हो तो यथाक्रम हानि करते हुए प्रथम आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्ती की उसके अभाव में आचार्य, उपाध्याय की और इसके अभाव में आचार्य की पूजा करे। इतनी भी शक्ति न हो तो स्वयं के योग्य तीन प्रत्यवतार, उनके अभाव में दो और उसके अभाव में एक प्रत्यवतार लेकर प्रव्रजित होता है। यदि एक भी न हो तो गुरु सब कुछ देते हैं। ४२००. अप्पणी कीतकडं वा, आहाकम्मं व घेत्तु आगमणं । संजोए चेव तधा, अणिदिट्ठे मग्गणा होति ॥ वह मुमुक्षु अपने योग्य वस्त्र - पात्र आदि क्रीतकृत अथवा आधाकर्म लेकर गुरु के समक्ष आगमन करता है। इन दोषों के निर्दिष्ट अथवा अनिर्दिष्ट संयोग-भंगों की मार्गेणा करनी होती है। यह द्वारगाथा है। व्याख्या आगे । ४२०१. कीयम्मि अणिछिद्रे तेणोग्गहियम्मि सेसमा कप्पे । निट्ठिम्मि ण कप्पति, अहव विसेसो इमो तत्थ ॥ क्रीतकृत दो प्रकार का होता है निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट । जो अनिर्दिष्टरूप में क्रीत हैं, उनमें से स्वयं के लिए वस्त्र अवगृहीत करने के पश्चात् जो शेष रहता है, वह साधुओं को कल्पता है, निर्विष्टक्रीत में नहीं कल्पता अथवा निर्दिष्ट में यह विशेष है। बृहत्कल्पभाष्यम् अनुस्थापित है। यदि ऐसा शैक्ष न हो तो वस्त्रों का परिष्ठापन कर देते हैं तब कोई शैक्ष कहता है४२०३.एतं पि मा उज्झह देह मज्झं, मज्झच्चगा गेहह एक्क दो वा । अत्तट्ठिए होति कदायि सव्वे, सव्वे वि कप्पंति विसोधि एसा ॥ इन वस्त्रों का परिष्ठापन न करें। ये वस्त्र मुझे दे दें। आप मेरे प्रत्यवतार से एक या दो वस्त्र ले लें। यदि दाता ने अनेक प्रत्यवतार क्रीत किए हों तो क्या विधि है? दाता वस्त्रों के जितने प्रत्यवतारों को अपना बनाता है, वे लिए जा सकते हैं। कदाचिद् दाता सभी प्रत्यवतारों को अपना बना लेता है तो वे सभी लिए जा सकते हैं। वे सभी कल्पते हैं। यह विशोधि कोटिविषयक विधि है। ४२०४. उम्गमकोडीए वि हु, संछोभो तहेब होतऽनिहिडे । इयरम्मि वि संछोभो, जइ सो सेहो सयं भणइ ॥ उद्गमकोटि का अर्थ है-आधाकर्म आदि अविशोधिकोटि के दोष यदि इसमें भी अनिर्दिष्टकोटि का क्रीत हो और दाता कहे जिन वस्त्रों को ग्रहण करने के लिए आपको कहा है, वे यदि आप लेना न चाहें तो मेरे द्वारा परिगृहीत वस्त्र आप लें और मैं वे वस्त्र ले लूंगा जिनका आपने प्रतिषेध किया है। यदि इस संक्षोभ-प्रक्षेपक से वह वस्त्र देता है तो सारा कल्पता है। निर्दिष्टक्रीत में भी यदि यह संक्षोभ होता है तो वह कल्पता है। संक्षोभ यह है यदि गृहस्थ शैक्ष स्वयं ही इस प्रकार कहता है, दूसरों के कहने पर नहीं। ४२०५. उक्कोसगा य दुक्खं, वुवज्जिया केसितोऽहं मि विधेव । इति संछोभं तहियं वदंति निद्दिट्ठगेसुं पि॥ दाता कहता है - मैंने आपके लिए ये उत्कृष्ट - बहुमूल्य वस्त्र निर्मित करवाए हैं। आप इनका परित्याग क्यों करते हैं। अत्यंत प्रयास कर मैंने बुनकर से ये वस्त्र आपके लिए बनवाए हैं। इसमें मुझे बहुत क्लेश हुआ है। अब आप इनको ग्रहण नहीं करते। वृथा ही मैंने इतना कष्ट सहा। अच्छा, आप मेरे वस्त्र लें और मैं आपके ये वस्त्र ग्रहण कर लूंगा। इस प्रकार संयत के निमित्त निर्दिष्ट कर निर्मित वस्त्र का भी संक्षोभ अर्थात् कल्पनीयता का कारण बनता है । उनको भी ग्रहण करना कल्पता है। ४२०६. जा संजयणिहिला, संछोभम्मि वि न कप्पते केयी तं तु ण जुज्जह जम्हा, दिज्जति सेहस्स अविसुद्धं ॥ कुछेक आचार्य कहते हैं कि वस्त्र संयतनिर्दिष्ट हैं वे संक्षोभ के पश्चात् भी नहीं कल्पते। यह मत उचित नहीं है। , 3 ४२०२. मज्झतिगाणि गिण्हह अहगं तुज्झच्चए परिग्विच्छं । सेहे दिंति व वत्थं तदभावे वा विगिंचति ॥ अथवा वह शैक्ष कहता है-मैंने जो वस्त्र स्वयं के लिए खरीदें हैं, वे आप लें और मैं आप साधुओं के लिए खरीदे गए वस्त्र ग्रहण कर लूंगा। अथवा वह कहता है- मैंने जो आपके लिए वस्त्र क्रीत किए हैं, उनका आप जैसा चाहें वैसा उपयोग करें। तब वे वस्त्र शैक्ष को देते हैं जो अभी १. निर्दिष्ट-खरीदते समय यह मेरे लिए तथा ये अन्य साधुओं के लिए इस निर्देशपूर्वक खरीदना । उसके विपरीत अनिर्दिष्ट होता है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक क्योंकि अनुपस्थापित शैक्ष को अविशुद्ध - अनेषणीय वस्त्र, पात्र दिया जाता है। अतः संक्षोभ के पश्चात् वस्त्र आदि भी कल्पता है। ४२०७. जह अत्तट्टा कम्मं परिभुत्तं कप्पते उ इतरेसिं । इय तेण परिग्गहियं, कप्पइ इयरं पि इयरेसिं ॥ जैसे गृहस्थ ने अपने लिए आधाकर्म किया, उसका इतर अर्थात् संयतों द्वारा परिभोग करना कल्पता है। इसी प्रकार गृहस्थ शैक्ष द्वारा परिगृहीत वस्त्र आदि दूसरे संयतों को भी ग्रहण करना कल्पता है। ४२०८. सहसाणुवादिणातेण केइ णिदिट्ठके ण इच्छंति । अणिदिट्ठे पुण छोभं वदंति परिफग्गुमेतं पि ॥ कई आचार्य सहस्रानुपाती विष के उदाहरण से साधु निमित्त निर्दिष्ट को संक्षोभ के पश्चात् भी ग्रहण करना नहीं चाहते और अनिर्दिष्ट को क्षोभ के पश्चात् कल्पनीय कहते हैं। यह भी निस्सार कथन है। पडिवण्णपंचजामे, कप्पति तेसिं तहऽण्णेसिं ॥ जैसे चरमतीर्थंकर के मुनियों के लिए किया हुआ सारा प्रतिषिद्ध है, वही मध्यम तीर्थंकरों के मुनियों के लिए ग्रहणीय है। जिन चतुर्यामिक मुनियों ने पंचयाम धर्म को स्वीकार कर लिया तो चतुर्यामिक मुनियों के लिए निर्मित वस्त्र आदि उनको तथा अन्य पंचयामिक मुनियों को लेने कल्पते हैं। इसी प्रकार प्रस्तुत प्रसंग में भी साधुओं के लिए निर्मित वस्त्र आदि का परिग्रहण मुनि नहीं करते किन्तु शैक्षगृहस्थ उनको आत्मीय बनाकर यदि साधुओं को देता है तो वह कल्पता है। णिज्जुत्तभंड व रयोहरादी, कोई किणे कुत्तियआवणातो ॥ प्रायः वस्त्र और पात्र गृहस्थों के घरों में भी मिलते हैं। निर्युक्तभांड अर्थात् पात्रनियोग आदि उपकरण तथा रजोहरण आदि सर्वत्र प्राप्त नहीं होते। कोई बुद्धिमान् निपुण गृहस्थ उनको मुनियों के पास देखकर स्वयं बना लेता है अथवा कोई कुत्रिकापण से उन्हें खरीद लेता है। ४२१३.कुत्तीयपरूवणया, उक्कोस - जहन्नमज्झिमट्ठाणा । कुत्तिय भंडक्किणणा, उक्कोसं हुति सत्तेव ॥ यहां कुत्रिकापण की प्ररूपणा करनी चाहिए। वहां उन आचार्यों का यह कथन स्वगृहपतिमिश्र के सदृश है। उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम - तीनों प्रकार के मूल्य होते हैं। अतः हम इसको व्यर्थ मानते हैं। गृहस्थ शैक्ष दोनों प्रकार के - निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट वस्त्र आदि क्षोभ करने के पश्चात् परिगृहीत करने पर वे साधुओं को लेने कल्पते हैं। यहां रत्नाकर - मेरु का दृष्टांत ज्ञातव्य है । (जैसे वहां प्रक्षिप्त तृण आदि भी स्वर्णमय बन जाता है, वैसे ही शैक्ष गृहस्थ द्वारा परिगृहीत सारा द्रव्य कल्पनीय हो जाता है ।) ४२०९. एवं पि सघरमीसेण सरिसगं तेण फग्गुमिच्छामो । दुविधं पि ततो गहियं, कप्पति रतणुच्चओ नातं ॥ कुत्रिकापण में भांड और उपकरणों का क्रय होता है । उत्कृष्ट रूप से समस्त श्रमण संघ के योग्य वस्त्र - पात्र प्राप्त होते हैं। सात निर्योग वहां से ग्रहीतव्य होते हैं। (यह चूर्णि का अभिप्राय है । विशेषचूर्णि के अनुसार मुमुक्ष स्वयं के लिए एक निर्योग ग्रहण करे। उत्कर्षतः सात निर्योग ग्रहण किए जा सकते हैं - तीन निर्योग स्वयं के लिए और चार निर्योग आचार्य आदि चार पूजनीय व्यक्तियों के लिए ।) ४२१४. कुत्ति पुढवीय सण्णा, जं विज्जति तत्थ चेदणमचेयं । ४२१०. जह उ कडं चरिमाणं, पडिसिद्धं तं हि मज्झिमोग्गहियं । ४२११. उग्गम-विसोधिकोडी, दुगादिसंजोगओ बहू एत्थं । पत्तेग-मीसिगासु य, णिद्दिट्ठ तथा अणिद्दिट्ठा ॥ उद्गमकोटि के भेद तथा विशोधिकोटि के भेद द्विक आदि के भेदों के आधार पर बहुत भंग होते हैं। वे प्रत्येकभंग ४३३ कहलाते हैं। इसी प्रकार उद्गमकोटि के भेदों का और विशोधिकोटि के भेदों का परस्पर द्विक आदि संयोग से निष्पन्न अनेक भंग होते हैं। वे मिश्रभंगक कहलाते हैं। इन सब प्रत्येक और मिश्र भंगों में कल्प्य और अकल्प्य प्रागुक्त प्रकार से जानने चाहिए। ४२१२. वत्था व पत्ता व घरे व हुज्जा, पिज्जा णिउ सयं पि । गणुवभोगे य खमं, न तं तहिं आवणे णत्थि ॥ 'कु' पृथ्वी की संज्ञा है । उसका त्रिक अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य और पाताल । उसका 'आपण' अर्थात् हाट कुत्रिकापण । उन तीनों पृथ्वीयों में जो कुछ ग्रहण और उपभोग के योग्य चेतन और अचेतन पदार्थ है, वह जहां प्राप्त होता है वह है। कुत्रिकापण | एक भी चेतन या अचेतन पदार्थ ऐसा नहीं है जो वहां प्राप्त न होता हो । ४२१५. पणतो पागतियाणं, साहस्सो होति इब्भमादीणं । उक्कोस सतसहस्सं, उत्तमपुरिसाण उवधी उ॥ प्रव्रजित होने वाले सामान्य व्यक्तियों के लिए उपधि आदि का कुत्रिकापण में मूल्य है पांच रुपया, ईभ्य-श्रेष्ठीसार्थवाह आदि मध्यमवर्गीय पुरुषों के लिए उसी का मूल्य है। सहस्र रुपया तथा उत्तमपुरुषों - चक्रवर्ती, मांडलिक राजा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ = बृहत्कल्पभाष्यम् आदि उत्कृष्ट पुरुषों की उपधि का मूल्य है शतसहस्र अर्थात् ४२२२.भीएण खंभकरणं, एत्थुस्सर जा ण देमि वावारं। लाख रुपया। णिज्जित भूततलागं, आसेण ण पेहसी जाव।। ४२१६.विक्किंतगं तधा पप्प होइ रयणस्स तम्विहं मुल्लं। जब उज्जयिनी में महाराज नरसिंह चंडप्रद्योत का राज्य कायगमासज्ज तहा, कुत्तियमुल्लस्स णिक्कं ति॥ था, तब वहां नौ कुत्रिकापण थे। भृगुकच्छ का एक व जैसे रत्न का विक्रेता (क्रेता?) होगा वैसा ही रत्न का कुत्रिकापण की बात पर विश्वास नहीं करता था। वह मूल्य होगा जैसे क्रेता ग्रामीण व्यक्ति है तो रत्न का मूल्य उज्जयिनी के एक कुत्रिकापण में गया और भूत खरीदने की कम होगा और यदि क्रेता प्रबुद्ध होगा तो उसका मूल्य इच्छा व्यक्त की। वहां के मालिक ने तेले की तपस्या कर . अधिक होगा। इसी प्रकार कुत्रिकापण में क्रायक-ग्राहक के । उसे एक लाख रुपयों में भूत दे दिया। उसने उस वणिक् से आधार पर वस्तु के मूल्य का निष्क-परिमाण होता है। कहा-यह भूत ऐसा है कि इसको कोई काम न देने पर यह प्रतिनियत कुछ भी नहीं है। रुष्ट होकर अपने स्वामी को मार डालता है। वह वणिक् भूत ४२१७.एवं ता तिविह जणे, मोल्लं इच्छाए दिज्ज बहुयं पि। को लेकर भृगुकच्छ में आया और भूत को कार्य में व्याप्त सिद्धमिदं लोगम्मि वि, समणस्स वि पंचगं भंडं॥ कर दिया। वह भूत प्रत्येक कार्य को शीघ्र संपन्न कर देता इस प्रकार वहां तीनों प्रकार के पुरुषों के लिए पंचक था। सभी कार्यों की परिसमाप्ति हो जाने पर वणिक् भयभीत आदि रुपयों का परिमाण जघन्यतः है। फिर वे चाहें अधिक हो गया। उसने तब भूत से एक स्तंभ का निर्माण करा कर भी दे सकते हैं। लोक में यह सिद्ध है, प्रतीत है। श्रमण के कहा-जब तक मैं दूसरा काम न दूं तब तक तुम इस स्तंभ लिए भांड का मूल्य है पांच रुपया। (जिस देश में जो पर उतरते-चढ़ते रहो। तब भूत बोला-'तुमने मुझे जीत सिक्का चलता है उसके प्रमाण से रुपया का मान जानना लिया है। मैं अपनी पराजय के चिह्मस्वरूप, तुम्हें एक वस्तु चाहिए।) देना चाहता हूं। तुम अश्व पर बैठकर जाते समय जितनी दूरी ४२१८.पुव्वभविगा उ देवा, मणुयाण करिति पाडिहेराई। तक पीछे नहीं देखोगे उतना लंबा-चौड़ा मैं एक तालाब लोगच्छेरयभूया, जह चक्कीणं महाणिहयो॥ निर्मित कर दूंगा।' वह वणिक् अश्व पर आरूढ़ होकर चला कुत्रिकापण की उत्पत्ति कैसे? और बारह योजन जाने के पश्चात् मुड़ कर पीछे देखा। भूत पूर्वभव के मित्र देव पुण्यवान् व्यक्तियों के प्रतिहार्य अर्थात् ने वहां एक तालाब निर्मित कर डाला। उसका नाम 'भूतयथाभिलषित द्रव्य उपस्थित करते हैं। जैसे लोक में तालाब' रखा गया। आश्चर्यभूत नौ महानिधियों का चक्रवर्तियों के समक्ष देवता ४२२३.एमेव तोसलीए, इसिवालो वाणमंतरो तत्थ। प्रातिहार्य करते हैं, प्रस्तुत करते हैं। णिज्जित इसीतलागे, रायगिहे सालिभहस्स। ४२१९.उज्जेणी रायगिहं, तोसलिनगरे इसी य इसिवालो। इसी प्रकार तोसलिनगर के एक वणिक् ने उज्जयिनी दिक्खा य सालिभद्दे, उवकरणं सयसहस्सेहिं॥ नगर के एक कुत्रिकापण से ऋषिपाल नामक वानव्यन्तर प्राचीनकाल में उज्जयिनी और राजगृह नगर में खरीदा। वणिक् के द्वारा पराजित होने पर उसी प्रकार कुत्रिकापण थे। एक बार तोसलिनगर के एक वणिक् ने ऋषितडाक नामक तालाब निर्मित किया। राजगृह के उज्जयिनी के कुत्रिकापण से ऋषिपाल नाम का वानव्यन्तर कुत्रिकापण से शालिभद्र की दीक्षा के समय रजोहरण तथा खरीदा था। राजगृह नगर में शालिभद्र की दीक्षा के समय । पात्र-प्रत्येक को एक-एक लाख रुपयों में खरीदा था। उपकरण शतसहस्र में खरीदे गए थे। इससे यह स्पष्ट होता ४२२४.तिण्णि य अत्तद्वेती, चत्तारि य पूयणारिहे देति। है कि राजगृह में कुत्रिकापण था। दितस्स य पित्तव्वो, सेहस्स विविंचणं वा वि॥ ४२२०.पज्जोए णरसीहे, णव उज्जेणीय कुत्तिया आसी। गाथा ४२१३ में सात निर्योगों का कथन हुआ है। प्रव्रज्या भरुयच्छवणियऽसद्दह, भूयऽट्ठम सयसहस्सेणं॥ ग्रहण करने वाला मुमुक्षु सात निर्योगों को ग्रहण कर प्रव्रजित ४२२१.कम्मम्मि अदिज्जंते, रुट्ठो मारेइ सो य तं घेत्तुं। हो। सात निर्योगों में से वह शैक्ष तीन निर्योगों को अपने लिए भरुयच्छाऽऽगम, वावारदाण खिप्पं च सो कुणति॥ रखता है और शेष चार निर्योग पूजनार्ह व्यक्तियों अर्थात् १. वृत्तिकार का कथन है कि यह सारा जघन्य मूल्य मानना चाहिए। उत्कृष्टतः तीनों प्रकार के पुरुषों के लिए मूल्य अनियत है। यहां जो मूल्यमान दिया गया है पांच रुपया जघन्य, सहस्र रुपया है मध्यम और शतसहस्र है उत्कृष्ट। यह अनियत है। २. वृत्ति में कुछ और तालाबों का निदर्शन हैं। देखें कथा परिशिष्ट, नं. ९४। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक= आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्ती और संघाटक साधुओं को देता जानने वाला और जो यह नहीं जानता है वह है अजानकार। है। दिया जाने वाला निर्योग शुद्ध हो तो ग्रहण करे और अजानकार पुनः प्रव्रज्या ग्रहण कर कृत, कारित और क्रीत अशुद्ध हो तो गृहस्थशैक्ष को दे दे। अथवा उसका परिष्ठापन सभी कुछ ग्रहण कर लेता है और जो जानकार है वह कर दे। यथापरिगृहीत अर्थात् शुद्ध को ही ग्रहण करता है। ४२२५.सज्झाए पलिमंथो, पडिलेहणियाए सो हवइ सिग्गो। ४२३०.जह सो वीरणसढओ, णइतीररुहो जलस्स वेगेणं । एगं च देति तहितं, दोण्णि य से अप्पणो हुंति॥ थोवं थोवं खणता, छूढो सोयं ततो वूढो॥ तीन निर्योगों को अपने पास रखने से उसके स्वाध्याय कोई एक 'वीरण'-तृणविशेष का 'सढक'-स्तम्ब नदी के का पलिमंथु होता है। उनकी प्रत्युपेक्षणा से वह परिश्रान्त हो तीर पर उगा हुआ था। पानी का वेग उसकी जड़ों को धीरेजाता है। तब वह एक निर्योग आचार्य को दे देता है और तब धीरे खोदने लगा। कुछ ही समय के पश्चात् वह स्तम्ब नदी उसके पास दो निर्योग रह जाते हैं। में गिर गया और पानी में बहता हुआ समुद्र में जा गिरा। ४२२६.निग्गमणे बहुभंडो, कत्तो कतरो व वाणिओ एइ। ४२३१.ठिय-गमिय-दिट्ठ-ऽदिद्वेहि बितियं पि देति तहियं, मा भंते! दुल्लह होज्जा॥ साधुहिं अहरिहं समणुसट्ठो। जब वह वहां से निर्गमन करता है तब उसे बहुत उण्हेहुण्हतरेहि य, उपकरणों को लेकर विहार करना होता है। यह देखकर लोग चालिज्जति बद्धमूलो वि॥ कहते हैं-'यह कौन वणिक् (इतना भार लेकर) कहां से आया इसी प्रकार कोई पश्चाद्कृत गृहवास करता हुआ एक है?' यह उपहास-वचन सुनकर वह एक और निर्योग गुरु को गांव में स्थित था। उस गांव में साधुओं का आवागमन होता दे देता है और कहता है-'भंते! आपके उपकरण दुर्लभ न हों था। वे दृष्ट-अदृष्ट (पूर्व परिचित, अपरिचित) साधु उसे इसलिए आप इसे अपने पास रखें।' यथायोग्य उपदेश देते थे। वह उनके उष्ण-उष्णतर उपदेशों ४२२७.भारेण खंधं च कडी य बाहा, से प्रेरित होकर परिवार से बद्धमूल होने पर भी वह गृहवास पीलिज्जए णिस्ससए य उच्च।। से चलित होकर पुनः संयम को स्वीकार कर लेता है। तेणा य उवधीणमभिद्दवेज्जा, ४२३२.कप्पा-ऽकप्पविसेसे, ण इत्तिया इंति ममोवभोगं॥ अणधीए जो उ संजमा चलिओ। शिष्य ने गुरु से कहा-मैं दो निर्योगों के साथ विहार पुव्वगमो तस्स भवे, करता हूं तो इतने भार से मेरे कंधे, कटि और बाहू अत्यधिक जाणंते जाइं सुद्धाई॥ पीड़ित होते हैं और मैं निःश्वास से आकुल हो जाता हूं। चोर जो कल्प-अकल्प विशेष को न जानते हुए संयम से उपधि के कारण मुझे लूटेंगे, भयभीत करेंगे। इतने वस्त्र-पात्र चलित हुआ था, उसके लिए पूर्वोक्त गम-प्रकार होता है मेरे उपभोग में नहीं आयेंगे। अर्थात् शैक्षगृहस्थ का होता है। जो कल्प-अकल्प विधि को ४२२८.जं होहिति बहुगाणं, इमम्मि धम्मचरणं पवण्णाणं।। जानता है, उसके लिए शुद्ध ही ग्रहण करना कल्पता है। ___ तं होहिति अम्हं पी, तुम्हेहिं समं पवण्णाणं॥ निग्गंथीए णं तप्पढमयाए ये उपकरण भगवान् के शासन के धर्माचरण करने वाले आप जैसे अनेक मुनियों के उपभोग में आयेंगे तथा आपके संपव्वयमाणीए कप्पइ रयहरण-गोच्छगसाथ-साथ चारित्र की आराधना करने वाले हमारे भी काम पडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयेंगे। आयाए संपव्वइत्तए। सा य पुव्वोवट्ठिया ४२२९.सिद्धी वीरणसढए, अब्भुट्ठाणं पुणो अजाणते। सिया, एवं से नो कप्पइ रयहरणकत कारितं च कीतं, जाणते अधापरिग्गहिते॥ गोच्छग-पडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं शिष्य ने पूछा-जो प्रव्रज्या को छोड़कर गृहवास में चला वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए, कप्पइ से गया उसे पुनः प्रव्रज्या में अभ्युत्थान की सिद्धि कैसे होती है ? इस प्रसंग में 'वीरणसढक' का दृष्टांत वक्तव्य है। पुनः अहापरिग्गहियाइं वत्थाइं आयाए अभ्युत्थान दो प्रकार का होता है-जानने वाले मुमुक्षु का तथा संपव्वइत्तए॥ अजानकार मुमुक्षु का। जो कल्प-अकल्प को जानता है वह है (सूत्र १५) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ४२३३. एसेव गमो णियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। ___ जाणंतीणं कप्पति, घेत्तुं जे अधापरिग्गहिते॥ यही विकल्प नियमतः आर्याओं के लिए जानना चाहिए। उनमें जो कल्प-अकल्प की विधि को जानती हैं उनके लिए जो यथापरिगृहीत अर्थात् शुद्ध है, उसी का ग्रहण कल्पता है। ४२३४.समणीणं णाणत्तं, णिज्जोगा तासि अप्पणो चउरो। चउरो पंच व सेसा, आयरिगादीण अट्ठाए॥ आर्याओं के निर्योग विषयक नानात्व है। प्रवजित होने वाली आर्या को चार निर्योग अपने लिए तथा शेष चार या पांच निर्योग आचार्य आदि के लिए होते हैं। यदि चार हों तो-आचार्य, प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी और संघाटक की साध्वी के लिए। यदि पांच हों तो चार उपरोक्त तथा पांचवां उपाध्याय के लिए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पढमसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए॥ (सूत्र १६) कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दोच्चसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए॥ (सूत्र १७) =बृहत्कल्पभाष्यम् आधाकर्म आदि पन्द्रह उद्गमदोषदुष्ट वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है? ४२३८.उद्देसग्गहणेण व, उग्गमदोसा उ सव्वे जति गहिता। उप्पादणादि सेसा, तम्हा कप्पंति किं दोसा॥ यदि औद्देशिक के ग्रहण से सभी उद्गमदोष गृहीत हो जाते हैं तो उत्पादन आदि शेष दोष कैसे कल्प सकते हैं? ४२३९.अहवा उद्दिस्स कता, एसणदोसा वि होति गहिता तु। आदीअंतग्गहणे गहिया उप्पादणा वि तहिं॥ अथवा उद्दिष्टकृत एषणादोष भी यहां गृहीत हो जाते हैं। इसी प्रकार आदि-अन्त के ग्रहण से यहां उत्पादना दोष भी गृहीत जानने चाहिए। आद्य है-औद्देशिकदोष और अन्त्य है-एषणादोष। इन दो के ग्रहण से मध्यस्थित उत्पादना दोष भी गृहीत हो जाते हैं। ४२४०.एए अ तस्स दोसा, उडुबद्धे जं च कप्पते पित्तुं। कोई भणिज्ज दोसु वि, ण कप्पति सुतं तु सूएति॥ द्वितीय समवसरण अर्थात् ऋतुबद्धकाल में ये सारे दोष उस साधु को कल्पते हैं-ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैंदोनों समवसरणों में नहीं कल्पता। तब कोई कहता है-सूत्र में इसकी अनुज्ञा की सूचना है। ४२४१.एवं सुत्तविरोधो, दोच्चम्मिं कप्पति त्ति जं भणितं। सुत्तणिवातो जम्मि त, तं सुण वोच्छं समासेणं॥ सूत्र में कहा गया है कि दूसरे समवसरण में कल्पता है, अतः आपका कथन सूत्र से विरुद्ध है। आचार्य कहते हैं-'जिस अर्थ में सूत्र का निपात है-अवतरण है, उसे मैं संक्षेप में कहूंगा, तुम सुनो।' ४२४२.समोसरणे उद्देसे, छविधे पत्ताण दोण्ह पडिसेधो। अप्पत्ताण उ गहणं, उवधिस्सा सातिरेगस्स। प्रथम समवसरण, ज्येष्ठावग्रह और वर्षावास-ये तीनों एकार्थक हैं। द्वितीय समवसरण और ऋतुबद्ध-ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। समवसरण में जो उद्देश है, उसके छह निक्षेप होते हैं-नामोद्देश, स्थापनोद्देश, द्रव्योद्देश, क्षेत्रोद्देश, कालोद्देश और भावोद्देश। इनमें से दो उद्देशों-क्षेत्रोद्देश और कालोद्देश में वस्त्र आदि के ग्रहण का प्रतिषेध है। इन उद्देशों में अप्राप्त स्थिति में सातिरेक उपधि का ग्रहण होता है। (इसका विस्तार आगे)। ४२४३. दव्वेणं उद्देसो, उहिस्सति जो व जेण दव्वेणं । दव्वं वा उद्दिसते, दव्वब्भूओ तदट्ठी वा॥ द्रव्य से अर्थात् रजोहरण आदि से जो उद्देश किया जाता है, वह है द्रव्योद्देश अथवा जो जिस सचित्त आदि द्रव्य से उद्दिष्ट होता है वह है द्रव्योद्देश। अथवा व्याधि के उपशमन ४२३५.दि8 वत्थग्गहणं, न य वुत्तो तस्स गहणकालो उ। __ ओसरणम्मि अगेज्झं, तेण समोसरणसुत्तं तु॥ पूर्वसूत्र में वस्त्रग्रहण का कथन हुआ है। वहां वस्त्र के ग्रहणकाल का निर्देश नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में यह निर्देश है कि प्रथम समवसरण (वर्षाकाल) में वस्त्र का ग्रहण नहीं करना चाहिए। वह द्वितीय समवसरण (ऋतुबद्धकाल) में ग्राह्य है, अतः समवसरण सूत्र का प्रारंभ किया गया है। ४२३६.अहवा वि सउवधीओ, सेहो दव्वं तु एयमक्खायं। तं काले खित्तम्मि य, गज्झं कहियं अगज्झं वा॥ अथवा पूर्वसूत्र में सोपधिकशैक्षलक्षण द्रव्य का आख्यान है वह द्रव्य किस काल में और किस क्षेत्र में ग्राह्य है और कहां अग्राह्य है-यह प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट है। ४२३७. पढमम्मि समोसरणे, उद्देसकडं न कप्पती जस्स। तस्स उ किं कप्पंती, उग्गमदोसा उ अवसेसा॥ __ शिष्य कहता है यदि प्रथम समवसरण में उद्देशकृत वस्त्र जिस मुनि को लेना नहीं कल्पता, क्या उसको अवशिष्ट Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ४३७ के लिए जो द्रव्य औषध उद्दिष्ट किया जाता है वह है ४२४८.आसाढपुण्णिमाए, ठिया उ दोहिं पि होति पत्ता उ। द्रव्योद्देश तथा द्रव्यभूत-अनुपयुक्त ज्ञाता जो अंग-श्रुतस्कंध तत्थेव य पडिसिज्झइ, गहणं ण उ सेसभंगेसु॥ आदि को उद्दिष्ट करता है वह द्रव्योद्देश है तथा द्रव्यार्थी वर्षाक्षेत्र में आषाढ़पूर्णिमा को स्थित हो जाने पर क्षेत्रअर्थात् द्रव्य के निमित्त धनुर्वेदादिक को उद्दिष्ट करता है वह काल दोनों से प्राप्त होते हैं। यह तीसरा भंग है। जो मुनि द्रव्योद्देश है। आषाढ़ी पूर्णिमा से पूर्व अपान्तराल क्षेत्र में स्थित हैं, यह ४२४४.खित्तम्मि जम्मि खित्ते, उहिस्सति जो व जेण खेत्तेण। चतुर्थ भंग है। तीसरे भंग में ही वस्त्र आदि का ग्रहण एमेव य कालस्स वि, भावो उ पसत्थमपसत्थो॥ प्रतिषिद्ध है। शेष भंगों में उसका प्रतिषेध नहीं है। क्षेत्र विषयक उद्देश-जिस क्षेत्र में अंग-श्रुतस्कंध आदि ४२४९.दुण्ह जओ एगस्सा, णिप्फज्जति जं च होति वासासु। का उद्देश किया जाता है-वर्णन किया जाता है अथवा जो अग्गहणम्मि वि लहुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा।। जिस क्षेत्र से उद्दिष्ट होता है, जैसे-भरत में उद्दिष्ट होने दो मुनियों के जितने उपकरण होते हैं, उतने उपकरण वाला भारत, सुराष्ट में होने वाला सौराष्ट्र आदि वह सारा एक मुनि के वर्षाकाल में होने पर एक परिपूर्ण प्रत्यवतार क्षेत्रोद्देश है। जिस काल में अंग आदि का उद्देश किया जाता निष्पन्न होता है। क्योंकि वर्षाऋतु में वर्षाकल्प आदि की है या जिस काल से उद्दिष्ट होता है, जैसे सुषमाकाल में होने आवश्यकता होती है, अतः उपकरण दुगुने हो जाते हैं। जो वाला सौषम, शरद् काल में होने वाला शारद आदि-यह इतने वस्त्र ग्रहण नहीं करता उसके चतुर्लघु का प्रायश्चित्त सारा कालोद्देश है। भावोद्देश दो प्रकार का है-प्रशस्त और तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अप्रशस्त। ४२५०.दव्वोवक्खर-णेहादियाण तह खार-कडुय-भंडाणं। ४२४५.कोहाई अपसत्थो, णाणामादी य होइ उ पसत्थो। वासारत्त कुटुंबी, अतिरेगं संचयं कुणइ।। उदओ वि खलु पसत्थो, तित्थकरा-ऽऽहारउदयादी॥ कुटुम्बी जन भी वर्षारात्र में इन सबका अतिरिक्त संचय क्रोध आदि अप्रशस्त भावोद्देश है और ज्ञान-दर्शन आदि करते हैं-द्रव्य-हिरण्य आदि, उपस्कर, स्नेह-घृत, तैल प्रशस्त भावोद्देश है। तीर्थंकर के आहारक-यश-कीर्ति आदि आदि, खार-लवण आदि, कटुक-शुण्ठी, पिप्पली आदि, नामकर्म का उदय भी प्रशस्त भावोद्देश है। भांड-घट, पिठर आदि। ४२४६.खित्तेण य कालेण य, पत्ता-ऽपत्ताण होति चउभंगो। ४२५१.वणिया ण संचरंती, हट्टा ण वहंति कम्मपरिहाणी। ___ दोहि वि पत्तो ततिओ, पढमो बितिओ य एक्केणं॥ गेलण्णाऽऽएसेसु व, किं काहिति अगहिते पुव्विं ।। क्षेत्र और काल से प्राप्त और अप्राप्त की चतुर्भंगी होती वर्षाकाल में वणिक् क्रय-विक्रय के लिए गांवों में घूमते हैं, है-१. क्षेत्र से प्राप्त काल से नहीं। वर्षाऋतु में हाट नहीं लगते अतः यदि कुटुम्बीजन संचय न २. काल से प्राप्त क्षेत्र से नहीं। करें तो उनके कर्म अर्थात् हलकर्षण आदि की हानि होती है। ३. क्षेत्र और काल दोनों से प्राप्त। ग्लानत्व हो जाने पर, प्राघूर्णक के आ जाने पर वे कुटुंबी क्या ४. क्षेत्र और काल दोनों से प्राप्त नहीं। कर सकते हैं, यदि संचित किया हुआ न हो तो। इसमें तीसरा विकल्प दोनों से प्राप्त है। चौथा विकल्प ४२५२.तह अन्नतित्थिगा वि य, दोनों से प्राप्त नहीं है। पहला और दूसरा विकल्प एक-एक से जो जारिसो तस्स संचयं कणति। प्राप्त है। इह पुण छण्ह विराहण, ४२४७.वासाखित्त पुरोखड, उडुबद्ध ठियाण खेत्तओ पत्तो। पढमम्मि य जे भणिय दोसा।। अद्धाणमादिएहिं, दुल्लभखित्ते व बीओ उ॥ तथा अन्यतीर्थिक' भी अपने-अपने प्रयोजन के अनुसार वर्षाक्षेत्र को पुरस्कृत कर पहले से ही ऋतुबद्धकाल में उसका अतिरिक्त संचय करते हैं। जैनशासन में यदि यतिवर्ग स्थित मुनियों के लिए 'क्षेत्र से प्राप्त' यह प्रथम भंग होता है। वर्षाऋतु के लिए अतिरिक्त उपकरण ग्रहण नहीं करते तो छह अध्व-प्रतिपन्न आदि कारणों से अथवा वर्षावास क्षेत्र की जीवनिकायों की विराधना होती है और प्रथमसमवसरण दुर्लभता के कारण, अपान्तराल क्षेत्रों में आषाढ़पूर्णिमा आ (वर्षाकाल) में उपकरण-ग्रहण के जो दोष कहे गए हैं वे दोष गई-यह दूसरा विकल्प है। भी प्राप्त होते हैं। १. सरजस्क-राख का, दकसौकरिक-मिट्टी का, बोटिक-छगण और लवण का। (वृ. पृ. ११५३) न Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ बृहत्कल्पभाष्यम् ४२५३.रयहरणेणोल्लेणं, पमज्जणे फरुससाल पुढवीए। दिए जाएं तो उपधिनिष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। वे यदि वस्त्र गामंतरित गलणे, पुढवी उदगं च दुविहं तु॥ के अभाव में अनेषणीय उपकरण या अग्नि का सेवन करते हैं वर्षाऋतु में मुनिवर्ग फरुसशाला-कुंभकारशाला में स्थित तो उसका प्रायश्चित्त वस्त्र न देने वाले मुनियों को प्राप्त होता हैं। वे आर्द्र रजोहरण से प्रमार्जन करते हैं। उससे पृथ्वीकाय है। यदि वे मुनि अपने स्वयं के वस्त्र देते हैं और स्वयं तृण की विराधना होती है। भिक्षाचर्या के लिए ग्रामान्तर में जाते- आदि का उपभोग करते हैं तो तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। आते वर्षा में रजोहरण आर्द्र हो गया हो, उससे पानी झर रहा ४२५८.अत्तट्ट परट्ठा वा, ओसरणे गेण्हमाणे पण्णरस। हो तो पृथ्वी तथा दो प्रकार के उदक भौम और अंतरिक्ष की दाउ परिभोग छप्पति, डउरं उल्ले य गेलण्णं ।। विराधना होती है। प्रथमसमवसरण में स्वयं के लिए या दूसरों के लिए ४२५४.अहवा अंबीभूए, उदगं पणओ य तावणे अगणी। उपधि ग्रहण करने पर पन्द्रह उद्गम दोष प्राप्त होते हैं। उल्लंडगबंध तसा, ठाणाइसु केण व पमज्जे॥ अपनी उपधि दूसरों को देकर स्वयं एक ही प्रत्यवतार का भीगे हुए रजोहरण से पानी सूखता नहीं, इसलिए वह प्रतिदिन भोग करता है तो उसमें जूं आदि सम्मूर्च्छित हो अम्लीभूत हो जाता है। उससे प्रमार्जन करने पर पानी की जाती हैं। भक्त-पान में उनके गिर जाने पर, उसका परिभोग विराधना होती है। रजोहरण में पनक-फूलन आ जाती है। इस करने पर जलोदर रोग हो सकता है तथा आर्द्र वस्त्रों को दोष को मिटाने के लिए यदि अग्नि से उसको तपाया जाता है धारण करने से अजीर्ण रोग हो जाता है। तो अग्निकाय की विराधना होती है। उदकार्द्र रजोहरण से ४२५९.तम्हा उ गेण्हियव्वं, बितियपदम्मिं जहा ण गेण्हेज्जा। प्रमार्जन करने पर उल्लंडक-मिट्टी के गोलक रजोहरण की अद्धाणे गेलन्ने, अहवा वि भवेज्ज असतीए। फलियों से लग जाते हैं। उससे प्रमार्जन करने पर त्रसकाय की इसलिए अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण किए जा सकते हैं। अपवादपद विराधना होती है। तो प्रश्न होता है कि स्थान, निषीदन आदि में अर्थात् अध्वनिर्गत, ग्लानावस्था या असत्ता में अतिरिक्त वस्त्र में किससे प्रमार्जन किया जाए? ग्रहण नहीं किया जा सकता है। (व्याख्या आगे) ४२५५.एमेव सेसगम्मि, संजमदोसा उ भिक्खणिज्जोए। ४२६०.कालेणेवदिएणं, पाविस्सामंतरेण वाघातो। चोल-निसिज्जा उल्ले, अजीर गेलण्णमायाए॥ गेलण्णे वाऽऽत-परे, दुविधा पुण होति असती उ॥ इसी प्रकार शेष उपकरण तथा भिक्षानिर्योग (पटलक, मार्गगत मुनियों ने सोचा कि इतने समय में हम वर्षाक्षेत्र पात्रकबंध आदि) ग्रहण करने पर भी संयमदोष होते हैं। वर्षा से में पहुंच जायेंगे। परंतु मध्य में ही कोई व्याघात हो गया। चोलपट्ट और निषद्या के भीग जाने पर, प्रतिदिन उनका इसलिए काल के अतिक्रान्त होने पर वर्षाक्षेत्र में पहुंचे। फिर परिभोग करने पर, अजीर्ण रोग उत्पन्न हो जाता है और उससे भी अतिरिक्त उपधि ग्रहण न करे। अथवा स्वयं के या दूसरे ग्लानत्व होता है। इससे आत्मविराधना होती है। के ग्लान हो जाने पर भी अतिरिक्त उपधि ग्रहण न करे। ४२५६.अद्धाणणिग्गतादी, परिता वा अहव णट्ठ गहणम्मि। असत्ता दो प्रकार की होती है-सअसत्ता और असद् जं च समोसरणम्मिं, अगेण्हणे जं च परिभोगो॥ असत्ता। इन कारणों से अतिरक्त वस्त्र ग्रहण न करने पर भी अध्वनिर्गत मुनियों के पास परीत-परिमित वस्त्र होते हैं। मुनि शुद्ध है। अथवा नष्ट-अपहृत उपकरण वाले या प्रत्यनीक के द्वारा ४२६१.गहिए व अगहिए वा, अप्पत्ताणं तु होति अतिगमणं। गृहीत उपकरण वाले होते हैं। उनका यदि वस्त्र से अनुग्रह न उवही-संथारग-पादपुंछणादीण गहणट्ठा॥ किया जाए तो दोष लगता है। यदि प्रथमसमवसरण में वस्त्र वर्षावास के प्रायोग्य उपधि को ग्रहण कर लेने या ग्रहण ग्रहण किया जाए तो दोष जाल प्राप्त होता है। यदि उपकरण न करने पर भी वर्षावास काल के अप्राप्त होने पर भी पांच ग्रहण नहीं करते और तृण आदि का परिभोग करते हैं तो दिन पहले वहां प्रवेश किया जा सकता है। उसका प्रयोजन अनेक दूषण प्राप्त होते हैं। है-वर्षाकल्प आदि उपधि, संस्तारक, पादपोंछन-रजोहरण ४२५७.अद्धाणणिग्गयादीणमदेंते होति उवधिनिप्फन्नं। आदि तथा तृण, डगलक आदि को ग्रहण करने के लिए। जं ते अणेसणऽग्गिं, सेवे देंतऽप्पणा जं च॥ ४२६२.कालेण अपत्ताणं, पत्ता-ऽपत्ताण खेत्तओ गहणं। अध्वनिर्गत मुनियों के आने पर यदि उनको वस्त्र नहीं वासाजोगोवधिणो, खेत्तम्मि तु डगलमादीणि॥ १. सद् असत्ता-वस्त्र अनेषणीय प्राप्त हो रहा है। अथवा सभी मुनि अतः सभी के योग्य अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण करना शक्य नहीं है। वस्त्र-ग्रहण करने के लिए कल्पिक नहीं हैं, केवल एक कल्पिक है, असद् असत्ता-मार्गणा करने पर भी वस्त्र नहीं मिलता। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ४३९ ___ काल से अप्राप्त तथा क्षेत्र से प्राप्त या अप्राप्स ये वर्षावासयोग्य पटलक, पात्रबंध आदि का ग्रहण करते हैं- इससे प्रथम और चौथा भंग सूचित किया है। कालतः प्राप्त या अप्राप्त और क्षेत्रतः प्राप्त-ये डगलक आदि ग्रहण करते हैं। इससे दूसरा और तीसरा भंग सूचित किया है। ४२६३.डगल-ससरक्ख-कुडमुह मत्तगतिग-लेव-पादलेहणिया। संथार-पीढ-फलगा, णिज्जोगो चेव दुगुणो तु॥ डगलक, सरजस्क राख, कुटमुख-घटकंठक, मात्रक- त्रिक-खेलमात्रक, कायिकीमात्रक, संज्ञामात्रक, लेप, पाद- लेखनिका, संस्तारक, पीढ़, फलक, निर्योग-पात्र संबंधी तथा द्विगुण प्रत्यवतार-ये उस समय ग्रहण किए जाते हैं। ४२६४.चत्तारि समोसरणे, मासा किं कप्पती ण कप्पति वा। कारणिग पंच रत्ता, सव्वेसिं मल्लगादीणं॥ शिष्य ने पूछा-आर्यवर! आषाढ़ पूर्णिमा के पश्चात् प्रथम समवसरण के चार मास में पूर्व कथित द्रव्य लेने कल्पते हैं या नहीं? सूरी ने कहा-उत्सर्गतः नहीं कल्पते। किन्तु सभी मल्लक आदि उपकरणों के लिए कारणवश पांच-पांच दिन रात के प्रवर्धमानरूप से यावत् भाद्रवपद शुक्ला पंचमी को ग्रहण करके या न करके पर्युषण कल्प की नियमतः स्थापना कर देनी चाहिए। ४२६५.तेसिं तत्थ ठिताणं, पडिलेहुच्छुद्ध चारणादीसु। लेवाईण अगहणे, लहुगा पुब्बिं अगहिते वा॥ जो वर्षावास में स्थित हैं उनकी सामाचारी यह है-सभा, प्रपा आदि में पथिकों द्वारा उत्सुद्ध-परित्यक्त वस्त्र की प्रत्युपेक्षा करे। उसके अभाव में चारणों के यहां उसकी प्रत्युपेक्षा करे। वर्षाकाल में लेप आदि ग्रहण करने पर तथा पूर्व में यदि लेप आदि ग्रहण न किए हो तो दोनों में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। ४२६६.वासाण एस कप्पो, ठायंता चेव जाव उ सकोसं। परिभुत्त विप्पइण्णं, वाघातट्ठा निरिक्खंति॥ वर्षावास में रहने वालों की यह सामाचारी है-वहां रहने वालों के लिए चारों ओर सकोश एक योजन तक कार्पदिकों के द्वारा परिभुक्त या विप्रकीर्ण अन्नपान आदि का, व्याघात होने पर, निरीक्षण करते हैं। व्याघात हैं४२६७.अद्धाणणिग्गतादी, झामिय वूढे व सेह परिजुण्णे। आगंतु बाहि पुब्विं, दिटुं अस्सण्णि-सण्णीसु॥ अध्वनिर्गत आदि मुनि आ जाएं, स्वयं की उपधि जल जाए, अथवा वह प्रवाहित हो जाए, शैक्ष यदि प्रव्राजनीय हो, उपधि परिजीर्ण हो जाए-इन कारणों से आगंतुक तालचर आदि से पहले मार्गणा करनी चाहिए, फिर क्षेत्र के बाहर रहने वाले असंज्ञी से, संज्ञी से पूर्व दृष्ट वस्त्र की मार्गणा करनी चाहिए, ग्रहण करना चाहिए। ४२६८.तालायरे य धारे, वाणिय खंधार सेण संवट्टे । लाउलिग-वइग - सेवग - जामाउग - पंथिगादीसुं॥ पहले निम्न से मार्गणा करे-तालाचार-नट, नर्तक, धारदेवछत्रधारक, वणिक्, स्कंधावार, सेना, संवर्त-डाकुओं के भय से नायकाधिष्ठित अनेक ग्रामों की एकत्र संस्थिति, लाकुटिक, वजिक, सेवक, जामातृक, पथिक आदि से। ४२६९.आगंतुगेसु पुव्वं, गवेसती चारणादिसू बाहिं। पच्छा जे सग्गामं, तालायरमादिणो एंति।। सक्रोशयोजनान्तरगत बाह्य ग्रामों में जो आगंतुक चारण आदि हैं, उनमें पहले गवेषणा कर, पश्चात् चारणों के अभाव में, स्वग्राम में आगंतुक तालाचर आदि में गवेषणा करे। ४२७०.लद्धूण णवे इतरे, समणाणं देज्ज सेव-जामादी। चारण-धार-वणीणं, पडंति इयरे उ सहितगा। सेवक, जामातृक आदि नये वस्त्रों को प्राप्त कर इतर अर्थात् पुराने वस्त्र श्रमणों को देते हैं। चारण तथा देवच्छत्रधारकों को राजा नए वस्त्र देता है तब वे पुराने वस्त्र साधुओं को दे देते हैं। वणिक वर्ग के वस्त्र मार्ग में गिर जाते हैं, सफेद वस्त्र साधु ग्रहण कर लेते हैं। इतर अर्थात् पथिक श्रावक हो सकते हैं, वे साधुओं को वस्त्र देते हैं। ४२७१.बहि-अंत-ऽसण्णि-सण्णिसु, जं दि8 तेसु चेव जमदिट्ठ। केयि दुहओ वऽसण्णिसु, गहिते सण्णीसु दिट्टितरे।। बहिः अर्थात् क्षेत्राभ्यन्तर में प्रतिवृषभग्राम में असंज्ञी या संज्ञी से पूर्वदृष्ट वस्त्र की मार्गणा करे अथवा जो पूर्व में अदृष्ट वस्त्र है, उसकी मार्गणा करे। कुछ आचार्य कहते हैं-दोनों अर्थात् बाह्य और अन्तर् ग्राम में यथाक्रम दृष्ट और अदृष्ट की गवेषणा करे। पहले असंज्ञी से ग्रहण कर लेने पर पश्चात् संज्ञी से दृष्ट और अदृष्ट वस्त्र ग्रहण करे। ४२७२.कोई तत्थ भणेज्जा, बाहिं खेत्तस्स कप्पती गहणं। गंतुं ता पडिसिद्धं, कारण गमणे बहुगुणं तु॥ . इस कथन पर कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है-क्षेत्र के बाहर यदि प्रतिवृषभग्राम में वस्त्र का ग्रहण कल्पता है, क्या वह सदा के लिए कल्पेगा? वर्षा में वहां जाना भी प्रतिषिद्ध है तो फिर वस्त्र-ग्रहण की बात ही क्या? आचार्य कहते हैं कारण से वर्षाकाल में बाहर जाना बहुत गुणों के लिए होता है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ४२७३. एवं नामं कप्पति, जं दूरे तेण बाहि गिण्हंतु। एवं भणंति गुरुगा, गमणे गुरुगा व लहुगा वा॥ आचार्य शिष्य को कहते हैं कि यदि तुम यह कहते हो कि ग्राम से दूर अर्थात् ग्राम से बाहर यदि प्रारंभ से ही वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है जो सदा बाहर कल्पेगा? इस प्रकार कहने वाले को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। क्षेत्र से बाहर गमन करने पर गुरु या लघु प्रायश्चित्त आता है-नवप्रावृड़ में चतुर्गुरु और शेष वर्षावास में चतुर्लघु। ४२७४.संबद्ध-भाविएसू, कप्पति जा पंच जोयणे कज्जे। जुण्णे व वासकप्पं, गेण्हति जं बहुगुणं चऽण्णं॥ जो साधर्मिक संबंध से संबद्ध क्षेत्र हैं, उनमें साधर्मिकों के समाचार वहन करते हुए वर्षाकाल में पांच योजन तक जाना कल्पता है और यदि उसका वर्षाकल्प परिजीर्ण हो गया हो तो नए वर्षाकल्प को बहुगुणवाला मानकर उसे ग्रहण कर लेता है। तथा कारणवश अन्य वस्त्र भी वह ग्रहण करता है। ४२७५.आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे य मीसजाए य। ठवणा पाहुडियाए, पादोकर कीत पामिच्चे॥ ४२७६.परियट्टिए अभिहडे, उब्भिण्णे मालोहडे इ य। __ अच्छिज्जे अणिसिद्वे, धोते रत्ते य घटे य॥ ग्रहण करने पर ये १६ दोष होते हैं। १. आधाकर्म ९. प्रामित्य २. औद्देशिक १०. परिवर्तित ३. पूतिकर्म ११. अभ्याहृत ४. मिश्रजात १२. उद्भिन्न ५. स्थापना १३. मालापहृत ६. प्राभृतिका १४. आच्छेद्य ७. प्रादुष्करण १५. अनिसृष्ट ८. क्रीत १६. धौत, रक्त और घृष्ट। ४२७७.एते सव्वे दोसा, पढमोसरणे ण वज्जिता होति। जिणदिवहिं अगहिते, जो गेण्हति तेहि सो पुट्ठो॥ ये सारे दोष प्रथम समवसरण में वस्त्र आदि के ग्रहण में वर्जित नहीं हैं। जो मुनि दर्पवश उपकरणों को पहले ग्रहण न कर प्रथम समवसरण में ग्रहण करता है वह तीर्थंकरों द्वारा दृष्ट कर्मबंध के दोषों से स्पष्ट होता है। ४२७८.पढमम्मि समोसरणे, जावतियं पत्त-चीवरं गहियं। सव्वं वोसिरियव्वं, पायच्छित्तं च वोढव्वं॥ प्रथम समवसरण में दर्पवश जितने पात्र और वस्त्र ग्रहण किए हैं उन सबको व्युत्सृष्ट कर प्रायश्चित्त वहन करना चाहिए। =बृहत्कल्पभाष्यम् ४२७९.सज्झायट्ठा दप्पेण वा वि जाणंतए वि पच्छित्तं। कारण गहियं तु विदू, धरेतऽगीएसु उज्झंति॥ गीतार्थ भी यदि स्वाध्याय के लिए अथवा दर्पवश भी वस्त्र आदि लेता है तो उसे भी प्रायश्चित्त आता है। यदि सारे गीतार्थ हों और कारणवश लिया हो तो वे उसे धारण कर सकते हैं। यदि गच्छ गीतार्थ मिश्र हो तो दूसरे उपकरण मिलने पर, उसका परित्याग कर दे। ४२८०.आसाढपुण्णिमाए, वासावासासु होति अतिगमणं। मग्गसिरबहुलदसमी, उ जाव एक्कम्मि खेत्तम्मि॥ आषाढ़ पूर्णिमा के दिन वर्षावास के क्षेत्र में अतिगमन अर्थात् प्रवेश करना चाहिए और (अपवाद में) मृगशिर कृष्णा दशमी तक एक ही क्षेत्र में रहा जा सकता है। उत्सर्ग में कार्तिक पूर्णिमा को वहां से निर्गमन कर देना चाहिए। ४२८१.बाहि ठिया वसभेहिं, खेत्तं गाहेत्तु वासपाउग्गं। कप्पं कधेत्तु ठवणा, सावणबहुलस्स पंचाहे। वृषभ मुनि वर्षाप्रायोग्य क्षेत्र के निकट ठहरे हुए हैं। वे वर्षाक्षेत्र की सामाचारी को ग्रहण करते हैं अर्थात् तृण, डगलक आदि वर्षाप्रायोग्य वस्तुओं को ग्रहण करते हैं। मुनि आषाढ़पूर्णिमा को प्रवेश कर प्रतिपदा से पांच दिनों में पर्युषणाकल्प का कथन कर श्रावण कृष्णा पंचमी को वर्षाकाल की सामाचारी की स्थापना करते हैं। ४२८२.एत्थ य अणभिग्गहियं, वीसतिरायं सवीसगं मासं। तेण परमभिग्गहियं, गिहिणायं कत्तिओ जाव॥ श्रावण कृष्णा पंचमी को पर्युषणा की स्थापना कर देने पर भी अनवधारित है, ऐसा गृहस्थों के सामने कहना चाहिए। शिष्य पूछता है, इस अनवधारित का इयत्ताकाल कितना है? आचार्य कहते हैं-अभिवर्धित संवत्सर में बीस दिन-रात और चान्द्रसंवत्सर में एक मास बीस दिन-यह अनवधारित का इयत्ताकाल है। उसके पश्चात् अभिगृहीत अर्थात् निश्चित कर देना चाहिए। गृहस्थों के पूछने पर ज्ञापना कर देनी चाहिए कि हम यहां वर्षाकाल के लिए स्थित हैं। हम यहां कार्तिक मास तक रहेंगे। ऐसा गृहिज्ञात करना चाहिए। ४२८३.असिवाइकारणेहि, अहवण वासं ण सुट्ठ आरद्धं । अभिवड्डियम्मि वीसा, इयरेसु सवीसती मासे॥ शिष्य ने पूछा-अनवधारित काल इतना क्यों? सूरी कहते हैं-कदाचित् उस क्षेत्र में अशिव आदि हो जाए, अथवा वर्षा का बरसना अभी ठीक से प्रारंभ नहीं हुआ है, अतः अपवादों से बचने के लिए अभिवर्धित संवत्सर में बीस दिन और चान्द्र संवत्सर में एकमास बीस दिन का अनवधारित काल है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ४२८४. एत्थ उ पणगं पणगं, कारणिगं जा सवीसती मासो । सुद्धदसमीठियाण व, आसाढीपुण्णिमोसरणं ॥ अत्र अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा में स्थित साधु-साध्वी श्रावण कृष्णा पंचमी को पर्युषणा करते हैं। यदि आषाढ़ी पूर्णिमा को वर्षावास के क्षेत्र को प्राप्त न हुए हों तो पांच दिन रात तक वर्षावासप्रायोग्य उपधि को ग्रहण कर, दसमी को पर्युषणा करते हैं। इस प्रकार कारणवश पांच-पांच रात दिन बढ़ाते हुए तब तक यह बढ़ाते रहें, जब तक कि एकमास और बीस दिन-रात न बीत जाएं। अथवा जो आषाढ़ शुक्ला दसमी को वर्षाक्षेत्र में स्थित हो गए हों तो वे आषाढ़ी पूर्णिमा को समवसरण अर्थात् पर्युषणा करते हैं। यह उत्सर्ग विधि है । अपवाद में भी आषाढ़ी पूर्णिमा से आगे एक मास और बीस रात का अतिक्रमण करना ही नहीं चाहिए अर्थात् भाद्रपद शुक्ला पंचमी को तो पर्युषणा कर ही लेना चाहिए । ४२८५. इय सत्तरी जहण्णा, असिती णउई दसुत्तर सयं च । जति वासति मग्गसिरे, दस राया तिण्णि उक्कोसा ॥ जो आषाढ़ी पूर्णिमा से आगे एक मास और बीस दिनरात को पर्युषणा करते हैं उनके ७० दिन का जघन्य वर्षावास होता है तथा भाद्र शुक्ला पंचमी से कार्तिक पूर्णिमा तक भी ७० दिन ही रहते हैं। जो भाद्रव कृष्णा दशमी को पर्युषणा करते हैं, उनके ८० दिन का मध्यम वर्षावास होता है। जो श्रावणी पूर्णिमा को पर्युषणा करते हैं उनके कार्तिक पूर्णिमा तक ९० दिन का, श्रावण शुक्ला पंचमी को पर्युषणा करने वाले के १०० दिन का और श्रावण कृष्णा को पर्युषणा करने पर ११० दिन का वर्षावास होता है। यदि मृगसर मास में वर्षा होती है तो उत्कृष्टतः तीन दस रात्रियों तक (अर्थात् पूरे मृगसर मास तक ) वहां रहा जा सकता है। फिर पौष की प्रतिपदा को अवश्य विहार कर देना चाहिए। यह पंचमासिक उत्कृष्ट वर्षावास है। ४२८६. काऊण मासकप्पं, तत्थेव ठिताणऽतीते मग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासिओ उ जेट्टोग्गहो होति ॥ जिस क्षेत्र में आषाढमासकल्प किया है और वहीं वर्षावास किया है और वर्षा आदि के कारण मृगसर मास में भी वहीं रहना पड़ता है तो ऐसे सालंबन मुनियों के छह मास का ज्येष्ठावग्रह - उत्कृष्ट वर्षावास होता है। ४२८७.अह अत्थि पदवियारो, चउपाडिवयम्मि होति निग्गमणं । अहवा वि अणिताणं, आरोवण पुव्वनिद्दिट्ठा ॥ यदि पाद विहार योग्य मार्ग हों तो चातुर्मास के बाद आने ४४१ वाली प्रतिपदा को निर्गमन कर देना चाहिए। यदि निर्गमन नहीं करते तो पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा प्रायश्चित्त (चतुर्लघु) आता है। ४२८८. पुण्णम्मि णिग्गयाणं, साहम्मियखेत्तवज्जिते गहणं । संविग्गाण सकोसं, इयरे गहियम्मि गेण्हंति ॥ वर्षावास पूर्ण होने पर निर्गत निर्ग्रन्थ साधर्मिकों द्वारा किए गए वर्षावास क्षेत्र को छोड़कर अन्य ग्राम-नगरों में उपकरण ग्रहण कर सकते हैं। सांभोगिक मुनियों का जो वर्षाक्षेत्र हो, उसका सक्रोशयोजन तक के क्षेत्र को छोड़कर उपकरण ग्रहण कर सकते हैं। इतर अर्थात् पार्श्वस्थ आदि का जो वर्षावासक्षेत्र हो वहां उनके द्वारा उपकरण ग्रहण कर लेने के पश्चात् मुनि वहां उपकरण ग्रहण कर सकते हैं। ४२८९. वासासु वि गिण्हंती, णेव य णियमेण इतरे विहरती । तहि सुद्धमसुद्धे, गहिए गिण्हंति जं सेसं ॥ पार्श्वस्थ आदि वर्षाऋतु में भी वस्त्र लेते हैं। वे नियमतः चतुर्मास के पश्चात् विहार नहीं करते। अतः शुद्ध या अशुद्ध रूप से गृहीत उपकरणों के पश्चात् शेष वस्त्र आदि मासद्वय के मध्य में लिए जा सकते हैं। ४२९०. सक्खेत्ते परखेत्ते वा, दो मासा परिहरेत्तु गेण्हति । जं कारणं ण णिग्गय, तं पि बहिंझोसियं जाणे ॥ वह क्षेत्र जहां स्वयं ने वर्षावास किया था अथवा परक्षेत्र अर्थात् जहां संविग्न मुनियों ने वर्षावास किया हो, उन क्षेत्रों में दो मास का वर्जन कर तीसरे मास में वस्त्र आदि लिए जा सकते हैं। चतुर्मास के अनन्तर कारणवश जितने समय तक विहार न किया हो, उस काल को भी बहिर्निर्गत काल की भांति मानना चाहिए। ४२९१.चिक्खल-वास-असिवादिसु दिंते पडिसेधेत्ता, जहिं कारणेसु उ णणिति । हंति उ दोसु पुण्णेसु ॥ मार्ग चिक्खलयुक्त हो गए हों, वर्षा अभी तक न रुकी हो, अशिव, दुर्भिक्ष आदि हों इन कारणों से चतुर्मास के बाद विहार न हुआ हो और यदि वहां कोई वस्त्र आदि ग्रहण करने के लिए निमंत्रण दे तो उसका प्रतिषेध करे। दो मास पूर्ण हो जाने पर वस्त्र आदि ग्रहण किए जा सकते हैं। ४२९२.भावो उ णिग्गतेहिं, वोच्छिज्जइ देंति ताई अण्णस्स । अत्तट्ठेति व ताई, एमेव य कारणमणिते ॥ वर्षावास में स्थित मुनियों के विहार कर जाने पर श्रद्धालुओं के वस्त्रदान के जो भाव थे वे व्यवच्छिन्न हो जाते हैं। वे फिर उन वस्त्रों को दूसरों को देते हैं अथवा उनका . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ बृहत्कल्पभाष्यम् स्वयं के लिए उपभोग करते हैं। यदि कारणवश वहीं रहना पड़े तो दो मास के पश्चात् उनको ग्रहण किया जा सकता है अथवा कारणवश दो मास के मध्य में भी उन्हें ग्रहण कर सकता है। ४२९३.गच्छे सबाल-बुड्ढे, असती परिहर दिवड्डमासं तु। पणतीसा पणुवीसा, पण्णरस दसेव एक्कं च॥ सबाल-वृद्ध गच्छ में वस्त्र का यदि अभाव हो तो डेढ़ मास का वर्जन कर अवन्तर वस्त्र लिए जा सकते हैं। यदि डेढ़मास का परिहार शक्य न हो तो २५ दिन का परिहार करे, यदि वह भी शक्य न हो तो पन्द्रह दिन या दस दिन या एक दिन का परिहार अवश्य करे। ४२९४.बाल-ऽसहु-वुड्ड-अतरंग खमग-सेहाउलम्मि गच्छम्मि। सीतं अविसहमाणे, गेण्हंति इमाए जयणाए॥ वस्त्र के अभाव में बाल, असहिष्णु, वृद्ध, ग्लान, क्षपकइनसे आकुल गच्छ में शीत को सहना असंभव होता है अतः इस वक्ष्यमाण यतना से स्वक्षेत्र या परक्षेत्र में वस्त्र ग्रहण कर सकते हैं। ४२९५.पंचूणे दो मासे, दसदिवसूणे दिवड्डमासं वा। दस-पंचऽधियं मासं, पणुवीसदिणे व वीसं वा। ४२९६.पन्नरस दस य पंच व,दिणाणि परिहरिय गेण्ह एगं वा। अहवा एक्कक्कदिणं, अउणट्ठिदिणाई आरब्भ॥ मुनि कारणवश आषाढ़ मास में वर्षावासक्षेत्र में स्थित हुए हों तो पांच दिन न्यून दो मास छोड़कर वस्त्र ग्रहण करें। अथवा दस दिवस न्यून दो मास, डेढ़ मास अथवा दस या पांच दिवस अधिक एक मास, पचीस दिन, बीस दिन, पन्द्रह दिन, दस दिन, पांच दिन यथाक्रम से छोड़कर वस्त्र लिए जा सकते हैं। यदि शीत सहन करने में असमर्थ हों तो चार दिन, तीन दिन, दो दिन छोड़कर वस्त्र ग्रहण किए जा सकते हैं। अथवा यहां एक-एक दिन की हानि करनी चाहिए। जैसे-जहां वर्षावास किया है वहां साठ दिनों के पश्चात् वस्त्र ग्रहण किया जा सकता है। कारणवश उनसठ दिनों से आरंभ कर एक-एक दिन की हानि करते हुए, एक दिन शेष रहते वस्त्र ग्रहण किया जा सकता है। ४२९७.बिइयम्मि समोसरणे, मासा उक्कोसगा दुवे होति। ओमत्थगपरिहाणीय पंच पंचेव य जहण्णे॥ दूसरे समवसरण में अर्थात् ऋतुबद्धकाल में जहां उत्कृष्टतः एक मास रह चुके हैं तो दो मास उत्कृष्टतः १. उत्कृष्टतः चतुर्लघु, मध्यम मासिक और जघन्यतः पंचक। छोड़कर फिर वस्त्र ग्रहण करें। कारणवश अवाङ्मुख परिहानि से पांच-पांच दिनों की हानि करते हुए जघन्यतः एक दिन का परिहार कर फिर वस्त्र लें। ४२९८.अपरिहरंतस्सेते, दोसा ते च्चेव कारणे गहणं। बाल-वुड्ढाउले गच्छे, असती दस पंच एक्को य॥ ऋतुबद्धकाल में जहां एक मास रह गए वहां दो महीनों का परिहार करना चाहिए। यदि परिहार नहीं किया जाता है तो वे ही दोष प्राप्त होते हैं जो वर्षावास में दो महीनों का परिहार न करने पर होते हैं। कारण में वस्त्र-ग्रहण किया जा सकता है। बाल-वृद्धाकुल गच्छ में वस्त्र के अभाव में एकएक की परिहानि से दस-पांच अथवा एक दिन की परिहानि पर्यन्त यह क्रम करें। ४२९९.करणाणुपालयाणं, भगवतो आणं पडिच्छमाणाणं। जो अंतरा उ गेण्हति, तट्ठाणारोवणमदत्तं। जो मुनि चरण-करण के अनुपालक हैं तथा जो भगवान् वर्द्धमान स्वामी की आज्ञा को यथावत् स्वीकार करते हैं, उनके द्वारा अगृहीत वस्त्रों को जो लेते हैं, उनको स्वस्थानप्रायश्चित्त आता है।' तथा वह अदत्त का ग्रहण भी होता है। ४३००.उवरिं पंचमपुण्णे, गहणमदत्तं गत त्ति गेण्हंति। अणपुच्छ दुपुच्छा वा, तं पुण्णे गत त्ति गेण्हंति॥ परक्षेत्र में दो मास और पांच दिन न बीतने पर जो वस्त्रग्रहण करता है, उसके अदत्तादान दोष लगता है। यदि वे जान जाते हैं कि क्षेत्रस्वामी वहां से चले गए हैं तो अवधि पूर्ण होने से पूर्व भी वे ग्रहण करते हैं। यदि क्षेत्रस्वामी परदेश न गए हों तो वे बिना पूछे या दुःपृच्छा-अविधि से पूछकर ग्रहण करते हैं तो वे भी अदत्तादान दोष को प्राप्त होते हैं। अतः वे मुनि वस्त्र आदि का ग्रहण दो मास पूर्ण होने पर तभी करते हैं जब वे निश्चयरूप से जान लेते हैं कि क्षेत्रस्वामी परदेश चले गए हैं। ४३०१.गोवाल-वच्छवाला-कासग-आदेस-बाल-वुड्डाई। अविधी विही उ सावग-महतर-धुवकम्मि-लिंगत्था॥ गोपाल, वत्सपाल, कृषक, अतिथि, बालक या वृद्धइनको पूछना अविधि पृच्छा है और श्रावक, महत्तर, ध्रुवकर्मिक-लोहकार, रथकार आदि तथा लिंगस्थ इनको पूछना विधिपृच्छा है। ४३०२.गंतूण पुच्छिऊण य, तेसिं वयणे गवेसणा होति। तेसाऽऽगतेसु सुद्धेसु जत्तियं सेस अग्गहणं॥ क्षेत्रस्वामी के पास जाकर विधिवत् पृच्छा कर, उनके वचन अर्थात् अनुज्ञा से वस्त्र-गवेषणा करनी चाहिए। वस्त्र Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक= ४४३ ग्रहण किया और वे क्षेत्रस्वामी आ गए तो उनको विधिपूर्वक क्षेत्रिकों को प्रत्यर्पित कर देते हैं, वे शुद्ध हैं। जो प्रत्यर्पित पूछकर जितना वस्त्र शुद्ध हो अर्थात् उनकी अनुज्ञा हो उतना नहीं करते, उनके वे ही पूर्वोक्त दोष होते हैं। आकुट्टी अर्थात् ग्रहण करें, शेष ग्रहण न करे। आभोग से जानकर ग्लान के लिए ग्रहण किया, उसमें से ४३०३.उप्पन्न कारणाऽऽगंतु पुच्छिउं तेहि दिण्ण गेण्हंति।। ग्लान के लिए जितना आवश्यक हो उतना रखे, शेष का तेसाऽऽगयेसु सुद्धेसु जत्तियं सेस अग्गहणं॥ ग्रहण न करे। कारण उत्पन्न होने पर परक्षेत्र में वस्त्र-ग्रहण करने के लिए आते हैं। वे क्षेत्रस्वामी के पास जाकर पूछते हैं तथा आहाराइणियं वत्थादि-पदं उनके द्वारा अनुज्ञा प्राप्त कर वस्त्र-ग्रहण करते हैं। यदि शुद्ध अर्थात् मूल क्षेत्रस्वामी आ जाएं तो वे जितने वस्त्र-ग्रहण की कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अनुज्ञा देते हैं, उतना ही स्वीकार करे, शेष को न ले। अहाराइणियाए चेलाइं पडिग्गाहित्तए। ४३०४.पडिजग्गंति गिलाणं, ओसहहेऊहि अहव कज्जेहिं। (सूत्र १८) एतेहिं होति सुद्धा, अह संखडिमादि तह चेव॥ क्षेत्रिक मुनि मासद्वय पूर्ण जाने पर भी इन कारणों से नहीं ४३०८.दि8 वत्थग्गहणं, तेसिं परिभायणे इमं सुत्तं। आ पाते-वे ग्लान की परिचर्या में संलग्न हों. औषधि की अविणय असंविभागा, अधिकरणादी य णेवं तु॥ गवेषणा कर रहे हों, अथवा कुल-गुण-संघ के कार्यों में व्यस्त द्वितीय समवसरण में वस्त्रग्रहण की विधि देख ली गई, हों-इन कारणों से रुके हुए मुनि शुद्ध हैं। जो संखडी आदि के ज्ञात हो गई। प्रस्तुत सूत्र उसके विभाजन की विधि बताता कारण रूके हैं, वे अशुद्ध हैं अर्थात् दो मास तक तो वह हूं। शिष्य ने पूछा कि विभाजन का क्या प्रयोजन? आचार्य उनका क्षेत्र था, पश्चात् वह क्षेत्र उनके स्वामित्व में नहीं कहते हैं-इस प्रकार यथारात्निक वस्त्रों का विभाजन कर रहता। दिए जाने पर अविनय, असंविभाग तथा अधिकरण आदि दोष ४३०५.तेणभय सावयभया, नहीं होते। वासेण णदीय वा वि (नि) रुद्धाणं। ४३०९.संघाडएण एक्कतो, हिंडती वंदएण जयणाए। दायव्वमौताणं, साधारणऽणापुच्छा, उ अदत्तं एक्कओ भागा॥ चउगुरु तिविहं च णवमं वा॥ वस्त्रग्रहण करने के लिए एक दिशा में एक संघाटक विशुद्ध कारण ये हैं-स्तेनभय, श्वापदभय, वर्षाभय से ___ घूमता है। उसे वस्त्र प्राप्त नहीं हुए तब अनेक साधु तथा नदी के कारण अवरुद्ध हो गए हों-वे यदि विलंब से यतनापूर्वक घूमते हैं। वह क्षेत्र साधारण है अर्थात् अनेक आते हैं तो भी उनके आने पर जो वस्त्र आदि पहले लिए हैं, आचार्यों के लिए समान है। उन सबको बिना पूछे वस्त्र उनको प्रत्यर्पित करे। जो ऐसा नहीं करता उसके तीन प्रकार आदि ग्रहण करना अदत्त दोष प्राप्त होता है, यह साधर्मिक का प्रायश्चित्त-पंचक, मासिक तथा चतुर्लघु अथवा 'नवक'- स्तैन्य है। पृच्छापूर्वक लेकर उन वस्त्रों का एक समान भाग सूत्र के आदेश से अनवस्थाप्य प्राप्त होता है। करने चाहिए। ४३०६.परदेसगते गाउं, सयं व सेज्जातरं व पुच्छित्ता। ४३१०.निस्साधारण खेत्ते, हिंडतो चेव गीतसंघाडो। गेण्हंति असढभावा, पुण्णेसु तु दोसु मासेसु॥ उप्पादयते वत्थे, असती तिगमादिवंदेणं॥ क्षेत्रीय मुनियों को स्वयं भी परदेश गए हुए जानकर निस्साधारण क्षेत्र अर्थात् एक आचार्य के प्रतिबद्ध क्षेत्र में अथवा शय्यातर को पूछकर, अशठभाव से दो मास पूर्ण होने गीतार्थ संघाटक वस्त्रों के लिए घूमता है और वह वस्त्रों का पर वस्त्र ग्रहण करता है। उत्पादन नहीं कर पाता तो तीन-चार-पांच साधुओं का समूह ४३०७.बिइयपदमणाभोगे, सुद्धा देता अदेंते ते च्चेव। पर्यटन करता है और वस्त्रों की प्राप्ति करता है। आउट्टिया गिलाणादि जत्तियं सेस अग्गहणं॥ ४३११.दुगमादीसामण्णे, अणपुच्छा तिविह सोधि णवमं वा। इसमें अपवादपद यह है-अनाभोग अर्थात् यह सम्यक् संभोइयसामन्ने, तह चेव जहेक्कगच्छम्मि॥ रूप से नहीं जान पाए कि यहां मुनियों ने वर्षाकल्प या जो क्षेत्र दो-तीन आदि आचार्यों का सामान्य क्षेत्र है, वहां मासकल्प किया या नहीं और वे परक्षेत्र में वस्त्र आदि ग्रहण बिना पूछे वस्त्र आदि ग्रहण करता है तो उसके तीन प्रकार कर लेते हैं, और सम्यग जान लेने पर गृहीत वस्त्र आदि की शोधि अर्थात् प्रायश्चित्त आता है-जघन्यतः पंचक, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ मध्यम मासिक तथा उत्कृष्टतः चतुर्लघु अथवा नवक अर्थात् अनवस्थाप्य। यदि वह क्षेत्र सांभोगिक सामान्य हो तो वहां वस्त्रग्रहण की वही विधि है जो एक गच्छ में होती है। ४३१२.अमणुण्णकुलविरेगे, साही पडिवसभ-मूलगामे य। अहवा जो जं लाभी, ठायंति जधासमाधीए॥ जो क्षेत्र असांभोगिक मुनियों के साथ में हो वहां कुलों का विभाजन करे, साहिका अर्थात् गृहपंक्तियों का अथवा प्रतिवृषभग्राम और मूलग्राम का विभाजन करे अथवा जो जिसको लाभ हो वह उसको ग्रहण करे। इनमें से कोई एक व्यवस्था को स्थापित कर यथासमाधि निवास करे। ४३१३.वत्थेहिं आणितेहिं, देति अहारातिणिं तहिं वसभा। अदाणे गुरुणो लहुगा, सेसे लहुओ इमे होति॥ वस्त्रों को ले आने पर वृषभ मुनि यथारानिकों के क्रम से उन वस्त्रों को देते हैं। यदि उन वस्त्रों में से गुरु को पहले वस्त्र नहीं देते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है, शेष वस्त्रों को यथारात्निक के क्रम से न देने पर लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। रत्नाधिक ये आगे कहे जाने वाले होते हैं। ४३१४.विदुक्खमा जे य मणाणुकूला, जे योवजुज्जति असंथरते। गुरुस्स साणुग्गहमप्पिणित्ता, भाएंति सेसाणि उ झंझहीणा॥ वृषभ मुनि जानते हैं कि कौनसे वस्त्र दृढ़ हैं, मनोनकूल हैं, कौन से वस्त्र वस्त्राभाव वाले गच्छ में उपयोग में आ सकते हैं चाहे वे वस्त्र गुरु द्वारा उपभुक्त भी क्यों न हों। वे वस्त्र गुरु के सानुग्रह से उन मुनियों को अर्पित कर देते हैं। शेष वस्त्रों को यथारात्निक विभाजित कर देने से कलह आदि नहीं होता। ४३१५.उवसंपज्ज गिलाणे, परित्त सुत सोअव्वए य जातीय। तव भासा लद्धीए, ओमे दुविहस्स अरिहा उ॥ रत्नाधिक ये माने जाते हैं-उपसंपन्न, ग्लान, परीत्त- परिमित उपधि वाला, सुत-बहुश्रुत, श्रोतव्य-जो व्याख्यान- मंडली में सूत्रार्थ के सुनने में ज्येष्ठ माना जाता है, जातिस्थविर, तपस्वी, अभाषिक उस देश की भाषा से अनभिज्ञ, वस्त्र प्राप्ति की लब्धि से संपन्न, पर्यायस्थविर तथा ओम-अवमरत्नाधिक ये सब मुनि यथाक्रम दोनों प्रकार =बृहत्कल्पभाष्यम् की उपधि-ओघउपधि और औपग्रहिकउपधि के योग्य माने जाते हैं। ४३१६.एएसि परूवणया, जा य विणा तेहिं होति परिहाणी। अहवा एक्केक्कस्स उ, अडोकंतीक्कमो होति॥ इनकी प्ररूपणा-व्याख्या की जा चुकी है। वस्त्राभाव के कारण इनके जो संयमविराधना आदि होती है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। अथवा उपसंपन्न आदि एक-एक को अ पक्रांतिक्रम से वस्त्र देना चाहिए। वह इस प्रकार है४३१७.उवसंपज्ज गिलाणो, अगिलाणो वा वि दोण्णि वि गिलाणा। तत्थ वि य जो परित्तो, एस गमो सेसगेसुं पि॥ उपसंपन्न दो प्रकार के होते हैं-ग्लान और अग्लान। ग्लान को पहले देना चाहिए। दोनों ग्लान हों तो परीत्त-परिमित उपधि वाले को पहले देना चाहिए। यही प्रकार शेष के विषय में जानना चाहिए। जैसे-दोनों परीत्तोपधि अथवा अपरीत्तोपधि हों तो बहुश्रुत को देना चाहिए। दोनों बहुश्रुत हों तो चिन्तनिकारक को (अर्थात् श्रोतव्य को), दोनों चिन्तनिकारक हों तो जातिस्थविर को। दोनों जातिस्थविर हों तो तपस्वी को, दोनों तपस्वी हों तो अभाषिक को, दोनों अभाषिक हों तो लब्धिमान् को देना चाहिए। ४३१८.आयरिए य गिलाणे, परित्त पूया पवत्ति थेर गणी। ___ सुत भासा लद्धीए, ओमे परियागरातिणिए। पहले आचार्य को वस्त्र देकर पश्चात् ग्लान को देना चाहिए। तत्पश्चात् परीत्त उपधिवाले को, फिर पूजनाह' को (उपाध्याय तथा गुरु संबंधी पिता, चाचा आदि), प्रवर्ती, गणावच्छेदी, श्रुतसंपन्न, अभाषिक और लब्धिसंपन्न-इनको यथाक्रम देना चाहिए। अर्द्धापक्रान्तिचारणिका करनी चाहिए। तत्पश्चात् पर्यायस्थविर को, फिर अवमरात्निक को यथाक्रम देना चाहिए। यह विधि संघाटक द्वारा आनीत वस्त्रों के लिए है। ४३१९.णेगेहिं आणियाणं, परित्त परियाग खुभिय पिंडेता। आवलिया मंडलिया, लुद्धस्स य सम्मता अक्खा। अनेक साधुओं द्वारा आनीत वस्त्रों के विभाजन की विधि यह है-आचार्य आदि के क्रम से परीत्तोपधि तक देकर न घूमने वाले पर्यायस्थविरों को देना चाहिए। वस्त्र लाने वाले कल असेल (ख) पूयणारिहस्स उवज्झायस्स-चूर्णि, विशेषचूर्णि। १.(क) अधवा अण्णा विइमा, अधरातिणियाएहोति परिवाडी। आयरिए य गिलाणे, परित्त पुज्जे गुरूणं च ।। पूताडायरियपिमाती, ततो पवत्ती य थेरगण गच्छे। सुत-भासा, लद्धीए, तोमे परिआगरायणिए।। (वृ. पृ. १९६९) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक मुनि एकत्रित होकर क्षोभ कर सकते हैं, कलह हो सकता है। उनमें से कोई मुनि कहता है- वस्त्रों का विभाग आवलिका अथवा मंडलिका के आधार पर करना चाहिए। किसी लुब्ध मुनि का यह मत होता है कि पाशों को फेंककर वस्त्रों का विभाग करना चाहिए। ४३२०. गेण्हंतु पूया गुरवो जदिट्ठ, अणुहसंवट्टियऽकक्कसंगा, गिण्हंति जं अन्नि न तं सहामो ॥ वस्त्र लाने वाले मुनि कहते हैं-गुरु पूज्य होते हैं। वे अपने मनोनुकूल वस्त्र ग्रहण करते हैं तो वह सत्य है- उचित है, यह हम भी कहते हैं, यह हमें इष्ट भी है। परंतु जिन मुनियों ने वस्त्र लाने का श्रम किया ही नहीं, जिनके अंग-प्रत्यंग अनुष्ण, असंवर्तित और अकर्कश ही बने रहे, ऐसे अन्य मुनि यदि वस्त्र पहले प्राप्त करते हैं तो उसे हम सहन नहीं कर सकते। सच्चं भणामऽम्ह वि एयदिट्ठ । ४३२१. आगंतुगमादीणं, जइ दायव्वाइं तो किणा अम्हे । कम्मारभिक्खुयाणं, गाहिज्जामो गइमसग्धं ॥ यदि हमारे आनीत वस्त्र आप आगंतुक - उपसंपन्न, ग्लान आदि मुनियों को देते हैं तो फिर हम क्यों कर्मकार भिक्षुओं की निन्दनीय गति को ग्रहण करें ? अर्थात् देवद्रोणी वाहक मुनियों की भांति व्यर्थ ही वस्त्रों को लाने का भार क्यों वहन करें ? ४३२२. विरिच्चमाणे अहवा विरिक्के, खोभं विदित्ता बहुगाण तत्थ । ओमेण कारिंति गुरू विरेगं, विमज्झिमो जो व तहिं पडू य ॥ वस्त्रों का विभाग किए जाने पर अथवा कर दिए जाने पर अनेक मुनियों का उस विभाग संबंधी क्षोभ जानकर गुरु पर्यायलघु वाले मुनि से अथवा विमध्यपर्यायवाले मुनि से जो पटु हो, उससे विभाग कराते हैं। ४३२३. आवलियाए जतिद्वं, तं दाऊणं गुरूण तो सेसं । गेहंति कमेणेव उ, उप्परिवाडी न पूयेंति ॥ ४३२४. मंडलियाए विसेसो, गुरुगहिते सेसगा जहावु । भाए समे करेत्ता, गेण्हंति अणंतरं उभओ ।। असंतुष्ट मुनि कहते हैं-आवलिका अथवा मंडलिका से वस्त्रों का विभाग करिए। उसकी विधि यह है- आवलिका अर्थात् ऋजु आयत श्रेणी में वस्त्रों का व्यवस्थापन | ऐसा करने के पश्चात् गुरु को जो इष्ट हो वह श्रेणी गुरु को अर्पित कर शेष यथारात्निक के क्रम से ग्रहण करते हैं। जो ४४५ परिपाटी से विपरीत ग्रहण करते हैं, उनकी प्रशंसा नहीं होती । मंडलिका पद्धति में भी इसी क्रम के अतिरिक्त कुछ विशेष भी है। जैसे- गुरु द्वारा ग्रहण कर लेने पर जो शेष रहा है उसको यथावृद्ध के क्रम से समान भागों में बांटकर, उभय अर्थात् आद्यन्त पार्श्व में अव्यवहित वस्त्रों को ग्रहण करते हैं । इसका तात्पर्य यह है-मंडलिका में वस्त्रों को स्थापित कर सबसे पहले आचार्य ग्रहण करते हैं। पश्चात् शेष मुनियों में जो रत्नाधिक होता है वह मंडलिका के प्रथम श्रेणी में स्थापित वस्त्र लेता है और अवमरात्निक अंतिम श्रेणी में स्थापित वस्त्र ग्रहण करता है। उससे अवमरात्निक मुनि वह प्रथम पंक्ति के अनन्तर पंक्ति के वस्त्र ग्रहण करता है, और उससे लघु उपान्त पंक्ति से। इस क्रम से सभी मुनि तब तक वस्त्र ग्रहण करते हैं जब तक मंडलिका समाप्त नहीं हो जाती । ४३२५. जइ ताव दलंतऽगालिणो, धम्माऽधम्मविसेसबाहिला । . बहुसंजयविंदमज्झके, उकलणे सि किमेव मुच्छितो ॥ इस विभाजन की पद्धति को भी यदि कोई नहीं मानता तो उसे कहना चाहिए- यदि धर्माधर्म को विशेष नहीं जानने वाले गृहस्थ भी मुनियों को वस्त्र देते हैं तो अनेक साधुओं के समूह के मध्य तुम अकेले ही उपकरणों में इतने क्यों मूच्छित हो रहे हो ? ४३२६. अज्जो ! तुमं चेव करेहि भागे, ततो णु घेच्छामो जक्कमेणं । गिण्हाहि वा जं तुह एत्थ इट्ठ, विणासधम्मसु हि किं ममत्तं ॥ अच्छा तो वत्स! तुम ही इन वस्त्रों का विभाग करो, हम यथाक्रम ग्रहण कर लेंगे। अथवा इन वस्त्रों में से तुम्हें जो इष्ट हों, उन्हें तुम ग्रहण कर लो। इन विनाशशील वस्त्रों के प्रति ममत्व क्यों कर रहे हो ? ४३२७. तह वि अठियस्स दाउं, विगिंचणोवट्ठिए खरंटणया । अक्खेसु होंति गुरुगा, लहुगा सेसेसु ठाणेसु ॥ इतना कहने पर भी यदि वह शांत नहीं होता है तो उसे अभिरुचित वस्त्र देकर उसका गण से संबंधविच्छेद कर दे। फिर भी यदि वह कहे-आगे से मैं ऐसा नहीं करूंगा, तब उसकी खरंटना करे, उसकी भर्त्सना करे। जो ऐसा कहे कि पाशे फेंककर विभाजन करे, उसे चतुर्गुरु का और शेष विधियों का परामर्श देने वालों को चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ४३२८. हिरन - दारं पसु - पेसवग्गं, जदा व उज्झित्तु दमे ठितो सि । किलेसलद्धेसु इमेसु गेही, जुत्ता न कत्तुं तव खिंसणेवं ॥ उस मुनि की खरंटना करते हुए कहे वत्स तुम जब दम-संयम में स्थित हुए तब हिरण्य, सुवर्ण, पशु, प्रेष्यकर्मकर वर्ग को छोड़कर दीक्षित हुए थे। आज इन कष्ट से प्राप्त वस्त्रों में गृद्ध होना उपयुक्त नहीं है । ४३२९. सम्मं विदित्ता समुवद्वियं तु, थेरा सि तं चैव कदाइ देज्जा । अनेसि गाहे बहुदोसले वा छोढूण तत्व करिति भाए ॥ वह मुनि पुनः मैं ऐसा नहीं करूंगा, इस प्रकार कहकर उपस्थित हुआ। उसे सम्यग् जानकर आचार्य उसको कदाचित् वे इष्ट वस्त्र दे दें। किन्तु उन वस्त्रों के प्रति अन्य मुनियों का भी आकर्षण है तथा जिसे वे वस्त्र दिए जा रहे हैं। वह मुनि दोषबहुल है, द्वेषबहुल है अतः उसे वे वस्त्र देने पर अन्य मुनियों में अप्रीति हो सकती है इसलिए उन वस्त्रों को अन्य वस्त्रों के मध्य मिलाकर समविभाग कर लेते हैं। ४३३०. खमए' लढूण अंबले, दाउ गुलूण य सो बलिए । बेह गुलुं एमेव सेसए, देह जईण गुलूहिं बुच्चई ॥ ४३३१. सयमेव य देहि अंबले, तव जे लोयइ इत्थ संजए । इइ छंदिय पेसिओ तहिं खमओ देह लिसीण अंबले ॥ अब क्षपक द्वारा लाए गए वस्त्रों के विभाजन की विधि-एक क्षपक को वस्त्र प्राप्त हुए। उसने उन वस्त्रों में से उत्तम वस्त्र गुरु को समर्पित कर कहा गुरुदेव । शेष वस्त्रों को आप अन्य मुनियों को दें। गुरु कहते हैं तुम स्वयं वस्त्रों को उन मुनियों को दो जो तुम्हें वस्त्र देने योग्य लगें गुरु के इस अभिप्राय से प्रेरित वह क्षपक मुनियों को वस्त्र प्रदान करता है ये दोनों गायाएं मागधभाषा के लक्षण के अनुसार 'र' के स्थान पर 'लकार' का आदेश हुआ है। जैसे-अंबले, गुलूण, गुलुं आदि आदि ।) ४३३२. खमरण आणियाणं दिज्जंतेगस्स वारणावयणं । गहणं तुमं न याणसि, वंदिय पुच्छा तओ कहणं ॥ क्षपक द्वारा आनीत तथा उसी के द्वारा दीयमान वस्त्रों को देखकर कोई एक मुनि वारणा वचन कहता है कि कोई मुनि वस्त्र न लें। क्षपक पूछता है क्यों ? तब वह कहता है - क्षपक ! तुम नहीं जानते कि वस्त्र कैसे ग्रहण किया जाता है ? क्षपक बोला- जानता हूं। उसने पूछा- कैसे ? क्षपक ने १. अभिषेक सूत्रार्थ तदुभयोपेत आचार्यपदस्थापनाहः । बृहत्कल्पभाष्यम् कहा- पहले वंदना कर फिर पूछना चाहिए। तब उस प्रश्नकर्त्ता ने क्षपक को बंदना कर पूछा तब क्षपक ने कहा४३३३.तिविहं च होइ गहणं, सच्चित्ताऽचित्त मीसगं चेव । एएसिं नाणत्तं, बोच्छामि अडाणुपुब्बीए ॥ ग्रहण तीन प्रकार का होता है सचित्त का ग्रहण, अचित का ग्रहण और मिश्र का ग्रहण । इनमें भी नानात्व है, उसे मैं यथानुपूर्वी कहूंगा। ४३३४. सच्चित्तं पुण दुविहं, पुरिसाणं चेव तह य इत्थीणं । एक्केकं पि य इतो, पंचविहं होइ नायव्वं ॥ सचित्तग्रहण दो प्रकार का है-पुरुषों का तथा स्त्रियों का । मूलमेव की अपेक्षा से दोनों के पांच-पांच प्रकार होते हैं। ४३३५. उवगाऽगणि तेणोमे, अच्छाण गिलाण सावय पट्टे । तित्थाणुसज्जणाए, अइसेसिगमुद्धरे विहिणा ॥ आचार्य आदि जलप्रवाह में बहे जा रहे हैं, नगरदाह या अग्नि में जलने की संभावना है, अपहरण करने वाले चोरों का भय है, दुर्भिक्ष है, अध्वा मार्ग में फंस गए हों, ग्लान हो गए हों, श्वापदों द्वारा घिर गए हों, राजा द्वारा प्रद्विष्ट हो गए हो इनमें से जो अतिशायी हो, जो तीर्थ की अव्यवच्छित्ति में समर्थ हो उसका विधिपूर्वक उद्धार करना चाहिए, बचाना चाहिए। ४३३६. आयरिए अभिसेगे, भिक्खु खुडे तहेव थेरे य गहणं तेसिंइणमो, संजोगक (ग) मं तु वोच्छामि ॥ पुरुषों के ये पांच प्रकार हैं- आचार्य, अभिषेक, भिक्षु, क्षुल्लक और स्थविर इन पांचों का ग्रहण (उद्धरण) इस संयोगगम- संयोग के प्रकारों से करना चाहिए। उनको मैं आगे कहूंगा। ४३३७. सव्वे वि तारणिज्जा, संदेहाओ परक्कमे संते। एक्क्कं अवणिज्जा, जाव गुरू तत्थिमो भेदो ॥ पराक्रम होने पर जलप्रवाह आदि संदेहों से सभी तारणीय हैं। यदि उतना पराक्रम न हो तो स्थविर के सिवाय चार, उसमें भी अशक्त हो तो क्षुल्लक- स्थविर के सिवाय तीन, उतना भी पराक्रम न हो तो आचार्य और अभिषेक तारणीय हैं, उतना भी पराक्रम न हो तो आचार्य तारणीय हैं। अर्थात् एक-एक का अपनयन करते हुए गुरू पर्यन्त ऐसा करे । उसमें यह भेद होता है। ४३३८. तरुणे निप्पन्न परिवारे, सलद्धिए जे य होति अब्भासे । अभिसेगम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा ॥ यदि दो आचार्य हों, एक तरुण और दूसरा स्थविर । शक्ति हो तो दोनों तारणीय हैं, अन्यथा तरुण तारणीय है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ४४७ यदि दोनों तरुण हों तो जो निष्पन्न है-सूत्रार्थ कुशल है, वह ४३४२.बाला य वुड्ढा य अजंगमा य, तारणीय है। दोनों निष्पन्न हों तो जो सपरिवार है, वह लोगे वि एते अणुकंपणिज्जा। तारणीय है। दोनों सपरिवार हों तो जो लब्धिसंपन्न है सव्वाणुकंपाए समुज्जएहिं, उसको, दोनों लब्धिसंपन्न हों तो जो निकट है, वह तारणीय विवज्जओऽयं कहमीहितो भे॥ है। दोनों निकट हों तो जो तैरने में अशक्त हो वह तारणीय बाल, वृद्ध और अजंगम ये लोक में भी अनुकंपनीय होते है। अभिषेक निष्पन्न ही होता है, अतः उसके साथ हैं। अतः सभी के द्वारा अनुकंपनीय होने के कारण आपने चार गम ही होते हैं। शेष भिक्षु आदि के साथ पांचों गम विपरीतता कैसे स्वीकार की? बाल और स्थविर को छोड़कर होते हैं। आचार्य आदि का निस्तारण चाहते हैं, वृद्ध और अजंगम ४३३९.पवत्तिणि अभिसेगपत्ता, आचार्य को छोड़कर तरुण आचार्य को तारणीय मानते हैं ? थेरी तह भिक्खुणी य खुड्डी य। ४३४३.जइ बुद्धी चिरजीवी, तरुणो थेरो य अप्पसेसाऊ। गहणं तासिं इणमो, सोवक्कमम्मि देहे, एयं पि न जुज्जए वोत्तुं। संजोगक (ग) मं तु वोच्छामि। यदि यह तुम्हारी बुद्धि है, विचारणा है तो सुनो, तरुण स्त्रियों के ये प्रकार हैं-प्रवर्तिनी, अभिषेकप्राप्ता- चिरजीवी होता है और स्थविर थोड़ी अवशिष्ट आयुष्य वाला प्रवर्तिनीपदयोग्य, स्थविरा, भिक्षुणी और क्षुल्लिका। इन होता है। देह सोपक्रम होता है, उसके विषय में चिरजीवी पांचों के ग्रहण विषयक यह संयोगगम-संयोग से अनेक आदि कहना भी उचित नहीं है। प्रकार वाला है, उसे मैं कहूंगा। ४३४४.अवि य हु असहू थेरो, पयरेज्जियरो कदाइ संदेहं । ४३४०.सव्वा वि तारणिज्जा, संदेहाओ परक्कमे संते। ओरालमिदं बलवं, जं घेप्पइ मुच्चई अबलो॥ एक्कक्कं अवणिज्जा, जा गणिणी तत्थिमो भेदो॥ तथा स्थविर वृद्ध होने के कारण असहिष्णु होता है और ४३४१.तरुणी निप्फन्न परिवारा, इतर अर्थात् तरुण कदाचित् प्राणसंदेह का पार पा जाता है। सलद्धिया जा य होइ अब्भासे।। आपका यह वचन भी स्थूल है कि बलवान् तरुण ग्रहण कर अभिसेगाए चउरो, लेता है और अबल स्थविर छोड़ देता है। सेसाणं पंच चेव गमा॥ ४३४५.आय-परे उवगिण्हइ, पराक्रम होने पर जलप्रवाह आदि संदेहों से सभी तरुणो थेरो उ तत्थ भयणिज्जो। तारणीय हैं। यदि उतना पराक्रम न हो तो स्थविरा के अणुवक्कमे वि थेवो, सिवाय चार, उसमें भी अशक्त हो तो क्षुल्लिका-स्थविरा चिट्ठइ कालो उ थेरस्स॥ के सिवाय तीन, उतना भी पराक्रम न हो तो प्रवर्तिनी तब आचार्य कहते हैं-तरुण आचार्य स्वयं को और पर और अभिषेका तारणीय हैं, उतना भी पराक्रम न हो तो को नए-नए सूत्रार्थों से उपकृत करता है। स्थविर आचार्य की प्रवर्तिनी (गणिणी) तारणीय हैं। अर्थात् एक-एक का इसमें भजना है। अनुपक्रम के आधार पर भी स्थविर का अपनयन करते हुए गणिणी पर्यन्त ऐसा करे। उसमें यह भेद आयुष्य थोड़ा ही होता है तथा तरुण का आयुष्य थोड़ा भी होता है। हो सकता है और लंबा भी हो सकता है। यदि दो गणिणी हों, एक तरुणी और दूसरी स्थविरा। ४३४६.दुग्धासे खीरवती, गावी पुस्सइ कुटुंबभरणट्ठा। शक्ति हो तो दोनों तारणीय हैं, अन्यथा तरुणी तारणीय है। मोत्तु फलदं च रुक्खं, को मंदफला-फले पोसे।। यदि दोनों तरुणियां हों तो जो निष्पन्न है-सूत्रार्थ कुशल है, दुर्गास अर्थात् दुर्भिक्ष के समय कुटुंब का भरण-पोषण वह तारणीय है। दोनों निष्पन्न हों तो जो सपरिवार है, वह करने के लिए बहुदुग्धा गाय का पोषण किया जाता है। फल तारणीय है। दोनों सपरिवार हों तो जो लब्धिसंपन्न है देने वाले वृक्षों को छोड़कर कौन व्यक्ति ऐसा होगा जो मन्द उसको, दोनों लब्धिसंपन्न हों तो जो निकट है, वह तारणीय फल वाले अथवा फल न देने वाले वृक्षों का पोषण करेगा? है। दोनों निकट हों तो जो तैरने में अशक्त हो वह तारणीय इसी प्रकार हम भी तरुण आचार्य आदि का निस्तारण करते है। अभिषेका निष्पन्न ही होती है, अतः उसके साथ चार हैं, क्योंकि वे स्व और पर का उपग्रह करने में समर्थ होते हैं। गम ही होते हैं। शेष क्षुल्लिका आदि के साथ पांचों गम ४३४७.एमेव मीसए वी, नेयव्वं होइ आणुपुव्वीए। होते हैं। वोच्चत्थे चउगुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ पा, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ बृहत्कल्पभाष्यम् इसी प्रकार मिश्र विषय का ग्रहण (आचार्य, प्रवर्तिनी की वैसे ही इनके विषय में भी सचित्त-मिश्रभेद से कहना परिपाटी से) आनुपूर्वी से ज्ञातव्य है। क्रम का उल्लंघन कर चाहिए। विपर्यास से ग्रहण करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा ४३५३.अच्चित्तस्स उ गहणं, अभिनवगहणं पुराणगहणं च। आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। उवठावणाए गहणं, तह य उवट्ठाविए गहणं॥ ४३४८.मीसगगहणं तत्थ उ, विणिवाओ जो सभंड-मत्ताणं। अचित्त का ग्रहण दो प्रकार का होता है-अभिनव-ग्रहण __ अहवा वि मीसयं खलु, उभओपक्खऽच्चओ घोरो॥ और पुराण-ग्रहण अर्थात् पहले से गृहीत चोलपट्ट आदि का जहां सभांड-मात्रक अर्थात् पात्र-मात्रक आदि उपकरण ग्रहण। इसके दो प्रकार हैं-उपस्थापना में ग्रहण और सहित साधु-साध्वी का विनिपात होता है, पानी के प्रवाह में उपस्थापित में ग्रहण। गिरना होता है, उस स्थिति में जो ग्रहण होता है वह ४३५४.ओहे उवग्गहम्मि य, अभिनवगहणं तु होइ अच्चित्ते। मिश्रग्रहण कहलाता है। अथवा उभय-दोनों का अर्थात् साधु इयरस्स वि होइ दुहा, गहणं तु पुराणउवहिस्स॥ साध्वी का यह रौर्द्र प्रत्यपाय होता है उसमें से जो ग्रहण अचित्त का अभिनवग्रहण दो प्रकार का होता है होता है वह मिश्र माना जाता है। ओघउपधि विषयक और औपग्रहिकउपधि विषयक। पुराण४३४९.सव्वत्थ वि आयरिओ, आयरियाओ पवत्तिणी होइ। उपधि का ग्रहण भी दो प्रकार का होता है-उपस्थापना-ग्रहण तो अभिसेगप्पत्तो, सेसेसु तु इत्थिया पढमं॥ और उपस्थापितग्रहण। दोनों अर्थात् आचार्य और प्रवर्तिनी के निस्तारण का ४३५५.जायण निमंतणुवस्सय, परियावन्नं परिट्ठविय नहूँ। सामर्थ्य हो तो, दोनों का निस्तारण करे। यदि न हो तो सर्वत्र पम्हुट्ठ पडिय गहियं, अभिनवगहणं अणेगविहं।। पहले आचार्य का, फिर प्रवर्तिनी का पश्चात् अभिषेकप्राप्त याचना से, निमंत्रण से, पर्यापन्न-उपाश्रय में पथिकों द्वारा मुनि का। और शेष में स्त्रियों का पहले निस्तारण करना विस्मृत, परिष्ठापित, नष्ट-हृत वस्त्र, विस्मृत, पतित, शत्रु चाहिए। द्वारा गृहीत वस्त्र-इन वस्त्रों की पुनः प्राप्ति होने पर जो वस्त्र ४३५०.अन्नस्स वि संदेहं, द8 कंपति जा लयाओ वा। गृहीत होते हैं इनको अभिनवग्रहण मानना चाहिए।' अबलाओ पगइभयालुगाउ रक्खा अतो इत्थी॥ ४३५६.जो चेव गमो हेट्ठा, दूसरे पुरुष की संदेह-आपदा को देखकर भी स्त्रियां उस्सग्गाईसु वण्णिओ गहणे। लताओं की भांति प्रकंपित होती हैं। क्योंकि अबलाएं-नारियां दुविहोवहिम्मि सो च्चिय, प्रकृति से भयबहुल होती हैं, इसलिए स्त्रियों की पहले रक्षा कास त्ति य किं ति कीस त्ति॥ करनी चाहिए। ग्रहण विषयक जो उत्सर्ग की बात पीठिका (गा. ६२२४३५१.जं पुण संभावेमो, भाविणमहियममुकातो वत्थूओ। ६२४) में कही है वही यहां दो प्रकार की उपधि-औधिक तत्थुक्कम पि कुणिमो, छेओदइए वणियभूया॥ और औपग्रहिक के ग्रहण के विषय में जाननी चाहिए। इसमें जब हम यह संभावना करते हैं कि यह क्षुल्लक अमुक तीन प्रश्न पूछे जाते हैंआचार्य आदि से भी अधिक प्रभावकारी होगा तो हम विधि (१) ये वस्त्र-पात्र किसके अधीन में थे? का उत्क्रमण करके भी उसका बचाव करेंगे। हम वणिक्भूत (२) किसके अधीनस्थ होंगे हैं, अतः हम उसमें छेद-व्यय से अधिक औदयिक-आय को (३) क्यों दे रहे हो? देखते हैं। क्योंकि वणिक् भी वही व्यापार करता है जिसमें इन तीनों प्रश्नों से वह परिशुद्ध माना जाता है। व्यय अल्प हो और आय अधिक। ४३५७.कोप्पर पट्टगगहणं, वामकराणामियाए मुहपोत्ती। ४३५२.अगणी सरीरतेणे, ओमऽद्धाणे गिलाणमसिवे य। रयहरण हत्थिदंतुन्नएहिं हत्थेहुवट्ठाणं॥ सावयभय रायभए, जहेव आउम्मि गहणं तु॥ पुराणग्रहण के अंतर्गत उपस्थापना ग्रहण की विधि यह अग्नि के संभ्रम में, शरीरस्तेनों के संभ्रम में, अवम- है-कूपरों (कुहनी) से चोलपट्ट ग्रहण करके वाम हाथ की दुर्भिक्ष, मार्ग में, ग्लान के विषय में, अशिव में, श्वापद- अनामिका अंगुली से मुखपोतिका को ग्रहण कर, हाथी भय में, राजभय में भी जैसे अप्काय में ग्रहण किया है दांत की भांति उन्नत हाथों से रजोहरण लेकर उपस्थापना १. उपाश्रय में पर्यापन्न वस्त्र की ग्रहणविधि आगे इसी उद्देशक में बताई जाएगी। परिष्ठापित वस्तु का कारण में पुनः ग्रहण किया जाता है। उसका कथन व्यवहाराध्ययन में किया जाएगा (वृ. पृ. ११७८) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक करनी चाहिए अर्थात् शैक्ष को व्रतों में स्थापित करना चाहिए। ४३५८. उवठावियस्स गहणं, अहभावे चैव तह य परिभोगे । एक्केकं पायादी, नेयव्वं आणुपुव्व ॥ उपस्थापित के उपकरण का ग्रहण दो प्रकार का होता है-यथाभाव और परिभोग इन दो प्रकार के ग्रहणों से एकएक पात्र आदि आनुपूर्वी से ग्रहण करना चाहिए। ४३५९. पडिसामियं तु अच्छइ, पायाई एस होतऽहाभावो । सव्व पाण- भिक्खा - निल्लेवण पायपरिभोगो ॥ किसी स्वामी ने विवक्षित साधु के निमित्त पात्र आदि ग्रहण किए हैं, पर वह उनका परिभोग नहीं करता, यह यथाभाव है। पात्र का परिभोग उपयुक्त अवसर पर करना जैसे-अच्छे द्रव्य, पानक, भिक्षा, निर्लेपन - आचमन उस पात्र को उपयोग में लेना, यह पात्र का परिभोग है। ४३६०. पाणदय सीयमत्थ्य, पमज्ज चिलिमिलि निसिज्ज कालगते । मेलन लज्न असह , अण सामारिए भोगी ॥ प्राणीदया के लिए मुनि वर्षाकल्प आदि, शीत निवारण के लिए कल्पत्रय, संस्तारक आस्तरण के लिए, रजोहरण प्रमार्जन के लिए, चिलिमिनिका दकतीर पर ज्योतिशाला के लिए, निषद्या बैठने के लिए कालगत (मृत) के आच्छादन के लिए परदा आदि, ग्लान व्यक्ति के लिए चिलिमिलिका, लज्जा निवारण के लिए चोलपट्टक, अक्षम मुनियों के लिए कल्प आदि आवरण, नख आदि काटने के लिए छेदननखहरणिका - इस प्रकार सारा यथायोग औधिक और औपग्रहिक उपकरणों का परिभोग होता है। ४३६१. उवरिं कहेसि हिट्ठा, न याणसी वयणं न होइ एवं तु । चतुरो गुरुगा पुच्छा, नासेहिसि तं जहा वेज्जो ॥ जो पहले कहने योग्य था उसे तुम पश्चात् कह रहे हो, इसलिए तुम ग्रहण के स्वरूप को नहीं जानते। तुमने जो यह कहा (गा. ४३३२) कि 'वन्दित्वा विनयेन पृच्छ' - यह अहंकार दूषित वचन है ऐसा नहीं होता, क्योंकि गुरु आदि पूजनीय होते हैं जो ऐसा वचन कहता है उसको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। क्षपक ने पूछा- 'मुझे प्रायश्चित्त क्यों ?" १. वैद्य की कथा देखें गाथा ३२५९-३२६० । २. बाले बुड्ढे नपुंसे य, जड्डे कीवे व वाहिए । तेणे रायावगारी य, उम्मत्ते व अदंसणे ॥ दासे दुट्ठे य मूढे य, अणत्ते जुंगिते इय । ओवद्धए य भयए, सेहनिप्फेडिते त्ति य ॥ ४४९ उसने कहा- 'तुम्हारे में सिद्धांत का पूरा ज्ञान तो है नहीं, पल्लवग्राही ज्ञान है। अतः तुम भी उस वैद्य की भांति स्वयं और दूसरे का नाश करोगे।" ४३६२. वयणं न वि गव्वभालियं, एलिसवं कुसलेहिं पूजियं । अहवा न वि एत्थ लूसिमो, पगई एस अजाणुए जणे ॥ 'मुझे वंदना कर विनय से पूछ' - इस प्रकार के अहंकारभारगुरुक वचन की कुशल व्यक्तियों ने प्रशंसा नहीं की है। अथवा न हम यहां रोष करते हैं क्योंकि अज्ञ व्यक्तियों की यह प्रकृति होती है। ४३६३. मूलेण विणा हु केलिसे, तलु पवले व पणे व सोभई। न य मूलविभिन्नए घडे, जलमादीणि धलेइ कण्हुई । मूल के बिना प्रवर और सघन (पत्र बहुल) वृक्ष भी कैसे शोभित हो सकता है? इसी प्रकार मूल में फूटा हुआ घट कभी भी जल आदि धारण करने में समर्थ नहीं होता । ४३६४. किं वा मए न नायं, दुविहे महणम्मि जं जहिं कमती । भन्नइ अभिनवगहणं, सच्चित्तं ते न विन्नायं ॥ दो प्रकार के ग्रहण में जो अभिनव है या पुराण है, क्या मैं नहीं जाना है, जो तुम कहते हो कि मैं ग्रहण को नहीं जानता ? प्रत्युत्तर में दूसरा कहता है- मैंने यह कहा है कि तुम अभिनव सचित्त ग्रहण को नहीं जानते । ४३६५. अट्ठारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु । पव्वावणाअणरिहा, अनला एएत्तिया वृत्ता ॥ ४३६६. अडयालीसं एते, वज्जित्ता सेसगाण तिन्हं पि । अभिनवगहणं एवं सच्चित्तं ते न विन्नायं ॥ पुरुषों में अठारह, स्त्रियों में बीस तथा नपुंसकों में दस प्रकार - ये सारे ४८ प्रकार के व्यक्ति दीक्षा के लिए अयोग्य माने गए हैं। ये वीक्षा का पालन करने में असमर्थ होते हैं ?" इन अडतालीस प्रकारों को छोड़कर तीनों में अर्थात् पुरुष, स्त्री, नपुंसकों में शेष व्यक्ति प्रव्रज्या के योग्य होते हैं । इस सचित्त का अभिनवग्रहण तुम नहीं जानते । कप्पइ निग्गंथाण वा निम्गंधीण वा अहारायणियाए सेज्जा - संथार पडिग्गाहित्तए । (सूत्र १९) पंडए बाहए कीवे, कुंभी ईसालुय त्ति य सउणी तक्कमसेवी य, पक्खियापक्खिए या वि ॥ सोगंधिए य आसत्ते, दस एते नपुंसगा । संकिलिट्ठ त्ति साहूणं, पब्वावेडं अकप्पिया ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ४३६७. तुं जहकमेणं, उवही संधारएस उवयंति। घेत्तुं तेसिं पि जदा गहणं, तं पि हु एमेव संबंधो ॥ सभी मुनि रत्नाधिक क्रम से उपकरण ग्रहण कर संस्तारक भूमी पर जाते हैं और अपने उपकरणों को वहां स्थापित करते हैं। संस्तारक ( शयनस्थान) का जब ग्रहण होता है, वह भी यथारात्निक के क्रम से होता है। ४३६८. सेज्जासंथारो या, सेज्जा वसही उ थाण संथारो । पुव्वण्हम्मि उ गहणं, अगेण्हणे लहुगो आणादी ॥ शय्या संस्तारक का अर्थ - शय्या अर्थात् वसति और संस्तारक अर्थात् स्थान- शयनयोग्यस्थान शय्या संस्तारक का ग्रहण पूर्वाह्न में ही कर लेना चाहिए। यदि ग्रहण नहीं किया जाता है तो मासलघु प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। - ४३६९. चोवगपुच्छा दोसा, मंडलिबंधम्मि होइ आगमणं । संजम - आयविराहण, वियालगहणे य जे दोसा ॥ शिष्य ने कहा- आर्यवर! यह उचित है कि पूर्वाह्न में गांव में जाने पर शय्या - संस्तारक भी ग्रहण कर ले। परंतु यदि विकालवेला में ग्राम में आए तो गांव के बाहर आहार- पानी से निवृत्त होकर जाना होता है। आचार्य कहते हैं - इसमें अनेक दोष हैं। मंडलीरचना में भोजन करने पर कुतूहलवश अनेक गृहस्थों का आवागमन होता है। उनके साथ कलह आदि होने पर संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। विकाल में वसति का ग्रहण करने से दोष होते हैं तब तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। ४३७०, अइमारेण व हरियं, न सोहए कंटगाइ भत्तद्विय-वोसिरिया, अतिंतु एवं जढा आयाए । दोसा ॥ यदि भक्त-पान लेकर वसति की गवेषणा की जाए तो शिष्य कहता है- अतिभार के कारण ईर्यापथ का शोधन नहीं होता, इससे संयमविराधना होती है तथा कांटों आदि का भी शोधन नहीं होता, इससे आत्मविराधना भी होती है। इसलिए गांव के बाहर ही आहार पानी करके तथा वहीं मलमूत्र की बाधा से निवृत्त होकर गांव में प्रवेश करे, जिससे सारे दोष परित्यक्त हो जाते हैं। ४३७१. आयरियवयण दोसा, दुविहा नियमा उ संजमा-35बाए। बच्चह को वा सामी, असंखडं मंडलीए वा ॥ आचार्य कहते हैं जो ग्राम के बाहर आहार पानी करते हैं उनके नियमतः संयमविराधना और आत्मविराधना रूप दो प्रकार के दोष होते हैं। यदि वहां एकत्रित गृहस्थों को मुनि बृहत्कल्पभाष्यम् कहे - यहां खड़े न रहें, चले जाएं तो गृहस्थ कह सकते हैंक्या तुम इस स्थान के स्वामी हो जो हमें जाने के लिए कह रहे हो ? इस प्रकार कलह हो सकता है। तथा मंडली में भोजन करने पर भी गृहस्थ उड्डाह आदि कर सकते हैं। ४३७२. भत्तगुण सन्झाए, पडिलेहण रत्तिगेण्हणे जं चा पुव्वण्हम्मि उ गहणे, परिहरिया ते भवे दोसा ॥ मंडली में भोजन करना, स्वाध्याय और प्रत्युपेक्षा करना - इन क्रियाओं को देखकर गृहस्थ उड्डाह करते हैं। तब उनसे कलह हो सकता है तथा रात्री में वसति को ग्रहण करना इनसे जो दोष होते हैं उनका प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसलिए पूर्वाह्न में ही वसति का ग्रहण कर लेना चाहिए। इससे ये सारे दोष परिहृत हो जाते हैं। ४३७३. कोतूहल आगमणं, संखोहेणं अकंठगमणादी । ते चेवऽसंखडादी, वसहिं च न देंति जं चऽन्नं ॥ मंडलीबंध में गृहस्थ कुतूहलवश आते हैं। उस समय किसी मुनि के संक्षोभवश आहार आहारनली में न जाकर अस्रोत में चला जाता है अथवा मुनि का गृहस्थों के साथ कलह आदि दोष होते हैं। यह देखकर मुनि वहां से गांव में जाते हैं। वे गृहस्थ उन मुनियों को वसति नहीं देते और जो देना चाहते हैं उनको भी न देने के लिए प्रेरित करते हैं। ४३७४. भारेण वेयणाए, न पेहई खाणुमाइए दोसे । इरियाइ संजमम्मी, परिगलमाणे य छक्काया ॥ उस स्थिति में भार और वेदना के कारण मुनि स्थाणुकंटक आदि को नहीं देख पाता, इससे आत्मविराधना होती है तथा ईर्यापथ का शोधन न होने पर संयमविराधना होती है। और भक्तपान का परिगलन होने पर छहकाय की विराधना होती है। ४३७५. पविसण मग्गण ठाणे, वेसित्थि दुगंछिए य सुण्णे य । सज्झाए संथारे, उच्चारे चेव पासवणे ॥ ग्राम में विकालवेला में प्रवेश करने पर, वसति की याचना करने पर तथा वेश्यापाटक अथवा जुगुप्सित स्थान में और शून्यगृह में निवास करने, स्वाध्याय तथा संस्तारक करने, उच्चार- प्रस्रवण का व्युत्सर्ग करने से अनेक दोष होते हैं। ४३७६. सावय तेणा दुविधा, विराहणा जा य उवहिणा उ विणा । गुम्मिय महणा ऽऽहणणा, गोणादी चमढणा रतिं ॥ विकालवेला में प्रवेश करने पर श्वापद का भय रहता है। स्तेन दो प्रकार के होते हैं-शरीरापहारी और उपकरणापहारी । उपकरणों का हरण कर लेने पर तृण ग्रहण तथा अग्निसेवन करने पर तन्निष्पन्न दोष लगता है रात्री में गौल्मिक Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ तीसरा उद्देशक = आरक्षिक पुरुष पकड़ लेते हैं, मारते हैं। रात्री में गाय-बैल आदि का उपद्रव भी हो सकता है। ४३७७.फिडियऽन्नोन्नाऽऽगारण, तेणय रत्तिं दिया व पंथम्मि। साणाइ वेस कुच्छिय, तवोवणं मूसिगा जं च॥ यदि रात्री में मुनि गांव में पृथक् पृथक् रूप में वसति की गवेषणा करते हैं, बिछुड़े हुए वे एक-दूसरे को बुलाते हैं तो उनको चोर प्रताड़ित कर या उनको या उपकरणों को चुरा लेते हैं अथवा दूसरे दिन मार्ग में उन्हें लूट लेते हैं। कुत्ते उनको उपद्रुत करते हैं। रात्री में वे नहीं जान पाते कि यह वसति वेश्यापाटक के निकट है अथवा यह कुत्सितकुल के पास वाली है। वहां रहने पर लोक उड्डाह करते हुए कहते हैं-'अहो! ये मुनि अपने तपोवन में रह रहे हैं या ये भी जुगुप्सित लोगों की तरह ही हैं जो जुगुप्सित कुल के निकट आकर रह रहे हैं। ४३७८.अप्पडिलेहिय कंटा, बिलं व संथारगम्मि आयाए। छक्कायाण विराहण, विलीण सेहऽन्नहाभावो॥ अप्रत्युपेक्षित वसति में कंटक तथा बिल हो सकते हैं। वहां संस्तारक बिछाने पर आत्मविराधना तथा षट्काय विराधना हो सकती है। वहां विलीन अर्थात् जुगुप्सित मलमूत्र हो सकता है। इन सारी चीजों से शैक्ष का संयम के प्रति अन्यथाभाव हो सकता है। ४३७९.खाणुग-कंटग-वाला, बिलम्मि जइ वोसिरिज्ज आयाए। संजमओ छक्काया, गमणे पत्ते अइंते य॥ अप्रत्युपेक्षित वसति में स्थाणु, कंटक, सर्प आदि के बिल हो सकते हैं। बिलों में यदि मल-मूत्र का विसर्जन होता है तो आत्मविराधना होती है और षट्कायमय भूभाग में व्युत्सर्ग किया जाता है तो संयमविराधना होती है। कायिकी भूमी को जाते, उसे प्राप्त कर व्युत्सर्जन कर पुनः लौटते समय दोनों विराधनाएं हो सकती हैं। ४३८०.मुत्तनिरोहे चक्खं, वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ। उड्डनिरोहे कोट्ठ, गेलन्नं वा भवे तिसु वि॥ मूत्र का निरोध करने से चक्षु, मलवेग का निरोध करने से १. प्रस्तुत गाथा के अन्त में 'जं च' है। वृत्तिकार में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है। रात्री में बिछुड़े मुनियों का परस्पर आलाप करने पर अधिकरण होता है, अतः उसका प्रायश्चित्त आता है। तथा रात्री में उपाश्रय में जाने पर हमने कालभूमी की प्रत्युपेक्षा नहीं की, इसलिए वे स्वाध्याय नहीं करते अतः सूत्रार्थ के नाश होने से प्रायश्चित्त आता है। यदि स्वाध्याय नहीं करते तो सामाचारी की विराधना होती है। (वृ. पृ. ११८४) मृत्यु हो सकती है। वमन का निरोध करने से कुष्ठ रोग, और तीनों के निरोध से अग्निमांद्य का रोग होता है। ४३८१.पढम-बिइयाए तम्हा, गमणं पडिलेहणा पवेसो य। पुव्वठियाऽसइ गच्छं, ठवेत्तु बाहिं इमे तिन्नि। इसलिए दिन के प्रथम प्रहर या द्वितीय प्रहर में विवक्षित गांव में गमन कर वहां वसति की याचना कर, उसका प्रत्युपेक्षण तथा उसमें प्रवेश करना चाहिए। यदि वहां पूर्वस्थित साधु हों तो सभी साथ में प्रवेश करें। यदि पूर्वस्थित साधु न हों तो गच्छ को किसी वृक्ष आदि के नीचे बाहर बिठाकर इस प्रकार के दो तीन साधु गांव में प्रवेश करें। ४३८२.परिणयवय गीयत्था, हयसंका पुंछ चिलिमिली दोरे। तिन्नि दुवे एक्को वा, वसहीपेहट्ठया पविसे॥ परिणतवयवाले तथा अशंकनीय गीतार्थ मुनि गुरु को पूछकर दंडपोंछनक, चिलिमिली और दवरक लेकर तीन, दो या एक मुनि गांव में वसति की प्रत्युपेक्षा करने के लिए प्रवेश करते हैं। ४३८३.बिइयं ताहे पत्ता, पए व पत्ता उवस्सयं न लभे। सुन्नघर देउले वा, उज्जाणे वा अपरिभोगे॥ द्वितीयपद यहां कहा जा रहा है-उसी समय विकालवेला में मुनि वहां आए अथवा प्रातःकाल गांव में आए, तुरंत उन्हें उपाश्रय नहीं मिला तब वे शून्यघर, देवकुल या जनोपयोगरहित उद्यान में ठहरते हैं। ४३८४.आवाय चिलिमिणीए, रन्ने वा निब्भये समुद्दिसणं। सभए पच्छन्नाऽसइ, कमढग कुरुया य संतरिया। शून्यगृह आदि में यदि लोगों का आना-जाना होता है तो चिलिमिलिका बांधकर आहार करे। अथवा भयरहित अरण्य में जाकर आहार करे। यदि अरण्य सभय हो तो प्रच्छन्न प्रदेश में और उसके अभाव में 'कमठक'२ कांस्यकटोरे के आकार के पात्र जो भीतर और बाहर-दोनों ओर से सफेद लेप से लिप्त हो, उसमें आहार करे। तदनन्तर 'कुरुया'कुरुकुचा-भोजनान्तर पादप्रक्षालन आदि करे। भोजन करते समय पर्याप्त अन्तराल से बैठे। (तदनन्तर कायिकी संज्ञा से निवृत्त होकर गांव में प्रवेश करे।) २. कमठकेषु-शुक्ललेपेन सबाह्याभ्यन्तरं लिप्तेषु कांस्यकरोकाकारेषु....। (वृ. पृ. ११८५) ३. कुरुकुचा च-समुद्देशनानन्तरं पादप्रक्षालनादिका बहुना द्रवेण कर्त्तव्या। (बृ. पृ. ११८५) द्वितायपर चला Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ बृहत्कल्पभाष्यम् ४३८५.कोट्ठग सभा व पुव्वं, काल-वियाराइभूमिपडिलेहा। ४३९०.सम-विसमाइं न पासइ, पच्छा अतिंति रत्तिं, अहवण पत्ता निसिं चेव॥ दुक्खं च ठियम्मि ठायई अन्नो। गांव में प्रवेश कर गोचरी में घूमते समय जो पहले नेव य असंखडादी, कोष्टक, सभा आदि स्थान देखे थे वहां कालग्रहणयोग्यभूमी विणयो अममिज्जया चेव॥ तथा विचारभूमी की प्रत्युपेक्षा करे। पश्चात् सभी मुनि उस यदि वेंटिका को नहीं उठाया जाता है तो शयनस्थान के वसति में रात्रि (प्रदोष समय) में प्रवेश करे। अथवा रात्री में । विभाजनकाल में सम-विषम स्थान को नहीं देखा जा सकता ही वे साधु वहां आएं। तथा पहले ही वेटिका सहित स्थित किसी साधु को उठाना ४३८६.गोम्मिय भेसण समणा, भी मुश्किल होता है और वहां दूसरा मुनि भी बैठ नहीं निब्भय बहि ठाण वसहिपडिलेहा। सकता। वेंटिकाओं को उठा लेने पर असंखडी आदि दोष भी सुन्नघर पुव्वभणिए, नहीं होते। तथा विनय प्रदर्शित होता है और संस्तारकभूमि कंचुग तह दारुदंडे य॥ विषयक ममत्व भी परिहृत होता है। गौल्मिक (स्थानरक्षपाल) यदि त्रस्त करते हों तो उनको ४३९१.संथारग्गहणीए, कंटग वीयार पासवण धम्मे। कहे-'हम श्रमण हैं, चोर नहीं।' यदि वह सन्निवेश निर्भय हो पयलणे मासो गुरुओ, सेसेसु वि मासियं लहुगं। तो गच्छ बाहर ही रहता है और वृषभ वसति के प्रत्युपेक्षण संस्तारकग्रहणकाल में कोई माया से प्रताड़ित होकर यह के लिए गांव में जाते हैं। वहां पूर्वकथित विधि के अनुसार कहे-मैं यहां अभी कंटकोद्धरण करूंगा, विचारभूमी में । शून्यगृह की प्रत्युपेक्षा करते हैं और गोपालकंचुक को जाऊंगा, शय्यातर के आगे धर्म कहूंगा, यह कहता हुआ वह पहनकर दारुदंड से वसति के उपरी भाग को प्रस्फोटित वहां झपकियां लेने लगे इस प्रकार माया करने पर आज्ञाभंग करते हैं, पश्चात् गच्छ प्रवेश करता है। आदि दोष, गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा कंटक आदि का ४३८७.संथारगभूमितिगं, आयरिए सेसगाण एक्कक्कं। माया पूर्वक कथन में लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। __ रुंदाए पुप्फकिन्ना, मंडलिया आवली इतरे॥ ४३९२.दुक्खं ठिओ व निज्जइ, न याणुवाएण पेल्लिउं सक्का। सबसे पहले आचार्य के लिए तीन संस्तारक भूमियों का जो वि य णे अवणेहिइ, तं पि य नाहामि इति मंता॥ निर्धारण करना चाहिए-एक निर्वात भूमी, एक प्रवातभूमी ४३९३.संथारभूमिलुद्धो, भणाइ छंदेण भंते! गिण्हित्तो। और एक निवात-प्रवात। शेष साधुओं के लिए एक-एक ___संथारगभूमीओ, कंटगमहमुद्धरामेणं॥ संस्तारक भूमी। वसति तीन प्रकार की होती है-विस्तीर्ण, कोई मुनि सम स्थान में संस्तारक करना चाहता है, परंतु छोटी, प्रमाणयुक्त। जो वसति रुन्द अर्थात् विस्तीर्ण होती है, वहां कोई दूसरा मुनि बैठा हुआ है, उसे वहां से अन्यत्र ले उसमें पुष्पों की भांति अवकीर्ण रूप से सोया जाता है, जाना कष्टप्रद होता है। उसे अन्य किसी उपाय से उठने के क्षुल्लिका वसति में मंडलिका के रूप में और जो प्रमाणयुक्त लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता। तब उससे कहा जाता होती है, उसमें पंक्तिबद्ध सोया जाता है। है-'जो भी मेरे कांटे को निकालेगा उसे भी मैं जान लूंगा' यह ४३८८.सीसं इतो य पादा, इहं च मे वेंटिया इहं मज्झं।। मानकर संस्तारकभूमी में लुब्ध मुनि कहता है-भंते! आप जइ अगहियसंथारो, भणाइ लहुगोऽहिकरणादी॥ वहां से उठकर अपनी इच्छानुसार दूसरी संस्तारकभूमी को यदि मुनि विधि का उल्लंघन कर यह कहे-यहां मैं सिर ग्रहण करें। यहां मैं इसके इस कंटक को निकालता हूं। यह करूंगा, इधर पैर और वेंटिका, भाजन आदि रखूगा। यदि वह मायाकरण है। संस्तारक न कर अपनी इच्छा से यह कहता है तो उसे ४३९४.लग्गे व अणहियासम्मि कंटए उक्खिवावे अन्नेणं। लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा अधिकरण आदि दोष मज्झच्चगमवणेत्ता, कमागयं गेण्हह ममं पि॥ होते हैं। अथवा किसी मुनि के वास्तव में कांटा लग गया है। वह ४३८९.संथारग्गहणीए वेंटियउक्खेवणं तु कायव्वं। उसे सहन करने में असमर्थ है तब वेंटिका को दूसरे से उठाए __ संथारो घेत्तव्वो, माया-मयविप्पमुक्केणं॥ और कहे-मेरा कांटा निकाल कर, क्रमागत मेरी भी संस्तारक ग्रहण काल में वेंटिका का उत्क्षेपण किया संस्तारक भूमी को ग्रहण करें। जाए। जिसको जो संस्तारक (शयन स्थान) दिया जाता है ४३९५.एमेव य वीयारे, उज्जु अणुज्जू तहेव पासवणे। उसे वह मुनि माया और मद से विप्रमुक्त होकर ग्रहण करे। धम्मकहालक्खेण व, आवज्जइ मासियं मादी। रण हा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक इसी प्रकार विचारभूमी और प्रस्रवणभूमी के विषय में भी मुनि ऋजु और अऋजु होता है अर्थात् मायी अमायी होता है। कोई मुनि धर्मकथा के मित्र से क्रमागत संस्तारक के विषय में माया करता है। उसे लघु मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४३९६. दुवियडुबुद्धिमलणं, सड्डा सेज्जायरेयराणं च। तित्यविवद्धि पभावण, असारियं चेव कहयते ॥ धर्मकथा करने से ये गुण निष्पन्न होते हैं-दुर्विदग्धबुद्धि का मर्दन होता है अर्थात् विपरीतशास्त्रों की पल्लवग्राहिणी बुद्धि का खंडन होता है, श्रावकों की श्रद्धा बढ़ती है, शय्यातर तथा इतर व्यक्तियों की धर्म के प्रति आस्था वृद्धिंगत होती है। तीर्थ की वृद्धि और प्रवचन की प्रभावना होती है। धर्मश्रवण के प्रति उदासीन व्यक्ति उपाश्रय में प्रवेश नहीं करते। अतः उस समय उपाश्रय असागारिक होता है और तब मुनि प्रत्युपेक्षा आदि सुखपूर्वक कर सकते हैं। धर्मकथा करने वाले के ये गुण निष्पन्न होते हैं। ४३९७.मा पयल गिण्ह संथारगं ति पयलाइ इय वि जइ वृत्तो । को नाम न निग्गिहइ, खणमित्तं तेण गुरुओ से ॥ किसी मुनि ने दूसरे मुनि से कहा- झपकियां मत लो। अपने संस्तारक (शयन करने योग्य स्थान) को ग्रहण कर लो। इतना कहने पर भी झपकियां लेते रहता है। इससे जानना चाहिए कि वह मायावी है ऐसा कौन होगा जो क्षणमात्र ( संस्तारक ग्रहण काल ) के लिए भी निद्रा पर नियंत्रण नहीं कर सकता? वह तीव्र मायावी है अतः उसे गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४३९८.विच्छिण्ण कोट्टिमतले, डहराए विसमए अ घेप्पंति । होइ अहाराहणियं राहणिया ते इमे होंति ॥ विस्तीर्ण या संकीर्ण, वसति में या कुट्टिमतल में या विषम भूभाग में रत्नाधिक मुनि के क्रम से संस्तारक ग्रहण किया जाता है। वे रत्नाधिक ये होते हैं४३९९.उवसंपज्ज गिलाणे, परित्त खमए अवाउडिय थेरे । तेण परं विच्छिण्णे, परिवाए मोत्तिमे तिनि ॥ आचार्य गुरु के लिए तीन संस्तारकों का निर्धारण करने के पश्चात् जो उपसंपन्न है, ग्लान, परीत्त उपधि वाला मुनि, क्षपक, रातभर अपावृत रहने वाला मुनि, स्थविर, संस्तारक ग्रहण करे। उसके बाद विस्तीर्ण प्रतिश्रय में पर्यायरत्नाधिक के क्रम से संस्तारक ग्रहण करने चाहिए। इन तीनों को छोड़कर - क्षुल्लक, शैक्ष और वैयावृत्त्यकर। (इनका कथन आगे किया गया है | ) ४४००, कामं सकामकिच्यो, अभिग्गहो न उ बलाभिओगेणं । तणुसाहारणहेतुं तह वि निवारहि ठावेंति ॥ - ४५३ यह सर्वथा अनुमत है कि अभिग्रह अपनी इच्छा से करना चाहिए बलाभियोग से नहीं मुनि शरीर के शीत उपद्रव के निवारण के लिए निर्वात प्रदेश में जाकर स्थित होता है। ४४०१. अनोनकारेण विनिज्जरा जा, न सा भवे तस्स विवज्जयेणं । जहा तवस्सी धुणते तवेणं, कम्मं तहा जाण तवोऽणुमंता ॥ जो विशिष्ट निर्जरा परस्पर वैयावृत्यकरण से होती है, वह उसके विपर्यय से नहीं होती। जैसे तपस्वी अपने तप के द्वारा कर्मों का धुनन करता है, नाश करता है, उसी प्रकार उस तपस्या का अनुमोदन करने वाला, उसका सहायक मुनि भी कर्मों का क्षय करता है (इसीलिए अपावृत रहने वाले मुनि पर अनुग्रह करना उचित है।) ४४०२. बीभेंत एव खुड्डे, वेयावच्चकरे सेहे जस्स पासम्मि | विसमऽप्पे तिन्नि गुरुणो, इतरे गहियम्मि गिण्हति ॥ क्षुल्लक मुनि स्वभावतः डरपोक होता है। अतः उसे उचित स्थान में सुलाया जाता है। वैयावृत्त्यकर ग्लान के पास तथा शैक्ष शिक्षक के पास सोए यह व्यवस्था है विषम स्थान तथा संकीर्ण स्थान वाले उपाश्रय में गुरु के लिए तीन संस्तारकों का निर्धारण करने के पश्चात् उनके द्वारा ग्रहण कर लिए जाने पर इतर मुनि यथोक्तक्रम से संस्तारक ग्रहण करें । ४४०३. बीभेज्ज बाहिं ठवितो उ खुट्टो, तेणाइगम्मो य अजग्गिरो य । सारेइ जो तं उभयं च नेई, तस्सेव पासम्मि करेंति तं तू ॥ क्षुल्लक मुनि को बाहर सुलाने पर वह डरता है तथा वह चोरों (अपहर्त्ताओं) के लिए गम्य होता है। वह जगाने पर भी नहीं जागता अतः उसका जो संरक्षक मुनि है, उसे शिक्षा देने वाला है तथा जो उसकी कायिकी संज्ञा का परिष्ठापन करता है, उसको उसी के पास सुलाया जाता है। ४४०४. संथारगं जो इतरं व मत्तं, उव्वत्तमादी व करेइ तस्स । गाइ सेहं खलु जो व मेरं, करेंति तस्सेव उ तं सगासे ॥ जो ग्लान का बिछौना करता है, जो उसकी छोटी-बड़ी संज्ञा का परिष्ठापन करता है, जो उसको उद्वर्तन - परावर्तन आदि कराता है, उसके वैयावृत्यकर को उसी के पास स्थापित करते हैं। जो शैक्ष को सामाचारी सिखाता है, उसी के पास शैक्ष को स्थापित करते हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ४५४ ४४०५.सम-विसमा थेराणं, आवलिया तत्थ अप्पणो इच्छा। खेल पवाय निवाए, पाहणए जं विहिग्गहणं॥ यदि वसति संकीर्ण हो तो आवलिका-पंक्तिबद्ध पद्धति से संस्तारक करें। यदि इस विधि से स्थविरों के विषम भूमी आए तो वे अपनी इच्छा से तरुण मुनियों के साथ उसका परावर्तन करें। जिस मुनि के श्लेष्म का प्रकोप हो वह अपने बिछौने के मध्य अवकाश रखता है तो एकांत स्थान में संस्तारक करे। जो मुनि पित्त प्रकृति का है वह प्रवात स्थान में सोना चाहता है और जो वायु प्रकृति (वातल) का है वह निवात-वायु रहित प्रदेश में सोना चाहता है। दोनों परस्पर स्थान का परावर्तन करें। यदि कोई प्राघूर्णक आ जाए तो उसे विधिपूर्वक शयनस्थान अनुज्ञापित करे। ४४०६.विसमो मे संथारो, गाढं पासा मि एत्थ भज्जंति। को देज्ज मज्झ ठाणं, समं ति तरुणा सयं बेति॥ किसी स्थविर का शयनस्थान विषमभूमी में आ गया। वह समभूमी वाले तरुण को कहता है-'मेरा संस्तारक विषम है। यहां सोने पर मेरे दोनों पार्श्व अत्यंत पीड़ा करने लगते हैं। कौन मुझे सम स्थान देगा?' तब तरुण मुनि स्वयं कहते हैं-'हम आपको सम स्थान देंगे। आप हमारे शयनस्थान पर सोएं।' ४४०७.जइ पुण अत्थिज्जंता, न देति ठाणं बला न दावेति। देति तहिं पुंछणादी, बहिभावाऽसंखडं मा वा॥ यदि याचना करने पर भी तरुण मुनि स्थान नहीं देते तो आचार्य आदि भी उनसे बलपूर्वक वह समस्थान नहीं दिलाते क्योंकि ऐसा करने पर तरुण मुनियों के मन में अन्यथाभाव आ सकता है अथवा कलह हो सकता है। अतः वे ऐसा नहीं करते। तब स्थविर मुनि विषम अवकाश में पादपोंछन आदि देकर सो जाते हैं। ४४०८.मज्झम्मि ठाओ मम एस जातो, पासंदए निच्च ममं च खेलो। ठाओ सरावस्स य नत्थि एत्थं, सिंचिज्ज खेलेण य मा हु सुत्ते॥ श्लेष्मल मुनि कहता है-मेरे संस्तारक के दोनों ओर यह स्थाय-अवकाश रहा है। मुझ में सदा श्लेष्मा उग्र बना रहता है। इस स्थिति में श्लेष्मा का मात्रक रखने का । अवकाश ही नहीं है। मैं यहां सोकर मेरे पार्श्ववर्ती सुप्त मुनियों को श्लेष्मा से खरंटित करूं, यह मैं नहीं चाहता। तब एकान्त स्थान में सुप्त मुनि उसको अपनी संस्तारकभूमी दे देता है। ४४०९.निदं न विंदामिह उव्वरेणं, को मे पवायम्मि दएज्ज भूमि। सीएण वाएण य मज्झ बाहिं, न पच्चए अन्नमहऽन्न आह।। पित्तल मुनि कहता है-यहां मैं उद्वर-गर्मी के उपताप से नींद नहीं ले पाता। कौन मुझे प्रवात-हवादार भूमी में शयन करने के लिए भूमी देगा? इतने में ही वातल मुनि कहता है-बाहर सोया हुआ मैं शीतल वायु से पीड़ित हो रहा हूं। उससे मेरा अन्न भी नहीं पच रहा है। (तब दोनों-पित्तल और वातल मुनि-परस्पर स्थान का परिवर्तन कर लेते हैं।) ४४१०.जोइंति पक्कं न उ पक्कलेणं, ठावेंति तं सूरहगस्स पासे। एकम्मि खंभम्मि न मत्तहत्थी, बज्झंति वग्घा न य पंजरे दो॥ जो पक्व अर्थात् कलहशील है, उसको दूसरे कलहशील के साथ योजित नहीं किया जाता। उसको शूरहक अर्थात् कलह आदि करने वालों को शिक्षित करने में समर्थ हो, उसके पास स्थापित करते हैं। एक ही आलानस्तंभ पर दो मत्त हाथियों को नहीं बांधा जाता और न एक ही पिंजरे में दो व्याघ्र रखे जाते हैं। ४४११.रायणिओ आयरिओ, आयरियस्सेव अक्कमइ ठागं। इतरो वसभट्ठाए, ठायइ जे ते व दो ठागा। समागत प्राघूर्णक आचार्य से रत्नाधिक हैं, उनको वास्तव्य आचार्य का शयनीय स्थान प्राप्त होता है। वास्तव्य आचार्य वृषभ अर्थात् उपाध्याय के स्थान पर संस्तारक ग्रहण करते हैं। अथवा आचार्य के तीन स्थान निर्धारित होते हैं। उनमें से एक स्थान पर प्राघूर्णक आचार्य सो गए। अवशिष्ट दो स्थानों में से एक स्थान में वास्तव्य आचार्य सो जाते हैं। ४४१२.ओमो पुण आयरिओ, वसभोगासे अणंतरे वसभो। संछोभरपरंपरओ, चरिमं सेहं च मोत्तूणं॥ यदि प्राघूर्णक आचार्य पर्याय से लघु हो तो वह वृषभ के स्थान पर सोता है। उसके पश्चात् वृषभ स्थान पाता है। यह संस्तारकों की 'संक्षोभपरंपरा' स्थानान्तरसंक्रमणरूप परंपरा तब तक जाननी चाहिए जब तक द्विचरम साधु न आ जाए। अर्थात् सर्वपाश्चात्यवर्ती स्थान में सोनेवाले शैक्ष का स्थान न आ जाए। इनके संस्तारक का संक्रमण नहीं करना चाहिए। ४४१३.चरिमो बहिं न कीरइ, सेहं न सहायगा विजुयलेंति। रंगिद्धिपुरिसनायं, सव्वे तत्थेव माति॥ 'चरम' अर्थात् पर्यन्तवर्ती मुनि को बाहर नहीं करना चाहिए। वह शैक्ष अपने शिक्षक (सहायक) के साथ रहता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक= इस युगल को विलग नहीं करना चाहिए। यहां 'रंगभूमी में ऋद्धिमान् पुरुषों' का दृष्टांत ज्ञातव्य है। रंगभूमी खचाखच दर्शकों से भरी है। इतने में ही राजा, अमात्य, श्रेष्ठी आदि ऋद्धिमान् पुरुष आ गए। उनको अपने-अपने योग्यस्थान पर बिठाया जाता है। पहले समागत लोग भी स्थान का संक्षेपीकरण कर वहीं समा जाते हैं। इसी प्रकार मुनिजनों के आने वाले प्राघूर्णक भी प्रधानपुरुष सदृश होते हैं अतः उन्हें उनके योग्य संस्तारकभूमी देकर सभी मुनियों को अवशिष्ट स्थान में संस्तारक दे दते हैं। यह कार्य वृषभ मुनि का होता है। कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए किइकम्मं करेत्तए॥ (सूत्र २०) (सत्र ४४१४.संथारं दुरुहंतो, किइकम्मं कुणइ वातिगं सायं। पातो वि य पणिवायं, पडिबुद्धो एक्कमेक्कस्स॥ मुनि सायं अपने संस्तारक पर आरूढ़ होते समय वाचिक कृतिकर्म 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' कहकर करता है और प्रातः जाग कर प्रत्येक रत्नाधिक मुनि को वन्दन करता है। ४४१५.किइकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं। वंदणगं तहिं ठप्पं, अब्भुट्ठाणं तु वोच्छामि॥ कृतिकर्म (वंदनक) के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान और वंदनक। इन दोनों में से एक (वंदनक) स्थाप्य अर्थात् पश्चाद् कथनीय है। अभ्युत्थान के विषय में अभी कहूंगा। ४४१६.अब्भुट्ठाणे लहुगा, पासत्थाद-ऽण्णतित्थि-गिहिएसु। __ अहछंद अण्णतित्थिणि, संजइवग्गे अ गुरुगा उ॥ पार्श्वस्थ, अन्यतीर्थिक तथा गृहस्थों के प्रति अभ्युत्थान करने पर चतुर्लघु तथा यथाच्छंद, अन्यतीर्थिनीयों तथा संयती वर्ग के प्रति अभ्युत्थान करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४४१७.उद्वेइ इत्थिं जह एस एंतिं धम्मे ठिओ नाम न एस साहू। दक्खिन्नपन्ना वसमेइ चेवं, मिच्छत्तदोसा य कुलिंगिणीसु॥ कोई मुनि आती हुई स्त्री को देखकर अभ्युत्थान करता है, तब देखने वाला श्रावक कहता है-यह मुनि धर्म में स्थित नहीं है। यह उस स्त्री का दाक्षिण्यवान् है। इससे वह उसका वशवर्ती होता है। इससे ब्रह्मचर्य की विराधना होती = ४५५ है। तथा जो कुलिंगिनियां होती हैं-तापसी, परिव्रजिका आदि होती हैं उनके प्रति अभ्युत्थान करने से मिथ्यात्व आदि दोष होते हैं। ४४१८.ओभावणा पवयणे, कुतित्थ उब्भावणा अबोही य। खिसिज्जंति य तप्पक्खिएहिं गिहिसुव्वया बलियं॥ अन्यतीर्थिकों के प्रति अभ्युत्थान करने पर प्रवचन की अपभ्राजना-निन्दा होती है, कुतीर्थ की प्रभावना होती है, अबोधि अर्थात् प्रवचन की लघुता तथा जो गृहस्थ सुव्रत-अणुव्रत धारक हैं उनकी शाक्य आदि पक्षपाती उपासकों द्वारा अत्यधिक खिंसना होती है, भर्त्सना होती है, वे कहते हैं हमारा दर्शन सर्वोत्तम है क्योंकि वह आपके गुरुओं के लिए भी गौरवाह है। ४४१९.एए चेव य दोसा, सविसेसयरऽन्नतित्थिगीसुं पि। लाघव अणुज्जियत्तं, तहागयाणं अवन्नो य॥ ये ही दोष विशेषरूप से अन्यतीर्थिकी स्त्रियों के प्रति अभ्युत्थान करने से होते हैं। विशेषरूप से लाघव, अनूर्जितत्व-वराकत्व तथा तीर्थंकर आदि का अवर्णवाद होता है। ४४२०.पायं तवस्सिणीओ, करेंति किइकम्म मो सुविहियाणं। एसुत्तिट्ठइ वतिणिं, भवियव्वं कारणेणेत्थं ।। संयतीयों के प्रति अभ्युत्थान करते हुए देखकर, शैक्ष सोचता है-प्रायः तपस्विनी संयतियां सुविहित मुनियों का कृतिकर्म करती हैं। यह मुनि संयती के प्रति अभ्युत्थान करता है। इसमें कोई न कोई कारण होना चाहिए। ४४२१.आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि तहेव होइ खुड्डे य। गुरुगा लहुगा लहुगो, भिन्ने पडिलोम बिइएणं॥ आचार्य, अभिषेक, भिक्षु और क्षुल्लक-इन प्राघूर्णकों के आने पर यदि अभ्युत्थान नहीं किया जाए तो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वह प्रायश्चित्त क्रमशः यह है-गुरुक, लघुक, लघुक और भिन्नमास। दूसरे आदेश से यही प्रायश्चित्त प्रतिलोम के क्रम से कहना चाहिए। ४४२२.आयरियस्सायरियं, अणुट्ठियंतस्स चउगुरू होति। वसभे भिक्खू खुड्डे, लहुगा लहुगो य भिन्नो य॥ प्राघूर्णक आचार्य के आने पर यदि आचार्य अभ्युत्थान नहीं करते तो प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु। वृषभ द्वारा अभ्युत्थान न करने पर चतुर्लघु, भिक्षु द्वारा अभ्युत्थान न करने पर लघुमास और क्षुल्लक द्वारा अभ्युत्थान न करने पर भिन्नमास का प्रायश्चित्त है। ४४२३.सट्ठाण परट्ठाणे, एमेव य वसह-भिक्खु-खुड्डाणं। जं परठाणे पावइ, तं चेव य सोहि सट्ठाणे।। प्राण Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ इसी प्रकार वृषभ, भिक्षु और क्षुल्लक के भी स्वस्थान- परस्थान प्रायश्चित्त वक्तव्य है। स्वस्थान का तात्पर्य है वृषभ का वृषभ और परस्थान का तात्पर्य है वृषभ का आचार्य। इसी प्रकार भिक्षु और क्षुल्लक के भी स्वस्थान-परस्थान होता है। जो प्रायश्चित्त परस्थान में आचार्य को प्राप्त होता है वही वृषभ आदि को स्वस्थान में प्राप्त होगा। जैसे वृषभ आदि प्राघूर्णक आचार्य के आने पर अभ्युत्थान न करे तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त। वृषभ के आने पर अभ्युत्थान न करने पर चतुर्लघु। भिक्षु और क्षुल्लक के आने पर अभ्युत्थान न करने पर क्रमशः मासलघु और भिन्नमास। जो परस्थान में प्रायश्चित्त प्राप्त होता है वही स्वस्थान में प्राप्त होता है। ४४२४.दोहि वि गुरुगा एते, आयरियस्सा तवेण कालेण। तवगुरुगा कालगुरू, दोहि वि लहुगा य खुड्डस्स। आचार्य के ये सभी प्रायश्चित्त दोनों अर्थात् तप और काल से गुरु होते हैं। वृषभ के तपोगुरु, भिक्षु के कालगुरु और क्षुल्लक के तप और काल से लघु होते हैं। ४४२५.अहवा अविसिट्ठ चिय, पाहुणयाऽऽगंतुए गुरुगमादी। पावेंति अणुट्ठिता, चउगुरु लहुगा लहुग भिन्नं॥ अथवा शब्द प्रायश्चित्त का प्रकारान्तर द्योतक है। आचार्य आदि विशेषण से विरहित आगंतुक प्राघूर्णक के प्रति अभ्युत्थान न करने वाले गुरु आदि अर्थात् आचार्य आदि यथाक्रम चतुर्गुरु, चतुर्लघुक, लघुमास और भिन्नमास का प्रायश्चित्त प्राप्त करते हैं। जैसे कोई भी प्राघूर्णक के आने पर यदि आचार्य अभ्युत्थान नहीं करते हैं तो चतुर्गुरु, वृषभ को चतुर्लघु, भिक्षु को लघुमास और क्षुल्लक को भिन्नमास का प्रायश्चित्त है। ४४२६.अहवा जं वा तं वा, पाहुणगं गुरुमणुट्ठिह पावे। भिन्नं वसभो सुक्कं, भिक्खु लहू खुड्डए गुरुगा। अथवा जिस किसी प्राघूर्णक के लिए अभ्युत्थान न करने पर गुरु-आचार्य भिन्नमास को प्राप्त करता है, वृषभ शुक्लमास अर्थात् लघुमास, भिक्षु चतुर्लघु और क्षुल्लक चतुर्गुरुक को प्राप्त करता है। ४४२७.वायण-वावारण-धम्मकहण-सुत्तत्थचिंतणासुं च। वाउलिए आयरिए, बिइयादेसो उ भिन्नाई॥ प्रश्न होता है कि द्वितीय आदेश का प्रवर्तन क्यों? आचार्य कहते हैं-आचार्य को वाचना देनी होती है, साधुओं को वैयावृत्य आदि में नियोजित करना, धर्मकथा करना, स्वयं को सूत्रार्थ की अनुप्रेक्षा करना-इन कार्यों में आचार्य निरंतर व्याकुल रहते हैं। अन्य मुनि इतने व्याकुलित नहीं १. विनयः शिक्षाप्रणत्योः। (वृ. पृ. ११९६) बृहत्कल्पभाष्यम् रहते, इसलिए भिन्नमास आदि का यह द्वितीय आदेश प्रवृत्त हुआ है। ४४२८.वेसइ लहुमुढेइ य, धूलीधवलो असंफुरो खुड्डो। इति तस्स होति गुरुगा, पालेइ हु चंचलं दंडो॥ प्रश्न होता है कि बाल साधु को गुरुतम प्रायश्चित्त क्यों? बाल साधु लघु शरीर होने के कारण सुखपूर्वक उठबैठ सकता है। वह धूलीधवल अर्थात् रजोगुण्डित देह वाला तथा असंवृत होता है। वह चपल होता है फिर भी यदि प्राघूर्णक या गुरु आदि के आने पर अभ्युत्थान नहीं करता है तो उसे गुरु प्रायश्चित्त आता है। वह चंचल होने के कारण दीयमान दंड का पालन कर लेता है। ४४२९.जइ ता दंडत्थाणं, पावइ बालो वि पयणुए दोसे। ह णु दाणि अक्खमं णे, पमाइउं रक्खणा सेसे॥ दूसरे मुनि सोचते हैं यदि इस बाल मुनि को भी थोड़े से दोष पर भी इस 'दंडस्थान' गुरु दंड को प्राप्त करता है तो हमें प्रमाद करना उचित नहीं है। इस प्रकार शेष साधुओं की प्रमाद से रक्षा हो जाती है। ४४३०.दिलुतो दुवक्खरए, अब्भुट्टितेहिं जह गुणो पत्तो। तम्हा उद्वेयव्वो, पाहुणओ गच्छे आयरिओ॥ यहां व्यक्षर (दास) का दृष्टांत वक्तव्य है। जो अभ्युत्थान आदि करते हैं, वे गुणों को प्राप्त करते हैं, अतः साधुओं के भी प्राघूर्णक आचार्य के आने पर अभ्युत्थान करने पर इहपरत्र गुणकारी होता है। प्राघूर्णक आचार्य सकलगच्छ के द्वारा अभ्युत्थातव्य होता है। ४४३१.आराहितो रज्ज सपट्टबंध, कासी य राया उ दुवक्खरस्स। पसासमाणं तु कुलीयमादी, नादति तं तेण य ते विणीया॥ एक दास ने राजा की आराधना की। राजा ने प्रसन्न होकर उसको पट्टबंध राजा बना दिया। वह राज्य पर प्रशासन करने लगा। परंतु कुलीन आदि सामन्त उसके प्रशासन को आदर नहीं देते। तब उस राजा ने उन सबको विनीत किया अर्थात् सबको अनेक उपायों से दंडित कर शिक्षा दी, उनको प्रणत किया। ४४३२.सव्वस्सं हाऊणं, निज्जूढा मारिया य विवदंता। भोगेहिं संविभत्ता, अणुकूल अणुव्वणा जे उ॥ उस दास राजा ने प्रतिकूल व्यक्तियों का सर्वस्व हरण कर उन्हें नगर से निष्काशित कर दिया। जो विवाद करते उनको मार डाला। जो व्यक्ति अनुकूल और अगर्वित रहे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ४५७ उनको राज्य के भोगों में संविभाग दिया। यह दृष्टांत है। अभ्युत्थान नहीं करते, बैठे रहते हैं तो उन्हें तथा जो इसका अर्थोपनय यह है सूत्रार्थपौरुषी में संलग्न हों, पात्रों पर लेप लगा रहे हों, ४४३३.अहिराया तित्थयरो, इयरो उ गुरू उ होइ नायव्वो। प्रतिलेखना कर रहे हों, आइयण अर्थात् आहार कर रहे हों, साहू जहा व दंडिय, पसत्थमपसत्थगा होति॥ धर्मकथा कर रहे हों, झपकियां ले रहे हों, ग्लान हों, तीर्थंकर अधिराजा (मूल राजा) के सदृश होते हैं। इतर उत्तमार्थ अनशन प्रतिपन्न हों-इन सबको आचार्य के आने पर अर्थात् मूल राजा तीर्थंकर द्वारा स्थापित दूसरे राजा के सदृश समुत्थान करना चाहिए। यदि समुत्थान नहीं करते हैं तो होते हैं गणाधिपति गुरु-आचार्य। तथा जैसे प्रशस्त- प्रायश्चित्त आता है। अप्रशस्तरूप दंडिक आदि होते हैं, वैसे ही दोनों स्वभाववाले ४४३८.दूरागयमुट्ठउं, अभिनिग्गंतुं नमंति णं सव्वे। होते हैं साधु। दंडगहणं च मोत्तुं, दिढे उट्ठाणमन्नत्थ।। ४४३४.जह ते अणुट्टिहंता, हियसव्वस्सा उ दुक्खमाभागी। __ दूर से अर्थात् अन्यत्र से आचार्य को आते हुए जानकर इय णाणे आयरियं, अणुट्टिहंताण वोच्छेदो॥ सभी मुनि उनकी अगवानी के लिए जाएं और वंदना करें। जैसे राजा के प्रति अभ्युत्थान आदि न करने वाले व्यक्ति आचार्य जब उपाश्रय में प्रवेश करें तब उनका दंड ग्रहण करें। अपने सर्वस्व को गंवा कर दुःख के आभागी बन जाते हैं, अन्यत्र गुरु को देखकर दंड को छोड़कर, अभ्युत्थान करें। इसी प्रकार जो साधु आचार्य आदि का अभ्युत्थान आदि से ४४३९.परपक्खे य सपक्खे, होइ अगम्मत्तणं च उठाणे। सत्कार नहीं करते उनके भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र का सुयपूयणा थिरत्तं, पभावणा निज्जरा चेव॥ व्यवच्छेद हो जाता है और वे अनेक प्रकार के दुःख पाते हैं। गुरु के प्रति अभ्युत्थान करने से परपक्ष तथा स्वपक्ष में ४४३५.उट्ठाण-सेज्जा -ऽऽसणमाइएहिं, गुरु की अनभिभवनीयता द्योतित होती है। श्रुत की पूजा, गुरुस्स जे होति सयाऽणुकूला। संयम में स्थिरत्व होता है, शासन की प्रभावना और निर्जरा नाउं विणीए अह ते गुरू उ, होती है। संगिण्हई देइ य तेसि सुत्तं॥ ४४४०.अकारणा नत्थिह कज्जसिद्धी, जो शिष्य आचार्य के प्रति अभ्युत्थान आदि में सजग न याणुवाएण वदेति तण्णा। रहते हैं, उनके शय्या, आसन आदि की रचना में जागरूक उवायवं कारणसंपउत्तो, होते हैं इन क्रियाओं में जो सदा गुरु के अनुकूल होते हैं, __ कज्जाणि साहेइ पयत्तवं च॥ उनको गुरु विनीत जानकर उनका संग्रहण करते हैं अर्थात् कार्यसिद्धि को जानने वाले कहते हैं कि कार्य की सिद्धि उनका पालन करते हैं और उनको श्रृत की वाचना देते हैं। उसके उपादानकारण के बिना नहीं होती तथा उपाय के बिना ४४३६.पज्जाय-जाई-सुततो य वुड्ढा, भी नहीं होती। जो व्यक्ति उपायवान् तथा कारण से संप्रयुक्त जच्चन्निया सीससमिद्धिमंता।। होता है, वह प्रयत्नवान् पुरुष कार्यों को साध लेता है, कार्यों कुव्वंतऽवण्णं अह ते गणाओ, की संपूर्ति कर लेता है। निज्जूहई नो य ददाइ सुत्तं॥ ४४४१.धम्मस्स मूलं विणयं वयंति, जो शिष्य संयमपर्याय से वृद्ध, जन्म से वृद्ध, श्रुतसंपदा धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए। से वृद्ध होते हैं वे आचार्य को अवमरत्नाधिक, बालक और सा सोग्गई जत्थ अबाहया ऊ, अल्पश्रुत मानकर तथा अपने को जाति से उच्च तथा शिष्य तम्हा निसेव्वो विणयो तदट्ठा। संपदा से समृद्ध मानते हुए आचार्य को हीन जाति वाला तथा तीर्थंकर कहते हैं-धर्म का मूल है विनय। धर्म सुगति का अल्पशिष्य परिवार वाला मानकर उनकी अवज्ञा करते हैं, मूल है। सुगति वह है जहां कोई बाधा नहीं है। वह है सिद्धि। आचार्य उनको गण से पृथक् कर देते हैं। यदि नि!हण अतः सुगति प्राप्ति के लिए विनय का आचरण करना चाहिए। करना-पृथक् करना शक्य न हो तो आचार्य उनको श्रुत की ४४४२.मंगल-सद्धाजणणं, विरियायारो न हाविओ चेवं। वाचना नहीं देते। एएहिं कारणेहिं, अतरंत परिण उट्ठाणं॥ ४४३७.मज्झत्थ पोरिसीए, लेवे पडिलेह आइयण धम्मे। अतरंत अर्थात् ग्लान तथा परिण-परिज्ञावान् (अनशनी) पयल गिलाणे तह उत्तिमट्ठ सव्वेसि उट्ठाणं॥ ये दोनों जब आचार्य के आने पर अभ्युत्थान करते हैं तो आचार्य को आते हुए देखकर गच्छ के साधु यदि उनके मंगल होता है। उनको देखकर दूसरों में भी अभ्युत्थान Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ बृहत्कल्पभाष्यम् करने की श्रद्धा पैदा होती है तथा ग्लान और अनशनी का आदि क्रियाओं के समय अभ्युत्थान करना हम निरर्थक वीर्याचार त्यक्त नहीं होता। मानते हैं। ४४४३.चंकमणे पासवणे, वीयारे साहु संजई सन्नी। ४४४८.कामं तु एअमाणो, आरंभाईसु वट्टई जीवो। सन्निणि वाइ अमच्चे, संघे वा रायसहिए वा॥ सो उ अणट्ठा जेट्ठो, अवि बाहूणं पि उक्खेवो।। ४४४४.पणगं च भिन्नमासो, मासो लहुगो य होइ गुरुगो य। यह अनुमत है कि स्पन्दमान जीव आरंभ आदि में अर्थात् चत्तारि छ च्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ कर्मबंध के कारणों में प्रवृत्त होता है। जीव का स्पंदन आचार्य को चंक्रमण करते हुए देखकर अभ्युत्थान न निष्कारण नहीं माना गया है। बाहु का उत्क्षेप भी निरर्थक करने पर पांच रात-दिन का, प्रस्रवण भूमी से आने पर नहीं होता, फिर चंक्रमण आदि की बात ही क्या? भिन्नमास, संज्ञाभूमी से आने पर मासलघु, दूसरे साधुओं के ४४४९.मणो य वाया काओ अ, तिविहो जोगसंगहो। साथ आने पर मासगुरु, साध्वियों के साथ आने पर चतुर्लघु, ते अजुत्तस्स दोसाय, जुत्तस्स उ गुणावहा॥ श्रावकों के साथ आने पर चतुर्गुरु, असंज्ञियों के साथ आने योगसंग्रह तीन प्रकार का है-मनोयोग, वाग्योग और पर षड्लघु, संजिनी स्त्रियों के साथ आने पर षड्गुरु, वादी काययोग। जो व्यक्ति अनुपयुक्त होता है उसके ये तीनों योग के आने पर छेद, अमात्य के साथ आने पर मूल, संघ के दोष के लिए होते हैं अर्थात् कर्मबंध के लिए होता है और जो साथ आने पर अनवस्थाप्य, राजा के साथ आने पर उपयुक्त होता है उसके ये तीनों योग गुणकारी होते हैं, अर्थात् पारांचिक। (ये सारे प्रायश्चित्त आचार्य के आने पर निर्जरा के कारण बनते हैं। अभ्युत्थान न करने पर आते हैं।) ४४५०.जह गुत्तस्सिरियाई, न होति दोसा तहेव समियस्स। ४४४५.पूएंति पूइयं इत्थियाउ पाएण ताओ लहुसत्ता। गुत्तीट्ठिय प्पमायं, रुंभइ समिई सचेट्ठस्स॥ एएण कारणेणं, पुरिसेसुं इत्थिया पच्छा॥ जो मनो-वाक्-काय से गुप्त होता है उसके ईर्यादि के दोष स्त्रियां प्रायः पूजित की पूजा करती हैं। वे तुच्छ नहीं लगते। उसी प्रकार जो समित होता है, समितियों में स्वभाववाली होती हैं। इन दो कारणों से पहले पुरुषों (साधु- उपयुक्त होता है उसके भी ईर्यादि के दोष नहीं लगते। जो श्रावकों) को अधिकृत कर लघु प्रायश्चित्त कह कर पश्चात् । मुनि गुप्तियों में स्थित है, वह अगुप्तिजनक प्रमाद का निरोध स्त्रियों (साध्वियों, श्राविकाओं) को अधिकृत कर गुरु कर लेता है। जो मुनि समितियों में स्थित है-वह सचेष्ट में प्रायश्चित्त कहा गया है। होने वाले प्रमाद और उससे होने वाले कर्मबंध का निरोध ४४४६.पाएणिद्धा एंति महाणेण समं तू, करता है। फातिं दोसो गच्छइ एएसु तणू वि। ४४५१.समितो नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणम्मि भइअव्वो। गझं वक्कं होज्ज कहं वा परिभूतो, कुसलवइमुदीरंतो, जं वइसमितो वि गुत्तो वि॥ वेडुज्जं वा कुच्छियवेसम्मि मणूसे॥ जो मुनि समित है, वह नियमतः गुप्त है। जो गुप्त है वह (राजा के साथ गुरु के आने पर अभ्युत्थान न करने पर समितत्व में विकल्पनीय है। प्रश्न है कि जो समित है वह पारांचिक प्रायश्चित्त क्यों?) नियमतः गुप्त कैसे? जो कुशल अर्थात् निरवद्य वचन की राजा ऐश्वर्यशाली होते हैं। वे प्रायः सामन्त, मंत्री आदि उदीरणा करता है वह वाक्समित और गुप्त भी है। महाजनों के साथ आते हैं। अतः इनके कारण लघु दोष भी ४४५२.जो पुण काय-वतीओ, निरुज्झ कुसलं मणं उदीरेइ। बड़ा हो जाता है, विस्तार पा जाता है। साधुओं द्वारा चिट्ठइ एकग्गमणो, सो खलु गुत्तो न समितो उ॥ अभ्युत्थान न करने पर आचार्य का पराभव माना जाता है। कोई शरीर और वाणी का निरोध कर कुशल मन की जो परिभूत हो उसका वचन ग्राह्य कैसे हो सकता है? जैसे उदीरणा करता है और एकाग्रमन होकर बैठता है। वह गुप्त कुत्सित वेश वाले मनुष्य के पास स्थित वैडूर्यमणि उपादेय कहलाता है, समित नहीं। नहीं होता। ४४५३.वाइगसमिई बिइया, तइया पुण माणसा भवे समिई। ४४४७.अवस्सकिरियाजोगे, वढ्तो साहु पुज्जया। सेसा उ काइयाओ, मणो उ सव्वासु अविरुद्धो॥ परिफग्गुं तु पासामो, चंकम्मते वि उट्ठणं॥ वाचिकसमिति (भाषासमिति) दूसरी वाग्गुप्ति है। तीसरी आचार्य यदि आवश्यक क्रियायोग में वर्तमान होकर समिति है एषणा समिति। वह मानसिक उपयोग से निष्पन्न आते हैं तो उनकी पूज्यता श्रेयस्करी है। किन्तु चंक्रमण होती है। वह मनोगुप्ति है। शेष सारी समितियां कायगुप्ति के Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ४५९ तीसरा उद्देशक = अंतर्गत आती हैं। मानसिक उपयोग सभी समितियों में विद्यमान रहता है। ४४५४.वयसमितो च्चिय जायइ, एसणउवओगे पुण, सोयाई माणसा न वई॥ जब मुनि कल्पनीय आहार आदि की याचना करता है तो वह वागसमित ही है, मनोगुप्त नहीं है। जब वह श्रोत्र आदि के द्वारा एषणा में उपयोग करता है तब उसके मनोगुप्ति होती है। उस समय वागसमिति नहीं होती। ४४५५.जा वि य ठियस्स चेट्ठा, हत्थादीणं तु भंगियाईसु॥ सा वि य इरियासमिती, न केवलं चंकमंतस्स॥ केवल चंक्रमण करने वाले के ही ईर्यासमिति नहीं होती। किन्तु जो बैठा है, उसकी भंगबहुलश्रुत में जो हाथ आदि की चेष्टाएं होती हैं वह भी ईर्यासमिति के अंतर्गत आती हैं। ४४५६.वायाई सट्ठाणं, वयंति कुविया उ सन्निरोहेणं। लाघवमग्गिपडुत्तं, परिस्समजतो य चंकमतो॥ एक स्थान पर बैठे रहने से संन्निरुद्ध वायु आदि धातुएं कुपित होकर स्वस्थान से चलित हो जाती हैं। चंक्रमण से वे अपने स्थान पर आ जाती हैं। शरीर में लाघवपन आता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा व्याख्यान आदि से उत्पन्न परिश्रम पर विजय प्राप्त होती है। ४४५७.चंकमणे पुण भइयं, मा पलिमंथो गुरूविदिन्नम्मि। पणिवायवंदणं पुण, काऊण सई जहाजोगं॥ गुरु के चंक्रमण करते समय शिष्य को अभ्युत्थान करना चाहिए या नहीं, यह विकल्पनीय है। सूत्रार्थ का परिमंथ न हो इसलिए आचार्य यदि अभ्युत्थान न करने की अनुज्ञा दे दे तो अभ्युत्थान करने की आवश्यकता नहीं है। परंतु एक बार अभ्युत्थान करके, गुरु को प्रणिपात-वंदना करने के पश्चात् यथायोग्य अपना कार्य करे। ४४५८.अइमुद्धमिदं वुच्चइ, जं चंकमणे वि होइ उट्ठाणं। __ एवमकारिज्जंता, भद्दगभोई व मा कुज्जा॥ यह अत्यंत अप्रबुद्धजनोचित वचन है कि आचार्य चंक्रमण करते हों तो भी शिष्य को अभ्युत्थान करना चाहिए। आचार्य कहते हैं-वत्स! यदि इस प्रकार न कराया । १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ९६।। २. आचार्य, उपाध्याय प्रवर्तक, स्थविर और गच्छावछेदी-ये पांच 'पंजर' कहलाते हैं। इनकी परतंत्रता, इनकी सारणा, प्रेरणा पंजर कहलाती है। जो इनकी प्रेरणा नहीं मानता वह पंजरभग्न होता है। (वृ. पृ. १२०४) जाए तो 'भद्रक-भोजिक' की भांति शेष विनय-प्रसंगों में भी शिष्य अविनय न करें इसीलिए चंक्रमण से भी अभ्युत्थान कराया जाता है। ४४५९.वसभाण होति लहुगा, असारणे सारणे अपच्छित्ता। ते वि य पुरिसा दुविहा, पंजरभग्गा अभिमुहा य॥ वृषभ मुनि यदि अभ्युत्थान न करने वाले शिष्यों की सारणा नहीं करते हैं तो उनको चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है और यदि सारणा करते हैं तो उन्हें कोई प्रायश्चित्त नहीं आता। गच्छ में प्रतीच्छक दो प्रकार के पुरुष होते हैंपंजरभग्न और संयमाभिमुख। ४४६०.भग्गऽम्ह कडी अब्भुट्ठणेण देइ य अणुट्ठणे सोही। अनिरोहसुहो वासो, होहिइ णे इत्थ अच्छामो॥ गच्छ में रहने वाले प्रतीच्छक शिष्य सोचते हैं जहां हम थे वहां आचार्य के चंक्रमण करते समय बार-बार अभ्युत्थान करने के कारण हमारी कमर टूट गई। अभ्युत्थान न करने पर प्रायश्चित्त दिया जाता है। इस गच्छ में अनियंत्रण का सुख है, यहां सुखदायी वास है, इसलिए हम यहां निवास करें-यह सोचकर वे वहीं रह जाते हैं, अपने गच्छ में नहीं लौटते। ४४६१.जे पुण उज्जयचरणा, पंजरभग्गो न रोयए ते उ। अन्नत्थ वि सइरत्तं, न लब्भई एति तत्थेव॥ उद्यतचरण वाले मुनि पंजरभग्न मुनि को रुचिकर नहीं लगते। पंजरभग्न सोचता है-अन्यत्र किसी भी गच्छ में स्वतंत्रता नहीं है। यह सोचकर वह अपने गच्छ में लौट जाता है। ४४६२.चरणोदासीणे पुण, जो विप्पजहाय आगतो समणो। सो तेसु पविसमाणो, सद्धं वड्डेइ उभओ वि।। जो श्रमण चारित्र के प्रति उदासीन पार्श्वस्थ आदि को छोड़कर आया है, वह गच्छान्तरीय साधुओं में प्रवेश करता हुआ दोनों (जिस गच्छ से आया है वहां के साधुओं को तथा जिस गच्छ में प्रवेश कर रहा है वहां के साधुओं) में श्रद्धा को बढ़ाता है। ४४६३.इत्थ वि मेराहाणी, एते वि हु सार-वारणामुक्का। अन्ने वयइ अभिमुहो, तप्पच्चयनिज्जराहाणी।। जो श्रमण आया है वह उस गच्छ में भी मर्यादा की हानि देखता है और सोचता है यहां के मुनि भी स्मारणा-वारणा ३. जिस गच्छ में वह प्रवेश करता है, वहां के साधु सोचते हैं-यह हमें सुंदर समझ कर आया है। वे सुन्दरतर क्रिया करने में संलग्न हो जाते हैं। जिस गच्छ से आया है, वहां के मुनि सोचते हैं-यह हमें सुखशील मानकर गया है, इसलिए हमें उद्यत होना चाहिए। (वृ. पृ. १२०५) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० बृहत्कल्पभाष्यम् से मुक्त हैं, यहां कौन रहना चाहेगा? यह सोचकर वह संयमाभिमुख श्रमण दूसरे गच्छ में जाता है। उसके जाने से क्या हानि होती है? उस साधु के योग से होने वाली निर्जरा की हानि होती है। ४४६४.जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि। सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्वो॥ जिस गच्छ में सारणा, वारणा और प्रतिनोदना नहीं है, वह गच्छ अगच्छ है। संयमकामी मुनि को चाहिए कि वह ऐसे गच्छ को छोड़ दे, उसमें न रहे। ४४६५.अयमपरो उ विकप्पो, पुव्वावरवाहय त्ति ते बुद्धी। लोए वि अणेगविहं, नणु भेसज मो रुजोवसमे॥ प्रायश्चित्त का यह दूसरा विकल्प है, प्रकार है। इसे देखकर तुम सोचोगे कि यह कथन पूर्वापर व्याहत है, पहले कुछ था और अब कुछ और है। रोग के उपशमन के लिए लोक में भी अनेकविध औषधियां प्रचलित हैं। इसी प्रकार एक ही अनभ्युत्थान के लिए अनेकविध प्रायश्चित्त है और वह भी सकारण है। ४४६६.वीयार-साहु-संजइ-निगम-घडा-राय-संघ-सहिते तु। लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा छेद मूल दुगं॥ आचार्य के विचारभूमी से आने पर अभ्युत्थान न करने से मासलघु, साधुओं के साथ आने पर चतुर्लघु, साध्वियों के साथ आने पर चतुर्गुरु, निगम-पौरवणिग् के साथ आने पर षड्लघु, घट–महत्तरों के साथ आने पर छेद, संघ के साथ आने पर मूल, राजा के साथ आने पर अनवस्थाप्य, राजा और संघ के साथ आने पर पारांचिक-ये भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। ४४६७.देसिय राइय पक्खिय, चाउम्मासे तहेव वरिसे य। लहु गुरु लहुगा गुरुगा, वंदणए जाणि य पदाणि॥ दैवसिक और रात्रिक आवश्यक में वंदना न देने पर मासलघु, पाक्षिक में न देने पर मासगुरु, चातुर्मासिक में चतुर्लघु, सांवत्सरिक में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। वंदनक में जो पद हैं, उनको न करने पर असामाचारी निष्पन्न मासलघु का प्रायश्चित्त है। ४४६८.आयरियाइचउण्हं, तव-कालविसेसियं भवे एयं। अहवा पडिलोमेयं, तव-कालविसेसओ होइ॥ यह उपरोक्त प्रायश्चित्त आचार्य, वृषभ, भिक्षु और क्षुल्लक-इन चारों के तप और काल से विशेषित होता है-(आचार्य के तप और काल से गुरु, वृषभ के तपोगुरु, भिक्षु के कालगुरु और क्षुल्लक के तप-काल से लघु।) अथवा इसे ही प्रतिलोम से कहा जाए-आचार्य के दोनों से लघु, वृषभ के कालगुरु, भिक्षु के तपोगुरु और क्षुल्लक के तपो-कालगुरुक। ४४६९.दुगसत्तगकिइकम्मस्स अकरणे होइ मासियं लहुगं। आवासगविवरीए, ऊणऽहिए चेव लहुओ उ॥ दैवसिक और रात्रिक में द्वि सप्तक अर्थात् चौदह वंदनक देने होते हैं। इनको न करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आवश्यक करते हुए विपरीत उच्चारण करने पर तथा कम या अधिक पदाक्षर बोलने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है। ४४७०.दुओणयं अहाजायं, किइकम्मं बारसावयं। चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं। दो अवनत (मस्तक झुकाकर प्रणमन), यथाजात-जब श्रमण हुआ तब जैसे वंदनक दिया, वैसे ही वंदनक देना, द्वादश आवर्त वाला कृतिकर्म (वंदनक), चार सिर से अवनमन, तीन गुप्लियों से गुप्त होकर वन्दनक देना, दो प्रवेश, एक निष्क्रमण-इन पचीस आवश्यकों को न करने पर प्रत्येक का मासलघु प्रायश्चित्त है। ४४७१.अणाढियं च थद्धं च, पविद्धं परिपिंडियं। टोलगइ अंकुसं चेव, तहा कच्छभरिंगियं ।। ४४७२.मच्छुव्वत्तं मणसा, य पउ8 तह य वेइयाबद्धं । भयसा चेव भयंतं, मित्ती-गारव-कारणा॥ ४४७३.तेणियं पडिणियं चेव, रुटुं तज्जियमेव य। सढं च हीलियं चेव, तहा विप्पलिउंचियं ।। ४४७४.दिट्ठमदिटुं च तहा, सिंगं च कर मोअणं । आलिट्ठमणालिटुं, ऊणं उत्तरचूलियं॥ ४४७५.मूयं च ढवरं चेव, चुडलिं च अपच्छिमं । बत्तीसदोसपरिसुद्धं, किइकम्मं पउंजए। अनादृत, स्तब्ध, प्रवृद्ध, परिपिंडित, टोलगति, अंकुश, कच्छपरिंगित, मत्स्य उवृत्त, मन से प्रद्विष्ट, वेदिकाबद्ध, भय से वंदनक देते हुए, शर्त लगाकर वंदनक देना (भजमान वंदनक) मैत्री से, गौरव से, कारण से, चौर्य से, प्रत्यनीकता से, रुष्ट वंदनक, तर्जना से, शठ वंदनक, हीलितवंदनक, विपरिकुंचित, दृष्टादृष्ट, शृंग, कर, मोचन, आश्लिष्टअनाश्लिष्ट, न्यून, उत्तरचूलिका, मूक, ढड्डर, चुडलिक मुनि को चाहिए कि वह इन बत्तीस दोषों से परिशुद्ध कृतिकर्म का प्रयोग करे। इन दोषों की व्याख्या निम्न गाथाओं में हैं४४७६.आयरकरणं आढा, तविवरीयं अणाढियं होइ। दव्वे भावे थद्धो, चउभंगो दव्वतो भइतो॥ आदर करना आढ़ा है। उसके विपरीत अर्थात् आदर नहीं Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक : ४६१ करना अनाढ़ा है। इसका संस्कृत रूप है-अनादृत। यह ही मत्स्य की भांति अंगों को मोड़कर जाता है, वह भी पहला दोष है। स्तब्ध दो प्रकार के होते हैं 'मत्स्योवृत्त' वन्दनक कहलाता है। यह आठवां दोष है। द्रव्यतः और भावतः। इसकी चतुर्भगी होती है ४४८१.अप्प-परपत्तिएणं, मणप्पदोसो अणेगउट्ठाणो। १. द्रव्यतः स्तब्ध, न भावतः। पंचेव वेइयाओ भयं तु णिज्जूहणाईयं। २. भावतः स्तब्ध, न द्रव्यतः। मानसिक प्रद्वेष के अनेक निमित्त होते हैं। वह प्रद्वेष दो ३. दोनों से स्तब्ध। प्रकार का होता है-आत्मप्रत्ययिक और परप्रत्ययिक। ४. दोनों से स्तब्ध नहीं। मानसिक प्रद्वेष से किया जाने वाला वंदनक मनःप्रद्विष्ट जो भावतः स्तब्ध है वह अशुद्ध है। जो द्रव्यतः स्तब्ध कहलाता है। यह नौवां दोष है। जानु के ऊपर हाथ रखकर, है, वह विकल्पित है। नीचे या पार्श्व में या गोद में एक जानु को दोनों हाथों के ४४७७.पविद्धमणुवयारं, जं अप्पिंतो ण जंतितो होति। अन्दर करके वंदनक देना वेदिकाबद्ध वंदनक है। यह दसवां जत्थ व तत्थ व उज्झति, कतकिच्चो वक्खरं चेव॥ दोष है। गण से निष्काशन के भय आदि से वंदना करना प्रवृद्ध का अर्थ है-उपचाररहित। इसमें गुरु को जो भयवंदनक है। यह ग्यारहवां दोष है। वंदनक अर्पित किया जाता है वह अनियंत्रित होता है। वंदनक ४४८२.भयति भयस्सति व मम, इइ वंदति ण्होरगं णिवेसंतो। देनेवाला वह शिष्य यत्र-तत्र वंदनक को छोड़ देता है जैसे एमेव य मेत्तीए, गारव सिक्खाविणीतोऽहं। 'कृतकृत्य वक्खार की भांति' यत्र-तत्र अपने वक्खार-भांड आचार्य सोचते हैं-यह शिष्य मेरा अनुवर्तन करता है को डाल देता है। और आगे भी करता रहेगा तब शिष्य वंदना करने में ४४७८.परिपिडिए व वंदइ, परिपिंडियवयण-करणओ वा वि। निहोरक (शर्त) लगा कर वंदना करता है कि आचार्यश्री! टोलो व्व उप्फिडतो, ओसक्क-हिसक्कणं दुहओ॥ हमारी वंदना को याद रखना यह भजमानवंदनक है। यह परिपिंडित अर्थात् एकत्र मिलित अनेक आचार्यों को एक बारहवां दोष है। मैत्री के आधार पर वंदना करना 'मैत्री साथ एक वंदनक करना। अथवा जिसके वचन और हाथ-पैर वंदनक' है। यह तेरहवां दोष है। गर्व से वंदना करना-गौरव परिपिंडित हैं-अव्यवच्छिन्न हैं, उसके द्वारा किया जाने वाला वंदनक है। वह गर्व से यह प्रज्ञापित करता है कि मैं वंदनक परिपिंडित कहलाता है। यह चौथा दोष है। कभी आगे शिक्षाविनीत हूं। यह चौदहवां दोष है। सरक कर कभी पीछे हटकर टोल की भांति फुदक-फुदक ४४८३.नाणाइतिगं मुत्तुं, कारणमिहलोगसाहगं होइ। कर वंदनक करना-यह पांचवां दोष है। पूया-गारवहेउं, णाणग्गहणे वि एमेव॥ ४४७९.उवगरणे हत्थम्मि व, चित्तु णिवेसेति अंकुसं बिंति। ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इस त्रिक को छोड़कर शेष सारे ठित-विट्ठरिंगणं जं, तं कच्छभरिंगियं नाम। कारण इहलोक साधक होते हैं। पूजा और गौरव के लिए आचार्य विश्राम कर रहे थे। शिष्य को वंदना करनी थी। तथा ज्ञान ग्रहण करने के लिए विनय आदि करता है तो वह उसने उनके उपकरण अथवा हाथ को खींच कर आसन पर भी इहलोक साधक ही होता है। यह भी कारण-वंदनक है। बैठने के लिए विवश कर डाला। इस विधि से की जाने वाली यह पन्द्रहवां दोष है। वंदना 'अंकुश' कहलाती है। यह छठा दोष है। आचार्य स्थित ४४८४.आयरतरेण हंदि, वंदामि णं तेण पच्छ पणयिस्सं। हैं अर्थात् खड़े हैं या बैठे हुए हैं, उनको वंदना करने के लिए वंदणग मोल्लभावो, ण करिस्सइ मे पणयभंगं॥ शिष्य उनके सम्मुख रेंगता है, यह कच्छपरिंगित वन्दनक प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त हंदि' शब्द इहलोक साधक कहलाता है। यह सातवां दोष है। कारण को बताने वाला है। मैं अतिशय आदरपूर्वक वन्दना ४४८०.उटुिंत णिवेसंतो, उव्वत्तति मच्छउ व्व जलमज्झे।। करता हूं, जिससे आचार्य से पश्चात् याचना करूंगा। ये मेरी वंदिउकामो वऽण्णं, झसो व्व परियत्तती तुरियं॥ प्रार्थना का भंग नहीं करेंगे क्योंकि उनके भाव में-अभिप्राय में जो शिष्य जल के मध्य रहने वाले मत्स्य की भांति वंदनक का ही मूल्य है। उठने-बैठने में उद्वर्तित होता है, उसका वंदनक मत्स्योवृत्त ४४८५.हाउं परस्स चक्खं, वंदंते तेणियं हवइ एतं। कहलाता है। अथवा आचार्य को वंदनक कर जो शिष्य तेणो इव अत्ताणं, गृहइ ओभावणा मा मे॥ समीपस्थ किसी वन्दनाह को वंदना करने के लिए बैठा-बैठा दूसरों की दृष्टि को चुराकर, दूसरे न देख ले इस प्रकार १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ९७। ४०१ Jain Education international Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जो वन्दनक देता है वह स्तैन्य वंदना है। वंदना करते समय दूसरों से अपने आपको छुपाता है क्योंकि वह मानता है कि इसमें तो मेरा तिरस्कार है । यह न हो इसलिए वह गुप्तरूप से वंदना करता है। यह सोलहवां दोष है। ४४८६. आहारस्स उ काले, णीहारुभयो य होइ पडिणीयं । रोसेण धमधर्मेतो, जं वंदति रुद्रमेयं तु ॥ आहार तथा नीहार के समय या दोनों समय वंदना करना प्रत्यनीक बंदनक है। यह सत्रहवां दोष है। कोच से जाज्वल्यमान होकर वंदनक करना रुष्ट वन्दनक है। यह अठारहवां दोष है। ४४८७. न वि कुप्पसि न पसीयसि, कट्ठसिवो चेव तज्जियं एयं । सीसंगुलिमादीहि व तज्जेति गुरुं पणिवयंतो ॥ तुम काष्ठघटित शिव की भांति वंदना न करने पर न रुष्ट होते हो और वंदना करने पर न प्रसन्न होते हो, इस प्रकार तर्जना करता हुआ शिष्य यदि वंदना करता है तो वह तर्जित वंदनक है अथवा गुरु को वंदना करते हुए सिर से तथा अंगुलि आदि से तर्जना करते हुए वंदना देता है तो वह भी तर्जित वंदनक है। यह उन्नीसवां दोष है। ४४८८. वीसंभट्ठाणमिणं, सब्भावजढे सढं हवइ एतं । कवडं ति कययवं ति य, सढया वि य होंति एगड्डा || यह वंदनक विश्वास का स्थान है। यह वंदनक सद्भाव से शून्य होने पर शठ वंदनक हो जाता है। शठ शब्द के ये पर्यायवाची शब्द हैं-कपट, कैतव, शठता। यह बीसवां दोष है। ४४८९. गणि वायग! जिइज्ज!, त्ति हीलियं किं तुमे पणमितेण । देसीकहवित्तंते, कधेति दरवंदिए कुंची ॥ गणिन् ! वाचक! ज्येष्ठायें तुमको बन्दना करने से क्या! इस प्रकार हीलना कर वंदना करना हीलित वन्दनक होता है। यह हकीसवां दोष है आधी वंदना कर देशीकथा के वृत्तान्त कहना वह विपरिकुंचित वंदनक है। यह बाईसवां दोष है। ४४९०. अंतरितो तमसे वा, ण वंदती वंदती उ दीसंतो । एवं विद्रुमदि, सिंगं पुण कुंभगणिवातो ॥ कुछेक मुनि वंदना कर रहे हों और कोई एक मुनि अन्तरित होकर या अंधकार प्रदेश में व्यवस्थित होकर बैठ जाता है, वंदना नहीं करता और किसी के द्वारा देखे जाने पर वंदना करता है, यह दृष्टादृष्ट वंदनक है। यह तेईसवां दोष है। कुंभ का अर्थ है - ललाट । वंदना करता हुआ जो रजोहरण बृहत्कल्पभाष्यम् से ललाट का स्पर्श नहीं करता वह श्रृंग वंदनक है। यह चौबीसवां दोष है। ४४९१. करमिव मन्नह चिंतो, बंदणगं आरहंतिय कर लि लोइयकरस्स मुक्का, न मुच्चिमो वंदणकरस्स ॥ वंदनक देता हुआ जो उसे अरहंत का करभाग (टेक्स) मानता है वह 'कर' वंदनक है। यह पचीसवां दोष है। जो यह सोचता है कि हम लौकिक 'कर से मुक्त हो गए, किन्तु वंदनक कर से मुक्त नहीं हुए हैं। यह 'मोचन' वंदनक है। यह बीसवां दोष है। ४४९२. आलिद्रुमणालिने, रयहर सीसे व होति चउभंगो। वयण करणेहिं ऊणं जहन्नकाले व सेसेहिं ॥ आश्लिष्ट और अनाश्लिष्ट-इन दो पदों के आधार पर रजोहरण तथा सिर के विषय में चतुर्भंगी होती है। १. रजोहरण हाथ से आश्लिष्ट कर सिर को लगाता है। २. रजोहरण को श्लिष्ट करता है, सिर को नहीं । ३. सिर को श्लिष्ट करता है, रजोहरण को नहीं । ४. न रजोहरण को और न सिर को श्लिष्ट करता है। इसमें पहला विकल्प शुद्ध है। यह सत्ताइसवां दोष है। वचन अर्थात् आलापक तथा करण - अनाम आदि से हीन कर वंदना करना अथवा जघन्यकाल में वंदना समाप्त कर देना या शेष साधुओं द्वारा वंदना कर देने पर फिर बंदना करना यह न्यून बंदनक है। यह अट्ठाईसवां दोष है। ४४९.३. दाऊण बंदणं मत्यरण वंदामि चूलिया एसा तुसिणी आवत्ते पुण, कुणमाणो होइ मूयं तु ॥ वंदना करने के पश्चात् 'मत्येण वंदामि यह कहना उत्तरचूलिका बन्दनक है। यह उनतीसवां दोष है मौन भाव से आवर्त्तो को करने वाले की वंदना मूक बन्दनक है। यह तीसवां दोष है। ४४९४. उच्चसेरणं वंदर, ढड्ढर एयं तु होइ बोधव्वं । चुइलि ब्व गिण्हिऊणं, स्यहरणं होड़ चुड़लीओ ॥ उच्चस्वर से वंदना करना ढहर वंदनक जानना चाहिए। यह इकतीसवां दोष है चुडली (उल्का) की भांति रजोहरण को घुमाते हुए वंदना करना चुडली वंदनक है। यह बत्तीसवां दोष है। ४४९५. थद्धे गारव तेणिय, हीलिय रुट्ठ लघुगा सढे गुरुगो । दु पडिणीय तज्जित, गुरुगा सेसेसु लहुगो तु ॥ स्तब्ध, गौरव, स्तेनित, हीलित और रुष्ट - इन वंदनकों में प्रत्येक का प्रायश्चित्त है चतुर्लघु, शठ का है गुरुमास, दुष्ट, प्रत्यनीक और तर्जित का है चतुर्गुरु और शेष का है। मासलघु । . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ४४९६. आयरिय-उवज्झाए, काऊणं सेसगाण कायव्वं । उप्परवाडी मासिग, मदरहिए तिण्णि य थुतीओ ॥ सबसे पहले आचार्य और उपाध्याय का कृतिकर्म कर पश्चात् शेष साधुओं का कृतिकर्म करना चाहिए। उत्परिपाटी से वंदना करने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वंदनक मदरहित होकर देना चाहिए। अंत में तीन स्तुतियां कहनी चाहिए। ४४९७. जा दुचरिमो त्ति ता होइ वंदणं तीरिए पडिक्कमणे । आइण्णं पुण तिन्हं, गुरुस्स दुण्हं च देवसि ॥ प्रतिक्रमण पूरा होने के पश्चात् अंतिम दो साधु शेष रहें तब तक सभी को वंदना करनी चाहिए, फिर क्षामणक देना चाहिए। यह विधि चौदह पूर्वधर, दशपूर्वधर आदि के काल में थी। वर्तमान में पूर्व आचार्यों द्वारा आचीर्ण यह विधि है - तीन को वंदनक देना चाहिए - एक गुरु और शेष बचे दो पर्याय ज्येष्ठ साधुओं को। यह दैवसिक रात्रिक विधि है। ४४९८. धिइ- संघयणादीणं, मेराहाणिं च जाणिउं थेरा। सेह-अगीतट्ठा वि य, ठवणा आइण्णकप्पस्स ॥ शिष्य ने पूछामौलिक विधि को बदलने की क्या आवश्यकता है? आचार्य ने कहा- धृति, संहनन आदि तथा मर्यादाहानि को जानकर स्थविर शैक्ष तथा अगीतार्थ मुनियों के लिए आचीर्णकल्प की स्थापना करते हैं। ४४९९.असढेण समाइण्णं, जं कत्थइ कारणे असावज्जं । ण णिवारियमण्णेहिं य, बहुमणुमयमेतमाइण्णं ॥ जो आचार्य अशठभाव से किसी भी कारणवश (पुष्टालंबन से) असावद्य प्रवृत्ति का आचरण करता है और जो दूसरों से निवारित नहीं है तथा जो बहुजन द्वारा अनुमत है, वह आचीर्ण कहलाता है। वह मान्य होता है। ४५००.वियडण पच्चक्खाणे, सुए य रादीणिगा वि हु करिंति । मज्झिल्ले न करिती, सो चेव करेइ तेसिं तु ॥ आलोचना तथा प्रतिक्रमण के समय तथा श्रुतदान आदि रानिक मुनि भी अवमरात्निक आचार्य को वंदना करते हैं। किंतु मध्य में जो क्षामणकवंदनक है, वह नहीं करते। आचार्य ही उन रात्निकों का करते हैं। ४५०१. थुइमंगलम्मि गणिणा, उच्चारिते सेसगा थुती बेंति । पम्हुमेरसारण, विणयो य ण फेडितो एवं ॥ जब गणी स्तुतिमंगल का उच्चारण कर लेते हैं तब शेष साधु स्तुति बोलते हैं। फिर मुनि गुरुचरणों में बैठ जाते हैं। यदि मर्यादा - सामाचारी शिष्य भूल गए हों तो गुरु उसकी स्मृति कराते हैं। गुरु के उपपात में बैठने से शिष्यों का विनय को भी त्यक्त नहीं होता । ४६३ ४५०२. अन्नेसिं गच्छाणं, उवसंपन्नाण वंदणं तहियं । बहुमाण तस्स वयणं, ओमे वाऽऽलोयणा भणिया ।। अन्यान्य गच्छों के आचार्य सूत्रार्थ के निमित्त किसी अवमरात्निक आचार्य के पास उपसंपन्न होते हैं तो मध्यम वन्दनक अवमरात्निक को करना चाहिए तथा आगत रात्निक आचार्य को उस अवमरात्निक आचार्य का वचनों के द्वारा बहुमान करते हुए कहना चाहिए- ये हमारे पूज्य हैं, गुणाधिक हैं आदि। अवमरात्निक आचार्य आलोचना दे। यह भगवान् ने कहा है। ४५०३. सेढीठाणठियाणं, कितिकम्मं बाहिराण भयितव्वं । सुत्त - Sत्थजाणएणं कायव्वं आणुपुव्वी ॥ संयमश्रेणी के स्थानों में स्थित मुनियों का कृतिकर्म करना चाहिए। जो संयमश्रेणी के स्थानों से बाह्य हैं उनका कृतिकर्म विकल्पनीय है । सूत्रार्थ के ज्ञाता अर्थात् गीतार्थ मुनि को अनुपूर्वी (गाथा ४५४५) से कृतिकर्म करना चाहिए। ४५०४. सेढीठाणठियाणं, कितिकम्मं सेढि इच्छिमो गाउं । - तम्हा खलु सेढीए, कायव्व परूवणा इणमो ॥ शिष्य कहता है - संयमश्रेणी स्थान में स्थित साधुओं का कृतिकर्म करना चाहिए, यह जो आपने कहा, हम सबसे पहले उस श्रेणी को जानना चाहते हैं। आचार्य कहते हैंइसलिए हमें श्रेणी की प्ररूपणा करनी चाहिए। वह यह है४५०५. पुव्वं चरित्तसेढीठियस्स पच्छाठिएण कायव्वं । सो पुण तुल्लचरित्तो, हविज्ज ऊणो व अहिओ वा ॥ पहले जो सामायिक संयम या छेदोपस्थापनीय संयम में स्थित है उसका कृतिकर्म पश्चात्वर्ती संयमस्थित मुनि को करना चाहिए। संयमश्रेणी में पूर्वस्थित मुनि पश्चात् स्थित मुनि की अपेक्षा से तुल्यचरित्रवाला अथवा न्यून या अधिक हो सकता है। ४५०६.निच्छयओ दुन्नेयं, को भावे कम्मि वट्टई समणो । ववहारओ य कीरs, जो पुव्वठिओ चरित्तम्मि ॥ निश्चयपूर्वक यह जानना कठिन है कि कौन श्रमण किस भाव अर्थात् चारित्र के अध्यवसाय में वर्तन कर रहा है, तो फिर कृतिकर्म का आधार क्या है? आचार्य कहते हैंव्यवहारनय को स्वीकार कर चारित्र में जो पहले स्थित है उसको कृतिकर्म किया जाता है। ४५०७. ववहारो विहु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरिहा । जा होइ अणाभिन्नो, जाणंतो धम्मयं एयं ॥ व्यवहार भी बहुत बलवान् होता है। अर्हत् अर्थात् केवली भी छद्मस्थ गुरु आदि को वंदना करते हैं। प्रश्न होता है कि वे कब तक वंदना करते हैं ? जब तक वे केवली के रूप में Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ४६४ अनभिज्ञात होते हैं, तब तक वे अपने छद्मस्थ गुरु आदि को वंदना करते हैं। क्योंकि वे इसे व्यवहारलक्षणवाला धर्म जानते हैं। ४५०८.केवलिणा वा कहिए, अवंदमाणो व केवलिं अन्नं। वागरणपुव्वकहिए, देवयपूयासु व मुणंति॥ __ वह केवली है, यह कैसे जाना जाता है? किसी अन्य केवली के कथन से, अन्य केवली को वंदना न करने पर, स्वयमेव उसका कथन करने पर, देवताओं द्वारा पूजामहिमा किए जाने पर, जान लिया जाता है कि यह केवली हो गया है। ४५०९.अविभागपलिच्छेया, ठाणंतर कंडए य छट्ठाणा। हिट्ठा पज्जवसाणे, वुद्धी अप्पाबहुं जीवा॥ ४५१०.आलाव गणण विरहियमविरहियं फासणापरूवणया। गणणपय सेढिअवहार भाग अप्पाबडं समया॥ श्रेणी प्ररूपणा-अविभागपरिच्छेद प्ररूपणा, स्थानान्तर प्ररूपणा, कंडक प्ररूपणा, षट्स्थान प्ररूपणा, अधः प्ररूपणा, पर्यवसान प्ररूपणा, वृद्धि प्ररूपणा, अल्पबहुत्व प्ररूपणा तथा । जीव प्ररूपणा। जीव प्ररूपणा के प्रतिद्वार-आलाप प्ररूपणा, गणना प्ररूपणा, विरहित प्ररूपणा, अविरहित प्ररूपणा, स्पर्शना प्ररूपणा, गणनापद प्ररूपणा, श्रेष्यपहार प्ररूपणा, भाग प्ररूपणा, अल्पबहुत्व प्ररूपणा और समय (श्रमण) प्ररूपणा। ४५११.अविभागपलिच्छेदो, चरित्तपज्जव-पएस-परमाणू। परमाणुस्स परूवण, चउव्विहा भावओऽणंता॥ अविभागपरिच्छेद केवली की प्रज्ञा से परिच्छिन्न होने पर जो अविभजनीय अंश शेष रहता है, उसे अविभागपरिच्छेद संयमस्थान कहते हैं। उसे चारित्रपर्याय, चारित्रप्रदेश या चारित्रपरमाणु कहते हैं। परमाणु की प्ररूपणा चार प्रकार से होती है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। चारित्रविभागपरिच्छेद अनन्तानन्तप्रमाण में होते हैं। ४५१२.ते कित्तिया पएसा, सव्वागासस्स मग्गणा होइ। ते जत्तिया पएसा, अविभाग तओ अणंतगुणा॥ प्रश्न होता है कि चारित्र के प्रदेश कितने हैं? उत्तर में कहा गया है कि इसमें समस्त आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) की मार्गणा होती है। जितने सर्वाकाश के प्रदेश हैं, उनसे चारित्र के अविभागपरिच्छेद अनन्तगुणा है। यह सर्वजघन्य संयमस्थान है। ४५१३.एयं चरित्तसेटिं, पडिवज्जइ हिट्ठ कोइ उवरिं वा। जो हिट्ठा पडिवज्जइ, सिज्झइ नियमा जहा भरहो॥ १. अन्यान्य संयमश्रेणियों की व्याख्या वृत्तिकार ने दी है। इस चारित्रश्रेणी को कोई जीव अधःअर्थात् जघन्यसंयमस्थानों में स्वीकार करता है और कोई जीव उपरी संयमस्थानों में स्वीकार करता है। जो जीव अधस्तन संयमस्थानों में चारित्रश्रेणी को स्वीकार करता है, वह नियमतः उसी भव में सिद्ध हो जाता है, जैसे भरत। ४५१४.मज्झे वा उवरिं वा, नियमा गमणं तु हिट्ठिमं ठाणं। अंतोमुहुत्त वुड्डी, हाणी वि तहेव नायव्वा।। जो जीव मध्यमवर्ती संयमस्थानों या उपरितन संयमस्थानों में चारित्रश्रेणी को स्वीकार करता है, वह नियमतः अधस्तन संयमस्थान तक गमन करता है और उसी भव में या अन्यभव में सिद्ध हो जाता है। अधस्तन संयमस्थान से उपरीतन संयमस्थान की वृद्धि तथा उपरितन से अधस्तन संयमस्थान की हानि अन्तर्मुहर्त्तमात्र की जाननी चाहिए। ४५१५.सेढीठाणठियाणं, किइकम्मं बाहिरे न कायव्वं । पासत्थादी चउरो, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ पूर्वोक्त संयमश्रेणी के स्थानों में स्थित मुनियों का कृतिकर्म करना चाहिए। जो श्रेणी से बाह्य हों उनका कृतिकर्म नहीं करना चाहिए। इस श्रेणी से बाह्य पार्श्वस्थ आदि चार प्रकार के मुनि हैं-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छंद। इन पांचों का एक भेद हुआ। काथिक, प्राश्निक, मामाक और संप्रसारक-यह दूसरा भेद है। अन्यतीर्थिक-यह तीसरा भेद है और गृहस्थ-यह चौथा भेद है। इनका कृतिकर्म करने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ४५१६.लिंगेण निग्गतो जो, पागडलिंगं धरेइ जो समणो। किध होइ णिग्गतो त्ति य, दिर्सेतो सक्करकुडेहिं। जो मुनि लिंग अर्थात् रजोहरण आदि से मुक्त हो गया है वह संयमश्रेणी से निर्गत होता है किन्तु जो श्रमण प्रकटलिंग धारण करता है वह संयमश्रेणी से निर्गत कैसे माना जा सकता है? आचार्य ने कहा यहां शर्कराकुटों का दृष्टांत ज्ञातव्य है। ४५१७.दाउं हिट्ठा छारं, सव्वत्तो कंटियाहि वेढित्ता। सकवाडमणाबाधे, पालेति तिसंझमिक्खंतो॥ ४५१८.मुई अविद्दवंतीहिं कीडियाहिं स चालणी चेव। जज्जरितो कालेणं, पमायकुडए निवे दंडो॥ एक राजा ने शर्करा से भरे दो घड़ों को मुद्रित कर दो व्यक्तियों को एक-एक घड़ा देते हुए कहा-इनकी सुरक्षा करना। जब मैं इनको मंगाऊं तब मुझे देना। दोनों ने एक-एक घड़ा ले लिया। उनमें से एक व्यक्ति ने अपने घट के नीचे Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ४६५ राख लगा दी और उस घड़े को कपाटयुक्त अनाबाध प्रदेश में अतः दोषों का संचय होता जाता है और वह चारित्र से भ्रष्ट रख कर चारों और कांटों वाली बाड़ लगा दी। वह उस घट हो जाता है। की तीनों संध्याओं में देखरेख करने लगा। ४५२२.अंतो भयणा बाहिं, तु निग्गते तत्थ मरुगदिद्वंतो। दूसरे व्यक्ति ने अपने घट को एक स्थान पर रखा। शर्करा संकर सरिसव सगडे, मंडव वत्थेण दिद्वंतो॥ की सुगंध से कीटिकाएं आने लगीं। मुद्रा को कोई हानि न (पूर्व गाथाओं से संबंध स्थापित करने के लिए प्रस्तुत पहुंचाती हुई घट को नीचे से चलनी कर डाला। समय के गाथा का पहले उत्तरार्ध की व्याख्या की जा रही है। इस बीतते बीतते घट नीचे से जर्जरित हो गया। सारी शर्करा विभाग में ये दृष्टांत हैं-) कीटिकाओं ने खाली। एक दिन राजा ने दोनों पुरुषों से घट (१) संकर-संकर का अर्थ है-तृण आदि कचरे का ढेर। मंगाए। दोनों ने अपने-अपने घट दिखाए। जिसने घट-रक्षण एक बगीचा था। उसको सारणी से पानी पिलाया जाता था। में प्रमाद किया, उसे राजा ने दंडित किया। जिसने प्रमाद सारणी में तिनके गिरे। किसी ने उन्हें नहीं निकाला। तिनके नहीं किया उसको राजा ने सम्मानित किया। गिरते गए। पानी का बहाव रुक गया। पानी के अभाव में इसका अर्थोपनय यह है राजा स्थानीय हैं गुरु, पुरुष- बगीचा सूख गया। इसी प्रकार उत्तरगुणों की बार-बार स्थानीय हैं साधु, शर्करास्थानीय है-चारित्र, घटस्थानीय है प्रतिसेवना से दोषों का संचय होता है और प्रवहमान आत्मा, मुद्रास्थानीय है रजोहरण, कीटिकास्थानीय हैं, संयमजल अवरुद्ध हो जाता है, व्यक्ति चारित्र से च्युत हो अपराध, दंडस्थानीय है दुर्गतिप्राप्ति, सम्मानस्थानीय है- जाता है। सुगतिप्राप्ति। (२) सर्षपशकट और मंडप-शकट और मंडप पर सरसों ४५१९.निवसरिसो आयरितो, लिंगं मुद्दा उ सक्करा चरणं। के दाने डाले, वे उसमें समा गए। प्रतिदिन डालते गए, वे पुरिसा य होंति साहू, चरित्तदोसा मुयिंगाओ॥ समाते गए। एक दिन ऐसा आया कि सरसों के भार ने शकट नृप के सदृश आचार्य, मुद्रा के समान है लिंग, शर्करा के और मंडप को तोड़ डाला। इसी प्रकार एक-एक दोष चारित्र समान है चारित्र, पुरुष के सदृश हैं साधु तथा चारित्रदोष के पर अपना भार डालते रहें तो एक दिन चारित्र टूट जाता है। समान है मुयिंग-कीटिका। (३) वस्त्र का दृष्टांत-नया वस्त्र। एक तैल बिन्दु उस यह भाष्यकार का उपनय है। पर पड़ा। उसका शोधन नहीं किया गया। उस पर धूल लग ४५२०.एसणदोसे सीयइ, अणाणुतावी ण चेव वियडेइ। गई। दूसरी-तीसरी बार भी उस पर तैल पड़ा। शोधन नहीं ___णेव य करेइ सोधिं, ण त विरमति कालतो भस्से॥ हुआ। वह वस्त्र अत्यंत मलिन हो गया। इसी प्रकार चारित्र कोई मुनि एषणा के दोषों से दुष्ट भक्तपान ग्रहण करता है। भी अपराधपदों से मलिन हो जाता है यदि उनका शोधन न वह इस प्रकार करके भी अपने कृत्य पर न अनुताप करता है किया जाए। और न गुरु के समक्ष अपने दोष को प्रकट करता है, न इसी श्लोक के पूर्वार्ध की व्याख्याप्रायश्चित्त लेता है और न अशुद्ध आहार ग्रहण करने से जो मुनि संयमश्रेणी के मध्य में है उसके प्रति कृतिकर्म विरत होता है। वह कुछ काल के बाद संयम से भ्रष्ट हो करने की भजना है और जो संयमश्रेणी से बाहर निर्गत हो जाता है। गया है उसका कृतिकर्म नहीं करना चाहिए। यहां मरुक४५२१.मूलगुण उत्तरगुणे, मूलगुणेहिं तु पागडो होइ। ब्राह्मण का दृष्टांत है। उत्तरगुणपडिसेवी, संचयऽवोच्छेदतो भस्से॥ ४५२३. पक्कणकुले वसंतो, सउणीपारो वि गरहिओ होइ। दोषों की प्रतिसेवना करने वाले दो प्रकार के होते हैं इय गरहिया सुविहिया, मज्झि वसंता कुसीलाणं। मूलगुण प्रतिसेवक और उत्तरगुण प्रतिसेवक। मूलगुण की पक्कणकुल-मातंगगृह में निवास करता हुआ शकुनीप्रतिसेवना करने वाला स्पष्टतः प्रतीत हो जाता है। वह पारगः (ब्राह्मण) भी गर्हित होता है, इसी प्रकार सुविहित चारित्र से शीघ्र ही भ्रष्ट हो जाता है। उत्तरगुण की प्रतिसेवना साधु भी कुशील साधुओं के मध्य रहता हुआ गर्हित करने वाला दोषसेवन के परिणाम का व्यवच्छेद नहीं करता, होता है। १. शकुनी शब्द चौदह विद्या-स्थानों का द्योतक है -अंग छह हैं-शिक्षा, व्याकरण, कल्प, छंद, निरुक्ति और अंगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः। ज्योतिष। शकुनीशब्देन चतुर्दश विद्यास्थानानि गृह्यन्ते.......। पुराणं धर्मशास्त्रं च, स्थानान्यहुश्चतुर्दश॥ (वृ. पृ. १२२२) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ =बृहत्कल्पभाष्यम् ४५२४.संकिन्नवराहपदे, अणाणुतावी अ होइ अवरद्धे । आचार्य ने कहा-वे गृहस्थ असंयम भाव में स्थित गृहस्थों उत्तरगुणपडिसेवी, आलंबणवज्जिओ वज्जो॥ का पालन-रक्षण करते हैं किन्तु संयम के लिए नहीं करते, जो मुनि उत्तरगुणविषयक अपराधपदों से संकीर्ण है तथा अपनी आजीविका आदि के निमित्त करते हैं। मुनि मुनियों का जो अपराध कर अनुताप नहीं करता, वह उत्तरगुण प्रतिसेवी पालन-रक्षण संयम के लिए तथा तीर्थ की अव्यवच्छित्ति के आलंबन के बिना (ज्ञान, दर्शन और चारित्र के आलंबन के लिए करते हैं। यह साधुओं और गृहस्थों में प्रतिविशेष है। बिना) प्रतिसेवना करता है तो वह कृतिकर्म के लिए वर्ण्य है। ४५३०.कुणइ वयं धणहेउं, धणस्स धणितो उ आगमं णाउं। (मूलगुणप्रतिसेवी तो नियमतः अचारित्री ही होता है।) _ इय संजमस्स वि वतो, तस्सेवऽट्ठा ण दोसाय॥ ४५२५.हिट्ठट्ठाणठितो वी, पावयणि-गणट्ठया उ अधरे उ। जैसे व्यापार करता हुआ धनिक आगम अर्थात् धन के ___ कडजोगि जं निसेवइ, आदिणिगंठो व्व सो पुज्जो॥ लाभ को जानकर धन का व्यय भी करता है अर्थात् शुल्क, अधस्तनस्थान (जघन्य संयमस्थान) में स्थित मूलगुण- भाडा, कर्मकरों की नियुक्ति आदि करता है, इसी प्रकार प्रतिसेवी जो कृतयोगी है-गीतार्थ है वह प्रावचनिक-आचार्य, संयम का व्यय संयम के लिए ही करना दोषकारी नहीं होता। गुण, गच्छ के अनुग्रह के लिए अधर-अर्थात् आत्यन्तिक ४५३१.तुच्छमवलंबमाणो, पडति णिरालंबणो य दुग्गम्मि। कारण उत्पन्न होने पर जो प्रतिसेवना करता है वह भी सालंब-निरालंबे, अह दिट्ठतो णिसेवंते॥ आदिनिर्ग्रन्थ-पुलाक की तरह पूज्य होता है। तुच्छ आलंबन लेने वाला या निरालंबन व्यक्ति गर्त आदि ४५२६.कुणमाणो वि य कडणं, कतकरणो णेव दोसमब्भेति। में गिर जाता है और जो पुष्ट आलंबन लेता है वह गर्त आदि ___ अप्पेण बहुं इच्छइ, विसुद्धआलंबणो समणो॥ से निकल जाता है। इसी प्रकार मूलगुणों की प्रतिसेवना करने कृतकरण पुलाक मुनि कटकमर्द (सेना का नाश) करता वाले के लिए सालंब या निरालंब विषय का यह दृष्टांत हुआ भी दोष को प्राप्त नहीं होता। यह श्रमण विशुद्ध आलंबन घटित होता है। जो मुनि निरालंब अथवा अपुष्ट आलंबन से के कारण स्वल्प संयम के व्यय से बहुत संयम की इच्छा प्रतिसेवना करता है, वह संसार सागर में स्वयं को गिरा देता करता है। है। जो पुष्टालंबनयुक्त होता है, वह भवसागर से पार चला ४५२७.संजमहेउं अजतत्तणं पि ण हु दोसकारगं बिति।। जाता है। पायण वोच्छेयं वा, समाहिकारो वणादीणं॥ ४५३२.सेढीठाणे सीमा, कज्जे चत्तारि बाहिरा होति। पुलाक निर्ग्रन्थ संयम के निमित्त अयतना करता है, सेढीठाणे दुयभेययाए चत्तारि भइयव्वा॥ उसको दोषकारक नहीं कहा जाता। जैसे समाधिकारक श्रेणीस्थान अर्थात् सीमास्थान। इसमें वर्तमान चार प्रकार अर्थात् वैद्य व्रण आदि पर लेपन कर उसे पकाता है और फिर के मुनि वक्ष्यमाण कार्य से बाह्य होते हैं। श्रेणीस्थान में रहने उसका छेदन करता है या रोगी को लंघन आदि कराता है, वाले (गच्छप्रतिबद्ध, यथालंदिक आदि चार प्रकार के मुनि यह सारी क्रिया परिणामसुन्दर होने के कारण सदोष नहीं भी द्विकभेद वाले कार्य-वंदनकार्य और कार्यकार्य में भजनीय मानी जाती। हैं, वे कार्य करते भी हैं और नहीं भी करते। ४५२८.तत्थ भवे जति एवं, अण्णं अण्णेण रक्खए भिक्खू। ४५३३.पत्तेयबुद्ध जिणकप्पिया य सुद्धपरिहारऽहालंदे। अस्संजया वि. एवं, अन्नं अन्नेण रक्खंति॥ एए चउरो दुगभेदयाए कज्जेसु बाहिरगा। दूसरा यह सोच सकता है कि इस प्रकार पुलाक आदि प्रत्येकबुद्ध, जिनकल्पिक, शुद्धपरिहारी और यथालंदिकभिक्षु अन्य अर्थात् आचार्य आदि की रक्षा अन्येन अर्थात् ये चारों द्विकभेदांतरगत कार्य-कृतिकर्म और कुलकार्य-इनसे स्कन्धावार का मर्दन करता है (एक का विनाश कर एक का बाह्य होते हैं। पालन करता है) तो इसी प्रकार गृहस्थ भी एक की दूसरे से ४५३४.गच्छम्मिणियमकज्जं, कज्जे चत्तारि होति भइयव्वा। रक्षा करते हैं अतः संयत और असंयत में कोई प्रतिविशेष गच्छपडिबद्ध आवण्ण पडिम तह संजतीतो य॥ नहीं है। गच्छ में नियमतः होने वाले ये कार्य होते हैं-कुलकार्य, ४५२९.न हु ते संजमहेउं, पालिंति असंजता अजतभावे। गणकार्य तथा संघकार्य-इनको करने के लिए ये चार प्रकार अच्छित्ति-संजमट्ठा, पालिंति जती जतिजणं तु॥ के मुनि विकल्पनीय होते हैं (कार्य करते भी हैं और नहीं भी १. कार्य के दो प्रकार हैं-वंदनकार्य और कार्यकार्य। वंदनकार्य के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान और कृतिकर्म । कार्यकार्य-कुलकार्य, संघकार्य आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है। जो अवश्य कर्तव्यरूप कार्य होता है, वह कार्यकार्य है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशकः ४६७ करते)-गच्छप्रतिबद्ध, यथालंदिक, आपन्नपरिहारी, प्रतिमा- अविनय हुआ है। सभी शिष्यों को मुक्त करवा दिया। प्रतिपन्न तथा साध्वियां। इसका फलित यही है कि कारण में संयमश्रेणी से बाह्य को ४५३५.अंतो वि होइ भयणा, ओमे आवण्ण संजतीओ य। भी वंदना करनी चाहिए। बाहिं पि होइ भयणा, अतिवालगवायगे सीसा॥ ४५३९.अहवा लिंग-विहाराओ पच्चुयं पणिवयत्तु सीसेणं। जो श्रेणी के अभ्यन्तर हैं, वे भी वंदना की अपेक्षा भणति रहे पंजलिओ, उज्जम भंते! तव-गुणेहि। भजनीय हैं। जो अवमरात्निक है वह आलोचना आदि कार्य में अथवा लिंग से या संविग्नविहार से प्रच्युत अपने गुरु को वन्दनीय है, अन्यथा नहीं। आपन्नपारिहारिक का भी कृतिकर्म एकान्त में मस्तक से प्रणिपात कर हाथ जोड़ कर कहेनहीं किया जाता, वह आचार्य को वंदना करता है उत्सर्गतः भदन्त ! आप तपस्या में और मूलोत्तरगुणों में उद्यम करें। साध्वियों को वंदना (केवल हाथ जोड़ना) नहीं की जाती। ४५४०.उप्पन्न कारणम्मि, कितिकम्मं जो न कुज्ज दुविहं पि। अपवादपद में यदि महत्तरा बहुश्रुता हो, किसी अपूर्वश्रुत की पासत्थादीयाणं, उग्घाया तस्स चत्तारि।। धारक हो तो उसको फेटा वंदना से वंदना की जा सकती है। कारण उत्पन्न होने पर जो पार्श्वस्थ आदि का दोनों प्रकार जो श्रेणी से बाह्य हैं, उनके प्रति भी कृतिकर्म की भजना है। का कृतिकर्म-अभ्युत्थान और वंदना नहीं करता उसे चार कारण में उनके प्रति भी कृतिकर्म न करने पर 'अजापालक- उद्घात मास अर्थात् चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। वाचक' के शिष्यों की भांति दोषभाक् होना पड़ता है। ४५४१.दुविहे किइकम्मम्मि, चाउलिया मो णिरुद्धबुद्धीया। ४५३६.आलोयण-सुत्तट्ठा, खामण ओमे य संजतीसुं च। आतिपडिसेहितम्मिं, उवरि आरोवणा गुविला॥ आवण्णो कज्जकज्जं, करेइ ण य वंदती अगुरूं॥ पहले पार्श्वस्थ आदि के प्रति दोनों प्रकार के कृतिकर्म आलोचना और सूत्रार्थ के निमित्त अवम अर्थात् पर्याय में का प्रतिषेध कर पश्चात् उसकी अनुज्ञा देने पर हम आकुलछोटा होने पर भी, उसको वन्दना करनी होती है। पाक्षिक व्याकुल हो गए। अतः हमारी बुद्धि निरुद्ध हो गई, संशय में आदि क्षमायाचना के समय छोटे को ही रत्नाधिक को पड़ गई। अब यह कहा जा रहा है कि पार्श्वस्थ आदि को वन्दना देनी होती है। साध्वियों को भी आलोचना और दोनों प्रकार की वंदना न करने पर चतुर्लघु की आरोपणा प्राप्त सूत्रार्थ के निमित्त वन्दना करनी होती है। जो होती हैं और वह भी गुपिल-गंभीर। यह समझ में नहीं आपन्नपारिहारिक है वह कार्यकार्य करता है। वह गुरु को । आता। छोड़कर और किसी को वन्दना नहीं करता। दूसरे साधु भी ४५४२.गच्छपरिरक्खणट्ठा, अणागतं आउवायकुसलेण। उसको वंदना नहीं करते। एवं गणाधिवतिणा, सुहसीलगवेसणा कज्जा॥ ४५३७.पेसविया पच्चंतं, गीतासति खित्तपेहग अगीया। गच्छ के परिपालन के लिए तथा अनागत बाधाओं से पेहियखित्ता पुच्छंति वायगं कत्थ रण्णे त्ति॥ निपटने के लिए आय और उपाय में कुशल गणाधिपति ४५३८.ओसक्वंते द8, संकच्छेती उ वातगो कुविओ। सुखशील-पार्श्वस्थ आदि की गवेषणा करते हैं। पल्लिवति कहण संभण, गुरु आगम वंदणं सेहा॥ ४५४३.बाहिं आगमणपहे, उज्जाणे देउले सभाए वा। किसी आचार्य ने गीतार्थ साधुओं के अभाव में अगीतार्थ रच्छ उवस्सय बहिया, अंतो जयणा इमा होइ॥ साधुओं को प्रत्यंतपल्ली में क्षेत्र प्रत्युपेक्षक के रूप में उनकी गवेषणा इन स्थानों में करनी होती है-गांव के भेजा। क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करने के पश्चात् उन्होंने गांववालों बाहर, भिक्षा के लिए जाने-आने के पथ में, उद्यान में, से पूछा कि वाचक कहां रहता है? लोगों ने कहा-अरण्य देवकुल में, सभा में, गली में, उपाश्रय से बाहर, उपाश्रय के में। वे मुनि अरण्य में गए और देखा कि वाचक बकरियों भीतर-गवेषणा करने की यह यतना है। की रक्षा में प्रवृत्त है। उसे चारित्रभ्रष्ट जानकर वे वहां ४५४४.मुक्कधुरा, संपागडअक्किच्चे चरण-करणपरिहीणे। से धीरे-धीरे चल दिए। उन साधुओं को लौटते हुए लिंगावसेसमित्ते, जं कीरइ तारिसं वोच्छं। देखकर शंकाच्छेदी वह वाचक कुपित हो गया। उसने जो संयमधुरा को छोड़ चुके हैं, जिनके अकृत्य संप्रकट पल्लीपति को कहकर सभी साधुओं को कारावास में हैं, प्रत्यक्ष हैं, जो चरण-करण से परिहीन हैं, जो केवल डलवा दिया। गुरु को ज्ञात हुआ। वे वहां आए और द्रव्यलिंगमात्र से युक्त हैं, उनको किस प्रकार का वंदनक वाचक को वंदना कर बोले-ये अगीतार्थ थे। इसलिए यह किया जाता है, वह मैं कहूंगा। १. यहां यतना का अर्थ है-पुरुष विशेष से संबंधित वन्दनविषयक यतना। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ४६८ ४५४५.वायाए नमोकारो, हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च। संपुच्छणऽच्छणं छोभवंदणं वंदणं वा वि॥ किसी को वाणी मात्र से नमस्कार, किसी को हाथ जोड़कर नमस्कार, किसी को हाथ जोड़कर सिर नमाकर नमस्कार, किसी को कुशलक्षेम पूछना, किसी की पर्युपासना करना, किसी को छोभवंदनक या संपूर्ण वंदना करना। ४५४६.जइ नाम सूइओ मि, त्ति वज्जितो वा वि परिहरति कोयी। इति वि हु सुहसीलजणो, परिहज्जो अणुमती मा य॥ किसी पार्श्वस्थ को वाणी मात्र से नमस्कार करने पर वह सोचता है-इसने मुझे सूचित-तिरस्कृत किया है। सर्वथा कृतिकर्म न करने पर सोचता है-इन्होंने मुझे वर्जित कर दिया, मेरा पराभव कर डाला, यह सोचकर कोई-कोई सुख- शीलविहारिता का परिहार कर देता है। इसलिए पार्श्वस्थ आदि कृतिकर्म में परिहार्य है। उसको कृतिकर्म देने पर उसकी सावधक्रिया का अनुमोदन होता है। वह न हो इसलिए उसको वंदनक नहीं देना चाहिए। ४५४७.लोए वेदे समए, दिट्ठो दंडो अकज्जकारीणं। ___ दम्मति दारुणा वि हु, दंडेण जहावराहेण॥ लोकाचार में, शास्त्रों में, समय राजनीतिशास्त्र में, अकार्य करने वालों को दंड का विधान देखा गया है। जो दारुण हैं-रौद्र हैं उनको अपराध के अनुरूप दंड दिया जाता है। ४५४८.वायाए कम्मुणा वा, तह चिट्ठति जह ण होति से मन्न। ___पस्सति जतो अवायं, तदभावे दूरतो वज्जे॥ यदि पार्श्वस्थ आदि का अपाय-संयमात्मविराधना देखे, ज्ञात हो तो मुनि उसको वाणी से अथवा कर्म से अर्थात् प्रणाम की क्रिया के द्वारा ऐसी चेष्टा करे जिससे उसके मन में तनिक भी मन्यु-अप्रीति न हो। यदि किसी भी प्रकार का अपाय न देखे तो उनका दूर से ही वर्जन करे। ४५४९.एताई अकुव्वंतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे। ___ण भवति पवयणभत्ती, अभत्तिमंतादिया दोसा॥ पार्श्वस्थों को उनके यथायोग्य वाङ्नमस्कार आदि न करने पर अर्हत् देशित मार्ग पर चलने वाले मुनि की प्रवचनभक्ति नहीं होती, अभक्तिमत्ता आदि दोष होते हैं। ४५५०.परिवार परिस पुरिसं, खित्तं कालं च आगमं नाउं। कारणजाते जाते, जहारिहं जस्स कायव्वं ।। पार्श्वस्थ के परिवार, परिषद्, पुरुष, क्षेत्र, काल और आगम-ज्ञान को जानकर तथा कारण-कुल, गण संघ के = बृहत्कल्पभाष्यम् प्रयोजन के प्रकारों को जानकर, उनके यथायोग्य वाचिककायिक वंदनक करना चाहिए। (व्याख्या आगे) ४५५१.परिवारो से सुविहितो, परिसगतो साहती व वेरग्गं। माणी दारुणभावो, णिसंस पुरिसाधमो पुरिसो॥ ४५५२.लोगपगतो निवे वा,अहवण रायादिदिक्खितो होज्जा। ___ खित्तं विहमादि अभावियं व कालो यऽणाकालो। उस पार्श्वस्थ का परिवार सुविहित-विहितानुष्ठानयुक्त है। जो परिषद् में वैराग्य का उपदेश देता है। कोई पार्श्वस्थ अहंकारी है, स्वभाव से दारुण है, नृशंस है और पुरुषों में अधमपुरुष है। कोई पार्श्वस्थ बहुलोकसम्मत, नृपबहुमत अथवा उसने राजा आदि को दीक्षित किया है-यहां ऐसा पुरुष गृहीत है। क्षेत्र अर्थात् कान्तार या अभावित गांव आदि (जो संविग्न साधुओं से अभावित पर पार्श्वस्थ आदि से भावित) में रहना हो तो पार्श्वस्थ आदि का उपचार कर रहना चाहिए। काल अणाकाल अर्थात् दुष्काल हो तो पार्श्वस्थ पुरुष साधुओं का क्षेम करता है। इस प्रकार परिवार आदि कारणों को जानकर पार्श्वस्थ का कृतिकर्म करना चाहिए। ४५५३.दसण-नाण-चरितं, तव-विणयं जत्थ जत्तियं जाणे। जिणपन्नत्तं भत्तीइ पूयए तं तहिं भावं॥ जिस पार्श्वस्थ में जितना ज्ञान, चारित्र, तप और नियम है, वहां जिनप्रज्ञसभाव को अपने मन में स्थापित कर उतनी ही भक्ति से उसका कृतिकर्म आदि करना चाहिए। अंतरगिह-पदं नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारमाहारेत्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिद्ववेत्तए, सज्झायं वा करेत्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए। (सूत्र २१) अह पुण एवं जाणेज्जा-वाहिए जराजुण्णे तवस्सी दुब्बले किलते मुच्छेज्ज वा पवडेज्ज वा, एवं से कप्पइ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक अंतरगिहंसि चिट्ठित्तए वा जाव हैं। वे विश्रम्भण वेश वाले अर्थात् संविग्नवेषधारी होते हैं। उन काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए॥ पर शंका नहीं की जा सकती। ४५५९.अहवा ओसहहेउं, संखडि संघाडए व वासासु। (सूत्र २२) वाघाए वा तत्थ उ, जयणाए कप्पती ठातुं॥ ४५५४.राइणिओ य अहिगतो, स चावि थेरो अणंतरे सुत्ते। अथवा औषध के लिए स्वामी की प्रतीक्षा करने वहां तस्संतराणि कप्पंति चिट्ठणादीणि संबंधो॥ बैठते हैं, संखड़ी में जाने के लिए वेला की प्रतीक्षा करते हैं, रत्नाधिक का अधिकार चल रहा है। अनन्तरसूत्र में अपने संघाटक साधु की प्रतीक्षा करते हैं, वर्षा के कारण, स्थविर (साठ वर्ष की पर्याय वाला) को रत्नाधिक माना है। मार्ग में व्याघात होने के कारण इन सभी कारणों से मुनि को उसको स्थान आदि के लिए दो गृहों के अंतराल में कल्पता यतनापूर्वक गृहान्तर में बैठना कल्पता है। है। यह पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का संबंध है। ४५६०.पीसंति ओसहाई, ओसहदाता व तत्थ असहीणो। ४५५५.सब्भावमसब्भावे, दुण्ह गिहाणंतरं तु सब्भावे। संखडि असतीकालो, उढिते वा पडिच्छंति॥ पास पुरोहड अंगण, मज्झम्मि य होतऽसब्भावं॥ औषधियों को पीसने के लिए, औषधदाता कहीं बाहर गृहान्तर दो प्रकार का है-सद्भाव और असद्भाव। दो गया हुआ हो तो उसकी प्रतीक्षा में, संखडी में गोचरी करने गृहों का जो अन्तर-मध्य है वह सद्भाव गृहान्तर है तथा गृह का वह असत्काल है अर्थात् अभी वहां गोचरी की वेला नहीं के पास में, पुरोहड में, आंगन में या गृहमध्य में जो अन्तर है हुई है, उस वेला की प्रतीक्षा में अथवा वहां गृहांगण में लोग वह है असद्भाव गृहान्तर। इन दोनों प्रकार के गृहान्तरों में भोजन करने बैठ गए हों तो उनके उठने की प्रतीक्षा में मुनि गोचरी के लिए गए हुए मुनि को स्थान-बैठना, खड़ा रहना गृहान्तर में बैठ सकता है। आदि नहीं कल्पता। ४५६१.एगयर उभयओ वा, अलंभे आहच्च वा उभयलंभो। ४५५६.कुडंतर भित्तीए, निवेसण गिहे तहेव रच्छाए। वसहिं जा णेएगो, ता इअरो चिट्ठई दूरे॥ ठायंतगाण लहुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ एकतर अर्थात् भक्त या पानक का अथवा दोनों की प्राप्ति दो भींतों के मध्य, भित्ति-शटित-पतित भीत के पास, दुर्लभ हो और कदाचित् दोनों की प्रचुर प्राप्ति हो गई हो तो निवेशन में, गृह के पार्श्व में, गली में-इन स्थानों में ठहरने संघाटक का एक साधु एक पात्र को लेकर वसति में चला वाले को चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि का दोष जाए और एक साधु गृहस्थों से दूर जाकर खड़ा रहे। प्राप्त होता है। ४५६२.वासासु व वासंते, अणुण्णवित्ताण तत्थऽणाबाहे। ४५५७.खरए खरिया सुण्हा, णद्वे वट्टक्खुरे व संकिज्जा। अंतरगिहे गिहे वा, जयणाए दो वि चिटुंति॥ खण्णे अगणिक्काए, दारे वति संकणा तिरिए॥ वर्षा यदि बरस रही हो तो गृहस्वामी की अनुज्ञा लेकर दास, दासी, पुत्रवधू, वृत्तखुर-घोड़ा आदि जिन घरों से वहां अनाबाध स्थान में, अन्तरगृह में या गृह में दोनों मुनि पलायन कर गए हों तो लोग उस साधु पर शंका करते हैं, यतनापूर्वक रहें। जो उस स्थान पर खड़ा या बैठा था। किसी ने उन घरों पर ४५६३.पडिणीय णिवे एंते, तस्स व अंतेउरे गते फिडिए। सेंध लगाई हो, अग्नि लगाई हो, घर में द्वार से प्रवेश कर, वुग्गह णिव्वहणाती, वाघातो एवमादीसु॥ वृति को छेद कर किसी ने सुवर्ण आदि का अपहरण कर कोई प्रत्यनीक आ रहा हो या राजा तथा उसका अन्तःपुर लिया हो, या तिर्यंचों-गो, भैंस आदि का हरण कर लिया हो आ रहा हो, हाथी आ रहा हो और वे सब जब तक वहां से तो साधु पर शंका की जा सकती है, प्रहनन, ग्रहण भी हो। निकल न जाएं तब तक वहीं रहे। कोई विग्रह करते हुए आ सकता है। इसलिए उन स्थानों में बैठना, ठहरना नहीं रहे हों, वर-वधू महान् आडंबर के साथ आ रहे हों, चाहिए। गीतगायक मंडली आ रही हो-इन कारणों से व्याघात होने ४५५८.उच्छुद्धसरीरे वा, दुब्बल तवसोसिते व जो होज्जा। पर वहीं गृह में ठहर जाए। और इस यतना का पालन करे थेरे जुण्ण-महल्ले, वीसंभणवेस हतसंके॥ ४५६४.आयाणगुत्ता विकहाविहीणा, उच्छुद्धशरीर अर्थात् रोगाघ्रात शरीर वाला, दुर्बल, तप अच्छण्ण छण्णे व ठिया व विट्ठा। से शोषित शरीर वाला, जो स्थविर है, जो जीर्ण है, जो उस अच्छंति ते संतमुहा णिविटुं, गण में वृद्धतर है-ये विश्राम करने के लिए गृहान्तर में बैठते भजति वा सेसपदे जहुत्ते॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० इन्द्रियों से गुप्त, विकथा से विरत मुनि गृहान्तर में छन्न अथवा अच्छन्न प्रदेश में खड़े या बैठे हुए शांतमुख रहते हैं। बैठकर वे स्वाध्याय आदि के शेष पदों का यथायोग्य स्मरण करते हैं। ४५६५.थाणं च कालं च तहेव वत्थु, आसज्ज जे दोसकरे तु ठाणे। ते चेव अण्णस्स अदोसवंते, भवंति रोगिस्स व ओसहाई॥ स्थान, काल और वस्तु-ये जैसे किसी व्यक्ति के लिए दोषकारी होते हैं, वे ही स्थान, काल और वस्तु दूसरे व्यक्ति के लिए अदोषकारी होते हैं। जैसे जो औषधियां एक रोगी के लिए दोष करने वाली होती हैं, वे ही औषधियां दूसरे रोगी के लिए कोई दोष उत्पन्न नहीं करतीं। नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि जाव चउगाहं वा पंचगाहं वा आइक्खित्तए वा विभावेत्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा। नण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहाए वा एगसिलोएण वा। से विय ठिच्चा, नो चेव णं अट्टिच्चा॥ (सूत्र २३) बृहत्कल्पभाष्यम् एक गाथा भी यदि संहिता आदि के आधार पर व्याख्यायित की जाए तो वह महाप्रमाणवाली हो जाती है तो फिर पांच गाथाओं की तो बात ही क्या! यदि मुनि एक गाथा भी कहता है तो उसका प्रायश्चित्त है चतुर्लघु, आज्ञाभंग आदि दोष तथा अन्तरगृह में बैठने के दोष और ये वक्ष्यमाण अन्य दोष। ४५६९.गाहा अधीकारग, पोत्थग खररडणमक्खरा चेव। साहारण पडिणत्ते, गिलाण लहुगाइ जा चरिमं॥ मुनि गोचरी के लिए निकला। गांव में एक व्यक्ति को अशुद्ध पाठ करते सुना। उसने उस व्यक्ति से कहा-गाथा का आधा भाग मैं बोलता हूं, आधा तुम बोलो। तुमने पुस्तकों से ही शास्त्र पढ़ा है, गुरुमुख से नहीं। तुम इस प्रकार खररटन-गधे की तरह रटन क्यों कर रहे हो? तुम केवल अक्षरों को ही जानते हो। पट्टिका लाओ, मैं तुम्हें सिखाता हूं। ऐसा करने पर ये दोष होते हैं-साधारण अर्थात् मंडली में भोजन करने वाले मुनि इस मुनि की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं। यदि इस मुनि से किसी ग्लान की सेवा करने की प्रतिज्ञा की हो तो वह ग्लान उसकी प्रतीक्षा में परिताप आदि का अनुभव करता है। इस स्थिति में उस मुनि को चतुर्लघु से प्रारंभ कर पारांचिक तक प्रायश्चित्त प्राप्त हो सकता है। ४५७०.भग्गविभग्गा गाहा, भणिइहीणा व जा तुमे भणिता। अद्धं से करेमि अहं, तुमं से अद्धं पसाहेहि।। गोचराग्र गया हुआ मुनि अशुद्ध गाथा को सुनकर उस गृहस्थ को कहता है-तुमने गाथा को भग्न-विभग्न और भणितिरहित कर डाला। उस गाथा के आधे भाग का अर्थ मैं कहता हूं और आधे भाग का अर्थ तुम करो। ४५७१.पोत्थगपच्चयपढियं, किं रडसे रासह व्व असिलायं। अकयमुह! फलयमाणय, जा ते लिक्खंतु पंचग्गा॥ तुमने पुस्तक पर विश्वास करके पढ़ा है, गुरुमुख से नहीं। तुम रासभ की भांति विस्वर में क्यों रटन लगा रहे हो? हे अकृतमुख! (अक्षर संस्कार से रहित) तुम एक फलक (पट्टिका) ले आओ, मैं तुम्हारे योग्य पंचाय-पांच अक्षर लिखकर दूंगा। ४५७२.लहुगादी छग्गुरुगा,तव-कालविसेसिया व चउलहुगा। अधिकरणमुत्तरुत्तर, एसण-संकाइ फिडियम्मि॥ भिक्षा के लिए पर्यटन करता हुआ यह सारा प्रपंच करने वाले के लिए यह प्रायश्चित्त है-आधी गाथा की बात कहने पर चतुर्लघु, पुस्तक की बात पर चतुर्गुरु, अक्षर सिखाने पर षड्लघु, खर-रटन पर षड्गुरु अथवा तप-काल से विशेषित चतुर्लघुक, अधिकरण-कलह और उत्तरोत्तर-उक्ति-प्रत्युक्ति ४५६६.अइप्पसत्तो खलु एस अत्थो, जं रोगिमादीण कता अणुण्णा। अण्णो वि मा भिक्खगतो करिज्जा, गाहोवदेसादि अतो त सत्तं॥ पूर्वसूत्र में रोगी आदि को अन्तरगृह में स्थान आदि करने की अनुज्ञा दी है। यह अर्थ अतिप्रसंग पैदा करने वाला है। दूसरा भी कोई भिक्षा के लिए निर्गत मुनि वहां अन्तरगृह में स्थित होकर गाथोपदेश आदि न करे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का निर्माण किया गया है। ४५६७.संहियकड्डणमादिक्खणं तु पदछेद मो विभागो उ। सुत्तत्थोकिट्टणया, पवेतणं तप्फलं जाणे॥ भिक्षा के लिए निर्गत मुनि गृहस्थों के घर में बैठकर संहिताकर्षण आदि करता है। पदच्छेद और विभाग करता है। सूत्रार्थ का कथन करता है अर्थात् उनका उत्कीर्तन करता है। धर्म-फल का प्रवेदन करता है। ४५६८.एक्का वि ता महल्ली, किमंग पुण होति पंच गाहाओ। साहणे लहुगा आणादिदोस ते च्चेविमे अण्णे॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक करने वाले मुनि के एषणा का काल बीत जाता है। काल बीत जाने पर वह मुनि एषणा की प्रेरणा करता है। इससे शंका आदि दोष उत्पन्न होते हैं। ४५७३. वामद्दति इय सो जाब तेण ता गहियभोयणा इयरे । अच्छंते अंतरायं, एमेव य जो पडिण्णत्तो ॥ भिक्षाटन करता हुआ वह मुनि जब तक उत्तर- प्रत्युत्तर में संलग्न रह कर व्याक्षेप से समय को गंवाता है तब तक इतर मुनि भोजन से निवृत्त होकर या गोचरी लाकर उस मुनि की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं। अतः अंतरायदोष लगता है तथा ग्लान के लिए प्रायोग्य आहार लाने की जो बात स्वीकृत की थी, वह समय पर न दिए जाने पर, उसके भी अंतराय होता है। ४५७४. कालाइकमदाणे, होह गिलाणस्स रोगपरिबुद्धी । परितावऽणगावाती, लहुगाती जाब चरिमपदं ॥ ग्लान के भक्त पान के काल का अतिक्रमण होने पर उसके रोग-परिवृद्धि होती है उसके अनागाढ तापनाविक होती है, तथा फलस्वरूप चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है तथा ग्लान की मृत्यु हो जाने पर चरमपद अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। ४५७५.किं जाणंति वरागा, हलं जहित्ताण जे उ पव्वइया । एवंविधो अवण्णो मा होडिइ तेण कहयंति ॥ गोचरा में प्रविष्ट मुनि भी दूसरे के द्वारा पूछे जाने पर अपवादपद में कुछ कह भी सकता है - कुछ न कहने पर लोग कहते हैं ये बेचारे क्या जानते है। इन्होंने हलों को छोड़कर प्रवज्या ली है। इस प्रकार का अवर्णवाद न हो इसलिए पूछने पर कुछ कहते हैं। ४५७६. एवं नायं उदगं वागरणमहिंसलक्खणो धम्मो । गाहाहिं सिलोगेहि व समासतो तं पि ठिच्चाणं ॥ यदि कोई पूछे तो विवक्षित अर्थ का समर्थक एक दृष्टांत कहना चाहिए। वैसा 'उदक का दृष्टांत' मात्र कहना चाहिए । व्याकरण का अर्थ है- निर्वचन । किसी ने धर्म का लक्षण पूछा हो तो कहे-अहिंसा लक्षणो धर्मः-धर्म है अहिंसा । अथवा गाथाओं से या श्लोकों से संक्षेप में धर्मकथन करे। वह भी एक स्थान पर बैठकर खड़े खड़े अथवा भिक्षा के लिए घूमते-घूमते न करे। ४५७७. नज्जइ अण अत्थो, णायं दिवंत इति व एगद्वं । वागरणं पुण जा जस्स धम्मता होति अत्थस्स ॥ जिससे दाष्टन्तिक अर्थ जान लिया जाता है वह है ज्ञात और दृष्टांत एकार्थक हैं। व्याकरण का अर्थ है - जिस अर्थ की ४७९ जो धर्मता स्वभाव है उसका निर्वचन । उदक का दृष्टांत एक साधु दूसरे गांव में भिक्षा के लिए जा रहा था। बीच में एक गृहस्थ मिल गया। दोनों जा रहे थे। मार्ग के बीच पानी बह रहा था। उसको पार कर गृहस्थ अपने बहन के घर मेहमान बन कर रह गया। साधु भी भिक्षा के लिए घूमतेघूमते उसी घर में गया।...... ४५७८. पप्पं खु परिहरामो, अप्पप्पविवन्नओ ण विज्जति हु। पप्पं खलु सावज्जं, वज्जेंतो होइ अणवज्जो ॥ हम प्राप्य अर्थात् शक्य का ही परिहार करते हैं। अप्राप्य जिसका परिहार नहीं किया जा सकता उसका परिहारकर्त्ता कोई नहीं होता। इसलिए अभी सामने जो सावद्य है उसका वर्जन करना अनवद्य - निर्दोष है। ४५७९. चिरपाहुणतो भगिणिं, अवयासिंतो अदोसवं होति । तं चैव मज्झ सक्खी, गरहिज्जइ अण्णहिं काले ॥ चिरकाल से समागत प्राघूर्णक भाई अपनी बहन का सस्नेह आलिंगन करता है, तब भी अदोषी है। मुनि ने कहाइसके तुम ही मेरे प्रमाण हो क्योंकि अभी - अभी तुमने बहन का आलिंगन किया है। अन्य समय में यदि भाई बहन का आलिंगन करता है तो वह निन्द्य होता है। ४५८०.पादेहिं अधोतेहि वि, अक्कमितूणं पि कीरती अच्चा । सीसेण वि संकिज्जति, स च्चेव चितीकया छिविउं ॥ प्रतिमा की जब तक प्रतिष्ठा नहीं होती तब तक अधौत पैरों से भी उस पर चढ़ा जा सकता है। यदि वही प्रतिमा मन्दिर में स्थापित कर दी जाती है तब उसका सिर से स्पर्श करने पर भी लोग शंका करते हैं। ४५८१. केइ सरीरावयवा देहत्था पूइया न उ विउत्ता सोहिज्जति वणमुहा, मलम्मि वूढे ण सव्वे तु ॥ शरीर के कुछेक अवयव देहस्थ होने पर ही पूजे जाते हैं, विलग होने पर नहीं व्रणमुख वाले कुछेक अवयव (कान, चक्षु, पायु) जिनसे मल बहने पर भी कुछेक का ही शोधन किया जाता है, सबका नहीं । ४५८२. जइ एगत्थुवलद्धं, सव्वत्थ वि एव मण्णसी मोहा। भूमीतो होति कणगं, किण्ण सुवण्णा पुणो भूमी ॥ 'एकत्र जो उपलब्ध होता है, सर्वत्र भी वह उपलब्ध होना 'चाहिए' यदि तुम मोहवश मानते हो तो बताओ, भूमी से सोना उत्पन्न होता है तो सोने से भूमी उत्पन्न क्यों नहीं होती ? ४५८३. तम्हा उ अणेगंतो ण दिट्ठमेगत्थ सव्वहिं होति । लोए भक्खमभक्खं पिज्जमपिज्जं च दिट्ठाई ॥ . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ = बृहत्कल्पभाष्यम् में तप-नियम की भावना बढ़े, वह कथा वैराग्य से संयुक्त हो, जिसे सुनकर मनुष्य संवेग और निर्वेद की ओर बढ़े। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि इमाइं पंच महव्वयाई सभावणाई आइक्खित्तए वा विभावेत्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा, नण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहए वा एगसिलोएण वा। से वि य ठिच्चा नो चेवणं अठिच्चा॥ (सूत्र २४) इसलिए यह नियम अनेकांतिक है। एक स्थान पर देखा गया सर्वत्र नहीं होता। संसार में भक्ष्य-अभक्ष्य, पेय-अपेय की पृथक्-पृथक् व्यवस्था देखी जाती है। प्राणी के अंग होने पर भी मांस, वसा आदि अभक्ष्य माने जाते हैं और ओदन, पक्वान्न आदि भक्ष्य। मद्य, रुधिर आदि अपेय और पानी, छाछ आदि पेय माने जाते हैं। ४५८४.जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणयं। तुम जो अपनी आत्मा के लिए चाहते हो और जो नहीं चाहते, वही दूसरी आत्मा के लिए भी चाहो। यही जिनशासन का उपदेश है। ४५८५.सव्वारंभ-परिग्गहणिक्खेवो सव्वभूतसमया य। एक्कग्गमणसमाहाणया य अह एत्तिओ मोक्खो॥ समस्त आरंभ (हिंसा आदि) और परिग्रह का त्याग करना, समस्त प्राणियों के प्रति समता रखना तथा एकाग्रमनःसमाधानता रखना यही मोक्ष है-इतना ही मोक्ष का उपाय है। ४५८६.सव्वभूतऽप्पभूतस्स, सम्म भूताई पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई॥ जो समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान जानता है, जिसने आस्रवों का द्वार बंद कर दिया है तथा जो दान्त - है, उसके पाप कर्म का बंध नहीं होता। ४५८७.इरियावहियाऽवण्णो, सिट्ठ पि न गिण्हए अतो ठिच्चा। भद्दिड्डी पडिणीए, अभियोगे चउण्ह वि परेण ॥ चंक्रमण करता हुआ मुनि जो धर्म कहता है, उसकी निन्दा होती है और उसका कहा हुआ धर्म कोई श्रोता ग्रहण भी नहीं करता। अतः बैठकर धर्म कहना चाहिए। कोई भद्रक धर्म पूछे तो उसे विस्तार से बताए। कोई प्रत्यनीक आ रहा हो तो, उसके चले जाने पर धर्म कहे। यदि दंडिक आदि की अभियोग-बलात् कहने की बात आए तो चार गाथाओं या श्लोकों के अतिरिक्त भी धर्म का प्रवचन करे। ४५८८.सिंगाररसुत्तुइया, मोहमई फुफुका हसहसेति। जं सुणमाणस्स कहं, समणेण न सा कहेयव्वा॥ जिस कथा को सुनकर श्रोता के मन में श्रृंगार रस उत्तेजित होता हो, मोहमयी ज्वाला जाज्वल्यमान होती हो वैसी कथा श्रमण को नहीं कहनी चाहिए। ४५८९.समणेण कहेयव्वा, तव-णियमकहा विरागसंजुत्ता। जं सोऊण मणूसो, वच्चइ संवेग-णिव्वेयं॥ श्रमण को वैसी कथा कहनी चाहिए जिससे श्रोता के मन ४५९०.गहिया-ऽगहियविसेसो, गाधासुत्तातो होति वयसुत्ते। णिपुंसकतो व भवे, परिमाणकतो व विण्णेतो॥ गाथासूत्र से व्रतसूत्र इस बात में विशेष है कि गाथासूत्र केवल ग्रथित होता है और व्रतसूत्र ग्रथित और अग्रथित दोनों प्रकार का होता है। अथवा प्रस्तुत सूत्र में जो निर्देशकृत है वह यहां विशेष है-यहां इस सूत्र में भावनायुक्त पांच महाव्रतों की बात कही है। यही विशेष निर्देश है। अथवा पूर्वसूत्र में धर्म का स्वरूप कहा है, वही यहां महाव्रतपंचक के रूप में निर्दिष्ट है। ४५९१.पंचमहव्वयतुंगं, जिणवयणं भावणापिणिद्धागं। साहणे लहुगा आणाइ दोस जं वा णिसिज्जाए। जिनवचन पांच महाव्रतों से उत्तुंग मेरु के सदृश है और वह भावनाओं से नियंत्रित है। अन्तरगृह में बैठकर इसका वर्णन करने वाले मुनि को चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। इसके साथसाथ गृहनिषद्या के जो दोष होते हैं, उनका प्रायश्चित्त भी आता है। ४५९२.पाणवहम्मि गुरुव्विणि, कप्पट्ठोद्दाणए य संका उ। भणिओ ण ठाइ कोयी, मोसम्मि य संकणा साणे॥ गृह में बैठकर कोई मुनि धर्मकथा करता है और श्रोता के रूप में कोई गर्भिणी स्त्री बैठी है तो उसके गर्भस्थ शिशु के आहार का व्यवच्छेद होता है। इससे विपत्ति होती है, प्राणवध होता है। कोई स्त्री धर्मकथा सुनते-सुनते अपने छोटे बालक को वहीं छोड़कर शंका-निवारण के लिए जाती है। पीछे से कोई उस बालक को मार देता है तो लोग मुनि पर शंका करते हैं। गृहस्थ के द्वारा प्रतिषेध करने पर भी जो उस घर में प्रतिदिन जाता है तो भगवान् की आज्ञा का Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ४७३ ४५९७.एगं णायं उदगं, वागरणमहिंसलक्खणो धम्मो। गाहादि सिलोगेहि य, समासतो तं पि ठिच्चाणं॥ यदि कोई पूछे तो विवक्षित अर्थ का समर्थक एक दृष्टांत कहना चाहिए। वैसा 'उदक का दृष्टांत' मात्र कहना चाहिए। व्याकरण का अर्थ है निर्वचन। किसी ने धर्म का लक्षण पूछा हो तो कहे-अहिंसा लक्षणो धर्मः-धर्म है अहिंसा। अथवा गाथाओं से या श्लोकों से संक्षेप में धर्मकथन करे। वह भी एक स्थान पर बैठकर। सज्जा संशारय-पतं उल्लंघन है। यह मृषावाद है। अथवा धर्मकथा सुन रही अपनी पत्नि से पति कहता है-अमुक वस्तु मुझे परोसो। पत्नी कहती है-वह वस्तु तो कुत्ता खा गया। पति तब कहता है मैं उस कुत्ते को जानता हूं। इस प्रकार उसके मन में मृषावाद विषयक शंका होती है। ४५९३.खुहिया पिपासिया वा, मंदक्खेणं न तस्स उठे। गब्भस्स अंतरायं, बाधिज्जइ सन्निरोधेणं॥ धर्मकथा सुनने के लिए बैठी हुई गर्भवती स्त्री भूखी और प्यासी हो सकती है, वह लज्जावश वहां से नहीं उठती, इससे गर्भ में अंतराय होता है। आहार के व्यवच्छेद रूपी सन्निरोध से गर्भ बाधित होता है। ४५९४.उक्खिवितो सो हत्था, चुतो त्ति तस्सऽग्गतो णिवाडित्ता। सोतार वियारगते, हा ह त्ति सवित्तिणी कुणती॥ स्त्री धर्म सुनते-सुनते, अपने शिशु को वहीं छोड़कर शौचार्थ विचारभूमी में चली गई। इतने में ही उसकी सोत आई और उस शिशु को हाथों में उठाया और साधु के आगे उसको पटक दिया और चिल्लाने लगी कि हा! हा! इस श्रमण ने इस शिशु को उठाया और इसके हाथ से च्युत होकर यह शिशु भूमी पर गिरा और मर गया। इस प्रकार मृषावाद से श्रमण ग्रस्त होता है। ४५९५.सयमेव कोइ लुद्धो, अवहरती तं पडुच्च कम्मकरी। वाणिगिणी मेहुण्णे, बहुसो य चिरं च संका य॥ - कोई मुनि घर में आभूषणों को देखकर कोई वस्तु उठा लेता है, अथवा कोई दासी किसी आभूषण का अपहरण कर सोचती है कि साधु पर शंका की जाएगी, मेरे पर नहीं। इस प्रकार अदत्तादान का दोष भी उस संयत पर आ सकता है। कोई प्रोषितभर्तृका गृहिणी है। कोई मुनि उसके घर बार-बार जाता है और लंबे समय तक ठहरता है। उस पर शंका होती है। ४५९६.धम्मं कहेइ जस्स उ, तम्मि उ वीयारए गए संते। ___ सारक्खणा परिग्गहो, परेण दिट्ठम्मि उड्डाहो॥ मुनि जिस घर में धर्मकथा करता है, गृहस्वामी के शौचभूमी में जाने पर वह मुनि घर का संरक्षण करता है तो परिग्रहदोष का आभागी होता है। दूसरे के देख लेने पर उड्डाह होता है। इस प्रकार अन्तरगृह में बैठकर धर्मकथा करने के ये दोष हैं। अतः वहां बैठकर धर्मकथा नहीं करनी चाहिए। नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं सिज्जा-संथारयं आयाए अप्पडिहुटु संपव्वइत्तए॥ (सूत्र २५) ४५९८.अविदिण्णमंतरगिहे, परिकहणमियं पऽदिण्णमिइ जोगो। णिग्गमणं व समाणं, बहिं व वुत्तं इमं अंतो॥ अन्तरगृह में उपदेश देना अवितीर्ण अर्थात् तीर्थंकरों या गृहपति के द्वारा अनुज्ञात नहीं है। इसी प्रकार प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक का न लौटाना भी अनुज्ञात नहीं है। यह योग है। संबंध है। पूर्वसूत्र और प्रस्तुत सूत्र दोनों में प्रतिश्रय से निर्गमन समान है। अथवा पूर्वसूत्र प्रतिश्रय से बाहर भिक्षा के लिए निर्गत भिक्षु को धर्मकथा करना नहीं कल्पता, यह कहा है। प्रस्तुत सूत्र में प्रतिश्रय के मध्य संस्तारक का निक्षेपण नहीं कल्पता, यह कहा है। ४५९९.सिज्जा संथारो या, परिसाडी अपरिसाडि मो होइ। परिसाडि कारणम्मि, अणप्पिणे मासो आणादी॥ शय्या अथवा संस्तारक के दो प्रकार हैं-परिशाटी तथा अपरिशाटी। परिशाटी तृणमय होता है और अपरिशाटी फलकमयी। परिशाटी कारण में ग्रहण कर उसको यदि पुनः बिना अर्पित किए विहार करता है, उसे मासलघु का प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। ४६००.सोच्चा गत त्ति लहुगा, अप्पत्तिय गुरुग जं च वोच्छेओ। कप्पट्ट खेल्लणे णयण डहण लहु लहुग गुरुगा य॥ यदि संस्तारक स्वामी यह सुन ले कि साधु संस्तारक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ = बृहत्कल्पभाष्यम् को लौटाये बिना चले गए हैं, तो उसको चतुर्लघु, यदि स्वामी को अप्रीति उत्पन्न होती है तो चतुर्गुरु, उस द्रव्य का व्यवच्छेद हो गया हो तो चतुर्गुरु, उस शून्य संस्तारक पर बालक खेलते हों तो मासलघु, उसको अन्यत्र ले जाते हों तो चतुर्लघु, उसको जला देते हों तो चतुर्लघु तथा दहन में प्राणियों की विराधना होती है, उसका भिन्न प्रायश्चित्त आता है। ४६०१.दिज्जते वि तयाऽणिच्छितूण अप्पेमु भे त्ति नेतूणं। कयकज्जा जणभोगं, काऊण कहिं गया भच्छा। पुनः अर्पित न किये जाने वाला संस्तारक दिये जाने पर भी मुनि तब नहीं चाहते। बाद में मासकल्पपूर्ण होने पर हम पुनः लौटा देंगे यह कहकर ले जाते हैं। अपना कार्य पूर्ण हो जाने पर उस संस्तारक को जनभोग्य कर, शून्य में डालकर वे भच्छ-दुर्दृष्टधर्मा मुनि कहीं चले जाते हैं। ४६०२.कप्पट्ट खेल्लण तुअट्टणे य लहुगो य होति गुरुगोय। __इत्थी-पुरिसतुयट्टे, लहुगा गुरुगा अणायारे॥ यदि उस संस्तारक पर बालक खेलते हैं तो प्रायश्चित्त है लघुमास। यदि वे बालक उस पर सोते हैं तो गुरुमास, यदि स्त्री-पुरुष सोते हैं तो चतुर्लघु, उस पर अनाचार का सेवन करते हैं तो चतुर्गुरु। ४६०३.वोच्छेदे लहु-गुरुगा, नयणे डहणे य दोसु वी लहुगा। विहणिग्गयादडलंभे, जं पावे सयं व तु णियत्ता। एक साधु और उसी एक द्रव्य का व्यवच्छेद होने पर चतुर्लघु, अनेक साधु और अन्य द्रव्यों का व्यवच्छेद होने पर चतुर्गुरु, ले जाने और दहन करने पर चतुर्लघु और व्यवच्छेद के कारण संस्तारक की प्राप्ति न होने पर अध्वनिर्गत मुनि जो परिताप आदि प्राप्त करते हैं, उसका प्रायश्चित्त तथा स्वयं निवृत्त होकर वहां आने पर संस्तारक न मिलने के कारण जिस विराधना को प्राप्त होते हैं, उसका प्रायश्चित्त आता है। ४६०४.माइस्स होति गुरुगो, जति एक्कतो भागऽणप्पिए दोसा। अह होति अण्णमण्णे, ते च्चेव य अप्पिणणे सुद्धो॥ मायावी के गुरुमास का प्रायश्चित्त प्रास होता है। माया कैसे? एक ही घर से अनेक मुनि अनेक संस्तारक लाए हों और भाग अर्थात् प्रत्यर्पणकाल में अपना संस्तारक उस नीयमान संस्तारकों में प्रक्षिस कर देना, यह दोष है। अथवा अन्य-अन्य गृहों से लाए गए संस्तारक हों, उस समय माया करने पर भी वे ही दोष प्राप्त होते हैं। अतः जिस घर से संस्तारक लाए, उसी घर में विधिपूर्वक प्रय॑पण करना शुद्ध है। ४६०५.संथारेगमणेगे, भयणऽट्ठविहा उ होइ कायव्वा। पुरिसे घर संथारे, एगमणेगे तिसु पतेसु॥ संस्तारक के एक-अनेक पदों से आठ प्रकार की भजना करनी चाहिए। वह इन तीन पदों से होती है-पुरुष, गृह और संस्तारक। आठ भंग इस प्रकार हैं (१) एक साधु एक घर से एक संस्तारक लाया। (२) एक साधु एक घर से अनेक संस्तारक लाया। (३) एक साधु अनेक घरों से एक संस्तारक लाया। (४) एक साधु अनेक घरों से अनेक संस्तारक लाया। इस प्रकार एक साधु के चार भंग हुए। अनेक साधु भी इसी प्रकार भंग प्रास करते हैं। ये सारे आठ भंग होते हैं। ४६०६.आणयणे जा भयणा, सा भयणा होति अप्पिणंते वि। वोच्चत्थ मायसहिए, दोसा य अणप्पिणंतम्मि॥ संस्तारक के आनयन की जो भजना है वही भजना उसके प्रत्यर्पण में होती है। जो प्रत्यर्पण में व्यत्यय करता है, माया करता है या सर्वथा प्रत्यर्पण ही नहीं करता उसमें दोष होते हैं। ४६०७.बिइयपय झामिते वा, देसुट्ठाणे व बोधिकभए वा। अद्धाणसीसए वा, सत्थो व पधावितो तुरियं। अपवादपद यह है। यदि संस्तारक जल जाए, संस्तारक का स्वामी गांव छोड़ कर चला गया हो, चोरों का भय उत्पन्न हो गया हो, मोर्चा लग गया हो अथवा कोई सार्थ आया और त्वरित प्रस्थान करने वाला था, इसलिए मुनि संस्तारक का प्रत्यर्पण न कर उस सार्थ के साथ चले गए। ४६०८.एतेहिं कारणेहिं, वच्चंते को वि तस्स उ णिवेदे। अप्पाहंति व सागारियाइ असदऽण्णसाहूणं॥ इन कारणों से प्रत्यर्पण न करने पर कोई मुनि जाकर उस संस्तारक स्वामी को निवेदन करे कि सार्थ त्वरित चला गया, इसलिए प्रत्यर्पण नहीं कर सके। यदि अन्य साधु न हों तो गृहस्थ को संदेश दे कि हमने अमुक का संस्तारक अमुक गृहस्थ को दिया है। ४६०९.एसेव गमो नियमा, फलएसु वि होइ आणुपुव्वीए। ___चउरो लहुगा माई, य नत्थि एयं तु नाणत्तं। यही विकल्प नियमतः क्रमशः फलक के विषय में होता है। फलकमय संस्तारक को प्रत्यर्पण न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। इसमें माया नहीं होती। इसी प्रकार यह संस्तारक से नानात्व है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ४७५ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा गया हो अथवा पूर्वोक्त कार्यों के उपस्थित होने पर विकरण न सागारियसंतियं सेज्जा-संथारयं आयाए करे। विकरण न करने पर भी वह शुद्ध है। अविकरणं कट्ट संपव्वइत्तए। इह खल निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा (सूत्र २६) पाडिहारिए वा सागारियसंतिए वा सेज्जासंथारए विप्पणसेज्जा, से य ४६१०.संथारगअहिगारो, अहवा पडिहारिगा उ सागारी। अणुगवेसियव्वे सिया। से य नीहारिमो अणीहारिमो य इति एस संबंधो॥ __ प्रस्तुत सूत्र का संबंध-यह संस्तारक का अधिकार अणुगवेस्समाणे लभेज्जा, तस्सेव अनुवर्तित हो रहा है। अतः यह भी संस्तारक सूत्र है। अथवा पडिदायव्वे सिया। से य अणुगवेस्समाणे पूर्वसूत्र में प्रातिहारिक संस्तारक का कथन था, प्रस्तुत सूत्र नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ दोच्चं पि में सागारिकसत्क का संस्तारक कथित है। अथवा दो प्रकार ओग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं का संस्तारक होता है-निर्हारिम और अनि रिम। प्रस्तुत परिहरित्तए॥ सूत्र का पूर्वसूत्र से यह संबंध है। (सूत्र २७) ४६११.सागारिसंति विकरण, परिसाडिय अपरिसाडिए चेव। तम्मि वि सो चेव गमो, पच्छित्तुस्सग्ग-अववाए॥ ४६१५.दोण्हेगयरं नटुं, गवेसियं पुव्वसामिणो देति। सागारिकसत्क संस्तारक को ग्रहण कर वहां से प्रस्थान अपमादट्ठा अहिए, हिए य सुत्तस्स आरंभो॥ करते समय उसको बिखेर देना चाहिए। वह दो प्रकार का मुनि दो संस्तारक लाए। उसमें से एक कोई ले गया। होता है-परिशाटी और अपरिशाटी। उस संस्तारक के विषय मुनि ने गवेषणा की। वह प्राप्त हो गया। मुनि ने उसे पूर्वस्वामी में भी वही पूर्वोक्त विकल्प है। तथा प्रायश्चित्त, उत्सर्ग और को सौंप दिया। अतः अहत-अनष्ट, या हृत, फिर भी अपवाद भी पूर्वोक्त ही हैं। अप्रमाद के लिए गवेषणा समाचारी करनी चाहिए, इसलिए ४६१२.किड्ड तुअट्टण बाले, णयणे डहणे य होइ तह चेव।। इस सूत्र का प्रारंभ किया गया है। - विकरण पासुद्धं वा, फलग तणेसुं तु साहरणं॥ ४६१६.संथारो नासिहिती, वसहीपालस्स मग्गणा होति। वह बालकों द्वारा खेलने, सोने, अन्यत्र ले जाने, जलाने सुन्नाई उ विभासा, जहेव हेट्ठा तहेव इहं॥ में पूर्वोक्त दोष होते हैं, इसलिए उसको बिखेर देना चाहिए। संस्तारक कोई ले न जाए इसलिए वसति को सर्वथा विकरण करना अर्थात् फलक को एक पार्श्व में रखना या शून्य न करने के लिए वसतिपाल की मार्गणा होती है। उसको खड़ा कर देना, तृणों का संहरण करना, कम्बिकाओं पीठिका गाथा ५४२ में 'सुन्ने बाल गिलाणे' में जो व्याख्या के बंधन को तोड़ना। यह विकरण है। की है, वही व्याख्या यहां भी जाननी चाहिए। ४६१३.पुंजे वा पासे वा, उवरिं पुंजेसु विकरण तणेसु। ४६१७.पढमम्मि य चउलहुगा, सेसेसुं मासियं तु नाणत्तं। ___फलगं जत्तो गहियं, वाघाए विकरणं कुज्जा॥ दोहि गुरू एक्केणं, चउथपदे दोहि वी लहुगा॥ जो तृण जिस पुंज से आनीत हैं, उनको उसी पुंज में रखें, वसति को शून्य करने पर प्रथम स्थान में चतुर्लघुक का जो पार्श्व से आनीत हैं, उनको पार्श्व में रखें, फलक जहां से प्रायश्चित्त है। और यदि वसतिपाल के रूप में बाल, ग्लान लाया है वहां ले जाकर स्थापित करे, कंबिकाओं का भी या अव्यक्त मुनि को स्थापित करे तो प्रत्येक के मासलघु का बंधन तोड़कर जहां से लाया है, वहीं रखे। यदि कोई व्याघात । प्रायश्चित्त है। बालस्थापन में तपसा गुरुक और ग्लानस्थापन हो तो वैसा न कर सकने पर स्थान पर ही संस्तारक को में कालगुरुक, चतुर्थपद-अव्यक्त स्थापन में दोनों-तप और रखकर नियमपूर्वक विकरण करे। काल से लघुक-यह सारा मूल प्रायश्चित्त के साथ जुड़ेगा। ४६१४.बितियमहसंथडे वा, देसुट्ठाणादिसू व कज्जेसु। ४६१८.मिच्छत्त-बडुग-चारण-भडाण ... एएहिं कारणेहि, सुद्धो अविकरणकरणे वि॥ मरणं तिरिक्ख-मणुयाणं। अपवादपद में यथासंस्तृत का विकरण न करे। यथा आएस बाल निक्केयणे संस्तृत का अर्थ है-निष्प्रकंप चंपकपट्ट आदि। देश उजड़ य सुन्ने भवे दोसा॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ४६१९. बलि धम्मकहा किडा, पमज्जणाऽऽवरिसणा य पाहुडिया। खंधार अगणि भंगे, मालवलेणा य नाई य॥ वसति को शून्य छोड़ने से ये दोष होते हैं- शय्यातर का मिथ्यात्वगमन, बटुक, चारण और भट का प्रवेश, पशु और मनुष्य का मरण, प्राघूर्णक और व्याल का प्रवेश, बेघर वाले तिर्यच और प्रसूत स्त्रियों का निष्कासन | निम्न द्वारों से वे दोष वक्तव्य हैं १. बलिद्वार २. धर्मकथाद्वार ३. क्रीड़ाद्वार ४. प्रमार्जनद्वार ५. आवर्षणद्वार ७. स्कंधावारद्वार ८. अग्निद्वार ९. भंगद्वार १०. मालवस्तेनद्वार ११. ज्ञातिद्वार । ' ६. प्राभृतिकाद्वार ४६२०. संथारविप्पणासो, एवं खु न विज्जतीति चोएति । सुत्तं होइ य अफलं, अह सफलं उभयहा दोसा ॥ दूसरा कहता है इस प्रकार वसति को सुरक्षित करने पर संस्तारक का विनाश नहीं होगा इससे प्रस्तुत सूत्र अफल हो जाएगा। बाल आदि दोषरहित वसतिपाल स्थापनीय यह भी अफल हो जाएगा। उभयथा भी दोष होते हैं। ४६२१. निज्जताऽऽणिज्जंता, आवावणनीणितो व हीरेज्जा | ते ऽगणि- उदगसंभम, बोहिकभय रट्ठउट्ठाणे ॥ प्रत्यर्पण के लिए संस्तारक को ले जाते हुए अथवा गृहस्थ के घर से लाते हुए कोई अपहरण कर लेता है। संस्तारक को धूप में देने के लिए बाहर निकालने पर कोई अपहरण कर लेता है। स्तेनों द्वारा या उदक और अग्नि के संभ्रम में अथवा बोधिक चोरों के भय से देश उजड़ गया हो तो संस्तारक का हरण हो सकता है। ४६२२. पडिसेहेण व लदो पडिलेहणमादिविरहिते गहणं । अणुसट्ठी धम्मकहा, वल्लभो वा निमित्तेणं ॥ गृहस्वामी ने संस्तारक का प्रतिषेध कर डाला, फिर दूसरे के कहने से वह उसे प्राप्त हुआ। वह मुनि उस संस्तारक को प्रत्युपेक्षण करने के लिए बाहर ले गया। वहां से उसे बाहर छोड़कर भीतर गया। उसके विरहित होने पर कोई उसे उठा ले गया। वह मांगने पर भी नहीं लौटाता । तब उसे धर्मकथा कहनी चाहिए। वह व्यक्ति यदि राजवल्लभ हो तो उसे निमित्त आदि से प्रसन्न करना चाहिए। १. देखें- पीठिका गाथा ५५४ - ५६४ पर्यन्त अनुवाद | बृहत्कल्पभाष्यम् ४६२३. दिन्नो भवबिहेणेव एस णारिहसि णे ण दाडं जे। अन्नो वि ताव देयो, दे जाणमजाणयाऽऽणीयं ॥ उसको कहे- तुम जैसे विशिष्ट व्यक्ति ने ही हमें यह संस्तारक दिया। इसलिए हम इसे दे नहीं सकते। तुमको दूसरा कोई भी संस्तारक दे देगा। दूसरे द्वारा हमको दिया गया इस संस्तारक से क्या प्रयोजन? तुम जानते हुए या अजानकारी से भी वह हमें लाकर दो । ४६२४. मंत णिमित्तं पुण रायवल्लभे दमग भेसणमदेते। धम्मका पुण दोसु वि, जति अवराहो दुहा वऽधिओ ॥ राजवल्लभ के प्रति मंत्र या निमित्त का प्रयोग करे और दमक को भय दिखाए और फिर दोनों को धर्मकथा कहे। यतियों के प्रति किया गया अपराध दोनों लोकों के लिए अहितकर होता है। ऐसा धर्मोपदेश दे। 3 ४६२५. अन्नं पि ताव तेनं इह परलोकेऽपहारिणामहियं । परओ जायितलब्द्धं, किं पुण मन्नुप्पहरणेसु ॥ सामान्य लोगों की चोरी भी परलोक में चोरों के प्रति अहितकारी होती है, फिर यतियों की चोरी तो बहुत अहित पैदा करती है ऋषि 'मन्युपहरणा' होते हैं। उनका एकमात्र शस्त्र है-मन्यु-क्रोध इन ऋषियों को सब कुछ दूसरों से याचित ही मिलता है, इसलिए उनकी चोरी करना इहलोक के लिए अहितकर होती है। ४६२६. खते व भूणए वा, भोइग जामाउगे असइ साहे। सिम्म जं कुणइ सो, मग्गण दाणं व ववहारे ॥ पिता द्वारा संस्तारक लिए जाने पर पुत्र को कहा जाता है। और पुत्र द्वारा लिए जाने पर पिता को कहा जाता है। अथवा उसकी भार्या को या जामाता को कहना चाहिए। इतने पर भी यदि नहीं देते हों तो महत्तर आदि तक बात पहुंचानी चाहिए। न मिलने पर संस्तारक स्वामी को उस संस्तारक का 'दान' मूल्य देना या फिर न्यायालय में जाना चाहिए। ४६२७. भूणगगहिए खंतं, भणाइ खंतगहिते य से पुत्तं । असति त्ति न देमाणे, कुणति दवावेति व न वा उ ॥ पुत्र द्वारा गृहीत होने पर पिता को कहना होता है और पिता द्वारा गृहीत होने पर पुत्र को कहना होता है। यदि नहीं देते हैं तो भोजिक आदि को कहना पड़ता है। यदि वे भय पैदा कर दिला देते हैं तो अच्छा, न दिलाएं तो भी वे ही प्रमाण होते हैं। ४६२८. भोइय उत्तरउत्तर, नेयव्वं जाव पच्छिमो दाणं विसज्जणं वा विद्रुमदि इमं पहले भोजिक को, फिर देश के आरक्षक को यावद ', राया । होइ ॥ . Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक अंतिमरूप में राजा तक बात पहुंचानी चाहिए। वे वह निमित्त से चोर को जान लिया जाता है। इस प्रकार चोर ज्ञात संस्तारक दिला दे अथवा वे कहें-आप विहार कर जाएं। हो जाने पर वही यतना करनी चाहिए जो पिता-पुत्र के विषय हम संस्तारक को उसके स्वामी को सौंप देंगे। संस्तारक में है या अंतिम राजा को निवेदन करना चाहिए। स्तेनक को विनिर्दिष्ट कर लेने पर वे ऐसा कहेंगे अन्यथा ४६३४. विज्जादऽसई भोयादिकहण केण गहिओ न जाणऽम्हे। यह कहेंगे दीहो हु रायहत्थो, भद्दो आम ति मग्गति य॥ ४६२९.खंताइसिट्ठऽदिते, महतर किच्चकर भोइए वा वि। विद्या आदि न हों तो भोजिक आदि को कहना चाहिए, देसारक्खियऽमच्चे, करण निवे मा गुरू दंडो॥ हमारा संस्तारक कोई ले गया है, हम नहीं जानते किसने पिता आदि को कहे जाने पर भी यदि नहीं देता है तो लिया है? राजा का हाथ लंबा होता है। वह यदि गवेषणा करे ग्राममहत्तर-ग्रामप्रधान को कहे। कृत्यकर-ग्रामस्वामी को तो मिल सकता है। जो भोजिक भद्र होता है वह उसे ठीक कहे। वही भोजिक' होता है। फिर देश के आरक्षक, अमात्य, मानकर उसकी गवेषणा करता है। फिर न्यायालय में शिकायत करे, परंतु नृप तक न जाए। ४६३५.जाणह जेण हडो सो, कत्थ विमग्गामि णं अजाणतो। क्योंकि नृप का गुरुदंड होता है। इति पंते अणुसट्ठी-धम्म-निमित्ताइ तह चेव॥ ४६३०.एए उ दवावेती, अहव भणेज्जा स कस्स दायव्वो। जो भोजिक प्रान्त होता है, वह कहता है, उस संस्तारक ' अमुगस्स त्ति य भणिए, वच्चह तस्सऽप्पिणिस्सामो॥ चोर को लाओ। बिना चोर को जाने मैं उसकी खोज कैसे __ ये व्यक्ति वह संस्तारक दिला देते हैं या वे पूछते हैं- करूं? प्रान्त द्वारा यह कहने पर अनुशिष्टि, धर्मकथा तथा वह संस्तारक किसको देना है। अमुक को देना है यह कहने निमित्त आदि का प्रयोग करना चाहिए। पर वे कहते हैं-आप विहार करें। हम उसे संस्तारक अर्पित ४६३६.असतीय भेसणं वा, भीया वा भोइयस्स व भएणं। कर देंगे। साहित्थ दारमूले, पडिणीय इमेसु वि छुभेज्जा। ४६३१.जति सिं कज्जसमत्ती, वयंति इहरा उ घेत्तु संथारं। यदि भोजिक न हो तो साधु स्वयं व्यक्तियों को डराते हैं दिढे णाते चेवं, अदिट्ठऽणाए इमा जयणा॥ उस भय से स्तेन भयभीत होकर संस्तारक को द्वारमूल पर यदि उन साधुओं का उस संस्तारक से कार्य समाप्त हो लाकर रख देता है। जो प्रत्यनीक होता है वह यत्र-तत्र गया हो, मासकल्प पूरा हो गया हो तो भोजिक आदि द्वारा निक्षिप्त कर देता है। विसर्जित होने पर वे वहां से विहार कर दें अन्यथा दूसरा ४६३७.भोइयमादीणऽसती, अदवावेंते व बिति जणपुरओ। संस्तारक लेकर रहें। इस प्रकार संस्तारक के दृष्ट होने पर, मुज्झीहामो सकज्जे, किह लोगमयाइं जाणंता॥ स्तेन के ज्ञात होने पर विधि बतलाई गई है। अदृष्ट और भोगिक आदि के अभाव में, वे संस्तारक नहीं दिला पाते अज्ञात होने पर यह यतना है। तो साधु लोगों के समक्ष कहते हैं-हम लोकमत को जानते ४६३२.विज्जादीहि गवेसण, अद्दिद्वे भोइयस्स व कधेति। हुए अपने कार्य के प्रति कैसे मूढ़ हो सकते हैं? __ जो भद्दओ गवेसति, पंते अणुसट्ठिमाईणि॥ ४६३८.पेहुणतंदुल पच्चय, भीया साहति भोइगस्सेते। विद्या आदि से गवेषणा करनी चाहिए। अदृष्ट और साहत्थि साहरन्ति व, दोण्ह वि मा होउ पडिणीए॥ अज्ञात होने पर भोगिक को कहना चाहिए। जो भोगिक भद्रक भोगिक अपने आदमियों को कहता है-पेहुणतंदुल को होता है, वह स्वयं गवेषणा करता है, जो प्रान्त होता है वह पकाओ। लोग डरकर भोगिक को बता देते हैं कि इस व्यक्ति गवेषणा नहीं करता। फिर वहां अनुशिष्टि आदि का प्रयोग ने संस्तारक लिया है। भयभीत लोग इस आशंका से कि ये करना चाहिए। मुनि चोर को पहचान लेंगे। ये राजा को कहेंगे। राजा इनका ४६३३.आभोगिणीय पसिणेण देवयाए निमित्ततो वा वि। विश्वास कर लेगा। अतः वे संस्तारक की बात भोगिक को ___एवं नाए जयणा, स च्चिय खंतादि जा राया। बता देते हैं अथवा उपाश्रय के द्वार पर उसको स्थापित कर आभोगिनी विद्या का प्रयोग करना चाहिए। इसके जाप चले जाते हैं। अथवा दोनों वर्गों-हमारे या लोगों के प्रत्यनीक से चोर के मानस का भेद होता है। चोर पहचान लिया जाता न हों, यह सोचकर उस संस्तारक का संहरण कर वहां है। या अंगुष्ठ प्रश्न आदि से, या क्षपक द्वारा दृष्ट देवता से, स्थापित कर देते हैं। १. भोजिक और भोगिक एक हैं। २. आभोगिनी नाम विद्या सा भण्यते या परिजपिता सति मानसं परिच्छेदमुत्पादयति। (वृ. पृ. १२५०) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ४६३९.पुढवी आउक्काए, अगड वणस्स्इ-तसेसु साहरइ। __घित्तूण य दायव्वो, अदिट्ठ दड्ढे य दोच्चं पि॥ कोई प्रत्यनीक साधु उस संस्तारक को सचित्त पृथ्वीकाय पर, अप्काय पर, वनस्पतिकाय पर या त्रस प्राणियों पर अथवा गर्ता में निक्षिप्त कर देता है, इसलिए कि स्वामी वहां से ग्रहण न कर सके। वहां पर निक्षिप्त संस्तारक वहां से ग्रहण करके भी मूल स्वामी को देना चाहिए। गवेषणा करने पर भी न मिला अथवा जला दिया गया-इन दोनों अवस्थाओं में दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञापना लेनी चाहिए। ४६४०.दिद्रुत पडिहणेत्ता, जयणाए भद्दतो विसज्जेती। __ मग्गंते जयणाए, उवहिग्गहणे ततो विवाओ॥ दृष्टांत अर्थात् नोदक ने अपनी मति से जो अभिप्राय देखा है उसका निराकरण कर संस्तारक स्वामी के समक्ष यतनापूर्वक यथार्थ बात कहनी चाहिए। बात सुनकर वह भद्रक मुनियों से कहता है-आप जाएं। मैं कुछ भी नहीं कहूंगा। कोई प्रान्त संस्तारक स्वामी हो और वह संस्तारक की मार्गणा करे तो यतनापूर्वक प्रान्त उपधि देकर उसे संतुष्ट करना चाहिए। यदि वह बलपूर्वक सार-उपधि ग्रहण करता है तो राजकुल में विवाद ले जाना चाहिए। ४६४१.परवयणाऽऽउट्टेउं, संथारं देहि तं तु गुरु एवं। आणेह भणति पंतो, तो णं दाहं ण दाहं वा॥ यहां पर प्रेरक का कथन है कि उस प्रान्त संस्तारक स्वामी को धर्मकथा से अनुकूल करना चाहिए। यदि मुनि उस संस्तारक स्वामी को कहता है कि उस संस्तारक को हमें निर्देजरूप (अप्रत्यर्पणीयरूप) में दे दो। यह माया है। गुरु कहते हैं-इसका प्रायश्चित्त है-चतुर्गुरुक! प्रान्त स्वामी कहता है-वह संस्तारक लाओ, फिर देखूगा कि उसे दूं या न दूं। ४६४२.दिज्जंतो वि न गहिओ, किं सुहसेज्जो इयाणि सो जाओ। हिय नट्ठो वा नूणं, अथक्कजायाइ सूएमो॥ मैं उस समय संस्तारक दे रहा था, उस समय आपने लिया नहीं, क्या अब वह सुखशय्या हो गया है। इस अथक्कयांचा अकालप्रार्थना से यह अनुमान होता है कि वह नष्ट हो गया है अथवा अपहृत हो गया है। ४६४३.भद्दो पुण अग्गहणं, जाणंतो वा वि विप्परिणमेज्जा। किं फुडमेव न सीसइ, इमे हु अन्ने वि संथारा॥ जो भद्रक संस्तारक स्वामी होता है वह साधुओं की मायापूर्ण प्रवृत्ति से विपरिणत होकर अग्रहण-अनादर करता बृहत्कल्पभाष्यम् है। वह जानता है कि संस्तारक हृत या नष्ट हो गया है। परंतु मुनियों द्वारा माया किए जाने पर वह विपरिणत हो जाता है और कहता है-आप स्पष्टतया हमें क्यों नहीं कहते कि संस्तारक हृत या नष्ट हो गया है ? मायापूर्वक याचना क्यों करते हैं? ये तथा अन्य संस्तारक भी हैं। ४६४४.इइ चोयगदिद्वंतं, पडिहतुं सिस्सते से सम्भावो। भद्दो सो मम नट्ठो, मग्गामि न तो पुणो दाहं।। इस प्रकार नोदक दृष्टांत अर्थात् पराभिप्राय का खंडन कर संस्तारक स्वामी को सद्भाव का कथन करते हैं। भद्रक तब कहता है-वह संस्तारक मेरा नष्ट हुआ है, आपका नहीं। आज से मैं उसे नहीं मांगूंगा। यदि वह मिल गया तो मैं उसे पुनः आपको ही दूंगा। ४६४५.तुब्भे वि ताव मग्गह, अहं पि झोसेमि मग्गह व अन्नं । नढे वि तुब्भऽणट्ठा, वदंति पंतेऽणुसट्ठादी॥ वह कहता है-आप भी उसकी खोज करें। मैं भी 'झोसेमि' अन्वेषण कर रहा हूं। आपको संस्तारक का प्रयोजन भी है, इसलिए आप दूसरा संस्तारक ले लें। प्रान्त कहता है, आप कहते हैं हमारा संस्तारक नष्ट नहीं हुआ है, परंतु उस संस्तारक को लाएं या उसका मूल्य चुकाएं। तब प्रान्त के प्रति अनुशिष्टि आदि का प्रयोग करना चाहिए। ४६४६.मोल्लं णत्थऽहिरण्णा, उवधिं मे देह पंतदायणया। अन्नं व देति फलगं, जयणाए मग्गिउं तस्स॥ तब कहे-हम अहिरण्य हैं। हमारे पास मूल्य नहीं है। वह कहता है-मुझे उपधि दो। तब उसे उस साधु के अन्तप्रान्त उपधि बताने चाहिए। अन्य फलक यतनापूर्वक लाकर देना चाहिए। ४६४७.सव्वे वि तत्थ रुंभति, भद्दो मुल्लेण जाव अवरहे। एगं ठवेउ गमणं, सो वि य जावऽट्ठमं काउं॥ कोई समर्थ हो तो वह सभी साधुओं को रोक देता है। जो कोई भद्रक श्रावक मूल्य देकर छुड़ाता है तो उसका प्रतिषेध नहीं करना चाहिए। यदि मुक्त नहीं करता है तो अपराह्न तक सभी मुनि वहीं रहे। यदि नहीं छोड़ता है तो एक क्षपक को वहां रखकर सभी चले जाएं। ऐसे को वहां स्थापित करना चाहिए जो अष्टम कर सकता है। वह अष्टम कर चला जाता है। ४६४८.लद्धे तीरियकज्जा, तस्सेवऽप्येति अहव भुंजंति। पभुलद्धे वसमत्ते, दोच्चोग्गह तस्स मूलाओ। संस्तारक प्राप्त हो जाने पर मुनि का प्रयोजन समाप्त हो जाता है। वे उस संस्तारक के मूल स्वामी को अर्पित कर देते हैं। अथवा उस संस्तारक का उपभोग करते हैं। जब Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ तीसरा उद्देशक = संस्तारक स्वामी को वह संस्तारक प्राप्त हुआ हो, साधुओं का कार्य अभी तक असमाप्त है तो दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञापना दी जाती है। यह सूत्रोक्त द्वितीय अवग्रह है। ४६४९.बितियं पभुनिव्विसए, णट्टट्ठिय सुन्न मयमणप्पज्झे। असहू य रायदुढे, बोहिकभय सत्थ सीसे वा॥ यहां अपवादपद यह है-संस्तारक स्वामी को राजा ने देश से निकाल दिया, देश नष्ट हो गया, दुर्भिक्ष हो गया, घर शून्य कर कहीं चला गया, मर गया हो, साधु खोजने में असमर्थ हो, राजद्विष्ट हो गया हो, बोधिक भय, या अध्वशीर्षक-अटवी के कारण सार्थ के वशीभूत हो गया हो इन कारणों से वह मुनि संस्तारक की गवेषणा नहीं करता, वह प्रायश्चित्त का भागी भी नहीं होता। ओग्गह-पदं जद्दिवसं समणा निग्गंथा सेज्जासंथारयं विप्पजहंति, तद्दिवसं अवरे समणा निग्गंथा हव्वमागच्छेज्जा, सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइअहालंदमवि ओग्गहे। (सूत्र २८) वादी मुनि दूसरे वादी का निग्रह करता है। इस प्रकार के उपक्रमों से प्रभावित होकर प्रव्रज्या के लिए प्रस्तुत होते हैं। ४६५२.नीरोगेण सिवेण य, वासावासासु णिग्गया साहू। अण्णे वि य विहरंता, तं चेव य आगया खित्तं॥ कई मुनि स्वस्थ रहकर, बिना किसी उपप्लव के वर्षावास बिता कर उस क्षेत्र से विहार कर देते हैं। अन्य मुनि भी विहार करते हुए उसी क्षेत्र में आ गए। ऐसी स्थिति में अवग्रह का चिंतन होता है। ४६५३.खित्तोग्गहप्पमाणं, तदिवसं केति केतऽहोरत्तं। जं वेल णिग्गयाणं, तं वेलं अण्णदिवसम्मि॥ कुछ आचार्य क्षेत्रावग्रह का कालप्रमाण इस प्रकार बताते हैं-जिस दिन साधु गए, वही एक दिन। कुछ आचार्य अहोरात्र तक अवग्रह। आचार्य कहते हैं-ये दोनों अनादेश हैं। विधि यह है-जिस वेला में वे गए, दूसरे दिन उसी वेला तक उनका अवग्रह रहता है। ४६५४.खेत्तम्मि य वसहीय य, उग्गहो तहिं सेहमग्गणा होइ। ते वि य पुरिसा दुविहा, रूवं जाणं अजाणं च। __ अवग्रह क्षेत्रसंबंधी भी होता है और वसति संबंधी भी होता है। वहां शैक्ष की मार्गणा होती है। उस क्षेत्र में प्रव्रजित होने वाले पुरुष दो प्रकार के होते हैं-एक प्रकार के पुरुष वे होते हैं जो रूप को जानते हैं (पहचानते हैं), और एक प्रकार के वे पुरुष होते हैं, जो रूप को नहीं जानते। ४६५५.जाणंतमजाणंता, चउव्विहा तत्थ होति जाणंता। उभयं रूवं सई, चउत्थओ होइ जसकित्तिं॥ शैक्ष दो प्रकार के होते हैं जानने वाले और नहीं जानने वाले। जानने वाले चार प्रकार के होते हैं-एक शैक्ष विवक्षित क्षेत्र में स्थित आचार्य के रूप और शब्द-दोनों को जानता है, दूसरा रूप को जानता है शब्द को नहीं, तीसरा न शब्द को जानता है और न रूप को, चौथा उनकी यश-कीर्ति को जानता है। ४६५६.उच्चार-चेइगातिसु, पासति रूवं विणिग्गयस्सेगो। रत्तिं उविंत शिंतो, कासगमादी सुणति सई। ४६५७.चउत्थो पुण जसकित्तिं, सुणेइ सग्गाम-वसभवासी वा। उभयं रूवं सई, कित्तिं च ण जाणते चरिमो॥ वास्तव्य शैक्ष पांच प्रकार के होते हैं१. आचार्य उच्चारभूमी तथा चैत्यवंदन आदि के लिए बाहर जाते हैं, तब वह उनके रूप को देखता है, शब्दों से उनको नहीं जानता। ४६५०.उग्गह एव उ पगतो, सागारियउग्गहाउ साहम्मी। रहितं व होइ खित्तं, केवतिकालेस संबंधो॥ प्रस्तुत सूत्र में अवग्रह ही प्रस्तुत है। पूर्वसूत्रद्वय में सागारिक अवग्रह कथित है। प्रस्तुत में सागारिक अवग्रह के अनन्तर साधर्मिक अवग्रह कहा जा रहा है। अथवा पूर्वसूत्र में यह कहा गया है कि संस्तारक को संभला कर विहार करना चाहिए, यहां यह प्रतिपाद्य है कि साधुओं के विहार कर देने पर भी वह साधुओं से विरहित क्षेत्र कितने समय तक अवग्रहयुक्त होता है, यह निरूपित है। यही पूर्वसूत्र से संबंध है। ४६५१.सुत्त-उत्थ-तदुभयविसारए य खमए य धम्मकहि वाई। कालदुअम्मि वसंते, उवसंतो स-अण्णगामजणो॥ सचित्त विषयक अवग्रह (शैक्ष विषयक) की उत्पत्तिकिसी क्षेत्र में साधु दोनों कालों ऋतुबद्ध और वर्षावास में रहते हैं। स्वग्रामजन या अन्यग्रामजन उनके प्रवचनों से उपशांत-प्रतिबुद्ध होते हैं। क्योंकि सूत्र, अर्थ और तदुभय के विशारद आचार्य विशिष्ट व्याख्यान करते हैं। कोई क्षपक, तपस्या करता है। कोई धर्मकथी धर्मकथा करता है। कोई Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। ४८० बृहत्कल्पभाष्यम् २. दूसरा शैक्ष भी उनको रूप से जानता है, शब्द से किसी को प्रव्रजित किया। वह किसका आभाव्य होगा? वहां नहीं, क्योंकि वह कभी उपाश्रय में नहीं जाता। शिष्य विषयक दो प्रकार की मार्गणा होती है-सज्ञातक और ३. तीसरे प्रकार का शैक्ष कोई कृषक है। वह पूरा दिन असज्ञातक। प्रतीच्छक शिष्य विषयक मार्गणा एक प्रकार की अपने खेत में बिताता है और रात्री में लौटते समय होती है-सज्ञातक विषयक। भगवान् द्वारा प्रतिषिद्ध शैक्ष को अथवा प्रभात में पुनः खेत में जाते समय शब्द सुनता प्रव्रजित कर अन्यत्र प्रेषित करने पर क्या विधि है? है, परन्तु वह रूप से परिचित नहीं होता। संकेतदत्त शैक्ष के लिए क्या विधि होती है? ४. चौथे प्रकार का शैक्ष स्वग्राम में रहता हुआ अथवा (इन सारे तथ्यों का विस्तार से वर्णन आगे की गाथाओं प्रतिवृषभ ग्राम में रहता हुआ न रूप से और न शब्द में।) से परिचित होता है, परन्तु वह आचार्य की ४६६३. चत्तारि णवग जाणंतगम्मि जाणाविए वि चत्तारि। यशःकीर्ति को सुनता है, उससे वह परिचित होता अभिधारणम्मि एए, खित्तम्मि विपरिणया वा वि॥ इससे पूर्व चार प्रकार के ज्ञायक शैक्ष बताए गए हैं।' ५. पांचवें प्रकार का शैक्ष वह होता है जो न रूप को (रूप, शब्द आदि को जानने वाले)। प्रत्येक चार प्रेषण जानता है, न शब्द को जानता है और न यशःकीर्ति विषयक होने पर नवक हो जाते हैं। जो शैक्ष नहीं जानता, को जानता है, परंतु वह घर से निर्विण्ण होकर उसको साधु कहते हैं-तुम हमारे आभाव्य नहीं हो, किन्तु प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता है। पूर्व साधुओं के आभाव्य हो, इस प्रकार ज्ञापित होने पर भी ४६५८.वायाहडो वि एवं, पंचविहो होइ आणुपुव्वीए। चार नवक होते हैं। अभिधारण का अर्थ है-मन में करना। एएसिं सेहाणं, पत्तेयं मग्गणा इणमो॥ यदि क्षेत्रिक आचार्य को मन में करके ये अव्याघात आदि वाताहृत शैक्ष अर्थात् आगंतुक शैक्ष भी क्रमशः पांच शिष्य आते हैं और वे विपरिणत होने पर भी क्षेत्रस्वामी के ही प्रकार के होते हैं। इन दसों प्रकार के शैक्षों की, प्रत्येक की, आभाव्य होते हैं। इन द्वारों से मार्गणा-विचारणा होती है। ४६६४.पियमप्पियं से भावं, दट्ठ पुच्छित्तु तस्स साहति। ४६५९.अव्वाघाए पुणो दाई, जावज्जीव पराजिए। कत्थ गता ते भगवं, पुट्ठा व भणंति किं तेहिं।। पढम-बिइयदिवसेसुं, कहं कप्पो उ जाणते॥ क्षेत्रवासी मुनि विहार कर गए और दूसरे मुनि वहां आ ४६६०.जाणाविए कहं कप्पो, वत्थव्वे वाताहडे ति य। गए। कोई उभयज्ञ शैक्ष प्रव्रजित होने की इच्छा से वहां आता उज्जू अणुज्जुए या वि, कहं कप्पोऽभिधारणे॥ है। साधु उसके प्रिय-अप्रिय भावों को देखकर पूछते हैं। वह ४६६१.एगग्गामे अतिच्छंते, कहं कप्पो विहिज्जते। सारी बात बताता है। वे कहते हैं वे साधु तो विहार कर दुविहा मग्गणा सीसे, एगविहा य पडिच्छए॥ गए। वह पूछता है-कहां गए हैं वे? ऐसा पूछने पर वे साधु ४६६२.पडिसेहियवच्चंते, कहं कप्पो विहिज्जइ। कहते हैं-उनसे तुम्हारा क्या प्रयोजन है? तब वह कहता है संगारदिण्णते यावि, कहं कप्पो विहिज्जइ॥ ४६६५.पव्वइहं ति य भणिते,अमुगत्थ गया वयं ति दिक्खेउ। द्वार इन चार गाथाओं में कथित हैं-अव्याघात, पुणो तेसि समीवं णेमो, ण य वाहणते तयं सो य॥ दाई-जब वे साधु पुनः आयेंगे तब प्रव्रज्या लूंगा, यावज्जीवन मैं दीक्षा लेना चाहता हूं। तब वे मुनि कहते हैं-वे पराजित, पहले और दूसरे दिन प्रव्रज्या के लिए उपस्थित साधु तो अमुक गांव में चले गए। हम तुमको प्रव्रजित कर ज्ञायक शैक्ष के लिए किस प्रकार से कल्प-विधि होती है। उनके पास ले जायेंगे। वह उनके इस वचन का खंडन नहीं वास्तव्य और वाताहत शैक्ष जो आचार्य के नाम को जानते करता, उसको स्वीकार कर लेता है। यह अव्याघात का हैं, उनका कल्प क्या है? ऋजु आचार्य वह होता है जो इन । उदाहरण है। शैक्षों को पूर्व साधुओं के समीप भेज देता है। इससे विपरीत ४६६६.संघाडग एगेणं, पंथुवएसे व मुंडिए तिण्णि। होता है अऋजु आचार्य। शैक्ष एक या अनेक साधुओं से इइ तरुण मज्झ थेरे, एक्कक्के तिन्नि नव एते॥ प्रव्रज्या-ग्रहण के लिए अभिधारणा कर जाता है तो वहां वे मुनि उसे दीक्षित कर एक संघाटक के साथ क्षेत्रिकों के आभाव्य, अनाभाव्य की विधि क्या है? पास भेज देते हैं। यदि संघाटक न हो तो एक साधु के साथ किसी ग्राम में क्षेत्रिक साधु हैं। वहां किसी धर्मकथी ने उसे भेजते हैं। यदि यह भी संभव न हो तो उसे अकेले मार्ग १. गाथा ४६५६ तथा ४६५७ में पांच प्रकार के शैक्ष बताए गए हैं। उनमें प्रथम चार ज्ञायक होते हैं। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक का उपदेश देकर भेज देते हैं ये तरुण मुनि के तीन प्रकार हैं। मध्यम और स्थविर मुनियों के भी ये ही तीन-तीन प्रकार होते हैं। ये कुल मिलाकर नौ हो जाते हैं। यह पहला नवक है। ४६६७. पढमदिणे सग्गामे, एगो णवगो बितिज्जए बितिओ। एमेव परम्गामे, पढमे बितिए य बे णवगा ॥ यह प्रथम नवक प्रथम दिन स्वग्राम में प्रव्रजित कर भेजने पर होता है। दूसरे दिन इसी प्रकार दूसरा नवक। इस प्रकार स्वग्राम में दो नवक होते हैं। इसी तरह परग्राम में भी दो नवक होते हैं। अतः ये चार नवक मुंडित कर भेजने पर होते हैं। ४६६८. एमेव अमुंडस्स वि, चउरो णवगा हवंति कायव्वा । एमेव य इत्थीण वि, णवगाण चउक्कगा दुण्णि ॥ इसी प्रकार अमुंडित कर भेजने पर भी चार नवक होते हैं। इस प्रकार ये दो नवक-चतुष्टय पुरुषों के कहे गए हैं। स्त्रियों के भी दो नवक चतुष्टय कर्त्तव्य हैं। यदि क्षेत्रिकों के पास न भेजकर स्वयं स्वीकार करते हैं तो उसका प्रायश्चित्त है चतुर्गुरुक। ४६६९. सागारियर्सकाए, णिच्छति घिच्छंति वा सयं मा मे ते व व अदनं पुणरवि, पच्चेहममंडितो एवं ॥ शैक्ष अपने गांव में प्रव्रज्या ग्रहण करना इसलिए नहीं चाहता कि सागारिक-सज्ञातकों की उसे आशंका रहती है कि कहीं वे उसे उत्प्रव्रजित न कर दें अथवा ये मुनि मुझे प्रव्रजित कर अपने ही पास न रख लें यदि मैं उन साधुओं को न देख लूं तो मैं पुनः प्रत्यागमन कर लूंगा- इन सारे कारणों से वह अपने आपको मुंडित नहीं करता। अतः अमंडित को भेजते हैं। ४६७०. एसेब य णवगकमो सदं एवं व होइ जाणते। जो पुण कित्तिं जाणति, ण ते वयं सिस्सते तस्स ॥ जो शैक्ष शब्द या रूप को जानता है उसके प्रति ही यह नवक का क्रम होता है जो शैक्ष केवल कीर्ति को जानता है उसे वे मुनि कहते हैं-हम नहीं जानते कि तुम किसके पास प्रव्रजित होना चाहते हो । ४६७१. किं व न कप्पइ तुब्भं, दिक्खेउं तेसि तं ण अम्हं ति । तत्थ वि सो चेव गमो, णवगाणं जो पुरा भणितो ॥ तब वह शैक्ष कहता है- क्या आपको प्रव्रज्या देना नहीं कल्पता ? तब वे साधु कहते हैं तुम उनके ही आभाव्य हो, हमारे नहीं तब वह कहता है यदि ऐसा है तो आप मुझे १. श्वः कार्यमय कुर्वीत पूर्वा अपराहिकम्। कोहि तद्वेत्ति कस्याद्य, मृत्युसेनाऽापतिष्यति ॥ ( वृ. पृ. १२६० ) ४८९ प्रव्रज्या देकर वहां भेज दें अथवा अमुंडित ही मुझे विसर्जित कर दें। इसमें भी वही क्रम है, जो पूर्व में नवक विषयक कहा गया है। ४६७२. विप्परिणया वि जति ते, अम्हे तुझं भणतऽलं तेहिं । तह वि य ण वि ते तेसिं, अव्वाहयमादिया होंति ॥ वे अव्याघात से वाताकृत पर्यन्त शैक्ष पूर्व साधुओं से विपरिणत होकर कहते हैं-हम आपके पास प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे, पूर्व साधुओं से अब कोई प्रयोजन नहीं। ऐसा कह पर भी वे सारे अव्याघात आदि शैक्ष उनके नहीं होते, वे पूर्व साधुओं के ही आभाव्य होते हैं। ४६७३. एहिंति पुणो दाई, पुट्ठे सिद्वंसि ईय भणमाणा । बहुदोसे माणुस्से, अणुसासण णवग तह चेव ॥ शैक्ष आगंतुक साधुओं के पास आकर पूछते हैं - वे साधु कहां गए? अमुक गांव में गए हैं, ऐसा कहने पर वे कहते हैं-वे पुनः यहां आएंगे तब हम उनके पास दीक्षित हो जायेंगे । इस प्रकार कहने पर उनको कहना चाहिए - मनुष्य जन्म बहुत अंतराय वाला है। प्रमाद मत करो। इस प्रकार अनुशासन कर नवक के प्रकार से उनको प्रेषण करना चाहिए । ४६७४. जं कल्ले कायव्यं णरेण अज्जेव तं वरं काउं मच्चू अकलुणहिअओ न हु दीसइ आवयंतो वि ॥ वे साधु उन शैक्षों को कहते हैं मनुष्य को जो कल करना है, उसे आज ही करना श्रेष्ठ है मृत्यु करुणाहीन हृदयवाली होती है, वह कब कैसे आती है, किसी को दिखाई नहीं देती। - ४६७५. तूरह धम्मं काउं, मा हु पमायं खणं पि कुब्वित्था । बहुविग्धो हु मुहुत्तो, मा अवरहं पडिच्छाहि ॥ भव्य प्राणियो ! धर्म करने के लिए जल्दी करो। क्षणभर के लिए प्रमाद मत करो। मुहूर्तमात्र भी विघ्न बहुल होता है इसलिए प्रव्रज्या आदि के लिए अपराह्न की भी प्रतीक्षा मत करो। ४६७६. बहुसो उवट्ठियस्सा, विग्घा उट्ठिति जज्जिय जितो मि । अणुसासण पत्थवणं, णवगा य भवे समुंडियरे ॥ कोई शैक्ष कहता है-मैं अनेक बार प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उपस्थित हुआ। परंतु नए-नए विघ्न उपस्थित होते रहे। मैं यावज्जीवन विघ्नों से पराजित होता रहा हूं। उसे अनुशासन- शिक्षा देनी चाहिए कि भद्र! अब तेरे चरित्र के आवारक कर्मों का अनुदय है। शीघ्रता से दीक्षा ले लो। क्षेत्रिक आचार्य का इन्तजार मत करो। यह कहकर प्रस्थापना Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ बृहत्कल्पभाष्यम् शैक्ष के भी दो द्वादशक होते हैं। उनमें भी ज्ञायक और ज्ञापित-प्रत्येक के विकल्प करने पर चार द्वादशक होते हैं। ४६८३.अव्वाहए पुणो दाति, जावज्जीवपरादिए। तद्दिण बीयदिणे या, सग्गामियरे य बारसहा।। अव्याहत, पुनः आने पर प्रव्रजित होऊंगा तथा यावज्जीव-पराजित-ये तीनों प्रकार के शैक्षों को उस दिन या दूसरे दिन न भेजन के छह प्रकार होते हैं। स्वग्राम और परग्राम के कारण बारह प्रकार के होते हैं। ४६८४.जाणंतमजाणते, णेइ व पेसेइ वा अमाइल्लो। सो चेव उज्जुओ खलु, अणुज्जुतो जो ण अप्पेति॥ जो अमायावी आचार्य होता है वह जानता हुआ या न जानता हुआ शैक्षों को क्षेत्रिकों के पास ले जाता है या उनको भेजता है। वही ऋजुक कहलाता है। अऋजु वह है जो न उन शैक्षों को क्षेत्रिक मुनियों को अर्पित करता है और न उनको वहां भेजता है। करनी चाहिए। इसमें मुंडित और इतर-प्रत्येक के चार नवक होते हैं। ४६७७.वाताहडे वि णवगा, तहेव जाणाविए य इयरे य। एमेव य वत्थव्वे, णवगाण गमो अजाणते। वाताहत शैक्ष दो प्रकार के होते हैं-ज्ञापित और इतर। जो क्षेत्रिक साधुओं की यशःकीर्ति को भी नहीं जानता उसे आगंतुक साधु कहते हैं-तुम हमारे आभाव्य नहीं हो। जो यहां से विहार कर गए उनके आभाव्य हो। इस प्रकार यथार्थ बात कहने पर वह ज्ञापित कहलाता है। इतर अर्थात् यशःकीर्तिज्ञ। इनमें भी नवक होता है और वास्तव्य शैक्ष भी जो क्षेत्रिकों की यशःकीर्ति को नहीं जानता उसमें भी नवकों का प्रकार जानना चाहिए। ४६७८.वत्थव्वे वायाहड, सेवग परतित्थि वणिय सेहे य। सव्वेते उज्जुगो अप्पिणाइ मेलाइ वा जत्थ॥ वास्तव्य या वाताहृत शैक्ष जो राजकुल का सेवक हो, जो परतीर्थिक हो या वणिक् हो-ये गुरु की यशःकीर्ति को नहीं जान पाते। जो आगंतुक आचार्य ऋजु होते हैं वे इन सबको क्षेत्रिक आचार्य को अर्पित कर देते हैं या जहां वे होते हैं वहां इनको प्रेषित कर देते हैं। ४६७९.माइल्ले बारसगं, जाग जाणाविए य चत्तारि। वत्थव्वे वायाहड, ण लभति चउरो अणुग्घाया॥ जो मायावी होता है, वह नहीं भेजता। उसके बारह प्रकार आगे बताए जायेंगे। ज्ञायक और ज्ञापित को समुदित करने पर चार प्रकार होते हैं। वास्तव्य और वाताहृत शैक्ष को न भेजने पर चार अनुद्घातमास का प्रायश्चित्त है। ४६८०.सत्तरत्तं तवो होती, ततो छेदो पहावई। छेदेण छिण्णपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं॥ सात दिनों तक तप, उसके पश्चात् छेद, छेद के द्वारा अच्छिन्न पर्यायवाले मुनि को मूल, तदनन्तर द्विक अर्थात् अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है। ४६८१.तरुणे मज्झिम थेरे, तद्दिण बितिए य छक्कगं इक्कं । एमेव परग्गामे, छक्वं एमेव इत्थीसु॥ ४६८२.पुरिसित्थिगाण एते, दो बारसगा उ मुंडिए होति। एमेव य ससिहम्मि य, जाणग जाणाविए भयणा॥ तरुण, मध्यम और स्थविर-प्रत्येक को उस दिन या दूसरे दिन न भेजने पर एक प्रकार का षट्क होता है। यह स्वग्रामविषयक है। परग्राम विषयक भी यही षट्क है। सभी बारह प्रकार के षट्क पुरुष विषयक है तथा स्त्रीविषयक भी बारह प्रकार के षट्क होते हैं। ये दो द्वादशक पुरुष और स्त्रीयों के मुंडित विषय में होते हैं। इसी प्रकार शिखावाले मि आगतो दिक्खितो बला हिं। अम्हे किमपव्वइया, ___पुट्ठा व ण ते परिकहेंसु॥ कहीं क्षेत्रिक आचार्य मिलने पर वे शैक्ष को पूछते हैंतुमने प्रव्रज्या कहां-कैसे ली? वह कहता है-मैं तो आपकी निश्रा में ही आया था। परन्तु इन मुनियों ने मुझे बलात् दीक्षित कर दिया। इन्होंने कहा-क्या हम प्रव्रजित नहीं जो तुम उनको पूछते हो, अथवा बिना पूछे वे कुछ नहीं कहते। ४६८६.वायाहडो तु पुट्ठो, भणाइ अमुगदिण अमुगकालम्मि। एतेहिं दिक्खितोऽहं, तुम्हे वि सुणामि तत्थाऽऽसी॥ वाताहृत शैक्ष को पूछने पर कहता है-अमुक दिन और अमुककाल में मैं इनके द्वारा दीक्षित हुआ। दीक्षित होने के पश्चात् सुना कि आप भी वहीं थे। ४६८७.एमेव य जसकित्तिं, जाणतो जो य तं ण जाणाति। तस्स वि तहेव पुच्छा, पावयणी वा जदा जातो॥ इस प्रकार यशःकीर्ति को जानने वाले शैक्ष अथवा नहीं जानने वाले शैक्ष को पूछने पर ही ज्ञात होता है। जब यह प्रावचनिक बहुश्रुत हुआ तब स्वतः जान लेता है कि यह शैक्ष हमारा आभाव्य नहीं है। ४६८८.एमेव य अच्चित्ते, दुविहे उवधिम्मि मीसते चेव। पुच्छा अपुव्वमुवहिं, दट्ठण अणुज्जुभूयाणं॥ पूर्व में सचित्त शैक्ष विषयक विधि बतलाई गई है। इसी प्रकार अचित्त के दो भेद हैं-ओघोपधियुक्त तथा औपग्रहोपधियुक्त। इन उपधियों से मिश्रक होने पर सोपधिक Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक शैक्ष कहा जाता है। अपूर्व उपधियुक्त शैक्ष को देखकर, अऋजु आचार्य पूछते हैं कब कहां तुम क्षेत्रिक आचार्य को प्राप्त कर सकोगे ? ४६८९. एवं वासावासे, उडुबद्धे पंथे जत्थ वा ठाति । सव्वत्थ होति उग्गहो, केसिंचि पतीवदितो ॥ यह वर्षावास या ऋतुबद्धकाल की सचित्तविषयक विधि जाननी चाहिए। अचित्त विषयक विधि यह है- वर्षावास, ऋतुबद्धकाल, मार्गगमन में, जहां आचार्य ठहरते हैं, वहां सर्वतः सक्रोशयोजन का अवग्रह होता है। कुछ आचार्य मानते हैं कि मार्ग में जाते समय पृष्ठतः अवग्रह नहीं होता। यह अनादेश है। यहां प्रदीप का दृष्टांत वक्तव्य है। प्रदीप सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार अवग्रह भी सर्वतः होता है। ४६९०. अक्खित्ते वसधीए, जाणग जाणाविए वि एमेव । उज्जुगमणुज्जुगे या, सो चेव गमो हवइ तत्थ ॥ अक्षेत्र अर्थात् इन्द्रकीलादियुक्त नगर में सक्रोश योजन का अवग्रह नहीं होता वहां जिस वसति में जो मुनि स्थित होते हैं, वहां जो सचित्त आदि आता है वह उनका आभाव्य होता है, पश्चात् आने वालों का नहीं। जो गम क्षेत्र विषयक कहा है वही गम ज्ञायक, ज्ञापित, ऋजुक, अऋजुक विषयक जानना चाहिए। ४६९१. अणिदिट्ठ सण्णऽसण्णी, णिद्दिट्ठ लिंगसहितो, सण्णी तस्सेव उण्णस्स ॥ अभिधारण का अर्थ है - प्रव्रज्या के लिए आचार्य का मन में संकल्प करना। उसके दो प्रकार हैं-निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट | अभिधारक के दो प्रकार है-संती और असंज्ञी। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-गृहीतलिंग और अगृहीतलिंग | इस प्रकार सारा ओघतः स्वच्छंद आभाव्य होता है जिसके पास प्रव्रजित होता है उसी का आभाव्य होता है। निर्दिष्ट अभिधारण का अर्थ है-अमुक आचार्य के पास मैं प्रव्रजित होऊंगा, ऐसा निर्देश करना यह भी दो प्रकार का है-संज्ञी और असंज्ञी प्रत्येक के दो-दो प्रकार है-लिंगसहित और लिंगरहित जिस लिंगसहित संज्ञी धर्माचार्य को अभिधारण कर चलता है, वह उसीका आभाव्य होता है, दूसरे का नहीं। ४६९२. निद्दि अस्सण्णी, गहिया ऽगहिए य अगहिए सण्णी । महिता गहिए य ओह सच्छंदो तस्सेव अविपरिणते, विपरिणते जस्स से इच्छा ॥ जो असंज्ञी गृहीतलिंग हो या अगृहीतलिंग, जो संज्ञीश्रावक होये तीनों अविपरिणत भाव से किसी निर्दिष्ट ४८३ आचार्य की अभिधारणा करते हैं वे उसी के आभाव्य होते हैं। उसके प्रति उनका भाव विपरिणत हुआ है, जिसके पास वे प्रव्रज्या लेना चाहते हैं, उसीके वे शिष्य होते हैं। ४६९३. चारिय समुदाणट्टा, तेणग गिहिपंत धम्मसड्डा वा । एएहिं लिंगसहितो, सण्णी व सिया असण्णी वा ॥ वेलिंगसहित इसलिए जाते हैं कि चारिक गुप्तचारों को उनके प्रति शंका न हो तथा समुदान- भिक्षा की कठिनाई न हो । अपान्तराल में स्तेन, गृहिप्रान्त, धर्म- श्रद्धालु आदि है तो संज्ञी या असंज्ञी लिंगसहित जाता है। ४६९४. गा उद्दिस्स गतो, लिंगेणऽप्फालितो तु एक्केणं । दडुं च अचक्खुस्सं, णिद्दिट्ठण्णं गतो तस्स ॥ अनेक आचार्यों को उद्दिष्ट कर लिंगसहित गया। एक आचार्य ने उसे आस्फालित सादर आमंत्रित किया और वह यदि उसके पास गया तो वह उसी का शिष्य हो गया । अभावित होने पर भी अचक्षुष्यं अनिर्दिष्ट को देखकर निर्दिष्ट की भांति अन्य को प्राप्त होता है तो वह उसी का आभाव्य हो जाता है। ४६९५ निहिमणिदि, अब्भुवनय लिंगि नो लभह अण्णो । लिंगी व अलिंगी वा स च्छंदेण अणिद्दिट्ठो ॥ निर्दिष्ट अथवा अनिर्दिष्ट आचार्य की अभिधारणा कर लिंगसहित शैक्ष जाता है, वह उसी का आभाव्य होता है। अन्य को वह प्राप्त नहीं होता। जो अनिर्दिष्ट की अभिधारणा करता है, वह लिंगी हो या अलिंगी वह जिसको चाहता है उसी का आभाव्य होता है। ४६९६. एमेव असिहसण्णी, णिद्विस्सुवगतो ण अण्णस्स । अब्भुवगतो विससिहो, जस्सच्छति दो व अस्सण्णी ॥ इसी प्रकार अशिखाक संज्ञी भी निर्दिष्ट का आभाव्य होता है, दूसरे का नहीं। जो सशिखाक संज्ञी है, वह किसी आचार्य के पास गया परन्तु बाद में विपरिणत हो गया तो जिसके वास प्रव्रज्या लेना चाहता है, उसीका आभाव्य होता है । सशिखाक और अशिखाक दोनों असंज्ञी हैं उन्होंने किसी आचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण करने की स्वीकृति दी, परन्तु बाद में विपरिणत होकर, स्वच्छंदरूप से जहां प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, उसीके वे आभाव्य होते हैं। ४६९७. निदिनु सन्नि अन्भुवगतेतरे अड्ड लिंगिणो भंगा। एवमसि वि ससिहे, वि अट्ठ सव्वे वि चउवीसं ॥ कोई संज्ञी-श्रावक किसी आचार्य को निर्दिष्ट कर प्रव्रज्या के लिए जाता है। इन तीन पदों तथा इतर अर्थात् . Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ बृहत्कल्पभाष्यम् प्रतिपक्ष पदों के आधार पर आठ विकल्प होते हैं। इसी ४७०२.मग्गंतो अन्नखित्ते, अभिधारंतो उ भावतो तस्स। प्रकार सशिखाक और अशिखाक के भी आठ-आठ खित्तम्मि खित्तियस्सा, बाहिं वा परिणतो तस्स॥ विकल्प होते हैं। सभी विकल्पों को मिलाने पर २४ विकल्प कोई शैक्ष आचार्य को खोजता हुआ अन्य क्षेत्र में जाता हो जाते हैं। है। वहां कोई धर्मकथी मिल जाता है। वह उसको आकृष्ट ४६९८.पढम-बिति-ततिय-पंचम-सत्तम-नव-तेरसेसु भंगेसु। करने के लिए कुछ कहता है, परन्तु वह उसका आभाव्य विप्परिणतो वि तस्सेव होइ सेसेसु सच्छंदो॥ नहीं होता। यदि वह धर्मकथी स्वभावतः कुछ कहता है तो __ इन विकल्पों में पहला, दूसरा, तीसरा, पांचवां, सातवां, वह धर्मकथी का आभाव्य हो जाता है। यदि क्षेत्र के भीतर नौवां और तेरहवें विकल्प में विपरिणत होने पर भी जिस उसे कुछ कहता है तो वह क्षेत्रिक का आभाव्य होता है आचार्य को निर्दिष्ट कर आया है, जिसको वह प्रास हुआ है, और क्षेत्र के बाहर धर्मकथी का आभाव्य होता है। क्षेत्र में उसी का आभाव्य होता है। शेष विकल्पों-चौथे, छठे, परिणत हुआ है तो क्षेत्रिक का आभाव्य है और बाहर आठवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, चौदहवें से चौबीसवें परिणत हुआ है तो धर्मकथी का आभाव्य है। विकल्प पर्यन्त अर्थात् इन सतरह विकल्पों में, उसकी ४७०३.अभिधारितो वच्चति, पुच्छित्ता साह वच्चतो तस्स। अपनी इच्छा है, जिसको वह चाहता है, उसीका आभाव्य ___ परिसागतो व कहई, कड्ढणहेउं न तं लभति॥ होता है। किसी आचार्य की अभिधारणा कर शैक्ष जा रहा है। मार्ग ४६९९.सव्वो लिंगी असिहो, में किसी साधु ने पूछा और उसको आकर्षित करने के लिए य सावतो जस्स अब्भुवगतो सो। 'साह'-धर्म कहता है। अथवा उसको साथ में लाकर परिषद् णिहिट्ठसण्णिलिंगी, के अन्तर्गत उसे विशेषरूप से आकृष्ट करने के लिए धर्म तस्सेवाणब्भुवगतो वि॥ कहता है। परंतु वह उसका आभाव्य नहीं होता। उसे वह नहीं सभी लिंगी, सशिखाक श्रावक जिसके पास गया है, मिलता। वह अभिधारित आचार्य का ही आभाव्य होता है। उसी के ये आभाव्य होते हैं। लिंगसहित अभ्युपगत है, वह ४७०४.उज्जु कहए परिणतं, अंतो खित्तस्स खित्तिओ लभइ। निर्दिष्ट या अनिर्दिष्ट संज्ञी या असंज्ञी हो-ये सारे जिसके खित्तबहिं तु परिणयं, लभतुज्जु कही ण खलु मादी॥ पास अभ्युपगत हैं, उसी के आभाव्य होते हैं। यदि धर्मकथी ऋजुक होता है तो जो शैक्ष प्रव्रज्या में ४७००.अस्सन्नी उवसमितो, अप्पणो इच्छाइ अण्णहिं तस्स। परिणत होता है, यदि क्षेत्र के अभ्यन्तर परिणत होने पर वह दट्ठणं च परिणए, उवसामिते जस्स वा खित्तं॥ क्षेत्रिक का आभाव्य है। क्षेत्र के बाहर परिणत होता है तो वह किसी धर्मकथी ने एक मिथ्यात्वी को प्रव्रज्याभिमुख धर्मकथी का आभाव्य है। मायावी धर्मकथी का वह आभाव्य किया। वह क्षेत्र यदि अन्य आचार्य का हो तो उसकी अपनी नहीं होता। इच्छा से वह आभाव्य होता है। क्षेत्र के बाहर ४७०५.परिणमइ अंतरा अंतरा य भावो णियत्तति ततो से। उपशांत-प्रव्रज्याभिमुख होने पर वह उस उपशांत करने वाले खित्तम्मि खेत्तियस्सा, बाहिं तु परिणतो तस्स। का आभाव्य होता है। वह किसी को देखकर स्वयं उपशांत किसी शैक्ष का प्रव्रज्याभाव बीच-बीच में परिणत होता है हुआ है, वह उनका आभाव्य होता है। अथवा वह जिसका तथा निवर्तित होता है। क्षेत्र में परिणत होने पर वह क्षेत्रिक क्षेत्र हो उसका आभाव्य होता है। का आभाव्य होता है और बाहर परिणत होने पर धर्मकथिक ४७०१.परखित्ते वसमाणो, अइक्कमंतो व ण लभति असण्णिं। का आभाव्य होता है। छंदेण पुव्वसण्णिं, गाहितसम्माति सो लभति॥ ४७०६.माया पिया व भाया, भगिणी पुत्तो तहेव धूता य। परक्षेत्र अर्थात् मासकल्प या वर्षावास में रहता हुआ छप्पेते नालबद्धा, सेसे पभवंति आयरिया। अथवा उसका अतिक्रमण करता हुआ वहां रहता है तो स्वयं माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्र तथा दुहिता ये छहों द्वारा उपशमित भी उसका नहीं होता। पूर्वसंज्ञी अर्थात् अनन्तवल्ली के आधार पर नालबद्ध माने जाते हैं। शेष जो जिसको पहले उपशांत किया था, वह उपशमक के अभिप्राय नालबद्ध नहीं होते वे प्रतीच्छक के आभाव्य नहीं होते, आचार्य से प्राप्त होता है। वह उपशमिक या क्षेत्रिक जिसको चाहता के आभाव्य होते है। है, उसका आभाव्य होता है। पूर्वसंज्ञी को जिसने सम्यक्त्व ४७०७.माउम्माया य पिया, भाया भगिणी य एव पिउणो वि। प्राप्त कराया है उसे वह प्राप्त होता है। भातादिपुत्त-धूता, सोलसगं छ च्च बावीसं॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ४८५ तीसरा उद्देशक ४७०८.बावीस लभति एए, पडिच्छओ जति य तमभिधारंती। अभिधारमणभिधारे, णायमणातेतरे ण लभे॥ माता से संबंधित चार जन-माता, पिता, भ्राता, भगिनी। पिता से संबंधित चार जन-पिता, माता, भ्राता, भगिनी। माता से संबंधित दो जन-पुत्र और पुत्री। भगिनी का अपत्य-भानेज और भानेजी-ये दो जन। पुत्र का अपत्य-पौत्र और पौत्री। पुत्री का अपत्य-दौहित्र और दौहित्री। ये सारे सोलह होते हैं-४+४+२+२+२+२-१६। इनमें छह जन अनन्तरवल्ली के मिलाने पर बावीस होते हैं। यदि ये बावीस जन प्रतीच्छक की अभिधारणा करते हैं तो उसको ये सारे प्राप्त होते हैं। यदि ये अभिधारणा नहीं करते हैं तो सारे आचार्य के आभाव्य होते हैं। इनसे इतर चाहे अभिधारणा करते हैं या नहीं करते, वे चाहे ज्ञातक हों या अज्ञातक । प्रतीच्छक को प्राप्त नहीं होते। ४७०९.नायगमणायगा पुण, सीसे अभिधारमणभिधारे य। दोक्खर-खरदिट्ठता, सव्वे वि भवंति आयरिए॥ जो शिष्य के ज्ञातक अथवा अज्ञातक हैं, वे शिष्य की अभिधारणा करते हैं या नहीं करते, फिर भी वे सब आचार्य के आभाव्य होते हैं, शिष्य के नहीं। यहां व्यक्षर-खरदृष्टान्त वक्तव्य है। 'दासेण मे खरो कीओ, दासो वि मे खरो वि मे।' ४७१०.पुव्वुप्पन्नगिलाणे, असंथरते य चउगुरू छण्हं। वयमाण एगे संघाडए य छप्पेते ण लभंति॥ एक गांव में गच्छ स्थित है। एक मुनि ग्लान हो गया। उसकी प्रतिचर्या में अनेक साधु व्याप्त हैं। सभी भिक्षा के लिए न जा पाने से पूरी भिक्षा नहीं आई। ऐसी स्थिति में एक शैक्ष आ गया। मुनि ग्लान कार्य में व्याप्त थे अतः शैक्ष की सारसंभाल नहीं कर पाए। इसीलिए भगवान् ने कहा-ऐसी स्थिति में शैक्ष को दीक्षित नहीं करना चाहिए। दीक्षित करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। अतः वे छह प्रकारों में से किसी एक प्रकार से उसे अन्य आचार्य के पास भेज देते हैं। वे उसे मुंडित कर अकेले को अथवा साधुओं के साथ भेजते हैं। ये तीन प्रकार मुंडित शैक्ष के होते हैं। अमुंडित के भी ये ही तीन होते हैं। ये छहों उस शैक्ष को प्राप्त नहीं होते। जिनके पास वह शैक्ष भेजा जाता है, उसी आचार्य का वह आभाव्य होता है। ४७११.आयरिय-गिलाणे गुरुगा, सेहस्सा अकरणम्मि चउलहुगा। परितावणणिप्फण्णं, दुहतो भंगे य मूलं तु॥ शैक्ष को प्रव्रज्या देकर उसकी वैयावृत्य में व्यस्त होकर आचार्य और ग्लान की वैयावृत्य नहीं करते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि शैक्ष की वैयावृत्य नहीं की जाती है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। परितापना निष्पन्न प्रायश्चित्त पृथक् आता है। यदि शैक्ष का उन्निष्क्रमण होता है या ग्लान का मरण हो जाता है ये दो भंग हैं। इनके होने पर मूल . प्रायश्चित्त है। ४७१२.संथरमाणे पच्छा, जायं गहिते व पच्छ गेलन्नं । अपव्वइए पव्वइए, संघाडेगे व वयमाणे॥ गच्छ में ग्लान है, परंतु आगाढ़ ग्लान नहीं है तो वे मुनि शैक्ष को प्रव्रजित करते हैं क्योंकि वे शैक्ष और आचार्य दोनों की वैयावृत्य कर सकते हैं। वे सब का संस्तरण कर सकते हैं। पश्चात् आगाढ़ ग्लानत्व हो गया। उसकी सेवा में जो साधु थे वे भिक्षा के लिए नहीं जा पाते थे। जो जाते वे भी सबके लिए पर्याप्त नहीं ला सकते थे। पहले ग्लानत्व नहीं था। प्रव्रजित करने के पश्चात् ग्लानत्व हो गया। उसे छह प्रकारों से भेज देना चाहिए-१. अप्रव्रजितमुंडित २. प्रव्रजित-मुंडित ३. इन दोनों के तीन-तीन प्रकार हैं-संघाटक के साथ, एक साधु के साथ, वयमाण-एकाकी को भेजे। ४७१३.नागाढं पउणिस्सइ, अचिरेणं तं च जायमागाढं। सेहं वट्टावेउं, ण तरंति गिलाणकिच्चं च। पहले अनागाद ग्लानत्व था। शैक्ष आ गया। संतों ने सोचा यह ग्लान मुनि शीघ्र स्वस्थ हो जाएगा। शैक्ष को प्रव्रजित कर दिया। ग्लान आगाढ़ हो गया। साधु शैक्ष को संभालने तथा ग्लानकृत्य करने में असमर्थ हो गए। ४७१४.अपडिच्छणेतरेसिं, जं सेहवियावडा उ पावंति। तं चेव पुव्वभणियं, परितावण-सेहभंगाइ। जिनके पास शैक्ष भेजा गया, यदि वे उसे स्वीकार नहीं करते, उनको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। जो शैक्षव्यापृत हैं उनको भी वही प्रायश्चित्त है तथा जो पूर्वकथित परितापना, शैक्षभंगादि दोष समूह भी यहां प्रास होता है। शैक्ष वैयावृत्य के अभाव में पलायन कर जाता है, ग्लान प्रतिचर्या न होने के कारण परितप्त होता है। ४७१५.संखडिए वा अट्ठा, अमुंडियं मुंडियं व पेसंती। वयमाणे एग संघाडए य छप्पेए न लभंति॥ मुंडित अथवा अमुंडित शैक्ष को भी संखड़ी के लिए भेजते हैं। वहां भी 'वयमाणी' अर्थात् एकाकी को भेजने पर अथवा एक संघाटक के साथ या छह प्रकार से भेजने पर भी वह उनका आभाव्य नहीं होता। ४७१६.होहिंति णवग्गाई, आवाह-विवाह-पव्वयमहादी। सेहस्स य सागारियं, विदाहिति मा व पेसिंति॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ बृहत्कल्पभाष्यम् शैक्ष किसी आचार्य के पास गया। वहां आवाह-वधू का वर के घर में आना, विवाह, पर्वतमह, तडागमह, नदीमह आदि होते हैं। वहां शैक्ष का सागारिक-उत्प्रव्राजन हो जाता है। वह विनष्ट हो जाता है। वह विनष्ट न हो, इसलिए उसे छह प्रकारों से भेजते हैं। परन्तु वह शैक्ष छहों का आभाव्य नहीं होता, केवल उनका आभाव्य होता है, जिनके पास भेजा जाता है। ४७१७.गिहियाणं संगारो, संगारं संजते करेमाणे। अणुमोयति सो हिंसं, पव्वावितो जेण तस्सेव॥ शैक्ष गृहस्थ-संबंधी यह संगार-संकेत करता है कि इतने समय के पश्चात् मैं आपके पास प्रव्रजित होऊंगा, संयत भी यह संगार-संकेत देता है कि मैं अमुक दिन तुमको प्रव्रजित करूंगा, यह संकेत करने पर जब तक वह प्रव्रजित नहीं होता, तब तक उसके द्वारा की जाने वाली हिंसा का अनुमोदक वह संयत होता है। शैक्ष को जो प्रव्रजित करता है, वह उसीका आभाव्य होता है। ४७१८.विप्परिणमइ सयं वा, __ परओ ओसण्ण अण्णतित्थी वा। मोत्तुं वासावासं, ण होइ संगारतो इहरा॥ संकेत करने के पश्चात् वह शैक्ष स्वयं विपरिणत हो जाता है या दूसरों से स्वजनों से विपरिणत हो सकता है, या अवसन्नविहारी साधुओं में प्रव्रजित हो जाता है या परतीर्थिक हो जाता है। इसलिए वर्षावास में बिना पुष्ट आलंबन न होने पर न संगार देना चाहिए और न करना चाहिए। ४७१९.संखडि सण्णाया वा, खित्तं मोत्तव्वयं व मा होज्जा। ___एएहिं कारणेहिं, संगार करेंते चउगुरुगा॥ संगार करने का कारण यह है कि उस ग्राम की संखडी को वह छोड़ नहीं सकता तथा उसके ज्ञातक वहां। प्रचुर हैं, उनके आग्रह को वह टाल नहीं सकता। वह क्षेत्र अत्यंत स्निग्ध होने के कारण उसको छोड़ा नहीं जा सकता। इन कारणों से संगार करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ४७२०.रिण वाहिं मोक्खेउं, कुडंबवित्तिं वऽतिच्छिते गिम्हे। एमादिअणाउत्ते, करिति गिहिणो उ संगारं। ऋण या व्याधि का अपनयन करने के लिए, कुटुंब के निर्वहन के लिए, वृत्ति का संपादन करने के लिए अथवा ग्रीष्मऋतु अतिक्रान्त हो रहा है और वर्षावास का आगमन होने पर-इन सभी कारणों से अनायुक्त होकर गृहस्थ संगार करते हैं। ४७२१.अगविठ्ठो मि त्ति अहं, लब्भति असढेहिं विप्परिणतो वि। चोयंतऽप्पाहेति व, ते वि य णं अंतरा गंतुं॥ संगार करने के पश्चात् अशठ अर्थात् ग्लानकार्य में व्याप्त मुनियों द्वारा अगवेषित होने पर शैक्ष विपरिणत हो जाता है, फिर भी वह उनका ही आभाव्य होता है। वे भी साधु यदा-कदा जाकर उसको प्रेरणा करते हैं और संगार की याद दिलाते हैं और यदि साधुओं के स्वयं जाने की स्थिति न हो तो श्रावकों द्वारा संदेश भेजकर उसे प्रेरित करते हैं। ४७२२.एवं खलु अच्छिन्ने, छिन्ने वेला तहेव दिवसेहिं। वेला पुण्णमपुण्णे, वाघाए होइ चउभंगो॥ यह अच्छिन्न-अनियत संगार की विधि कही गई है। छिन्न संगार की विधि यह है। छिन्न संगार का अर्थ है-क्षेत्र और काल से प्रतिनियत। काल का अर्थ है-वेला या दिवस। वेला पूर्ण या अपूर्ण होने पर व्याघात हो सकता है। उसकी चतुर्भंगी होती है १. संयत के व्याघात गृहस्थ के नहीं। २. गृहस्थ के व्याघात संयत के नहीं। ३. दोनों के व्याघात। ४. दोनों के व्याघात नहीं। ४७२३.मंदट्टिगा ते तहियं च पत्तो, जति मण्णते ते य सढा ण होति। सो लब्भती अण्णगतो वि ताहे, दप्पट्ठिया जे ण उ ते लभंती॥ जिस ग्राम के लिए संकेत किया था, उस ग्राम में शैक्ष पहुंच गया। साधु नहीं पहुंचे। शैक्ष ने सोचा-ये मेरे विषय में मंदार्थी हैं, इसीलिए यहां नहीं पहुंचे हैं। यदि वे साधु अशठ हैं-वजिका आदि में प्रतिबद्ध नहीं हैं, ग्लानकार्य में व्याप्त होने के कारण नहीं पहुंचे हैं तो शैक्ष अन्य आचार्य के पास जाने पर भी उन साधुओं का ही आभाव्य होता है। जो दर्प से वहां स्थित साधु हैं, उन्हें वह नहीं मिलता। जिसने उसे प्रव्रजित किया है, उसी का शिष्य होता है। ४७२४.पंथे धम्मकहिस्सा, उवसंतो अंतरा उ अन्नस्स। अभिधारिंतो तस्स उ, इयरं पुण जो उ पव्वावे॥ मार्ग में जाता हुआ शैक्ष बीच में अन्य धर्मकथी की बातें सुनकर उपशांत होता है। वह जिसकी अभिधारणा कर जाता है, उसीका आभाव्य होता है। इतर अर्थात् अनभिधारयिता में जो उसको प्रव्रजित करता है उसका वह आभाव्य होता है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक = ४८७ ४७२५.पुण्णेहिं पि दिणेहिं, उवसंतो अंतरा उ अण्णस्स। शैक्ष के पूछने पर यदि आचार्य को न देखा है और न अभिधारिंतो तस्स उ, इयरं पुण जो उ पव्वावे॥ सुना है तो कहे-मैं नहीं जानता। अन्य साधुओं को पूछो। दिनों के पूर्ण होने पर या न होने पर, मार्ग में चलता हुआ यदि वे विदेश गए हों तो उसे वे कहां हैं, उस देश का शैक्ष दूसरे से उपशांत होता है और वह अभिधारणा करता है नामोल्लेख करें। यदि यथार्थ बात नहीं कहता है तो यह कि मैं इनके पास प्रव्रज्या ग्रहण करूं, परंतु मैं पूर्वाचार्य का विपरिणामना है। ही शिष्य रहूंगा। किन्तु इतर अर्थात् जो उसको प्रवजित ४७३१.सेसेसु उ सब्भावं, णातिक्खति मंदधम्मवज्जेसु। करता है, उसका ही वह शिष्य होता है। गृहयते सब्भावं, विप्परिणति हीणकहणे वा॥ ४७२६.ण्हाणादिसमोसरणे, दट्टण वि तं तु परिणतो अण्णं। मंदधर्मा के अतिरिक्त शेष ग्लान आदि पदों में यदि तस्सेव सो ण पुरिमे, एमेव पहम्मि वच्चंते॥ सद्भाव नहीं कहता है, यथार्थ कथन नहीं करता है, स्नान आदि समवसरण में पूर्वाचार्य को देखकर भी यदि अथवा सद्भाव को छुपाता है, हीनकथन करता है, यह दूसरे को प्राप्त हो गया है तो वह उसीका शिष्य है, पूर्व विपरिणामना है। आचार्य का नहीं। इसी प्रकार मार्ग में जाते हुए भी आभाव्य ४७३२.सीसोकंपण गरिहा, हत्थ विलंबिय अहो य हक्कारे। और अनाभाव्य की विधि जान लेनी चाहिए। वेला कण्णा य दिसा, अच्छतु णामं ण घेत्तव्वं ।। ४७२७.गेलन्न तेणग नदी, सावय पडिणीय वाल महि वासं। शैक्ष किसी आचार्य को अपने पूर्व आचार्य के विषय में इइ समणे वाघातो, महिगावज्जो उ सेहस्स॥ पूछता है। आचार्य तीन प्रकार की गर्दा करते है-सबसे साधु ग्लान हो गया, चोर मिल गए, मार्गगत नदी पूर्ण पहले सिर को हिलाते हैं, हाथों को लटका कर गर्दा प्रगट रूप से बहने लगी, रास्ते में श्वापद की बहुलता है, प्रत्यनीक करते हैं उनके पास प्रव्रज्या! हाय! हाय! ऐसे आचार्यों से है, व्याल रास्ते में हैं, महिका या वर्षा प्रारंभ हो गई है-इस ही लोक नष्ट हुआ है। हा! ऐसे आचार्य का वेला-नाम भी प्रकार श्रमण के व्याघात हो सकता है। शैक्ष के भी महिका कहीं नहीं है, उसका नाम भी कभी नहीं सुना, वह जिस के अतिरिक्त सारे व्याघात होते हैं। दिशा में है उस दिशा में भी नहीं ठहरना चाहिए, आंखें बंद ४७२८.विप्परिणामियभावो, ण लब्भते तं च णो वियाणामो। कर लेता है अथवा कहता है ऐसे आचार्य का नाम भी नहीं विप्परिणामियकहणा, तम्हा खलु होति कायव्वा॥ लेना चाहिए। विपरिणामितभाव वाला शैक्ष विपरिणामक आभाव्य ४७३३.नाणे दंसण चरणे, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव। नहीं होता। शिष्य ने पूछा-विपरिणामक को हम नहीं जान अह होति तिहा गरहा, कायो वाया मणो वा वि॥ सकते। आचार्य कहते हैं-अतः उसकी चर्चा हमें करनी अथवा गर्दा तीन प्रकार की है-ज्ञान विषयक, दर्शन चाहिए। विषयक और चारित्र विषयक। अथवा सूत्र विषयक, अर्थ ४७२९.दिट्ठमदिट्ठ विदेसत्थ गिलाणे मंदधम्म अप्पसुते।। विषयक, और तदुभय विषयक। अथवा काय-वाक् और मन णिप्फत्ति पत्थि तस्सा, तिविहं गरहं व से जणति॥ यह तीन प्रकार की गर्दा होती है। किसी शैक्ष ने मार्ग में मिले साधु से पूछा-क्या तुमने ४७३४.पव्वयसि आम कस्स, त्ति सगासे अमुगस्स निद्दिढे। अमुक आचार्य को देखा है अथवा नहीं? वह उस शैक्ष को आयपराधिगसंसी, उवहणति परं इमेहिं तु॥ विपरिणत करने के लिए कहता है-वे तो विदेश चले गए ४७३५.अबहुस्सुताऽविसुद्धं, अधछंदा तेसु वा वि संसग्गिं। हैं। उनके पास दीक्षित होने का अर्थ है-ग्लान होना। वे ओसन्ना संसग्गी, व तेसु एक्वेक्कए दुन्नि। मंदधर्मा तथा अल्पश्रुत हैं। उनके शिष्यों की निष्पत्ति नहीं किसी शैक्ष को एक साधु ने पूछा-क्या तुम प्रव्रज्या लेना है। तीन प्रकार की गर्हा-मानसिक, वाचिक और कायिक चाहते हो? उसने कहा-हां! किस आचार्य के पास? उसने अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र विषयक गर्दा करना कहा-अमुक आचार्य के पास। ऐसा निर्दिष्ट करने पर स्वयं विपरिणामना है। को दूसरे से अधिक बताने के अभिप्राय से, इन वचनों के ४७३०.जइ पुण तेण ण दिट्ठा, द्वारा उपहास करते हुए कहता है-जिनके पास तुम प्रव्रजित __णेव सुया पुच्छितो भणति अण्णे। होना चाहते हो, वे अबहुश्रुत हैं, विशुद्ध नहीं हैं, यथाच्छंद जति वा गया विदेसं, हैं-आग्रही हैं, आग्रही मनुष्यों से उनका संसर्ग है, अवसन्नतो साहइ जत्थ ते विसए॥ शिथिलाचारियों के साथ उनका संसर्ग है तथा पार्श्वस्थ आदि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ =बृहत्कल्पभाष्यम् अत्थि या इत्थ केइ उवस्सयपरियावन्ने अचित्ते परिहरणारिहे, सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ-अहालंदमवि ओग्गहे। (सूत्र २९) संतों के प्रत्येक भेद में जो-जो दोष पाए जाते हैं, वे सारे दोष उनमें हैं। ४७३६.सीसोकंपण हत्थे, कण्ण दिसा अच्छि कायिगी गरिहा। वेला अहो य ह त्ति य, ___णामं ति य वायिगी गरहा। ४७३७.अह माणसिगी गरहा, सूतिज्जति णित्त-वत्तरागेहिं। धीरत्तणेण य पुणो, अभिणंदइ णेय तं वयणं॥ कायिकी गर्हा-शिरोकंपन, हस्तविलंबन, कानों को स्थगित करना, अन्य दिशा में जाकर बैठना, आंखें बंद करना, अनिमेष लोचन रहना, क्षणभर के लिए बैठना। वाचिकी गहरे-इस वेला में उनका नाम नहीं लेना चाहिए, अहो! कष्टकर है, हाहाकार करना, उनका कभी भी नाम नहीं लेना चाहिए। मानसिकी गर्दा नेत्र और मुंह के द्वारा जो रागभाव अर्थात् विकसित होना, मुरझा जाना आदि विकारों से मानसिकी गर्दा सूचित होती है। शैक्ष के वचन का अभिवंदन नहीं करना, धीरता से नहीं सुनना। इस प्रकार की गर्दा सुनकर शैक्ष के मन में अनेक आशंकाएं पैदा हो जाती हैं। ४७३८.एताणि य अण्णाणि य, विप्परिणामणपदाणि सेहस्स। उवहि-णियडिप्पहाणा, कुव्वंति अणुज्जुया केई॥ शैक्ष को विपरिणामित करने की ये बातें तथा अन्यान्य बातें भी होती हैं। वे मुनि उस शैक्ष को द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव की अनुकूलता से भी अपने प्रति आकृष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। जो अऋजु होते हैं वे उपधि- दूसरों को धोखा देने की मनोवृत्ति, निकृति–मायाचार करना ये सब विकृतियां करते हुए भी भावभंगी को छुपाने में प्रधान--निपुण-ये सारे शैक्ष के विपरिणामन करने के प्रकार हैं। ४७३९.एएसामन्नयर, कप्पं जो अतिचरेज्ज लोभेण। थेरे कुल गण संघे, चाउम्मासा भवे गुरुगा। जो आचार्य इन कल्पविधियों के अतिरिक्त कल्पविधि का लोभवश आचरण करता है तो कुल, गण, संघ, स्थविर उससे शैक्ष को ले लेते हैं तथा उस आचार्य मुनि को चार मास का गुरुक प्रायश्चित्त देते हैं। यदि कुल, गण, संघ स्थविर के कहने पर भी वह शैक्ष को नहीं छोड़ता तो उसे कुल, गण, संघ से बाह्य कर देते हैं। १. उपधिः-परवञ्चनाभिप्रायः। (वृ. पृ. १२७४) ४७४०.असहीणेसु वि साहम्मितेसु इति एस उग्गहो वुत्तो। अयमपरो आरंभो, गिहिविजढे उग्गहे होइ॥ अस्वाधीन साधर्मिक (क्षेत्रान्तर गए हुए साधर्मिकों का भी) यही अवग्रह कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र का आरंभ गृहस्थों द्वारा परित्यक्त प्रतिश्रय के अवग्रह संबंधी है। ४७४१.आहारो उवही वा, आहारो भुंजणारिहो कोयी। दुविहपरिहारअरिहो, उवही वि य कोयि ण वि कोयि॥ सूत्र में किञ्चिद् शब्द है। उससे आहार अथवा उपधि गृहीत है। आहार दो प्रकार का होता है-भोजनाह और अभोजनाह। उपधि भी दो प्रकार की होती है-धारण करने योग्य और धारण करने के लिए अयोग्य। ४७४२.संसत्ताऽऽसव पिसियं,आहारो अणुवभोज्ज इच्चादी। झुसिरतिण-वच्चगादी, परिहारे अणरिहो उवही॥ संसक्त-द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों से मिश्र भक्तपान, आसव-मद्य, पिशित-मांस आदि मुनियों के लिए अनुपभोज्य होते हैं। उसी प्रकार शुषिरतृण, वल्कल आदि भी परिभोग के योग्य नहीं होते। ४७४३.ठायंते अणुण्णवणा, पातोग्गे होइ तप्पढमयाए। सो चेव उग्गहो खलु, चिट्ठइ कालो उ लंदक्खा॥ प्रतिश्रय में रहते हुए मुनियों ने प्रथमतया प्रायोग्य स्थान की अनुज्ञापना की वही अवग्रह होता है। सूत्र में जो लंद शब्द है, वह काल का वाचक है। ४७४४.पुव्विं वसहा दुविहे, दव्वे आहार जाव अवरण्हे। उवहिस्स ततियदिवसे, इतरे गहियम्मि गिण्हति॥ प्रतिश्रय में पहले ही वृषभ दो प्रकार के द्रव्यों में उपयोग देते है-आहार और उपधि। जब तक अपराह्न नहीं होता तब तक वहां विस्मृत आहार को ग्रहण नहीं करते। उपधि तीसरे दिन के पश्चात् ग्रहण करते हैं। 'इतरन्' अर्थात् अर्थ आदि गृहस्थ वहां भूल गए हों तो एकान्त में निक्षिप्त कर देते हैं। यदि साहूकार उसको लेने लगे तो यथोक्त विधि से उसे ग्रहण करे। २. निकृतिः कैतवार्थं प्रयुक्तवचनऽऽकाराच्छादनं । (वृ. पृ. १२७४) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ४८९ ४७४५.पायं सायं मज्झंतिए व वसभा उवस्सय समंता। ४७५०.दवियट्ठऽसंखडे वा, पुरिसित्थी मेहुणे विसेसो वि। पेहंति अपेहाए, लहुगो दोसा इमे तत्थ॥ ___ एमेव य समणम्मि वि, संकाए गिण्हणादीणि॥ प्रातः, सायं और मध्याह्न में वृषभ उपाश्रय की चारों कोई धन के लिए या वैरभाव के कारण किसी को मारकर ओर से प्रत्युपेक्षणा करते हैं। प्रत्युपेक्षणा न करने पर उपाश्रय में निक्षिप्त कर दे, कोई स्त्री को मार कर, मैथुन विशेष लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा ये दोष होते हैं। के लिए हत्या कर उपाश्रय के पास फेंक देता है। इसी प्रकार ४७४६.साहम्मि अण्णधम्मिय, इन कारणों से श्रमण की भी हत्या हो सकती है। संयत भी गारत्थिणि खिवण वोसिरण रज्जू। आशंका के भय से ग्रहण, आकर्षण आदि को प्राप्त होता है। गिण्हण-कड्डण-ववहार ४७५१.कालम्मि पहुप्पंते, चच्चरमादी ठवित्तु पडियरणं। पच्छकडुड्डाह-णिव्विसए॥ रक्खंति साणमादी, छण्णे जा दिट्ठमण्णेहि। साधर्मिणी-साध्वी, अन्यधर्मिणी, गृहस्थस्त्री कोई उस अतः तीनों वेला में प्रतिश्रय की प्रत्युपेक्षा अपेक्षित है। उपाश्रय के पास अर्थजात का निक्षेप कर दे अथवा बालक वहां कोई बालक आदि को देखे तो उसे चौराहे पर जाकर को छोड़कर चली जाए, परीषहों से घबरा कर कोई साधु रख दे और उसकी श्वान आदि से रक्षा करने के लिए ओट फांसी में लटक जाए, यह राजपुरुषों को ज्ञात होने पर ग्रहण, में बैठ जाए। वहां तब तक बैठा रहे जब तक कि दूसरे लोग आकर्षण, व्यवहार, पश्चात्कृत, उड्डाह, देशनिकाला देना। उस बालक को देख न लें। आदि दोष होते हैं। ४७५२.बोलं पभायकाले, करिति जणजाणणट्ठया वसभा। ४७४७.चोदणकुविय सहम्मिणि, पडियरणा पुण देहे, परोग्गहे णेव उज्झंति॥ परउत्थिणिगी उ दिट्ठिरागेण। उपाश्रय की प्रतिलेखना करते समय यदि वृषभ हिरण्यअणुकंप जदिच्छा वा, सुवर्ण वहां पड़ा देखे तो प्रभातकाल में ही लोगों को ज्ञात छुभिज्ज बालं अगारी वा॥ करने के लिए जोर-जोर से कहते हैं किसी दुष्ट ने साधुओं कोई साधर्मिणी साध्वी सन्मार्ग की ओर प्रेरित किए जाने को बदनाम करने के लिए यहां हिरण्य-सूवर्ण रख दिया है। पर कुपित होकर अपनी नाजायज संतान को उपाश्रय के पास व्यपरोपित यदि पुरुष देह उपाश्रय में पड़ा हो तो उसकी छोड़ जाती है। कोई परतीर्थिनी दृष्टिरागवश उपाश्रय के पास प्रतिचरणा करे किन्तु उसे दूसरे के अवग्रह में न रखें। कोई न बालक को रख देती है। कोई अगारी अपने दूधमुंहे बच्चे को देखे तो उसका परिष्ठापन कर दे। उपाश्रय में इसलिए छोड़ जाती है कि ये मुनि शय्यातर को ४७५३.अप्पडिचर-पडिचरणे, दोसा य गुणा य वण्णिया एए। देकर इस बालक का भरण-पोषण करा देंगे। इस अनुकंपा या एतेण सुत्त ण कतं, सुत्तनिवातो इमो तत्थ॥ यदृच्छा से उपाश्रय में रख जाती है। उपाश्रय का अप्रतिचरण-अप्रत्युपेक्षण और प्रतिचरण४७४८.हाउं व जरेउं वा, अचदंता तेणगाति वत्थादी। प्रत्युपेक्षण से होने वाले दोष और गुण वर्णित हुए है, किन्तु एएहिं चिय जणियं, तहिं च दोसा उ जणदिवें॥ इनके कथन के लिए सूत्र का निर्माण नहीं हुआ है। सूत्रनिपात स्तेन वस्त्र आदि को ढोने में असमर्थ होने पर उपाश्रय के इसलिए हुआ हैपास उसे फेंक जाते हैं अथवा वस्त्र आदि को 'जरीतु' न ४७५४.आगंतारठियाणं, कज्जे आदेसमादिणो केई। करने के कारण वहीं निक्षिप्त कर जाते हैं। लोक जब बच्चे वसिउं विस्समिउं वा, छड्डित्तु गया अणाभोगा॥ को वहां पड़ा देखते हैं तो सोचते हैं इन साधुओं ने ही इसे मुनि आगंतागार (धर्मशाला) में ठहरे हुए हैं। वे वहां जन्म दिया है। सुवर्ण, वस्त्र आदि का अपहरण किया है। किसी प्रयोजनवश ठहरे हैं-यही प्रस्तुत सूत्र बताता है। अतः वृषभ यदि प्रतिश्रय की प्रत्युपेक्षा नहीं करते हैं तो ये प्राघूर्णक आदि कई वहां रहकर अथवा विश्राम कर गए हैं। वे दोष होते हैं। वहां कुछ द्रव्य (उपधि या भोजन) भूलकर गए हैं। ४७४९.अहवा छुभेज्ज कोयी, उब्भामग वेरियं व हतूणं। ४७५५. समिई-सत्तुग-गोरस-सिणेह-गुल-लोणमादि आहारे। वेहाणस इत्थी वा, परीसहपराजितो वा वि॥ ओहे उवग्गहम्मि य, होउवही अट्ठजातं वा॥ अथवा कोई प्रत्यनीक उद्भ्रामक-पारदारिक या वैरी को आहार में आटा या कणिका, सत्तू, गोरस, तैल या घी, मारकर उपाश्रय के पास रख जाता है या कोई स्त्री या गुड़, नमक आदि उपधि के दो प्रकार हैं-ओघ तथा परीषहों से पराजित कोई मुनि फांसी लेकर मर जाए। औपगहिक। अर्थ भी वहां छोड़ गए हैं। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ४७५६.काऊणमसागरिए, पडियरणाऽऽहार जाव अवरण्हे। ४७६१.साविक्खेतर णटे, एमेव य होइ उवहिगहणं पि। एमेव य उवहिस्स वि, असुण्ण सेधाइ दूरे य॥ पच्चागएसु गहणं, भुंजति दिण्णेवमढे वि॥ वृषभ मुनि जब प्रतिश्रय की प्रत्युपेक्षणा करते हैं तब उस यदि पड़ौसी आदि ने सापेक्षरूप से अर्थात् पुनः लौटने आहार के द्रव्य को असागारिक प्रदेश में एकत्रित कर उसकी की भावना से पलायन किया है या निरपेक्षरूप से तो दोनों में प्रतिचरणा–संरक्षणा अपराह्न तक करते हैं। उपधि की भी। आहार और उपधि के ग्रहण की यही विधि है। सापेक्षरूप से प्रतिचरणा करते हैं। उसे भी अशून्य स्थान में रखते हैं। शैक्ष गए हुए जब लौट आते हैं तब उनके द्वारा दत्त या अनुज्ञात मुनियों को दोनों प्रकार के द्रव्यों से दूर रखते हैं। का वे भोग करते हैं। जो निरपेक्षरूप से गए हैं, उनके आहार ४७५७.वोच्छिज्जई ममत्तं, परेण तेसिं च तेण जति कज्ज। का निर्विवादरूप से परिभोग करते हैं। अर्थजात का भी इसी गिण्हता वि विसुद्धा, जति वि ण वोच्छिज्जती भावो॥ प्रकार ग्रहण करते हैं। अपराह्न के पश्चात् पथिकों का आहार के प्रति ममत्व ४७६२.पाउग्गमणुण्णवियं, जति मण्णसि एवमतिपसंगो त्ति। व्यवच्छिन्न हो जाता है। यदि साधुओं को उस आहार आउरभेसज्जुवमा, तह संजमसाहगं जं तु॥ से प्रयोजन हो और वे उसे लेते हैं तो वे शुद्ध हैं। यद्यपि प्रश्न है-साधुओं के लिए प्रायोग्य की अनुज्ञापना होती उस आहार से उनका भाव व्यवच्छिन्न नहीं होता है, फिर है, यदि तुम ऐसा मानते हो तो अर्थजात अप्रायोग्य है और भी अपराह्न के पश्चात् उसको ग्रहण करने में कोई दोष उस अर्थजात को ग्रहण करना अतिप्रसंग होगा। भाष्यकार नहीं है। कहते हैं अर्थजात एकान्ततः अप्रायोग्य नहीं है, क्योंकि यहां ४७५८.अव्वोच्छिन्ने भावे, चिरागयाणं पि तं पयंसिंति। आतुर-रोगी और भेषज की उपमा दी जाती है। जैसे किसी पण्णवणमणिच्छंते, कप्पं तु करेंति परिभुत्ते॥ रोग में जो औषधि प्रतिषिद्ध है, वही अन्य अवस्था में उपधि तीन दिन पूर्ण होने के बाद ग्रहण करते हैं, क्योंकि अनुज्ञापित होती है, इसी प्रकार पुष्टकारण के अभाव में उस अवधि में उसके प्रति ममत्व मिट जाता है। यदि पथिकों अर्थजात प्रतिषिद्ध होता है, परन्तु दुर्भिक्ष आदि में संयम का का वस्त्रों के प्रति भाव व्यवच्छिन्न न होने पर वे उसकी साधक होने के कारण अनुज्ञात होता है। गवेषणा करते हुए आते हैं। चिरकाल से आए हुए उन पथिकों से वत्थूसु अव्वावडेसु अव्वोगडेसु को मुनि वे वस्त्र दिखाते हैं और उनसे कहते हैं-हमने ये वस्त्र ले लिए हैं। आप उनकी अनुज्ञा दें। यदि अनुज्ञा देते हैं तो अपरपरिग्गहिएसु अमरपरिग्गहिएसु अच्छा है, अन्यथा उनका परिभोग करने के कारण कल्प कर सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा उन्हें दे देते हैं। चिट्ठइ-अहालंदमवि ओग्गहे। ४७५९.पच्चोनियत्तपुट्ठा, करादि दाएंति एत्थ णं पेधे। (सूत्र ३०) दरिसिंति अपिच्छंते, को पुच्छति केण ठवियं च॥ उपाश्रय में गिरे हुए अपने अर्थजात की गवेषणा करते हुए ४७६३.गिहिउग्गहसामिजढे, इति एसो उग्गहो समक्खातो। पथिक लौट कर आते हैं और साधुओं से पूछते हैं। तब मुनि सामिजढे अजढे वा, अयमण्णो होइ आरंभो॥ हाथ के इशारे से बताते हुए कहते हैं यहां देखो। यदि वे नहीं स्वामी द्वारा परित्यक्त जो गृहस्थ संबंधी अवग्रह है, देखते हैं तो मुनि स्वयं उन्हें दिखाते हैं। यदि वे पूछे कि यहां यह अवग्रह समाख्यात है। प्रस्तुत सूत्र में स्वामी द्वारा किसने रखा तो उनसे कहे-कौन पूछता है? किसने रखा है? त्यक्त या अत्यक्त अवग्रह होता है। यही प्रस्तुत सूत्र का हम नहीं जानते। आरंभ है। ४७६०.भडमाइभया णद्वे, गहिया-ऽगहिएसु तेसु सज्झादी। ४७६४.खित्तं वत्थु सेतुं, केतुं साहारणं च पत्तेयं । गिण्हंति असंचइयं, संचइयं वा असंथरणे।। अव्वावडमव्वोअडमपरममरपरिग्गहे चेव॥ राजपुरुषों के भय से पलायन कर गए शय्यातर पड़ौसी क्षेत्र (खुली जमीन), वास्तु-गृह। क्षेत्र के दो प्रकार हैंआदि तथा ऋणदाता और ऋणी के घर से असंचयिक सेतु और केतु। जो क्षेत्र अरहट्ट से सींचा जाता है वह है सेतु आहार-दही, घृत आदि मुनि लेते हैं और यदि वह अपर्याप्त और जो वर्षाजल से निष्पन्न होता है वह है केत। क्षेत्र और हो तो संचयिक-मिठाई आदि भी लेते हैं। , गृह-दोनों दो-दो प्रकार के हैं-साधारण और प्रत्येक।' १. साधारणं-बहूनां सामान्यम्। प्रत्येक-एकस्वामिकम्। (वृ. पृ. १२८०) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक अव्यापृत, अव्याकृत, अपरपरिगृहीत, अमरपरिगृहीत–इनकी व्याख्या आगे है। ४७६५.दाइय-गण-गोट्ठीणं, सेणी साहारणं व दुगमादी। वत्थुम्मि एत्थ पगयं, ऊसित खाते तदुभए य॥ दामाद, गण, गोष्ठी, श्रेणी आदि दो, तीन आदि की संख्या में जन प्रतिनिधियों का जो क्षेत्र होता है वह साधारण कहा जाता है। प्रस्तुत में वास्तु का अधिकार है। वास्तु के तीन प्रकार हैं-उच्छ्रित-प्रासाद, खात-भूमीगत मकान (अन्डर-ग्राउंड), तदुभय-भूमीगत मकान सहित प्रासाद। ४७६६.सडिय-पडियं ण कीरइ, जहिगं अव्वावडं तयं वत्थु। अव्वोगडमविभत्तं, अणहिट्ठियमण्णपक्खेणं॥ जो गृह शटित और पतित होता है, जो किसी के काम नहीं आता, वह वास्तु अव्याप्त कहलाती है। अव्याकृत वह गृह है जो अभी तक दायादों द्वारा अविभक्त है। अपरपरिगृहीत अर्थात् दूसरे पक्ष द्वारा अगृहीत। उसका स्वामी ही शय्यातर होता है। ४७६७.अवरो सु च्चिय सामी, जेण विदिण्णं तु तप्पढमताए। अमरपरिग्गहियं पुण, देउलिया रुक्खमादी वा॥ अपर का अर्थ है जिसने प्रथमतया साधुओं को वह दिया है, वह उसका स्वामी है। अमरपरिगृहीत अर्थात् देवकुलिका, वृक्ष आदि जो वानमन्तरदेव अधिष्ठित हों। ४७६८.अव्वावडे कुटुंबी, काणिट्टऽव्वोगडे य रायगिहे। अपरपरे सो चेव उ, अमरे रुक्खे पिसायघरे॥ अव्यापृत गृह संबंधी कुटुम्बी का दृष्टांत है। अव्याकृत में राजगृह के वणिक् का दृष्टांत है जिसने काणिट्ठ-पाषाणमय ईंटों से मकान बनाया था। अपरिपरिगृहीत में भी यही दृष्टांत है। अमरपरिगृहीत में वृक्ष अथवा पिशाचगृह का निदर्शन है। इनका वर्णन आगे की गाथाओं में है। ४७६९.निम्मवणं पासाए, संखडि जक्ख सुमिणे य कंटीय। अण्णं वा वावारं, ण कुणति अव्वावडं तेणं॥ एक कौटुंबिक ने प्रासाद बनवाया और सोचा आज संखडी-जीमनवार कर कल में इस प्रासाद में प्रवेश करूंगा। रात्री में स्वप्न में वानव्यन्तरदेव ने कहा यदि तुम इस घर में प्रवेश करोगे तो सारे कुटुंब को मार डालूंगा। तब कौटुंबिक ने उस प्रासाद के चारों ओर कांटों की बाड़ लगा दी। कोई उसको काम में नहीं लेता था। यह अव्याप्त का उदाहरण है। १-२.देखें कथा परिशिष्ट, नं. १०३-१०४। ४७७०.इड्डित्तणे आसि घरं महल्लं, कालेण तं खीणधणं च जायं। ते उम्मरीयस्स भया कुडीए, दाउंठिया पासि घरं जईणं॥ एक ऋद्धिमान् वणिक ने बड़ा गृह बनवाया। कालान्तर में वणिक् निर्धन हो गया। वहां प्रति उदुम्बर (देहली) का एकएक रुपये का कर लगता था। उस भय से वणिक् कुटीरक में रहने लगा। उसने उस घर को साधुओं के निवास के लिए दे दिया। यह अव्याकृत का उदाहरण है। ४७७१.पुवट्ठियऽणुण्णवियं, ठायंतऽण्णे वि तत्थ ते य गता। एवं सुण्णमसुण्णे, सो च्चेव य उग्गहो होइ।। अव्यापृत या अव्याकृत गृह में पहले से स्थित साधु अनुज्ञा लेकर ही वहां रह रहे थे। अन्य साधु भी वहां आकर ठहर जाते हैं। पूर्व साधु कल्प पूरा होने पर अन्यत्र चले जाते हैं। इस प्रकार शून्य या अशून्य होने पर वहां रहने वाले साधुओं के वही अवग्रह होता है, पुनः अनुज्ञापना करने की आवश्यकता नहीं होती। ४७७२.अपरपरिग्गहितं पुण, अपरे अपरे जती जइ उति। अव्वोकडं पि तं चिय, दोन्नि वि अत्था अपरसद्दे।। अपरपरिगृहीत के दो अर्थ हैं जिसने सबसे पहले साधुओं को वह दिया है, वही उसका स्वामी है-यह अपर का एक अर्थ है। जहां अपर-अपर मुनि आकर ठहरते हैं, वह है अपर। यह दूसरा अर्थ है। अव्याकृत का भी यही अर्थ है-जो सबके लिए साधारण है। इस प्रकार अपर शब्द के दोनों अर्थ हैं। (अपरपरिगृहीत का अर्थ है वृक्ष अथवा वृक्ष के नीचे बना हुआ मकान। वहां पहले से जो साधु अनुज्ञा लेकर स्थित हैं। शेष मुनियों के लिए भी वही अवग्रह है।) ४७७३.भूयाइपरिग्गहिते, दुमम्मि तमणुण्णवित्तु सज्झायं। एगेण अणुण्णविए, सो च्चेव य उग्गहो सेसे। जो द्रुम भूत आदि व्यन्तर देव से परिगृहीत है, वहां व्यंतर की अनुज्ञा लेकर स्वाध्याय के लिए जाना होता है। एक द्वारा अनुज्ञापित होने पर शेष मुनियों के लिए वही अवग्रह है। ४७७४.सामी अणुण्णविज्जइ, दुमस्स जस्सोग्गहो व्व असहीणे। कूरसुरपरिग्गहिते, दुमम्मि काणिट्टगाण गमो॥ जो द्रुम का स्वामी है, वह अनज्ञा देता है। जिसका कोई Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ ==बृहत्कल्पभाष्यम् स्वामी न हो, जो वृक्ष अस्वाधीन हो, वहां इस प्रकार कह गृहपति अवग्रह, सागारिक अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। कर अनुज्ञा ले-'जिस किसी के अधीन यह अवग्रह हो वह इनमें राजावग्रह आदि चार अवग्रह अनवस्थित होते हैं। अनुज्ञा प्रदान करे'-यदि वह वृक्ष 'क्रूरसुरपरिगृहीत' हो तो शक्र का अवग्रह पाषाण की रेखा की भांति तीर्थ पर्यन्त 'काणेष्टकागृह गम' के अनुसार कायोत्सर्ग से देवता को रहती है। आकंपित कर स्वाध्याय आदि करे। ४७७९.सोऊण भरहराया, सव्विड्डी आगतो जिणसगासं। ४७७५.नेच्छंतेण व अन्ने, ईसालुसुरेण जे अणुण्णायं। वंदिय नमंसिया णं, भत्तेण निमंतणं कुणइ।। तत्थ वि सो च्चेव गमो, सगारिपिंडम्मि मग्गणता॥ एक बार महाराज भरत ने सुना कि भगवान् ऋषभ ईर्ष्यालु देवता ने गृहस्थों द्वारा न चाहते हुए भी अष्टापद पर्वत पर समवसृत हुए हैं। तब वह पांच सौ शकट जो वृक्षमूल साधुओं को अनुज्ञापित किया है, वहां भी भक्तपान से भरकर साधुओं के लिए लेकर अपनी सर्वऋद्धि वही विकल्प है-पूर्वानुज्ञापना अवस्थान जानना चाहिए। से जिनेश्वरदेव के पास आया और वंदना, नमस्कार कर वहां स्थित मुनियों को सागारिकपिंड की मार्गणा करनी भक्तपान के लिए साधुओं को निमंत्रित किया। चाहिए। ४७८०.पीलाकरं वताणं, एय अम्हं न कप्पए घेत्तुं। ४७७६.जक्खो च्चिय होइ तरो, बलिमादीगिण्हणे भवे दोसा। अणवज्जं णिरुवहयं, भुजंति य साहुणो भिक्खं॥ सुविणे ओयरिए वा, संखडिकारावणमभिक्खं॥ तब साधुओं ने कहा-यह भक्तपान व्रतों के लिए जिस यक्ष ने जिस वृक्ष को परिगृहीत किया है, वही पीड़ाकारक हैं। इसे ग्रहण करने में हम नहीं कल्पता है। अतः 'तर'-शय्यातर होता है। जो बलि आदि दिया जाता है, साधु प्रासुक और निरुपहत-एषणीय भिक्षा लेते हैं और खाते वह शय्यातरपिंड है। उसको लेने से आज्ञाभंग आदि दोष हैं, अनेषणीय नहीं लेते। होते हैं। अथवा यक्ष वृक्षस्वामी को स्वप्न में आकर ४७८१.तं वयणं सोऊणं, महता दुक्खेण अद्दितो भरहो। कहे-मुझे उद्दिष्ट कर बार-बार संखडी करे तो मैं कुछ समणा अणुग्गहं मे, ण करिति अहो! अहं चत्तो। भी नहीं कहूंगा। इस प्रकार बार-बार संखडी करने पर साधुओं के वचन सुनकर भरत अत्यधिक मानसिक दुःख वह शय्यातरपिंड होता है। यह सोचकर उसे नहीं लेना से पीड़ित हुआ। उसने सोचा-ये श्रमण मेरा अनुग्रह नहीं चाहिए। करते हैं। अहो! मैं इनसे परित्यक्त हो गया हूं। ४७८२.नाऊण तस्स भावं, देवेंदो तस्स जाणणट्ठाए। से वत्थूसु वावडेसु वोगडेसु वंदिय नमंसिया णं, पंचविहं उग्गहं पुच्छे।। परपरिग्गहिएसु भिक्खुभावस्स अट्ठाए देवेन्द्र ने भरत के भावों को जानकर उसको अवग्रह का दोच्चं पि ओग्गहे अणुण्णवेयव्वे स्वरूप ज्ञापित करने के लिए, भगवान् को वंदना, नमस्कार सिया-अहालंदमवि ओग्गहे॥ कर पांच प्रकार के अवग्रह के विषय में पूछा। ४७८३.अट्ठावयम्मि सेले, आदिकरो केवली अमियनाणी। सक्कस्स य भरहस्स य, उग्गहपुच्छं परिकहेइ॥ ४७७७.सागारिगी उग्गहमग्गणेयं, अष्टापद पर्वत पर आदिकर, केवली, अमितज्ञानी स केच्चिरं वाकड मो कहं वा। भगवान् ऋषभ शक्र तथा भरत के सम्मुख अवग्रह-पृच्छा का इदाणि राउग्गहमग्गणा उ, समाधान देते हैं। केणं विदिण्णो स कया कहं वा॥ ४७८४.देविंद-रायउग्गह, गहवति सागारिए य साहम्मी। सागारिक अवग्रह की मार्गणा की गई है। वह कितने पंचविहम्मि परूविते, णायव्वं जं जहिं कमइ॥ काल का तथा कैसे होता है, यह पूर्वसूत्र में व्याख्यात है। भगवान् ने पांच प्रकार के अवग्रहों का निरूपण कियाअब राजावग्रह की मार्गणा की जाती है-उसको किसने कब, देवेन्द्र अवग्रह, राजअवग्रह, गृहपति अवग्रह, सागारिक कैसे अनुज्ञात है ? इसकी व्याख्या की जाती है। अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। इन पांच प्रकार के अवग्रहों ४७७८.अणवट्टिया तहिं होति उग्गहा रायमादिणो चउरो। की प्ररूपणा को जो जहां अवतरित है उसको जानना चाहिए पासाणम्मि व लेहा, जा तित्थं ताव सक्कस्स॥ (पीठिका गाथा ६७० आदि में जो निरूपित किया है, वह यहां अवग्रह के पांच प्रकार हैं-देवेन्द्र अवग्रह, राजावग्रह, भी जानना चाहिए।) (सूत्र ३१) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ४७८५ तं वयणं सोऊणं, देविंदो बंदिऊण तित्थयरं । वितरति अप्पणगे उग्गहम्मि जं साहुपाउम्मं ॥ भगवान् के अवग्रह प्रतिपादक वचन को सुनकर देवेन्द्र ने तीर्थंकर को वन्दना कर अपने अवग्रह में जो साधुओं के प्रायोग्य सारा भक्तपान वितरण करता है अर्थात् उसकी अनुज्ञा देता है। ४७८६. सोउं तुट्ठो भरहो, लद्धो मए एत्तिओ इमो लाभो । वितरति जं पाउग्गं, केवलकप्पम्मि भरहम्मि ॥ भगवान् के वचन सुनकर भरत तुष्ट हुआ और सोचा- अहो! मैंने इतना लाभ कमाया है। साधुओं के लिए प्रायोग्य भक्तपान को उसने संपूर्ण भरत में वितरित किया। । ४७८७. पंचविहम्मि परूविते, स उग्गहो जाणएण घेत्तव्वो । अण्णाणेणोगहिए, पायच्छित्तं भवे भवे तिविहं ॥ ४७८८. इक्कड कठिणे मासो, चाउम्मासा य पीढ फलएसु क- कलिंचे पणगं, छारे तह तह मल्लगाईसु ॥ पांच प्रकार के अवग्रह की प्ररूपणा करने पर भी उस उस अवग्रह को जानकर ग्रहण करना चाहिए। जो अज्ञानवश ग्रहण करता है उसको तीन प्रकार के प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। से अणुकुडेसु वा अणुभित्तीसु वा अणुचरियासु वा अणुफरिहासु वा अणुपंथेसु वा अणुमेरासु वा सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइअहालंदमवि ओग्गहे ॥ (सूत्र ३२) ४७८९. जे चेव दोन्नि पगता, सागारिय रायउग्गहा होंति । तेसिं इह परिमाणं णिवोम्गहम्मी विसेसेणं ॥ इक्कडमय तथा कठिनमय संस्तारक ग्रहण करने पर लघुमास पीढफलक के चार लघुमास और काष्ठ, किलिञ्च, क्षार तथा मल्लक को ग्रहण करने पर पंचक ये प्रायश्चित्त आते हैं। ४७९०. अणुकुड्डे भित्तीसुं, चरिया पागारपंथ परिहासु । अणुमेरा सीमाए णायव्यं जं जहिं कमति ॥ जो दो प्रकार के अवग्रह - सागारिक अवग्रह और राज अवग्रह पूर्वसूत्र में कहे गए हैं, उन्हीं का परिमाण प्रस्तुत सूत्र · ४९३ में कहा गया है। उसमें भी नृप के अवग्रह का परिमाण विशेषरूप से कहा है । अनुकुड्य, अनुभित्ती, अनुचरिका, अनुप्राकारपथ, अनुपरिखा । अनुमेरा का अर्थ है-मर्यादा, सीमा । अनुमर्यादा अर्थात् सीमा में। इससे ज्ञातव्य है कि सागारिक और राज अवग्रह की सीमा होती है। ४०९१. अणुकुद्धं उवकुद्धं, कुसमीवं व होइ एगद्वं । एमेव सेसएस वि, तेसि पमाणं इमं होइ ॥ अनुकुडब, उपकुडय, कुडवसमीप-ये एकार्थक हैं। इसी प्रकार अनुभित्ति आदिपदों में जाननी चाहिए। उन अनुकुड्य आदि का अवग्रह विषयक प्रमाण यह होता है। ४७९२. वति भित्ति कडगकुडे, पंथे मेराय उग्गहो रयणी । अणुचरियाए अनु उ चउरो रयणीउ परिहाए ॥ वृति ( बाड़), भित्ति, कटकमयीकुड्य तथा मार्गगत मर्यादा में एक हाथ प्रमाण का अवग्रह होता है। अनुचरिका में आठ हाथ का और परिखा में चार हाथ का अवग्रह होता है। ४७९३. वतिसामिणो वतीतो हत्थो सेसोग्गहो णरवतिस्स । तस्स तहिं ममकारो, जति वि य णिम्माणि जा भूमी ॥ वृति का जो स्वामी है उसकी वृति के आगे हाथ प्रमाण का अवग्रह होता है। शेष सारा अवग्रह राजा का होता है। इसका कारण है कि उस गृहपति का वृति के आगे हाथ प्रमाण भूभाग पर उसका ममत्व होता है। यद्यपि विवक्षितगृह तक ही उसकी भूमी, फिर भी वृति के आगे एक हाथ प्रमाण तक उसका अवग्रह होता है। ४७९४. हत्थं हत्थं मोत्तुं, कुड्डादीणं तु मज्झिमो रण्णो । जत्य न पूरइ हत्थो, मज्झे तिभागो तहिं स्त्रो ।। उन कुड्य आदि के दोनों घरों के बीच एक-एक हाथ भूभाग को छोड़ने पर मध्यगत सारा भूभाग राजा का अवग्रह होता है। जहां एक हाथ पूरा नहीं होता वहां मध्यगत तीनभाग राजा का अवग्रह और शेष दो भाग दो गृहस्वामियों का अवग्रह होता है। यह अवग्रह का परिमाण कहा गया है। (यदि उच्चार आदि तथा स्थान निषदन आदि कुड्य आदि के हस्ताभ्यन्तर में किया लाता है तो वह गृहपति के अवग्रह में है। हाथ से बाहर चरिका, प्राकार, परिखा आदि में किया जाता है तो वहां राज अवग्रह की अनुज्ञा लेनी होती है। अटवी में भी यदि वह राज्य के अधीन हो तो वहां राज अवग्रह और यदि राजा का न हो तो वह देवेन्द्र अवग्रह के अन्तर्गत है ।) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ सेणा - पदं से गामस्स वा जाव रायहाणीए वा बहिया सेणं सन्निविद्वं पेहाए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तद्दिवसं भिक्खायरियाए गंतूणं पडिएत्तए नो से कप्पइ तं रयणिं तत्थेव उवाइणावित्तए । जे खलु निम्गंथे वा निग्गंथी वा तं रयणि तत्थेव उवाइणावेइ, उवाइणावेंतं वा साइज्जइ, से दुहओ वि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ (सूत्र ३३) ४७९५. उवरोहभया कीरइ, सप्परिखो पुरवरस्स पागारो । ते र सेणासुत्तं, अणुअत्तइ उग्गहो जं च ॥ शत्रुसेना के घिर जाने के भय से गांव के चारों ओर परिखायुक्त प्राकार का निर्माण किया जाता है। इसलिए 'र' सेनासूत्र का वाचक है। अवग्रह का पूर्वसूत्र से अनुवर्तन हो रहा है। अतः रोध होने पर राजा का अवग्रह अनुज्ञापित कर बहिर्गमन और प्रवेश किया जाता है। ४७९६. सेणादी गम्मिहिई, खित्तुप्पायं इमं वियाणित्ता । असिवे ओमोयरिए, भय-चक्काऽणिग्गमे गुरुगा ॥ मासकल्पवाले क्षेत्र में स्थित साधुओं ने जाना कि शत्रु सेना आयेगी, तथा क्षेत्रोत्पात (परचक्र के उत्पात के चिह्न दिन में चक्रवाल से धूम निकलता है, अकाल में वृक्षों पर फल-फूल आते हैं, भूमी अत्यधिक शब्द से कंपित होती है चारों ओर क्रन्दन, कूजन आदि सुनाई देता है) होते हैं, उनको जानकर वहां से चले जाना चाहिए। इसी प्रकार अशिव, अवमौदर्य, बोधिक चोरों का भय, परचक्र का भय जानकर भी यदि वहां से निर्गमन नहीं करते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ४७९७. आणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमा -ऽऽयाए । असिवादिम्मि परुविते, अधिकारो होति सेणाए ॥ तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयम और आत्मविराधना होती है। अशिवादिक प्ररूपित होने पर सेना का अधिकार होता है। ( गाथा ३०६२ आदि) ४७९८. अतिसेस-देवत- णिमित्तमादि अवितह पवित्ति सोतूणं । णिग्गमण होइ पुव्वं, अणागते रुद्ध वोच्छिण्णे ॥ बृहत्कल्पभाष्यम् अवधिज्ञान के अतिशेष से स्वयंजान लिया, देवता ने कहा, नैमित्तिक ने बताया, अवितथ वार्ता को सुनकर ज्ञात हुआ - इन स्थितियों में पहले ही निर्गमन कर लेना चाहिए । यदि अनागत को नहीं जाना और नगरावरोध हो गया, मार्ग अवरुद्ध हो गए तो वहां से निर्गमन नहीं हो सकता। ४७९९. गेलन्न रोगि असिवे, रायद्दुट्ठे तहेव ओमम्मि । उवही - सरीरतेणग, णाते वि ण होति णिग्गमणं ॥ ग्लान, रोगी, अशिव, राजद्विष्ट, अवमौदर्य, उपधि और शरीर के स्तेनों का भय इनके ज्ञात हो जाने पर भी वहां से निर्गमन नहीं होता । ४८००. एएहि य अण्णेहि य, ण णिग्गया कारणेहिं बहु हिं । अच्छंति होइ जयणा, संवट्टे णगररोधे य ॥ इन कारणों तथा अन्यान्य अनेक कारणों से वहां से निर्गमन न हुआ हो, वहीं रहने पर यतना करनी चाहिए। तथा संवर्त - परचक्र के भय से अनेक गांवों के लोग एकत्रित होकर रहते हैं, तथा नगररोध के समय क्या यतना होनी चाहिएइसका विवेक आवश्यक है। ४८०१. संवट्टम्मि तु जयणा, भिक्खे भत्तट्टणाए वसहीए । तम्मि भये संपत्ते, अवाउडा एक्कओ ठंति ॥ संवर्त में रहते हुए भक्तार्थ के लिए भिक्षा में तथा वसति में यतना करनी चाहिए। उसमें परचक्र का भय होने पर अप्रावृत होकर एकरूप में रहते हैं। ४८०२. वइयासु व पल्लीसु व, भिक्खं काउं वसंति संवट्टे । सव्वम्मि रज्जखोभे, तत्थेव य जाणि थंडिल्ले ॥ व्रजिका और पल्लियों में भिक्षा कर, स्थंडिल में भोजन कर रात्री में संवर्त में आते हैं। यदि सर्वत्र राज्य का क्षोभ हो तो संवर्त में जो कुल स्थंडिल में स्थित हैं, उनमें भिक्षा करते हैं। ४८०३. पूवलिय- सत्तु - ओदणगहणं पडलोवरिं पगासमुहे । सुक्खादीण अलंभे, अजविंता वा वि लक्खेंति ॥ वे भिक्षा में पूपलिका, सत्तू और शुष्क ओदन आदि शुष्क- द्रव्य जो पटल के ऊपर है उसे प्रकाशमुख वाले पात्र में लेते हैं। यदि शुष्क की प्राप्ति नं हो और साधुओं के लिए पर्याप्त न मिले तो आर्द्र लेते समय वे लगे हुए खरंटक को सम्यक् प्रकार से देखते हैं। ४८०४.पच्छन्नासति बहिया, अह सभयं तेण चिलिमिणी अंतो । असतीय व सभयम्मि व, धरंति अद्धेरे भुंजे ॥ संवर्त के अन्त में प्रच्छन्न प्रदेश में भक्तार्थन करना Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ तीसरा उद्देशक= चाहिए। यदि अन्त प्रच्छन्न न हो तो संवत के बाहर जाकर भोजन करना चाहिए। यदि बाहर भय हो तो संवर्त में चिलिमिलिका लगा कर भोजन करना चाहिए। यदि चिलिमिलिका न हो या भय के कारण उसको प्रगट न किया जाए तो आधे मुनि पात्र में भोजन करें और शेष 'कमठों' में। ४८०५.काले अपहुच्चंते, भए व सत्थे व गंतुकामम्मि। कप्पुवरि भायणाई, काउं इक्को उ परिवेसे॥ यदि बारी-बारी से खाने पर काल पूरा नहीं होता, भय के कारण शीघ्र भोजन करना हो या सार्थ वहां से जाने का इच्छुक हो कल्प के ऊपर भाजनों को स्थापित कर सभी कमठकों में भोजन करते हैं और एक मुनि सबको परोसता है। ४८०६.पत्तेग वड्डगासति, सज्झिलगादेक्कओ गुरू वीसुं। ओमेण कप्पकरणं, अण्णो गुरुणेक्कतो वा वि॥ प्रत्येक मुनि के लिए 'वड्डक'-कमठक न हों तो सभी सहोदर होने के कारण एक वड्डक में ही भोजन करे और गुरु पृथक् भोजन करते हैं। सभी भोजन कर चुकने पर जो लघु मुनि होता है, वह कमठकों को धोता-पौंछता है, गुरु का कमठक उनके साथ नहीं मिलाता। दूसरा उसका धावन करता है। ४८०७.भाणस्स कप्पकरणं, दड्डिल्लग मुत्ति कडुयरुक्खे य। तेसऽसति कमढ कप्पर, काउमजीवे पदेसे य॥ भाजनों का कल्पकरण अर्थात् धोना आदि दग्धभूमी या गोमूत्र से भावित भूभाग या कटुकवृक्षों के नीचे करना चाहिए। उनके अभाव में कमठकों में या घट आदि के कर्पर में भाजनों का कल्प कर, पानी को अजीवप्रदेश में परिष्ठापित कर दे। ४८०८.गोणादीवाधाते, अलब्भमाणे व बाहि वसमाणा। वातदिसि सावयभए, अवाउडा तेण जग्गणता॥ संवर्त के भीतर निराबाध प्रदेश में रहते हैं। यदि वहां गायों-बैलों का व्याघात हो तथा प्रासुक प्रदेश न हो, बाहर रहते हुए वहां श्वापद का भय हो तो जिस दिशा में हवा चल रही हो, उस दिशा को छोड़कर रहे। यदि परचक्र प्रवेश कर गया हो तो अपावृत होकर कायोत्सर्ग में स्थित हो जाएं और बारी-बारी से जागृत रहकर सारी रात बिताए। ४८०९.जिणलिंगमप्पडिहयं, अवाउडे वा वि दिस्स वजंति। थंभणि-मोहणिकरणं, कडजोगे वा भवे करणं॥ अचेलता लक्षण वाला जिनलिंग अप्रतिहत है। इस प्रकार रहने वाले के प्रति कोई उपद्रव नहीं करता। स्तेन भी अपावृतों को देखकर छोड़ देते हैं। वे मुनि स्तंभिनी, मोहनी विद्या के द्वारा उन चोरों का स्तंभन-मोहन करते हैं। अथवा कोई कृतयोगी मुनि हो तो वह उनको शिक्षा देता है, उनका मुकाबला करता है। ४८१०.संवदृणिग्गयाणं, णियट्टणा अट्ठ रोह जयणाए। वसही-भत्तट्ठणया, थंडिल्लविगिंचणा भिक्खे॥ संवर्तनिर्गत अर्थात् गांव से निर्गत होकर संवर्त में स्थित वे मुनि भी पुनः प्रयोजनवश नगर के प्रति निवर्तना करते हैं। अथवा ग्लानत्व आदि के कारण पहले ही नगर से निवर्तन नहीं हुआ और वहां रहते आठ मास तक नगर का रोध चला तो वहां वास यतनापूर्वक करना चाहिए। वह यतना वसति, भक्तार्थन, स्थंडिल, विगिंचणा-परिष्ठापना, भैक्ष विषयक होती है। ४८११.हाणी जावेकट्ठा, दो दारा कडग चिलिमिणी वसभा। तं चेव एगदारे, मत्तग सुवणं च जयणाए॥ रोध के समय आठ वसतियों की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। उनमें प्रत्येक ऋतुबद्धकाल में एक-एक मास रहे। आठ प्राप्त न हो तो सात और इस प्रकार हानि होते-होते संयत और संयतियों की एक ही वसति हो। उस एक वसति में रहने पर उसके दो द्वार होने चाहिए। अपान्तराल में कटक या चिलिमिलिका देनी चाहिए। जहां दो द्वार न हों तो एक द्वारवाली वसति में भी यही विधि है। कायिकीभूमी के अभाव में मात्रक का प्रयोग करे। यतना से स्वपन करे। ४८१२.रोहेउ अट्ठ मासे, वासासु सभूमि तो णिवा जंति। परबलरुद्धे वि पुरे, हाविंति ण मासकप्पं तु॥ रोध के आठ मास बीत जाने पर वर्षावास में नृप अपनी भूमी में चले जाते हैं। साधु रोध में रहते हुये भी परबलरुद्ध नगर में मासकल्प की हानि नहीं करते। वे वहां आठ वसतियां और आठ भिक्षाचर्या की प्रत्युपेक्षा करते हैं। ४८१३.भिक्खस्स व वसहीय व, असती सत्तेव चउरो जावेक्का। लंभालंभे एक्केक्कगस्स णेगा उ संजोगा॥ आठ वसतियां और भिक्षाचर्या की आठ स्थितियां न होने पर चार यावत् एक वसति और एक भिक्षाचर्या की प्रत्युपेक्षा करे। एक-एक के लाभ-अलाभ में संयोगतः अनेक विकल्प होते हैं। ४८१४.एगत्थ वसंताणं, पिहढुवाराऽसतीय सयकरणं। मज्झेण कडग चिलिमिणि, तेसुभयो थेर खुड्डीतो॥ साधु-साध्वी एकत्र रहते हुए अपान्तराल में चिलिमिलिका या कटक लगाना चाहिए। पृथक्द्धार न होने पर स्वयं भींत Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ बनाकर दूसरा द्वार कर लेना चाहिए। मध्य में कुड्य की स्थिति न हो तो कटक या चिलिमिलिका का प्रयोग करे। उन दोनों के पार्श्व में एक और स्थविर मुनि और दूसरी ओर क्षुल्लिका साध्वियां होती हैं। ४८१५. दारदुयस्स तु असती, मज्झे दारस्स कडग पुत्ती वा । णिक्खम-पवेसवेला, सस६ पिंडेण ससह पिंडेण सज्झातो ॥ दो द्वार न हों तो मध्य में कटक या चिलिमिलिका बांधकर दो विभाग कर ले। यदि वसति संकीर्ण हो और यह विभाग नहीं किया जा सकता तो एक साथ प्रवेश और निर्गमन का वर्जन करते हैं। निर्गमन करते समय एक साथ स्वाध्याय करते हैं। ४८१६. अंतम्मि व मज्झम्मि व, तरुणी तरुणा य सव्यबाहिरतो । मज्झे मज्झिम धेरी, खुड्डी खुड्डा य थेरा य ॥ जो तरुण साध्वियां हैं वे अन्त में या मध्य में होती हैं। तरुण साधुओं को सर्वतः बाह्य रखना चाहिए। मध्य में मध्यम, स्थविर और क्षुल्लिका साध्वियां होती हैं। फिर क्षुल्लक और स्थविर साधु होते हैं। ४८१७. पत्तेय समण विक्खिय पुरिसा इत्थी य सव्वे एकत्था । पच्छण्ण कडग चिलिमिणि, मज्झे वसभा य मत्तेणं ॥ यदि प्रत्येक अर्थात् स्त्रीवर्जित-साध्वियों से वर्जित श्रमण तथा शाक्य आदि हों और वे सब एकत्र एक वसति में रहते हों और प्रव्रजित स्त्रियां भी एकत्र रहती हों तो साधुसाध्वियां प्रच्छन्न प्रदेश में रहे। प्रच्छन्न प्रदेश के अभाव में कटक या चिलिमिलिका बीच में बांधे और कायिकी के लिए मात्रक का प्रयोग करे। ४८१८. पच्छन्न असति निण्डम, बोडिय भिच्छुय असोय सोया य परदव बहुगादी, गरहा य सअंतरं एक्को ॥ प्रच्छन्न प्रदेश के अभाव में निह्नव के वहां, उसके अभाव में बोटिकों के वहां या भिक्षुक के वहां या अशौचवादी या शौचवादी के यहां रहे। वहां रहते हुए शौच आदि कार्य में प्रचुर पानी का उपयोग करे, कमढक में भोजन करे। शौचवादी गां न करे वैसा आचरण करे सान्तर बैठकर भोजन करे। एक क्षुल्लक मुनि कमढकों का कल्प करता है। बृहत्कल्पभाष्यम् ४८१९. पासंडीपुरिसाणं, पासंडित्थीण वा वि पत्तेगे। पासंडित्थि पुमाणं व एक्कतो होतिमा जयणा ॥ पाडी पुरुष तथा पाषंडी स्त्रियां अलग-अलग स्थित हैं, तथा दोनों एक साथ स्थित हों तो यह यतना है। ४८२०. जे जह असोयवादी साधम्मी वा वि जत्थ तहिं वासो । णिहुया य जुद्धकाले, ण वुग्गहो णेव सज्झाओ ॥ जो अशौचवादी होते हैं, जो साधर्मिक होते हैं, उनके साथ साधु रहें । युद्ध के समय दोनों पक्ष निर्व्यापार होते हैं। स्वपक्ष के साथ न विग्रह करे और न स्वाध्याय करे । ४८२१. तं चेव पुव्वभणितं, पत्तेयं दिस्समाणे कुरुया य। थंडिल्ल सुक्ख हरिए, पवायपासे पदेसेसु ॥ स्थंडिल की यतना- पहले कथित ( गाथा ४१९ ) की भांति है। प्रथम स्थंडिल की प्राप्ति न होने पर शेष स्थंडिलों में जाते समय प्रत्येक मुनि मात्रक ग्रहण करे और सागारिक के देखते हुए कुरुकुच (शौचक्रिया आदि) करे। शुष्क तृण हो वहां व्युत्सर्जन करे। उसके अभाव में हरित पर भी व्युत्सर्ग किया जा सकता है। प्रपाप, गर्त्ता आदि के पार्श्व में या यत्र-तत्र प्रदेश में व्युत्सर्ग करे । ४८२२. पढमासह अमणुण्णेतराण मिहियाण वा वि आलोगं । पत्तेयमत्त कुरुकुय, दवं च परं हित्थेसुं ॥ ४८२३. तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण वच्च आवातं । इत्थी - नपुंसकेसु वि, परम्मुहो कुरुकुया सेव ॥ प्रथम लक्षणवाले स्थंडिल के अभाव में अथवा वहां व्याघात होने पर मुनि दूसरे प्रकार के स्थंडिल अर्थात् अनापात-संलोक में जाए। पुरुषों का संलोक हो, वहां जाए और आचमन आदि यतनापूर्वक करे। प्रत्येक मुनि पात्र लेकर जाए और डगलकों से प्रमार्जन न करे और आचमन के पश्चात् कुरुकुच (मिट्टी से हाथ धोना) करे । 'त्रिविधे प्रत्येकं द्विविधो भेदः - इसका तात्पर्य है कि परपक्ष तीन प्रकार का है पुरुष स्त्री, नपुंसक प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं- शौचवादी अशीचवादी अथवा श्रावक, अश्रावक अथवा तीन प्रकार स्थविर, मध्यम, तरुण अथवा प्राकृत, कौटुम्बिक, दंडिक। ये पुरुषों के भेद हैं। इसी प्रकार स्त्री, नपुंसक के भी भेद ज्ञातव्य हैं। 3 सामान्य पुरुषालोक वाले स्थंडिल के अभाव में अशौचवादी पुरुषालोक वाले स्थंडिल में जाए। इसके भी अभाव में स्त्री नपुंसकालोक वाले स्थंडिल में जाए। वहां वह परामुख बैठे और कुरुकुच आदि की पूर्ववत् यतना करे। . Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ४८२४. पच्छण्ण पुव्वभणियं, विदिण्ण थंडिल्ल सुक्ख हरिए । अगड वरंडग दीहिय, जलणे पासे पदेसेसु ॥ मुनि के शव को प्रच्छन्न- जहां सागारिक न देखें वहां परिष्ठापित करे या जैसे पहले कथित है उस प्रकार उसकी विवेचना करे। अथवा राजा द्वारा वितीर्ण - अनुज्ञात स्थंडिल का उपयोग करे । स्थंडिल में शुष्क तृण हों उसका उपयोग करे, उसके अभाव में हरियाली वाले स्थंडिल का या फिर राजा द्वारा अनुज्ञात अगड-गर्ता में वरंडग-प्राकार के वरंडक में, या दीर्घिका में, अग्नि में या इनके पार्श्व वाली भूमी में परिष्ठापित करे। ४८२५. अन्नाए परलिंगं, उवओगद्धं तुलेत्तु मा मिच्छं । णाते उड्डाहो या अयसो पत्थारदोसो वा ॥ राजाज्ञा से शव को परलिंग करने के लिए अन्तर्मुहूर्त तक प्रतीक्षा कर फिर करे । उससे पूर्व करने पर मिथ्यात्व में वह न चला जाए जो ज्ञात नहीं है, उसे परलिंग न करे क्योंकि इससे उड्डाह हो सकता है। उससे प्रवचन की अकीर्ति और प्रस्तारदोष अर्थात् कुल-गण-संघ का विनाश हो सकता है। ४८२६. न वि को विकंचि पुच्छति, निर्णितं व अंतो बाहिं या । आसंकिते पडिसेहो, णिक्कारण कारणे जतणा ॥ रोध के समय यदि कोई कुछ नहीं पूछता, स्वेच्छा से आने-जाने या प्रवेश निर्गमन करने में तो अन्तर, या बाहर गोचरी करते हैं। आशंकित होने पर निष्कारण प्रतिषेध में न जाए। कारण हो तो यतना रखे । ४८२७. पउरण्ण-पाणगमणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया । सो त इयरे य चत्ता, कुल गण संघे य पत्थारो ॥ यदि अभ्यन्तर में प्रचुर अन्नपान प्राप्त होता हो तो बाहर जाए तो चतुर्मास अनुद्घात तथा आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं वैसा करने वाला मुनि स्वयं को तथा अन्यान्य साधुओं को परित्यक्त कर देता है। इससे राजा कुल-गण-संघ का प्रस्तार - विनाश भी कर सकता है। ४८२८. अंतो अलब्भमाणे, एसणमाईसु होति जइतब्वं । जावंतिए विसोधी, अमच्चमादी अलाभे वा ॥ यदि अभ्यन्तर में पर्याप्त भक्तपान प्राप्त न हो तो पंचक प्रायश्चित्त की विधि से एषणा आदि में प्रयत्न करे। यावन्तिका आदि विशुद्धकोटि के दोषों में प्रयत्न करने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। यदि इस प्रयत्न से भी ४९७ पर्याप्त भक्तपान प्राप्त नहीं होता तो अमात्य, दानश्रद्धा वाले श्रावकों को ज्ञात कराता है। वे यदि अविशोधिकोटि दोष दृष्ट भक्तपान देते हैं तो वह ग्रहण करे। ४८२९. आपुच्छित आरक्खित, सेट्टी सेणावती अमच्च रायाणं । णिग्गमण दिरुवे, भासा य तहिं असावज्जा ॥ रोध के समय अभ्यन्तर में पर्याप्त भक्तपान न मिलने पर आरक्षिक को पूछे कि हम मिक्षा के लिए बाहर जाना चाहते हैं। उसके मनाही करने पर श्रेष्ठी, सेनापति, अमात्य या राजा को निवेदन करे। राजा तब द्वारपाल को बता देता है कि इन साधुओं को देख लो। ये भिक्षा के लिए बाहर जायेंगे, लौट कर आएंगे, इन्हें रोकना नहीं है। बाहर जाकर मुनि असावद्य भाषा बोले । ४८३०. मा वच्चह दाहामि, संकाए वा ण देति णिग्गंतुं । दाणम्मि होइ गहणं, अणुसङ्कादीणि पडिसेधे ॥ यदि आरक्षिक आदि कहे कि बाहर न जाएं हम आपको भोजन देंगे। वे आशंका के कारण बाहर जाने की मनाही करते हैं। वे जो कुछ देते हैं उसे ग्रहण कर लेना चाहिए । यदि आरक्षिक आदि बाहर न जाने देते हैं और न भक्तपान की व्यवस्था करते हैं तो उन्हें अनुशिष्टि देकर समझाना चाहिए। ४८३१. बहिया वि गमेतूणं, आरक्खितमादिणो तहिं णिति । हित णट्ट चारिगादी, एवं दोसा दोसा जढा होंति ॥ मुनि बाहर जाकर भी आरक्षिक, श्रेष्ठी आदि को बताकर भिक्षा करते हैं। ऐसा करने पर हृत, नष्ट और चारिका आदि दोष परित्यक्त हो जाते हैं। ४८३२. पियधम्मे दधम्मे, संबंधऽविकारिणो करणदक्खे। पडिवत्तीय कुसले, तब्भूमे पेसए बहिता ॥ जो मुनि बाहर जाते हैं वे इन गुणों से युक्त हों- प्रियधर्मा, दृढधर्मा, जिनका अन्तर् - बहि स्वजन संबंध होता है, अविकारी, करणदक्ष- भिक्षाग्रहण आदि में विवेक संपन्न, परिवत्ति - प्रत्युत्तर देने में कुशल, उस भूमी से परिचित हो । ४८३३. केवतिय आस हत्थी, जोधा धण्णं व कित्तियं णगरे । परितंतमपरितंता, नागर सेणा व ण वि जाणे ॥ बाहर जाने वाले मुनि से बाह्य स्कंधावार वाले पूछते हैं-नगर के अभ्यन्तर में कितने अश्व, हाथी या योद्धा हैं? धान्य नगर में कितना है? रोध के कारण नागरिक उद्विग्न हैं या अनुद्विग्न ? यह पूछे जाने पर मुनि कहे मैं नहीं जानता। . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ ४८३४. सुणमाणा वि न सुणिमो, सज्झाय-ज्झाण निच्चमाउत्ता । सावन्नं सोऊण वि, ण हुन्भाऽऽइक्खि जतिणो ।। हम सदा स्वाध्याय - ध्यान में लीन रहते हैं अतः वार्त्ताओं को सुनते हुए भी नहीं सुनते। सावद्य बातों को सुनकर भी मुनि उन्हें बता नहीं सकते। ( मुनि कानों से बहुत सुनता है, आंखों से बहुत कुछ देखता है। किन्तु सारा देखा हुआ या सुना हुआ वह भिक्षु किसी को कह नहीं सकता, वह न कहे।) ४८३५. भत्तट्टणमालोए, मोत्तूणं संकिताई ठाणाई । सच्चित्ते पडिसेधो, अतिगमणं दिवाणं ॥ भक्तार्थन अर्थात् भोजन प्रकाश में होता है। जो शंकित स्थान हों वहां भोजन न करे। जो सचित्त अर्थात् शैक्ष प्रव्रज्या लेना चाहे उसे प्रव्रजित न करे। आते समय द्वारपाल ने जिनको देखा है उनका ही अतिगमन- प्रवेश होता है। ४८३६. सावग-सण्णिद्वाणे, ओतवितेकतर इतर भत्तङ्कं । तेसऽसती आलोए, वड्डग कुरुयादि स च्चेव ॥ जहां श्रावक और श्राविका - दोनों साधु सामाचारी कुशल हाँ वहां भोजन करे। उनके अभाव में एक भी कुशल हो तो वहां भोजन करे। एक भी यदि खेदज्ञ न हो तो अखेद श्रावकों के समक्ष भी भोजन ले। उनके अभाव में अटवी में, आलोक में, अशंकनीय प्रदेश में भोजन करे। वड्डग और कुरुकुच आदि में यही यतना है। ४८३७. भत्तयि बाहाडा, पुणरवि घेत्तुं अतिंति पज्जत्तं । अणुसद्वी दारद्वे, अण्णो वऽसतीय जं अंतं ॥ इस प्रकार भक्तपान पर्याप्त ग्रहण कर भोजन कर लेने के पश्चात् 'वाहाडित' - भुक्तन्यूनभाजन वाले वे मुनि नगर में प्रवेश करते हैं। द्वारपाल यदि भोजन मांगता है तो उसे अनुशिष्टि दे। यदि अन्य कोई देता है तो उसका निषेध न करे । उसके अभाव में जो अन्त प्रान्त हो उसे दे । ४८३८. रुद्धे वोच्छिन्ने वा दारडे दो वि कारणं दीवे इहरा चारियसंका, अकालओखंदमादीसु ॥ द्वार रुद्ध हो या व्यवच्छिन्न हो तो साधु द्वारपाल के आगे दोनों आभ्यन्तर और बाह्य कारणों को बताते हैं। यदि नहीं बताते हैं तो चारिका की आशंका हो सकती है तथा अकाल और घाटी आदि से संबंधित चारिका की आशंका होती है। ४८३९. बाहिं तु वसिउकामं, अतिणेंती पेल्लणा अणेच्छते । गुरुगा पराजय जये, बितियं रुद्धे व वोच्छिण्णे ॥ बाहर निर्गत कोई साधु सोचता है मैं मुक्त हो गया, अब बृहत्कल्पभाष्यम् मैं बाहर ही रह जाऊं । उसे दूसरा मुनि कहता है - ऐसा करना हमें नहीं कल्पता वे उस मुनि को प्रेरित कर या बलात् नगर में प्रवेश कराते हैं। कदाचित् अभ्यन्तर रहने वालों की पराजय और बाहर वालों की विजय हो जाए तो आशंका के कारण प्रस्तारदोष - विनाश हो सकता है। उसका अपवाद पद यह है - बाहर निर्गत मुनियों के लिए यदि नगर के सारे द्वार अवरुद्ध हों या व्यवच्छिन्न हों तो वहां रहना शुद्ध है । से गामंसि वा जाव सन्निवेसंसि वा कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वओ समंता सकोसं जोयणं ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं चिट्ठित्तए परिहरित्तए । -त्ति बेमि ॥ (सूत्र ३४) ४८४०. गामाइयाण तेसिं, उग्गहपरिमाणजाणणासुत्तं । कालस्स व परिमाणं, वुत्तं इहवं तु खेत्तस्स ॥ अनन्तर सूत्रोक्त ग्राम आदि का कितना अवग्रह होता है। यह ज्ञापित करने के लिए प्रस्तुत सूत्र का प्रारंभ हुआ है। पूर्व सूत्रों में काल का परिमाण बताया गया है। प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र का परिमाण कथित है। ४८४१. उडुमहे तिरियं पि य, सकोसगं होइ सव्वतो खेतं । इंदपदमाइएसुं, छद्दिसि सेसेस चउ पंच ॥ ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा और तिर्यक् दिशा में चारों ओर से सक्रोश योजन क्षेत्र का अवग्रह होता है । इन्द्रपद अर्थात् अजाग्रपदगिरि के चारों ओर ग्राम हैं। उन मध्यम श्रेणी वाले ग्राम में स्थित मुनियों के छहों दिशाओं में क्षेत्र होता है। शेष पर्वतों के चार या पांच दिशाओं में सक्रोश योजन क्षेत्र अवराह होता है। ४८४२. एगं व दो व तिन्नि व, दिसा अकोसं तु सव्वतो वा वि। सव्वत्तो तु अकोसे, अग्गुज्जाणाओ जा खेत्तं ॥ एक, दो, तीन दिशाओं में पर्वत आदि के व्याघात से चारों ओर से अक्रोश क्षेत्र अवग्रह होता है। वहां सर्वतः अक्रोश गत ग्राम आदि में ग्रामोद्यान तक क्षेत्र होता है, उससे आगे अक्षेत्र होता है। ४८४३. संजम - आयविराहण, जत्थ भवे देह - उवहितेणा वा । तं खलु ण होइ खेत्तं उग्धेयव्वं च किं तत्थ ॥ जहां ग्राम आदि में संयमविराधना और आत्मविराधना होती है, जहां शरीर स्तेन और उपधि स्तेन होते हैं, वह क्षेत्र . Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक नहीं होता। वहां क्या अवग्रह हो सकता है जिससे उसको क्षेत्र कहा जाए? ४८४४.खेत्तं चलमचलं वा, इंदमणिंदं सकोसमक्कोसं। वाघातम्मि अकोसं, अडवि जले सावए तेणे॥ जहां क्षेत्र अवग्रह की विचारणा हो, वह क्षेत्र दो प्रकार का होता है-चल और अचल। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-ऐन्द्र, अनिन्द्र। इनमें से जो अचल और अनिन्द्र है उसके दो प्रकार हैं-सक्रोश और अक्रोश। जिस दिशा में व्याघात होता है, उसमें अक्रोश होता है। व्याघात क्या हो सकते हैं-अटवी, समुद्र या नदी, श्वापद और स्तेन। ४८४५.सेसे सकोस मंडल, मूलनिबंधं अणुम्मुयंताणं। ___ पुवुट्ठिताण उग्गहो, सममंतरपल्लिगा दोण्ह॥ शेष अर्थात् जहां व्याघात न हो वहां मंडल के चारों ओर सर्वतः सक्रोश योजन अवग्रह होता है। यह मूलनिबंध अर्थात् मंडल को न छोड़ते हुए माना गया है। जैसे-मूलग्राम से प्रत्येक दिशा में आधा-आधा योजन क्रोश से समधिक अवग्रह होता है। वह चारों दिशाओं में सक्रोश योजन होता है। जो सक्रोश या अक्रोश में पूर्वस्थित हैं उनके यह अवग्रह होता है। यदि संबद्ध क्षेत्रों में एक साथ अनुज्ञापित हुआ हो तो यदि दो अन्तरपल्ली हों तो एक की एक अन्तरपल्ली और शेष सबकी दूसरी अन्तरपल्ली होती है। यदि एक ही अन्तरपल्ली हो तो वह दोनों के लिए साधारण होती हैं। ४८४६.खेत्तस्संतो दूरे, आसण्णं वा ठिताण समगं तु। अद्धं अद्धद्धं वा, दुगाइसाहारणं होइ॥ जहां अनेक अन्तरपल्लिकाएं हों वहां की विधि यह है- कोई क्षेत्र के अभ्यन्तर होती है, कोई दूर, कोई निकट है। (जहां से आनीत आहार क्षेत्रातिक्रान्त न हो), इनमें जो स्थित हैं उन सबमें ये अन्तरपल्लियां विभाजित कर बांट दी जाएं। आधी या पाव संख्या वाली अन्तरपल्लिकाएं तीन भाग कर या दो भाग कर-ये पल्लियां दो-तीन गच्छों के लिए साधारण होती हैं। ४८४७.तण-डगल-छार-मल्लग-संथारग-भत्त-पाणमादीणं। सति लंभे अस्सामी, खेत्तिय ते मोत्तऽणुण्णवणा॥ तृण, डगल, क्षार, मल्लक, संस्तारक, भक्त-पान आदि का प्रचुर लाभ होने पर क्षेत्रिक उसके अस्वामी होते हैं। क्षेत्रिकों ने जिन तृण, डगल आदि की अनुज्ञापना की हो, उनको छोड़कर अर्थात् वे अक्षेत्रिकों की नहीं ४८४८.ओहो उवग्गहो वि य, सच्चित्तं वा वि खेत्तियस्सेते। मोत्तूण पाडिहारिं, असंथरंते वऽणुण्णवणा।। ओघउपधि और औपग्रहिक उपधि तथा सचित्त अर्थात् शैक्ष क्षेत्रीय के आभाव्य होते हैं। प्रातिहारिक उपधि को छोड़कर वे दोनों प्रकार की उपधि को गृहस्थों से याचित करते हैं तो भी प्रायश्चित्त के भागी नहीं होते। यदि शीतकाल आदि में अपने पास वाले वस्त्रों से जीवन यापन न कर सकने पर वस्त्र आदि की अनुज्ञापना करे। ४८४९.जइ पुण संथरमाणा, ण दिति इतरे व तेसि गिण्हंति। तिविधं आदेसो वा, तेण विणा जा य परिहाणी॥ यदि क्षेत्रिक मुनियों के पास निर्वाहयोग्य वस्त्र हों और वे यदि अक्षेत्रीय मुनियों को वस्त्र नहीं देते अथवा वे अक्षेत्रीय मुनि बलात् लेते हैं तो तीन प्रकार का प्रायश्चित्त (जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट) सूत्र के आदेश से प्राप्त होता है। तथा वस्त्र के बिना जो परिहानि होती है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। ४८५०.जे खेत्तिया मो त्ति ण देति ठागं, लंभे वि जाऽऽगंतुवयंते हाणी। पेल्लंति वाऽऽगंतु असंथरम्मि, चिरं व दोण्हं पि विराहणा उ॥ यदि क्षेत्रीय मुनि भक्तपान का प्रचुरलाभ होने पर भी दूसरों को स्थान नहीं देते तो आगंतुक मुनियों के जो परिहानि होती है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। यदि आगंतुक क्षेत्रीय मुनियों को प्रेरित कर वहां चिरकाल तक या अल्प काल तक रहते हैं तो क्षेत्रीय मुनियों के असंस्तरण से होने वाली विराधना का प्रायश्चित्त आता है। ४८५१.अत्थि हु वसभग्गामा, कुदेसणगरोवमा सुहविहारा। बहुगच्छुवग्गहकरा, सीमच्छेदेण वसियव्वं ।। वहां वृषभग्राम हों जो कुदेश के नगर की उपमा वाले हों, सुखविहार वाले हों, अनेक गच्छों के उपग्रहकारक हों तो वहां सीमा बनाकर रहा जा सकता है। ४८५२. एक्कवीस जहण्णेणं, पुवट्ठिते उग्गहो इतरे भत्तं। पल्ली पडिवसभे वा, सीमाए अंतरा गामो।। वृषभग्राम उन्हें कहा जाता है जहां वर्षा ऋतु में इकतीस सन्त और ऋतुबद्धकाल में पन्द्रह सन्त रह सकते हैं। वहां जो पूर्वस्थित मुनि हैं, उनका अवग्रह होता है। जो केवल भक्तपान के लिए रहते हैं उन्हें सीमा करके रहना चाहिए। सीमा जैसे-तुम अन्तरपल्ली में पर्यटन करो, हम प्रतिवृषभग्राम-मूलगांव से आधे योजन की दूरी पर स्थित बड़े होती। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० =बृहत्कल्पभाष्यम् गांव में पर्यटन करेंगे। अथवा प्रतिवृषभग्राम और मूलग्राम के मध्य में जो ग्राम है, उसमें आधे में आप पर्यटन करें आधे में हम पर्यटन करेंगे यह सीमा बांधे।। ४८५३.इंदक्खीलमणोग्गहो, जत्थ य राया जहिं च पंच इमे। सेट्टि अमच्च पुरोहिय, सेणावति सत्थवाहे य॥ जहां इन्द्रकीलक-इन्द्रस्थूणा आरोपित होता है वहां अवग्रह नहीं होता। जहां राजा रहता है, वहां ये पांच होते हैंश्रेष्ठी, अमात्य, पुरोहित, सेनापति और सार्थवाह। वहां भी अवग्रह नहीं होता। ४८५४.अद्धाणसीसए वा, समोसरणे वा वि ण्हाण अणुयाणे। ___एतेसु णत्थि उग्गहो, वसहीए मग्गण अखेत्ते॥ अध्वशीर्षक, समवसरण, स्नान-अर्हत् प्रतिमा को स्नान कराने का स्थान, रथयात्रा-इन सबमें अवग्रह नहीं होता। अतः ये अवग्रह के अक्षेत्र होते हैं। इनमें रहते हुए अवग्रह की मार्गणा करनी चाहिए। ४८५५.बहुजणसमागमो तेसु होति बहुगच्छसन्निवातो य। मा पुव्वं तु तदट्ठा, पेल्लेज अकोविया खेत्तं॥ इन्द्रकीलक आदि स्थानों में बहुत सारे लोगों का समागम होता है। वहां उनके गच्छों का सन्निपात होता है। वहां कोई पहले आकर क्षेत्र को अपना न बना ले, इसलिए वहां अवग्रह नहीं होता। ४८५६.सहा दलंता उवहिं निसिद्धा, सिटे रहस्सम्मि करेज्ज मन्न। पभावयते य ण मच्छरेणं, तित्थं सलद्धी दुहतो वि हाणी॥ वहां पहले जाने वाले मुनि को श्राद्ध वस्त्र आदि देते हैं, उनको निषेध कर देते हैं कि यह लेना हमें नहीं कल्पता। श्राद्धों को मन में मन्यु-अप्रीति उत्पन्न हो जाती है। वे मुनि लब्धि आदि से संपन्न हैं। वे सोचते हैं-हमें यहां कुछ भी लाभ नहीं होगा, इस मात्सर्यभाव से वे उस क्षेत्र को धर्मकथा आदि से प्रभावित नहीं करते। इस प्रकार दोनों ओर से हानि-न शैक्ष कोई प्राप्त होता है और न आहार, वस्त्र आदि प्राप्त होते हैं। ४८५७.एगालयट्ठियाणं, तु मग्गणा दूरे मग्गणा नत्थि। आसण्णे तु ठियाणं, तत्थ इमा मग्गणा होइ॥ एक वसति में रहने वाले मुनियों के अवग्रह की मार्गणा होती है। जो दूर स्थित है उनके अवग्रह की मार्गणा नहीं होती। जो निकट स्थित हैं उनके अवग्रह की मार्गणा होती है। ४८५८.सज्झाय काल काइय, निल्लेवण अच्छणे असति अंतो। वसहिगमो पेल्लंते, वसही पुण जा समापुण्णा॥ उपाश्रय में यदि स्वाध्यायभूमी, कालप्रतिलेखनाभूमी, कायिकीभूमी, पात्रनिर्लेपनभूमी, बैठने की भूमी-ये सारी एक साथ अनुज्ञापित हों तो सबके लिए साधारण होती हैं। जो वहां पूर्वस्थित हैं, उनके अवग्रह होता है, बाद में आने वालों का नहीं। यदि स्थान रिक्त हो और आने वालों की अनुज्ञापना नहीं करते हैं तो वसति संबंधी जो विकल्प है, वही प्रायश्चित्त इसमें लागू होता है। वसति यदि श्रमणों से पूर्ण हो और दूसरों को वहां प्रेरित करे तो वहां दोष होते हैं। ४८५९.वइगा सत्थो सेणा, संवट्टो चउविहं चलं खेत्तं। एतेसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ जिका, सार्थ, सेना और संवर्त-ये चारों चल क्षेत्र हैं। मैं अब क्रमशः इनके नानात्व की चर्चा करूंगा। ४८६०.जेणोग्गहिता वइगा, पमाण तूह दुह भंडि परिभोगे। समवइग पुव्व उग्गह, साहारण जं च णीसाए।। जिस साधु ने जिस वजिका का अवग्रहण कर लिया है, वह व्रजिका का स्वामी होता है। कुछ आचार्य इसका प्रमाण मानते हैं जितने भूभाग में गाएं चरने वाली हैं, वहां तक उसका अवग्रह होता है, जलपान के लिए गाएं जितने भूभाग में, कोई कहता है जहां गाएं दुही जाती हैं आचार्य कहते हैं ये सारे अनादेश हैं। जितने स्थान में भण्डिका-शकट रहते हैं-यह अवग्रह का प्रमाण है। जहां साधुओं के दो वर्ग एक ही वजिका में हो तो वहा वजिका साधारण होती है-दोनों की होती है। एक वर्ग पूर्वस्थित हो तो उसका अवग्रह होता है। यदि दो वर्ग पारम्परिक निश्रा से ठहरे हों तो अवग्रह साधारण होता है। ४८६१.ण गोयरो णेव य गोणिपाणं, णावे? दुज्झंति व जत्थ गावो। अब्भत्थ गोणादिसु जत्थ खुण्णं, स उग्गहो सेसमणुग्गहो तु॥ न गोचर, न गोपानस्थान, न गायों को दुहने का स्थान, अवग्रह होता है किन्तु जिका के आसपास जहां गाएं घूमती हैं जितनी भूमी शकटों से आक्रान्त हो, उतना ही अवग्रह होता है, शेष अवग्रह नहीं होता। ४८६२.जइ समगं दो वइगा, ठिता तु साधारणं ततो खेत्तं। अण्णवइगाए सहिता, तत्थेवऽण्णे ठिता अपभू ।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक ५०१ ___ यदि एक ही वजिका में दो गच्छ स्थित हों तो दोनों के ग्लान आदि के कारण से स्थित हों तो वे अवग्रह के स्वामी लिए क्षेत्र समान होता है। किसी वजिका में पहले साधु स्थित होते हैं। हैं, फिर दूसरे साधु दूसरी वजिका से वहां आएं और वहीं ४८६८.अन्नत्थ वा वि ठाउं, पाइंति कइल्लए जइ निवाणे। स्थित हों तो पहले वाले साधु उस वजिका के स्वामी हैं, ते खलु ण होति पहुणो, सभावतूहे पहू इंति॥ पश्चात् आगत साधु प्रभु नहीं हैं। अथवा पूर्वकृत कुटी या पडालिका को छोड़कर अन्यत्र ४८६३.अन्नोन्नं णीसाए, ठिताण साहारणं तु दोण्हं पि। स्थित हों और यदि पूर्वकृत निपान में गायों को पानी पिलाते ___णीसट्ठिताए अपभू, तत्थ व अण्णत्थ व वसंता॥ हैं तो आगंतुक साधु अवग्रह के अप्रभु होते हैं। यदि जो मुनि परस्पर निश्रा में स्थित हो तो वह क्षेत्र दोनों के स्वाभाविक निपान में पानी पिलाते हैं तो आगंतुक साधु प्रभु लिए साधारण होता है। निश्रा से स्थित साधु तथा आगंतुक होते हैं। साधु उसी वजिका में स्थित हों तो वे पश्चात् आगत मुनि ४८६९.एमेव कासकप्पे, अतीरिए उट्टियाए पत्तियरा। अप्रभु होते हैं, पूर्वस्थित साधु ही प्रभु होते हैं। पुविल्ला हुंति पहू, पुण्णे हट्ठा य न लहंति॥ ४८६४.दुग्गट्ठिए वीरअहिट्ठिए वा, इसी प्रकार असंपूर्ण मासकल्प वाले क्षेत्र में पूर्व वजिका ___कते णिवाणे व ठिएहिं पुव्वं। उत्थित हो गई और नई वजिका आ गई तो पूर्वस्थित साधु भएण तोयस्स व कारणेणं, अवग्रह के स्वामी होते हैं। जो स्वस्थ होने पर भी वहीं रहते ठायंतगाणं खलु होइ णिस्सा॥ हैं तो वे अवग्रह के स्वामी नहीं होते। दुर्ग पर स्थित या अन्य निर्भयस्थान पर स्थित अन्य ४८७०.फासुग गोयरभूमी, उच्चारे चेव छण्ण वसही य। वजिका अथवा वीर स्वामी द्वारा अधिष्ठित वजिका अथवा - हट्ठा वि लभंतेवं, तदभावे पच्छ जे पत्ता॥ पूर्वस्थित गोकुल द्वारा कृत निपानस्थान है वहां भय के कारण यदि वहां प्रासुक गोचरभूमी और उच्चारभूमी हो और या पानी के कारण वहां रहने वालों के लिए दूसरे वे आच्छन्न वसति प्राप्त हो और नीरोग मुनि भी वहां रहें तो गोकुलिकों की निश्रा होती है। उन्हें अवग्रह का लाभ मिलता है। उन कारणों के अभाव में ४८६५.भयसा उठूतुमणा, वइगा अण्णा य तत्थ जइ एज्जा। पूर्व मुनियों को नहीं, किन्तु पश्चाद् प्राप्त मुनियों को अवग्रह पच्छापत्ते निस्सा, जे पुव्वठिया ण ते पभुणो॥ का लाभ मिलता है। कोई वजिका भय के कारण अपने स्थान से अन्यत्र ४८७१.जेणोग्गहिओ सत्थो, जाना चाहती है, यदि नई वजिका वहां आ जाए, यदि जेण य सस्थाहो समग दोण्हं पि। उसकी निश्रा पूर्व जिका लेती है तो पूर्वस्थित मुनि जावइया पडिसत्था, उसके अवग्रह के स्वामी नहीं होते, किन्तु पश्चात् आने पुव्वठिय साहारणं जं च॥ वाले के होते हैं। जिस साधु ने सार्थ का पहले अवग्रहण कर लिया या ४८६६.वइगाए उट्ठियाए, अच्छंते अहव होज्ज गेलन्नं। जिसने सार्थवाह को पहले अनुज्ञापित कर लिया है उसका अन्ने तत्थ पविट्ठा, तम्मि व अण्णम्मि वा तूहे॥ अवग्रह होता है। जितने भी प्रतिसार्थ-छोटे सार्थ होते हैं बड़े जिस वजिका में साधु रहते थे वह वजिका वहां से उठ सार्थ से मिलते हैं और उनमें जो साधु होते है वे पूर्व साधुओं गई, वहां रहने वाले मुनि अथवा कोई मुनि ग्लान हो गया तो से उपसंपन्न होते हैं। वहां परस्पर निश्रा से रहने के कारण मुनि वहीं रह रहे हैं और वहां अन्य गोकुलिक प्रविष्ट हो गए वह साधारण होता है, सबके लिए समान होता है। तो वहां 'तूहे'-गायों के पानी पीने का स्थान हो या अन्यत्र ४८७२.सत्थे अहप्पधाणा, एक्केणेक्केण सत्थवाहो उ। स्थान के अवग्रह की मार्गणा होती है। आपुच्छिया विदिण्णे, दोण्ह वि मिलिया व एगट्ठा। ४८६७.जइ वा कुडी-पडालिसु,पुव्विल्लकतासु ते ठिता संता। सार्थ में जो प्रधानपुरुष होते हैं उनको एक साधु ने __ अण्णम्मि वि पज्जेता, तूहे अस्सामिणो होति॥ अनुज्ञापित कर डाला और एक ने सार्थवाह से पूछ लिया यदि वे आगंतुक गोकुलिक पूर्व गोकुलिकों द्वारा किए और उसने आज्ञा दे दी तो दोनों का वह साधारण क्षेत्र हुए कुटी, पडालिका में स्थित हो तो अन्य तीर्थ में गायों को होता है। पानी पिलाने पर भी अवग्रह के अस्वामी होते हैं। अतः ४८७३.इंतं महल्लसत्थं, डहरागो पडिच्छए ण ते पभुणो। पूर्वस्थित साधु यदि निष्कारण होते हैं तो वे अस्थायी हैं। तुरियं वा आधावति, भएण एमेव अस्सामी। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ किसी महान् सार्थ को कोई लघुतर सार्थ प्रतीक्षा करता है तो लघुतर सार्थ के साधु अवग्रह के स्वामी नहीं होते। जो सार्थ भय के कारण महान् सार्थ से मिलने के लिए त्वरा करता है वह भी अस्वामी होता है। ४८७४.अडवीमज्झम्मि णदी, दुग्गं वा एत्थ दो वि वसिऊणं। वोलेहामो पभाए, णिस्सा साधारणं कुणइ॥ दो सार्थ एकत्र मिले। उन्होंने परस्पर यह निश्रा की जो अटवी के मध्य नदी है वहां दोनों सार्थ रात्री में विश्राम कर प्रभात में आगे प्रस्थान करेंगे। दोनों के निश्रा के कारण सारा आभाव्य साधारण होता है, दोनों का होता है। ४८७५.सेणाए जत्थ राया, अणोग्गहो जत्थ वा पविट्ठो सो।। सेसम्मि उग्गहो जो, गमो उ वइगाए सो इहइं॥ = बृहत्कल्पभाष्यम् __ जहां जिस सेना में राजा होता है, वहां अवग्रह नहीं होता तथा जिस नगर या गांव में राजा प्रवेश कर जाता है, वहां भी अवग्रह नहीं होता। शेष क्षेत्र में जो अवग्रह होता है, वह समान होता है। वजिका के विषय में जो विकल्प कहा गया है, वह यहां भी लागू होता है। ४८७६.नागरगो संवट्टो, अणोग्गहो जत्थ वा पविठ्ठो सो। सेसम्मि उग्गहो जो, गमो उ सत्थम्मि सो इहई। नगर संबंधी संवर्त में अवग्रह नहीं होता तथा नागरक संवर्त्त जहां प्रविष्ट होता है, वहां भी अवग्रह नहीं होता। शेष अर्थात् ग्रामेयक संवर्त में अवग्रह होता है, परंतु सार्थ के विषय में जो विकल्प कहा है, वह यहां भी द्रष्टव्य है। तीसरा उद्देशक समाप्त Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक (गाथा ४८७७-५६८१) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक पिकाले पायच्छित्त-पदं ४८८१.तह वि य अठायमाणे, तिरिक्खमाईसु होइ मेहुन्नं । निसिभत्तं गिरिजण्णे, अरुणम्मि व दुद्धमाईयं। तओ अणुग्घाइया पण्णत्ता, तं वजिका में निवास करने वाले मुनि उपचितमांस वाले जहा-हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं होकर हस्तकर्म न करें, यह प्रस्तुत सूत्र का विषय है। यही पडिसेवमाणे, राईभोयणं भुंजमाणे॥ सूत्र का आदिपद सूचित करता है। (सूत्र १) तथापि हस्तकर्म को न छोड़ने पर कदाचित् तिर्यञ्चों से भी मैथुन की प्रतिसेवना हो सकती है। वहां गिरियज्ञ आदि में ४८७७.सुत्ते सुत्तं बज्झति, अंतिमपुप्फे व बज्झती तंतू। रात्रीभक्त का वह सेवन कर सकता है तथा अरुणोदयवेला में _ इय सुत्तातो सुत्तं, गहंति अत्थातो सुत्तं वा॥ दूध आदि भी ग्रहण कर सकता है। सूत्र (तन्तु) के साथ सूत्र बांधा जाता है। अंतिम पुष्प में ४८८२.एक्कस्स ऊ अभावे, कतो तिगं तेण एक्कगस्सेव। पहले तन्तु से दूसरा तन्तु बांधा जाता है। इस प्रकार सूत्र से णिक्खेवं काऊणं, णिप्फत्ती होइ तिण्हं तु॥ सूत्र ग्रथित होता है। अथवा अर्थ से दूसरा सूत्र ग्रथित होता एक के अभाव में तीन कहां से होगा। इसलिए 'एक' का है। 'वा' शब्द के द्वारा अर्थ से अर्थ का संबंध भी होता है। ही निक्षेप करने के पश्चात् तीन की निष्पत्ति होती है। ४८७८.घोसो त्ति गोउलं ति य, एगटुं तत्थ संवसं कोई। ४८८३.नामं ठवणा दविए, मातुगपद संगहेक्कए चेव। खीरादिविंघियतणू, मा कम्मं कुञ्ज आरंभो॥ पज्जव भावे य तहा, सत्तेएक्केवगा होति। घोष और गोकुल-ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। वहां रहने ये सात एक-एक होते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, वाला कोई मुनि अपने शरीर को दूध आदि के सेवन से मातृकापद, संग्रह, पर्यव और भाव। हृष्ट पुष्ट कर लेता है। वहां रहता हुआ वह हस्तकर्म आदि ४८८४.दव्वे तिविहं मादकपदम्मि उप्पण्ण-भूय-विगतादी। न करे, मैथुन का सेवन न करे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का सालि त्ति व गामो त्ति व, संघो त्ति व संगहेक्कं तु॥ प्रारंभ है। द्रव्य एकक तीन प्रकार का होता है-सचित्त, अचित्त और ४८७९.हेट्ठाऽणंतरसुत्ते, वुत्तमणुग्याइयं तु पच्छित्तं। मिश्र। मातृकापद एकक भी तीन प्रकार का है-उत्पन्न, भूत तेण व सह संबंधो, एसो संदट्ठओ णामं॥ और विगत संग्रह एकक बहुत्व होने पर भी एक वचन से तीसरे उद्देशक के अंतिम सूत्र के पश्चात्वर्ती सूत्र 'रोधक अभिहित होता है जैसे शालि, ग्राम, संघ आदि। सूत्र' में भिक्षाचर्या के लिए गया हुआ मुनि रात्री में वहीं रह ४८८५.दुविकप्पं पज्जाए, आदि8 जण्ण-देवदत्तो त्ति। जाता है तो उसको साक्षात् अनुद्घातिक प्रायश्चित्त प्राप्त अणादि8 एक्को त्ति य, पसत्थमियरं च भावम्मि। होता है यह कहा है, यहां (प्रस्तुत सूत्र में) भी यही कहा है, पर्याय एकक दो प्रकार का होता है-आदिष्ट-यज्ञदत्त, इसलिए उसके साथ (रोधक सूत्र के साथ) इसका। देवदत्त आदि, अनादिष्ट-कोई एक मनुष्य। भाव एकक के दो 'संदष्टक'२ नामक संबंध है। प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त। ४८८०.उवचियमंसा वतियानिवासिणो मा करेज्ज करकम्म। ४८८६.नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य गणण भावे य। इति सुत्ते आरंभो, आइल्लपदं च सूएइ॥ एसो उ खलु तिगस्सा, निक्खेवो होइ सत्तविहो। १. इसी प्रकार जिस अंतिम सूत्र से उद्देशक पूरा होता है, उस सूत्र से अगले उद्देशक का पहला सूत्र यदि सदृशविषयवस्तु वाला हो तो सूत्र से सूत्र बांधा जाता है। कहीं-कहीं अर्थ के आधार पर भी अपर सूत्र का संबंध होता है। (वृ. पृ. १३०७) २. 'सन्दष्टको' नाम सदृशपूर्वापरसूत्रद्वयसन्दंशकगृहीत इव संबंधो भवति। (वृ. पृ. १३०८) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ =बृहत्कल्पभाष्यम् त्रिक का निक्षेप सात प्रकार का होता है-नामत्रिक, स्थापनात्रिक, द्रव्यत्रिक, क्षेत्रत्रिक, कालत्रिक, गणनात्रिक और भावत्रिक। ४८८७.दव्वे सच्चित्तादी, सच्चित्तं तत्थ होइ तिविहं तु। दुपय चतुप्पद अपदं, परूवणा तस्स कायव्वा॥ द्रव्यत्रिक के तीन प्रकार हैं-सचित्तत्रिक, अचित्तत्रिक और मिश्रत्रिक। सचित्तत्रिक के तीन प्रकार हैं-द्विपदत्रिक, चतुष्पदत्रिक और अपदत्रिक। उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। ४८८८.परमाणुमादियं खलु, अच्चित्तं मीसगं च मालादी। तिपदेस तदोगाढं, तिण्णि व लोगा उ खेत्तम्मि॥ परमाणुत्रिकादि आदि शब्द से द्विप्रदेशिकत्रय यावत् अनन्तप्रदेशिकत्रय अचित्त है। मालादित्रिक मिश्रत्रिक है। तीन प्रदेशों में अवगाढ़ द्रव्य क्षेत्रत्रय है अथवा तीन लोक हैंऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक ये क्षेत्रत्रय हैं। ४८८९.तिसमय तद्वितिगं वा, कालतिगं तीयमातिणो चेव। भावे पसत्थमितरं, एक्केक्कं तत्थ तिविहं तु॥ तीन समय, त्रिसमयस्थितिक, या कालत्रिक-अतीत, अनागत और वर्तमान। भाव दो प्रकार का है-प्रशस्त और अप्रशस्त। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र-यह प्रशस्त है। मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति यह अप्रशस्त है। ४८९०.उग्घातमणुग्याते, निक्खेवो छव्विहो उ कायव्वो। नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य भावे य॥ उद्घातिक और अनुद्घातिक शब्द के छह-छह प्रकार के निक्षेप होते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। ४८९१.उग्घायमणुग्घाया, दव्वम्मि हलिद्दराग-किमिरागा। खेत्तम्मि कण्हभूमी, पत्थरभूमी य हलमादी॥ द्रव्यतः उद्घातिक है-हरिद्राराग और अनुद्घातिक हैकृमिराग। क्षेत्रतः उद्घातिक है कृष्णभूमी और अनुद्घातिक है प्रस्तरभूमी। क्योंकि हल, कुलिक आदि से कृष्णभूमी खोदी जा सकती है, प्रस्तरभूमी अशक्य होती है। ४८९२.कालम्मि संतर णिरंतरं तु समयो य होतऽणुग्घातो। भव्वस्स अट्ठ पयडी, उग्घातिम एतरा इयरे॥ कालतः उद्घातिक है-सान्तर प्रायश्चित्त और अनुद्घातिक है-निरन्तर प्रायश्चित्तदान। भाव से उद्घातिक हैं भव्य प्राणी की आठ कर्म प्रकृतियां और अनुद्घातिक हैं अभव्य की कर्मप्रकृतियां। ४८९३.जेण खवणं करिस्सति, कम्माणं तारिसो अभव्वस्स। ण य उप्पज्जइ भावो, इति भावो तस्सऽणुग्घातो॥ जिससे अभव्य व्यक्ति अपने कर्मों का क्षपण कर सके वैसा भाव उसमें उत्पन्न नहीं होता। उसका भाव अनुद्घात होता है, वह कर्मों का उद्घात नहीं कर सकता। अतः उसके कर्म अनुद्घातिक होते हैं। ४८९४.हत्थे य कम्म मेहुण, रातीभत्ते य होतऽणुग्घाता। एतेसिं तु पदाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं। हस्तकर्म करना, मैथुनसेवन करना और रात्रीभोजन करना इन तीनों का अनुद्घातिक प्रायश्चित्त (गुरु प्रायश्चित्त) आता है। इन तीनों पदों की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा करूंगा। ४८९५.नाम ठवणाहत्थो, दव्वहत्थो य भावहत्थो य। दुविहो य दव्वहत्थो, मूलगुणे उत्तरगुणे य॥ नामहस्त, स्थापनाहस्त, द्रव्यहस्त और भावहस्त-इस प्रकार हाथ चार प्रकार का होता है। द्रव्यहस्त दो प्रकार का है-मूलगुणनिर्वर्तित और उत्तरगुणनिर्वर्तित। मूलजीव के गुण से निर्वर्तित हस्तमूलगुणनिर्वर्तित हस्त तथा काष्ठ, चित्र लेप्य कर्म आदि में निर्वर्तितहस्त उत्तरकर्मनिवर्तित हस्त कहलाता है। ४८९६.जीवो उ भावहत्थो, णेयव्वो होइ कम्मसंजुत्तो। बितियो वि य आदेसो, जो तस्स विजाणओ पुरिसो॥ जीव का कर्मसंयुक्त हस्त अर्थात् आदान-निक्षेप आदि क्रियायुक्त, भावहस्त जानना चाहिए। इस विषयक दूसरा आदेश-मत भी है-उस हस्त का ज्ञायक पुरुष भी भावहस्त है। ४८९७.नाम ठवणाकम्मं, दव्वकम्मं च भावकम्मं च। दव्वम्मि तुण्णदसिता, अधिकारो भावकम्मेणं॥ कर्मपद के चार निक्षेप हैं-नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्म। द्रव्यकर्म है-तुनना, दशिकाओं को बांधना। यहां भावकर्म का अधिकार है। अतः भावहस्त से जो कर्म होता है वह हस्तकर्म है। ४८९८.दुविहं च भावकम्मं, असंकिलिटुं च संकिलिटुं च। ठप्पं तु संकिलिटुं, असंकिलिटुं तु वोच्छामि। भावकर्म दो प्रकार का होता है-असंक्लिष्ट और संक्लिष्ट। जो स्थाप्य होता है वह संक्लिष्ट है। अब मैं असंक्लिष्ट भावकर्म की बात कहूंगा। ४८९९.छेदणे भेयणे चेव, घंसणे पीसणे तहा। अभिघाते सिणेहे य, काये खारे त्ति यावरे॥ असंक्लिष्ट कर्म के आठ प्रकार हैं-छेदन, भेदन, घर्षण, पेषण, अभिघात, स्नेह, काय तथा क्षार। ४९००.एक्केक्कं तं दुविहं, अणंतर परंपरं च णायव्वं । अट्ठाऽणट्ठा य पुणो, होति अणट्ठाय मासलहुँ। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ ती चौथा उद्देशक ये छेदन आदि दो-दो प्रकार के होते हैं-शुषिर और अशुषिर। प्रत्येक दो-दो प्रकार के हैं-अनन्तर और परम्पर। ये पुनः दो-दो प्रकार के हैं सार्थक और निरर्थक। अनर्थक या निरर्थक छेदन आदि करने वाले को मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४९०१.नह-दंतादि अणंतर, पिप्पल्लमादी परंपरे आणा। ___छप्पइगादि असंजमे, छेदे परितावणातीया॥ नखों से, पैरों आदि से छेदन आदि करना अनन्तर छेदन कहलाता है। पिप्पलक आदि से छेदन परंपर छेदन है। अनन्तर तथा परंपर छेदन करने वाला आज्ञाभंग का भागी होता है। छेदन आदि करते हुए जूं आदि का विनाश हो जाता है। यह असंयम है। छेदन करते समय हाथ, पैर का छेदन हो जाता है। यह आत्मविराधना है। इसमें परिताप आदि महान् कष्ट होता है, उससे निष्पन्न पारांचिक प्रायश्चित्त भी आ सकता है। ४९०२.अझुसिर झुसिरे लहुओ, लहुगा गुरुगो य होति गुरुगा य। संघट्टण परितावण, लहु-गुरुगऽतिवायणे मूलं॥ अशुषिर अनन्तर का छेदन करना है मासलघु, शुषिर का चतुर्लघु, अशुषिर परंपर का गुरुमास, शुषिर परंपर का चतुर्गुरुक ये सारे प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। छेदन आदि करता हुआ यदि द्वीन्द्रिय प्राणी का संघट्टन करता है चतुर्गुरु, परितापना देता है चतुर्गुरु, उपद्रवण करता है तो षड्लघु त्रीन्द्रिय आदि का संघट्टण करता है चतुर्गुरु, परितापन देता है षड्लघु, उपद्रवण करता है षड्गुरु, चतुरिन्द्रिय का संघट्टन करने पर षड्लघु, परितापना देने पर षड्गुरु, उपद्रवण करने पर छेद, पंचेन्द्रिय का संघट्टन करने पर षड्गुरु, उपद्रवण करने पर छेद और अतिपात करने पर मूल। सविस्तार यह प्रायश्चित्त (पीठिका गाथा ४६१) के अनुसार यहां भी जानना । चाहिए। ४९०३.अझुसिरऽणंतर लहुओ, गुरुगो अ परंपरे अझुसिरम्मि। झुसिराणंतरे लहुगा, गुरुगा तु परंपरे अहवा॥ अशुषिर अनन्तर में लघुमास, और परंपर में गुरुमास। शुषिर अनन्तर में चतुर्लघु और परंपर में चतुर्गुरुक। अथवा का अर्थ है कि प्रायश्चित्त का प्रकारान्तर भी है। ४९०४.एमेव सेसएसु वि, कर-पादादी अणंतरं होइ। ___जं तु परंपरकरणं, तस्स विहाणं इमं होति॥ इसी प्रकार छेदनवत् शेष भेदन आदि पदों में भी प्रायश्चित्त कहना चाहिए। हाथ, पैर आदि से होने वाला भेदन आदि अनन्तर होता है। जो भेदन आदि के परंपराकरण होता है उसका विधान इस प्रकार है। ४९०५.कुवणयमादी भेदो, घसण मणिमादियाण कट्ठादी। पट्टवरादी पीसण, गोप्फण-धणुमादि अभिघातो॥ लाठी आदि से घड़े का भेदन करना, यह परंपराभेदन कहलाता है। मणि आदि का घर्षण करना, अथवा चन्दन के काष्ठ आदि फलक का घिसना, गंधपट्ट को पीसना, चर्ममयी गोफण, धनुष्य आदि से पत्थर आदि फेंक कर अभिघात करना। ४९०६.विहुवण-णंत-कुसादी, सिणेह उदगादिआवरिसणं तु। काओ तु बिंब सत्थे, खारो तु कलिंचमादीहिं॥ वीजनक, वस्त्र तथा कुश आदि से वीजना-यह भी प्राणियों का अभिघात करता है। स्नेह अर्थात् उदक, घृत, तैल आदि से आवर्षण करना। काय अर्थात् द्विपदादि के बिम्ब को शस्त्र रूप में पत्र छेदन आदि के रूप में निर्वर्तन करना, क्षार को शुषिर या अशुषिर में किलिंचक से प्रक्षिप्त करनाइनसे दोष उत्पन्न होते हैं। ४९०७.एक्केक्कातो पदातो, आणादीया य संजमे दोसा। एवं तु अणट्ठाए, कप्पइ अट्ठाए जयणाए। भेदन आदि प्रत्येक पद में आज्ञाभंग आदि दोष होता है तथा आत्मविराधना और संयमविराधना भी प्राप्त होती है। ये दोष अनर्थक छेदन-भेदन से होते हैं, प्रयोजनवश यदि यतनापूर्वक छेदन-भेदन किया जाता है तो वह कल्पता है। ४९०८.असती अधाकडाणं, दसिगादिगछेदणं व जयणाए। गुलमादि लाउणाले, कप्परभेदादि एमेव ।। यदि यथाकृत वस्त्र की प्राप्ति नहीं होती है तो किनारों आदि को यतनापूर्वक काटा जा सकता है। गुड़ के घड़े का भेदन, तुंबे की नाल का, घड़े के कपाल का यतनापूर्वक भेदन किया जा सकता है। ४९०९.अक्खाण चंदणे वा, वि घंसणं पीसणं तु अगतादी। वग्घातीणऽभिघातो, अगतादि पताव सुणगादी। विषम अक्षों को घिसना, चंदन को घिसना, औषधियों को पीसना, व्याघ्र आदि का अभिघात करना, अगद आदि जब धूप में सुकाया जाता है तब कौए आदि वहां आते हैं, तब उनको पत्थर फेंक कर उड़ाना या डराना-ये सब कार्य करने होते हैं। ४९१०.बितिय दवुज्झण जतणा, दाहे वा भूमि-देहसिंचणता। पडिणीगाऽसिवसमणी, पडिमा खारो तु सेल्लादी॥ इसमें अपवाद पद यह है। शेष बचे हुए घी, तैल आदि Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ =बृहत्कल्पभाष्यम् को राख में मिलाकर उनका परिष्ठापन करे। पानक का सचित्त स्त्रीरूप होता है। प्रतिश्रय में जो स्त्री आती है वह परिष्ठापन यतनापूर्वक करे, गाढ़तर परितप्त उपाश्रय की आगन्तुक होती है। भूमी में छिटकाव करे या प्यास से अभिभूत देह का सिंचन ४९१७.आलिंगणादी पडिसेवणं वा, करे। कोई प्रत्यनीक कुछ मंत्र आदि करे तो उसके उपशमन द8 सचित्ताणमचेदणे वा। के लिए अशिवप्रशमनी प्रतिमा का निर्माण करे। प्रसूति के सद्देहि रूवेहि य इंधितो तू, प्रशमन के लिए क्षार का प्रक्षेपण करे। सेल्ल का अर्थ मोहग्गि संदिप्पति हीणसत्ते॥ है-बालमय सिन्दूर। वहां क्षार का क्षेपण करना चाहिए। सचित्त-सचेतन स्त्रियों के आलिंगन आदि तथा ४९११.कम्मं असंकिलिटुं, एवमियं वण्णियं समासेणं। प्रतिसेवना को देखकर अथवा अचेतन स्त्रियों के रूपों को कम्मं तु संकिलिटुं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ देखकर अथवा प्रतिसेव्यमान स्त्रियों के शब्दों को सुनकर, इस प्रकार यह असंक्लिष्ट हस्तकर्म संक्षेप में वर्णित है। उन शब्दों और रूपों से कामवासना के लिए प्रज्वलित होकर अब यथानुपूर्वी संक्लिष्ट हस्तकर्म कहूंगा। किसी शक्तिहीन मुनि के मोहाग्नि प्रदीप्त हो जाती है। तब ४९१२.वसहीए दोसेणं, दट्ट् सरितुं व पुव्वभुत्ताई। अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। __ एतेहिं संकिलिटुं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ ४९१८.कोतूहलं च गमणं, सिंगारे कुड्डछिद्दकरणे य। वसति को दोष से, या स्त्रियों के आलिंगन आदि को दिद्वे परिणय करणे, भिक्खुणो मूलं दुवे इतरे॥ देखकर या पूर्वभुक्त भोगों का स्मरण कर उत्पन्न होने वाला उसके मन में कुतूहल उत्पन्न होता है कि निकटता से हस्तकर्म संक्लिष्ट होता है। वह मैं संक्षेप में कहूंगा। देखें, तब वह उस ओर गमन करता है अथवा शृंगारयुक्त गीत ४९१३.दुविहो वसहीदोसो, वित्थरदोसो य रूवदोसो य। गाने वाली के निकट जाता है या भीत में छिद्रकर उससे दुविहो य रूवदोसो, इत्थिगत णपुंसतो चेव॥ देखता है। देख कर वह मुनि भी उस भाव में परिणत होकर वसतिदोष दो प्रकार का होता है-विस्तर दोष और 'मैं भी ऐसा करूं' यह सोचकर वह आलिंगन आदि करता रूपदोष। रूपदोष के दो प्रकार हैं-स्त्रीरूपगत और नपुंसक है। उस मुनि को 'मूल' तक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा 'दो रूपगत। इतर' अर्थात् उपाध्याय और आचार्य को क्रमशः अनवस्थाप्य ४९१४.एक्केक्को सो दुविहो, सच्चित्तो खलु तहेव अच्चित्तो।। और पारांचिक तक प्रायश्चित्त आता है। अच्चित्तो वि य दुविहो, तत्थगताऽऽगंतुओ चेव॥ ४९१९.लहुतो लहुगा गुरुगा, छम्मासा छेद मूल दुगमेव। इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-सचित्त और अचित्त। अचित्त दिद्वै य गहणमादी, पुव्वुत्ता पच्छकम्मं च॥ भी दो प्रकार का है-तत्रगत और आगंतुक। वहां जाकर सुनने पर मासलघु, कुतूहल होने पर ४९१५.कटे पुत्थे चित्ते, दंतोवल मट्टियं व तत्थगतं। मासगुरु, वहां जाने पर चतुर्लघु, श्रृंगार सुनने पर चतुर्गुरु, एमेव य. आगंतुं, पालित्तय बेट्टिया जवणे॥ भींत में छिद्र करने पर षड्लघु, छिद्र से देखने पर षड्गुरु, जो स्त्री की प्रतिमा काष्ठगत, पुस्तगत, अथवा चित्रगत तद्भाव परिणत होने पर छेद, आलिंगन आदि करने पर होती है अथवा जिस वसति में स्त्रीप्रतिमा दन्तमय, मूल-यह भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त है। उपाध्याय के मासगुरु उपलमय या मृत्तिकामय होती है वह तत्रगत है। इसी प्रकार से प्रारंभ होकर अनवस्थाप्य तक जाता है। आचार्य के आगंतुक होती है। यहां पादलिप्त आचार्य कृत राजकन्या का चतुर्लघु से पारांचिक तक प्रायश्चित्त जाता है। आरक्षिक दृष्टांत है। यवन देश में इस प्रकार के स्त्रीरूप प्रचुरता से द्वारा देखे जाने पर ग्रहण-आकर्षण आदि पूर्वोक्त दोष तथा होते थे। आलिंगन आदि करते समय प्रतिमा टूट सकती है। उससे ४९१६.पडिवेसिग-एक्वघरे, सचित्तरूवं तु होति तत्थगयं। पश्चात्कर्म दोष होता है। सुण्णमसुण्णघरे वा, एमेव य होति आगंतुं॥ ४९२०.अप्पो य गच्छो महती य साला, पड़ौसी के घर में अथवा एकगृह में अर्थात् कारणवश एक निकारणे ते य तहिं ठिता उ। ही उपाश्रय में रहने पर जो स्त्रीरूप दिखता है वह तत्रगत कज्जे ठिता वा जतणाए हीणा, सचित्तरूप है। अथवा शून्यगृह या अशून्यगृह में जो स्त्री का पावंति दोसं जतणा इमा तू॥ रूप दिखता है वह भी तत्रगत होता है। इसी प्रकार आगंतुक एक छोटा गच्छ बड़े प्रतिश्रय में रह रहा है। साधु वहां १. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १०५। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५०९ निष्कारण रह रहे हैं। यदि वे कार्यवश भी ठहरे हैं तो वे सब वह यदि राजा के पास शिकायत करे तो साधु भी उसे यतना से हीन हैं-शून्य हैं। वे अनेक प्रकार के दोषों से युक्त न्यायाधीश के पास घसीटे। यहां श्रीगृह का उदाहरण है। हो जाते हैं। वहां रहते हुए यह यतना आवश्यक है। ४९२६.अहिकारो वारणम्मि,जत्तिय अप्फुण्ण तत्तिया वसही। ४९२१.असिवादिकारणेहिं, अण्णाऽसति वित्थडाए ठायंति। . अतिरेग दोस भगिणी, रतिं आरद्धे णिच्छुभणं ।। ओतप्पोत करिती, संथारग-वत्थ-पादेहिं।। ४९२७.आवरितो कम्महिं, सत्तू विव उहितो थरथरंतो। अशिव आदि कारण उपस्थित होने पर, दूसरी वसति के मुंचति य भेंडितातो, एक्कक्कं भे निवादेमि।। अभाव में विस्तृत वसति में भी रहा जा सकता है। वहां वे ४९२८.निग्गमणं तह चेवा, णिहोस सदोसऽनिग्गमे जतणा। उस वसति की भूमी को अपने संस्तारकों-वस्त्रों तथा पात्रों सज्झाए झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे वा। से ओतप्रोत कर देते हैं, भर देते हैं। यहां वर्जना का अधिकार चल रहा है। इसलिए मुनियों ४९२२.भूमीए संथारे, अड्डवियड्डे करेंति जह दट्ठ। को उत्सर्गतः घंघशाला में नहीं ठहरना चाहिए। इसलिए ठातुमणा वि दिवसओ, ण ठंति रत्तिं तिमा जतणा।।। जितने साधुओं से वसति 'अप्फुण्ण' व्याप्त हो जाए उस उस विशाल उपाश्रय में उन साधुओं को चाहिए कि वे प्रमाण वाली वसति की खोज करनी चाहिए। इससे अतिरिक्त वहां भूमी पर संस्तारक अस्त-व्यस्त रूप से करें, जिससे वसति में रहने पर पूर्वोक्त दोष होते हैं। कारणवश उसमें भी कि दिन में वहां बैठने का इच्छुक व्यक्ति बैठ न सके। रात्री में रहने पर कोई पुरुष स्त्री के साथ वहां आता है और कहता है यह यतना है। यह मेरी भगिनी है। रात्री के प्रारंभ होने पर वह पुरुष उस ४९२३.वेसत्थीआगमणे, अवारणे चउगुरुं च आणादी। स्त्री के साथ प्रतिसेवना करने लगता है। तब साधु उसकी अणुलोमण निग्गमणं, ठाणं अन्नत्थ रुक्खादी॥ भर्त्सना करते हैं और उसका वहां से निष्कासन कर देते हैं। वेश्यास्त्री यदि रात्री में उपाश्रय में आती है तो उसे वह व्यक्ति कर्मों से आवृत होने के कारण शत्रु की भांति मनाही करनी चाहिए। यदि उसका वर्जन न किया जाए तो उठकर, कांपता हुआ मुंह से 'भिंडिका' जोर से चिल्लाता चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। उसको अनुकूल हुआ कहता है-मैं एक-एक साधु को गिरा दूंगा। वचनों से प्रतिषेध करना चाहिए। यदि वेश्यास्त्री वहां से उसके विरुद्ध हो जाने पर साधु उस वसति को छोड़कर निर्गमन करना न चाहे तो साधुओं को अन्यत्र स्थान में चले अन्यत्र चले जाएं। यदि दूसरी वसति निर्दोष हो तो वहां चले जाना चाहिए। कोई स्थान न मिले तो वृक्ष आदि के नीचे जाएं। यदि वसति सदोष हो तो वहां से न जाए और यह रहना चाहिए। यतना करे। जोर-जोर से स्वाध्याय करे या ध्यान में बैठ ४९२४.पुढवी ओस सजोती, हरिय तसा उवधितेण वासं वा। जाएं। यदि स्वाध्याय और ध्यान की लब्धि न हो तो कानों सावय सरीतेणग, फरुसादी जाव ववहारो॥ का स्थगन कर दे या जोर से बोलने लग जाए। यद्यपि अन्य वसति पृथ्वीकाय, अवश्याय, अग्नि, ४९२९. वडपादव उम्मूलण,तिक्खम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। हरितकाय तथा वसप्राणी सहित हो तो भी वहां चले जाना कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावती पडणं॥ चाहिए। बाहर उपधि स्तेन हों, वर्षा आ रही हो, श्वापद तथा ४९३०.तह समणसुविहिताणं, सव्वपयत्तेण वी जतंताणं। शरीरस्तेन हों तो परुष वचनों से उस वेश्या को अपने कम्मोदयपच्चइया, विराधणा कासति हवेज्जा। उपाश्रय से बाहर निकल जाने के लिए कहना चाहिए। यदि प्रश्न होता है कि प्रतिसेवना करते देखकर सुविहित इससे भी न माने तो व्यवहार करने में भी नहीं हिचकना मुनि के कर्मोदय कैसे होता है? भाष्यकार कहते हैं-वटवृक्ष चाहिए। अनेक स्थानों पर बद्धमूल होने पर भी गिरि नदी के पानी ४९२५.अम्हे दाणि विसहिमो, इड्डिमपुत्त बलवं असहणोऽयं। के वेग से उखड़ जाता है। तीक्ष्ण पानी के वेग में प्रयत्न णीहि अणिते बंधण, णिवकड्डण सिरिघराहरणं॥ करने पर भी मनुष्य बह जाता है। पंक बहुल स्थान में साधु कहे-हम क्षमाशील हैं। हम अब सब कुछ सहन सावधानीपूर्वक चलने पर भी मनुष्य फिसल कर गिर पड़ता करते हैं। परंतु वह मुनि ऋद्धिमत्पुत्र है, बलवान् है, वह कुछ है। वह वहां अवश होकर संभल नहीं पाता। उसी प्रकार भी सहन नहीं करेगा। इसलिए तुम यहां से स्वयं चली सुविहित श्रमण भी सप्रयत्नपूर्वक यतमान होने पर भी, जाओ। यदि चली जाती है तो अच्छा है, अन्यथा सभी साधु कर्मोदय के कारण किसी-किसी के चारित्र की विराधना हो मिलकर उस वेश्या स्त्री को बांध ले, प्रातः उसे मुक्त कर दे। सकती है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ४९३१.पढमाए पोरिसीए, बितिया ततियाए तह चउत्थीए। उनके प्रायश्चित्त है मासिकगुरु और स्थविर पिता को भी जो मूलं छेदो छम्मासमेव चत्तारि या गुरुगा॥ पुत्र के साथ सज्ञातिक गांव में जाता है, उसके भी _इस दुर्बल स्थिति का शिकार होकर कोई मुनि हस्तकर्म मासिकगुरु का प्रायश्चित्त है। करता है। उसका प्रायश्चित्त विधान इस प्रकार है-प्रथम ४९३६.संघाडगादिकहणे, जंकत तं कत इयाणि पच्चक्खा। प्रहर में हस्तकर्म करता है तो मूल, दूसरे प्रहर में छेद, अविसुद्धो दुट्ठवणो, ण समति किरिया से कायव्वा।। तीसरे प्रहर में छह मास, चौथे प्रहर में चार गुरुमास। अपने संघाटक के संतों को या दूसरों को यह कहने पर ४९३२.निसि पढमपोरिसुब्भव, अदढधिती सेवणे भवे मूलं। कि मैंने हस्तक का सेवन किया है और वे यदि कहें जो पोरिसिपोरिसिसहणे, एक्केक्कं ठाणगं हसइ॥ किया वह कर डाला, अब भक्तप्रत्याख्यान करो। सातवां रात्री के प्रथम प्रहर में यदि अदृढ़ धृति वाले मुनि के कहता है-'दुष्टवण' छेदन की क्रिया के बिना ठीक नहीं होता मोहोद्भव हो जाए और वह हस्तकर्म का सेवन करता है तो अतः तुम उसकी क्रिया करो। मोहोदय के व्रण के उपशमन उसे मूल, प्रथम प्रहर में सहन कर दूसरे प्रहर में हस्तकर्म के लिए अवमौदर्य, निर्विकृतिका क्रिया करो। का सेवन करने पर छेद, तीसरे प्रहर में सेवन करने पर छह ४९३७.पडिलाभणा उ सड्डी, कर सीसे वंद ऊरु दोच्चंगे। मास और तीन प्रहर तक सहन कर चौथे प्रहर में सेवन करने सूलादिरुयोमज्जण, ओअट्टण सड्डिमाणेमो॥ पर चार गुरुकमास का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार एक- आठवें मुनि ने कहा-किसी श्राविका को ले आओ। वह एक प्रहर को सहने से एक-एक प्रायश्चित्तस्थान कम होता प्रतिलाभना करेगी। तब उसके दोनों ऊरु पात्र में स्थित होने जाता है। पर यथाभाव से उन्हें मोड़ने पर ऊरु के मध्य से द्वितीय अंग ४९३३.बितियम्मि वि दिवसम्मि,पडिसेवंतस्स मासियं गुरु। आदि नीचे गिरता है। तब वह श्राविका हाथ से मुनि का छडे पच्चक्खाणं, सत्तमए होति तेगिच्छं।। स्पर्श करती है और सिर से वंदना करती हुई पैर छूती है। __यदि प्रथम रात्री में सहन कर दूसरे दिन हस्तकर्म का उससे मुनि स्खलित हो जाता है, उसके वीर्यपात हो जाता सेवन करने पर मासगुरुक का प्रायश्चित्त है। उससे आगे है। नौवां मुनि कहता है-शूल आदि या अन्य फोड़ा आदि होने सर्वत्र मासगुरुक का ही प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त में कमी पर श्राविका बुलाई जाती है। वह फोड़े का परिमार्जन आदि नहीं होती। किसी के समक्ष वह आलोचना करे, यही करती है, वह गाढ़कर परिमार्जन करती है। उससे बीजप्रायश्चित्त आता है। छठा मुनि उसे कहता है-अब तुम भक्त- निसर्ग हो जाता है। प्रत्याख्यान अंगीकार करो। सातवां कहता है-इस मोहोदय ४९३८.सन्नायपल्लि णेहिं (णं),मेहणि खुडंत णिग्गमोवसमो। की चिकित्सा है-अवमौदर्य और निर्विकृतिक। अविधितिगिच्छा एसा, आयरिकहणे विधिक्कारो॥ ४९३४.पडिलाभणऽट्ठमम्मिं, णवमे सड्डी उवस्सए फासे। दसवां मुनि मोहोदय से ग्रस्त मुनि के पिता को कहता दसमम्मि पिता-पुत्ता, एक्कारसमम्मि आयरिए॥ है-तुम अपने पुत्र को सज्ञातकग्राम में ले जाओ और वहां आठवां साधु प्रतिलाभना उपदेश देता है। नौवां मुनि मैथुनिका-मामे की पुत्री के साथ क्षुल्लक मुनि को स्पर्श कहता है-किसी श्राविका को प्रतिश्रय में लाया जाए और वह आदि से क्रीड़ा करने को प्रेरित करो। उससे वीर्यपात होगा तुम्हारे शरीर का स्पर्श करे। दसवां मुनि कहता है-तुम और मोह का उपशम हो जाएगा। यह सारी अविधि पिता-पुत्र हो। अपने सज्ञातिक गांव में जाकर चिकित्सा चिकित्सा है। आचार्य को कहो और वे जो कहे उस विधि से कराओ। ग्यारहवां मुनि कहता है-जो आचार्य कहें वैसे करो। चिकित्सा करो। यह ग्यारहवें साधु का विधि-कथन है, यह यह शुद्ध है। शेष के लिए प्रायश्चित्त कहा है। उपयुक्त है। ४९३५.छट्टो य सत्तमो या, अहसुद्धा तेसि मासियं लहुयं। ४९३९.सारुवि गिहत्थ (मिच्छे), . उवरिल्ल जं भणंती, थेरस्स वि मासितं गुरुगं। परतित्थिनपुंसगे य सूयणया। छठा और सातवां मुनि यथाशुद्ध हैं। वे दोषयुक्त उपदेश चउरो य हुंति लहुगा, नहीं देते। वे गुरु के उपदेश के बिना स्वेच्छा से कुछ कहते हैं पच्छाकम्मम्मि ते चेव॥ इसलिए उन्हें मासिकलघु का प्रायश्चित्त है। इनसे उपरितन कोई कहता है-सारूपिक (सिद्धपुत्र) जो नपुंसक हो अर्थात् आठ, नौ और दशवें मुनि सदोष उपदेश देते हैं, अतः उससे हस्तकर्म कराओ। कोई कहता है-गृहस्थनपुंसक से, १. देखें गाथा ४९३७। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक कोई कहता है - मिथ्यादृष्टि नपुंसक से और कोई कहता है परतीर्थिक नपुंसक से हस्तकर्म कराओ। इन चारों को हस्तकर्म करने की प्रेरणा देने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त, तप और काल से विशेषित होते हैं। इसमें वे हाथ आदि धोते हैं, यह पश्चात्कर्म होता है इसमें भी वही प्रायश्चित्त है। ४९४०. एसेव कमो नियमा, इत्थीसु वि होइ आणुपुब्वीए । चउरो य अणुग्घाया, पच्छाकम्मम्मि ते लहुगा ॥ यही क्रम नियमत क्रमशः स्त्री संबंधी होता है। जैसेपहला कहता है सिद्धपुत्रिका से, दूसरा कहता है - गृहस्थ की स्त्री से, तीसरा कहता है- मिथ्यादृष्टि स्त्री से और चौथा कहता है - परतीर्थिकी स्त्री से हस्तकर्म कराना चाहिए। चारों में प्रायश्चित्त है - अनुद्घातिक गुरुमास । पश्चात्कर्म होने पर वे ही चारों लघुमास का प्रायश्चित्त है। ४९४१.मेहुण्णं पि यतिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिक्खं च । ठाणाई मोत्तूणं, पडिसेवणि सोधि स च्चेव ॥ मैथुन भी तीन प्रकार का है- दिव्य, मानुष्य और तैरश्च । जिन स्थानों में इन मैथुनों की संभावना हो वहां नहीं रहना चाहिए। यदि वहां रहकर दिव्य आदि मैथुन की प्रतिसेवना करता है तो उसकी शोधि (प्रायश्चित्त) वही है जो प्रथम उद्देशक में गाथा २४७० में कहा है। ४९४२. मूलुत्तरसेवासुं, अवरपदम्मिं णिसिज्झती सोधी । मेहुणे पुण तिविधे, सोधी अववायतो किण्णु ॥ मूल और उत्तरगुण की प्रतिसेवना में उत्सर्ग से अपरपद अर्थात् अपवाद पद में शोधि (प्रायश्चित्त) का निषेध किया जाता है। इसी प्रकार तीनों प्रकार के मैथुन में अपवाद से प्रतिसेवना करने पर प्रायश्चित्त क्यों ? ४९४३. राग - दोसाणुगया, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा । आराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेणं ॥ आचार्य कहते हैं-प्रतिसेवना दो प्रकार की होती हैदर्पिका और कल्पका । राग-द्वेषयुक्त जो प्रतिसेवना होती है, वह दर्पिका प्रतिसेवना कहलाती है। कल्पिका प्रतिसेवना इन दोनों से मुक्त होती है। कल्प प्रतिसेवना से ज्ञान आदि की आराधना होती है और दर्प प्रतिसेवना से उनकी विराधना होती है। ४९४४. कामं सव्वपदेसु वि, उस्सग्ग ऽववादधम्मता जुत्ता । मोत्तुं मेहुणभावं, ण विणा सो राग-दोसेहिं ॥ हमें सभी पदों में उत्सर्ग- अपवाद धर्मता अनुमत है। उत्सर्ग का प्रतिषेध और अपवाद की अनुज्ञा - यह अनुमत है। किन्तु मैथुनभाव को छोड़कर, क्योंकि इसमें उत्सर्ग धर्मता ५११ ही घटित होती है, अपवाद नहीं। मैथुनभाव राग-द्वेष के बिना नहीं होता। ४९४५. संजमजीवितहेउं, कुसलेणालंबणेण वऽण्णेणं । भयमाणे तु अकिच्चं, हाणी वड्डी व पच्छित्ते ॥ संयमी जीवन जीने के लिए कुशल आलंबन के द्वारा अथवा अन्य किसी आलंबन से यदि अकृत्य का आसेवन करता है तो उसके प्रायश्चित्त की हानि या वृद्धि होती है। ४९४६. गीयत्थो जतणाए, कडजोगी कारणम्मि णिद्दोसो | एगेसिं गीत कडो, अरत्तऽदुट्ठो तु जतणाए । गीतार्थ मुनि जो कृतयोगी है, वह यदि यतनापूर्वक कारण में - प्रतिसेवना करता है तो वह निर्दोष है। गीतार्थ कृतयोगी निष्कारण प्रतिसेवना - यह द्वितीय भंग है, सदोष है । किन्हीं आचार्यों ने वहां पांच पद माने हैं - गीतार्थ कृतयोगी अरक्त- अद्विष्ट यतना से सेवन करता है - यह पहला भंग है। गीतार्थ कृतयोगी अरक्त- अद्विष्ट अयतनापूर्वक सेवन करता है - यह दूसरा भंग है। इस प्रकार पांच पदों से ३२ भंग होते हैं। यहां भी प्रथम भंग में कल्पिका प्रतिसेवना माननी चाहिए। ४९४७.जति सव्वसो अभावो, रागादीणं हविज्ज निद्दोसो । जतणाजुतेसु तेसु तु, अप्पतरं होति पच्छित्तं ॥ यदि मैथुन में राग आदि का सर्वथा अभाव हो तो वह निर्दोष हो सकता है। परन्तु यतनायुक्त गीतार्थ आदि मुनियों के अल्पतर प्रायश्चित्त होता है। ४९४८. कुलवंसम्मि पहीणे, रज्जं अकुमारगं परे पेल्ले । तं कीरतु पक्खेवो, एत्थ य बुद्धीए पाधण्णं ॥ किसी राजा का कुल और वंश प्रक्षीण हो जाने पर राज्य को अकुमारक जानकर दूसरे राजा उस पर आक्रमण कर देते हैं। अमात्य ने राजा से कहा- आप रानी में अपर पुरुष का बीज प्रक्षिप्त कराइए। यहां उपाय के निरूपण में बुद्धि का प्राधान्य है। ४९४९. सामत्थ णिव अपुत्ते, अणहबियतरुणरोधो, सचिव मुणी धम्मलक्ख वेसणता । एगेसिं पडिमदायणता ॥ अपुत्र नृप अमात्य के साथ 'सामत्थणं' पर्यालोचन करता है। अमात्य ने कहा- राजन् ! आप अन्तःपुर में धर्मकथा के मिष से मुनियों को प्रवेश कराएं। राजा ने वैसे ही किया । तब उन साधुओं को लक्षणों से जानकर, एक तरुण साधु को जिसके सन्तानोत्पत्ति का बीज उपहत नहीं था, उसको वहीं रोक लिया और उसे बलात् भोग भोगने के लिए प्रेरित Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = बृहत्कल्पभाष्यम् किया। जिस किसी ने भोग भोगने की मनाही की उसे प्रतिमा षडलघुक, मेरे बिना गच्छ टूट जाएगा, यह सोचता है उसे का शिरच्छेद कर यह दिखाया कि मनाही करने वाले का चतुर्गुरु, मैं स्थविरों का संग्रहण करूंगा, यह सोचता है उसे इसी प्रकार शिरच्छेद कर दिया जायेगा। चतुर्लघु और जो गुरु का वैयावृत्य करने के लिए प्रतिसेवना ४९५०.तरुणीण य पक्खेवो, भोगेहिं निमंतणं च भिक्खुस्सा करता है उसे लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह भोत्तुं अणिच्छमाणे, मरणं च तहिं ववसियस्स॥ प्रायश्चित्त की हानि का लेखा-जोखा है। तरुण साधुओं का तथा तरुण स्त्रियों का अन्तःपुर में ४९५५.लहुओ उ होति मासो, प्रक्षेप किया। तरुण स्त्रियों ने भोग की प्रार्थना की। भोग का दुब्भिक्खऽविसज्जणे य साहूणं। निमंत्रण पाकर एक भिक्षु ने इन्कार कर दिया। उसको मार णेहाणुरागरत्तो, डाला गया, उसका शिरच्छेद कर दिया गया। खुड्डो चिय णेच्छए गंतुं॥ ४९५१.दट्टण तं विससणं, सहसा साभावियं कइतवं वा। १९५६.कालेणेसणसोधिं, पयहति परितावितो दिगिंछाए। विगुरुव्विया य ललणा, हरिसा भयसा व रोमंचो॥ अलभंते चिय मरणं, असमाही तित्थवोच्छेदो। उस स्वाभाविक साधु का शिरच्छेद देखकर अथवा 'यहां दुर्भिक्ष होगा' यह सोचकर यदि गुरु संघ को प्रतिमा का झूठा किया जाने वाला शिरच्छेद देखकर अथवा विसर्जित नहीं करता, उसे लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। विकुर्वीत अलंकृत-विभूषित ललना को देखकर किसी के हर्ष दुर्भिक्ष में भिक्षा न मिलने पर गच्छ भूख से पीड़ित होता है। से या भय से रोमांच हो जाता है। कालक्रम से मच्छ के मुनि एषणाशुद्धि को छोड़ देते हैं। ४९५२.सुद्धुल्लसिते भीए, भोजन न मिलने पर मुनियों का असमाधि मरण होता है और पच्चक्खाणे पडिच्छ गच्छ थेर विदू। गच्छ का व्यवच्छेद भी हो जाता है। एक क्षुल्लक मुनि गाढ़ मूलं छेदो छम्मास चउर स्नेह से अनुरक्त होने के कारण उस आचार्य को छोड़ कर गुरु-लहु लहुगमासो॥ जाना नहीं चाहता था। (फिर भी उसे भेज दिया और वह वहां जिसने भोग भोगने से विरत होकर मरण को स्वीकार से भाग कर आचार्य के पास लौट आया।) किया वह शुद्ध है। जो भोग का निमंत्रण प्राप्त कर रोमांचित ४९५७.भिक्खं पि य परिहायति, हुआ उसका प्रायश्चित्त है-मूल और जो भय से भोग भोगता भोगेहिं णिमंतणा य साहुस्स। है उसका प्रायश्चित्त है-छेद। जो भक्तप्रत्याख्यान कर भोग गिण्हति एक्कंतरियं, भोगता है, उसे षट्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। मैं जीवित लहुगा गुरुगा चउम्मासा॥ रहा तो प्रतीच्छक शिष्यों को वाचना दूंगा, यह सोच जो ४९५८.पडिसेवंतस्स तहिं, छम्मासा छेदो होति मूलं च। भोग भोगता है उसे षड्लघु का प्रायश्चित्त आता है। मैं गच्छ अणवट्ठप्पो पारंचिओ य पुच्छा य तिविहम्मि। की सारणा करूंगा, यह सोच कर जो भोग भोगता है उसे वह स्वयं गोचरी जाने लगा। दुर्भिक्ष के कारण भिक्षा भी चतुर्गुरु, और जो स्थविरों की वैयावृत्य करने के लिए नहीं मिलती। उस साधु को एक स्त्री ने भोगों के लिए प्रतिसेवना करता है उसे चतुर्लघुक और कोई आचार्य की निमंत्रण दिया। उसको कहा-तू मेरे साथ रह, मैं तुझे प्रचुर वैयावृत्य के लिए प्रतिसेवना करता है उसे मासलघु का भक्तपान दूंगी। वह मुनि एकान्तर तप स्वीकार कर प्रतिसेवना प्रायश्चित्त आता है। करता है। प्रथम दिन की प्रतिसेवना का चार लघुमास, दूसरे ४९५३. निरुवहयजोणिथीणं, विउव्वणं हरिसमुल्लसिते मूलं। दिन मुनि अभक्तार्थ था। तीसरे दिन प्रतिसेवना का चार __ भय रोमंचे छेदो, परिण्ण काहं ति छग्गुरुगा। गुरुमास। इस प्रकार एकान्तरित भक्तपान लेकर प्रतिसेवना ४९५४.मा सीदेज्ज पडिच्छा, गच्छो फिट्टेज्ज थेर संघेच्छं। करते हुए मुनि के पांचवें और सातवें दिन छह लघु मास और गुरुणं वेयावच्चं, काहं ति य सेवतो लहुओ॥ छह गुरुमास, नौवें दिन छेद, ग्यारहवें दिन मूल और तेरहवें निरुपहतयोनि वाली स्त्रियों को विभूषित-मंडित देखकर दिन अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। पन्द्रहवें दिन पारांचिक जो हर्षित होता है और वह प्रतिसेवना करता है तो 'मूल', प्रायश्चित्त। शिष्य पूछता है-तीन प्रकार के मैथुन में इच्छा भय से रोमांच होने पर छेद, परिज्ञा–भक्तप्रत्याख्यान करूंगा, कैसे उत्पन्न होती है? यह सोचकर जो प्रतिसेवना में परिणत होता है उसे ४९५९.वसहीए दोसेणं, दट्टं सरिउं व पुव्वभुत्ताई। षड्गुरुक। प्रतीच्छक दुःखी न हों, यह सोचता है उसे तेगिच्छ सद्दमादी, असज्जणा तीसु वी जतणा।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक उस मैथुन की इच्छा की उत्पत्ति में ये कारण बनते हैं- लिए वानमन्तरदेव की पूजा करनी होती है और वह वसति के दोष से अर्थात् स्त्री, पशु, पंडकयुक्त वसति में रहने वानव्यंतर देव साधुओं को रात्री में भोजन कराने से ही से, स्त्री का आलिंगन आदि देखने से या पूर्वभुक्त भोगों की संतुष्ट होता है। स्मृति करने से। उसकी चिकित्सा है-अवमौदर्य, निर्विकृतिका ४९६४. एक्केक्कं अतिणेउं, निमंतणा भोयणेण विपुलेणं। आदि। उसके अतिक्रान्त हो जाने पर शब्द की यतना करनी भोत्तुं अणिच्छमाणे, मरणं च तहिं ववसितस्स। चाहिए। इसका तात्पर्य है कि जहां स्त्रीशब्द या रहस्यशब्द इसलिए (अध्वनिर्गत साधु जो वहां पहुंचे थे, उनमें से) सुनाई देता हो वहां स्थविर मुनि के साथ रहना चाहिए। शब्द एक-एक साधु को राजभवन में बलपूर्वक प्रवेश कराकर आदि के श्रवण में गृद्धि नहीं रखनी चाहिए। इस प्रकार द्रिव्य विपुलसामाग्री युक्त भोजन के लिए निमंत्रित किया जाता है। आदि तीनों प्रकार के मैथुन की यतना होती है। जो भोजन करना नहीं चाहते उनका शिरच्छेद कर मरण प्रास ४९६०.बिइयपदे तेगिंछं, णिव्वीतियमादिगं अतिक्कते। करवा दिया जाता है। सनिमित्तऽनिमित्तो पुण, उदयाऽऽहारे सरीरे य॥ ४९६५.सुद्धल्लसिते भीए, अपवादपद में जब निर्विकृतिका आदि चिकित्सा पच्चक्खाणे पडिच्छ गच्छ थेर विदू। अतिक्रान्त हो जाती है तब शब्द आदि की मर्यादा में रहना मूलं छेदो छम्मास चउरो चाहिए। मैथुन की अभिलाषा सनिमित्त भी होती है और मासा गुरुग लहुओ॥ अनिमित्त भी। सनिमित्त में वसति के दोष आदि से होती है जिस मुनि ने रात्री भोजन से विरत होकर मरण को और अनिमित्त में उसके कारण हैं-(१) कर्मोदय (२) आहार स्वीकार किया वह शुद्ध है। जो रात्री भोजन का निमंत्रण तथा (३) शरीर की अभिवृद्धि। पाकर रोमांचित हुआ उसको मूल, जिसने भय से रात्रीभक्त ४९६१.रातो य भोयणम्मि, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। का सेवन किया उसको छेद, जो भक्तप्रत्याख्यान कर आणादिणो य दोसा, आवज्जण संकणा जाव॥ रात्रीभक्त का सेवन करता है उसे षड्गुरु, 'मैं जीवित रहा तो रात्रीभोजन करने पर चार अनुद्घातमास-गुरुमास का प्रतीच्छकों को वाचना दूंगा' ऐसा सोचकर रात्रीभक्त करने प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। तथा वाले को षड्लघु, गच्छ की सारणा करूंगा ऐसा सोचने वाले प्राणातिपात आदि विषयक तथा परिग्रह विषयक आदि दोष को चतुर्गुरु और स्थविरों की वैयावृत्य करूंगा ऐसा सोच कर भी होते हैं। यहां यावत् शब्द से 'रात्रिभक्तसूत्र' (प्र. उद्दे. रात्रीभक्त का सेवन करता है उसे चतुर्लघु, आचार्य की सू. ४२,४३) जो अभिहित है, वह सारा यहां नेतव्य है। वैयावृत्य के लिए रात्रीभक्त का सेवन करता है उसको ४९६२.णिरुवद्दवं च खेमं च, होहिति रण्णो य कीरतू संती। मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अद्धाणनिग्गतादी, देवी पूयाय अज्झियगं॥ ४९६६.तत्थेव य भोक्खामो, अणिच्छे भुंजामो अंधकारम्मि। इसमें अपवादपद यह है-निरूपद्रव अर्थात् अशिव तथा कोणादी पक्खेवो, पोट्टल भाणे व जति णीता॥ गलरोग का अभाव तथा क्षेम-शत्रुसेना के उपद्रव का अभाव बलात् रात्री में भोजन करने के लिए कहने पर साधु होगा यह सोच कर राजा अपने राज्य में शांति के लिए कहे-हम अपने उपाश्रय में जाकर भोजन करेंगे। वे यदि तपस्वियों को रात्री में भोजन कराता है। अध्वनिर्गत साधु इसके लिए तैयार न हों तो उनसे कहे-हम अंधकार में भोजन वहां पहुंचते हैं। अथवा राजा की किसी एक रानी ने करेंगे। इस प्रकार अंधकारयुक्त स्थान में जाकर कहीं कोनों में वानव्यंतर देव की यह 'अज्झियकं'-मनौती की थी कि मेरा कवल का प्रक्षेप करते रहें। अथवा वस्त्र में पोटली बांधकर प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर मैं तपस्वियों को रात्रिभोजन । फेंक देते हैं। यदि अपने साथ भाजन ले गए हों तो उनमें डाल कराऊंगी। देते हैं। ४९६३.अवधीरिया व पतिणा, सवत्तिणीए व पुत्तमाताए। ४९६७.गेलण्णेण व पुट्ठा, बाहाङऽरुची व अंगुली वा वि। गेलण्णेण व पुट्ठा, वुग्गहउप्पादसमणे वा। भुजंता वि य असढा, सालंबाऽमुच्छिता सुद्धा॥ वह रानी,पति के द्वारा अपमानित हो गई हो अथवा जो अथवा वे साधु कहते हैं-हम ग्लानत्व से स्पृष्ट हैं। हमने सौत हो. जो पत्र की माता हो वह इसको बहमान न देती हो. पहले बाहाड-बहत खा लिया है। ग्लानत्व से वह अत्यंत स्पृष्ट हो, अथवा उससे कलह हो नहीं है। अथवा मुंह में अंगुली डालकर वमन कर देते हैं। गया हो, उस विग्रह को मिटाने के लिए, उसके शमन के इतना करने पर भी यदि वे नहीं हटते तो उस भोजन से थोड़ा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ लेकर खा लेते हैं। वे मुनि अशठ-राग-द्वेष रहित, सालंबन और अमूर्छित होने के कारण शुद्ध हैं। तओ पारंचिया पण्णत्ता, तं जहा-दुढे पारंचिए, पमत्ते पारंचिए, अण्णमण्णं करेमाणे पारंचिए॥ (सूत्र २) ४९६८.एत्थं पुण अधिकारो, अणुघाता जेसु जेसु ठाणेसु। उच्चारियसरिसाइं, सेसाई विकोवणट्ठाए॥ प्रस्तुत सूत्र में अनुद्घातिक का अधिकार है-प्रयोजन है। जैसे-हस्तकर्म, मैथुन और रात्रीभोजन ये सारे अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के स्थान हैं। शेष लघुप्रायश्चित्त के स्थानों का निरूपण उच्चारितार्थ सदृश होने के कारण शिष्यों को बताने के लिए किया गया है। ४९६९.वुत्ता तवारिहा खलु, सोधी छेदारिहा अध इदाणिं। देसे सव्वे छेदो, सव्वे तिविहो तु मूलादी॥ तपोर्ह शोधि पूर्वसूत्र में कही गई है। प्रस्तुत सूत्र में छेदार्ह शोधि कही जा रही है। छेद दो प्रकार का होता है-देशतः और सर्वतः। देशतः छेद पांच रातदिन से प्रारंभ होकर छह मासान्त तक होता है। सर्वछेद मूल आदि के भेद से तीन प्रकार का है-मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक। यहां पारांचिक छेद का अधिकार है। ४९७०.छेओ न होइ कम्हा, जति एवं तत्थ कारणं सुणसु। अणुघाता आरुवणा, कसिणा कसिणेस संबंधो॥ शिष्य ने पूछा-सूत्र में छेद का उल्लेख क्यों नहीं? आचार्य कहते हैं-यदि तुम्हारी ऐसी बुद्धि है तो उसका कारण सुनो। अनन्तरोक्त सूत्र में अनुद्घात आरोपणा का कथन है। वह कृत्स्ना-गुरुक होती है। यहां भी पारांचिक आरोपणा कृत्स्ना है। इन दोनों कृत्स्नाओं का संबंध है। ४९७१.अंचु गति-पूयणम्मि य, पारं पुणऽणुत्तरं बुधा बिंति। सोधीय पारमंचइ, ण यावि तदपूतियं होति॥ अञ्चु धातु के दो अर्थ हैं-गति और पूजा। जिस प्रायश्चित्त के पालन से साधक संसारसमुद्र के पार अर्थात् तीर सदृश निर्वाण को प्राप्त हो जाता है वह है पारांचिक प्रायश्चित्त। यह तीर्थंकरों की वाणी है। इसका दूसरा अर्थ है- साधक शोधि के पार चला जाता है, वह है पारांचिक। यह अंतिम प्रायश्चित्त है। इससे आगे कोई प्रायश्चित्त नहीं है। बृहत्कल्पभाष्यम् यह प्रायश्चित्त अपूजित नहीं होता, किन्तु पूजित ही होता है। जो साधक इस तपस्या का पार पा जाता है, वह श्रमण संघ द्वारा पूजित होता है। ४९७२.आसायण पडिसेवी, दुविहो पारंचितो समासेणं। एक्केक्वम्मि य भयणा, सचरित्ते चेव अचरित्ते॥ संक्षेप में पारांचित के दो प्रकार हैं-आशातना पारांचित और प्रतिसेवना पारांचित। पुनः प्रत्येक में दो प्रकार की भजना है ये दोनों सचारित्री के भी हो सकती हैं और अचारित्री के भी। ४९७३.सव्वचरित्तं भस्सति, केणति पडिसेवितेण तु पदेणं। कत्थति चिट्ठति देसो, परिणामऽवराहमासज्ज॥ किसी अपराधपद के आसेवन से सारा चारित्र भ्रष्ट हो जाता है और किसी एक अपराधपद के सेवन से चारित्र का एक देश रह जाता है। इसका कारण है परिणामों की तीव्रता, मंदता और अपराध की उत्कृष्टता, मध्यमता और जघन्यता। ४९७४.तुल्लम्मि वि अवराधे, परिणामवसेण होति णाणत्तं। कत्थति परिणामम्मि वि, तुल्ले अवराहणाणत्तं॥ अपराध की तुल्यता में भी परिणामों की तीव्रता-मंदता के कारण उसमें वैचित्र्य होता है, नानात्व होता है। कहीं-कहीं परिणामों की तुल्यता में भी अपराध का नानात्व होता है। ४९७५.तित्थकर पवयण सुते, आयरिए गणहरे महिड्डीए। एते आसायंते, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ __तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर, तथा महर्द्धिक मुनि-जो इनकी आशातना करता है उसके प्रायश्चित्त की मार्गणा होती है। ४९७६.पाहुडियं अणुमण्णति, जाणतो किं व भुंजती भोगे। थीतित्थं पि य वुच्चति, अतिकक्खडदेसणा यावि॥ कोई कहता है-प्राभृतिका-देवविरचित समवसरण, महाप्रातिहार्यादि पूजा लक्षण वाले कार्य को अर्हत् मान्य करते हैं, यह उचित नहीं है। अर्हत् जानते हुए भी विपाकदारुण भोगों को क्यों भोगते हैं? स्त्रीतीर्थंकर की बात भी समीचीन नहीं है। तीर्थंकरों की देशना अतिकर्कश होती है। दुरनुचर होती है। ४९७७.अण्णं व एवमादी, अवि पडिमासु वि तिलोगमहिताणं। पडिरूवमकुव्वंतो, पावति पारंचियं ठाणं॥ इस प्रकार तथा अन्य प्रकार से भी तीर्थंकरों का अवर्णवाद बोलता है, त्रैलोक्यपूजित भगवान् की प्रतिमाओं की निन्दा करता है तथा उनकी वंदना-स्तुति नहीं करता वह पारांचिक स्थान को प्राप्त होता है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५१५ ४९७८.अक्कोस-तज्जणादिसु, संघमहिक्खिवति संघपडिणीतो। अण्णे वि अत्थि संघा, सियाल-णंतिक्क -ढंकाणं॥ प्रवचन अर्थात् संघ की आशातना-जो आक्रोश तथा तर्जना से संघ पर आक्षेप करता है, वह संघ का प्रत्यनीक है। वह कहता है-सियार, णंतिक्क (?), ढंक आदि के भी संघ होते हैं। यह श्रमणसंघ भी वैसा ही है। ४९७९.काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमायमप्पमादा य। ___ मोक्खाहिकारियाणं, जोतिसविज्जासु किं च पुणो॥ आगमों में षड्काय, व्रत, प्रमाद और अप्रमाद के स्थान वे ही हैं। उनका बार-बार उल्लेख है। यह उचित नहीं है। मोक्षाधिकारी मुनियों के लिए ज्योतिष विद्या से क्या प्रयोजन? आगमों में उसका प्रतिपादन है। यह श्रुत की आशातना है। ४९८०.इड्डि-रस-सातगुरुगा, परोवदेसुज्जया जहा मंखा। अत्तट्ठपोसणरया, पोसेंति दिया व अप्पाणं॥ आचार्य ऋद्धि, रस, सात से गुरुक होते हैं। वे मंखों की भांति परोपदेश में उद्यत रहते हैं। वे अपने पोषण में रत रहते हैं। वे ब्राह्मणों की भांति अपना पोषण करते हैं। ४९८१.अब्भुज्जयं विहारं, देसिंति परेसि सयमुदासीणा। उवजीवंति य रिद्धिं, निस्संगा मो त्ति य भणंति॥ गणधर अभ्युद्यत विहार की देशना देते हैं, किन्तु स्वयं इसमें उदासीन रहते हैं। वे ऋद्धियों का उपभोग करते हैं परंतु कहते हैं हम तो निःसंग हैं। ४९८२.गणधर एव महिड्डी, महातवस्सी व वादिमादी वा। तित्थगरपढमसिस्सा, आदिग्गहणेण गहिता वा॥ गणधर ही सर्वलब्धिसंपन्न होने के कारण महर्द्धिक होते हैं। अथवा महातपस्वी तथा वादी, विद्यासिद्ध आदि मुनि महर्द्धिक माने जाते हैं। तीर्थंकरों के प्रथम शिष्य होते हैं गणधर। आदि ग्रहण से अन्य महर्द्धिक भी गृहीत होते हैं। ४९८३. पढम-बितिएसु चरिम, सेसे एक्केक्क चउगुरू होति। सव्वे आसादिंतो, पावति पारंचियं ठाणं॥ पहले अर्थात् तीर्थंकर और दूसरे अर्थात् प्रवचन (संघ) इनकी आशातना करने वाले को पारांचित, शेष की देशतः आशातना करने वाले प्रत्येक को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा सर्वतः आशातना करने वाले को पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। ४९८४.तित्थयरपढमसिस्सं, एक्कं पाऽऽसादयंतु पारंची। अत्थस्सेव जिणिंदो, पभवो सो जेण सुत्तस्स॥ तीर्थंकर के एक भी प्रथम शिष्य-गणधर की आशातना करने वाले को पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। क्योंकि जिनेन्द्र तो केवल अर्थ की उत्पत्ति के कारक होते हैं और गणधर सूत्र के प्रणेता होते हैं। ४९८५.पडिसेवणपारंची, तिविधो सो होइ आणुपुव्वीए। दुद्वे य पमत्ते या णेयव्वे अण्णमण्णे य॥ प्रतिसेवना पारांची क्रमशः तीन प्रकार का होता हैदुष्टपारांचिक, प्रमत्तपारांचिक और अन्योन्य करने वाला पारांचिक। ४९८६.दुविधो य होइ दुट्ठो, कसायदुट्ठो य विसयदुट्ठो य। दुविहो कसायदुट्ठो सपक्ख परपक्ख चउभंगो॥ दुष्टपारांचिक के दो प्रकार हैं-कषायदुष्ट और विषयदुष्ट। कषायदुष्ट दो प्रकार का है-स्वपक्षदुष्ट और परपक्षदुष्ट। यहां चतुर्भगी है (१) स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट (२) स्वपक्ष परपक्ष में दुष्ट (३) परपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट (४) परपक्ष परपक्ष में दुष्ट। ४९८७.सासवणाले मुहणंतए य उलुगच्छि सिहरिणी चेव। एसो सपक्खदुट्ठो, परपक्खे होति णेगविधो। सरसों की भाजी, मुखवस्त्रिका, उलूकाक्ष, शिखरिणी-ये चार दृष्टान्त स्वपक्ष कषाय दुष्ट के हैं। परपक्षकषायदुष्ट अनेक प्रकार का होता है। ४९८८.सासवणाले छंदण, गुरु सव्वं भुंजे एतरे कोवो। खामणमणुवसमंते, गणिं ठवेत्तऽण्णहि परिण्णा॥ ४९८९.पुच्छंतमणक्खाए, सोच्चऽण्णतो गंतु कत्थ से सरीरं। गुरु पुव्व कहितऽदातण, पडियरणं दंतभंजणता॥ एक मुनि को गोचरी में सरसों की भाजी मिली। उसने आचार्य को उसके लिए निमंत्रित किया। गुरु ने सारी भाजी खाली। शिष्य इससे कुपित हो गया। गुरु ने क्षमायाचना की, पर वह उपशांत नहीं हुआ। तब गुरु ने उस गण के लिए दूसरे आचार्य की स्थापना कर स्वयं अन्य गच्छ में जाकर भक्तप्रत्याख्यान अनशन कर लिया। गुरु कालगत हो गए। उस दुष्ट शिष्य ने अपने साथी साधुओं से गुरु के विषय में पूछताछ की। किसी ने कुछ नहीं बताया तब दूसरे स्रोतों से सारी जानकारी कर वह वहां गया जहां गुरु ने अनशन कर शरीर को त्यागा था। वहां जाकर उसने पूछा-उनका शरीर कहां है? गुरु ने प्राणत्याग से पूर्व ही कह दिया था कि उस दुष्ट शिष्य को मेरे विषय में कुछ मत बताना। अतः उसके पूछने पर भी उन्होंने कुछ नहीं बताया। उसने अन्य स्रोत से Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ =बृहत्कल्पभाष्यम् सारी जानकारी कर वहां पहुंचा जहां आचार्य के शरीर का ४९९३.तिव्वकसायपरिणतो, तिव्ययरागाणि पावइ भयाई। परिष्ठापन किया था। उसने उस मृत शरीर को निकाला और मयगस्स दंतभंजण, सममरणं ढोक्कणुग्गिरणा। गुरु के दांतों को तोड़ते हुए बोला-तुमने इन्हीं दांतों से तीव्र कषाय में परिणत जीव तीव्रतर भयों को प्राप्त होता सरसों की भाजी खाई थी। साधुओं ने यह देखा और सोचा- है। प्रथम दृष्टांत में लोभ परिणत मृत आचार्य का दन्तभंजन, इस दुष्ट ने प्रतिशोध लिया है। दूसरे दृष्टांत में तीव्र क्रोध परिणत आचार्य और शिष्य का ४९९०.मुहणंतगस्स गहणे, एमेव य गंतु णिसि गलग्गहणं। सम-मरण, तीसरे दृष्टांत में आंखों को उखाड़ कर प्रस्तुत सम्मूढेणियरेण वि, गलए गहितो मता दो वि॥ करना और चौथे दृष्टांत में दंडक को उठाना। पूर्वोक्त चतुभंगी एक साधु को अत्यंत उज्ज्वल मुखवस्त्रिका प्राप्त हुई। का यह पहला भंग है। उसने गुरु को दिखाई। गुरु ने उसको ले लिया। उसके मन ४९९४.रायवधादिपरिणतो, अहवा वि हवेज्ज रायवहओ तु। में गुरु के प्रति प्रद्वेष उत्पन्न हो गया। गुरु ने यह जाना और सो लिंगतो पारंची, जो वि य परिकहती तं तु॥ भक्तप्रत्याख्यान अनशन ले लिया। रात्री में एकान्त पाकर जो राजा, अमात्य आदि के वध में परिणत है अथवा जो शिष्य गुरु के निकट गया और गुरु के गले को जोर से राजवधक हो इस प्रकार परपक्षदुष्ट अनेकविध होते हैं। इन दबाया। संमूढ होकर दूसरे शिष्य ने उस दुष्ट का गला सबको लिंगतः पारांचिक करना चाहिए। जो आचार्य आदि पकड़कर जोर से दबाया। दोनों-गुरु और वह दुष्ट शिष्य- ऐसे राजवधक का सहयोगी होता है, उसे भी लिंग पारांचिक मृत्यु को प्राप्त हो गए। कर देना चाहिए। ४९९१.अत्थंगए वि सिव्वसि, ४९९५.सन्नी व असन्नी वा, जो दुट्ठो होति तू स पक्खम्मि। उलुगच्छी! उक्खणामि ते अच्छी। तस्स निसिद्धं लिंगं, अतिसेसी वा वि दिज्जाहि॥ पढमगमो नवरि इहं, जो संज्ञी अथवा असंज्ञी-स्वपक्ष में दुष्ट होता है, उसको उलुगच्छीउ त्ति ढोक्केति॥ लिंग देना निषिद्ध है। जो अतिशयज्ञानी आचार्य हैं वे उसे एक साधु सूर्यास्त के समय भी कपड़े सी रहा था। दूसरे लिंग दे सकते हैं। मुनि ने कहा-अरे उलूकाक्ष! सूर्य के अस्तगत हो जाने पर ४९९६.रन्नो जुवरन्नो वा, भी सी रहा है? वह कुपित होकर बोला-'तुम मुझे इस वधतो अहवा वि इस्सरादीणं। प्रकार कहते हो, मैं तुम्हारी दोनों आंखें उखाड़ दूंगा।' शेष सो उ सदेसि ण कप्पइ, प्रथम आख्यान की भांति यहां भी मानना चाहिए। उस शिष्य कप्पति अण्णम्मि अण्णाओ॥ के अनशनपूर्वक मरने के पश्चात् इस दुष्ट शिष्य ने उसकी जो व्यक्ति राजा या युवराज का वधक है अथवा जो दोनों आंखें उखाड़ कर 'तुमने मुझे उलूकाक्ष कहा था', यह ईश्वर-धनाढ्य व्यक्तियों का घातक है, उसे स्वदेश में दीक्षा कहते हुए दोनों आंखें निकाल ली। देना नहीं कल्पता, किन्तु अन्यदेश में अज्ञातरूप से दीक्षा ४९९२.सिहरिणिलंभाऽऽलोयण, देना कल्पता है। छंदिए सव्वाइते अ उग्गिरणा। ४९९७.इत्थ पुण अधीकारो, पढमिल्लुग-बितियभंगदुद्वेहिं। भत्तपरिण्णा अण्णहि, तेसिं लिंगविवेगो, दुचरिमे वा लिंगदाणं तु॥ __ण गच्छती सो इहं णवरिं॥ यहां प्रथम और द्वितीय भंगवर्ती दुष्ट का अधिकार है। एक बार एक शिष्य को भिक्षा में उत्कृष्ट सिखरिणी की (स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट तथा स्वपक्ष परपक्ष में दुष्ट) इन दो प्राप्ति हुई। गुरु के समक्ष उसकी आलोचना की, उसे दिखाई भंगों का अधिकार है। इनको लिंगविवेकरूप पारांचिक देना और गुरु को उसके लिए आमंत्रित किया। गुरु ने स्वयं चाहिए। दुचरिमे अर्थात् तीसरे और चौथे भंगद्वय में विकल्प समूची शिखरिणी का पान कर लिया। तब उस दुष्ट शिष्य ने से लिंगदान हो सकता है। (परपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट और गुरु को मारने के लिए दंड उठाया। गुरु ने क्षमायाचना की, परपक्ष परपक्ष में दुष्ट-इन दो भंगों में वर्तमान पुरुष यदि परन्तु वह शिष्य उपशांत नहीं हुआ। तब गुरु ने अपने गण में उपशांत हों तो लिंगदान करना चाहिए अन्यथा नहीं।) ही अनशन स्वीकार कर समाधिमरण को प्राप्त किया। गुरु ४९९८.सव्वेहि वि घेत्तव्यं, गहणे य निमंतणे य जो तु विही। अन्य गण में नहीं गए। तदनन्तर उस दुष्ट शिष्य ने गुरु के भुंजती जतणाए, अजतण दोसा इमे होति॥ मृत शरीर को दंडे से खूब कूटा। सभी साधुओं को आचार्य के प्रायोग्य द्रव्य अपने-अपने Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक पात्र में ग्रहण करना चाहिए। ग्रहण और निमंत्रण में जो विधि है, वह सारी करनी चाहिए। आचार्य यतनापूर्वक भोजन करते हैं अयतनापूर्वक भोजन करने से ये दोष आपादित होते हैं। ४९९९.सव्वेहि वि गहियम्मी, थोवं थोवं तु के वि इच्छंति । सव्वेसिं ण वि भुंजति, गहितं पि बितिज्ज आदेसो ॥ आचार्य के प्रायोग्य द्रव्य सभी शिष्य लाते हैं। आचार्य उनमें से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण कर लेते हैं। यह पहला आदेश है। कुछेक आचार्य कहते हैं- एक ही शिष्य को गुरु- प्रायोग्य द्रव्य लाना चाहिए। सबका लाया हुआ गुरु नहीं खा पाते। यह दूसरा आदेश है। ५०००. गुरुभत्तिमं जो हिययाणुकूलो, सो गिण्हती णिस्समणिस्सतो वा । तस्सेव सो गिण्डति णेयरेसि, अलब्भमाणम्मि व थोव धोवं ।। जो शिष्य गुरुभक्ति से ओतप्रोत होता है, जो गुरु के हृदय के अनुकूल वर्तन करता है, जो गुरु के प्रायोग्य द्रव्यों को निश्रागृहों अथवा अनिश्रागृहों से ग्रहण करता है, उसी से आचार्य भक्तपान ग्रहण करते हैं, दूसरों से नहीं यदि एक से पर्याप्त ग्रहण नहीं होता तो थोड़ा-थोड़ा सभी से ग्रहण करते हैं। ५००१. सति लंभम्मि वि गिण्हति इयरेसिं जाणिऊण निब्बंधं । मुंचति य सावसेसं, जाणति उवयारभणियं च ॥ प्रचुर लाभ होने पर भी दूसरे साधुओं का आग्रह देखकर आचार्य उनका लाया हुआ भी लेते हैं। उनका आनीत भोजन करते हुए भी अवशिष्ट छोड़ते हैं। वे जानते हैं कि कौन उपचार से निमंत्रित करता है और कौन सद्भावना से ५००२. गुरुणो (णं) भुत्तुव्वरियं, बालादसतीय मंडलिं जाति । जं पुण सेसगगहितं गिलाणमादीण तं विंति ॥ गुरु के भोजन कर लेने पर जो बचता है, उसे बाल मुनियों को दे दिया जाता है। उनके अभाव में उसे मंडली पात्र में डाल देते हैं। जिस भक्तपान को शेष मुनियों ने पात्रों में ग्रहण किया है उसको ग्लान आदि को दे दिया जाता है। ५००३. सेसाणं संसठ्ठे, न छुम्भती मंडली पडिम्गहए । पत्तेग गहित छुब्भति, ओभासणलंभ मोत्तूणं ॥ गुरु व्यतिरिक्त शेष साधुओं का संसृष्ट- अवशिष्ट भक्तपान मंडलीपात्र में नहीं डाला जाता। जो भक्तपान ग्लान आदि के लिए पृथक्-पृथक् पात्रों में गृहीत है, उसमें से बचा हुआ मंडली पात्र में डाल दिया जाता है। परंतु अवभाषितप्रगट लाभ को छोड़ कर शेष उसमें डाला जाता है। ५१७ ५००४. पाहुणगडा व तगं, धरेत्तुमतिबाहडा विगिंयंति। इह गहण - भुंजणविही, अविधीए इमे भवे दोसा ॥ अतिथियों के लिए तथा ग्लान के लिए लाया हुआ प्रायोग्य द्रव्य स्थापित कर यदि अत्यधिक हो तो उसे परिष्ठापित कर देते हैं। यह ग्रहण और भोजनविधि है। अविधि में ये दोष होते हैं। ५००५. तिब्वकसायपरिणतो, तिब्वतरागाई पावइ भयाई । मयगस्स दंतभंजण, सममरणं ठोक्कणुग्गिरणा ॥ तीव्र कषाय में परिणत जीव तीव्रतर भयों को प्राप्त होता है। प्रथम दृष्टांत में लोभ परिणत मृत आचार्य का दन्तभंजन, दूसरे दृष्टांत में तीव्र क्रोध परिणत आचार्य और शिष्य का सम-मरण, तीसरे दृष्टांत में आंखों को उखाड़ कर प्रस्तुत करना और चौथे दृष्टांत में दंडक को उठा कर शरीर को कूटना। यहां कषायदुष्ट का प्रकरण समाप्त हुआ। आगे विषयदुष्ट का प्रकरण चालू होता है। ५००६. संजति कप्पट्ठीए, सिज्जायरि अण्णउत्थिणीए य । एसो उ विसयदुट्टो, सपक्ख परपक्ख चउभंगो ॥ यहां भी स्वपक्ष-परपक्ष की अपेक्षा चतुर्भंगी होती है१. स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट २. स्वपक्ष परपक्ष में दुष्ट ३. परपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट ४. परपक्ष परपक्ष में दुष्ट । संयत कल्पस्थिका अर्थात् तरुण संयती में आसक्त हैयह प्रथम भंग है। संयत भी शय्यातर की लड़की या परतीर्थिकी में आसक्त है, यह दूसरा भंग है। गृहस्थ तरुण संयती में आसक्त है, यह तीसरा भंग है और गृहस्थ गृहस्थस्त्री में आसक्त है, यह चतुर्थ भंग है। इस प्रकार विषयदुष्ट चार प्रकार का होता है। 7 ५००७. पढमे भंगे चरिमं अणुवरए वा वि वितियभंगम्मि । सेसेण ण इह पगतं वा चरिमे लिंगदाणं तु ॥ प्रथम भंग में अनुपरत व्यक्ति के चरम प्रायश्चित्तपारांचिक प्राप्त होता है। दूसरे भंग में भी पारांचिक प्रायश्चित्त है। शेष दो भंग यहां अधिकृत नहीं है अथवा विकल्प से चरम भंग द्वय में लिंगदान करना चाहिए। यदि उपशांत हो तो अन्य स्थान में लिंगदान करना चाहिए अन्यथा नहीं। ५००८. लिंगेण लिंगिणीए संपत्तिं जइ नियच्छती पावो । सव्वजिणाणऽज्जातो, संघो आसातिओ तेणं ॥ यदि लिंग अर्थात् रजोहरण आदि से युक्त संयमी संयती के साथ प्रतिसेवना आदि करता है तो वह पापी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ५१८ सभी तीर्थंकरों की आर्याओं की तथा संघ की आशातना करता है। ५००९.पावाणं पावयरो, दिट्ठिऽब्भासे वि सो ण वट्टति हु। ___ जो जिणपुंगवमुई, नमिऊण तमेव धरिसेति॥ वह सभी पापियों में पापतर होता है। वैसे व्यक्ति को दृष्टि के सामने भी नहीं रखना चाहिए जो जिनपुंगवमुद्रा को धारण करने वाली श्रमणी को नमस्कार करके, उसी को भ्रष्ट करता है। ५०१०.संसारमणवयग्गं, जाति-जरा-मरण-वेदणापउरं। पावमलपडलछन्ना, भमंति मुद्दाधरिसणेणं॥ जो साक्षात् जिनमुद्रा-श्रमणी को भ्रष्ट करता है, वह जन्म, जरा, मरण और वेदना से संकुल तथा पापमलपटल से आच्छन्न इस अपार संसार में परिभ्रमण करता रहता है। ५०११.जत्थुप्पज्जति दोसो, कीरति पारंचितो स तम्हा तु। सो पुण सेवीमसेवी, गीतमगीतो व एमेव॥ जिस क्षेत्र में जिसके संयती के धर्षण आदि का दोष उत्पन्न हुआ है या होगा उसे उस क्षेत्र से पारांचिक कर दिया जाता है। वह उस दोष का सेवी या असेवी हो सकता है, वह गीतार्थ या अगीतार्थ हो सकता है उसे संपूर्ण रूप से पारांचिक कर देना चाहिए। ५०१२.उवस्सय कुले निवेसण, वाडग साहिगाम देस रज्जे वा। __कुल गण संघे निज्जूहणाए पारंचितो होति॥ जिस उपाश्रय में, कुल में, निवेसन में, पाटक में, साही में-शालारूप में श्रेणीक्रम से स्थित गांव के घरों की एक ओर की श्रेणी में, गांव में, देश में या राज्य में दोष उत्पन्न होता है वहां से उस व्यक्ति को पारांचिक कर दिया जाता है। जो कुल से, गण से या संघ से अलग कर दिया जाता है वह क्रमशः कुलपारांचिक, गणपारांचिक तथा संघपारांचिक कहलाता है। ५०१३.उवसंतो वि समाणो, वारिज्जति तेसु तेसु ठाणेसु। हंदि हु पुणो वि दोसं, तट्ठाणासेवणा कुणति॥ प्रश्न होता है कि साधक को उपाश्रय आदि स्थानों से पारांचिक क्यों किया जाता है? ग्रंथकार कहते हैं-साधक को उपशांत हो जाने पर भी उन-उन स्थानों में विहार करने या जाने का निषेध किया जाता है क्योंकि उस स्थान में पुनः जाने से वही दोष पुनः हो सकता है। ५०१४.जेसु विहरंति तातो, वारिज्जति तेसु तेसु ठाणेसु। पढमगभंगे एवं, सेसेसु वि ताई ठाणाई॥ जिस ग्राम या जिन स्थानों में संयतियां विहरण करती हैं, उन स्थानों में विहरण करने के लिए संयत की वर्जना की जाती है। यह प्रथम भंग की बात है-स्वपक्ष स्वपक्ष में दुष्ट। शेष द्वितीय आदि भंगों में वे स्थान भी वर्जनीय हैं। ५०१५.एत्थं पुण अहिगारो, पढमगभंगेण दुविह दुढे वी। उच्चारियसरिसाई, सेसाई विकोवणट्ठाए। यहां द्विविध दुष्ट अर्थात् कषाय से तथा विषय से दुष्ट प्रथम भंग का अधिकार है। शेष द्वितीय भंग आदि उच्चारित सदृश हैं। वे शिष्य की मति को कुरेदने के लिए कहे गए हैं। ५०१६.कसाए विकहा विगडे, इंदिय निदा पमाद पंचविधो। अहिगारो सुत्तम्मि, तहिगं च इमे उदाहरणा।। पांच प्रकार का प्रमाद है-कषाय, विकथा, विकट-मद्य, इन्द्रिय, निद्रा। निशीथ सूत्र की पीठिका में इनका विस्तार से वर्णन है। यहां सुप्त अर्थात् निद्रा का अधिकार है। निद्रा के पांच प्रकार हैं-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानर्द्धि।' ५०१७.पोग्गल मोयग फरुसग, दंते वडसालभंजणे सुत्ते। एतेहिं पुणो तस्सा, विविंचणा होति जतणाए। प्रस्तुत में पारांचिक का प्रसंग है। यहां स्त्यानर्द्धि निद्रा का अधिकार है। उसके ये उदाहरण हैं-पुद्गल-मांस, मोदक, कुंभकार, दांत, वटवृक्ष की शाखा को तोड़ना। इन लक्षणों से स्त्यानर्द्धि को जानकर उस साधु का यतनापूर्वक परित्याग कर देना चाहिए। ५०१८.पिसियासि पुव्व महिसं, विगच्चियं दिस्स तत्थ निसि गंतुं। अण्णं हंतुं खायति, उवस्सयं सेसगं णेति॥ कोई एक व्यक्ति गृहवास में मांसभक्षी था। उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार उसने एक महिष को काटते हुए देखा और उसको उस महिष के मांस खाने की लालसा उत्पन्न हो गई। वह उपाश्रय में सो गया। वह रात्री में महिषमंडल में गया और एक अन्य महिष को मारकर खाने लगा। जो मांस बचा उसे उपाश्रय में लाकर रख दिया। यह सारा स्त्यानर्द्धि नींद में उसने किया। सुहपडिबोहो निद्दा, दुहपडिबोहो य निहनिहा। पयला होइ ठियस्सा, पयलापयला उ चंकमतो॥ -जिससे जागना सुखपूर्वक होता है वह है निद्रा, जिससे जागना कष्टप्रद होता है वह है निद्रानिद्रा, जो बैठे या खड़े-खड़े नींद आती है वह है प्रचला और जो गमन करते नींद आती है वह है प्रचलाप्रचला। स्त्यानद्धि निद्रा का अर्थ है-प्रबलदर्शनावरणीयकर्म के उदय से ऋद्धि-चैतन्यशक्ति कठिनीभूत होकर जम जाती है, तब जानने की शक्ति जागृत नहीं रहती, कुछ भी भान नहीं रहता। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५०१९.मोयगभत्तमलछु, भंतु कवाडे घरस्स निसि खाति। भाणं च भरेऊणं, आगतो आवासए विगडे॥ ___ एक साधु गोचरी में भिक्षा के लिए घूम रहा था। उसने एक घर में मोदकभक्त देखा। याचना करने पर भी उसे नहीं मिला। रात्री में वह वहां गया और कपाटों को तोड़कर मोदक खाने लगा। शेष मोदकों से पात्रों को भरकर उपाश्रय में ले आया। प्राभातिक आवश्यक में वह आलोचना करता है कि मैंने ऐसा स्वप्न देखा था। प्रभात में मोदक से भरे पात्र को देखकर जान लिया कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा का प्रतिफल है। ५०२०.अवरो फरुसग मुंडो, मट्टियपिंडे व छिंदिउं सीसे। ____एगते अवयज्झइ, पासुत्ताणं विगडणा य॥ ___एक कुंभकार मुंडित-प्रव्रजित हो गया। रात्री में स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ और वह पूर्वाभ्यास के कारण मृत्तिकापिंड को छेदने की भांति पास में सोए हुए साधुओं के शिरों का छेदन करने लगा। उनको एकान्त में रखने लगा। बाद में वह स्वयं भी सो गया। प्रातःकाल आलोचना की कि उसने स्वप्न देखा है। यह सारा स्त्यानर्द्धि का फल था। ५०२१.अवरो वि धाडिओ मत्तहत्थिणा पुरकवाडे भंतूणं। तस्सुक्खणित्तु दंते, वसही बाहिं विगडणा य॥ कोई एक साधु भिक्षा के लिए जा रहा था। एक मत्त हाथी ने उसे सूंड से पकड़ कर उछाल दिया। साधु के मन में हाथी के प्रति प्रद्वेषभाव उत्पन्न हो गया। उस साधु के स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ। रात्री में वह उठा। नगर के दरवाजे तोड़कर वह हस्तिशाला में गया और उस हाथी के दांत उखाड़ कर वसति के बाहर उन्हें रखकर सो गया। प्रभात में उसने स्वप्न की आलोचना की। सारी स्थिति ज्ञात हो गई। ५०२२.उब्भामग वडसालेण घट्टितो केइ पुव्व वणहत्थी। वडसालभंजणाऽऽणण, उस्सग्गाऽऽलोयणा गोसे॥ एक बार मुनि उद्भ्रामक भिक्षा के लिए मूलगांव से पास वाले गांव में गया। रास्ते में एक विशाल वटवृक्ष था। वह भिक्षाचरी कर आ रहा था। अचानक उस वटवृक्ष की शाखा से उसका सिर टकरा गया। प्रचुर पीड़ा हुई। वटवृक्ष के प्रति मन में प्रद्वेष जाग उठा। रात्री में स्त्यानर्द्धि निद्रा की उदीरणा हुई और वह उठकर वटवृक्ष के पास गया। वटवृक्ष को उखाड़ कर उसकी शाखा को तोड़कर, उसे उपाश्रय में लाकर रख दिया। प्रातः उत्सर्ग-कायोत्सर्ग के समय आलोचना की। सचाई का पता लग गया। __ कुछ आचार्य कहते हैं-वह पूर्वभव में वनहस्ती था। मनुष्य ५१९ भव में उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। पूर्वभव के अभ्यास से उसने वटवृक्ष की शाखा को तोड़ डाला। ५०२३.केसवअद्धबलं पण्णवेति मुय लिंग णत्थि तुह चरणं। णेच्छस्स हरइ संघो, ण वि एक्को मा पदोसं तु॥ तीर्थंकर आदि कहते हैं कि स्त्यानर्द्धि नींद वाले व्यक्ति में केशव अर्थात् वासुदेव के बल से आधा बल होता है। यह प्रथम संहननी की अपेक्षा से कहा है। वर्तमान में उसमें सामान्य मनुष्य के बल से दुगुना, तीन गुना, चार गुना बल होता है। स्त्यानर्द्धि वाले को कहे-तुम साधु वेश को छोड़ दो। तुम्हारे में चारित्र नहीं है। यदि वह वेश छोड़ना नहीं चाहता तो संघ उसके वेश का हरण कर देता है। संघ में एक नहीं अनेक व्यक्ति होते हैं, इसलिए एक पर उसका प्रद्वेष नहीं होता। ५०२४.अवि केवलमुप्पाडे, न य लिंगं देति अणतिसेसी से। देसवत दंसणं वा, गिण्ह अणिच्छे पलायंति॥ अनतिशायीज्ञानी यह संभावना करता है कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा वाला मुनि इसी भव में केवलज्ञानी होगा, फिर भी वह उसको लिंग नहीं देता। उसका लिंगापहार करते समय उसे कहते हैं-तुम देशव्रत स्वीकार करो अथवा दर्शनसम्यक्त्व ग्रहण कर लो। यदि वह लिंग को छोड़ना नहीं चाहता तो अन्य मुनि रात्री में उसे सोया हुआ छोड़कर देशान्तर में चले जाएं। ५०२५.करणं तु अण्णमण्णे, समणाण न कप्पते सुविहिताणं। जे पुण करेंति णाता, तेसिं तु विविंचणा भणिया। सुविहित श्रमणों को परस्पर करण-मुख-पायुप्रयोग से सेवन करना नहीं कल्पता। जो करते हैं, उनकी जानकारी हो जाने पर उनका विवेचन-परित्याग कर देना चाहिए। ५०२६.आसग-पोसगसेवी, केई पुरिसा दुवेयगा होति। तेसिं लिंगविवेगो, बितियपदं रायपव्वइते॥ जो मुख और पायु का सेवन करने वाले होते हैं, वे कुछेक पुरुष साधु द्विवेदक-स्त्री-नपुंसक वेद वाले होते हैं, उनका लिंग-विवेक कर देना चाहिए। इसमें अपवादपद यह है कि जो राजप्रव्रजित मुख-पायु सेवी हो तो उसका यतनापूर्वक परित्याग कर देना चाहिए। ५०२७.बिइओ उवस्सयाई, कीरति पारंचितो न लिंगातो। अणुवरमं पुण कीरति, सेसा नियमा तु लिंगाओ।। द्वितीय अर्थात् विषयदुष्ट मुनि को उपाश्रय आदि क्षेत्रतः पारांचिक किया जाता है, लिंग से नहीं। यदि वह दोषों से अनुपरत होता है तो उसे लिंग से भी पारांचिक कर दिया Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० बृहत्कल्पभाष्यम् जाता है। शेष अर्थात् कषायदुष्ट, प्रमत्त, अन्योन्यसेवी-ये होता है। इसलिए इत्वर गणनिक्षेप आत्मतुल्य शिष्य में करके नियमतः लिंगपारांचिक किए जाते हैं। आचार्य अन्य गण में जाकर वहां प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, ५०२८.इंदिय-पमाददोसा, जो पुण अवराहमुत्तमं पत्तो। भाव की आलोचना परगण के आचार्य के पास करे। दोनों सम्भावसमाउट्टो, जति य गुणा से इमे होंति॥ आचार्य निरुपसर्ग के लिए कायोत्सर्ग करें। जो मुनि इन्द्रियदोष-प्रमाददोष से उत्कृष्ट अपराधपद को ५०३४.अप्पच्चय णिब्भयया, आणाभंगो अजंतणा सगणे। प्राप्त होता है, वह यदि सद्भावसमावृत अर्थात् पुनः ऐसा नहीं परगणे न होंति एए, आणाथिरता भयं चेव॥ करूंगा-इस निश्चय से युक्त होता है, उसे तपःपारांचिक अपने गण में पारांचिक स्वीकार करने पर अगीतार्थ किया जाता है। यदि उसके ये गुण हों तो मुनियों का आचार्य के प्रति अविश्वास होता है। वे निर्भय हो ५०२९.संघयण-विरिय-आगम-सुत्त-ऽत्थ जाते हैं। अपने गण में आज्ञाभंग और अयंत्रणा होती है। विहीए जो समग्गो तु। परगण में ये दोष नहीं होते। वहां भगवान् की आज्ञा-पालन में तवसी निग्गहजुत्तो, स्थिरता आती है तथा आत्मा में भय भी रहता है। पवयणसारे अभिगतत्थो॥ ५०३५.जिणकप्पियपडिरूवी, बाहिं खेत्तस्स सो ठितो संतो। संहनन-वज्रऋषभनाराच हो, वीर्य-धृति हो, आगम विहरति बारस वासे, एगागी झाणसंजुत्तो।। अर्थात् नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु तक सूत्रतः और 'जिनकल्पिकप्रतिरूपी अर्थात् अलेपकृत भिक्षा लेनी अर्थतः परिचित हो, इन सबकी विधि से जो संपूर्णरूप से चाहिए, तीसरे प्रहर में पर्यटन करना चाहिए'-इस जिनकल्प भावित हो, तपस्वी हो, निग्रहयुक्त हो, प्रवचन के सारभूत चर्या का पालन करता हुआ, क्षेत्र से बाहर रहकर वह अर्थ के रहस्यों का ज्ञाता हो। एकाकी ध्यान में संयुक्त होकर बारह वर्ष बिताता है। ५०३०.तिलतुसतिभागमित्तो, ५०३६.ओलोयणं गवेसण, आयरितो कुणति सव्वकालं पि। वि जस्स असुभो ण विज्जती भावो। उप्पण्णे कारणम्मि, सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥ निज्जूहणाइ अरिहो, जब तक पारांचिक प्रायश्चित्त वहन करता है, उस सेसे निज्जूहणा नत्थि॥ समस्त काल में आचार्य प्रतिदिन उसके पास जाकर उसका जिसके गच्छ से निर्मूढ़ हो जाने पर भी जिसके अवलोकन करते हैं, दर्शन करते हैं और उसके योगक्षेम की तिलतुषमात्र का भी अशुभभाव मन में नहीं आता, ऐसा मुनि पृच्छा करते हैं। कारण अर्थात् ग्लानत्व आदि उत्पन्न होने पर नि!हण के योग्य होता है। इन गुणों से रहित व्यक्ति नि!हणा आचार्य स्वयं सर्वप्रयत्नपूर्वक उसके भक्तपान की व्यवस्था के योग्य नहीं होते। करते हैं। ५०३१.एयगुणसंपजुत्तो, पावति पारंचियारिहं ठाणं। ५०३७.जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमाएणं। एयगुणविप्पमुक्के, तारिसगम्मी भवे मूलं। आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुवनिद्दिट्ठा। इन गुणों से युक्त व्यक्ति पारांचिक योग्य स्थान को प्राप्त जो आचार्य किसी प्रमादवश उसकी उपेक्षा करते हैं, तो करता है। इन गुणों से विप्रमुक्त व्यक्ति यदि पारांचिकापत्ति उन्हें पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा करनी चाहिए। प्राप्त करता है फिर भी उसको मूल प्रायश्चित्त ही प्राप्त ५०३८.आहरति भत्त-पाणं उव्वत्तणमाइयं पि से कुणति। होता है। सयमेव गणाहिवई, अह अगिलाणो सयं कुणति॥ ५०३२.आसायणा जहण्णे, छम्मासुक्कोस बारस तु मासे। पारांचिक यदि ग्लान हो गया हो तो गणाधिपति-आचार्य वासं बारस वासे, पडिसेवओ कारणे भतिओ॥ स्वयं भक्तपान लाते हैं। उसका उद्वर्तन, परावर्तन आदि आशातनापारांचिक जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः । करते हैं। जब वह स्वस्थ हो जाता है तो वह ये सारी क्रियाएं बारह मास तक गच्छ से नियूंढ रहता है। प्रतिसेवना- स्वयं करता है। पारांचिक जघन्यतः एक संवत्सर तक तथा उत्कृष्टतः बारह ५०३९.उभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं, संवत्सर पर्यन्त संघ से निढूँढ रहता है। वोढुं सरीरस्स य वट्टमाणिं। ५०३३.इत्तिरियं णिक्खेवं, काउं अण्णं गणं गमित्ताणं। आसासइत्ताण तवोकिलंतं, __दव्वादि सुभे विगडण, निरुवस्सग्गट्ठ उस्सग्गो॥ तमेव खेत्तं समुवेति थेरा।। जो पारांचिक स्वीकार करता है वह नियमतः आचार्य आचार्य शिष्य तथा प्रतीच्छकों को सप्रतिपृच्छा (उत्तर Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५२१ सहित) सुखपृच्छा करते हैं। सूत्र और अर्थ की वाचना देकर ५०४४.जाणंता माहप्पं, सयमेव भणंति एत्थ तं जोग्गो। पारांचिक प्रायश्चित्त वहन करने वाले के पास आते हैं और अत्थि मम एत्थ विसओ, अजाणए सो व ते बेति॥ उसके शरीर की वार्तमानिकी वार्ता को पूछते हैं। वह भी उपाध्याय आदि उस पारांचिक के माहात्म्य को जानते आचार्य को 'मस्तक से वंदना करता हूं'-यह कहता हुआ हुए स्वयं उसे कहते हैं-इस प्रयोजन के लिए तुम योग्य हो। फेटावन्दनक से वंदना करता है। वह यदि तप से क्लान्त कुछ उद्यम करो। यदि उसकी शक्ति को नहीं जानते तब वह होता है तो आचार्य उसे आश्वस्त कर उसी क्षेत्र में आ जाते स्वयं उनको कहता है-यह मेरा विषय है। हैं जहां गच्छ रहता है। ५०४५.अच्छउ महाणुभागो, जहासुहं गुणसयागरो संघो। ५०४०.असहू सुत्तं दातुं, दो वि अदाउं व गच्छति पए वि। गुरुगं पि इमं कज्जं, मं पप्प भविस्सए लहुयं ।। संघाडओ से भत्तं, पाणं चाऽऽणेति मग्गेणं॥ सैकड़ों गुणों का आकर संघ जो अचिन्त्य महिमा वाला है यदि आचार्य सूत्र और अर्थ की वाचना देने में असमर्थ हों वह सुखपूर्वक अखंड रहे। यह बड़ा कार्य भी मेरे द्वारा लघु तो केवल सूत्र की वाचना देकर जाए। यदि वैसा भी न हो सके हो जाएगा। मैं इस कार्य को सहजता से कर डालूंगा। उसको तो वाचना दिए बिना ही प्रातःकाल उस पारांचिक प्रायश्चित्त उस कार्य की निष्पत्ति के लिए नियुक्त करने पर....... वहन करने वाले आचार्य के पास चले जाएं। उनके पीछे-पीछे ५०४६.अभिहाण-हेउकुसलो बहसु नीराजितो विउसभासु। ही मुनियों का एक संघाटक भक्त-पान लेकर आता है। गंतूण रायभवणे, भणाति तं रायदारटुं। ५०४१.गेलण्णेण व पुट्ठो, अभिणवमुक्को ततो व रोगातो। ५०४७.पडिहाररूवी! भण रायरूविं, कालम्मि दुब्बले वा, कज्जे अण्णे व वाघातो॥ तमिच्छए संजयरूवि दहूँ। कदाचित् आचार्य न भी जाएं, उसके ये कारण हो सकते निवेदयित्ता य स पत्थिवस्स, हैं-आचार्य रोग से स्पृष्ट हो गए हों, ग्लानत्व से अभी अभी जहिं निवो तत्थ तयं पवेसे॥ मुक्त हुए हों, अथवा उस समय दुर्बलता अत्यधिक हो, अन्य वह अभिधान ओर हेतुकुशल (शब्द और तर्कशास्त्र में किसी कार्यवश गमन में व्याघात हो रहा हो। वे कार्य क्या हो निपुण) पारांचिक मुनि जिसने अनेक विद्वद् सभाओं में सकते हैं? विजय प्राप्त की थी, वह राजभवन में गया और तत्रस्थित ५०४२.वायपरायण कुवितो, चेइय-तहव्व-संजतीगहणे।। द्वारपाल से बोला-हे प्रतीहाररूपिन्! तुम जाकर राजरूपिन् पुव्वुत्ताण चउण्ह वि, कज्जाण हवेज्ज अन्नयरं॥ से कहो कि एक संयतरूपिन् तुमको देखना चाहता है। वाद पराजय से राजा कुपित हो गया हो, चैत्य- वह प्रतिहारी भीतर गया और पार्थिव से उसी प्रकार कहा जिनायतन को अवष्टंभ से मुक्त कराने के लिए अथवा और पार्थिव के कथनानुसार उस संयती को नृप के पास चैत्यद्रव्य संयती ने ग्रहण कर लिया हो, उसको मुक्त कराने प्रवेश कराया। के लिए अथवा पूर्वोक्त अर्थात् पहले उद्देशक (गाथा ३१२१) ५०४८. तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं, में प्रतिपादित चार कार्यों में कोई कार्य आ गया हो पुच्छिंसु रायाऽऽगयकोउहल्लो। (१) राजा ने मुनियों को राज्य से बाहर निर्गमन का पण्हे उराले असुए कयाई, आदेश दे दिया हो। स चावि आइक्खइ पत्थिवस्स। (२) भक्तपान का निषेध कर दिया हो। साधु को वंदना कर राजा ने उसे शुभ आसन पर बिठा (३) उपकरण-हरण कर दिया हो। कर कुतूहलवश साधु से उदार-गंभीर अर्थ वाले तथा कभी (४) मृत्यु अथवा चारित्र के भेद की बात कही हो। भी न सुने हुए शब्दों का अर्थ पूछा। इन कार्यों से आचार्य नहीं भी जा सकते। ५०४९.जारिसग आयरक्खा, सक्कादीणं न तारिसो एसो। ५०४३.पेसेइ उवज्झायं, अन्नं गीतं व जो तहिं जोग्गो। तुह राय! दारपालो, तं पि य चक्कीण पडिरूवी॥ पुट्ठो व अपुट्ठो वा, स चावि दीवेति तं कज्जं॥ तब साधु बोला-राजन्! जैसे आत्मरक्षक शक्र आदि के आचार्य स्वयं न जा पाने की स्थिति में उपाध्याय को होते हैं वैसा आपका यह द्वारपाल नहीं है, इसलिए मैंने अथवा गीतार्थ मुनि को जो योग्य हो उसे भेजते हैं। पारांचिक कहा-हे प्रतिहाररूपिन्! राजन्! तुम भी जैसे चक्रवर्ती होता मुनि के पूछने या न पूछने पर भी आचार्य के अनागमन का है वैसे नहीं हो। तुम भी चक्रवर्ती के प्रतिरूपी हो, इसलिए कारण बताते हैं। मैंने कहा राजरूपिन्। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ५०५५.एक्को य दोन्नि दोन्नि य, मासा चउवीस होति छब्भागे। देसं दोण्ह वि एयं, वहेज्ज मुंचेज्ज वा सव्वं॥ देश, देश-देश प्रायश्चित्त का स्वरूप-आशातनापारांचिक जघन्यतः छह मास का और उत्कृष्टतः बारह मास का होता है। छह महीनों का छठा भाग एक मास और बारह महीनों का छठा भाग दो मास होता है। प्रतिसेवनापारांचिक जघन्यतः एक वर्ष और उत्कृष्टतः बारह वर्ष का होता है। यहां भी वर्ष का छठा भाग दो मास और बारह वर्षों का छठा भाग २४ मास होता है। दोनों प्रायश्चित्तों का यह 'देश' है। संघ इस प्रायश्चित्त को वहन करवाए या सारा विसर्जित कर दे। ५२२ ५०५०.समणाणं पडिरूवी, जं पुच्छसि राय! तं कहमहं ति। निरतीयारा समणा, न तहाऽहं तेण पडिरूवी॥ तब राजा ने पूछा-तुमने स्वयं को श्रमणप्रतिरूपिन् कैसे कहा? साधु बोला-राजन्! तुम पूछ रहे हो कि मैं श्रमण- प्रतिरूपिन् कैसे हूं? तो सुनो। श्रमण निरतिचार होते हैं। मैं वैसा नहीं हूं। अतः श्रमणप्रतिरूपिन् हूं। ५०५१.निज्जूढो मि नरीसर!, खेत्ते वि जईण अच्छिउं न लभे। अतियारस्स विसोधिं, पकरेमि पमायमूलस्स॥ हे नरेश्वर! मैं अभी संघ से निष्कासित हूं। मैं अभी श्रमणों के क्षेत्र में रह भी नहीं सकता। वहां मझे स्थान भी नहीं मिलता। मैं अभी प्रमाद के मूल अतिचार की विशोधी कर रहा हूं, उसका प्रायश्चित्त वहन कर रहा हूं। इसलिए मैं श्रमणप्रतिरूपिन् हूं। ५०५२.कहणाऽऽउट्टण आगमणपुच्छणं दीवणा य कज्जस्स। वीसज्जियं ति य मए, हासुस्सलितो भणति राया। राजा जो पूछे उसका प्रसंगतः उत्तर देना यह श्रमण का कर्त्तव्य है। राजा ने जब श्रमण को राजभवन में आने का प्रयोजन पूछा तो श्रमण का कर्तव्य है कि वह अपना प्रयोजन बताए। श्रमण ने अपना प्रयोजन बताया। राजा प्रहृष्ट होकर बोला-मैंने श्रमणों पर जो प्रतिबंध लगाया था, उसको विसर्जित कर श्रमणों को प्रतिबंधों से मुक्त करता हूं। ५०५३.संघो न लभइ कज्ज, लद्धं कज्जं महाणुभाएणं। ___ तुब्भं ति विसज्जेमि, सो वि य संघो त्ति पूएति॥ संघ को प्रतिबंधों से मुक्ति नहीं मिल पाती, किन्तु महानुभाग-अत्यन्त अचिन्त्यप्रभाव से उस पारांचिक मुनि ने इस प्रयोजन को प्राप्त कर लिया। राजा ने कहा-श्रमण ! तुम्हारे कहने से मैं प्रतिबंधों को विसर्जित करता हूं। श्रमण ने कहा-मैं हूं ही क्या? संघ महान् है। राजा ने तब संघ को निमंत्रित कर उसकी पूजा की। ५०५४.अब्भत्थितो व रण्णा, सयं व संघो विसज्जति तु तुट्ठो। आदी मज्झऽवसाणे, स यावि दोसो धुओ होइ॥ राजा ने संघ से अभ्यर्थना की कि इस पारांचिक प्रायश्चित्त वहन करने वाले श्रमण को प्रायश्चित्त से मुक्त कर दे। तब संघ राजा के कहने पर या स्वयं उस मुनि पर तुष्ट होकर उसे प्रायश्चित्त से मुक्त कर दे। पारांचिक मुनि का वह प्रायश्चित्त उस समय आदि-मध्य और अवसान वाला हो सकता है, वह सारा दोष संघ की कृपा से धुल (धुत हो) जाता है। बावत्तरं च दिवसा, दसभाग वहेज्ज बितिओ तु॥ देशदेश-आशातनापारांचिक के छह महीनों के दसवें भाग अर्थात् १८ दिन और वर्ष के दसवें भाग अर्थात् ३६ दिन होते हैं। प्रतिसेवनापारांचिक संवत्सर के दसवें भाग अर्थात् ३६ दिन, १२ वर्षों का दसवां भाग अर्थात् एक वर्ष और ७२ दिन होते हैं। इस काल पर्यन्त जो वहन करता है वह है देश-देश पारांचिक। ५०५७.पारंचीणं दोण्ह वि, जहन्नमुक्कोसयस्स कालस्स। छब्भागं दसभागं, वहेज्ज सव्वं व झोसिज्जा। दोनों पारांचिकों-आशातना और प्रतिसेवनापारांचिक का जघन्य और उत्कृष्ट काल का षड्भाग या दसवां भाग का वहन करे। अथवा संघ कृपा करके सारा विसर्जित कर दे, मुक्त कर दे। ततो अणवट्टप्पा पण्णत्ता, तं जहा-साहम्मियाणं तेणियं करेमाणे, अण्णधम्मियाणं तेणियं करेमाणे, हत्थादालं दलेमाणे॥ (सूत्र ३) ५०५८.पच्छित्तमणंतरियं, हेट्ठा पारंचियस्स अणवट्ठो। आयरियस्स विसोधी, भणिता इमगा उवज्झाते॥ पारांचिक प्रायश्चित्त के अनन्तर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। उसका कथन किया जाता है। अथवा पूर्वसूत्र में आचार्य की शोधि कही गई है। यह उपाध्याय विषयक शोधि है। ५०५९.आसायण पडिसेवी, अणवठ्ठप्पो वि होति दुविहो तु। एक्केको वि य दुविहो, सचरित्तो चेव अचरित्तो॥ अनवस्थाप्य के दो प्रकार हैं-आशातना अनवस्थाप्य और Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५२३ प्रतिसेवी अनवस्थाप्य। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं सचारित्र शैक्ष कहा गया है। उपधि अर्थात् वस्त्र, पात्र आदि। परिगृहीत और अचारित्र। या अपरिगृहीत भी हो सकता है। प्रत्येक तीन-तीन प्रकार ५०६०.तित्थयर पवयण सुते, आयरिए गणहरे महिड्डीए। का है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। एते आसादेंते, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ ५०६६.अंतो बहिं निवेसण, वाडग गामुज्जाण सीमऽतिक्कते। तीर्थंकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्द्धिक मास चउ छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च। इनकी आशातना करने पर प्रायश्चित्त की मार्गणा निम्न उपाश्रय के भीतर शैक्ष यदि साधर्मिक उपकरण का प्रकार से होती है। अदृष्ट स्तैन्य करता है तो मासलघु, उपाश्रय के बाहर ५०६१.पढम-बितिएसु णवमं, सेसे एक्कक्क चउगुरू होति। करता है तो मासगुरु। निवेसन के भीतर मासगुरू, बहिर सव्वे आसादेतो, अणवठ्ठप्पो उ सो होइ॥ चतुर्लघु। वाटक के भीतर चतुर्लघु, बाहर चतुर्गुरु। ग्राम के प्रथम और द्वितीय अर्थात् तीर्थंकर और प्रवचन-संघ की अन्दर चतुर्गुरु, बाहर षड्लघु। उद्यान के भीतर षड्लघु, आशातना करने पर उपाध्याय को नवम् अर्थात् अनवस्थाप्य बाहर षड्गुरु। सीमा के भीतर षड्गुरु, सीमा का अतिक्रान्त प्रायश्चित्त आता है। शेष अर्थात् श्रुत आदि की आशातना हो जाने पर छेद। मूल और द्विक-अनवस्थाप्य और पारांचिक करने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु। सबकी आशातना का कथन आगे......। करने पर वह अनवस्थाप्य होता है। ५०६७.एवं ता अघिद्वे, दिढे पढमं पदं परिहवेत्ता। ५०६२.पडिसेवणअणवट्ठो, तिविधो सो होइ आणुपुव्वीए। ते चेव असेहे वी, अदिट्ठ दिवे पुणो एक्कं ।। साहम्मि अण्णधम्मिय, हत्थादालं व दलमाणे॥ यह सारा अदृष्ट स्तैन्य करने पर शैक्ष के लिए प्रतिसेवना अनवस्थाप्य क्रमशः तीन प्रकार का होता है- प्रायश्चित्त कहा है। दृष्ट स्तैन्य में प्रथम पद अर्थात् मासलघु साधर्मिकस्तैन्यकारी, अन्य धार्मिकस्तैन्यकारी और हस्त- को छोड़कर मासगुरु से प्रारंभ कर मूल पर्यन्त वक्तव्य है। ताल देने वाला। अशैक्ष अर्थात् उपाध्याय के भी अदृष्ट स्तैन्य के भी वे ही ५०६३.साहम्मि तेण्ण उवधी, वावारण झामणा य पट्ठवणा। प्रायश्चित्त हैं। दृष्ट स्तैन्य में एक पद मासगुरु को छोड़कर सेहे आहारविधी, जा जहिं आरोवणा भणिता॥ चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। आचार्य साधर्मिकों की उपधि को चुरा लेना यह साधर्मिकस्तैन्य के भी अदृष्ट में अनवस्थाप्य पर्यन्त और दृष्ट में चतुर्गुरु से है। गुरु साधु को उपधि लाने के लिए भेजते हैं। उपधि पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त का विधान है। प्राप्तकर गुरु को बिना कहे ही स्वयं उसको ले लेना, उपधि ५०६८.वावारिय आणेहा, बाहिं घेत्तूण उवहि गिण्हंति। दग्ध हो गई, उसे गुरु को बिना पूछे नई उपधि का भोग लहुगो अदिति लहुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥ करना, गुरु ने किसी को देने के लिए वस्त्र, पात्र आदि भेजा, गुरु ने शिष्यों को उपधि लाने के लिए भेजा। उन्होंने उस व्यक्ति को वह न देकर बीच में स्वयं ले लेना, शैक्ष गृहस्थों से वस्त्र आदि प्राप्त कर लिए। उपधि को आचार्य के विषयक स्तैन्य करना, आहारविधि में अतिक्रमण करना-ये पास न लाकर बाहर ही उसका विभाजन कर ग्रहण कर साधर्मिक स्तैन्य के रूप हैं। इनके लिए आरोपणा प्रायश्चित्त लिया। इसमें मासलघु का प्रायश्चित्त है। आने पर भी वस्त्र कहा गया है। गुरु को नहीं देते। उसमें चतुर्लघु। वे स्वच्छंदग्राहक साधु ५०६४.उवहिस्स आसिआवण, सेहमसेधे य दिट्ठऽदिढे य। अनवस्थाप्य होते हैं। यह सूत्र का आदेश है। सेहे मूलं भणितं, अणवठ्ठप्पो य पारंची॥ ५०६९.दट्ट निमंतण लुद्धोऽणापुच्छा तत्थ गंतु णं भणति। उपधि का आसियावण अर्थात् स्तैन्य शैक्ष या अशैक्ष, झामिय उवधी अह तेहि पेसितो गहित णातो य॥ देखते हुए या न देखते हुए करे, उसमें शैक्ष को मूल पर्यन्त एक श्रावक ने आचार्य को वस्त्र ग्रहण करने के लिए प्रायश्चित्त आता है, उपाध्याय को अनवस्थाप्य पर्यन्त और । निमंत्रित किया। आचार्य ने उन वस्त्रों को ग्रहण करने की आचार्य को पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मनाही कर दी। एक साधु उन वस्त्रों के प्रति लुब्ध हो गया। ५०६५.सेहो त्ति अगीयत्थो, जो वा गीतो अणिड्डिसंपन्नो। वह आचार्य को बिना पूछे ही उस श्रावक के घर गया और उवही पुण वत्थादी, सपरिग्गह एतरो तिविहो॥ बोला-हमारे वस्त्र दग्ध हो गए हैं। मुझे आचार्य ने तुम्हारे शैक्ष पद से यहां अगीतार्थ मुनि अथवा गीतार्थ होने पर पास वस्त्र लाने भेजा है। उसने साधु को वस्त्र दिए। इतने में भी जो आचार्यपद आदि की समृद्धि को अप्राप्त है उसे भी ही दूसरे साधु आ गए। उस गृहस्थ ने कहा-आपके वस्त्र Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ = बृहत्कल्पभाष्यम् दग्ध हो गए हैं। एक साधु को मैंने वस्त्र दिए हैं। आपको संज्ञाभूमी में गए हुए किसी साधु ने या किसी पथिक चाहिए तो आप भी ले जाएं। वस्त्र आदि के दग्ध होने की साधु ने किसी शैक्ष को देखा। उसने साधु को वंदना की। बात झूठी है। उस श्रावक ने जान लिया कि गुरु को बिना साधु ने पूछा-तुम कौन हो? मैं शैक्ष हूं। मैं अमुक साधु के पूछे ही उसने मेरे से वस्त्र लिया है। साथ प्रस्थित हूं। साधु ने पूछा-वह अब कहां गया है? शैक्ष ५०७०.लहुगा अणुग्गहम्मि, गुरुगा अप्पत्तियम्मि कायव्वा।। बोला-वह मेरे कार्य के लिए अर्थात् मैं बुभुक्षित और मूलं च तेणसहे, वोच्छेद पसज्जणा सेसे॥ पिपासित हूं, मेरे लिए भक्त-पान लाने के लिए घूम रहा है। फिर भी यदि श्रावक अनुग्रह मानता है, तो उस मुनि उस साधु ने शैक्ष से कहा मेरे पास अन्न-पान है। उसको को चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि श्रावक को खाओ। यदि अनुकंपा से भोजन देता है तो वह शुद्ध है। यदि अप्रीति उत्पन्न होती है तो चतुर्गुरु, यदि 'चोर शब्द' शैक्ष के द्वारा पूछने पर या न पूछने पर अनुकंपा से धर्मकथा प्रचारित होता है तो मूल और शेष साधुओं के लिए अन्य करता है तो शुद्ध है। अन्यथा उसका अपहरण करने के लिए द्रव्यों का व्यवच्छेद प्रसंगवश होता है तो अन्य प्रायश्चित्त धर्मकथा करता है या भक्तपान देता है तो वह दोष है। उसका प्राप्त होता है। गुरुक प्रायश्चित्त है। ५०७१.सुव्वत्त झामिओवधि, पेसण गहिते य अंतरा लुद्धो। ५०७६.भत्ते पण्णवण निगृहणा य वावार झंपणा चेव। लहुगो अदेंते गुरुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥ पत्थवण-सयंहरणे, सेहे अव्वत्त वत्ते य॥ यथार्थ में ही उपधि दग्ध हो गई हो, गुरु ने शिष्य को उस शैक्ष का अपहरण करने के लिए वह साधु उसे वस्त्र लाने भेजा, वस्त्रग्रहण किया और उन वस्त्रों में प्रलुब्ध भक्त-पान देता है, या धर्मकथा करता है तब शैक्ष कहता हो गया। स्वयं उनको ग्रहण कर लेता है तो लघुमास का, है-मैं तुम्हारे पास ही दीक्षा लूंगा, परंतु पहले वाले साधु के यदि गुरु को नहीं देता है तो चतुर्गुरु तथा सूत्र के आदेश से समक्ष मैं ठहर नहीं सकता। अतः मुझे कहीं छुपा लो। तब वह अनवस्थाप्य होता है। वह मुनि उसे व्यापृत करता है कि तुम उस स्थान में छुप ५०७२.उक्कोस सनिज्जोगो, पडिग्गहो अंतरा गहण लुतो।। जाओ। जब वह वहां जाता है तब उसे पलाल आदि से ढंक लहुगा अदेंते गुरुगा, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥ देता है। अथवा उसको दूसरे के साथ अन्य स्थान में ___ एक आचार्य ने अपने शिष्य से कहा यह उत्कृष्ट पात्र प्रस्थापित कर देता है या स्वयं उसका हरण कर अन्यत्र तुम अमुक आचार्य को दे देना। यह पात्र सनिर्योग-पात्रकबंध चला जाता है। व्यक्त अथवा अव्यक्त शैक्ष से संबंधित ये षट् आदि से युक्त है। वह शिष्य उस पात्र को लेकर चला। उसमें पद होते हैं-भक्तप्रदान, धर्मकथा, निगूहनावचन, व्याप्त लुब्ध होकर वह उसे ग्रहण करना चाहता था। उसे चतुर्लघु करना, झंपना-ढंकना, प्रस्थापन-स्वयंहरण। इन छह स्थानों और उन आचार्य को वह उस पात्र को नहीं देता है तो का यह प्रायश्चित्त है। चतुर्गुरु और सूत्र के आदेश से वह अनवस्थाप्य होता है। ५०७७.गुरुओ चउलहु चउगुरु, ५०७३.पव्वावणिज्ज बाहिं, ठवेत्तु भिक्खस्स अतिगते संते। छल्लहु छग्गुरुगमेव छेदो य। सेहस्स आसिआवण, अभिधारेते व पावयणी॥ भिक्खु-गणा-ऽऽयरियाणं, कोई साधु प्रव्राजनीय शैक्ष को लेकर चला। उसको गांव मूलं अणवट्ठ पारंची॥ के बाहर बिठाकर स्वयं भिक्षा के लिए गया। उसके चले अव्यक्त शैक्ष अर्थात् जिसके अभी तक दाढ़ी-मूंछ नहीं है, जाने पर एक दूसरे मुनि ने उस शैक्ष का 'असियावण'- उससे संबंधित इन छह स्थानों का यह प्रायश्चित्त है। अपहरण कर डाला। वह शैक्ष किसी साधु को मन में धारण भक्तपान देना मासगुरु, धर्मकथा करना चतुर्गुरु, निगूहनवचन कर जा रहा है। उसको दूसरा मुनि ठगकर प्रवजित कर देता चतुर्गुरु, व्याप्त करना षड्लघु, झम्पन करना षड्गुरु, है। जब ये दोनों प्रावचनिक होते हैं तब दोनों अपना दिक्- प्रस्थापन-स्वयंहरण करना छेद। व्यक्त शैक्ष-दाढ़ी-मूंछ वाले परिच्छेद कर देते हैं। शैक्ष के प्रायश्चित्त है चतुर्लघु से मूल पर्यन्त। गणी अर्थात् ५०७४.सण्णातिगतो अद्धाणितो व वंदणग पुच्छ सेहो मि। उपाध्याय के चतुर्लघु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और आचार्य के सो कत्थ मज्झ कज्जे, छात-पिवासस्स वा अडति॥ चतुर्गुरु से पारांचिक पर्यन्त। ५०७५.मज्झमिणमण्ण-पाणं, उवजीवऽणुकंपणाय सुद्धो उ। ५०७८.अभिधारंत वयंतो, पुट्ठो वच्चामऽहं अमुगमूलं। पुट्ठमपुढे कहणा, एमेव य इहरहा दोसो॥ पण्णवण भत्तदाणे, तहेव सेसा पदा णत्थि। प Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक - ५२५ उपरोक्त सारा कथन ससहाय शैक्ष के लिए कहा है, किन्तु जो असहाय शैक्ष है, उसके लिए निम्नोक्त कथन है- कोई शैक्ष अकेला किसी आचार्य के पास दीक्षित होने की भावना को धारण कर जाता है। बीच में किसी साधु ने पूछाकहां जा रहे हो? वह कहता है मैं अमुक आचार्य के पास प्रव्रजित होने जा रहा हूं। वह मुनि यदि उस अव्यक्त शैक्ष को भक्तपान देने या धर्मकथा करता है तो प्रायश्चित्त आता है (भक्तपान-मासलघु, धर्मकथा-चतुर्लघु)। उपाध्याय और आचार्य के षड्लघु और षड्गुरु प्रायश्चित्त है। शैक्ष असहाय होने के कारण शेष पद-निगूहन आदि नहीं होते। ५०७९.आणादऽणंतसंसारियत्त बोहीय दुल्लभत्तं च। साहम्मियतेण्णम्मि, पमत्तछलणाऽधिकरणं च॥ शैक्ष का अपहरण करने पर ये दोष और होते हैं१. आज्ञाभंग आदि दोष २. अनन्तसंसारिकत्व ३. बोधि की दुर्लभता ४. साधर्मिकस्तैन्य में प्रमत्तता ५. प्रमत्त की प्रान्तदेवता द्वारा छलना ६. अधिकरण-कलह। ये सारे पुरुष विषयक दोष हैं। ५०८०.एमेव य इत्थीए, अभिधारेंतीए तह वयंतीए। वत्तऽव्वत्ताए गमो, जहेव पुरिसस्स नायव्वो॥ प्रव्रज्या लेने की इच्छुक कोई बहिन आचार्य का अभिधारण कर जा रही है। वह व्यक्त है या अव्यक्त, उसके लिए पुरुष की भांति ही विकल्प हैं। ५०८१.एवं तु सो अवधितो, जाधे जातो सयं तु पावयणी। निक्कारणे य गहितो, वच्चति ताहे पुरिल्लाणं॥ इस प्रकार वह शैक्ष अपहृत हो गया और जब स्वयं ही प्रावचनिक हो गया अथवा दूसरा कोई निष्कारण ही उसे गृहीत कर लिया, तब वह अपने आप ही दिक्परिच्छेद कर पुनः बोधिलाभ के लिए पूर्व आचार्य के पास ही जाता है। ५०८२.अन्नस्स व असतीए, गुरुम्मि अब्भुज्जएगतरजुत्ते। धारेति तमेव गणं, जो य हडो कारणज्जाते॥ जिसने निष्कारण ही उस शैक्ष का अपहरण किया था, उसके गण में कोई अन्य आचार्य पद योग्य नहीं है और गुरु ने अभ्युद्यतविहार या अभ्युद्यतमरण को स्वीकार कर लिया है तो वही उस गण को धारण करता है जो कारणवश अपहृत हुआ है। ५०८३.नाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुजोगे च। अज्जाकारणजाते, कप्पति सेहावहारो तु॥ पूर्वगत में तथा कालिकानुयोग में कुछ अंशों का व्यवच्छेद जानकर तथा उस गण में कोई आर्याओं का परिवर्तक नहीं, यह कारण जानकर किसी शैक्ष का अपहरण करना कल्पता है। ५०८४.कारणजाय अवहितो, गणं धरतो तु अवहरंतस्स। जाहेगो निप्फण्णो, पच्छा से अप्पणो इच्छा। कारण जात में अपहृत शैक्ष जिस गण को धारण करता है, उसी गण का आभाव्य होता है। जब कारण पूरा हो जाता है तब वह शैक्ष पहले वाले का ही आभाव्य होता है, अपहरण करने वाले का नहीं। जब उस गण में एक भी मुनि गीतार्थरूप में निष्पन्न हो जाता है, उसके पश्चात् उसकी इच्छा है कि वह वहां रहे या पूर्व स्थान में चला जाए। ५०८५.ठवणाघरम्मि लहुगो, मादी गुरुगो अणुग्रहे लहुगा। अप्पत्तियम्मि गुरुगा, वोच्छेद पसज्जणा सेसे।। दानश्राद्ध आदि के कुल को स्थापनागृह कहा जाता है। जो मुनि आचार्य की आज्ञा के बिना वहां गोचरी के लिए जाता है तो उसे मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। जो मायापूर्वक वहां जाता है, उसे मासगुरुक का प्रायश्चित्त है। यदि श्राद्ध लोग अनुग्रह मानते हैं तो चतुर्लघु, यदि अप्रीतिक करते हैं तो चतुर्गुरु और तद् द्रव्य का व्यवच्छेद तथा शेष दोषों के प्रसंग से उस-उस दोष का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ५०८६.अज्ज अहं संदिट्ठो पुट्ठोऽपुट्ठो व साहती एवं। पाहुणग-गिलाणट्ठा, तं च पलोट्टेति तो बितियं ।। गुरु की आज्ञा के बिना स्थापनाकुल में प्रवेश कर मुनि से पूछने पर या बिना पूछे ही वहां कहता है-मुझे आचार्य ने यहां भेजा है। उसको मासलघु। घर के श्राद्ध कहते हैं- सन्दिष्ट संघाटक आया था, हमने उसको दे दिया। तब वह कहता है-मैं प्राघूर्णक तथा ग्लान के लिए आया हूं। इस प्रकार यदि श्राद्ध लोगों को भ्रम में डालता है तो द्वितीय मासगुरु। ५०८७.आयरि-गिलाण गुरुगा, लहुगा य हवंति खमग-पाहुणए। गुरुगो य बाल-वुड्ढे, सेसे सव्वेसु मासलहुँ॥ जो श्राद्ध विपरिणत होकर यदि आचार्य और ग्लान के लिए प्रायोग्य द्रव्य नहीं देते तो उस मुनि को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त और जो क्षपक और प्राघूर्णक के प्रायोग्य नहीं देते तो उनको चतुर्लघु, बाल-वृद्धों के योग्य न देने पर गुरुमास और शेष सभी मुनियों के प्रायोग्य न मिलने पर उस मुनि को मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ बृहत्कल्पभाष्यम् ५०८८.परधम्मिया वि दुविहा, लिंगपविट्ठा तहा गिहत्था य। का अपहरण करता है तो चतुर्गुरुक, आकर्षण करने पर तेसिं तिण्णं तिविहं, आहारे उवधि सच्चित्ते॥ षड्गुरुमास, व्यवहार न्यायपालिका में ले जाने पर छेद, __ परधार्मिक दो प्रकार के होते हैं-लिंगप्रविष्ट और व्यवहार में यदि वह पश्चात्कृत-पराजित हो जाता है तो गृहस्थ। इन सबका स्तैन्य तीन-तीन प्रकार का होता है- मूल, चौराहे आदि पर 'यह शिष्य को चुराने वाला आहार विषयक, उपधि विषयक और सचित्त विषयक। है'-ऐसी उद्दहना (कलंक लगने) पर, हाथ पैर आदि काटे ५०८९.भिक्खूण संखडीए, विकरणरूवेण भुंजती लुद्धो।। जाने पर नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। राजा द्वारा आभोगण उद्धंसण, पवयणहीला दुरप्प ती॥ अपद्रावित अथवा देशनिष्काशन किए जाने पर अथवा कोई मुनि बौद्ध भिक्षुओं की संखडी में विकरणरूप-लिंग राजा एक साधु पर अथवा अनेक साधुओं पर प्रद्विष्ट हो विवेक कर भोजन करता है। यदि कोई उसे उपलक्षित कर जाए तो पारांचिक तथा उद्दहन और व्यंगन (हाथ, पैर आदि लेता है तो चतुर्लघु और यदि उसकी निर्भर्त्सना होती है तो काटने) करने पर-इन दोनों में अनवस्थाप्य तथा दोनों चतुर्गुरु। वे प्रवचन की हीलना करते हैं। वे कहते हैं ये दुष्ट अपद्रावण और देशनिष्काशन करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त लोग भोजन के लिए ही प्रव्रजित होते हैं। आता है। ५०९०.गिहवासे वि वरागा, धुवं खु एते अदिट्ठकल्लाणा। ५०९५.खुडू व खुड्डियं वा, णेति अवत्तं अपुच्छियं तेणे। गलतो णवरि ण वलितो, एएसिं सत्थुणा चेव॥ वत्तम्मि णत्थि पुच्छा, खेत्तं थामं च णाऊणं॥ गृहवास में भी ये गरीब ही थे। निश्चित ही इन्होंने अपना जो मुनि क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका जो अव्यक्त है, उसको कल्याण नहीं देखा है। इनके तीर्थंकरों ने इनके गलों को नहीं उसके संबंधी को पूछे बिना ले जाता है वह अन्यधार्मिक दबाया, और सब कुछ कर डाला। स्तेनकारी होता है। व्यक्त के लिए कोई पुच्छा नहीं है। उसके ५०९१.उवस्सए उवहि ठवेतुं, क्षेत्र और शक्ति को जानना चाहिए। गतम्मि भिच्छुम्मि गिण्हती लहुगा। ५०९६.एमेव होति तेण्णं, तिविहं गारत्थियाण जं वुत्तं। गेण्हण कड्डण ववहार गहणादिगा य दोसा, सविसेसतरा भवे तेसु॥ पच्छकडुड्डाह णिव्विसए॥ इसी प्रकार गृहस्थों से संबंधित भी तीन प्रकार कोई भिक्षुक अपने मठ में उपकरण रखकर भिक्षा का स्तैन्य होता है। गृहस्थों के आहार आदि का स्तैन्य के लिए गया। उसके जाने पर यदि उसकी उपधि चुरा करने पर ग्रहण आदि दोष होते हैं। उनसे ये दोष विशेषतर ली जाती है तो चतुर्लघु। वह भिक्षु यदि उस मुनि को होते हैं। ग्रहण करता है तो चतुर्गुरु। राजकुलाभिमुख उसे ५०९७.आहारे पिट्ठाती, तंतू खुड्डादि जं भणित पुव्वं । घसीटता है तो षड्गुरु, व्यवहार करता है तो छेद, पितॄडिय कब्बट्ठी, संछुभण पडिग्गहे कुसला। पश्चात्कृत करता है तो मूल और देश से निष्कासित आहार विषयक-क्षुल्लिका साध्वी पिष्ट आदि चुरा लेती कराता है, उड्डाह करता है तो अनवस्थाप्य-ये प्रायश्चित्त है। कोई मुनि तंतु-वस्त्र आदि चुरा लेता है। कोई क्षुल्लक या विहित हैं। अक्षुल्लक का अपहरण कर लेता है। यह पहले कहा जा ५०९२.सच्चित्ते खुड्डादी, चउरो गुरुगा य दोस आणादी। चुका है। एक क्षुल्लिका साध्वी गोचरी के लिए एक घर में गेण्हण कड्डण ववहार पच्छकडुड्डाह निव्विसए॥ गई। बाहर पिष्टपिंडिका रखी गई थी। उसने उनमें से एक सचित्त अर्थात् क्षुल्लक भिक्षु का अपहरण करने पर को अपने पात्र में रख दिया। गृहस्वामिनी ने देख लिया। चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष। तथा ग्रहण, आकर्षण, उसने कुशलता से उसको अन्य साध्वी को दे दिया। यह भी व्यवहार, पश्चात्कृत, उड्डाह, निर्विषयज्ञापना आदि दोष स्तैन्य है। पूर्ववत् जानने चाहिए। ५०९८.नीएहिं उ अविदिन्नं, अप्पत्तवयं पुमं न दिक्खिंति। ५०९३.गेण्हणे गुरुगा छम्मास कड्डणे छेओ होइ ववहारे। ___ अपरिग्गहो उ कप्पति, विजढो जो सेसदोसेहिं ।। पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण विरंगणे नवमं॥ माता-पिता आदि निज पुरुषों की आज्ञा के बिना, अदत्त ५०९४.उद्दावण निव्विसए, एगमणेगे पदोस पारंची। ___ अप्राप्तवय वाले पुरुष को दीक्षित नहीं करना चाहिए। अणवट्ठप्पो दोसु य, दोसु उ पारंचितो होइ॥ अपरिगृहीत अर्थात् अव्यक्त पुरुष यदि शेष दोषों से विप्रमुक्त यदि मुनि सच्चित्त स्तैन्य अर्थात् क्षुल्लक या अक्षुल्लक हो तो उसे प्रव्रजित किया जा सकता है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक = ५२७ ५०९९.अपरिग्गहा उ नारी, है। वह दो प्रकार का है-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक ण भवति तो सा ण कप्पति अदिण्णा। हस्ताताल में पुरुष वध के लिए उद्गीर्ण खड्ग आदि का सा वि य हु काय कप्पति, गुरुक दंड होता है- अस्सी हजार रुपयों का। प्रहार पड़ने जह पउमा खुड्डमाता वा॥ पर यदि पुरुष नहीं मरा तो दंड की भजना है। यदि मर गया नारी प्रायः अपरिगृहीत नहीं होती, स्वतंत्र नहीं होती, वह तो अस्सी हजार रुपयों का दंड है। यह लौकिकों का दंड है। पिता या पति से परिगृहीत होती है। उसे पिता या पति द्वारा लोकोत्तरिकों का दंड आगे कहूंगा। बिना दिए प्रव्रज्या देना नहीं कल्पता। कोई अदत्त नारी भी ५१०५.हत्थेण व पादेण व अणवठ्ठप्पो उ होति उग्गिण्णे। प्रव्राजनीय होती है, जैसे करकंडु की माता पद्मावती देवी।' पडियम्मि होति भयणा, उद्दवणे होति चरिमपदं। ५१००.बिइयपदं आहारे, अद्धाणे हंसमादिणो उवही। हाथ से या पैर से अथवा यष्टि-मुष्टि आदि से जो साधु उवउज्जिऊण पुव्विं होहिंति जुगप्पहाण ति॥ प्रहार करता है, वह अनवस्थाप्य होता है। प्रहार पड़ने पर भी आहार, उपधि और सचित्तविषयक अपवाद यह है। मार्ग यदि नहीं मरता है तो भजना है, अर्थात् वही अनवस्थाप्य है। में जाने के इच्छुक हों अथवा मार्ग-गमन से निवृत्त हुए हों तो मर जाने पर चरमपद अर्थात् पारांचिक होता है। अदत्त भक्तपान भी ले सकते हैं। आगाढ़ कारण में हंस आदि ५१०६.आयरिय विणयगाहण, कारणजाते व बोधिकादीसु। से संबंधित प्रयोग से उपधि का उत्पादन किया जा सकता करणं वा पडिमाए, तत्थ तु भेदो पसमणं च॥ है। पहले ही उपयुज्य-परिभावित कर कि 'यह युगप्रधान इसमें यह अपवादपद है-आचार्य शिष्य को सिखाते होगा' इस दृष्टि से गृहस्थ क्षुल्लकों को या अन्यतीर्थिक समय हस्ताताल भी देते हैं। कारण उत्पन्न होने पर बोधिक क्षुल्लकों का अपहरण किया जा सकता है। स्तेनों पर भी हस्ताताल का प्रयोग करते हैं। ५१०१.असिवं ओम विहं वा, पविसिउकामा ततो व उत्तिण्णा। हस्तालंब-अशिव आदि के प्रशमन के लिए प्रतिमा थलि लिंगि अन्नतित्थिग, जातितु अदिण्णे गिण्हंति॥ का पुत्तलक बनाकर अभिचारुकमंत्र का जाप करते हुए, उस क्षेत्र में अशिव हो, अवम दुर्भिक्ष हो, साधु वहां से वहीं प्रतिमा में भेद किया जाता है। उससे उपद्रव शांत हो चल पड़े हों और मार्गगत हों या मार्ग से उत्तीर्ण हो गए हों, जाता है। स्वलिंगियों की जो स्थलिका–देवद्रोणी हो, वहां भोजन की ५१०७.विणयस्स उ गाहणया, कण्णामोड-खडुगा-चवेडाहिं। याचना करते हैं, अन्यतीर्थिकों की स्थलिका में भी याचना सावेक्ख हत्थतालं, दलाति मम्माणि फेडिंतो।। करते हैं, यदि नहीं देते हैं तो जबरन ग्रहण कर लेते हैं। इसी विनय अर्थात् शिक्षा देने के लिए आचार्य शिष्य के कानों प्रकार तंतु की न्यूनता होने पर उपधि की भी चोरी की जा को मरोड़ते हैं--सिर पर ठोले मारते हैं, थप्पड़ भी मारते हैं। सकती है। आचार्य क्षुल्लक शिष्य के प्रति सापेक्ष होकर मर्मप्रदेशों का ५१०२.नाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुतोगे य।। परिहार करता हुआ हस्ताताल भी देता है। शिष्य पूछता गिहि अण्णतित्थियं वा, हरिज्ज एतेहिं हेतूहिं॥ है-यह पर-पीड़ाकारक क्रिया अनुमत कैसे है? पूर्वगत या कालिकानुयोग का व्यवच्छेद जानकर गृहस्थ ५१०८.कामं परपरितावो, असायहेतू जिणेहिं पण्णत्तो। या अन्यतीर्थिक के मेधावी क्षुल्लक का स्वयं अपहरण कर आत-परहितकरो पुण, इच्छिज्जइ दुस्सले स खलु॥ लेते हैं। आचार्य कहते हैं-हम यह मानते हैं कि परपरिताप ५१०३. हत्थाताले हत्थालंबे, अत्थादाणे य होति बोधव्वे। असाता का हेतु है-ऐसा जिनेश्वर देव ने कहा है। परंतु वह ___एतेसिं णाणतं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ परिताप दुःशल अर्थात् वाणी से न समझने वाले अविनीत हस्ताताल, हस्तालंब और अर्थादान ये तीनों पाठ यहां शिष्य के लिए आवश्यक है। यह आत्म-परहितकर होने के हो सकते हैं। मैं क्रमशः तीनों का नानात्व कहूंगा। कारण वांछनीय है। ५१०४.उग्गिण्णम्मि य गुरुगो, दंडो पडियम्मि होइ भयणा उ। ५१०९.सिप्पणेउणियट्ठा, घाते वि सहति लोइया गुरुणो। एवं खु लोइयाणं, लोउत्तरियाण वोच्छामि। ण य मधुरणिच्छया ते, ण होति एसेविहं उवमा॥ हस्त तथा अपने अंगों से आताडनं हस्ताताल कहा जाता शिल्प तथा नैपुण्य-लिपि, गणित आदि कला कौशल १. वृत्तिकार ने यहां क्षुल्लककुमार की माता यशोभद्रा को प्रव्रजित किए जाने का कथन किया है और आवश्यक की हारिभद्रीया वृत्ति पत्र ७०१ का प्रमाण भी दिया है। (वृ. पृ. १३५९) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ बृहत्कल्पभाष्यम् लौकिक गुरुओं से सीखते हैं और उनके घातों प्रहारों को भी ५११६.चंगोड णउलदायण, बितितेणं जत्तिए तहिं एक्को। सहन करते हैं। वे प्रहार दारुण होते हैं। उस समय मधुर अण्णम्मि हायणम्मि य, गिण्हामो किं ति पुच्छंति॥ निश्चय-सुन्दर परिणाम वाले नहीं होते। फिर भी शिष्य ५११७.तण-कट्ठ-नेह-धण्णे,गिण्हह कप्पास-दूस-गुलमादी। उनको सहन करता है। अंतो बहिं च ठवणा, अग्गी सउणी न य निमित्तं॥ ५११०.संविग्गो महविओ, अमुई अणुयत्तओ विसेसन्न। उज्जयिनी नगरी में एक अवसन्नाचार्य थे। वे नैमित्तिक उज्जुत्तमपरितंतो, इच्छियमत्थं लहइ साहू॥ थे। वहां दो व्यापारी उन आचार्यों को पूछकर व्यापार करते संविग्न, मार्दविक, अमोचि-गुरु को नहीं छोड़ने वाला, थे। वे आचार्य से पूछते-क्या यह भांड खरीदें या बेचें? गुरु का अनुवर्तक, विशेषज्ञ, उद्युक्त-स्वाध्यायशील, वैयावृत्य इस प्रकार वे धनी हो गए। एक बार आचार्य का भानेज आदि में अपरितान्त-ऐसा मुनि अपनी इष्ट वस्तु पा लेता है। आचार्य के पास आया। वह भोगाभिलाषी था। उसके पास ५१११.बोहिकतेणभयादिसु, गणस्स गणिणो व अच्चए पत्ते। धन नहीं था। उसने आचार्य से धन मांगा। आचार्य ने उसे इच्छंति हत्थतालं, कालातिचरं व सज्जं वा॥ दोनों वणिक् मित्रों के पास भेज दिया। उसने एक वणिक् ___ बोधिक स्तेन आदि का भय उत्पन्न होने पर अथवा गण मित्र से धन मांगा। उसने कहा-क्या शकुनिका रुपये देती और गणी का अत्यंत विनाश की स्थिति प्राप्त होने पर है? (क्या रुपये वृक्ष के लगते हैं)। तब वह दूसरे वणिक् कालातिक्रम से शीघ्र ही हस्तताल की इच्छा करते हैं। के पास गया और रुपयों की याचना की। उसने रुपयों की ५११२.असिवे पुरोवरोधे, एमादीवइससेसु अभिभूता। नौलियां दिखाई और कहा जितनी चाहिए उतनी ले लो। संजायपच्चया खलु, अण्णेसु य एवमादीसु॥ तब उसने उनमें से एक नौली ले ली। ५११३.मरणभएणऽभिभूते, ते णातुं देवतं वुवासंते। दूसरे वर्ष दोनों वणिकों ने आचार्य से पूछा इस वर्ष हम पडिमं काउं मज्झे, विधति मंते परिजवेंतो॥ कौन सा माल खरीदें? आचार्य ने पहले वणिक् से अशिव, पुरावरोध आदि तथा इसी प्रकार के 'वैशस' कहा-तुम इस बार कपास, वस्त्र, गुड़ आदि खरीदो और दुःखों से अभिभूत पौरजनों को यह विश्वास होता है कि उनको घर के भीतर रखो। दूसरे वणिक् से कहा-तुम इस अमुक आचार्य इन दुःखों का प्रशमन कर सकते हैं, बार तृण, काष्ठ, बांस आदि खरीदो और उनको नगर के यह सोचकर वे केवल इन दुःखों के लिए ही नहीं, ऐसे बाहर रखो। दोनों ने वैसा ही किया। उस वर्ष अनावृष्टि अन्यान्य दुःखों के प्रशमन के लिए वे एकत्रित होकर उन हुई। अग्नि का उत्पात हुआ। सारा नगर जल गया। जिस गुरुचरणों की शरण में जाते हैं। तब आचार्य मरणभय से वणिक् ने कपास, वस्त्र आदि का संग्रह किया था, वे सारे अभिभूत उन पौरजनों को, देवता की भांति स्वयं की जल गए और जिसने तृण, काष्ठ आदि खरीदे थे, वे (आचार्य की) पर्युपासना करने वाले जानकर, प्रतिमा सुरक्षित रह गए। जब शकुनीवादक ने आचार्य से इस करके अभिचारुक मंत्रों का जाप करते हुए उस प्रतिमा को विसंवादिता का कारण पूछा तो आचार्य ने कहा-शकुनी मध्य में वींधता है, तब कुलदेवी भाग जाती है, सारा निमित्त नहीं देती। उपद्रव शांत हो जाता है। इस प्रकार का हस्तालंबदायी ५११८.एयारिसो उ पुरिसो, अणवट्ठप्पो उ सो सदेसम्मि। आता है तो तत्काल ही उसको उपस्थापना नहीं देते किन्तु णेतूण अण्णदेसं, चिट्ठउवट्ठावणा तस्स॥ कुछ समय पर्यन्त गच्छ में ही रखकर उसकी परीक्षा की ऐसा पुरुष जो अर्थादानकारी होता है, वह स्वदेश में जाती है। अनवस्थाप्य-महाव्रतों में अनवस्थाप्य होता है, उसे महाव्रत ५११४.अणुकंपणा णिमित्ते, जायण पडिसेहणा सउणिमेव।। नहीं दिए जाते। उसे अन्य देश में ले जाकर वहां उसे दायण पुच्छा य तहा, सारण उब्भावण विणासे॥ उपस्थापना दी जा सकती है। अर्थादान, आचार्य की अनुकंपा, निमित्त के ज्ञाता आचार्य, ५११९.पुन्वन्भासा भासेज्ज किंचि गोरव सिणेह भयतो वा। याचना, प्रतिषेध, शकुनिका का दृष्टांत, रुपयों की नौली न सहइ परीसह पि य, णाणे कंडु व कच्छुल्लो। दिखाना, पूछना, सारणा, उद्भावना और विनाश। इस गाथा पूर्वाभ्यास के कारण उस नैमित्तिक को निमित्त पूछते हैं का विस्तार कथानक तथा निम्न गाथाओं में है। और वह ऋद्धि के गौरव से, स्नेह से या भय से लाभ-अलाभ ५११५.उज्जेणी ओसण्णं, दो वणिया पुच्छियं ववहरंति। का कथन करता है। वह ज्ञान परीषह को सहन नहीं कर भोगाभिलास भच्चय, मुंचंति न रूवए सउणी॥ सकता। जैसे खुजली के रोग से पीड़ित व्यक्ति खुजली किए Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ चौथा उद्देशक बिना रह नहीं सकता, वैसे ही नैमित्तिक भी निमित्त कहे बिना रह नहीं सकता। ५१२०.तइयस्स दोन्नि मोत्तुं, दव्वे भावे य सेस भयणा उ। पडिसिद्ध लिंगकरणं, कारणे अण्णत्थ तत्थेव।। तीन पदों-हस्ताताल, हस्तालंब और अर्थादान में से प्रथम दो को छोड़ कर शेष जो अर्थादान है, उसमें द्रव्यतः और भावतः लिंग देने की भजना है। निष्कारण अर्थादानकारी को लिंग देना निषिद्ध है। कारण में अन्यत्र अथवा वहीं लिंग देना अनुज्ञात है। ५१२१.हत्थातालो ततिओ, तस्स उ दो आइमे पदे मोत्तुं। अत्थायाणे लिंगं, न दिति तत्थेव विसयम्मि॥ हस्ताताल पद तीसरा है। उसके दो आद्य पदों को छोड़ कर अर्थात् अर्थादान वाला पद शेष रहता है। उसके रहते हुए उसी देश में लिंग नहीं देते। वह अर्थादानकारी गृहस्थ या अवसन्न लिंगी हो सकता है। ५१२२.गिहिलिंगस्स उ दोण्णि वि, ओसन्ने न दिति भावलिंगं तु। दिज्जति दो वि लिंगा, उवट्ठिए उत्तिमट्ठस्स॥ जो गृहिलिंगी है उसे दोनों-द्रव्यलिंग और भावलिंग उस देश में नहीं दिया जाता। जो अवसन्न है उसके द्रव्यलिंग तो है ही, उसे उस देश में भावलिंग नहीं दिया जाता। दोनों-गृहस्थ और अवसन्न, उत्तमार्थ स्वीकार करने के लिए उद्यत हों तो उन्हें दोनों लिंग उस देश में भी दिए जा सकते हैं। ५१२३.ओमा-ऽसिवमाईहि व, तप्पिस्सति तेण तस्स तत्थेव। न य असहाओ मुच्चइ, पुट्ठो य भणिज्ज वीसरियं॥ अथवा ये कारण हो सकते हैं अवम-दुर्भिक्ष, अशिव, राजद्वेष, अथवा यह गच्छ का उपग्रह करेगा-इन कारणों से उसी क्षेत्र में उसे लिंग दे देते हैं। उसको अकेला या असहाय नहीं छोड़ा जाता। लोगों के द्वारा निमित्त के विषय में पूछने पर वह कहता है-मैं निमित्त भूल गया हूं। ५१२४.साहम्मिय-ऽन्नधम्मियतेण्णेसु उ तत्थ होतिमा भयणा। लहुगो लहुगा गुरुगा, अणवट्ठप्पो व आएसा।। साधर्मिकस्तैन्य और अन्यधार्मिकस्तैन्य की प्रायश्चित्त भजना-रचना यह है-आहार का स्तैन्य लघुमास, उपधि का स्तैन्य चतुर्लघु, सचित्त का स्तैन्य चतुर्गुरु। आदेश (मतान्तर) के अनुसार अनवस्थाप्य। ५१२५.अहवा अणुवज्झाओ, एएसु पएसु पावती तिविह। तेसुं चेव पएसुं, गणि-आयरियाण नवमं तु॥ अथवा जो अनुपाध्याय है-उपाध्याय नहीं है, सामान्य साधु है, वह इन पदों (आहार, स्तैन्य आदि) में तिगुना प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। इन्हीं आहार आदि पदों में गणीउपाध्याय तथा आचार्य को नौवां प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य प्राप्त होता है। (शिष्य ने पूछा-सूत्र में सामान्यतः अनवस्थाप्य ही कहा है, फिर यह लघुमास आदि तीन प्रकार का प्रायश्चित्त कहां से आया? आचार्य ने कहा-आर्हतों का कथन कहीं भी एकान्तवाद युक्त नहीं होता।) ५१२६.तुल्लम्मि वि अवराहे, तुल्लमतुल्लं व दिज्जए दोण्ह। पारंचिके वि नवम, गणिस्स गुरुगो उ तं चेव॥ आचार्य और उपाध्याय-दोनों ने तुल्य अपराध का सेवन किया है, परंतु दोनों को तुल्य या अतुल्य प्रायश्चित्त दिया जाता है। पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य अपराध करने पर भी उपाध्याय को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त ही दिया जाता है पारांचिक नहीं और आचार्य को उसी अपराध पर पारांचिक दिया जाता है। ५१२७.अहवा अभिक्खसेवी, अणुवरमं पावई गणी नवम। पावंति मूलमेव उ, अभिक्खपडिसेविणो सेसा॥ अथवा जो गणी-उपाध्याय साधर्मिकस्तैन्य आदि का बार-बार प्रतिसेवना करता है, उससे उपरत नहीं होता, उसको नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है और शेष मुनि जो बार-बार प्रतिसेवना करते हैं, उन्हें मूल प्रायश्चित्त प्राप्त ५१२८.अत्थादाणो ततिओ, अणवट्ठो खेत्तओ समक्खाओ। गच्छे चेव वसंता, णिज्जूहिज्जंति सेसा उ॥ अर्थादान क्षेत्रतः तीसरा अनवस्थाप्य है। वह क्षेत्रतः समाख्यात है। उस व्यक्ति को उस क्षेत्र में उपस्थापना नहीं दी जाती। शेष हस्ताताल आदि मुनियों को गच्छ में रहते हुए को भी गच्छ से आलापना आदि पदों से बहिष्कृत कर दिया जाता है। ५१२९.संघयण-विरिय, आगम-सुत्तत्थविहीय जो समग्गो तु। तवसी निग्गहजुत्तो, पवयणसारे अभिगयत्थो। ५१३०.तिलतुसतिभागमेत्तो, वि जस्स असुभो न विज्जती भावो। निज्जूहणाए अरिहो, सेसे निज्जूहणा नत्थि॥ ५१३१.एयगुणसंपउत्तो, अणवठ्ठप्पो य होति नायव्वो। एयगुणविप्पमुक्के, तारिसयम्मी भवे मूलं ।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० =बृहत्कल्पभाष्यम् ५१३२.आसायणा जहण्णे, छम्मासुक्कोस बारस उ मासा। ५१३६.अणवटुं वहमाणो, वंदइ सो सेहमादिणो सव्वे। वासं बारस वासे, पडिसेवओ कारणे भइओ॥ संवासो से कप्पइ, सेसा उ पया न कप्पंति॥ ५१३३.इत्तिरियं निक्खेवं, काउं चऽन्नं गणं गमित्ताणं। जो अनवस्थाप्य को वहन कर रहा है, जो सभी शैक्ष दव्वाइ सुहे वियडण, निरुवस्सग्गट्ठ उस्सग्गो॥ मुनियों को वंदना करता है, उसके साथ संवास करना ५१३४.अप्पच्चय निब्भयया, आणाभंगो अजंतणा सगणे। कल्पता है। शेष पद नहीं कल्पते। वे ये हैं परगणे न होंति एए, आणाथिरया भयं चेव॥ ५१३७.आलावण पडिपुच्छण, परियट्ठट्ठाण वंदणग मत्ते। किस प्रकार के गुणों से युक्त मुनि को अनवस्थाप्य दिया पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव॥ जाता है? आलपन-परस्पर बातचीत करना, प्रतिप्रच्छन, संहनन-वज्रऋषभनाराच हो, वीर्य-धृति हो, आगम परिवर्तन, उत्थान-अभ्युत्थान, वंदनक, मात्रक का देना-लेना, अर्थात् नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु तक सूत्रतः और प्रत्युपेक्षण, संघाटक, भक्तदान-आहार-पानी देना-लेना, साथ अर्थतः परिचित हो, इन सबकी विधि से जो संपूर्णरूप से में आहार करना आदि। भावित हो, तपस्वी हो, निग्रहयुक्त हो, प्रवचन के सार में अर्थ के रहस्यों का ज्ञाता हो। पव्वज्जादि-अजोग्ग-पदं ___ जो गच्छ से निर्मूढ़ हो जाने पर भी तिलतुषमात्र का भी अशुभभाव मन में नहीं है, ऐसा मुनि नि!हण के तओ नो कप्पंति पव्वावेत्तए, तं योग्य होता है। इन गुणों से रहित व्यक्ति नि!हणा के योग्य जहा-पंडए वाइए कीवे॥ नहीं होते। (सूत्र ४) ___इन गुणों से युक्त व्यक्ति पारांचिक योग्य स्थान को प्राप्त करता है। इन गुणों से विप्रमुक्त व्यक्ति यदि पारांचिकापत्ति ५१३८.न ठविज्जई वएसुं, सज्जं एएण होति अणवट्ठो। प्राप्त करता है, फिर भी उसके मूल प्रायश्चित्त ही प्राप्त दुविहम्मि वि न ठविज्जइ, लिंगे अयमन्न जोगो उ॥ होता है। दोषों से उपरत व्यक्ति को तत्काल महाव्रतों में आरोपित आशातनापारांचिक जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः नहीं किया जाता, इसलिए उसे अनवस्थाप्य कहा जाता है। बारह मास तक गच्छ से नियूंढ़ रहता है। प्रतिसेवना- यह अनन्तर सूत्र में कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में अन्य पारांचिक जघन्यतः एक संवत्सर तक तथा उत्कृष्टतः बारह अर्थात् पंडक दोनों प्रकार के अर्थात् द्रव्य और भावलिंग में संवत्सर पर्यन्त संघ से नियूंढ रहता है। स्थापित नहीं किया जाता, यह प्रतिपाद्य है। यह योग है, जो पारांचिक स्वीकार करता है वह नियमतः आचार्य संबंध है। होता है। इसलिए इत्वर गणनिक्षेप आत्मतुल्य शिष्य में करके ५१३९.वीसं तु अपव्वज्जा, निज्जुत्तीए उ वन्निया पुब्।ि आचार्य अन्य गण में जाकर वहां प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, इह पुण तिहिं अधिकारो, पंडे कीवे य वाईया। भाव की आलोचना परगण के आचार्य के पास करे। दोनों बीस प्रकार के मनुष्य अप्रव्राज्य होते हैं, यह पहले आचार्य निरुपसर्ग के लिए कायोत्सर्ग करें। नियुक्ति में वर्णित किया गया है। प्रस्तुत में तीन का अधिकार अपने गण में पारांचिक स्वीकार करने पर अगीतार्थ है, अर्थात् पंडक, क्लीव और वातिक-ये तीन प्रव्राजनीय नहीं मुनियों का आचार्य के प्रति अविश्वास होता है। वे निर्भय हो होते क्योंकि ये गुरुतर दोष से दुष्ट होते हैं। जाते हैं। अपने गण में आज्ञाभंग और अयंत्रणा होती है। ५१४०.गीयत्थे पव्वावण, गीयत्थे अपुच्छिऊण चउगुरुगा। परगण में ये दोष नहीं होते। वहां भगवान् की आज्ञा-पालन में तम्हा गीयत्थस्स उ, कप्पइ पव्वावणा पुच्छा। स्थिरता आती है तथा आत्मा में भय भी रहता है। गीतार्थ मुनि ही प्रव्राजना देने का अधिकारी है। गीतार्थ ५१३५.सेहाई वंदंतो, पग्गहियमहातवो जिणो चेव। भी यदि बिना पूछे प्रव्रज्या देते हैं तो उन्हें चतुर्गुरुक का विहरइ बारस वासे, अणवठ्ठप्पो गणे चेव॥ प्रायश्चित्त आता है। इसलिए गीतार्थ को भी पृच्छापूर्वक शैक्ष मुनियों को भी वंदना करता हुआ, जिनकल्पी की। प्रव्राजना करना कल्पता है। भांति महान् तपस्या को स्वीकार कर विहरण करने वाला- ५१४१.सयमेव कोति साहति, मित्तेहिं व पुच्छिओ उवाएणं। अनवस्थाप्य मुनि बारह वर्ष तक गण में रहता है। अहवा वि लक्खणेहिं, इमेहिं नाउं परिहरेज्जा॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक दीक्षार्थी को पूछने पर वह स्वयं कह देता है कि वह तीसरे वेद में है। अथवा मित्रों से पूछकर उसके निर्वेद को जाना जा सकता है। अथवा उपाय से पूछने पर या लक्षणों से जान लिया जाता है कि यह कौन है। इन सब कारणों से उसको पंडक जानकर उसका परिहार करना चाहिए। ५१४२.नज्जंतमणज्जंते, निव्वेयमसड्ढे पढमयो पुच्छे। अन्नाओ पुण भन्नइ, पंडाइ न कप्पई अम्हं॥ प्रव्रज्या लेने वाला ज्ञात भी हो सकता है और अज्ञात भी। यदि ज्ञात हो तो उसको सबसे पहले निर्वेद का कारण पूछना चाहिए। जो अज्ञात हो उसको कहना चाहिए कि हम पंडक आदि को दीक्षा नहीं देते। ५१४३.नाओ मि त्ति पणासइ, निव्वेयं पुच्छिया व से मित्ता। साहंति एस पंडो, सयं व पंडो त्ति निव्वेयं॥ ___ 'मैं इनसे जान लिया गया हूं' यह सोचकर वह वहां से भाग जाता है। मित्रों को उसके निर्वेद के विषय में पूछने पर वे कहते हैं-यह पंडक है। अथवा 'मैं पंडक हूं' यह सोचकर वह स्वयं निर्वेद को-घृणा को प्राप्त होता है। ५१४४.महिलासहावो सर-वन्नभेओ, मेण्ढं महंतं मउता य वाया। ससद्दगं मुत्तमफेणगं च, एयाणि छ प्पंडगलक्खणाणि॥ पंडक की पहचान के छह लक्षण हैं१. वह महिला स्वभाव वाला होता है। २-३. उसमें स्वरभेद और वर्णभेद होता है। ४. उसका शिश्न-जननेन्द्रिय लंबी होती है। ५. उसकी वाणी कोमल होती है। ६. उसका मूत्र सशब्द और फेन सहित होता है। ५१४५.गती भवे पच्चवलोइयं च, मिदुत्तया सीयलगत्तया य। धुवं भवे दोक्खरनामधेज्जो, सकारपच्चंतरिओ ढकारो॥ उसकी गति स्त्री की भांति मंद होती है। वह बार-बार मुड़ कर तथा दोनों ओर देखता हुआ चलता है। उसके शरीर की त्वचा मृदु होती है, अंगोपांग शीतलस्पर्श वाले होते हैं-- इस प्रकार के लक्षण वाला व्यक्ति निश्चित ही दो अक्षर के नामवाला अर्थात् 'पंढ' होता है। ५१४६.गइ भास वत्थ हत्थे, कडि पट्टि भुमा य केसऽलंकारे। पच्छन्न मज्जणाणि य, पच्छन्नयरं च णीहारो॥ ५१४७.पुरिसेसु भीरु महिलासु संकरो पमयकम्मकरणो य। तिविहम्मि वि वेदम्मि, तियभंगो होइ कायव्वो॥ उसकी गति स्त्री की तरह मंद होती है। वह स्त्री की भांति भाषा बोलता है, वस्त्र पहनता है, हाथों को कूर्पर के नीचे या कपोलों पर रखकर बोलता है, बार-बार कमर को हिलाता है, पीठ को वस्त्र से ढंक कर चलता है, बोलते समय दोनों भोहों को नचाता है, स्त्रियों की भांति केशों की रचना करता है, अलंकार पहनता है। गुप्त स्थान में स्नान आदि करता है, प्रच्छन्नतर प्रदेश में उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन करता है। वह पुरुषों के मध्य भीरु, महिलाओं में मीलन स्वभाव वाला, प्रमदाओं-महिलाओं की सारी क्रियाएं करने वाला होता है। तीनों प्रकार के वेदों के प्रत्येक के तीनतीन भंग करने होते हैं जैसे पुरुष पुरुषवेद का वेदन करता है, पुरुष स्त्रीवेद का वेदन करता है, पुरुष नपुंसक वेद का वेदन करता है। इसी प्रकार स्त्री-नपुंसक वेदों के विषय में भी कर्त्तव्य है। ५१४८.उस्सग्गलक्खणं खलु, फुफग तह वणदवे णगरदाहे। अववादतो उ भइओ, एक्केको दोसु ठाणेसु॥ तीनों वेदों का यह उत्सर्ग (सामान्य) लक्षण है-जैसे स्त्रीवेद फुम्फुकाग्नि समान होता है। पुरुषवेद वन की दवाग्नि के समान होता है और नपुंसकवेद नगरदाह के समान होता है। अपवाद से तीनों वेद परस्पर विकल्पित हैं अर्थात् प्रत्येक वेद अपने-अपने स्थान को छोड़कर शेष दो वेदों के स्थान में भी वर्तन करता है। जैसे कोई स्त्री स्त्रीवेद के समान अथवा पुरुषवेद के समान अथवा नपुंसकवेद के समान होती है। इसी प्रकार अन्यवेद भी। ५१४९.दुविहो उ पंडओ खलु, दूसी-उवघायपंडओ चेव। उवघाए वि य दुविहो, वेए य तहेव उवकरणे॥ पंडक के दो प्रकार हैं-दूषितपंडक और उपघातपंडक। उपघातपंडक भी दो प्रकार का होता है-वेदोपघातपंडक और उपकरणोपघातपंडक। ५१५०.दूसियवेओ दूसिय, दोसु व वेएसु सज्जए दूसी। दूसेति सेसए वा, दोहि व सेविज्जए दूसी। जिसका वेद दूषित है उसे दूषितवेद या दूषित कहा जाता है। जो दो वेदों अर्थात् नपुंसक-पुरुषवेद के साथ अथवा नपुंसक-स्त्रीवेद के साथ प्रसंग करता है वह दूषी कहलाता है। अथवा जो शेष वेदों-स्त्री-पुरुष वेदों की निन्दा करता है, वह दूषी है। जो आस्यक तथा पोसक इन दोनों द्वारा सेवित होता है या स्वयं सेवन करता है, वह दूषी कहलाता है। ५१५१.आसित्तो ऊसित्तो, दुविहो दूसी उ होइ नायव्यो। आसित्तो सावच्चो, अणवच्चो होइ ऊसित्तो। दूषी दो प्रकार से ज्ञातव्य है-आसिक्त और उपसिक्त। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ =बृहत्कल्पभाष्यम् आसिक्त अर्थात् सापत्य-जिसके बच्चा पैदा होता है। उपसिक्त वह होता है जो सन्तान के उत्पादन में असमर्थ होता है। ५१५२.पुट्विं दुच्चिण्णाणं, कम्माणं असुभफलविवागणं। तो उवहम्मइ वेओ, जीवाणं पावकम्माणं॥ पहले किए हुए दुश्चीर्ण कर्मों के अशुभफलविपाक से जीवों के पापकर्मों के कारण वेद का उपहनन हो जाता है। ५१५३.जह हेमो उ कुमारो, इंदमहे भूणियानिमित्तेणं। मुच्छिय गिद्धो य मओ, वेओ वि य उवहओ तस्स॥ जैसे हेमनामक कुमार इन्द्रमह में गया। वहां उसने अनेक रूपवती बालिकाओं को देखा। उनके निमित्त से वह मूर्च्छित हो गया और अत्यन्त आसक्ति के कारण वह मर गया। उसका वेद भी उपहत हो गया। ५१५४.उवहय उवकरणम्मि, सेज्जायरभूणियानिमित्तेणं। तो कविलगस्स वेओ, ततिओ जाओ दुरहियासो॥ शय्यातर की लड़की के निमित्त से कपिल का उपकरण अर्थात् अंगादान-लिंग छिन्न हो गया। उसके कारण उसके दुःसह्य तीसरे वेद (नपुंसक वेद) का उदय हो गया।२ (उपहत उपकरण वाला यह व्यक्ति पुं-नपुंसकवेद के उदय से आस्यपोषक प्रतिसेवी होता है। वह वेदोदय का निरोध नहीं कर सकता।) ५१५५.जह पढमपाउसम्मि, गोणो धाओ तु हरियगतणस्स। अणुसज्जति कोहिबिं, वावण्णं दुब्भिगंधीयं॥ ५१५६.एवं तु केइ पुरिसा, भोत्तूण वि भोयणं पतिविसिटुं। ताव ण होति उ तुट्ठा, जाव न पडिसेविओ भावो॥ प्रथम प्रावृड् में बलीवर्द (सांड) हरित घास खाकर दृप्त हो जाता है, और दुरभिगंधवाली मरियल गाय से समागम करता है। इसी प्रकार कुछेक पुरुष प्रतिविशिष्ट भोजन करके भी संतुष्ट नहीं होते जब तक कि वे आस्य-पोषक भाव का प्रतिसेवन नहीं करते। ५१५७.गहणं तु संजयस्सा, आयरियाणं व खिप्पमालोए। बहिया व णिग्गयाणं, चरित्तसंभेयणी विकहा॥ वह पंडक प्रवजित हो जाने पर प्रतिसेवना के अभिप्राय से संयत का ग्रहण करता है। उस संयत को चाहिए कि वह शीघ्र ही आचार्य को यह बात कहे। यदि नहीं कहता है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अथवा वह पंडक उपाश्रय में एकान्त न पाकर बाहर विचारभूमी में गए हुए संयतों में चारित्रसंभेदिनी विकथा करता है। १.२. कथानक के लिए देखें-कथा परिशिष्ट, नं. ११७-११८ । ५१५८.छंदिय गहिय गुरूणं, जो न कहे जो व सिट्ठवेहेज्जा। परपक्ख सपक्खे वा, जं काहिति सो तमावज्जे॥ पंडक मुनि ने एक साधु को कहा-'तुम मेरी प्रतिसेवना करो, मैं तुम्हारी प्रतिसेवना करूंगा'-यह निमंत्रण उस साधु को दिया। इस प्रकार जिसको निमंत्रित किया और जिस साधु को उसने ग्रहण किया-ये दोनों गुरु को यह बात नहीं कहते अथवा कहने पर भी गुरु उपेक्षा करते हैं तो सभी को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। वह पंडक स्वपक्ष या परपक्ष में प्रतिसेवना करता हुआ जो उड्डाह को प्राप्त होता है उसके भागी सभी होते हैं। ५१५९.इत्थिकहाउ कहित्ता, तासि अवन्नं पुणो पगासेति। समलं सावि अगंधिं, खेतो य ण एयरे ताई। वह पंडक स्त्रीकथा करते हुए कहता है-स्त्रियों का परिभोग सुखदायी होता है। और फिर उनका अवर्णवाद बोलता है। वह कहता है-स्त्रियां मलों का स्राव करती हैं, उनकी योनी दुर्गन्धयुक्त होती है, उनका परिभोग करने वाले पुरुष को खेद होता है। हमारे साथ प्रतिसेवना करने से ये दूषण नहीं होते। ५१६०.सागारियं निरिक्खति, तं च मलेऊण जिंघई हत्थं । पुच्छति सेविमसेवी, अतिव सुहं अहं चिय दुहा वि॥ . वह पंडक स्वयं का और दूसरे के सागारिक-लिंग को देखता है। वह सागारिक को अपने हाथों से मसलकर हाथों को सूंघता है। वह साधु को पूछता है तुमने पहले कभी नपुंसक के साथ प्रतिसेवना की या नहीं? उसकी प्रतिसेवना में अत्यंत सुख मिलता है। मैं नपुंसक हूं। दोनों-आस्यक और पोसक से मैं प्रतिसेवनीय हूं। ५१६१.सो समणसुविहितेसुं, पवियारं कत्थई अलभमाणो। तो सेविउमारद्धो, गिहिणो तइ अन्नतित्थी य॥ वह पंडक सुविहित श्रमणों में प्रविचार-मैथुन की भावना कहीं भी प्राप्त न कर सकने के कारण गृहस्थों और अन्यतीर्थिकों के साथ प्रतिसेवना करने लगता है। ५१६२.अयसो य अकित्तीया, तम्मूलागं तहिं पवयणस्स। तेसिं पि होइ संका, सव्वे एयारिसा मन्ने।। उससे प्रवचन का अयश और अकीर्ति होने लगी। जो नर्तक आदि थे उनके मन में भी यह शंका उत्पन्न हो गई कि ये सारे श्रमण भी ऐसे ही हैं, अर्थात् नपुंसक ही हैं। ५१६३.एरिससेवी सव्वे, वि एरिसा एरिसो व पासंडो। सो एसो न वि अन्नो, असंखडं घोडमाईहिं॥ ये नपुंसक के साथ प्रतिसेवना करने वाले हैं। ये सभी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक नपुंसक हैं। ऐसा ही इनका पाखंड है। गोचराग्र में गए हुए उन साधुओं को देखकर उपहास करते हुए लोग कहते हैं - अरे ! यह वही है। दूसरा कहता है नहीं, यह वह नहीं है, दूसरा है। यह उपहास सुनकर घोट-बटुकों आदि के साथ कलह हो सकता है। ५१६४. कीवस्स गोन्न नाम, कम्मुदय निरोहे जायती ततिओ तमिव सो चेव गमो, पच्छित्तुस्सग्ग अववादे ॥ 'क्लीब' यह गौण नाम है, गुणनिष्यन्न नाम है। 'क्लीब्यते इति क्लीबः - मैथुन के अभिप्रायमात्र से जिसका अंगादान विकारग्रस्त हो जाता है और वीर्य के बिन्दु जिससे परिगलित होते रहते हैं वह है क्लीब। यह महामोह के कर्मोदय से होता है अथवा परिगलित होने वाले वीर्य का निरोध करने से यह तीसरा वेद होता है। क्लीब के चार प्रकार है-दृष्टिक्लीब, शब्दकलीब, आदिग्धक्लीब तथा निमंत्रणाक्ली । विपक्ष आदि को विवस्त्र देखकर स्खलित होने वाला दृष्टिक्लब, मैथुन के शब्द को सुनकर स्खलित होने वाला शब्दकलीब, विपक्ष द्वारा उपगूढ़ होने पर स्खलित होनेवाला आदिग्धक्लीब और विपक्ष द्वारा निमंत्रित होने पर स्खलित होने वाला निमंत्रणाक्लीब होता है। इन चारों के विषय में पंडक की भांति ही गम है। इनके वही प्रायश्चित्त तथा अपवाद होते हैं। ५१६५. उदएण वादियस्सा सविकारं जा ण तस्स संपत्ती । तच्चनि असंवुडीए, दिट्टंतो टोड अलभते ॥ मोहोदय से जिसका सागारिक विकारयुक्त हो जाता है तब वह वेद को धारण नहीं कर सकता, जब तक कि प्रतिसेवमान की संप्राप्ति नहीं हो जाती। वह वातिक नपुंसक होता है। एक बौद्ध उपासक नाव में आरूढ़ हुआ । उसके सामने वाले आसन पर एक असंवृत स्त्री आकर बैठ गई। तब उस बौद्ध उपासक का सागारिक स्तब्ध हो गया। वह वेद की उत्कटता से उस स्त्री को पकड़कर जनता के सामने प्रतिसेवना करने लगा। लोग उसे पीटने लगे, १. (१ - ३) पंडक, वातिक और क्लीब की व्याख्या पहले दी जा चुकी है। (४) कुंभी- इसके दो प्रकार हैं (क) जातिकुंभी-जिसकी इन्द्रिय बहुत लंबी होती है। - (ख) वेदकुंभी-उत्कटमोह के कारण प्रतिसेवना के अभाव में जिसका लिंग और वृषण सूज जाते हैं। (५) ईर्ष्यालु प्रतिसेवना को देखकर प्रतिसेवना की इच्छा होना। (६) तत्कर्मसेवी - बीजनिसर्ग हो जाने पर श्वान की भांति लिंग को जीभ से चाटना । (७) शकुनी - वेदोत्कटता से गृहचटक की भांति बार-बार प्रतिसेवना करने वाला । ५३३ फिर भी उसने स्त्री को नहीं छोड़ा। जब बीज का निसर्ग हो गया, तब उसने उसे छोड़ा । प्रतिसेवना के लिए कोई अप्राप्त होने पर निरुद्धवेद वाले नपुंसक के ऐसा होता है। ५१६६. पंडए बाइए कीवे, कुंभी ईसालुए ति य । सउणी तक्कम्मसेवी य, पक्खियापक्खिते ति य ।। ५१६७. सोगंधिए य आसित्ते, वद्धिए चिप्पिए ति य मंतोसहिओवहते, इसिसत्ते देवसत्ते य ॥ नपुंसक के भेद ९. सौगन्धिक १०. आसक्त ११. बर्द्धित १. पंडक २. वातिक ३. क्लीब ४. कुंभी ५. ईर्ष्याल ६. तत्कर्मसेवी ७. शकुनी १५. ऋषिराम ८. पाक्षिक- अपाक्षिक १६. देवशप्स | १२. चिप्पित १३. मंत्रोपहत १४. औषधि-उपहृत इनमें प्रथम दस अप्रव्राजनीय हैं। शेष छह यदि अप्रतिसेवी हों तो प्रवाजनीय हैं।" ५१६८. बससु वि मूलाऽऽयरिए, वयमाणस्स वि हवंति चउगुरुगा । सेसाणं छण्हं पी, आयरिए वदंति चउगुरुगा ॥ जो आचार्य पंडक से आसक्त तक के १० नपुंसकों को प्रव्रज्या देता है उसे प्रत्येक का प्रायश्चित्त आता है मूल जो इन बसों को प्रबजित करने के लिए कहता है उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है । वर्द्धित आदि शेष छह को प्रव्रजित करने वाले आचार्य तथा प्रव्रज्या के लिए कहने वाले को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। ५१६९. थी - पुरिसा जह उदयं, धरेंति झाणोववास - णियमेहिं । एवमपुमं पि उदयं धरिज्ज जति को तहिं दोसो ॥ (८) पाक्षिक-अपाक्षिक-शुक्ल या कृष्ण किसी एक पक्ष में वेद की उत्कटता और दूसरे पक्ष में मन्द । (९) सौगंधिक- सागारिक की सुगंध को शुभ मानने वाला, सागारिक को सूंघने वाला तथा सागारिक को हाथों से मसल कर सूंघने वाला । (१०) आसक्त स्त्री के शरीर से आसक्त । (११) वर्द्धित - जिसके बचपन से ही वृषण काट दिए गए हों। (१२) चिप्पित - जन्मते ही वृषाणों को मसल कर चपटा कर देना । (१३-१६) मंत्र, औषधि, ऋषि और देवता द्वारा शापग्रस्त होने पर पुरुषत्व विलीन हो जाता है। . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ५१७०.अहवा ततिए दोसो, जायइ इयरेसु किं न सो भवति। गुरु के अथवा स्वयं के ज्ञान आदि ग्रहण करने में संलग्न होने एवं खु नत्थि दिक्खा , सवेययाणं न वा तित्थं। पर यह अन्यान्य कार्यों को संपादित कर सकेगा, चारित्र की शिष्य ने पूछा-जो स्त्री-पुरुष ध्यान-उपवास आदि परिपालना के लिए देशापक्रमण करने पर तथा दुर्भिक्ष और नियमों में उपयुक्त रहते हुए वेद के उदय को धारण करते हैं। अशिव में यह सहायता करेगा-इस बुद्धि से उसे प्रव्रजित वैसे ही अपुमान् अर्थात् नपुंसक यदि वेदोदय को धारण करता है। करता है तो उसको प्रवजित करने में क्या दोष है? ५१७५.एएहिं कारणेहिं, आगाढेहिं तु जो उ पव्वावे। यदि तीसरे अर्थात् नपुंसक के वेदोदय से दोष होता है तो पंडाईसोलसगं, कए उ कज्जे विगिंचणया। इतर अर्थात् स्त्री-पुरुषों के वेदोदय से दोष क्यों नहीं होगा? इन आगाद कारणों के उपस्थित होने पर जो आपके कथनानुसार किसी भी संसारी जीव की दीक्षा नहीं हो आचार्य पंडक आदि सोलह प्रकार के नपुंसकों को सकती, क्योंकि सभी संसारी जीव सवेदक हैं। दीक्षा के प्रव्रजित करता है, उसे चाहिए कि कार्य के संपन्न हो जाने पर अभाव में तीर्थ की परंपरा नहीं चलती। उन नपुंसक मुनियों का विवेचन कर दे, उनको संघ से ५१७१.थी-पुरिसा पत्तेयं, वसंति दोसरहितेस ठाणेसु। निकाल दे। संवास फास दिट्ठी, इयरे वत्थंबदितॄतो॥ ५१७६.दुविहो जाणमजाणी, अजाणगं पन्नवेति उ इमेहिं। आचार्य ने कहा-महिलाएं प्रवजित होकर स्त्रियों अर्थात् जणपच्चयट्ठयाए, नज्जंतमणज्जमाणे वि॥ साध्वियों के मध्य रहती हैं और पुरुष प्रव्रजित होकर नपुंसक के दो प्रकार हैं-ज्ञायक और अज्ञायक। जो यह पुरुषों-साधुओं के मध्य रहते हैं। वे दोनों दोषरहित स्थान में जानता है कि साधुओं को नपुंसक व्यक्तियों को प्रव्रज्या देना रहते हैं। इतर अर्थात् पंडक यदि साध्वियों के मध्य रहता है । नहीं कल्पता, वह है ज्ञायक और जो यह नहीं जानता, वह है तो संवास से स्पर्श और दृष्टि से दोष होते हैं और मुनियों के अज्ञायक। दीक्षा के लिए उपस्थित दोनों प्रकार के नपुंसकों साथ रहता है तो वे ही दोष होते हैं। यहां बछड़ा और आम्र को आचार्य प्रज्ञापना देते हैं-तुम दीक्षा के लिए अयोग्य हो, का दृष्टांत है। अतः श्रावकधर्म का पालन करो आदि। ऐसा न चाहने पर(बछड़ा मां को देखकर चूंघना चाहता है और मां गाय ज्ञायक और अज्ञायक-दोनों को जनता के विश्वास के लिए अपने बच्चे को देखकर प्रस्नविता होती है। किसी को आम । आचार्य कटिपट्टक की प्रज्ञापना करते हैं, धारण करने के खाते हुए देखकर मुंह में पानी आ जाता है वैसे ही नपुंसक के लिए कहते हैं। संस्तव से वेदोदय से मैथुन इच्छा उत्पन्न होती है।) ५१७७.कडिपट्टए य छिहली, कत्तरिया भंड लोय पाढे य। ५१७२.असिवे आमोयरिए, रायडुढे भए व आगाढे। धम्मकह सन्नि राउल, ववहार विगिंचणा विहिणा।। गेलन्न उत्तिमढे, नाणे तह दंसण चरित्ते॥ कटिपट्टक धारण करो, चोटी धारण करो या कैंची या इन कारणों से पंडक को प्रव्रज्या दी जा सकती है- क्षुर से मुंडन करो या लोच कराओ। उसे परतीर्थिकों के अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट हो जाने पर, भय, आगाढ़- सिद्धांतों को पढ़ाना चाहिए। कार्य हो जाने पर धर्मकथा ग्लानत्व, उत्तमार्थ अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र में सहायक करनी चाहिए, जिससे वह लिंग को छोड़ दे। यदि वह लिंग होगा। (व्याख्या आगे) छोड़ना न चाहे तो श्रावकों से कहे, राजकुल में जाकर ५१७३.रायडुट्ठ-भएसुं, ताणट्ठ निवस्स चेव गमणट्ठा। व्यवहार न्याय के लिए कहे। इस प्रकार विधिपूर्वक उसकी विज्जो व सयं तस्स व, तप्पिस्सति वा गिलाणस्स॥ विगिंचणा करे-संघ से बहिष्कृति कर दे। ५१७४.गुरुणो व अप्पणो वा, नाणादी गिण्हमाण तप्पिहिति। ५१७८.कडिपट्टओ अभिनवे, चरणे देसावक्कमि, तप्पे ओमा-ऽसिवेहिं वा॥ कीरइ छिहली य अम्हऽवेवाऽऽसी। राजा के द्वेषी हो जाने पर, बोधिक स्तेनों का भय उत्पन्न कत्तरिया भंडं वा, होने पर, इनसे त्राण के लिए, राजा आदि के पास गमन करने अणिच्छे एक्केक्कपरिहाणी॥ के लिए, ग्लानत्व हो जाने पर, पंडक स्वयं वैद्य होने पर कटिपट्टक अभिनव दीक्षित के लिए है। शिर पर चोटी चिकित्सा कर देगा अथवा वैद्य तथा औषधि का प्रतितर्पण धारण करे। वह पूछे कि पूरा मुंडन क्यों नहीं करते? उसे कर उपकार कर सकेगा अथवा मेरे अनशन में सहायक हो कहे-हमारे भी पहले ऐसा ही किया था। मुंडन कर्तरी से या सकेगा, यह सोचकर पंडक को प्रव्रज्या दी जा सकती है। क्षुर से किया जाए। यदि वे ऐसा मुंडन करवाना न चाहे तो १७ मा, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक लुंचन करे। एक-एक की परिहानि करते जाएं। शिखा तो सर्वत्र रखें। ५१७९. छिहलिं तु अणिच्छंते, भिक्खुगमादीमतं पऽणिच्छंते । परउत्थियवत्तव्वं, उक्कमदाणं ससमए वि ॥ यदि वे शिखा रखना न चाहे तो सर्वमुंडन कर दें । आसेवनशिक्षा में क्रियाकलाप न सिखाये। ग्रहणशिक्षा में भिक्षुक-बौद्ध मत तथा कपिल आदि के मतों का अध्यापन कराए। यदि वह भी पढ़ना न चाहे तो श्रृंगार काव्य का अध्ययन कराए। यदि वह भी पढ़ना न चाहे तो द्वादशांग में जो परतीर्थिकवक्तव्यतानिबद्ध जो सूत्र हैं उनको पढ़ाए, उनको भी पढ़ाना न चाहे तो स्वसमय की वक्तव्यता को उत्क्रम से पढ़ाए। ५१८०. वीयार - गोयरे थेरसंजुओ रत्ति दूरे तरुणाणं । गाह ममं पि ततो, थेरा गाहेंति जत्तेणं ॥ विचारभूमी या गोचरभूमी में स्थविर मुनि के साथ भेजे । रात्री में तरुण साधुओं से दूर रखें। साधु यदि उसको न पढ़ाएं तो वह कहे- मुझे भी पाठ दें तब स्थविर मुनि उसे प्रयत्नपूर्वक पाठ की वाचना दे। ५१८१. वेरग्गकहा विसयाण जिंदणा उट्ठ- निसियणे गुत्ता । चुक्क - खलिएसु बहुसो, सरोसमिव चोदए तरुणा ॥ जो सूत्र वैराग्यकथाओं में तथा विषय की निन्दा में निबद्ध हों उनको ग्रहण करवाए। उनके सामने उठते हुए या बैठते हुए मुनि पूर्ण गुप्त होकर बैठे। वे यदि समाचारी को विस्मृत कर देते हैं या उसमें स्खलित हो जाते हैं तो तरुण मुनि रोष प्रगट करते हुए उनको अनेक बार टोकते हैं, जिससे कि वे उनमें अनुरक्त न हों। ५१८२. धम्मकहा पाढिज्जति, कयकज्जा वा से धम्ममक्खति । मा हण परं पि लोगं, अणुव्वता दिक्ख नो तुज्झं ॥ उनको धर्मकथा पढ़ाई जाती है। जिस प्रयोजन से वे दीक्षित हुए हैं, उसकी उन्हें स्मृति दिलाते हुए, उस धर्म को उजागर करते हुए कहते हैं- तुम रजोहरण आदि लिंग को धारण करते हुए परभव में बोधि के उपघात करने के लिए तुम प्रयत्न कर रहे हो, इसलिए तुम परलोक का विनाश मत करो। तुम लिंग को छोड़ो और अणुव्रतों को धारण करो । तुम्हारे लिए दीक्षा उपयुक्त नहीं है। ५१८३. सन्नि खरकम्मिओ वा, भेसेति कतो इधेस कंचिक्को । निवसिट्ठे वा दिक्खितो, एतेहिं अणाते पडिसेहो ॥ ५१८४. अज्झाविओ मि एतेहिं चेव पडिसेधो किं वऽधीयं ते ॥ छलियातिकहं कड्डति, कत्थ जती कत्थ छलियाई ॥ जो खरकर्मी - आरक्षक या श्रावक हो, उसे कहे कि ५३५ हमने इस नपुंसक को प्रयोजनवश प्रव्रजित किया था। अब यह लिंग को छोड़ना नहीं चाहता। तुम इसको समझाओ। तब वह आरक्षिक उन साधुओं के मध्य उसे पहचान कर, उसे डराते हुए कहता है - यहां से चले जाओ, अन्यथा मैं मार डालूंगा। तब वह राजा के पास जाकर कहता है-' इन्होंने मुझे दीक्षा दी है। अब मुझे छोड़ रहे हैं।' साधु कहे- 'यह जनता के द्वारा अज्ञात रहकर दीक्षित हुआ है, हमने इसको दीक्षा नहीं दी।' तब वह कहता है'इन्होंने मुझे पढ़ाया है।' तब उसका प्रतिषेध करते हुए कहे- 'हमने क्या पढ़ाया ? तुमने क्या पढ़ा?' तब वह छलित कथा आदि की बात कहे-कहां तो संयमी मुनि और कहां छलितादिकथा ! न हम श्रृंगारकथा पढ़ते हैं और न पढ़ाते हैं। वेरग्गकरं ५१८५. पुव्वावरसंजुत्तं, सतंतमविरुद्धं । पोराणमद्धमागहभासानियतं Cat सुत्तं ॥ हम पूर्वापर संयुक्त सूत्र की वाचना देते हैं, वैराग्यकारक, अपने सिद्धांत से अविरुद्ध, पौराण - पूर्व पुरुषों तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत, अर्धमागधी भाषा से नियत जो सूत्र हैं, उन्हें पढ़ाते हैं। ५१८६. जे सुत्तगुणा भणिया, तव्विवरीयाइं गाहए पुव्विं । नित्थिन्नकारणाणं, स च्चेव विगिंचणे जयणा ॥ जो सूत्रगुण कथित हैं, उनसे विपरीत सूत्रों को उन्हें पहले पढ़ाया जाता है, अतः प्रयोजन की समाप्ति पर वे ही सूत्र उनके विवेचन- निष्काशन में यतना होती है, कामयाब होते हैं। जिसका व्यवहार से परित्याग नहीं किया जा सकता है, उसके लिए यह विधि है ५१८७. कावालिए सरक्खे, तच्चण्णिय वसभ लिंगरूवेणं । वडुंबगपव्वइए, कायव्व विहीए वोसिरणं ॥ जो लिंगरूप से कापालिक, सरजस्क तथा बौद्ध है उसका वृषभ - गीतार्थ मुनि परित्याग कर देते हैं। यदि वह वडुम्बक - बहुत स्वजनवाला प्रव्राजित है तो उसका निष्काशन विधि से करना चाहिए। ५१८८. निववल्लह बहुपक्खम्मि वा वि भिन्नकहा ओभट्ठा, न घडइ इह वच्च परतित्थिं ॥ जो राजवल्लभ हो, बहुपाक्षिक हो तो उसके निष्काशन की यह विधि है - जब वह नपुंसक तरुण भिक्षु को प्रतिसेवना के लिए कहता है, भिन्नकथा करता है तब वह तरुण वृषभ यह कहता है - यहां मुनियों के बीच ऐसा करना उचित नहीं तरुणविसहामिणं बिंति । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ है। यदि तुम ऐसा करना चाहते हो तो परतीर्थिकों में चले जाओ। ५१८९. तुमए समगं आमं, ति निग्गओ भिक्खमाइलक्खेणं । नासति भिक्खुगमादिसु, छोढूण ततो वि हि पलाति ॥ तब यदि वह कहे- मैं परतीर्थिकों के पास तुम्हारे साथ ही जाऊंगा। वह मुनि उसको लेकर जाता है। भिक्षुक आदि के वेष में जाकर उसे वहां छोड़कर भाग जाता है। यदि वहां भी उसे छोड़ना नहीं चाहता तो रात्री में उसे सोते हुए छोड़कर चला जाता है या भिक्षा आदि के लक्ष्य से बाहर चला जाता है। तओ नो कप्पंति मुंडावेत्त सिक्खावेत्तए उवट्ठावेत्तए संभुंजित्त संवासित्तए, तं जहा - पंडए वाइए कीवे ॥ (सूत्र ५) ५१९०. पव्वाविओ सिय त्ति उ, सेसं पणगं अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपदऽणिवारिता दोसा ।। अज्ञात अवस्था में पंडक को प्रव्रजित कर दिया, ज्ञात होने पर मुंडन आदि शेष पंचक' के आचरण के लिए वह अयोग्य होता है। फिर भी यदि उनका समाचरण करता है तो पूर्व के प्रवाजना पद के विषय में जो दोष कहे गए हैं वे अनिवारित होते हैं। ५१९९. मुंडाविओ सिय त्ती, सेसचउक्कं अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपदऽनिवारिया दोसा ॥ यदि वह अज्ञात अवस्था में मुंडित कर लिए जाने पर भी शेष चतुष्क (शिक्षापना आदि) के लिए अयोग्य होता है। यदि उनका आचरण करता है तो पूर्वपद दोष अनिवारित होते हैं। ५१९२. सिक्खाविओ सिय त्ती, सेसतिगस्सा अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपद निवारिया दोसा ।। ५१९३. उवट्ठाविओ सिय त्ती, सेसदुगस्सा अणायरणजोग्गो । अहवा समायरंते, पुरिमपदऽनिवारिया दोसा ॥ ५१९४. संभुंजिओ सिय त्ती, संवासेउं अणायरणजोग्गो । अहवा संवासिंते, पुरिमपदऽनिवारिया दोसा ॥ ५१९५. मूलातो कंदादी, उच्छुविकारा य जह रसादीया । मिप्पिंड - गोरसाण य, होंति विकारा जह कमेणं ॥ १. पंचक यह हैं- मुंडन, शिक्षण, उपस्थापन, संभुंजन, संवास । बृहत्कल्पभाष्यम् ५१९६. जह वा णिसेगमादी, गब्भे जातस्स णाममादीया । होंति कमा लोगम्मिं, तह छव्विह कप्पसुत्ता उ॥ यदि उसे शिक्षापित भी कर दिया जाता है तो शेष तीन के लिए अनाचरण योग्य होता है। अथवा उसका आचरण करने पर पूर्वपद के दोष अनिवारित होते हैं। उपस्थापित करने पर शेष दो पदों के आचरण करने के लिए वह अयोग्य होता है। अथवा समाचरण करने पर पूर्वपद के दोष अनिवारित होते हैं। सहभोजन करने पर उसके साथ संवास करना (साथ रहना) अनाचरणयोग्य होता है। अथवा संवास करने पर पूर्वपद के दोष अनिवारित होते हैं । वृक्ष के मूल से कन्द, स्कंध आदि, इक्षुविकार रस कक्क आदि, मृत्पिंड के स्थाश, कोश आदि, गोरस के दधि, नवनीत आदि-ये सारे विकार क्रमशः होते हैं। गर्भ में आए हुए जीव के निषेक आदि तथा नामकरण-चूडाकरण आदि-ये सारे लोक में क्रमशः होते हैं। इसी प्रकार षड् प्रकार के कल्पसूत्र ( प्रव्राजना, मुंडापना आदि) क्रमशः होते हैं। अवायणिज्ज - वायणिज्ज -पदं तओ नो कप्पंति वाइत्तए, तं जहा - अविणी, विगईपडिबद्धे, अविओसवियपाहुडे ॥ (सूत्र ६ ) तओ कप्पंति वाइत्तए, तं जहा - विणीए नो विगईपडिबद्धे, विओसवियपाहुडे ॥ (सूत्र ७) ५१९७. पंडादी पडिकुट्ठा, छव्विह कप्पम्मि मा विदित्तेवं । अविणीयमादितितयं, पवादए एस संबंधो ॥ षड्विध सचित्त द्रव्यकल्प में पंडक आदि तीन प्रतिक्रुष्ट हैं यह जानकर अविनीत, विगयप्रतिबद्ध, कलह को उपशांत न करने वाला - इन तीनों को वाचना न दे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का आरंभ है। यह संबंध है। ५१९८. सिक्खावणं च मोत्तुं, अविणियमादीण सेसगा ठाणा । गंता पडिसिद्धा, अयमपरो होइ कप्पो उ॥ अविनीत आदि तीनों को ग्रहणशिक्षा को छोड़कर शेष स्थान एकान्ततः प्रतिषिद्ध नहीं हैं। यह संबंध का दूसरा कल्प - प्रकार है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५३७ ५१९९.विगइ अविणीए लहुगा, शरीर से हृष्टपुष्ट होने पर भी कोई मुनि रस की पाहुड गुरुगा य दोस आणादी। लोलुपतावश विकृतियों को नहीं छोड़ता, वह वाचना के लिए सो य इयरे य चत्ता, अयोग्य होता है। जैसे अभ्यंग के बिना शकट नहीं चलता बितियं अद्धाणमादीसु॥ वैसे ही कोई मुनि विकृति के बिना शरीर का निर्वाह नहीं कर विकृतिप्रतिबद्ध अविनीत को वाचना देने पर चतुर्लघु, सकता। यदि वह गुरु की आज्ञा से विकृति ग्रहण करता है कलह को अनुपशांत करने वाले को वाचना देने पर चतुर्गुरु तो वह वाचना के योग्य है। का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। वह और ५२०५.उस्सग्गं एगस्स वि, ओगाहिमगस्स कारणा कुणति। इतर मुनि परित्यक्त हो जाते हैं। विनय न करने वाला गिण्हति व पडिग्गहए, विगतिं वर मे विसज्जिंता॥ ज्ञानाचार की विराधना करता है, इसलिए वह परित्यक्त है, कोई एक मुनि योगवाही है। वह अन्य कोई एक दूसरे उसको देखकर विनय से मुंह मोड़ लेते हैं, इसलिए अवगाहिम लेने के कारण कायोत्सर्ग करता है अथवा वह परित्यक्त है। इसमें द्वितीयपद-अपवाद यह है-अध्व आदि में अपने पात्र में विकृति ग्रहण करता है। वह सोचता है इस अविनीत आदि उपकार करते हैं अतः वे वाचनीय हैं। उपाय से भी मुझे विकृति प्राप्त होगी। इस प्रकार वह माया ५२००.अविणीयमादियाणं, तिण्ह वि भयणा उ अट्ठिया होति। करता है। ___ पढमगभंगे सुत्तं, पढमं बितियं तु चरिमम्मि॥ ५२०६.अतवो न होति जोगो, अविनीत आदि तीनों पदों की अष्टभंगी होती है, जैसे ण य फलए इच्छियं फलं विज्जा। १. अविनीत विकृतिप्रतिबद्ध अव्यवशमितकलह, २. अविनीत अवि फलति विउलमगुणं, विकृतिप्रतिबद्ध व्यवशमितकलह यावत् आठवां भंग है-विनीत साहणहीणा जहा विज्जा॥ विकृति अप्रतिबद्ध व्यवशमितकलह। प्रथम भंग में पहला सूत्र श्रुत संबंधी व्यापार तप के बिना नहीं होता। तप के बिना और चरम अर्थात् आठवें भंग में दूसरा सूत्र आता है। श्रुतज्ञान रूप ग्रहण विद्या ईप्सित फलवाली नहीं होती, प्रत्युत ५२०१.इहरा वि ताव थब्भति,अविणीतो लंभितो किमु सुएण। विपुल अनर्थ फलित होता है। जैसे साधनहीन विद्या, बिना मा णट्ठो णस्सिहिती, खए व खारावसेओ तु॥ किसी उपचार के ग्रहण की जाने वाली विद्या उचितरूप में अविनीत व्यक्ति बिना ज्ञान दिए भी स्तब्ध होता है। यदि फलित नहीं होती। उसे श्रुत दे दिया जाए तो फिर कहना ही क्या? जो स्वयं ५२०७.अप्पे वि पारमाणिं, अवराधे वयति खामियं तं च। नष्ट हो चुका है वह दूसरों को नष्ट न करे, क्षत पर कोई बहुसो उदीरयंतो, अविओसियपाहुडो स खलु॥ नमक न छिडके, इसलिए अविनीत को वाचना नहीं देनी जो थोड़े से अपराध में भी पारमाणी-परम क्रोध चाहिए। समुद्घात को प्राप्त होता है, उस अपराध को उपशांत कर ५२०२.गोजूहस्स पडागा, सयं पयातस्स वड्डयति वेगं। देने पर भी जो अनेक बार उसकी उदीरणा करता है वह ___ दोसोदए य समणं, ण होइ न निदाणतुल्लं वा॥ 'अव्यवशमितकलह' होता है। गोयूथ स्वयं प्रस्थित है। अग्रगामी गोपाल जब उसको ५२०८.दुविधो उ परिच्चाओ,इह चोदण कलह देवयच्छलणा। पताका दिखाता है तो उसका वेग बढ़ जाता है, यह श्रुति है। परलोगम्मि य अफलं, खित्तम्मि व ऊसरे बीजं॥ इसी प्रकार दुर्विनीत को ज्ञान देने से उसका अविनय बढ़ता ऐसे व्यक्ति को वाचना देने से दो प्रकार का परित्याग ही है। रोग के तीव्रतर वेग में औषध शमनकारी नहीं होती होता है-इहलोक का परित्याग और परलोक का परित्याग। और न वह निदान के अनुरूप ही होती हैं। इहलोक परित्याग-उसको यदि स्मारणा आदि से प्रेरित ५२०३. विणयाहीया विज्जा, देति फलं इह परे य लोगम्मि। किया जाता है तो वह कलह करता है। अपात्र को वाचना देने न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाई॥ से प्रान्तदेवता छल लेता है। परलोक परित्याग ऐसे व्यक्ति विनय से अधीत विद्या इहलोक और परलोक में फल देने को श्रुत देना अफलदायी होता है, जैसे ऊसर भूमी में बोया वाली होती है। विनयहीन व्यक्तियों की विद्याएं फलवती नहीं हुआ बीज निष्फल होता है। होतीं, जैसे पानी के बिना धान नहीं फलते, खेती नहीं होती। ५२०९.वाइज्जंति अपत्ता, हणुदाणि वयं पि एरिसा होमो। ५२०४.रसलोलुताइ कोई, विगतिं ण मुयति दढो वि देहेणं। इय एस परिच्चातो, इह-परलोगेऽणवत्था य॥ अब्भंगेण व सगडं, न चलइ कोई विणा तीए॥ अपात्रों को वाचना दी जाती है तो दूसरे शिष्य भी सोचते Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ बृहत्कल्पभाष्यम् हैं, अहो! अब हम भी ऐसे ही बनें। इस प्रकार दुर्विनय दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित-इन तीन पदों की में प्रवर्तमान उनके द्वारा इहलोक-परलोक-दोनों परित्यक्त अष्टिका भजना होती है, आठ भंग होते हैं। प्रथम भंग होते हैं। इससे अनवस्था होती है। कोई विनय आदि में प्रथम सूत्र तथा चरम भंग (आठवें भंग में) दूसरा सूत्र नहीं करता। आता है। ५२१०.अद्भाण-ओमादि उवग्गहम्मि, ५२१४.दव्व दिसि खेत्त काले,गणणा सारिक्ख अभिभवे वेदे। वाए अपत्तं पि तु वट्टमाणं। बुग्गाहणमन्नाणे, कसाय मत्ते य मूढपदा॥ वुच्छिज्जमाणम्मि व संथरे वी, मूढ़ पद के आठ निक्षेप ये हैं-द्रव्यमूढ़, दिग्मूढ़, क्षेत्रमूढ़, कालमूढ़, गणनामूढ, सादृश्यमूढ़, अभिभवमूढ़ और वेदमूढ़। इनका अपवादपद यह है-मार्ग में, अवमौदर्य आदि व्युद्ग्राहणामूढ़, अज्ञान (मिथ्याज्ञान) मूढ, कषायमूढ़, परिस्थितियों में जो व्यक्ति गण के लिए उपकारी होता है, वह मत्तमूद-ये भी मूढ़पद होते हैं। अपात्र हो तो भी वह वाचनीय है। उस आचार्य के पास कोई ५२१५.धूमादी बाहिरतो, अंतो धत्तूरगादिणा दव्वे। अपूर्वश्रुत है, पात्र शिष्य नहीं मिल रहा है, बिना संक्रामित जो दव्वं व ण जाणति, घडिगावोद्दो व्व दिलृ पि॥ किए वह अपूर्वश्रुत व्यवच्छिन्न हो जाएगा, तब न चाहते हुए जो बाह्य अथवा आभ्यन्तर द्रव्य में मोहित होता है वह है भी अपात्र को वाचना दी जा सकती है। अथवा उसके सिवाय द्रव्यमूढ़। जो बाह्य अर्थात् धूम आदि द्रव्य से आकुलित कोई अन्य शिष्य नहीं है, यह सोचकर उस अपात्रभूत शिष्य होकर जो मोहित होता है, जो अभ्यन्तर धत्तूर-कोद्रव आदि को भी वाचना दे। के भोग से आकुलित होता है, वह है द्रव्यमूढ़। अथवा जो पूर्वदृष्ट द्रव्य को कालान्तर में नहीं जानता वह है द्रव्यमूढ़। दुसण्णप्प-सुसण्णप्प-पदं यहां घटिकावोद्र नाम के वणिक् का दृष्टांत है ५२१६.दिसिमूढो पुव्वाऽवर, मण्णति खेत्ते तु खेत्तवच्चासं। तओ दुस्सण्णप्पा पण्णत्ता, तं दिव-रातिविवच्चासो, काले पिंडारदिलुतो॥ जहा-दुढे मूढे वुग्गाहिए॥ दिग्मूढ पुरुष दिशाओं में मूढ़ होता है। वह दिशाओं को (सूत्र ८) विपरीत समझता है-पूर्व को पश्चिम और पश्चिम को पूर्व। क्षेत्रमूढ़-क्षेत्र को नहीं जानता अथवा विपरीत जानता है। ५२११.सम्मत्ते वि अजोग्गा, कालमूढ़-रात को दिन और दिन को रात मानता है। यहां किमु दिक्खण-वायणासु दुट्ठादी। पिंडार का दृष्टांत हैदुस्सन्नप्पारंभो, ५२१७.ऊणाधिय मन्नतो, उट्टारूढो व गणणतो मूढो। मा मोह परिस्समो होज्जा॥ सारिक्ख थाणु पुरिसो, कुडुबिसंगामदिर्सेतो॥ दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित ये तीनों सम्यक्त्व ग्रहण के गणनामूद जैसे ऊंट पर चढ़ा हुआ पुरुष गिनते समय लिए भी अयोग्य होते हैं तो प्रव्रज्या, वाचना के योग्य कैसे हो कम या अधिक गिनता है। सादृश्यमूढ़-जैसे स्थाणु को सकते हैं? इसलिए उनके प्रज्ञापन में प्रज्ञापक का परिश्रम पुरुष मानता है। इसमें कुटुम्बी-महत्तर और सेनापति के निष्फल न हो, इसलिए दुःसंज्ञाप्य सूत्र का आरंभ किया। संग्राम का दृष्टांत है। जाता है। ५२१८.अभिभूतो सम्मुज्झति, ५२१२.दुस्सन्नप्पो तिविहो, दुट्ठाती दुट्ठो वण्णितो पुब्विं। सत्थ-ऽग्गी-वादि-सावयादीहिं। मूढस्स य निक्खेवो, अट्ठविहो होइ कायव्वो॥ अब्भुदय अणंगरती, दुःसंज्ञाप्य तीन होते हैं-दुष्ट, मूढ़ और व्युद्ग्राहित। दुष्ट वेदम्मि तु रायदिटुंतो॥ का वर्णन पूर्वसूत्रों में किया जा चुका है। मूढ़ के आठ प्रकार शस्त्र, अग्नि, वादी या श्वापदों आदि से अभिभूत होने का निक्षेप है। पर जो सम्मोहित होता है वह है-अभिभवमूढ़। जो अभ्युदय ५२१३.दुढे मूढे वुग्गाहिए य भयणा उ अट्ठिया होइ। अर्थात् प्रबल वेदोदय के कारण अनंगक्रीड़ा करता है वह है पढमगभंगे सुत्तं, पढमं बिइयं तु चरिमम्मि॥ वेदमूढ़। यहां राजा का दृष्टांत है। १-४. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १२०-१२३। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५३९ ५२१९.राया य खंतियाए, वणि महिलाए कुला कुटुंबिम्मि। समुद्र यात्रा में गया। समुद्र के मध्य प्रवहण टूट गया। वणिक् दीवे य पंचसेले, अंधलग सुवण्णकारे य॥ समुद्र में मर गया। वणिक् पत्नी एक फलक के सहारे एक राजा की स्वमाता में अनुरक्ति-यह वेदमूढ़ का दृष्टांत है। द्वीप में गई। पुत्र का प्रसव किया। पुत्र बड़ा हुआ। वह उसके वणिक् द्वारा अपनी भार्या को न पहचान पाना द्रव्यमूढ़, साथ भोग भोगने लगी। उसे व्युद्ग्राहित कर दिया। सेनापति और महत्तर-दोनों कुटुम्बिओं के कुल सादृश्यमूढ़, कालान्तर में अन्य पोतवणिक् वहां आए। उसे समझाया। द्वीपजात पुरुष, पंचशैल, अंधलक और स्वर्णकार-ये चारों ऐसा व्यक्ति अप्रज्ञापनीय होता है। व्युद्ग्राहणामूढ़ के दृष्टांत हैं। इनका विस्तार आगे की ५२२४.पुब्बिं वुग्गाहिया केई, णरा पंडियमाणिणो। गाथाओं में। णिच्छंति कारणं किंची, दीवजाते जहा नरे॥ ५२२०.बालस्स अच्छिरोगे, सागारिय देवि संफुसे तुसिणी। पहले व्युद्ग्राहित पंडितमानी लोग कुछ भी कारण सुनना उभय चियत्तऽभिसेगे, ण ठाति वुत्तो वि मंतीहिं॥ नहीं चाहते जैसे द्वीप में उत्पन्न मनुष्य। ५२२१.छोढूणऽणाहमडयं, झामित्तु घरं पतिम्मि उ पउत्थे। ५२२५.चंपा अणंगसेणो, पंचऽच्छर थेर णयण दुम वलए। धुत्त हरणुज्झ पति अट्ठि गंग कहिते य सद्दहणा॥ विहपास णयण सावग, इंगिणिमरणे य उववातो॥ ५२२२.सेणावतिस्स सरिसो, चंपा नगरी में अनंगसेन नाम का स्वर्णकार रहता था। वह वणितो गामिल्लतो णिओ पल्लिं। पंचशैल द्वीप वास्तव्य अप्सराओं से व्युद्ग्राहित। स्थविर णाहं ति रणपिसाई, द्वारा वहां ले जाया गया। द्रुम-वटवृक्ष। स्थविर का वलय में घरे वि दड्डो त्ति णेच्छंति॥ मरण। भारण्डपक्षियों द्वारा ले जाया जाना। श्रावक द्वारा बालक राजकुमार अनंग अक्षिरोग से पीड़ित था। वह इंगिनीमरण स्वीकार। पंचशैलद्वीप में उपपात। निरंतर रोता था। एक बार रानी ने उसकी जननेन्द्रिय का ५२२६.अंधलगभत्त पत्थिव, स्पर्श किया और उसने रोना बंद कर दिया। दोनों रानी और किमिच्छ सेज्जऽण्ण धुत्त वंचणता। कुमार के लिए विषय सेवन प्रीतिकर था। वह बालक मां के अंधलभत्तो देसो, साथ प्रतिसेवना करने लगा। मंत्रियों द्वारा कहने पर भी वह पव्वयसंघाडणा हरणा॥ उपरत नहीं हुआ। कोई पार्थिव अंधभक्त था। वह दूसरा जो कुछ चाहता पति के प्रस्थित होने पर पत्नी ने घर को जलाकर, उसमें उसको शय्या अन्न आदि का दान करता था। एक धूर्त ने एक अनाथ व्यक्ति के शव को निक्षिप्त कर दिया। एक धूर्त उसको ठगने की बुद्धि से कहा-एक अंधलभक्त देश है। व्यक्ति ने उसका अपहरण कर गंगातट पर चला गया। पति मैं वहां तुमको ले जाऊंगा। यह कहकर एक पर्वत पर घर आया। जले हुए घर को देखा। सोचा, पत्नी जलकर मर उनको एकत्रित किया। परस्पर एक-दूसरे का हाथ पकड़ाकर गई है। उसने उस दग्ध अनाथ व्यक्ति की हड्डियों को पत्नी _वहां उनको घुमाया। फिर वह उनके धन का हरण कर की हड्डियां मान उन्हें एकत्रित कर गंगा में प्रवाहित करने ले भाग गया। गया। पत्नी ने सेठ को पहचान लिया। पूरी बात बताने पर ५२२७.लोभेण मोरगाणं, भच्चग! छेज्जेज्ज मा हु ते कन्ना। सेठ को विश्वास। छादेमि णं तंबेणं, जति पत्तियसे ण लोगस्स॥ सेनापति के सदृश गांव का महत्तर। दोनों में संग्राम। चोर एक स्वर्णकार ने एक गरीब आदमी के कानों में असली ने सेनापति को मार डाला। चोरों ने महत्तर को चोर सेनापति स्वर्ण के कुंडल देखे। लोभाविष्ट हो वह उससे बोलामानकर पल्ली में ले गए। महत्तर ने कहा-मैं चोर सेनापति भागिनेय! कुंडलों के लोभ से कोई तुम्हारे कान न काट ले। नहीं हूं। चोरों ने सोचा-यह रणपिशाचकी है। महत्तर घर यदि तुम लोगों पर विश्वास न करो तो मैं इन कुंडलों को गया। घर वालों ने भी वह 'मर गया' यह सोचकर उसे तांबे-पीतल से आच्छादित कर देता हूं। स्वीकार नहीं किया। ५२२८.जो इत्थं भूतत्थो, तमहं जाणे कलायमामो य। ५२२३.पोतविवत्ती आवण्णसत्त फलएण गाहिया दीवं। वुग्गाहितो न जाणति, हितएहिं हितं पि भण्णंतो॥ सुतजम्म वड्डि भोगा, बुग्गाहण णाववणियाऽऽया। यहां जो यथार्थ है उसको मैं तथा मेरा कलाद-स्वर्णकारएक पोतवणिक् अपनी गर्भिणी पत्नी को साथ लेकर हम दोनों जानते हैं। किन्तु यह व्यक्ति जो स्वर्णकार से १-३. पूरे कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १२५-१२७। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० बृहत्कल्पभाष्यम् यह अनुमत है कि विपक्ष के अर्थ की सिद्धि बिना कहे भी, अर्थापत्ति से हो जाती है, फिर भी विपक्ष की बात बताई है। यह कालिकश्रुत की धर्मता है, स्वभाव है, शैली है कि अर्थापत्ति से उपलब्ध अर्थ भी साक्षात् कहा जाता है। ५२३५.ववहार णऽत्थवत्ती, अणप्पिएण य चउत्थभासाए। मूढणय अगमितेण य, कालेण य कालियं नेयं॥ व्यवहारनय के मत से कालिकश्रुत में अर्थापत्ति नहीं होती। कालिकश्रुत अनर्पित-विषय विभाग रहित होता है। यह चौथी भाषा-असत्यामृषा में निबद्ध होता है। कालिकश्रुत मूढनय अर्थात् नयविभाग से अव्यवस्थापित नय वाले होते हैं, तथा जो गमिक-सदृशपाठ वाले नहीं होते तथा जो काल से प्रतिबद्ध होते हैं। गिलायमाण-पदं निग्गंथिं च णं गिलायमाणिं पिता वा भाया वा पुत्तो वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्याइयं॥ (सूत्र १०) निग्गंथं च णं गिलायमाणं माया वा भगिणी वा धूया वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं॥ (सूत्र ११) व्युद्ग्राहित है यह हितकारी व्यक्तियों के हितयुक्त वचनों को भी नहीं जानता। ५२२९.रायकुमारो वणितो, एते मूढा कुला य ते दो वि। वुग्गाहिया य दीवे, सेलंधल-भच्चए चेव॥ उपरोक्त कथानकों में कौन मूढ़ है और कौन व्युद्ग्राहित- यह ज्ञातव्य है-माता में आसक्त राजकुमार, घटिकावोद्राख्य नाम का वणिक, सेनापति और महत्तर के कुल-ये मूढ़ के उदाहरण हैं। द्वीपजात, पंचशैलस्वर्णकार, भच्चक-स्वर्णकार का भागिनेय-ये व्युग्राहित के उदाहरण हैं। ५२३०.मोत्तूण वेदमूढं, अप्पडिसिद्धा उ सेसका मूढा। ___वुग्गाहिता य दुट्ठा, पडिसिद्धा कारणं मोत्तुं॥ वेदमूढ़ को छोड़कर, शेष जो मूढ़ हैं-द्रव्यमूढ़, क्षेत्रमूढ़ आदि-ये प्रव्रज्या के लिए अप्रतिषिद्ध हैं, इनको दीक्षा दी जा सकती है। जो व्युद्ग्राहित और दुष्ट-कषायदुष्ट आदि हैं, कोई कारण को छोड़कर प्रतिषिद्ध हैं। कारण होने पर उन्हें प्रव्रजित किया जा सकता है। ५२३१.ज तेहिं अभिग्गहियं, आमरणंताए तं न मुंचंति। सम्मत्तं पि ण लग्गति, तेसिं कत्तो चरित्तगुणा॥ __ व्युद्ग्राहित आदि व्यक्तियों ने जो स्वीकार कर लिया, उसे वे आमरणांत नहीं छोड़ते। इस प्रकार उनमें सम्यक्त्व भी नहीं होता तो फिर उनमें चारित्रगुण कैसे हो सकते हैं? ५२३२.सोय-सुय-घोररणमुह-दारभरण-पेयकिच्चमइएसु । सग्गेसु देवपूयण-चिरजीवण-दाणदिवेंसु॥ ५२३३.इच्चेवमाइलोइयकुस्सुइवुग्गाहणाकुहियकन्ना । __फुडमवि दाइज्जंतं, गिण्हंति न कारणं केई॥ कुछेक व्यक्तियों के अंतःकरण स्वर्ग आदि से भावित होते हैं। वे मानते हैं-शौच रखने से, पुत्र को उत्पन्न करने से, घोरसंग्राम के मोर्चे पर जाने से, धर्मपत्नी का पोषण करने से, पिंड दान आदि प्रत्यकर्म से, वैश्वानरदेव की पूजा करने से, चन्द्रसहस्र आदि रूप चिरकाल तक जीने से, गाय और जमीन का दान देने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस प्रकार की लौकिक कुश्रुति की व्युद्ग्राहणा से कुथित कान वाले वे लोग स्फुटरूप से दृश्यमान कारण को भी स्वीकार नहीं करते। तओ ससण्णप्पा पण्णत्ता, तं जहा-अदुढे अमूढे अवुग्गाहिए। हा ५२३६.उवहयभावं दव्वं, सच्चित्तं इति णिवारियं सुत्ते। भावाऽसुभसंवरणं, गिलाणसुत्ते वि जोगोऽयं॥ ___ सचित्त द्रव्य (मनुष्य आदि) जो उपहतभाव-दूषित परिणाम वाला है, उसकी प्रव्रज्या की पूर्वसूत्र में वर्जना की है। प्रस्तुत ग्लानसूत्र में भी अशुभ भावों के संवरण की बात है। यह योग है, संबंध है। ५२३७.कामं पुरिसादीया, धम्मा सुत्ते विवज्जतो तह वि। दुब्बल-चलस्सभावा, जेणित्थी तो कता पढमं॥ यह अनुमत है कि धर्म पुरुषमुख्य होते हैं। फिर भी सूत्र में विपर्यास किया गया है। स्त्री धृतिदुर्बल और चंचल (सूत्र ९) ५२३४.कामं विपक्खसिद्धी, अत्थावत्तीइ होतऽवुत्ता वि। तह वि विवक्खो वुच्चति, कालियसुयधम्मता एसा॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक स्वभाववाली होती है, इसलिए उसका निर्देश पहले किया गया है । ५२३८. वइणि त्तिणवरि णेम्मं, अण्णा विण कप्पती सुविहियाणं । अवि पजाती आलिंगिडं पि किमु ता पलिस्सइडं ॥ प्रस्तुत सूत्र में जो व्रतिनी-निर्ग्रन्थी का उल्लेख किया गया है, वह 'नेम' चिह्न उपलक्षण मात्र है । सुविहित मुनियों को दूसरी स्त्री का आलिंगन करना भी नहीं कल्पता । इसीको स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पशुजाति की स्त्री का भी आलिंगन करना नहीं कल्पता तो फिर मनुष्य स्त्री के परिष्वंग की तो बात ही क्या ? ५२३९. निम्मंथो निम्गंथिं, इत्थि गित्वं च संजयं चेव । पलिसयमाणे गुरुगा, दो लहुगा आणमादीणि ॥ निर्यन्य निर्ग्रन्थी का आलिंगन करता है तो चतुर्गुरु तप और काल से गुरु, स्त्री का आलिंगन करता है तो वही प्रायश्चित्त तपस्या से गुरु, गृहस्थ का आलिंगन करता है तो चतुर्लघु काल से गुरु, संयत का आलिंगन करता है तो चतुर्लघु तप और काल से लघु । सर्वत्र आज्ञाभंग आदि दूषण होते हैं। ५२४०. निग्गंधी श्री गुरुगा, गिहि पासंडि समणे व चउलहुगा । दोहि गुरु तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा ॥ निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी का आलिंगन करता है तो चतुर्गुरु दोनों तप और काल से गुरु, स्त्री का आलिंगन करने पर वही दोनों से गुरु, गृहस्थ का आलिंगन करने पर चतुर्लघु कालगुरु, पाषंडी पुरुष या श्रमण का आलिंगन करने पर चतुर्लघु, दोनों से लघु । ५२४१. मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा फास भावसंबंधो आतंको दोह भवे, गिहिकरणे पच्छकम्मं च ॥ निर्ग्रन्थ को निर्ग्रन्थी का आलिंगन करते देखकर मिथ्यात्व का प्रसार होता है, प्रवचन का उड्डाह होता है, विराधना होती है, दोनों के परस्पर स्पर्श से भाव संबंध स्थापित हो जाता है। दोनों के कोई रोग हो तो एक दूसरे में संक्रामित हो जाता है। गृहस्थ का आलिंगन करने से पश्चात्कर्म का दोष हो सकता है। ५२४२. कोड खाए कच्छु जरे, अवरोप्पर संकमंते चडभंगो। इत्थीणाति सुहीण य अचियत्तं गिण्हणादीया ॥ कुष्ठ, खांसी, खुजली, ज्वर आदि रोग परस्पर संक्रामित होते हैं। इसकी चतुर्भगी यह है ५४१ १. निर्ग्रन्थ संबंधी रोग निर्ग्रन्थी में संक्रमित हो जाते हैं। २. निर्ग्रन्थी संबंधी रोग निर्ग्रन्थ में संक्रमित हो जाते हैं। ३. दोनों के रोग एक दूसरे में संक्रमित हो जाते हैं। ४. दोनों के रोग एक दूसरे में संक्रमित नहीं होते। स्त्री के ज्ञातिजनों या सुहृद् व्यक्तियों के मन में यह अप्रीति उत्पन्न होती है कि यह श्रमण हमारी संबंधीनी स्त्री का इस प्रकार आलिंगन कर रहा है। वे उस श्रमण का ग्रहण- आकर्षण आदि करते हैं। ५२४३. गिहिएसु पच्छकम्मं भंगो ते चेव रोगमादीया । संजय असंखडादी, भुत्ता ऽभुते य ममणादी ॥ गृहस्थों के साथ आलिंगन करने से पश्चात्कर्म दोष होता है, वे स्नान आदि करते हैं। स्त्री के साथ आलिंगन करने से व्रत की विराधना होती है, रोग आदि का संक्रमण होता है। संयत के साथ आलिंगन करने से कलह आदि दोष होते हैं। यह देखकर भुक्तभोगी तथा अभुक्तभोगी का प्रतिगमन हो सकता है। ५२४४. एमेव गिलाणाए, सुत्तऽफलं कारणे तु जयणाए । कारणे एग गिलाणा, गिहिकुल पंथे व पत्ता वा ॥ इसी प्रकार ग्लान संयती का आलिंगन करने पर वे ही दोष होते हैं। शिष्य ने कहा- यदि ऐसा हो तो फिर सूत्र अफल हो जाएगा। आचार्य ने कहा- कारण में यतनापूर्वक आलिंगन करने में सूत्र का अवतरण है कारण में कोई संयती अकेली हो गई। वह गृहस्थकुल की निश्रा में रह रही है अथवा उसके निजी व्यक्ति-बहिन आदि उसके पास दीक्षित हो गए। वह मार्ग में या विवक्षित गांव को प्राप्त कर ग्लान हो गई। ५२४५. माता भगिणी धूता, तथैव सण्णातिगा य सङ्घीय गारत्थि कुलिंगी वा असोय सोए य जयणाए । ५२४६. एयासिं असतीप, अगार सण्णाय णालबद्धो य समणो वऽनालबद्धो, तस्सऽसति गिही अवयतुल्लो ॥ उस समय उस संयती की माता, भगिनी या पुत्री (जो दीक्षित है) उसको उठाती है, सुलाती है अथवा उसकी भानजी, पौत्री आदि या कोई श्राविका अथवा स्त्री अथवा कुलिंगिनी सारा कार्य करती है। उनमें भी प्राथमिकता है अशौचवादिनी को और फिर शौचवादिनी को इन स्त्रियों के अभाव में जो गृहस्थ उस संयती का स्वजन हो, नालबद्ध-पिता, भ्राता पुत्र आदि हो वह उसको उठाना बिठाना आदि करता है। उनके अभाव में नालबद्ध श्रमण उसके अभाव में असमानवयवाला अनालबद्ध श्रमण भी वे सारे कार्य करता है। . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ =बृहत्कल्पभाष्यम् ५२४७.दोन्नि वि अनालबद्धा उ, जुज्जंती एत्थ कारणे। ५२५३.एवं पि कीरमाणे, सातिज्जणे चउगुरू ततो पुच्छा। किढी कण्णा विमज्झा वा, एमेव पुरिसेसु वि॥ तम्मि अवत्थाय भवे, तहिगं च भवे उदाहरणं ।। नालबद्ध के अभाव में दोनों-स्त्री पुरुष जो अनालबद्ध हों इस प्रकार यतना दिए जाने पर भी यदि वह निर्ग्रन्थी वे उस संयती के कार्य करते हैं। उनमें भी प्राथमिकता है- पुरुष स्पर्श का आस्वादन करती है तो उसे चतुर्गरु का स्थविरा को, उसके अभाव में कन्यका, उसके अभाव में । प्रायश्चित्त आता है। अनन्तर शिष्य पूछता है-उस ग्लान मध्यमा। इसी प्रकार पुरुषों में भी। अवस्था में भी मैथुनाभिलाषा होती है, इस पर श्रद्धा नहीं ५२४८.असईय माउवग्गे, पिता व भाता व से करेज्जाहि। होती। इस अवस्था का यह उदाहरण है। दोण्ह वि तेसिं करणं, जति पंथे तेण जतणाए॥ ५२५४.कुलवंसम्मि पहीणे, सस-भसएहिं च होइ आहरणं। मातृवर्ग अर्थात् स्त्रियों के अभाव में उस संयती के पिता, सुकुमालियपव्वज्जा, सपच्चवाता य फासेणं॥ भ्राता उसको उठाना आदि कार्य करते हैं। दोनों को यह यहां शशक-मशक का उदाहरण है। सारा कुल-वंश नष्ट करणीय होता है। यदि मार्ग में वह संयती ग्लान हो जाती है हो जाने पर सुकुमारिका को उन दोनों ने प्रव्रज्या दी। वह तो यतनापूर्वक (गोपालकंचुकतिरोधानरूप से?) उसका । अत्यन्त रूपवती और सुकुमार स्पर्शवाली थी। ये दोनों रूप परिकर्म किया जाता है। और स्पर्श आपत्तिजनक हो गए। ५२४९.थी पुरिस णालऽणाले, ५२५५.जियसत्तुनरवरिंदस्स अंगया सस-भसा य सुकुमाली। सपक्ख परपक्ख सोयऽसोये य। धम्मे जिणपण्णत्ते, कुमारगा चेव पव्वइता॥ आगाढम्मि उ कज्जे, ५२५६.तरुणाइन्ने निच्चं, उवस्सए सेसिगाण रक्खट्ठा। करेति सव्वेहि जतणाए॥ गणिणि गुरु-भाउकहणं, पिहुवसए हिंडए एक्को। आगाद कार्य (आत्यन्तिक ग्लानत्व में) स्त्री या पुरुष, ५२५७.इक्खागा दसभागं, सव्वे वि य वण्हिणो उ छब्भागं। नालबद्ध या अनालबद्ध, स्वपक्ष अथवा परपक्ष, शौचवादी या अम्हं पुण आयरिया, अद्धं अद्रेण विभयंति॥ अशौचवादी-ये सभी यतनापूर्वक उसका परिकर्म करते हैं। ५२५८.हत-महित-विप्परद्धे, वण्हिकुमारेहिं तुरुमिणीनगरे। ५२५०.पंथम्मि अपंथम्मि व, किं काहिति हिंडतो, पच्छा ससतो व भसतो वा॥ अण्णस्सऽसती सती वऽकुणमाणो। ५२५९.भायऽणुकंप परिण्णा, समोहयं एगो भंडगं बितितो। अंतरियकंचुकादी, आसत्थ वणिय गहणं, भाउग सारिक्ख दिक्खा य॥ सच्चिय जतणा तु पुव्वुत्ता॥ वाराणसी नगरी का राजा जितशत्रु था। उसकी पुत्री मार्ग में या अमार्ग में दूसरे के अभाव में या कहने पर भी सुकुमालिका नाम की राजकुमारी थी। उसके शशक और जो करना नहीं चाहता तो स्वयं गोपालकंचुक आदि से मशक-ये दो भाई थे। कालान्तर में दोनों भाई जिनप्रज्ञप्त धर्म अंतरित होकर करता है। यहां पूर्वोक्त यतना (गाया ३७६८) में प्रव्रजित हो गए। उन्होंने अपनी बहिन को भी प्रव्रजित कर के अनुसार जान लेनी चाहिए। दिया। वे तुरमिणी नगरी में गए और उन्होंने साध्वी ५२५१.गच्छम्मि पिता पुत्ता, भाता वा अज्जगो व णत्तू वा। सुकुमालिका को महत्तरिका को सौंप दी। वह अत्यंत रूपवती एतेसिं असतीए, तिविहा वि करेंति जयणाए॥ थी। वह जब भी भिक्षाचर्या के लिए या विचारभूमी में जाती गच्छ में यदि पिता, पुत्र, भ्राता, आर्यक-दादा, नाना, तब-तब तरुण उसके पीछे-पीछे जाते। जब वह वसति में पौत्र, हों तो ये उस संयती का परिकर्म करें। इनके अभाव में प्रवेश कर जाती तब भी युवक वसति में जाकर बैठ जाते। तीनों-स्थविर, मध्यम और तरुण मुनि यतनापूर्वक उसका निर्ग्रन्थीयां प्रत्युपेक्षण आदि नहीं कर पाती थी। महत्तरिका ने परिकर्म करे। गुरु से कहा। गुरु ने दोनों भाई मुनियों से कहा-तुम ५२५२.दोण्णि वि वयंति पंथं, एक्कतरा दोण्णि वा न वच्चंती। सुकुमालिका का संरक्षण करो। वे उसे पृथक् उपाश्रय में ले तत्थ वि स एव जतणा, जा वुत्ता णायगादीया॥ गए। एक भाई भिक्षा के लिए जाता। दूसरा भाई प्रयत्नपूर्वक संयती दोनों अर्थात् निजक और अनिजक के साथ मार्ग में उसका संरक्षण करता। प्रश्न होता है कि उन्होंने उसकी ऐसी जा रही हो अथवा किन्हीं एक के साथ जा रही हो अथवा रक्षा क्यों की? एक प्राचीन कथन है-इक्ष्वाकु राजा अपनी अकेली जा रही हो-ये तीन प्रकार हैं। यहां पूर्वोक्त यतना प्रजा का सम्यक् पालन करते हुए अथवा अपालन करते हुए ज्ञातक आदि के क्रम से जाननी चाहिए। क्रमशः उनके पुण्य-पाप का दसवां भाग और वृष्णी-हरिवंश Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक राजा इसी प्रकार षड्भाग प्राप्त करते हैं। हमारे आचार्य साधु-साध्वी का संरक्षण करते हुए उनके पुण्य-पाप का आधा-आधा विभाग लेते हैं। इसलिए वे दोनों सुकुमालिका का संरक्षण करते थे । शशक-मशक यादवकुमार थे। उन्होंने तुरुमिणी नगरी में उपद्रवकारी तरुणों को हत-विहत किया, मथित और विप्रारब्ध किया - खर, परुष वचनों से विप्रतारित किया। इसलिए प्रभूत लोग विरोध में हो गए। शशक-मशक को भक्तपान मिलना कठिन हो गया। तब सुकुमालिका ने भाइयों की अनुकंपा के वशीभूत होकर भक्त - प्रत्याख्यान अनशन कर लिया। वह मरणसमुद्घात से आहत हो गई लगता है यह कालगत हो गई, यह सोचकर एक भाई ने उसके भांड उठाए और दूसरे ने सुकुमालिका को उठाया। जाते हुए उसको पुरुषस्पर्श का अनुभव हुआ। रात में ठंडी हवा से वह सचेतन हुई । एक सार्थवाह पुत्र ने उसे देखा। दोनों एक दूसरे में अनुरक्त हो गए। वह उसकी भार्या के रूप हो गई। एक बार भाईयों ने गोचरी के लिए घूमते हुए उसे देखा । वह पुनः प्रव्रजित हो गई। ५२६०. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होति नायव्वो । तासिं कुल पव्वज्जा, भत्तपरिण्णा य भातुम्मि ॥ निर्ग्रन्थ का आलिंगन करने वाली निर्ग्रथी के लिए नियमतः यही विधान है। किसी निर्ग्रन्थी का कुल-भाई प्रव्रजित हुआ। उसने भी कालक्रम से भक्तपरिज्ञा ग्रहण कर ली। ५२६१. विउलकुले पव्वइते, कप्पट्ठग किढियकालकरणं च । जोव्वण तरुणी पेल्लण, भगिणी सारक्खणा वीसुं ॥ ५२६२. सो चेव य पडियरणे, गमतो जुवतिजण वारण परिण्णा । कालगतो त्ति समोहतो, उज्झण गणिया पुरिसवेसी ॥ एक नगर में एक विपुल कुल से दो सगी बहनों ने प्रव्रज्या ग्रहण की। कालान्तर में पूरा कुल प्रक्षीण हो गया । एक बालक बचा। एक बार दोनों आर्यिकाएं अपने परिवार को दर्शन देने वहां आईं। उन्होंने माता आदि समस्त कुटुम्ब के कालकरण के समाचार सुने। तब उन्होंने अपने बालक भाई को प्रव्रज्या देकर गुरु को सौंपा। वह यौवन को प्राप्त हुआ । वह अत्यन्त रूपवान् और आकर्षक था । तरुण युवतियों द्वारा वह सताया जाने लगा। तब गुरु की आज्ञा से दोनों भगिनी आर्यिकाओं ने एक पृथक् उपाश्रय में भाई मुनि को ठहरा कर स्वयं उनकी रक्षा करने लगीं। ५४३ प्रतिचरण (रक्षण) में सुकुमालिकावत् गम जानना चाहिए। युवतिजन का वारण करने में भगिनीद्वय का कष्ट देखकर मुनि भाई ने भक्तपरिज्ञा अनशन कर दिया। उसको समवहत और कालगत जानकर उसका परिष्ठापन कर दिया। उस समय स्त्रीस्पर्श का अनुभव हुआ । पुनः चैतन्य प्राप्त कर लिया। यह देखकर एक पुरुषद्वेषिणी गणिका ने उसे अपने पास रख लिया। वह उसका पति हो गया। कालान्तर में दोनों भगिनी आर्यिकाएं वहां आईं और भाई को पहचान कर पुनः उसे प्रव्रजित कर दिया। कालातिक्कंत-भोयण-पदं नो कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहित्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्तए । से य आहच्च उवाइणाविए सिया, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अण्णेसिं अणुप्पदेज्जा, एगंते बहुफासु थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया । तं अप्पणा भुंजमाणे असिं वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ (सूत्र १२) खेत्तातिवंत-भोयण पदं नो कप्पइ निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परं अद्धजोयणमेराए उवाइणावित्तए । से य आहच्च उवाइणाविए सिया, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अण्णेसिं अणुप्पदेज्जा, एगंते बहुफासुर थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिवेयव्वे सिया । तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं उग्घाइयं ॥ (सूत्र १३) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D ५४४ बृहत्कल्पभाष्यम् ५२६३.भावस्स उ अतियारो, मा होज्ज इती तु पत्थुते सुत्ते। ५२६९.तम्हा उ जहिं गहितं, तहिं भुंजणे वज्जिया भवे दोसा। कालस्स य खेत्तस्स य, दुवे उ सुत्ता अणतियारे॥ एवं सोधि ण विज्जति, गहणे वि य पावती बितियं । भाव अर्थात् ब्रह्मव्रत के परिणाम का अतिचार-अतिक्रम इन संचय आदि की प्रायश्चित्त प्ररूपणा करनी चाहिए। न हो-यह अनन्तर दो सूत्रों में प्रतिपादित है। काल और क्षेत्र भक्तपान को स्थापित करने के दोष, भक्तपान ग्रहण करने के का अतिक्रम न हो, इसके लिए प्रस्तुत दो सूत्र हैं। पश्चात् कार्य करते समय होने वाले दोष तथा परिष्ठापन के ५२६४.बितियाउ पढम पुब्विं, उवातिणे चउगुरुं च आणादी। दोष होते हैं उनका कथन करना चाहिए। जब इतने दोष दोसा संचय संसत्त दीह साणे य गोणे य॥ होते हैं तो जिस पौरुषी में भक्तपान ग्रहण किया है, उसी ५२६५.अगणि गिलाणुच्चारे, अब्भुट्ठाणे य पाहुण णिरोधे। प्रहर में उसका उपयोग कर लेना चाहिए। ऐसा करने पर सज्झाय विणय काइय, पयलंत पलोट्टणे पाणा॥ पूर्वोक्त दोष नहीं होते। शिष्य ने कहा-इस प्रकार शोधि नहीं द्वितीय पौरुषी से प्रथम पौरुषी पूर्व है, प्रथमा से द्वितीया होती, क्योंकि भिक्षा ग्रहण करते-करते दूसरा प्रहर आ पाश्चात्य है। तृतीया से द्वितीया पूर्वा है, द्वितीया से तृतीया जाता है। पाश्चात्य है। चतुर्थी से तृतीया पूर्वा है, तृतीया से चतुर्थी ५२७०.एवं ता जिणकप्पे, गच्छम्मि चउत्थियाए जे दोसा। पाश्चात्य है। प्रथम पौरुषी से द्वितीय पौरुषी में अशन आदि इतरासि किण्ण होती, दव्वे सेसम्मि जतणाए। का अतिक्रमण करने पर चतुर्गुरुक और आज्ञाभंग आदि दोष आचार्य बोले-ऐसा तो जिनकल्पी मुनियों के लिए कहा है होते हैं तथा संचय, प्राणियों से संसक्त, दीर्घजातीय-सांप कि जिस प्रहर में भक्तपान लिया उसी प्रहर में उसे खा लेना आदि तथा कुत्ता तथा गाय आदि उसको खा सकते हैं। अग्नि चाहिए। गच्छवासी मुनियों के लिए तो यह विधान है कि यदि प्रज्वलित हो जाने पर उस भारी पात्र को निकाला नहीं जा वे पहले प्रहर में ग्रहण कर चौथे प्रहर में उपभोग करते हैं तो सकता, वह जल जाता है। ग्लान का वैयावृत्य नहीं होता। उन पूर्वोक्त सभी दोषों को प्राप्त होते हैं। पुनः प्रश्न हुआ कि उच्चार आदि की बाधा होने से उसका विसर्जन नहीं होता क्या दूसरे-तीसरे प्रहर में खाने पर वे दोष नहीं होते ? उससे अनेक रोग होते हैं। गुरु या प्राघूर्णक आने पर आचार्य ने कहा-बचे हुए भक्तपान को यतनापूर्वक धारण अभ्युत्थान नहीं होता। भृतभाजन के धारण करने से करने से दोष नहीं होते। गात्रनिरोध होता है। स्वाध्याय, विनय आदि की प्रस्थापना ५२७१.पडिलाभणा बहुविहा, नहीं होती। कायिकी का व्युत्सर्जन नहीं होता। नींद आने पर पढमाए कदाचि णासिमविणासी। पात्र लुढ़क जाता है। उससे प्लावित पानक आदि से प्राणियों तत्थ विणासिं भुंजेऽजिण्णे का व्यापादन होता है। परिणे य इतरं पि॥ ५२६६.निस्संचया उ समणा, संचयि तु गिहीव होति धारेता। शिष्य ने पूछा-आहार आदि शेष क्यों रह जाता है? संसत्ते अणुवभोगो, दुक्खं च विगिंचिउं होति॥ आचार्य बोले कभी-कभी भक्ष्य-भोज्य द्रव्यों की प्रतिश्रमण निःसंचय होते हैं। इसलिए वे भी यदि प्राप्त कर लाभना बहुत हो जाती है। क्वचिद् प्रथम प्रहर में विनाशी गृहस्थ की भांति धारण करते हैं तो वे भी संचय करने वाले और अविनाशी भोज्य द्रव्य आ जाते हैं। विनाशी द्रव्य दूध हैं। चिरकाल तक संचित रहने से वह भोजन प्राणियों से आदि साधु खा जाते हैं। अजीर्ण आदि होने के कारण तथा संसक्त हो जाता है। उसका उपभोग कल्प्य नहीं होता। प्रत्याख्यात द्रव्य के कारण अथवा अन्य कारण से भी द्रव्य उसकी विगिंचना-परिष्ठापना कष्टकर होती है। शेष रह जाता है। ५२६७.एमेव सेसएसु वि, एगतर विराहणा उभयतो वि। ५२७२.जइ पोरिसित्तया तं, गति तो सेसगाण ण विसज्जे। असमाधि विणयहाणी, तप्पच्चयनिज्जराए य॥ अगमेंताऽजिण्णे वा, धरति तं मत्तगादीसु॥ इसी प्रकार शेष द्वारों की भी यतना जाननी चाहिए। पौरुषियों का प्रत्याख्यान करने वाले मुनि पौरुषी व्यतीत एगतर विराधना भाजन की होती है। उभय अर्थात् आत्मा हो जाने पर सारे द्रव्य का आहार कर लेते हैं तो उस द्रव्य और संयम की विराधना होती है। असमाधि, विनय की हानि को अन्य मुनियों को न दे। यदि वे सारा समाप्त न कर सकें तथा उससे होने वाली निर्जरा की भी हानि होती है। तो अन्य प्रत्याख्यानियों को भी दिया जा सकता है। अजीर्ण ५२६८.पच्छित्तपरूवणता, एतेसि ठवेंतए य जे दोसा। आदि हो जाने पर उस बचे हुए अशन आदि को मात्रक में गहितकरणे य दोसा, दोसा य परिट्ठवेंतस्स॥ स्थापित कर रखा जाता है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४५ चौथा उद्देशक ५२७३.तं काउ कोइ न तरइ, गिलाणमादीण दाउमच्चुण्हे। नाउं व बहुं वियरइ, जहासमाहिं चरिमवज्जं॥ गर्मी के कारण अत्यंत आतप में जाकर ग्लान आदि के लिए उष्ण आहार आदि लाना संभव न हो तो आहार आदि रखा जा सकता है। अथवा यह जानकर कि भिक्षा बहुत आ गई है तो गुरु उसका वितरण कर देते हैं। प्रथम प्रहर में प्राप्त अशन आदि को यथासमाधि दूसरे-तीसरे प्रहर में काम में ले ले। चौथे प्रहर का वर्जन करे। ५२७४.संसज्जिमेसु छुब्भइ, गुलाइ लेवाडे इयरे लोणाई। जं च गमिस्संति पुणो, एसेव य भुत्तसेसे वि॥ स्थापित आहार आदि की यतना-संसक्तियोग्य तथा लेपकृत द्रव्यों में (गोरस आदि द्रव्यों में) गुड़ आदि डाला जाता है, जिससे वे संसक्त न हों। इतर अर्थात् अलेपकृत द्रव्यों में लवण आदि का प्रक्षेप किया जाता है। मुनि थोड़े समय पश्चात् पुनः खायेंगे यह सोचकर-भुक्तशेष बचे हुए के धारण करने की यही विधि है। ५२७५.चोएइ धरिज्जते, जइ दोसा गिण्हमाणि किन्न भवे। उस्सग्ग वीसमंते, उब्भामादी उदिक्खंते॥ यहां शंका होती है कि क्या यदि भुक्तशेष को धारण करने के ये दोष हैं तो क्या भक्तपान ग्रहण करने में ये नहीं हैं ? ये दोष होते ही हैं। कायोत्सर्ग करते समय भी बाहु- परितापन आदि दोष होते हैं तो विश्राम करते समय भी ये ही दोष होते हैं। उद्भ्रामक भिक्षा की प्रतीक्षा करने वाले के भी वे ही दोष होते हैं। ५२७६.एवं अवातदंसी, थूले वि कहं ण पासह अवाये। हंदि हु णिरंतरोऽयं, भरितो लोगो अवायाणं॥ जिज्ञासु कहता है-आप सूक्ष्म अपायों को भी देखते हैं तो फिर स्थूल अपायों (भिक्षाचर्या में होने वालों) को क्यों नहीं देखते? निश्चितरूप से आप देखें कि यह संसार निरंतर अपायों से भरा पड़ा है। ५२७७.भिक्खादि-वियारगते, दोसा पडिणीय-साणमादीया। उप्पज्जंते जम्हा, ण हु लब्भा हिंडिउं तम्हा।। भिक्षाचर्या में तथा विचार आदि भूमी के लिए गए हुए मुनि के प्रत्यनीक, श्वान, गाय आदि से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए वह अधिक घूम नहीं सकता। ५२७८.अहवा आहारादी, ण चेव णिययं हवंति घेत्तव्वा। णेवाऽऽहारेयव्वं, तो दोसा वज्जिया होति॥ अथवा आहार आदि सर्वदा नहीं लेना चाहिए, आहार करना ही नहीं चाहिए, जिससे सारे दोष निवारित हो जाएंगे, अपाय होंगे ही नहीं। ५२७९.भण्णति सज्झमसज्झं, कज्जं सज्झं तु साहए मतिमं । अविसज्झं साधेतो, किलिस्सति ण तं च साधेति॥ कहा जाता है-कार्य के दो प्रकार है-साध्य और असाध्य। मतिमान् व्यक्ति साध्य कार्य को ही सिद्ध करता है। जो असाध्य कार्य को सिद्ध करने का प्रयत्न करता है, वह क्लेश को प्राप्त होता है और कार्य भी सिद्ध नहीं होता। ५२८०.जति एयविप्पहूणा, तव-णियमगुणा भवे निरवसेसा। __ आहारमादियाणं, को नाम कहं पि कुव्वेज्जा। यदि इन आहार आदि के झंझटों से सर्वथा मुक्त हो जाएं और निरवशेषरूप से तप, नियम आदि के गुणों की साधना में लग जाएं तो आहार आदि की कथा ही कौन करेगा? कौन इसके झंझट में फंसेगा? ५२८१.मोक्खपसाहणहेतू, णाणाती तप्पसाहणो देहो। देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो॥ मोक्ष की साधना के हेतु हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र। उनका प्रसाधक है शरीर। देह के लिए आहार किया जाता है। इसलिए उसके ग्रहणकाल और धार्यमाण का काल अनुज्ञात है। ५२८२.काले उ अणुण्णाए, जति वि हु लग्गेज्ज तेहिं दोसेहिं। सुद्धो वुवादिणंतो, लग्गति उ विवज्जए परेणं॥ भक्तपान का धारणकाल अर्थात् दिन के प्रथम तीन प्रहर जो अनुज्ञात है, यदि उस काल में पूर्वोक्त दोष लगते हैं, फिर भी वह शुद्ध है। अनुज्ञात काल का अतिक्रमण करता है वह अविद्यमान दोषों में भी प्रायश्चित्तभाक् होता है। ५२८३.पढमाए गिण्हितूणं, पच्छिमपोरिसि उवादिणति जो उ। ते चेव तत्थ दोसा, बितियाए जे भणिय पुव्विं॥ प्रथम पौरुषी में भक्तपान ग्रहण करके पश्चिम पौरुषी का अतिक्रमण करता है, उसमें भी वे ही दोष होते हैं जो जिनकल्पी मुनि के प्रथम प्रहर में ग्रहण कर द्वितीय पौरुषी का अतिक्रमण करने पर होते हैं। ५२८४.सज्झाय-लेव-सिव्वण-भायणपरिकम्म-सट्टरादीहिं । सहस अणाभोगेण व, उवादियं होज्ज जा चरिमं। स्वाध्याय में लीन होने पर, लेप परिकर्म करते हुए, वस्त्रों को सीते हुए, भाजन का परिकर्म करते हुए, सट्टरआलजाल कथाएं कहते हुए आदि आदि कार्यों में जो अत्यंत व्यग्रता होती है, वह है सहसाकार तथा अत्यंत विस्मृति । इस सहसाकार या अनाभोग-अत्यंत विस्मृति से चरम पौरुषी भी अतिक्रान्त हो जाती है। ५२८५.आहच्चुवाइणाविय, विगिंचण परिण्णऽसंथरंतम्मि। अन्नस्स गेण्हणं भुंजणं च असतीए तस्सेव। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ = बृहत्कल्पभाष्यम् इन कारणों से कदाचित् अतिक्रान्त हो जाती है तो ५२९१.सक्खेत्ते जदा ण लभति, तत्तो दूरे वि कारणे जतति। आहार का परिष्ठापन कर परिज्ञा-दिवस का चरम गिहिणो वि चिंतणमणागतम्मि गच्छे किमंग पुण॥ प्रत्याख्यान कर दे। यदि संस्तरण न होता हो तो भी दूसरे ___ आचार्य आदि के प्रायोग्य द्रव्य की प्राप्ति यदि स्वक्षेत्र में अशन आदि का ग्रहण और भोजन करे। यदि अन्य अशन नहीं होती है तो कारणवश दूर भी जाना पड़ता है। गृहस्थ भी प्राप्त न हो तो उसी का परिभोग करे। अनागत अतिथियों के भक्तपान के लिए चिंता करते हैं तो ५२८६.बिइयपएण गिलाणस्स कारणा अधवुवातिणे ओमे। फिर अनागत गच्छ के मुनियों के लिए चिंता क्यों नहीं अद्धाण पविसमाणो, मज्झे अहवा वि उत्तिण्णो॥ करेंगे? द्वितीयपद (अपवाद) में ग्लान के कारण अथवा दुर्भिक्ष में ५२९२.संघाडेगो ठवणाकुलेसु सेसेसु बाल-वुड्डादी। पर्यटन करते हुए चौथा प्रहर प्राप्त हो जाए अथवा मार्ग में तरुणा बाहिरगामे, पुच्छा दिटुंतऽगारीए॥ प्रवेश करते हुए सार्थ के कारण चौथे प्रहर का अतिक्रमण हो आचार्य के प्रायोग्य लेने के लिए एक संघाटक स्थापना जाए, अथवा मार्ग के मध्य में या मार्ग को पार कर देने के कुलों में जाता है। शेष कुलों में बाल, वृद्ध मुनियों के पश्चात् अतिक्रमण करने या भोजन करने पर भी कोई दोष लिए अनेक संघाटक जाते हैं। तरुणमुनि गांव के बाहर नहीं है। घूमते हैं। शिष्य ने पूछा-क्या आदर से क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा ५२८७.परमद्धजोयणाओ, उज्जाण परेण चउगुरू होति।। कर उसकी रक्षा करते हैं? आचार्य ने कहा यहां अगारी आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए॥ का दृष्टांत है। .. अर्द्धयोजन से आगे अशन आदि ले जाता है तो चतुर्गुरु ५२९३.परिमियभत्तपदाणे, हादवहरति थोवथोवं तु। का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष भी होते हैं। पाहुण वियाल आगत, विसण्ण आसासणा दाणं॥ आत्मा और संयम की विराधना भी होती है। वणिक् परिमित भक्त आदि देता था। उसकी पत्नी घी, ५२८८.भारेण वेदणाए, ण पेहती खाणुमादि अभिघातो। तैल आदि से थोड़ा-थोड़ा बचा लेती थी। कालान्तर में इरिया पगलिय तेणग, भायणभेदो य छक्काया॥ प्रदोषकाल में वणिक् का मित्र अतिथि आ गया। वणिक भार से और वेदना से अभिभूत होकर वह मार्गगत विषण्ण हो गया। पत्नी ने उसे आश्वस्त किया और अतिथि स्थाणु, कांटे आदि नहीं देख पाता, अभिघात भी हो जाता को भोजन करा दिया।' है ईर्या समिति का सम्यक् शोधन नहीं होता, अत्यधिक ५२९४.एवं पीईवड्डी, विवरीयऽण्णेण होइ दिटुंतो। भार के कारण भक्तपान परिगलित होने पर पृथ्वीकाय आदि लोगुत्तरे विसेसा, असंचया जेण समणा तु॥ की विराधना होती है, स्तेन भोजन का अपहरण कर लेते इस प्रकार उस वणिक् की अपने मित्र के साथ प्रीति हैं, पात्र आदि टूट जाते हैं तथा षट्काय की विराधना भी बढ़ी। इसके विपरीत एक अन्य दृष्टांत भी है जिसमें विपरीत होती है। प्रवृत्तियों के कारण मित्र के साथ मैत्री और प्रीति का ह्रास ५२८९.उज्जाण आरएणं, तहियं किं ते ण जायते दोसा।। हुआ। श्रमण असंचयशील होते हैं अतः लोकोत्तरदृष्टि से वे परिहरिया ते होज्जा, जति वि तहिं खेत्तमावज्जे॥ विशेष हैं। उद्यान से पहले ग्राम से भक्तपान लाने पर क्या वे दोष ५२९५.जणलावो परगामे, हिंडित्ताऽऽणेति वसहि इह गामे। नहीं होते? वे दोष तीर्थंकर के वचन के प्रामाण्य से परिहृत देज्जह बालादीणं, कारणजाते य सुलभं तु॥ हो जाते हैं। अनुज्ञात क्षेत्र में वे दोष प्राप्त होते हैं। जनता में यह प्रवाद होने लगा कि ये मुनि परग्राम में ५२९०.एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो इमो तु जिणकप्पे। गोचरी के लिए घूमते हैं और सारी भिक्षा यहां ले आते हैं। गच्छम्मि अद्धजोयण, केसिंची कारणे तं पि॥ इस ग्राम में तो केवल रहते हैं, उनकी वसति यहां है। तब पुनः प्रश्न होता है-इस प्रकार सूत्र अफल हो जायेगा। उस ग्राम के लोग कहते हैं ये बालमुनि भी भिक्षा के लिए यह सूत्रार्थ निपात जिनकल्पी मुनियों के लिए है। गच्छवासी घूमते हैं, इन्हें भिक्षा दो। इस प्रकार के सोच से कारणमनियों के लिए आधायोजन का नियम है। एक मत के प्रयोजन होने पर भिक्षा सुलभ हो जाती है। अनुसार कारण में आचार्य, बाल, वृद्ध आदि के लिए वही ५२९६.पाहुणविसेसदाणे, णिज्जर कित्ती य इहर विवरीयं। आधा योजन निर्णीत है। पुव्विं चमढणसिग्गा, न देंति संतं पि कज्जेसु॥ १. पूरे कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १३०। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक प्राघूर्णक को आदरपूर्वक भक्तपान देने से निर्जरा तथा कीर्ति होती है, अन्यथा ये नहीं होते। यह जानते हुए भी लोग दान नहीं देते, क्योंकि प्रतिदिन साधुओं के भिक्षा के लिए आगमन से वे कुल परिश्रान्त हुए रहते हैं अतः प्रयोजन होने पर भी तथा विद्यमान द्रव्यों को भी वे साधुओं को नहीं देते। ५२९७. बोरीह य दितो, मच्छे वायामो तहिं च पतिरिक्कं । केइ पुण तत्थ भुंजण, आणेमाणे भणिय दोसा ॥ बहिग्रम में भिक्षाटन करने पर प्रचुर प्रायोग्य द्रव्य प्राप्त हो सकते हैं, यहां बदरी का दृष्टांत है । गच्छ की यह सामाचारी है कि तरुण मुनि को भिक्षाचर्या के लिए बहिग्रम में जाना चाहिए उससे व्यायाम होता है, एकान्त प्राप्त होता है। कुछेक आचार्यों का यह अभिमत है कि बहिर्ग्राम में ही भोजन कर लेना चाहिए। गोचरी को ठिकाने पर लाने में जो दोष बताए गए हैं, वहां भोजन करने पर परिहृत हो जाते हैं। ५२९८. गामभासे बदरी, नीसंदकडुप्फला व खुज्जा य पक्काऽऽमाऽलस चेडा, खायंतियरे गता दूरं ॥ ५२९९. सिग्यतरं ते आता, तेसिऽण्णेसिं च दिंति सयमेव । खायंति एवं इहई, आय परसुहावहा तरुणा ॥ किसी गांव के निकट बदरी का वृक्ष था । वह वृक्ष गांव के निस्यंदपानी से संवर्धित होने के कारण कड़वे फल वाला हो गया। वह वृक्ष कुब्ज था। उस पर कोई भी सहजतया चढ़उतर सकता था। उस पर कुछेक फल पके हुए और कुछेक कच्चे थे। कुछ बालक निकटवर्ती उस बदरीवृक्ष के फलों को खाते और कुछ बालक दूरवर्ती मीठे फलवाले बदरी के फल खाते। वे शीघ्र ही वहां से गठरियों में बदरी फल बांध कर ले आते। वे स्वयं उन फलों को खाते और दूसरों को भी खिलाते थे। इसी प्रकार तरुण मुनि स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए सुखावह होते हैं। ५३००, खीर दहीमादीण य, लंभो सिग्घतर पढम पहरिके । उग्गमदोसा विजढा, भवंति अणुकंपिया चितरे ॥ वे तरुण मुनि बहिर्ग्राम में भिक्षाचर्या कर प्रचुर भक्त पान लेकर शीघ्र ही आ जाते हैं और सबको प्रथमालिका कराकर स्वयं भी खा लेते हैं। इससे उद्गम आदि दोष परिहृत हो जाते हैं और दूसरे भी अनुकंपित होते हैं। ५३०१. एवं उग्गमदोसा, विजढा पइरिक्कया अणोमाणं । मोहतिगिच्छा य कता, विरियायारो य अणुचिण्णो ॥ इस प्रकार बहिर्ग्राम में भिक्षाचर्या के लिए जाने पर - ५४७ उद्गमदोष परित्यक्त हो जाते हैं। 'पइरिक्कय' प्रचुर भक्तपान का लाभ होता है। अपमान नहीं होता। मोह चिकित्सा कर ली जाती है। वीर्याचार का परिपालन होता है। ५३०२. उज्जाणतो परेणं, उवातिणंतम्मि पुव्व जे भणिता । भारादीया दोसा ते च्चेव इहं तु सविसेसा ॥ उद्यान से आगे जाकर भिक्षा लाने में पूर्वोक्त भार आदि दोष कहे गए हैं वे यहां विशेषरूप से होते हैं। ५३०३. तम्हा तु ण गंतव्वं, तहिं भोत्तव्वं ण वा वि भोत्तव्वं । इइरा भे ते दोसा, इति उदिते चोदमं भणति । इसलिए भक्तपान लेकर नहीं जाना चाहिए, वहीं भोजन कर लेना चाहिए। मतान्तर से कहा जाता है-बहिग्रम में भक्तपान नहीं करना चाहिए। तो वे ही भार, वेदना आदि दोष प्राप्त होते हैं। ऐसा कहने पर आचार्य उसे कहते हैं-यदि वहां भोजन कर लेते हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। इससे आचार्य आदि परित्यक्त हो जाते हैं। उन्हें प्रायोग्य आहार प्राप्त नहीं होता । ५३०४. जइ एयविप्पहूणा, तव-नियमगुणा भवे णिरवसेसा । आहारमाइयाणं, को नाम कहं पि कुव्वेज्जा ॥ यदि आचार्य के बिना भी तप-नियमगुण निरवशेषरूप से होते हों तो प्रायोग्य आहार आदि की अन्वेषणा की बात ही कौन करेगा? कोई नहीं। ५३०५. जति ताव लोइय गुरुस्स लहुओ सागारिओ पुढविमादी । आणयणे परिहरिया, पढमा आपुच्छ जतणाए । लोक में जो गुरु अर्थात् पिता, ज्येष्ठ भाई, कुटुंब के धारक हैं, उनके भोजन किए बिना कोई कुटुम्बी भोजन नहीं करता तो लोकोत्तर गुरु के भोजन किए बिना कौन शिष्य खाना चाहेगा? यदि खाता है तो मासलघु का प्रायश्चित्त है। वसति के अभाव में बहिर्गाम में भोजन करने पर, यदि गृहस्थ देखता है तो चतुर्लघु, अस्थंडिल में जाने पर पृथिवी आदि की विराधना होती है। भिक्षा को गुरु के समक्ष लाने पर ये सभी दोष परित्यक्त हो जाते हैं। अपवादपद में प्रथमालिका का गुरु की आज्ञा से यतनापूर्वक की जा सकती है। ५३०६. चोदगवयणं अप्पाऽणुकंपिओ ते य भे परिच्चत्ता । आयरिए अणुकंपा, परलोए इह पसंसणया । प्रेरक कहता है-अहिग्राम से गोचरी कर आचार्य के पास लानी चाहिए, इस प्रस्थापना से आपने अपनी आत्मा की अनुकंपा की है। गोचरी लाने वाले साधु परित्यक्त हो जाते हैं। गुरु ने कहा- वे आचार्य की वैयावृत्य में नियुक्त हैं। यह उनकी पारलौकिक अनुकंपा है, इहलोक में भी उनकी प्रशंसा होती है। . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ५३०७.एवं पि परिच्चत्ता, काले खमए य असहुपुरिसे य। कालो गिम्हो उ भवे, खमओ वा पढम-बितिएहिं॥ प्रेरक कहता है-इस प्रकार भी वे शिष्य परित्यक्त हो जाते हैं, क्योंकि वे बेचारे भूखे-प्यासे मार्ग में भार लेकर आते हैं और आप यहां आराम से बैठे हैं। आचार्य ने कहाउन शिष्यों के काल (समय) को जानकर, तपस्या को तथा उनकी असहिष्णुता को देखकर प्रथमालिका करने की अनुमति दी है। काल ग्रीष्म ऋतु हो सकता है, तपस्या हो सकती है तथा पहले-दूसरे परीषह की असहिष्णुता हो सकती है। ५३०८.जइ एवं संसट्टे, अप्पत्ते दोसियाइणं गहणं। लंबण भिक्खा दुविहा, जहण्णमुक्कोस तिय पणए॥ यदि इस प्रकार प्रथमालिका करते हैं तो सारा भक्त संसृष्ट हो जाता है। संसृष्ट भक्त गुरु आदि को देने से अभक्ति होती है। देश-काल के अप्राप्त होने पर दोषान्न-वासी भोजन ग्रहण करते हैं और वही प्रथमालिका में काम आता है। प्रथमालिका का प्रमाण दो प्रकार से होता है-कवल से और भिक्षा से। जघन्यतः तीन कवल और तीन भिक्षा तथा उत्कृष्टतः पांच कवल और पांच भिक्षा। शेष सारा मध्यम प्रमाण है। ५३०९.एगत्थ होइ भत्तं, बितियम्मि पडिग्गहे दवं होति। . गुरुमादीपाउग्गं, मत्तए बितिए य संसत्तं॥ दो साधुओं के दो पात्र और दो मात्रक होते हैं। एक पात्र में भक्त और दूसरे में पानक। एक मात्रक में आचार्य के प्रायोग्य और दूसरे मात्रक में संसक्त भक्त या पानक। ५३१०.जति रिक्को तो दवमत्तगम्मि पढमालियाए गहणं तु। ___ संसत्त गहण दवदुल्लभे य तत्थेव जं पंतं॥ यदि द्रवमात्रक रिक्त हो तो उसमें प्रथमालिका ग्रहण करनी चाहिए। अथवा उस द्रवमात्रक में संसक्त द्रव लेना चाहिए। उस क्षेत्र में यदि द्रव दुर्लभ हो तो उसी भक्तपात्र में जो प्रान्त भक्त हो उसे एक ओर कर देना चाहिए। ५३११.बिइयपदं तत्थेवा, सेसं अहवा वि होइ सव्वं पि। तम्हा गंतव्वं आणणं, व जति वि पुट्ठो तह वि सुद्धो। अपवादपद यह है-अत्यंत भूख लगी हो तो वहीं अपना संविभाग खा ले। शेष सारा ले आए। अथवा वहीं स्वयं का तथा पर का संविभाग खा ले। इसलिए विधिपूर्वक जाए, विधिपूर्वक लाए और विधिपूर्वक ही वहां भोजन करे। विधिपूर्वक करते हुए भी यदि दोषों से स्पृष्ट हो तो भी वह शुद्ध है। बृहत्कल्पभाष्यम् ५३१२.अंतरपल्लीगहितं, पढमागहियं व भुंजए सव्वं । संखडि धुवलंभे वा, जं गहियं दोसिणं वा वि॥ अन्तरपल्लि (वह वसति जो मूल गांव से ढ़ाई कोस दूर हो) में गृहीत अथवा प्रथम पौरुषी में गृहीत वह सारा खाले। यदि यह निश्चित रूप से ज्ञात हो कि संखड़ी में मिलेगा तो जो पहले लिया हुआ हो अथवा वासी भोजन लिया हो, वह सारा खाले। ५३१३.दरहिंडिएव भाणं, भरियं भुत्तुं पुणो वि हिंडिज्जा। कालो वाऽतिक्कमई, भुंजेज्जा अंतरा सव्वं॥ अथवा कुछ घूमने पर ही पात्र भक्त से भर गया। उसमें से पर्यास खाकर पुनः भिक्षा के लिए घूमे। अथवा आचार्य के पास आते-आते काल अतिक्रान्त हो जाने की आशंका हो तो बीच में ही सारा खाले। ५३१४.परमद्धजोयणातो, उज्जाण परेण जे भणिय दोसा। आहच्चुवातिणाविए ते चेवुस्सग्ग-अववाता॥ यदि आधे योजन के आगे से आ रहा हो तो जो उद्यान के आगे के अतिक्रमण के जो दोष हैं वे ही दोष प्राप्त होते हैं। यदि अजानकारी से काल अतिक्रान्त हो जाए तो वे ही उत्सर्ग और अपवाद जानने चाहिए। उत्सर्गतः नहीं खाना चाहिए, अपवादतः खा लेना चाहिए। अणेसणिज्ज-पाण-भोयण-पदं निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्वेणं अण्णतरे अचित्ते अणेसणिज्जे पाण-भोयणे पडिग्गाहिए सिया, अत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, कप्पइ से तस्स दाउं अणुप्पदाउं वा। नत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवठ्ठावियए, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अण्णेसिं दावए एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्टवेयव्वे सिया॥ (सूत्र १४) ५३१५.आहार एव पगतो, तस्स उ गहणम्मि वणिया सोही। आहच्च पुण असुद्धे, अचित्त गहिए इमं सुत्तं॥ पूर्वसूत्र में आहार का ही अधिकार था। उसमें आहार के ग्रहण संबंधी शोधि बताई थी। कदाचित् अशुद्ध अचित्त Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक = ५४९ आहार ग्रहण कर लिए जाने पर क्या विधि है? प्रस्तुत सूत्र इसी विषय का है। ५३१६.अहवण सचित्तदव्वं, पडिसिद्धं दव्वमादिपडिसेहे। इह पुण अचित्तदव्वं, वारेति अणेसियं जोगो॥ अथवा पूर्वतरसूत्रों में द्रव्य आदि के प्रतिषेध में सचित्त द्रव्य का प्रतिषेध किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में अनेषणीय अचित्तद्रव्य का वारण किया गया है। यह योग-संबंध है। ५३१७.अन्नतरऽणेसणिज्ज आउट्टिय गिण्हणे तु जं जत्थ। अणभोग गहित जतणा, अजतण दोसा इमे होति॥ उद्गम, उत्पादन आदि किसी एक प्रकार के दोष से अनेषणीय आहार को कोई मुनि आकुट्टिका-'मैं स्वयं खाऊंगा तथा शैक्ष को दूंगा'-इस भावना से ग्रहण करता है तो उसे उस दोष का प्रायश्चित्त आता है जिस दोष से वह आहार दुष्ट है। अनाभोग से अनेषणीय आहार लेने पर उसे यतनापूर्वक शैक्ष को देना चाहिए। अयतना के ये दोष हैं५३१८.मा सव्वमेयं मम देहमन्नं, उक्कोसएणं व अलाहि मज्झं। किं वा ममं दिज्जति सव्वमेयं, इच्चेव वुत्तो तु भणाति कोई॥ शैक्ष कहता है-सारा भक्त मुझे न दें। यह उत्कृष्ट है इसलिए मुझे दे रहे हैं, उत्कृष्ट भक्त से मुझे क्या? यह सारा मुझे ही क्यों दे रहे हैं। शैक्ष के यह कहने पर कोई दूसरा कहता है५३१९.एतं तुब्भं अम्हं, न कप्पति चउगुरुं च आणादी। संका व आभिओग्गे, एगेण व इच्छियं होज्जा॥ यह तुमको कल्पता है, हमें नहीं कल्पता। ऐसा कहने वाले के चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। शैक्ष को आभियोग (कार्मण) विषयक शंका होती है। एक किसी को वह ईप्सित भी हो सकता है। ५३२०.कम्मोदय गेलन्ने, दट्टण गतो करेज्ज उड्डाह। ____ एगस्स वा वि दिण्णे, गिलाण वमिऊण उड्डाहो॥ किसी शैक्ष को कर्मोदय से ग्लानत्व हो गया। वह सोचता है, किसी ने आभियोग कराया है। यह देखकर-सोचकर वह गृहवास में चला जाता है और उड्डाह भी करता है। एक के ऐसा होने पर दूसरा भी व्रतों को छोड़कर उड्डाह करता है। ५३२१.मा पडिगच्छति दिण्णं, से कम्मण तेण एस आगल्लो। जाव ण दिज्जति अम्ह वि, __ ह णु दाणि पलामि ता तुरियं। यह व्रतों को छोड़कर प्रतिगमन न कर दे, यह सोचकर इसको कार्मण दिया है। इसलिए यह आगल्ल-ग्लान हुआ है। ये मुझे भी कार्मण न दे दें उससे पहले ही मैं भी शीघ्र ही पलायन कर जाऊंगा। ५३२२.भत्तेण मे ण कज्ज, कल्लं भिक्खं गतो व भोक्खामि। अण्णं व देह मज्झं, इय अजते उज्झिणिगदोसा॥ अथवा कोई यह भी कहता है कि मुझे इस भक्त से क्या प्रयोजन। कल या भिक्षा से लाकर भोजन कर लूंगा। मुझे दूसरा भोजन दें। इस प्रकार अयतनापूर्वक दिए जाने पर परिष्ठापनिका का दोष होता है। ५३२३.ह णु ताव असंदेहं, एस मओ हं तु ताव जीवामि। वग्घा हु चरंति इमे, मिगचम्मगसंवुता पावा॥ 'ह' खेद है, 'णु'-वितर्कणा करता है। यह मर गया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। मैं तो अभी जीवित हूं। ये पापीदुष्ट श्रमण मृगचर्म से संवृत होकर व्याघ्र की भांति विहरण कर रहे हैं। जब तक ये मुझे मार न डाले, उससे पूर्व ही मैं यहां से चला जाऊं। इस प्रकार एक के ग्लान होने पर दूसरा शैक्ष सोचता है। ५३२४.अभिओगपरज्झस्स हु,को धम्मो किं व तेण णियमेणं। अहियक्करगाहीण व, अभिजोएंताण को धम्मो॥ वह शैक्ष सोचता है-आभियोग-कार्मण के प्रयोग से मैं इनके वशीभूत हूं। मेरे कौन सा धर्म है? उन नियमों से मुझे क्या? अधिक करग्रहण करने वालों की भांति इन मुनियों का, जो अभियोग का प्रयोग करते हैं, कौन सा धर्म है? इस प्रकार सोचकर वह शैक्ष गृहवास की ओर पलायन कर जाता है। ५३२५.किच्छाहि जीवितो हं, जति मरिउं इच्छसी तहिं वच्च। एस तु भणामि भाउग!, विसकुंभा ते महुपिहाणा॥ वह शैक्ष कहता है-मैं इन साधुओं के पास बहुत दुःख से जी रहा हूं। यदि तू मरना चाहता है तो इन साधुओं के पास जा। भाई! मैं यह बात तुझे बता रहा हूं कि वे मुनि विष से भरे हुए घड़े हैं, उन घड़ों पर मधु का ढक्कन है। दूसरे शब्दों में मधु के ढक्कन से ढंके हुए वे विषकुंभ हैं। ५३२६.वातादीणं खोभे, जहण्णकालुत्थिए विसाऽऽसंका। अवि जुज्जति अन्नविसे, णेव य संकाविसे किरिया।। मुनियों द्वारा आहारदान के पश्चात् शैक्ष में वायु आदि क्षुब्ध हो जाने पर, तत्काल उत्थित उस पीड़ा के कारण वह यह आशंका करता है कि इन मुनियों ने मुझे विष दे डाला है। इस चिंतन से शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाती है। क्योंकि अन्य सभी विषयों के लिए मंत्र आदि क्रियाएं हैं, किन्तु शंका के विषय की कोई चिकित्सा नहीं है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ५३२७. केइ पुण साहियव्वं, अस्समणो हं ति पडिगमो होज्ज दायव्वं जतणाए, णाए अणुलोमणाऽऽउट्टी ॥ कुछेक आचार्य कहते हैं उस शैक्ष को यह स्पष्टरूप से कहना चाहिए कि यह आहार तुम्हें कल्पता है, हमें नहीं । यह सुनकर वह मन ही मन सोचता है - यह श्रमणों को कल्पनीय नहीं है, मुझ अश्रमण को कल्पनीय है। मैं तो अश्रमण हूं। वह प्रतिगमन कर देता है। अतः उसे यतनापूर्वक आहार देना चाहिए। यदि ज्ञात हो जाए तो उसे अनुलोम वचनों से प्रज्ञापना करनी चाहिए जिससे उसे आवृत्ति समाधान मिल जाए। ५३२८. अभिनवधम्मो सि अभावितो सि तब चेवऽद्वा महितं ५३२९. कप्पो च्चिय सेहाणं, बालो व तं सि अणुकंपो । भुंजिज्जा तो परं छंदा । पुच्छसु अण्णे वि एस ह जिणाणा । सामाइयकप्पठिती, एसा सुत्तं चिमं बेंति ॥ प्रज्ञापना की विधि यह है तुम अभिनवधर्मा हो- अभी प्रव्रजित हुए हो, अभावित हो - भिक्षा के भोजन से अपरिचित हो, बालक हो, अनुकंप्य हो, देखो, तुम्हारे लिए ही यह भक्तपान गृहीत है, आगे से तुम स्वच्छंद रूप से भोजन करना। यह शैक्ष मुनियों का कल्प है कि उनको अनेषणीय भी कल्पता है अन्य गीतार्थं मुनियों को भी पूछ लो यह जिनाज्ञा है। यह सामायिक कल्प की स्थिति है। यह सूत्र भी यही कहता है। ५३३०. परतित्थियपूयातो, पासिय विविहातो संखडीतो य विप्परिणमेज्ज सेधो, कक्खडचरियापरिस्संतो ॥ किसी क्षेत्र में परतीर्थिकों की पूजा तथा विविध प्रकार की संखड़ियों को देखकर कोई शैक्ष निर्ग्रन्थ मुनियों की कर्कश चर्या से परिश्रान्त होकर विपरिणत हो जाता है। देतो, लग्गइ सद्वाणपच्छित्ते ॥ ५३३१. नाऊण तस्स भावं, कप्पति जतणाए ताहे दाउं जे। संथरमाणे उस शैक्ष के भावों को जानकर यतनापूर्वक एषणीय के अभाव में अनेषणीय भक्त भी देना कल्पता है। यदि उसे न चाहते हुए भी दिया जाता है तो स्वस्थानप्रायश्चित्त प्राप्त होता है- जिस दोष से वह अशुद्ध है, तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। ५३३२. सेहस्स व संबंधी, तारिसमिच्छंते वारणा णत्थि । कक्खडे व महिडीए, बितियं अद्धाणमादीसु ॥ बृहत्कल्पभाष्यम् शैक्ष के कोई संबंधी- स्वजन व्यक्ति उत्कृष्ट भक्तपान लाकर दे और वह भोजन करना चाहे तो उसका निषेध नहीं है । कक्खड - कर्कश अर्थात् अवमौदर्य की स्थिति में जो महर्द्धिक प्रब्रजित हुआ है, उसको प्रायोग्य अनेषणीय भक्तपान दिया जा सकता है। अध्वा आदि अपवाद पद होता है, स्वयं भी अनेषणीय लेते भी शुद्ध हैं । ५३३३. नीया व केई तु विस्वस्वं हुए आज्ज भत्तं अणुवट्ठियस्सा | स चावि पुच्छेज्ज जता तु थेरे, तदा ण वारेंति णं मा गुरुगा ॥ शैक्ष के कुछेक निजी व्यक्ति अनुपस्थित शैक्ष के लिए अनेक प्रकार का भक्तपान लाते हैं। यदि वह स्थविर अर्थात् आचार्य को पूछे कि मैं वह भक्तपान ग्रहण करूं या नहीं, तब गुरु शैक्ष को वर्जना नहीं करते, क्योंकि वर्जना करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ५३३४. लोलुग सिणेहतो वा, अण्णहभावो व तस्स वा तेसिं गिves तुभे वि बहु, पुरिमड्डी णिव्विगतिगा मो ॥ ५३३५. मंदक्खेण ण इच्छति, तुब्भे से देह बेह णं तुब्भे । किं वा वारेमु वयं, गिण्हतु छदेण तो बिंति ॥ वह शैक्ष लोलुपतावश या संज्ञातकों के स्नेह से भक्त लेना चाहे और गुरु उसका निषेध करें तो संज्ञातकों का तथा स्वयं शैक्ष का विपरिणमन हो सकता है। संज्ञातक यदि अन्य मुनियों को निमंत्रित कर कहे भक्त प्रचुरमात्रा में है, आप भी लें। तब उन्हें कहे हमें पुरिमड्ड का प्रत्याख्यान है या आज हम निर्विकृतिक हैं। तब संज्ञातक यह कहें कि यह शैक्ष मंदाक्ष है लज्जालु हैं। यह ग्रहण करना नहीं चाहता। इसलिए आप ग्रहण कर उसे दें या उसको कहें कि वह ग्रहण करे। तब मुनि कहते हैं-हम उसको लेने का निषेध कहां कर रहे हैं? वह अपनी इच्छा से जितना चाहे उतना ग्रहण करे। ५३३६. वीसुं वोमे घेतुं, दिंति व से संथरे व उज्झति । भावेंता विड्ढिमतो, दलंति जा भावितोऽणेसिं ॥ अवम अर्थात् दुर्भिक्ष के समय अनेषणीय को पृथक् पात्र में ग्रहण कर उसे शैक्ष को दे और उसके पर्याप्त हो जाने पर शेष बचे हुए की परिष्ठापना कर दे। मुनि प्रव्रजित ऋद्धिमान् व्यक्ति को भैक्ष- भोजन की भावना से भावित करने का प्रयास करते हैं और जब तक वह भावित नहीं होता तब तक अन्यान्य दोषयुक्त प्रायोग्य भोजन उसे लाकर देते हैं। ५३३७. तित्यविवडीय पभावणा व ओभावणा कुलिंगीणं । एमादी तत्थ गुणा, अकुव्वतो भारिया चतुरो ॥ ऋद्धिमान के प्रव्रजित होने पर ये गुण होते हैं तीर्थ की Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५१ चौथा उद्देशक वृद्धि और प्रभावना होती है। कुलिंगियों की अपभ्राजना होती है। उनकी (महर्द्धिक व्यक्तियों की) अनुवर्तना न करने पर चार भारिकमास (गुरुमास) का प्रायश्चित्त आता है। ५३३८.अद्धाणाऽसिव ओमे, रायडुवे असंथरेता उ। सयमवि य भुंजमाणा, विसुद्धभावा अपच्छित्ता॥ अध्वा, अशिव, अवम, राजद्विष्ट, असंस्तरण में विशुद्धभाव से स्वयं भी अनेषणीय भोजन करने पर प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता। कप्पट्ठिय-अकप्पट्ठिय-पदं जे कडे कप्पट्ठियाणं कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं, नो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं। जे कडे अकप्पट्ठियाणं नो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं। कप्पे ठिया कप्पट्ठिया, अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया॥ (सूत्र १५) घर में नए शालि प्रचुर मात्रा में आए। श्रावक शालि, घृत, गुड़, गोरस तथा वल्लीफलों के होने पर पुण्यार्थ आधाकर्म कर साधुओं को ग्रहण करने का निमंत्रण देता है। ५३४२.आहा अहे य कम्मे, आताहम्मे य अत्तकम्मे य। तं पुण आहाकम्म, णायव्वं कप्पते कस्स। आधाकर्म के ये एकार्थक पद हैं-आधाकर्म, अधःकर्म, आत्मघ्न, आत्मकर्म। आधाकर्म किसको कल्पता है, यह जानना चाहिए। ५३४३.संघस्स पुरिम-पच्छिम मज्झिमसमणाण चेव समणीणं। चउण्ह उवस्सयाणं, कायव्वा मग्गणा होति॥ आधाकर्मकारी या तो सामान्य संघ को उद्दिष्ट करता है अथवा पूर्व, पश्चिम या मध्यम संघ को विशेषरूप उद्दिष्ट करता है, श्रमणों का या श्रमणियों का ओघतः प्रणिधान करता है। इसी प्रकार सामान्य या विशेषरूप से चारों प्रकार के उपाश्रयों की मार्गणा करनी होती है। चार प्रकार के उपाश्रय १. पंचयामिक श्रमणों का उपाश्रय २. पंचयामिक श्रमणियों का उपाश्रय ३. चतुर्यामिक श्रमणों का उपाश्रय ४. चतुर्यामिक श्रमणीयों का उपाश्रय। ५३४४.संघं समुद्दिसित्ता,पढमो बितिओ य समण-समणीओ। ततिओ उवस्सए खलु, चउत्थओ एगपुरिसस्स। एक दानश्राद्ध संघ को उद्दिष्ट कर आधाकर्म करता है, दूसरा श्रमण-श्रमणियों को उद्दिष्ट कर करता है, तीसरा उपाश्रयों को उद्दिष्ट कर करता है और चौथा एक पुरुष को उद्दिष्ट कर करता है। ५३४५.जति सव्वं उद्दिसिउं, संघं कारेति दोण्ह वि ण कप्पे। अहवा सव्वे समणा, समणी वा तत्थ वि तहेव॥ यदि ऋषभस्वामी का तीर्थ और अजितस्वामी का तीर्थ या पार्श्व का तीर्थ और महावीर का तीर्थ एकत्र मिला हुआ है और यदि सामान्य रूप से समस्त संघ को उद्दिष्ट कर कोई आधाकर्म करता है तो दोनों संघों-पंचयामिक और चतुर्यामिक को नहीं कल्पता। इसी प्रकार यदि सभी श्रमणों और श्रमणियों को उद्दिष्ट किया है तो दोनों को नहीं कल्पता। ५३४६.जइ पुण पुरिमं संघ, उद्दिसती मज्झिमस्स तो कप्पे। मज्झिमउद्दिद्वे पुण, दोण्हं पि अकप्पितं होति॥ यदि पूर्व संघ को समुद्दिष्ट करता है तो मध्यम संघ ५३३९.सुत्तेणेव उ जोगो, मिस्सियभावस्स पन्नवणहेउं। अक्खेव णिण्णओ वा, जम्हा तु ठिओ अकप्पम्मि॥ सूत्र से ही योग-संबंध किया गया है। मिश्रितभाववाले शैक्ष की प्रज्ञापना के लिए प्रस्तुत सूत्र का प्रारंभ किया जाता है। अथवा इसमें आक्षेप का निर्णय है। क्योंकि यह शैक्ष अकल्प अर्थात् सामायिकसंयमकल्प में स्थित है अतः उसे अनेषणीय भी कल्पता है। ५३४०.कप्पठिइपरूवणता, पंचेव महव्वया चउज्जामा। कप्पट्ठियाण पणगं, अकप्प चउजाम सेहे य॥ सबसे पहले कल्पस्थिति की प्ररूपणा करनी चाहिए। पांच महाव्रत-रूप कल्पस्थिति प्रथम और चरम तीर्थंकर के मुनियों की तथा चतुर्यामरूप कल्पस्थिति शेष बावीस तीर्थंकरों के मुनियों की यह दो प्रकार की कल्पस्थिति है। जो कल्पस्थित हैं, उनके पांच महाव्रत होते हैं और जो अकल्पस्थित हैं, उनके चतुर्याम होते हैं। पूर्व-पश्चिम तीर्थंकरों का शैक्ष सामायिक संयम के कारण चातुर्यामिक और अकल्पस्थित होता है। जब वह उपस्थापित हो जाता है तब वह कल्पस्थित हो जाता है। ५३४१.साली घय गुल गोरस, णवेसु वल्लीफलेसु जातेसु। पुण्णट्ठ करण सहा, आहाकम्मे णिमंतणता॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ = =बृहत्कल्पभाष्यम् (अजितस्वामी) को कल्पता है। यदि मध्यम संघ को समुद्दिष्ट करता है तो दोनों के लिए अकल्पिक होता है। ५३४७.एमेव समणवग्गे, समणीवग्गे य पुव्वमुद्दिद्वे। मज्झिमगाणं कप्पे, तेसि कडं दोण्ह वि ण कप्पे॥ इसी प्रकार पूर्व के श्रमण श्रमणीवर्ग को उद्दिष्ट कर किया है वह मध्यम श्रमण श्रमणी वर्ग को कल्पता है। यदि मध्यम को उद्दिष्ट कर किया है तो दोनों को-पूर्व-मध्यम को नहीं कल्पता। ५३४८.पुरिमाणं एक्कस्स वि, कयं तु सव्वेसि पुरिम-चरिमाणं। वि कप्पे ठवणामेत्तगं तु गहणं तहिं नत्थि॥ पूर्व के एक के लिए भी उद्दिष्ट दोनों को नहीं कल्पता। इसी प्रकार पश्चिम के भी एक के लिए उद्दिष्ट दोनों को नहीं कल्पता। यह तो केवल स्थापना मात्र है-प्ररूपणामात्र है। पूर्व-पश्चिम साधुओं का एकत्र समवाय असंभव है। परस्पर ग्रहण घटित ही नहीं होता। ५३४९.एवमुवस्सय पुरिमे, उहिट्ठ ण तं तु पच्छिमा भुंजे। मज्झिम-तव्वज्जाणं, कप्पे उद्दिट्ठसम पुव्वा॥ इसी प्रकार सामान्य रूप से उपाश्रयों को उद्दिष्ट कर आधाकर्म करता है तो सभी के लिए अकल्प्य होता है। अथवा कोई आद्य तीर्थंकर साधुओं के उपाश्रय को उद्दिष्ट कर करता है तो पश्चिमवर्ती साधुओं को वह नहीं कल्पता। वे उसका उपभोग नहीं करते। वह मध्यम उपाश्रय के जितने मुनियों को उद्दिष्ट कर करता है, उनका वर्जन कर शेष श्रमणों और श्रमणियों को वह कल्पता है। पूर्व अर्थात् ऋषभ के साधु उद्दिष्टसम होते हैं, जिस साधु को उद्दिष्ट कर किया है, उसके तुल्य होते हैं। एक को उद्दिष्ट कर किया हुआ सबके लिए अकल्पनीय होता है। ५३५०.सव्वे समणा समणी, मज्झिमगा चेव पच्छिमा चेव। मज्झिमग समण-समणी, पच्छिमगा समण-समणीतो॥ यदि सभी श्रमण और श्रमणियों को उद्दिष्ट कर किया है तो सबके लिए अकल्प्य है। यदि मध्यम श्रमण और श्रमणियों को उद्दिष्ट किया है तो मध्यम तथा पश्चिम सभी के लिए अकल्प है। यदि पश्चिम के लिए ही किया है तो उनके लिए अकल्प है, मध्यमों के लिए कल्प्य है। पश्चिम श्रमणों के लिए उद्दिष्ट पश्चिम साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता। मध्यम के दोनों के लिए कल्प्य है। इसी प्रकार पश्चिम श्रमणियों के लिए उद्दिष्ट के लिए वक्तव्य है। १.कयोक-वेषपरिवर्तनकारी नटविशेषः। (वृ. पृ. १४२१) ५३५१.उवस्सग गणिय-विभाइय, उज्जुग-जड्डा य वंक-जड्डा य। मज्झिमग उज्जु-पण्णा, पेच्छा सण्णायगाऽऽगमणं ।। उपाश्रयों में साधुओं को गिनकर-पांच-दस आदि या विभाजित करता है-अमुक-अमुक का निर्धारण कर उद्दिष्ट करता है। मुनि तीन प्रकार के होते हैं-ऋजुजड़, वक्रजड़ और ऋजुप्राज्ञ। प्रथम तीर्थंकर के मुनि ऋजुजड़, अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ और मध्य तीर्थंकरों के मुनि ऋजुप्राज्ञ होते हैं। इन तीनों प्रकार के साधुओं के लिए सज्ञातककुल में आने पर उद्गमादि दोष करते हैं। यहां नटप्रेक्षण का दृष्टांत है। ५३५२.नडपेच्छं दट्टणं, अवस्स आलोयणा ण सा कप्पे। कउयादी सो पेच्छति, ण ते वि पुरिमाण तो सव्वे॥ प्रथम तीर्थंकर के एक मुनि ने भिक्षा के लिए पर्यटन करते हुए नट का प्रेक्षण-खेल देखा और गुरु के पास आकर उसकी आलोचना की। आचार्य ने कहा-नटप्रेक्षण साधुओं को नहीं कल्पता। अब वह दूसरी बार 'कयोक'? आदि देखने लगा। पूछने पर उसने कहा-आपने तो नटप्रेक्षण की मनाही की थी, कयोका की नहीं। तब आचार्य ने कहा-कयोका आदि भी देखना नहीं कल्पता। तब वे मुनि सबका परिहार करते हैं। ५३५३.एमेव उग्गमादी, एक्केक्क निवारि एतरे गिण्हे। सव्वे वि ण कप्पंति, त्ति वारितो जज्जियं वज्जे॥ इसी प्रकार पूर्व तीर्थंकर के साधु को एक-एक उद्गम आदि दोष युक्त भक्तपान ग्रहण न करने के लिए वर्जना की जाती है, तब वह निवारित दोष का ही वर्जन करता है, इतर दोषयुक्त का निवारण नहीं करता। जब उसे कहा जाता है कि उद्गम आदि सारे दोषयुक्त नहीं कल्पते तब वह सबका यावज्जीवन तक वर्जना करता है। ५३५४.सण्णायगा वि उज्जुत्तणेण कस्स कत तुज्झमेयं ति। मम उद्दिट्ठ ण कप्पइ, कीतं अण्णस्स वा पगरे। प्रथम तीर्थंकर के साधुओं के संज्ञातक भी पूछने पर कि यह भक्तपान किसके लिए बना है तो वे ऋजुतापूर्वक कह देते हैं कि यह आपके लिए ही बनाया है। तब साधु कहता हैहमारे लिए बना हुआ ग्रहण करना हमें नहीं कल्पता। तब वह क्रीतकृत अथवा अन्य दोषयुक्त भक्तपान बनाकर देता है अथवा अन्य साधु को उद्दिष्ट कर बनाया हुआ आधाकर्म भक्तपान देता है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५३ गवेषणा करे। यदि प्राप्त न हो तो चौथे परिवर्त में आधाकर्म का ग्रहण करे। ५३६०.चउरो चउत्थभत्ते, आयंबिल एगठाण पुरिमहूं। णिव्वीयग दायव्वं, सयं च पुव्वोग्गहं कुज्जा। आचार्य स्वयं चार कल्याणक का प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं। उसमें चार उपवास, चार आयंबिल, चार एकाशन, चार पुरिमड्ड (पूर्वार्द्ध) और चार निर्वृकृति होते हैं। पंच कल्याणक में सभी पांच-पांच होंगे। आचार्य स्वयं ही पहले प्रायश्चित्त ग्रहण करे, जिससे कि शिष्य सुखपूर्वक उसे ग्रहण कर सकें। ५३६१.काल-सरीरावेक्खं, जगस्सभावं जिणा वियाणित्ता। तह तह दिसंति धम्म, झिज्जति कम्मं जहा अखिलं॥ काल और शरीर के अनुरूप जगत् का स्वभाव जानकर तीर्थंकर उस-उस प्रकार से धर्म की देशना देते हैं, जिससे सारे कर्म क्षीण हो जाएं। अण्णगण-उवसंपदा-पदं चौथा उद्देशक ५३५५.सव्वजईण निसिद्धा, मा अणुमण्ण त्ति उग्गमा णे सिं। इति कधिते पुरिमाणं, सव्वे सव्वेसि ण करेंति॥ जब उन गृहस्थों के आगे यह कहा जाता है कि सभी मुनियों के लिए उद्गम आदि दोष निषिद्ध हैं। गृहस्थ सोचते हैं-हमारी उन दोषों के लिए अनुमति न हो, इसलिए वे सभी साधुओं के लिए कोई दोष नहीं करते। वे प्रथम तीर्थ के गृहस्थ भी ऋजुजड़ होते हैं। ५३५६.उज्जुत्तणं से आलोयणाए जड्डत्तणं से जं भुज्जो। तज्जातिए ण याणति, गिही वि अन्नस्स अन्नं वा॥ उनकी ऋजुता और जड़ता का स्वरूप उनकी ऋजुता यह है कि वे अकृत्य करके भी आलोचना कर लेते हैं। उनकी जड़ता यह है कि वे उन दोषों के जातीय दोषों को नहीं जानते और न उनका वर्जन करते हैं। गृहस्थों की जड़ता यह है कि एक के लिए वर्जित दोष दूसरों के निमित्त कर लेते हैं। उनकी ऋजुता यह है कि वे यथार्थ बात बता देते हैं। ५३५७.उज्जुत्तणं से आलोयणाए पण्णा उ सेसवज्जणया। सण्णायगा वि दोसे, ण करेंतऽण्णे ण यऽण्णेसिं॥ ऋजुप्राज्ञ का स्वरूप-उनकी ऋजुता यह है कि वे अकृत्य की आलोचना करते हैं तथा उनका प्राज्ञत्व यह है कि वे तज्जातीय दोषों का स्वयं निवारण करते हैं। संज्ञातक भी साधुओं के लिए दोष नहीं करते, अन्य तज्जातीय दोषों का वर्जन करते हैं और न अन्य मुनियों को हेतु बनाकर दोषकारी कार्य करते हैं। ५३५८.वंका उ ण साहंती, पुट्ठा उ भणंति उण्ह-कंटादी। पाहुणग सद्ध ऊसव, गिहिणो वि य वाउलंतेवं॥ वक्र-जड़ का स्वरूप-उनका वक्रत्व यह है कि वे अकृत्य कर स्वीकार नहीं करते। पूछने पर कहते हैं-मैं नटप्रेक्षण के लिए नहीं रुका था। गर्मी के कारण या कांटा चुभ जाने के कारण एक स्थान पर विश्राम करने बैठा था। आधाकर्म आदि निष्पन्न करने वाले गृहस्थ को पूछने पर कहता है-मेहमान आ गए थे, आज यह खाने के लिए मन हो गया, आज अमुक उत्सव है-इस प्रकार गृहस्थ भी साधुओं को व्याकुल कर देते हैं, यथार्थ नहीं बताते। . ५३५९.आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि गिलाणए य भयणा उ। तिक्खुत्तऽडवि पवेसे, चउपरियट्टे तओ गहणं॥ द्वितीयपद यह है-आचार्य, अभिषेक या भिक्षुओं में से कोई ग्लान हो जाए तो आधाकर्म की भजना होती है। अध्वा में प्रवेश करने से पूर्व ही शुद्ध अध्वकल्प की तीन बार भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उवज्झायं वा पवत्तिं वा थेरं वा गणिं वा गणहरं वा गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरत्तए। ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। (सूत्र १६) ५३६२.कप्पातो व अकप्पं, होज्ज अकप्पा व संकमो कप्पे। गणि गच्छे व तदुभए, चुतम्मि अह सुत्तसंबंधो॥ पूर्वसूत्र में कल्पस्थित और अकल्पस्थित बतलाए गए हैं। उनका स्थितकल्प से अस्थितकल्प में संक्रमण होता है और अस्थितकल्प से स्थितकल्प में संक्रमण होता है। अथवा Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ = बृहत्कल्पभाष्यम् गणी-आचार्य या उपाध्याय में तथा गच्छ में सूत्र और अर्थ प्रतिषेध आचार्यों के चतुर्गुरू। जो सचित्त या अचित्त आभाव्य दोनों की विस्मृति होने पर गच्छान्तर में संक्रमण होता है। है, उनको कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं। यह सूत्र के साथ संबंध है। ५३६८.संसाहगस्स सोउं, पडिपंथिगमादिगस्स वा भीओ। ५३६३.तिट्ठाणे अवकमणं, णाणट्ठा दंसणे चरित्तट्ठा। आयरणा तत्थ खरा, सयं व गाउं पडिणियत्तो॥ आपुच्छिऊण गमणं, भीतो त नियत्तते कोती १॥ संसाधक-पीछे से आने वाले साधु से सुनकर, ५३६४.चिंतंतो वइगादी, संखडि पिसुगादि अपडिसेहे य।। प्रतिपंथिक संमुखीन साधु से सुनकर अथवा स्वयं जानकर परिसिल्ले सत्तमए, गुरुपेसविए य सुद्धे य॥ कि उस गच्छ में चर्या कर्कश है, यह जानकर भयभीत होकर तीन स्थानों कारणों से गण से अपक्रमण होता है-ज्ञान जो मुनि निवर्तित हो जाता है, उसे पंचक का प्रायश्चित्त के लिए, दर्शन के लिए और चारित्र के लिए। आचार्य को आता है। पूछकर अपक्रमण करना चाहिए। अपक्रमण करने वाले के ये ५३६९.पुव्वं चिंतेयव्वं, णिग्गतो चिंतेति किं णु हु करेमि। अतिचार होते हैं वच्चामि नियत्तामि व, तहिं व अण्णत्थ वा गच्छे॥ १. कोई परगण के आचार्य के कर्कश चर्या से भीत होकर जाने से पूर्व सोचना चाहिए। गच्छ से निर्गत होने के बाद लौट आता है। सोचता है-मैं क्या करूं? जाऊं या लौट जाऊं? अथवा उस २. मैं जाऊं या नहीं इस चिंतन से जाता है। गच्छ में जाऊं या अन्यत्र चला जाऊं? ३. वजिका का प्रतिबंध करता है। दानश्राद्धों की दीर्घ ५३७०.उव्वत्तणमप्पत्ते, लहुओ खद्धस्स भुंजणे लहुगा। गोचरी करता है। णीसट्ठ सुवणे लहुओ, संखडि गुरुगा य जं चऽण्णं॥ ४. संखडियों में प्रतिबंध करता है। कोई चलते-चलते व्रजिका की बात सुनकर मार्ग का ५. पिशुक-मत्कुण आदि के भय से निवर्तित हो जाता है। उद्वर्तन कर व्रजिका के पास आता है और अप्राप्त वेला की ६. वहां का आचार्य अप्रतिषेधक है। प्रतीक्षा करता है। वेला होने पर वहां अत्यधिक भोजन कर ७. जो पर्षद्वान् है। लेता है। उसको चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। वह वहां ८. मैं गुरु द्वारा प्रेषित हूं-ऐसा कहता है। लंबे समय तक सो जाता है। उसको लघुमास का (इन आठ पदों में उन-उन पदों का प्रायश्चित्त आता है।) प्रायश्चित्त है। संखड़ी में अप्राप्तकाल की प्रतीक्षा करने तथा ५३६५.पणगं च भिण्णमासो, मासो लहुगो य संखडी गुरुगा। प्रचुरमात्रा में द्रव्य लेने पर चतुर्गुरु। वहां होने वाले पिसुमादी मासलहू, चउरो लहुगा अपडिसेहे॥ अन्य-अन्य संघट्टन या आक्रमण के पृथक्-पृथक् प्रायश्चित्त ५३६६.परिसिल्ले चउलहुगा, गुरुपेसवियम्मि मासियं लहुगं। आते हैं। सेहेण समं गुरुगा, परिसिल्ले पविसमाणस्स॥ ५३७१.अमुगत्थ अमुगो वच्चति, मेहावी तस्स कड्ढणट्ठाए। ५३६७.पडिसेहगस्स लहुगा, पंथ ग्गामे व पहे, वसधीय व कोइ वावारे।। परिसेल्ले छ च्च चरिमओ सुद्धो। ५३७२.अभिलावसुद्ध पुच्छा, रोलेणं मा हुभे विणासेज्जा। तेसिं पि होति गुरुगा, इति कहूते लहुगा, जति सेहट्ठा ततो गुरुगा॥ जं चाऽऽभव्वं ण तं लभती॥ अमुक आचार्य के पास अमुक मेधावी शिष्य जा रहा है, जो भीत होकर निवर्तित हो जाता है उसे पंचक, जो उस शिष्य को अपनी ओर खींचने के लिए आचार्य अपने चिंतन करता है उसे भिन्नमास, वजिका आदि में प्रतिबद्ध को शिष्यों को व्यापृत करता है। उन्हें कहता है-वह मेधावी मासलघु, संखड़ी में प्रतिबद्ध को चतुर्गुरु, पिशुकादि भय से शिष्य मार्ग में या गांव में भिक्षा करेगा, अमुक मार्ग से निवर्तमान को मासलघु, अप्रतिषेधक के पास रहने से आएगा, अमुक वसति में ठहरेगा। तुम वहां जाओ और चारलघु। पर्षद्वान् आचार्य के पास रहने से चतुर्लघु, गुरु ने अभिलापशुद्ध पाठ का परावर्तन करते हुए बैठो। यदि वह भेजा है यह कहने पर लघुमास, शैक्ष के साथ पर्षद्वान् गच्छ तुमसे पूछे कि तुम यहां क्यों बैठे हो? तो उसे में जाने पर चतुर्गुरु, उपकरण सहित जाने पर उपधि निष्पन्न कहना-हमारे वाचनाचार्य अभिलापशुद्ध से पाठ की वाचना प्रायश्चित्त। प्रतिषेधक के पास जाने पर चतुर्लघु, पर्षद् को । देते हैं। वे हमें कहते हैं यहां उपाश्रय में बहुत कोलाहल मिलाने वाले के पास जाने पर षड्लघु। जो भीत आदि दोष रहता है। यहां उस कोलाहल से अपने अभिलाप का रहित है, वह शुद्ध है। अपने गच्छ में प्रवेश कराने वाले विनाश मत करो। इसलिए हम यहां एकान्त में परावर्तन Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक = कर रहे हैं। इस प्रकार आकर्षण करने पर चतुर्लघुक और ५३७८.अन्नं अभिधारेतुं, अप्पडिसेह परिसिल्लमन्नं वा। यह शैक्ष मेरा हो-यह सोचकर आकर्षण करता है तो पविसंते कुलादिगुरू, सच्चित्तादी व से हाउं॥ चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। ५३७९.ते दोऽवुवालभित्ता, अभिधारेज्जंते देति तं थेरा। ५३७३.अक्खर-वंजणसुद्धं, मं पुच्छह तम्मि आगए संते। घट्टण विचालणं ति य, पुच्छा विप्फालणेगट्ठा॥ घोसेहि य परिसुद्धं, पुच्छह णिउणे य सुत्तत्थे। अन्य आचार्य का अभिधारण कर अप्रतिषेधक या यदि वह शैक्ष यहां आता है तो उसके आने के पश्चात् तुम परिषद् प्रिय आचार्य या अन्य किसी के गण में प्रवेश करता मुझे अक्षर-व्यंजन शुद्ध तथा घोष से परिशुद्ध सूत्रपाठ पूछना। है, उपसंपन्न होता है, उसे यदि कुलस्थविर, गणस्थविर या उस समय निपुण सूत्रार्थ को पूछना। इस प्रकार उसकी अन्यत्र संघस्थविर जान लेते हैं तो वे सचित्त या अचित्त, जो कुछ गच्छ में जाने का प्रतिषेध करते हैं। उसने उपनीत किए हैं, उसका हरण कर, उस आचार्य और ५३७४.पाउयमपाउया घट्ट मट्ठ लोय खुर विविधवेसहरा। प्रतिच्छक को उपालंभ देते हैं तथा उसकी घट्टना कर वे परिसिल्लस्स तु परिसा, थलिए व ण किंचि वारेति॥ स्थविर उसे अभिधारित आचार्य के पास भेज देते हैं। घट्टण, जो आचार्य परिसिल्ल–पर्षप्रिय होता है वह असंविग्न विचारणा, पृच्छना तथा विस्फालना ये एकार्थकपद हैं। या संविग्न पर्षद् का संग्रहण करता है। वहां कुछ मुनि ५३८०.घट्टेउं सच्चित्तं, एसा आरोवणा उ अविहीते। प्रावृत, कुछ अप्रावृत, कुछ घृष्ट-मृष्ट, कुछ लुंचित और बितियपदमसंविग्गे, जयणाए कयम्मि तो सुद्धो॥ कुछ खुरमुंडित-इस प्रकार उसकी परिषद् विविध वेषधारी प्रतीच्छक को पूछकर उसे धारित आचार्य के पास भेज होती है। देवद्रोणी की भांति वह आचार्य कुछ भी वर्जना देते हैं। पहले जो आरोपणा कही गई है (प्रतिषेधकत्व तथा नहीं करता। पर्षद् मीलन की) वह अविधि निष्पन्न है। द्वितीयपद में ५३७५.तत्थ पवेसे लहुगा, सच्चित्ते चउगुरुं च आणादी। अभिधारित आचार्य यदि असंविग्न है तो यतनापूर्वक उवहीनिप्फण्णं पि य, अचित्त चित्ते य गिण्हते॥ प्रतिषेधकत्व किया जा सकता है। वह शुद्ध है। वैसे गच्छ में प्रवेश करने पर चतुर्लघु, शैक्ष (सचित्त) के ५३८१.अभिधारेतो पासत्थमादिणो तं च जति सुतं अत्थि। साथ प्रवेश करने पर चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष होते जे अ पडिसेहदोसा, ते कुव्वंतो वि णिद्दोसो॥ हैं। उपधि के साथ प्रवेश करने पर उपधिजनित प्रायश्चित्त भी जिनकी अभिधारणा कर वह जाता है वे आचार्य यदि आता है। सचित्त और अचित्त ग्रहण करने पर अन्य पार्श्वस्थ आदि दोषदुष्ट हों, जो श्रुत यह पढ़ना चाहे वह प्रायश्चित्त। यदि प्रतिषेधक के पास है तो जो प्रतिषेध करने के दोष हैं, ५३७६.ढिंकुण-पिसुगादि तहिं, सोतं णाउं व सण्णिवत्तंते। उनको करता हुआ भी वह शुद्ध है। ___ अमुगसुतत्थनिमित्तं, तुज्झम्मि गुरूहि पेसविओ॥ ५३८२.जं पुण सच्चित्ताती, तं तेसिं देति ण बि सयं गेण्हे। ढिंकुण, पिशुण आदि क्षुद्र जंतुओं का उपद्रव सुनकर या बितियऽच्चित ण पेसे, जावइयं वा असंथरणे॥ जानकर वहां से निवर्तन करने पर मासलघु तथा अमुक- प्रतीच्छक ने आते हुए जो सचित्त आदि प्राप्त किए थे, वे श्रुतग्रहण के निमित्त गुरु ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है-इस धारित आचार्य को देता है, स्वयं नहीं रखता। द्वितीयपद में प्रकार कहने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है। जो वस्त्र आदि अचित्त प्राप्त किए थे, उनको वह नहीं भी ५३७७.आणाए जिणिंदाणं, भेजता। उसमें से जितना आवश्यक होता है, उतना रखता ण हु बलियतरा उ आयरियआणा। है, शेष भेज देता है। यदि पर्याप्त न हो तो सारा ग्रहण कर जिणआणाए परिभवो, लेता है। एवं गव्वो अविणतो य॥ ५३८३.नाऊण य वोच्छेयं, पुव्वगए कालियाणुओगे य। शिष्य ने पूछा-ऐसा कहने में क्या दोष है? आचार्य कहते सयमेव दिसाबंधं, करेज्ज तेसिं न पेसेज्जा। हैं-जिनेन्द्रों की आज्ञा से आचार्य की आज्ञा बलवान् नहीं पूर्वगत श्रुत और कालिकानुयोग का व्यवच्छेद जानकर होती। इस प्रकार आचार्य की आज्ञा से श्रुत देने पर जिनेन्द्रों स्वयं ही उनके साथ आत्मीय दिग्बंध करे, पहले धारित के की आज्ञा का परिभव होता है। तथा भेजने वाले, उपसंपद्यमान पास न भेजे। और श्रुत देने वाले तीनों को गर्व होता है और तीर्थंकर तथा ५३८४.असहातो परिसिल्लत्तणं पि कुज्जा उ मंदधम्मेसू। श्रुत का अविनय होता है। पप्प व काल-ऽद्धाणे, सच्चित्तादी वि गेण्हेज्जा॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ , आचार्य यदि अकेला हो, असहाय हो तो परिषद् का ग्रहण करे। यदि शिष्य मंदमेधा वाले हों तो पर्षद्वत्व भी करे दुर्भिक्ष आदि काल तथा मार्ग-गमन की वेला में उपग्रहकारी शिष्यों का संग्रहण करे। पूर्वोक्त कारणों से सचित्त आदि भी ग्रहण किया जा सकता है। ५३८५. कालगयं सोऊणं, असिवादी तत्थ अंतरा वा वि परिसेल्लय पडिसेहं, सुद्धो अण्णं व विसमाणो ॥ अभिधारित आचार्य को कालगत सुनकर अथवा जहां जाना है वहां या बीच में अशिव आदि का प्रकोप जानकर परिषद् प्रिय आचार्य या प्रतिषेधक आचार्य या अन्य आचार्य के पास जाने वाला भी शुद्ध है। ५३८६. वच्चंतो वि य दुविहो, वत्तमवत्तस्स मग्गणा होति । वत्तम्मि खेत्तवज्जं, अव्वत्ते अणप्पिओ जाव ॥ जाने वाला प्रतीच्छक दो प्रकार का होता है-व्यक्त और अव्यक्त उनकी मार्गणा करनी होती है। व्यक्त प्रतीच्छक के जो सचित्तावि का लाभ परक्षेत्र में होता है तो वह अभिधारित आचार्य का होता है। अव्यक्त प्रतीच्छक, जब तक वह आचार्य को समर्पित नहीं हो जाता तब तक परक्षेत्र को छोड़कर, उसके सहायक जो प्राप्त करते हैं वह पूर्वाचार्य का होता है। ५३८७. सुतअव्वत्तो अगीतो, वएण जो सोलसण्ह आरेणं । तव्विवरीओ वत्तो, वत्तमवत्ते य चतुभंगो! अव्यक्त के दो प्रकार हैं-श्रुत से अव्यक्त, अगीतार्थ और वय से अव्यक्त अर्थात् सोलह वर्ष से पहले। इनके विपरीत जो होता है, वह है व्यक्त व्यक्त-अव्यक्त की चतुभंगी होती है- १. श्रुत से अव्यक्त, वय से भी अव्यक्त । २. श्रुत से अव्यक्त, वय से व्यक्त । ३. श्रुत से व्यक्त, वय से अव्यक्त । ४. श्रुत और वय दोनों से व्यक्त । ५३८८. वत्तस्स वि दायव्वा, पहुप्पमाणा सहाय किमु इयरे । खेत्तविवज्जं अच्छंतिएस जं लब्भति पुरिल्ले ॥ साधुओं की संपूर्ति करने वाले आचार्य को चाहिए कि व्यक्त को भी सहायक साधु देने चाहिए, अव्यक्त की तो बात ही क्या? सहायक दो प्रकार के हैं आत्यन्तिक और अनात्यन्तिक । आत्यन्तिक सहायकों के साथ व्यक्त को परक्षेत्र को छोड़कर लाभ होता है, वह जिस आचार्य के अभिमुख जाता है, उसका होता है। ५३८९. जइ उं एतुमणा, जं ते मम्मिल्ले वत्ति पुरिमस्स । नियमsव्वत्त सहाया, णेतु णियत्तंति जं सो य ॥ जो सहायक उसको पहुंचाकर लौट आना चाहते हैं. बृहत्कल्पभाष्यम् उनको जो लाभ होता है, वह सब उस आचार्य का होता है, जिसके पास से वे चले हैं। नियमतः अव्यक्त को सहायक दिए जाते हैं। वे आत्यन्तिक होते हैं, उसको पहुंचा कर लौट आते हैं। तथा उसको जो लाभ होता है वह अभिधारित आचार्य का आभाव्य होता है। ५३९०. बितियं अपहुच्यते, न देज्ज वा तस्स सो सहाए तु । वगादिअपडिवसंतगस्स उबही विसुद्ध उ ॥ अपवाद पद में आचार्य यदि साधुओं की पूर्ति करने में असमर्थ हों तो वे उसको सहायक साधु नहीं देते, वह यदि श्रुत और वय से व्यक्त हो तो व्रजिका आदि में उसकी प्रतिबद्धता वाले उसकी उपधि शुद्ध है, उसका उपघात नहीं होता। जो व्रजिका आदि में प्रतिबद्ध होता है उसकी उपधि का उपघात होता है। ५३९१. एगे तू वच्चते, उग्गहवज्जं तु लभति सच्चित्तं । वच्चंत गिलाणे अंतरा तु तहिं मग्गणा होइ ॥ जो व्यक्त एकाकी जाता है वह अन्य आचार्य के अवग्रहवर्जित क्षेत्र में जो कुछ पाता है, उसमें सचित अभिधारित आचार्य का होता है। जो ज्ञान के निमित्त जाता है, वह दो तीन आचार्यों का अभिधारणा कर चलता है। वह मध्य में ग्लान हो गया। आचार्यों ने सुना कि हमारी अभिधारणा कर आने वाला साधु मार्ग में ग्लान हो गया। वहां यह आभाव्यअनाभाव्य की मार्गणा होती है। ५३९२. आयरिय दोण्णि आगत, एक्के एक्के वऽणागए गुरुगा । ण व लभती सच्चित्तं कालगते विष्परिणए वा ॥ यदि वे दोनों आचार्य आए हैं तो उसने जो पाया है वह सारा दोनों का होता है अथवा उन दोनों आचार्यों में एक आया है और एक नहीं आया है तो नहीं आने वाले को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा उसे सचित्त या अचित्त कुछ भी नहीं मिलता। यदि वह शिष्य कालगत हो जाता है तब भी जो उसकी गवेषणा में आगत है, उसीका आभाव्य होता है। यदि शिष्य विपरिणत हो गया है तो उस आचार्य को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। विपरिणत होने से पूर्व जो लब्ध हुआ है, वह प्राप्त हो सकता है। ५३९३. पंथ सहाय समत्थो, धम्मं सोऊण पव्वयामि ति । खेत्ते य बाहि परिणये, वाताहडे मग्गणा इणमो ॥ ज्ञानार्थ प्रस्थित मुनि को कोई समर्थ सहायक वाताहत वायु की भांति आकृष्ट की तरह आकस्मिक ढंग से मिल गया। वह उसके पास धर्म सुनकर प्रव्रज्या लेने के लिए तैयार हुआ। उसका वह परिणाम साधु परिगृहीत क्षेत्र के भीतर या बाहर हुआ है, उसकी यह मार्गणा होती है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ५५७ चौथा उद्देशक ५३९४.खेत्तम्मि खेत्तियस्सा, खेत्तबहिं परिणए पुरिल्लस्स। ___अंतर परिणय विप्परिणए य णेगा उ मग्गणता॥ साधु परिगृहीत क्षेत्र में वह प्रव्रज्या परिणत होता है तो वह क्षेत्रिक का आभाव्य होता है। क्षेत्र के बाहर परिणत होने पर उसी साधु का (धर्मकथा कहने वाले का) आभाव्य होता है। क्षेत्र में ही प्रव्रज्या का परिणाम हुआ और क्षेत्र के भीतर ही विपरिणत हो गया तब धर्मकथिक की क्षेत्र-अक्षेत्रगत राग-द्वेष के आधार पर अनेक मार्गणा होती है। ५३९५.वीसज्जियम्मि एवं, अविसज्जिए चउलहुं च आणादी। तेसिं पि हुंति लहुगा, अविधि विही सा इमा होइ॥ यह विधि आचार्य द्वारा विसर्जित शिष्य के लिए है। अविसर्जित जाने वाले शिष्य के लिए चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष हैं। जिनके पास वह जाता है, उनको भी चतुर्लघु। अविधि का निरूपण किया जा चुका है, विधि यह होती है। ५३९६.परिवार-पूयहेउं, अविसज्जते ममत्तदोसा वा। ____ अणुलोमेण गमेज्जा, दुक्खं खु विमुंचिउं गुरुणो॥ आचार्य अपने शिष्य-परिवार के लिए, पूजा के निमित्त, ममत्व दोष के कारण शिष्य को विसर्जित नहीं करता तो उसे अनुकूल वचनों से प्रज्ञापित करे। यह सच है कि गुरु के लिए शिष्य को विमुक्त करना कष्टप्रद होता है। ५३९७.नाणम्मि तिण्णि पक्खा, __ आयरि-उज्झाय-सेसगाणं च। एक्वेक पंच दिवसे, ___ अहवा पक्खेण एक्वेक्वं॥ जो शिष्य ज्ञान के निमित्त गण से अपक्रमण करता है तो तीन पक्षों-आचार्य, उपाध्याय और शेष साधु को पूछ कर करना चाहिए। प्रत्येक को पांच-पांच दिन के लिए पूछे-यह एक पक्ष है। दूसरा और तीसरा पक्ष भी इसी प्रकार पूछे। अथवा पक्ष से एक-एक को पूछे ये तीन पक्ष हो लाते हैं। यदि इतने पर भी विसर्जित नहीं करते हैं तो अविसर्जित ही वहां से प्रस्थान कर दे। ५३९८.एयविहिमागतं तू, पडिच्छ अपडिच्छणे भवे लहुगा। अहवा इमेहिं आगते, एगादि पडिच्छती गुरुगा॥ इस विधि से आए हुए प्रतीच्छक को उपसंपदा देकर स्वीकार करे। स्वीकार न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। इनमें से एक आदि कारणों से आए हुए को स्वीकार करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। १. आत्मीयां दिशं बध्नाति, स्वशिष्यत्वेन स्थापयति। (वृ. पृ. १४३५) ५३९९.एगे अपरिणते या, अप्पाहारे य थेरए। गिलाणे बहुरोगी य, मंदधम्मे य पाहुडे। वह एकाकी आचार्य को छोड़कर आया है। अथवा आचार्य के पास जो साधु हैं वे अपरिणत हैं, अथवा आचार्य अल्पाधार वाले हैं, आचार्य स्थविर हैं, आचार्य ग्लान या बहुरोगी हैं, शिष्य मंदधर्मा हैं। वह गुरु से कलह कर आया है। ५४००.एयारिसं विओसज्ज, विप्पवासो ण कप्पती। सीस-पडिच्छा-ऽऽयरिए, पायच्छित्तं विहिज्जती॥ इस प्रकार के आचार्य का व्युत्सर्ग कर विप्रवास-गमन करना नहीं कल्पता। इसमें शिष्य, प्रतीच्छक और आचार्यतीनों को प्रायश्चित्त आता है। ५४०१.बिइयपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागाढे। नाऊण तस्सभावं, कप्पति गमणं अणापुच्छा। जो पहले कहा गया कि ज्ञानार्थ जाने वाले को तीन पक्षों को पूछ कर प्रस्थान करना चाहिए। प्रस्तुत गाथा उसका आपवादिक है। असंविग्न आचार्य को तथा आगाढ़ कारण में सविग्न आचार्य को बिना पूछे भी जा सकता है। गुरु के भावों को जानकर कि ये पूछने पर भी विसर्जित नहीं करेंगे तो वह बिना पूछे भी जा सकता है। ५४०२.अज्झयणं वोच्छिज्जति, तस्स य गहणम्मि अत्थि सामत्थं। ण वि वियरति चिरेण वि, एतेणऽविसज्जिओ गच्छे। वह श्रुत का अध्ययन व्युच्छिन्न हो जायेगा परन्तु उसके ग्रहण में उस शिष्य का सामर्थ्य है और उसके ग्रहण के लिए गुरु चिरकाल तक भी उसे नहीं भेजेंगे, यह सोचकर गुरु द्वारा अविसर्जित किए जाने पर भी वह चला जाए। ५४०३.नाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुओगे य। अविहि-अणापुच्छाऽऽगत, सुत्तत्थविजाणओ वाए। पूर्वगत और कालिक अनुयोग का व्यवच्छेद जानकर अविधि और आचार्य को पूछे बिना आए हुए शिष्य को सूत्रार्थ ज्ञायक अवश्य वाचना दे। ५४०४.णाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुओगे य। सुत्तत्थजाणगस्सा, कारणजाते दिसाबंधो।। पूर्वगत और कालिकानुयोग के व्यवच्छेद को जानकर सूत्रार्थज्ञायक को कारण उत्पन्न होने पर अनाभाव्य के साथ आत्मीय दिग्बंध करना चाहिए, अपने शिष्य की भांति उसे ग्रहण करना चाहिए। समा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ बृहत्कल्पभाष्यम् ५४०५.ससहायअवत्तेणं, खेत्ते वि उवट्ठियं तु सच्चित्तं। उद्दिष्ट किया था, उसी को पढ़ता हुओ प्रथम वर्ष में जो दलियं णाउं बंधति, उभयममत्तट्ठया तं वा॥ प्राप्त करता है वह कालगत आचार्य का आभाव्य होता है। ससहायक एक अव्यक्त सचित्त शैक्ष परक्षेत्र में उपस्थित यह एक विभाग है। पश्चात् उद्दिष्ट की वाचना देते हुए प्रथम हुआ। वह पूर्वाचार्य और क्षेत्रिक साधुओं का आभाव्य होता वर्ष में जो प्राप्त होता है वह प्रवाचक का होता है। यह दूसरा है। फिर भी उसको 'दलिक' अर्थात् मेधावी और आचार्यपद विभाग है। योग्य जानकर अपने शिष्यत्व के रूप में स्थापित करता है। ५४१०.पुव्वं पच्छुद्दिढे, पडिच्छए जं तु होइ सच्चित्तं। साधु-साध्वियों-दोनों का उसके प्रति ममत्व भाव है अथवा संवच्छरम्मि बितिए, तं सव्वं पवाययंतस्स॥ जो प्रतीच्छक आया है, वह भी ग्रहण-धारणा में समर्थ है प्रतीच्छक पूर्वोद्दिष्ट पढ़े या पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़े, उसे जो तो उसे भी स्वशिष्य के रूप में स्थापित करता है- सचित्त आदि का लाभ होता है, वह दूसरे वर्ष में प्रवाचक का यह मान्य है। होता है। यह तीसरा विभाग है। ५४०६.आयरिए कालगते, परियट्टइ तं गणं च सो चेव। ५४११.पुव्वं पच्छुद्दिष्टे, सीसम्मि य जं तु होइ सच्चित्तं। - चोएति य अपढंते, इमा उ तहिं मग्गणा होइ। संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं गुरुस्स आभवइ॥ जिस शैक्ष और प्रतीच्छक को शिष्यरूप से स्वीकार शिष्य पूर्वोद्दिष्ट या पश्चात् उद्दिष्ट पढ़ता हुआ सचित्त किया है वे ही आचार्य के कालगत होने पर उस गण को आदि जो कुछ प्राप्त करता हुआ पहले वर्ष में, वह सारा गुरु स्वयं चलाते हैं। गण के जो साधु श्रुत नहीं पढ़ते उन्हें प्रेरणा का आभाव्य होता है। देते हैं। यदि प्रेरणा देने पर भी नहीं पढ़ते तो इस आभवद् ५४१२.पुव्वुद्दि तस्सा, पच्छुट्ठि पवाययंतस्स। व्यवहार की मार्गणा होती है। संवच्छरम्मि बितिए, सीसम्मि उ जं तु सच्चित्तं॥ ५४०७.साहारणं तु पढमे, जो शिष्य पूर्वोद्दिष्ट पढ़ रहा है तो दूसरे वर्ष में सचित बितिए खित्तम्मि ततिय सुह-दुक्खे।। आदि कालगत आचार्य का आभाव्य होता है। पश्चाद् उद्दिष्ट अणहिज्जंते सीसे, पढ़ने वाले शिष्य का सचित्त आदि लाभ प्रवाचक का सेसे एक्कारस विभागा॥ आभाव्य होता है। आचार्य के कालगत होने के प्रथम वर्ष में जो लाभ होता ५४१३.पुव्वं पच्छुद्दिढे, सीसम्मि य जं तु होइ सच्चित्तं। है वह साधारण होता है, सबके होता है। दूसरे वर्ष में जो संवच्छरम्मि ततिए, तं सव्वं पवाययंतस्स॥ क्षेत्रोपसंपन्न को लाभ होता है वह जो नहीं पढ़ते उनका होता तीसरे वर्ष में पूर्वोद्दिष्ट या पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़ने वाले है। तीसरे वर्ष में जो सुख-दुःख उपसंपन्न को प्राप्त होता है, शिष्य द्वारा प्राप्त सचित्त आदि प्रवाचक का होता है। यह वह उनका होता है और चौथे वर्ष में कालगत आचार्य के जो सातवां विभाग है। नहीं पढ़ने वाले शिष्य हैं उन्हें कुछ नहीं मिलता तथा शेष जो ५४१४.पुव्वुद्दिढे तस्सा, पच्छुद्दिढे पवाययंतस्स। पढ़ने वाले हैं उनके ग्यारह विभाग हैं। संवच्छरम्मि पढमे, सिस्सिणिए जं तु सच्चित्तं॥ ५४०८.खेत्तोवसंपयाए, बावीसं संथुया य मित्ता य। जो शिष्या पूर्वोद्दिष्ट पढ़ती है, प्रथम वर्ष में प्राप्त सुह-दुक्ख मित्तवज्जा, चउत्थए नालबद्धाइं॥ सचित्तादि कालगत आचार्य का आभाव्य होता है। यह शिष्य ने पूछा-क्षेत्रोपसंपन्न और सुख-दुःखोपसंपन्न को आठवां विभाग है। पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़ने वाली शिष्या द्वारा क्या मिलता है? आचार्य कहते हैं-'क्षेत्रोपसंपदा से उपसंपन्न प्राप्त सचित्त आदि प्रवाचक का आभाव्य होता है। यह नौवां व्यक्ति को अनन्तर और परंपरावल्ली बद्ध माता-पिता आदि विभाग है। बावीस पुरुष प्राप्त होते हैं। तथा पूर्व-पश्चाद् संस्तुत और ५४१५.पुव्वं पच्छुद्दिद्वे, सिस्सिणिए जंतु होइ सच्चित्तं। मित्र प्राप्त होते हैं। सुख-दुःखोपसंपन्न को मित्रवर्ण्य ये सारे संवच्छरम्मि बीए, तं सव्वं पवाययंतस्स॥ मिलते हैं। चौथा अर्थात् श्रुतसंपन्न केवल बावीस नालबद्ध को पूर्वोद्दिष्ट अथवा पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़ने वाली शिष्या का प्राप्त करता है।' सचित्तादि का लाभ, दूसरे वर्ष में, प्रवाचक का होता है। यह ५४०९.पुव्वुद्दिवे तस्सा, पच्छुद्दिढे पवाययंतस्स। दसवां विभाग है। संवच्छरम्मि पढमे, पडिच्छए जं तु सच्चित्तं॥ ५४१६.पुव्वं पच्छुद्दिवे, पडिच्छिगा जं तु होति सच्चित्तं। जीवित अवस्था में आचार्य ने प्रतीच्छक को जो श्रुत संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं पवाययंतस्स॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५९ चौथा उद्देशक __ प्रतीच्छिका शिष्या पूर्वोद्दिष्ट या पश्चाद् उद्दिष्ट पढ़ती हुई, प्रथम वर्ष में जो प्राप्त करती है, वह सारा प्रवाचक का होता है। ५४१७.संवच्छराई तिन्नि उ, सीसम्मि पडिच्छए उ तदिवसं। एवं कुले गणे या, संवच्छर संघे छम्मासा॥ कुलसत्क आचार्य तीन वर्षों तक वाचना देता हुआ भी शिष्यों से कुछ नहीं लेता। जो प्रतीच्छक हैं उनको वाचना देता हुआ, जिस दिन आचार्य कालगत हुए हैं, उस दिन जो प्राप्त हो वह लेता है। इसी प्रकार कुलसत्क आचार्य की विधि है। गणसत्क आचार्य एक संवत्सर तक शिष्यों का सचित्तादिक नहीं लेता। संघसत्क आचार्य नियमतः छहमास तक कुछ नहीं लेता। इसलिए प्रतीच्छक आचार्य को वहां गण में तीन वर्ष तक अवश्य रहना चाहिए, आगे पुनः उनकी इच्छा। ५४१८.तत्थेव य निम्माए, अणिग्गए णिग्गए इमा मेरा। सकुले तिन्नि तियाई, गणे दुगं वच्छरं संघे॥ यदि आचार्य के निर्गत होने से पूर्व गच्छ में किसी शिष्य का निर्माण हो गया हो तो अच्छा है। यदि निर्माण न हुआ हो और आचार्य निर्गत हो गए हों तो यह मेरा-सामाचारी है। स्वकीय कुलस्थविर वाचनाचार्य की व्यवस्था करते हैं। वे त्रयत्रिक अर्थात् नौ वर्षों तक वाचना देते हैं। गण भी दो वर्षों तक वाचना देता है और संघ एक वर्ष की वाचना की व्यवस्था करता है। यह क्रम तब तक आगे से आगे चलता है जब तक गच्छ में एक भी शिष्य का निर्माण नहीं हो जाता। ५४१९.ओमादिकारणेहि व, दुम्मेहत्तेण वा न निम्माओ। __ काऊण कुलसमायं, कुल थेरे वा उवटुंति॥ शिष्य का निर्माण न होने के कारण-अवम, अशिव आदि कारणों, अनवरत पर्यटन के कारण तथा मेधा के अभाव में एक का भी निर्माण नहीं हुआ तब कुलसमवाय करके सभी कुलस्थविर के पास जाते हैं तब वे सबको उपसंपदा देते हैं। ५४२०.पव्वज्जएगपक्खिय, उवसंपय पंचहा सए ठाणे। छत्तीसाऽतिक्कंते, उवसंपय पत्तुवादाए॥ १. पांचों प्रकार की उपसंपदा अपने-अपने स्थान में स्वीकृत करनी चाहिए। तात्पर्य है कि श्रुतोपसंपत् वाले का स्वस्थान है श्रुतज्ञानी, सुख-दुखोपसंपत् वाले का स्वस्थान है जहां वैयावृत्य करने वाले हों, क्षेत्रोपसंपत् का स्वस्थान है जहां भक्तपान की प्राप्ति सुलभ हो, मार्गोपसंपद् वाले का स्वस्थान है जहां मार्गज्ञ हो, विनयोसंपद् वाले का स्वस्थान है जहां विनय करना युक्त है। अथवा 'स्वस्थान' का तात्पर्य है-जहां श्रुत और प्रव्रज्या से जो प्रवज्या से एकपाक्षिक है उसके पास उन सबको उपसंपदा ग्रहण करवाते हैं। वह उपसंपदा पांच प्रकार की है। छत्तीस वर्षों के (२४+१२) अतिक्रान्त होने पर, अपना स्थान प्राप्त कर, उन सबको उपसंपदा देनी चाहिए। ५४२१.गुरुसज्झिलओ सज्झंतिओ व गुरुगुरु गुरुस्स वा णत्तू। अहवा कुलिच्चतो ऊ, पव्वज्जाएगपक्खीओ। गुरु का सहाध्यायी, स्वयं का सब्रह्मचारी', गुरु का गुरु, गुरु का पौत्र-प्रशिष्य अथवा कुलसत्क समान कुलोद्भव ये सारे प्रव्रज्या के एकपाक्षिक माने जाते हैं। ५४२२.पव्वज्जाए सुएण य, चउभंगुवसंपया कमेणं तु। पुव्वाहियवीसरिए, पढमासइ ततियभंगे उ॥ एक पाक्षिक दो कारणों से होता है-श्रुत से, प्रव्रज्या से। जिसके साथ श्रुत की एक वाचनिका ली हो, वह है श्रुत से एक पाक्षिक। यहां यह चतुभंगी होती है १. प्रव्रज्या से एक पाक्षिक, श्रुत से भी एक पाक्षिक। २. प्रव्रज्या से एक पाक्षिक, श्रुत से नहीं। ३. श्रुत से एक पाक्षिक, प्रव्रज्या से नहीं। ४. न प्रव्रज्या से, न श्रुत से एक पाक्षिक। इनके पास इस क्रम से उपसंपदा ग्रहण करनी चाहिए। पहले प्रथम भंग वाले के पास उपसंपन्न होना चाहिए। उसके अभाव में तीसरे भंग वाले के पास। क्योंकि जो पढ़ा हुआ श्रुत विस्मृत हो गया हो तो उसका सहजतया पुनरावर्तन किया जा सकता है, क्योंकि वह श्रुत से एक पाक्षिक है। ५४२३.सुय सुह-दुक्खे खेत्ते, मग्गे विणओवसंपयाए य। बावीस संथुय वयंस दिट्ठभट्टे य सव्वे य॥ उपसंपदा के पांच प्रकार हैं१. श्रुतउपसम्पत् ४. मार्गतोपसम्पत् २. क्षेत्रोपसम्पत् ५. विनयोपसम्पत्। ३. सुख-दुःखोपसम्पत् इन पांचों का आभवद् व्यवहार इस प्रकार हैएकपाक्षिक हो वहां पहले उपसंपदा लेनी चाहिए, पश्चात् कुल और श्रुत से एकपाक्षिक के पास, फिर श्रुत और गण से एकपाक्षिक के पास, फिर श्रुत से एकपाक्षिक के पास, फिर प्रव्रज्या से एकपाक्षिक के पास, फिर जो श्रुत और प्रव्रज्या से एकपाक्षिक नहीं है, उसके पास भी उपसंपदा ली जा सकती है। (वृ. पृ. १४३९) २. सन्झिलअ-सहाध्यायी। ३. सज्झंतिअ-सब्रह्मचारी। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० बृहत्कल्पभाष्यम् श्रुतोपसम्पदा में बावीस नालबद्ध प्राप्त हो सकते हैं संसर्गि-प्रीति हो, उनका आना-जाना हो और वे भिक्षु आदि १. माता ७. नानी १३. चाचा १९. पौत्र अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं और वे आचार्य २. पिता ८. नाना १४. बूआ २०. पौत्री तर्कशास्त्र के अज्ञाता होने के कारण मौन बैठे रहते हैं तो ३. भाई ९. मामा १५. भतीज २१. दोहिता पास में बैठा शैक्ष उन अन्य मतावलंबी भिक्षुकों आदि की ४. भगिनी १०. मौसी १६. भतीजी २२. दोहित्री प्रज्ञापना को सहन न करता हुआ, सोचता है-मैं अन्य गण में ५. पुत्र ११. दादी १७. भानेज जाकर दर्शनप्रभावकग्रंथों का अध्ययन करूं। ऐसा सोचकर ६. पुत्री १२. दादा १८. भानेजी वह आचार्य से आज्ञा लेता है। विसर्जित होने पर वह प्रस्थान ये ही बावीस श्रुतोपसम्पत् के आभाव्य होते हैं। सुख- कर देता है। दुःखोपसम्पत् वाला ये बावीस तथा पूर्वसंस्तुत और ५४२७.लोए वि अ परिवादो, भिक्खुगमादी य गाढ चमदिति। पश्चाद्संस्तुत तथा प्रपोत्र और श्वसुर आदि को प्रास करता विप्परिणमंति सेहा, ओभामिज्जति सड्डा य॥ है। क्षेत्रोसम्पत् वाला इन सबके साथ-साथ सभी वयस्कों को आचार्य द्वारा मौन रहने पर लोकों में निन्दा होती है। प्राप्त करता है। मार्गोपसम्पत् वाला इन सबको तथा दृष्ट भिक्षुक आदि जैनशासन की अत्यधिक अवहेलना करते हैं। और भाषित सबको तथा विनयोपसम्पत् वाला इन सबके । शैक्ष यह सारा सुनकर-देखकर विपरिणत हो जाते हैं और साथ दृष्ट-अदृष्ट, ज्ञात, अज्ञात को भी प्राप्त करता है। वह श्रावक अन्य उपासकों द्वारा तिरस्कृत होते हैं। विनययोग्य व्यक्तियों का विनय करता है। ५४२८.रसगिद्धो व थलीए, परतित्थियतज्जणं असहमाणो। ५४२४.सव्वस्स वि कायव्वं, __गमणं बहुस्सुतत्तं, आगमणं वादिपरिसा उ॥ निच्छयओ किं कुलं व अकुलं वा। वे आचार्य रसगृद्ध होने के कारण उस स्थली में कुछ कालसभावममत्ते, परिवाद नहीं करते, मौन रहते हैं। शिष्य अन्यतीर्थिकों की गारव-लज्जाहिं काहिंति॥ तर्जनाओं को सहन न करता हुआ वह अध्ययन के लिए अन्य निश्चयरूप से श्रुतवाचनादि कार्य सबके पास करनी । गण में जाता है और वहां बहुश्रुतत्व प्राप्त कर पुनः अपने गण चाहिए। उसमें कुल और अकुल की विचारणा से क्या में आता है, और वादकुशल परिषद् को परिचित कर वाद का प्रयोजन? किन्तु दुःषमा लक्षण वाले इस काल के अनुभाव के समायोजन करता है। फिर उन परतीर्थिक भिक्षुओं के साथ कारण 'यह मेरा आत्मीय है' आदि तथा जो गौरव और वाद-विवाद कर उन्हें निरुत्तर करता है। लज्जा है, इनसे प्रेरित होकर वे सुखपूर्वक श्रुत-वाचना का ५४२९. वायपरायणकुविया, जति पडिसेहंति साहु लढें च। कार्य करेंगे, इसलिए पहले प्रव्रज्या आदि से निकट वालों से अह चिरणुगओ अम्हं, मा से पवत्तं परिहवेह॥ उपसंपदा ग्रहण करता है। वाद में पराजित होने के कारण कुपित भिक्षु आदि उस ५४२५.कालिय पुव्वगए वा, आचार्य को उसका वंट (हिस्सा) देने का प्रतिषेध करते हैं। _णिम्माओ जति य अत्थि से सत्ती। तब शिष्य सोचते हैं कि अच्छा हुआ। हम जैसा चाहते थे। दंसणदीवगहेडं, वह हो गया। कोई भिक्षु आदि कहता है-ये आचार्य हमारे गच्छइ अहवा इमेहिं तु॥ साथ लंबे समय से रह रहे हैं, इनका दोष क्या है? परंतु कोई शिष्य कालिकश्रुत तथा पूर्वगतश्रुत में निर्मित हो इनको पूर्वप्रवृत्त देने का निषेध मत करो। गया हो और उसमें और अधिक ग्रहण की शक्ति है तो अपने ५४३०.काऊण य प्पणाम, छेदसुतस्सा दलाह पडिपुच्छं। दर्शन को उज्ज्वल उद्दीपन करने वाले ग्रंथों के अध्ययन के अण्णत्थ वसहि जग्गण, तेसिं च णिवेदणं काउं॥ लिए अन्य गण में जाता है। गुरु के चरणों में प्रणाम कर निवेदन करना चाहिए आप ५४२६.भिक्खूगा जहिं देसे, हमें छेदसूत्रों की प्रतिपृच्छा दें। यहां से दूसरी वसति में हम बोडिय-थलि-णिण्हएहिं संसग्गी। चलें। यदि आचार्य चलने के लिए तैयार न हों तो उन्हें रात तेसिं पण्णवणं असहमाणे भर जागरण कराये। उन अगीतार्थ मुनियों को निवेदन कर दें वीसज्जिए गमणं॥ कि हम आचार्य को ले जायेंगे। जिस देश में भिक्षुक (बौद्ध), बोटिक, निलव आदि बहुत ५४३१.सदं च हेतुसत्थं, अहिज्जओ छेदसुत्त ण8 मे। हों, उनकी वहां स्थली हो, उनके साथ जैन आचार्य की एत्थ य मा असुतत्था, सुणिज्ज तो अण्णहिं वसिमो।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५६१ ____ मैं शब्दशास्त्र, हेतुशास्त्र-सन्मति आदि पढ़ता रहा, पृच्छा करता है। अथवा एक पक्ष में सबको पूछता है इसलिए मेरा पढ़ा हुआ छेदसूत्र नष्ट हो गया, विस्मृत हो अर्थात् प्रतिदिन तीनों को पूछता है, जब तक एक पक्ष पूरा गया। यहां इस वसति में अश्रुतार्थ-शैक्ष अथवा अपरिणामक न हो जाए। शिष्य न सुनें, इसलिए हम अन्य वसति में चलें। ५४३६.एतविहिआगतं तू, ५४३२.खित्ताऽऽरक्खिणिवेयण, पडिच्छ अपडिच्छणे भवे लगा। _ इयरे पुव्वं तु गाहिया समणा। अहवा इमेहिं आगत, जग्गविओ सो अ चिरं, एगागि (दि) पडिच्छणे गुरुगा। जह णिज्जंतो ण चेतेती॥ इस विधि से आए हुए शिष्य को स्वीकार करे। स्वीकार यदि आचार्य वहां से जाना न चाहे तो वे आरक्षिक न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। इन एक या अनेक को निवेदन करे कि हमारा एक मुनि क्षिप्तचित्त हो गया कारणों से आए हुए को स्वीकार करने पर चतुर्गुरु का है। हम उसे रात में वैद्य के पास ले जायेंगे। आप कुछ न प्रायश्चित्त है। कहें। तथा इतर श्रमणों को पहले ही बता दे कि हम ५४३७.एगे अपरिणए या, अप्पाहारे य थेरए। आचार्य को इस प्रकार यहां से ले जायेंगे। शिष्यों ने विना शिष्या ने गिलाणे बहुरोगी य, मंदधम्मे य पाहुडे। उस रात्री में आचार्य को जगाए रखा और जब गहरी वह एकाकी आचार्य को छोड़कर आया है। अथवा नींद आ गई तब उन्हें उठाकर ले गए। उन्हें कुछ भी ज्ञात ____ आचार्य के पास जो साधु हैं वे अपरिणत हैं, अथवा आचार्य नहीं हुआ। अल्पाधार वाले हैं, आचार्य स्थविर हैं, आचार्य ग्लान या ५४३३.निण्हयसंसग्गीए, बहुरोगी हैं, उनके शिष्य मंदधर्मा हैं। वह शिष्य गुरु से बहुसो भण्णंतुवेह सो कुणइ। कलह कर आया है। तुह किं ति वच्च परिणम, ५४३८.एतारिसं विओसज्ज, विप्पवासो न कप्पई। गता-ऽऽगते णीणिओ विहिणा॥ सीस-पडिच्छा-ऽऽयरिए, पायच्छित्तं विहिज्जई।। आचार्य को बहुत बार कहने पर भी वे निहवों के संसर्ग इस प्रकार के आचार्य का व्युत्सर्ग कर विप्रवास-गमन को छोड़ना नहीं चाहते। उस कथन की उपेक्षा करते हैं। वे करना नहीं कल्पता। इसमें शिष्य, प्रतीच्छक और आचार्यशिष्य को कहते हैं-तुम जहां जाना चाहो वहां जाओ। शिष्य तीनों को प्रायश्चित्त आता है। गुरु के परिणाम को जानकर वहां से अन्य गण में जाकर ५४३९.बिइयपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागाढे। शास्त्रों को पढ़कर लौट आता है। फिर विधिपूर्वक आचार्य नाऊण तस्सभावं, होइ उ गमणं अणापुच्छा। को गण से निष्काशित कर देता है। पहले जो कहा गया कि ज्ञानार्थ जाने वाले को तीन पक्षों ५४३४.एसा विही विसज्जिए, को पूछ कर प्रस्थान करना चाहिए। प्रस्तुत श्लोक उसका अविसज्जिए लहुग दोस आणादी। आपवादिक है। असंविग्न आचार्य को तथा आगाढ़ कारण में तेसिं पि हुंति लहुगा, सविग्न आचार्य को बिना पूछे भी जा सकता है। गुरु के भावों अविहि विही सा इमा होइ॥ को जानकर कि ये पूछने पर भी विसर्जित नहीं करेंगे तो वह यह विधि गुरु द्वारा विसर्जित शिष्य के लिए माननी बिना पूछे भी जा सकता है। चाहिए। अविसर्जित अवस्था में जाने वाले शिष्य के लिए ५४४०.चरित्तट्ठ देसे दुविहा, एसणदोसा य इत्थिदोसा य। चतुर्लघु और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। जो उसको गच्छम्मि य सीयंते, आयसमुत्थेहिं दोसेहिं॥ स्वीकार कर पढ़ाता है उसके भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। चारित्र के लिए गमन दो प्रकार से होता है-देश दोषों यह अविधि है। अतः विधि से जाना चाहिए। के कारण तथा आत्मसमुत्थदोषों के कारण। देश दोष दो ५४३५.दसणनिते पक्खो, आयरि-उज्झाय-सेसगाणं च। प्रकार के हैं-एषणादोष और स्त्रीदोष। आत्मसमुत्थदोष भी ___ एक्केक्क पंच दिवसे, अहवा पक्खेण सव्वे वि॥ दो प्रकार के हैं-गुरुदोष और गच्छदोष। गच्छ यदि जो दर्शन के प्रभावक शास्त्रों के अध्ययन के लिए आत्मसमुत्थदोषों से दुःखी है तो गच्छ को एक पक्षकाल जाता है वह आचार्य, उपाध्याय तथा अन्य श्रमणों को तक पूछता है, वहीं रहता है, पूछता है, उसके पश्चात् पांच-पांच दिन प्रत्येक की गणनानुसार एक पक्ष तक अन्य गच्छ में चला जाता है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ बृहत्कल्पभाष्यम् ५४४१.जहियं एसणदोसा, पुरकम्माई ण तत्थ गंतव्यं। वह एकाकी आचार्य को छोड़कर आया है। अथवा आचार्य उदगपउरो व देसो, जहिं व चरिगाइसंकिण्णो॥ के पास जो साधु हैं वे अपरिणत हैं, अथवा आचार्य अल्पाधार जिस देश में पुरःकर्म आदि एषणा दोषों का प्रसंग हो वहां वाले हैं, आचार्य स्थविर हैं, आचार्य ग्लान या बहुरोगी हैं, नहीं जाना चाहिए। जो देश जलप्रचुर हो, जैसे-सिंधु देश शिष्य मंदधर्मा हैं। वह शिष्य गुरु से कलह कर आया है। आदि वहां तथा जिस देश में चरिकाएं अर्थात् परिवाजिकाएं, ५४४७.एयारिसं विओसज्ज, विप्पवासो ण कप्पई। कापलिकी संन्यासिनियां आदि अधिक हों, वहां नहीं जाना सीस-पडिच्छा-ऽऽयरिए, पायच्छित्तं विहिज्जई। चाहिए। उनसे आकीर्ण देश का वर्जन करना चाहिए। ___ इस प्रकार के आचार्य का व्युत्सर्ग कर विप्रवास-गमन ५४४२.असिवाईहिं गता पुण, तक्कज्जसमाणिया तओ णिति। करना नहीं कल्पता। इसमें शिष्य, प्रतीच्छक और आचार्य आयरियमणिते पुण, आपुच्छिउ अप्पणा णिति॥ तीनों को प्रायश्चित्त आता है। यदि उन देशों में अशिव आदि कारणों से साधु गए हुए ५४४८.बिइयपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागाढे। हों तो कार्य की समाप्ति हो जाने पर वहां से लौट आते हैं। नाऊण तस्स भावं, अप्पणो भावं अणापुच्छा॥ यदि आचार्य वहां से आना न चाहें तो शिष्य उन्हें पूछकर ___इसका द्वितीयपद यह है-संविग्न या असंविग्न आचार्य के स्वयं लौट आते हैं। भावों को जानकर तथा अपने भावों का पर्यालोचन कर ५४४३.दो मासे एसणाए, इत्थिं वज्जेज्ज अट्ठ दिवसाई। आगाढ़कारण में भी आचार्य को बिना पूछे ही यहां से प्रस्थान गच्छम्मि होइ पक्खो , आयसमुत्थेगदिवसं तु॥ कर दे। जहां एषणा की शुद्धि न होती हो, वहां यतनापूर्वक ५४४९.सेज्जायरकप्पट्ठी, चरित्तठवणाए अभिगया खरिया। अनेषणीय भी ग्रहण करता हुआ, गुरु को पूछकर, दो मास सारूविओ गिहत्थो, सो वि उवाएण हायव्वो॥ तक प्रतीक्षा करे। जहां शय्यातरी आदि स्त्री का उपसर्ग हो, आचार्य ने शय्यातर की बेटी में चारित्र की स्थापना कर वहां स्वयं को दृढ रखते हुए, गुरु को पूछकर आठ दिन के दी अर्थात् वे उसकी प्रतिसेवना करने लगे। तदनन्तर पश्चात् उस क्षेत्र को छोड़ दे। जहां गच्छ दुःख पा रहा है, व्यक्षरिका कोई दासी या जीवादि के ज्ञानवाली कोई श्राविका वहां एक पक्ष तक गच्छ की पूछताछ कर जाना चाहिए। में आचार्य अध्युपपन्न हो गए। अतः वे सारूपिक' सिद्धपुत्रक स्वयं के आत्मसमुत्थ दोष (स्त्री संबंधी) में एक दिन पूछकर (गृहस्थ) हो जाते हैं। अतः उनका उपाय से परिहार करना जाता है। चाहिए। ५४४४.सेज्जायरिमाइ सएज्झए व आउत्थ दोस उभए वा। आपुच्छइ सन्निहियं, सण्णाइगतं व तत्तो उ॥ गणावच्छेइए य गणाओ अवक्कम्म यदि स्वयं शय्यातरी आदि तथा पड़ौसी की स्त्री में इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं अध्युपपन्न हो या परस्पर अध्युपपन्न हों तो, यदि आचार्य विहरित्तए, नो कप्पइ गणावच्छेइयस्स सन्निहित हों तो पूछकर जाए। यदि संज्ञाभूमि आदि में गए हों गणावच्छेइयत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं तो आचार्य को निवेदन करने के लिए मुनियों को कहकर गमन कर दे। उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ ५४४५.एयविहिमागयं तू, पडिच्छ अपडिच्छणे भवे लहुगा। गणावच्छेइयस्स गणावच्छेइयत्तं अहवा इमेहिं आगय, एगागि(दि) पडिच्छणे गुरुगा॥ निक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं इस विधि से आए हुए शिष्य को स्वीकार करे। स्वीकार विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। इस एक या अनेक आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं कारणों से आए हुए को स्वीकार करने पर चतुर्गुरु का गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से प्रायश्चित्त है। आपुच्छित्ता ५४४६.एगे अपरिणए या, अप्पाहारे य थेरए। आयरियं वा जाव गिलाणे बहुरोगी य, मंदधम्मे य पाहुडे। गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं १. सारूपिक-जिसका शिर मुंडित हो, जो सफेद वस्त्र पहनता हो, कच्छा नहीं बांधने वाला, अभार्याक, भिक्षा के लिए घूमता हो। सिद्धपुत्रक-मुंड, शिखा रखने वाला, सभार्याक। (वृ. पृ. १४४४) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक = ५६३ वाचनाचार्य को अर्पित नहीं करता तब तक वह उसी का आभाव्य होता है। ५४५२.पंचण्हं एगयरे, उग्गहवज्जं तु लभति सच्चित्तं। आपुच्छ अट्ठ पक्खे, इत्थीसत्थेण संविग्गो॥ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदक-इन पांचों में से कोई एक संयतियों को ले जाता है। वहां परक्षेत्रावग्रह को छोड़कर जो सचित्त प्राप्त होता है, वह उसी का होता है। जो निर्ग्रन्थी ज्ञान के लिए जाती है, वह आठ पक्षों को पूछती है। वह आचार्य, उपाध्याय, वृषभ तथा गच्छ को और संयती वर्ग में प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिका, अभिषेका तथा शेष साध्वी वर्ग-इन सबको-एक-एक पक्ष तक पूछती है। वे प्रस्थित साध्वियां स्त्रीवर्ग के साथ तथा संविग्न मुनि को साथ लेकर जाती हैं। उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। (सूत्र १७) आयरिय-उवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं निक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। (सूत्र १८) अण्ण भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥ (सूत्र १९) ५४५०.एमेव गणावच्छे, गणि-आयरिए वि होइ एमेव। __ नवरं पुण नाणत्तं, ते नियमा हुंति वत्ता उ॥ भिक्षु की भांति गणावच्छेदिक की तथा उपाध्याय और आचार्य की भी अन्यगण में जाने की यही विधि है। यह विशेष है कि गणावच्छेदिक आदि नियमतः व्यक्त होते हैं। ५४५१.एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। नाणट्ठ जो उ नेई, सच्चित्त ण अप्पिणे जाव।। यही विधि नियमतः निर्ग्रन्थियों की जाननी चाहिए। जो आर्यिकाओं को ज्ञान के लिए ले जाता है, उसे जो सचित्त आदि का लाभ होता है, उस लाभ को जब तक वह Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बृहत्कल्पभाष्यम् ५६४ ५४५३.संभोगो वि हु तिहिं कारणेहिं नाणट्ठ दसण चरित्ते। संकमणे चउभंगो, पढमो गच्छम्मि सीयंते॥ संभोग (एक मंडली में भोजन करना) भी तीन कारणों से होता है-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। गण से संक्रमण की विधि पूर्वोक्त ही है। चारित्र के लिए उपसंपन्न की चतुर्भंगी होती है १. गच्छ अनुत्साहित होता है, आचार्य नहीं। २. आचार्य अनुत्साहित होता है, गच्छ नहीं। ३. दोनों अनुत्साहित होते हैं। ४. दोनों अनुत्साहित नहीं होते। (यहां चरण-करण की क्रियाओं में अनुत्साहित होना है।) यहां प्रथम भंग गच्छ अनुत्साहित होता है, यह मानना चाहिए। ५४५४.पडिलेह दियतुअट्टण, निक्खिव आदाण विणय सज्झाए। आलोग-ठवण-भत्तट्ठ-भास पडल-सेज्जातराईसु ॥ गच्छ के साधु प्रत्युपेक्षण विधिपूर्वक तथा काल में नहीं करते, बिना कारण दिन में सोते हैं, दंड आदि लेने-रखने में प्रत्युपेक्षण नहीं करते, विनय और स्वाध्याय नहीं करते, सात प्रकार के आलोक का प्रयोग (ओघनि. गाथा ४६३) नहीं करते, स्थापना कुलों की स्थापना नहीं करते, भक्तार्थ-मंडली में भोजन नहीं करते, सावध भाषा बोलते हैं, पटल में लाया हुआ खाते हैं, शय्यातर का पिंड खाते हैं, उद्गम आदि अशुद्ध पिंड का भोग करते हैं। ५४५५.चोयावेइ य गुरुणा, विसीयमाणं गणं सयं वा वि। ___ आयरियं सीयंतं, सयं गणेणं च चोयावे॥ गण यदि चारित्र की क्रियाओं में विषादग्रस्त होता है तो गुरु उसको प्रेरणा देते हैं अथवा स्वयं गच्छ प्रेरित हो जाता है। आचार्य यदि विषाद पाते हैं तो गच्छ अथवा स्वयं की प्रेरणा से विषाद मिट जाता है। यह पहले तथा दूसरे भंग की बात है। ५४५६.दुन्नि वि विसीयमाणे, सयं व जे वा तहिं न सीयंति। ठाणं ठाणाऽऽसज्ज उ, अणुलोमाईहिं चोएति॥ तीसरे भंग के अनुसार जहां गच्छ और आचार्य-दोनों सामाचारी पालन में अनुत्साहित होते हैं, वहां स्वयं प्रेरित होते हैं अथवा जो सामाचारी की पालना करते हैं, उनसे प्रेरित होते हैं। नोदना-योग्य पात्र को पाकर अनुलोम आदि योग्य वचनों से नोदना करते हैं। ५४५७.भणमाणे भणाविंते, अयाणमाणम्मि पक्खो उक्कोसो। लज्जाए पंच तिन्नि व, तुह किं ति व परिणय विवेगो॥ गच्छ या आचार्य को अथवा दोनों को अनुत्साहित देखकर स्वयं कहता हुआ या अन्य साधुओं के द्वारा कहलाता हुआ वहां रहता है। जहां यह नहीं जानता कि ये प्रेरित किए जाने पर भी उद्यम नहीं करेंगे, वहां उत्कृष्टतः एक पक्ष रहे। गुरु को अनुत्साहित देखकर लज्जा या गौरव से जानता हुआ भी परंच या तीन दिन तक कुछ भी न कहने पर भी शुद्ध है। यदि गुरु या गच्छ कहे कि तुम्हें क्या? हम अनुत्साहित हैं तो हम उसका फल भोगेंगे। उनका भाव इस प्रकार परिणत होने पर उनका विवेकपरित्याग कर देना चाहिए। ५४५८.संविग्गविहाराओ, संविग्गा दुन्नि एज्ज अन्नयरे। आलोइयम्मि सुद्धो, तिविहोवहिमग्गणा नवरिं॥ संविग्नविहारी गच्छ से दो संविग्न मुनि-गीतार्थ और अगीतार्थ विलग हो जाते हैं और दोनों में से कोई एक मुनि पुनः गच्छ में आता है तो जिस दिन से वह उस गच्छ से विलग हुआ हो, उस दिन से सारी आलोचना करता है तो वह शुद्ध है। उस समय त्रिविध उपधि की मार्गणा करनी चाहिए। ५४५९.गीयमगीतो गीते, अप्पडिबद्धे न होइ उवघातो। अविगीयस्स वि एवं, जेण सुता ओहनिज्जुत्ती॥ वह संविग्न मुनि गीतार्थ या अगीतार्थ हो सकता है। यदि गीतार्थ मुनि वजिका आदि में अप्रतिबद्ध होकर आया है तो उसके न उपधि का उपघात होता है और न प्रायश्चित्त आता है। जिस अगीतार्थ ने ओघनियुक्ति सुनी है, उसके लिए भी यही विधि है। ५४६०.गीयाण विमिस्साण व, दुण्ह वयंताण वइयमाईसु। पडिबज्झंताणं पि हु, उवहि ण हम्मे ण वाऽऽरुवणा॥ गीतार्थ और गीतार्थ विमिश्र-दोनों जाते हुए वजिका आदि में प्रतिबद्ध होने पर भी उनकी उपधि का हनन नहीं किया जाता तथा उनको आरोपणा प्रायश्चित्त भी नहीं आता। ५४६१.आगंतुमहागडयं, वत्थव्वअहाकडस्स असईए। मेलिंति मज्झिमेहिं, मा गारवकारणमगीए॥ गीतार्थ या अगीतार्थ के तीन प्रकार की उपधि होती हैयथाकृत, अल्पपरिकर्मा और सपरिकर्मा। वहां वास्तव्य मुनियों के पास यथाकृत उपधि नहीं है, अल्पपरिकर्मा उपधि है तो उस मध्यम उपधि के साथ यथाकृत उपधि मिला लेते हैं। यदि न मिलाएं तो अगीतार्थ के लिए वह गौरव का निमित्त बन जाता है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६८.पंचेगतरे गीए, आरुभियवते जयंतए तम्मि। जं उवहिं उप्पाए, संभोइत सेसमुज्झंति॥ इन पार्श्वस्थ आदि पांचों में से कोई एक आता है और वह गीतार्थ है तो वह स्वयं महाव्रतों को अपने में आरोपित कर, यतमान होकर, उसमें जो प्राप्त करता है, वह सांभोगिक उपधि है, उसे रखकर शेष का परिष्ठापन कर देता है। ५४६९.पासत्थाईमुंडिए, आलोयण होइ दिक्खपभियं तु। संविग्गपुराणे पुण, जप्पभिई चेव ओसण्णो॥ जो पार्श्वस्थ आदि से प्रव्रजित है, उसके दीक्षा दिन से आलोचना होती है। जो पहले संविग्न था, फिर पार्श्वस्थ हो गया, उसके जब से वह अवसन्न हुआ है तब से आलोचना होती है। चौथा उद्देशक ५४६२.गीयत्थे ण मेलिज्जइ, जो पुण गीओ वि गारवं कुणइ। तस्सुवही मेलिज्जइ, अहिकरण अपच्चओ इहरा॥ गीतार्थ यदि अगौरवी है तो उसकी उपधि अन्य उपधि के साथ नहीं मिलाई जाती। जो गीतार्थ होकर भी गौरव करता है, उसकी उपधि मिलाई जाती है। शिष्य ने पूछा-क्यों? आचार्य कहते हैं-उत्कृष्ट उपधि के साथ जघन्य उपधि का मिश्रण देखकर गीतार्थ कलह कर सकता है तथा शैक्षों को अप्रत्यय हो सकता है। ५४६३.एवं खलु संविग्गे, संविग्गे संकम करेमाणे। संविग्गमसंविग्गे, असंविग्गे यावि संविग्गे॥ इस प्रकार संविग्न मुनि का संविग्न मुनि के गच्छ में संक्रमण करने की विधि कही गई है। अब संविग्न के असंविग्न गच्छ में संक्रमण तथा असंविग्न का संविग्न में संक्रमण की विधि बतलाई जा रही है। ५४६४.सीहगुहं वग्घगुहं, उदहिं व पलित्तगं व जो पविसे। असिवं ओमोयरियं, धुवं से अप्पा परिच्चत्तो॥ जो सिंह की गुफा में, व्याघ्र की गुफा में, समुद्र में या प्रदीप्त नगर में प्रवेश करता है तथा जो अशिव, अवमौदर्य वाले क्षेत्र में जाता है, उसने निश्चित ही अपनी आत्मा को परित्यक्त कर दिया है। ५४६५.चरण-करणप्पहीणे, पासत्थे जो उ परिवसए समणो। जतमाणए पजहिउं, सो ठाणे परिच्चयइ तिण्णि। इसी प्रकार जो श्रमण चरण-करण रहित पार्श्वस्थ आदि में प्रवेश करता है वह यतमान अर्थात् संविग्न मुनियों को छोड़कर तीन स्थानों-ज्ञान-दर्शन और चारित्र से परित्यक्त हो जाता है। ५४६६.एमेव अहाछंदे, कुसील-ओसन्न-नीय-संसत्ते। ___ जं तिन्नि परिच्चयई, नाणं तह दंसण चरित्तं॥ इसी प्रकार जो श्रमण यथाच्छंद तथा कुशील, अवसन्न, नित्यवासी तथा संसक्तों के स्थान में प्रवेश करता है वह पूर्वोक्त तीनों स्थानों-ज्ञान, दर्शन और चारित्र को परित्यक्त करता है। ५४६७.पंचण्हं एगयरे, संविग्गे संकम करेमाणे। आलोइए विवेगो, दोसु असंविग्गे सच्छंदो। जो संविग्न मुनि इन पांचों-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त तथा यथाच्छंद-में से किसी एक में संक्रमण करता हुआ पहले आलोचना करे, फिर अशुद्ध उपधि का विवेकपरित्याग करे। जो दो में अर्थात् ज्ञान और दर्शन में असंविग्न है, वह उपसंपन्न होने में स्वच्छंद है उसे कोई प्रतीच्छक के रूप में स्वीकार न करे। गणावच्छेइए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ गणावच्छेइयस्स गणावच्छेइयत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ गणावच्छेइयस्स गणावच्छेइयत्तं निक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ५४७०.एमेव गणावच्छे, गणि-आयरिए वि होइ एमेव। णवरं पुण णाणत्तं, एते नियमेण गीया उ॥ इसी प्रकार ही गणावच्छेदिक, गणी-उपाध्याय और आचार्य के भी यही विधि है। इसमें नानात्व यह है कि ये सभी नियमतः गीतार्थ होते हैं। ५६६ विहरित्तए; जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥ (सूत्र २०) आयरिय-उवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो कप्पइ आयरियउवज्झायस्स आयरिय-उवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं निक्खिवित्ता अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥ (सूत्र २१) भिक्खू य इच्छेज्जा अण्णं आयरियउवज्झायं उहिसावेत्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावेत्तए; ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं आयरिय-उवज्झायं उहिसावेत्तए। नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवेत्ता अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइ से तेसिं कारणं दीवेत्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावेत्तए॥ (सूत्र २२) ५४७१.सुत्तम्मि कड्डियम्मी, आयरि-उज्झाय उदिसाविति। तिण्हऽट्ठ उद्दिसिज्जा, णाणे तह दंसण चरित्ते॥ सूत्रार्थ के कथन के पश्चात् नियुक्तिविस्तार इस प्रकार है-अभिनव आचार्य और उपाध्याय को इन तीन प्रयोजनों से उद्दिष्ट करे-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए तथा चारित्र के लिए। ५४७२.नाणे महकप्पसुतं, सिस्सत्ता केइ उवगए देयं। तस्सऽट्ट उद्दिसिज्जा, सा खलु सेच्छा ण जिणआणा॥ किसी आचार्य के पास महाकल्पश्रुत है। ज्ञानार्थ जाने वाला उसे पढ़ना चाहता है। आचार्य ने यह मर्यादा बना रखी है कि जो शिष्यत्व स्वीकार करेगा, उसी को वह श्रुत दिया जायेगा। उसके लिए उसको उद्दिष्ट करे। आचार्य ने जो मर्यादा की है वह जिनाज्ञा नहीं है, वह स्वेच्छागत है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५४७३.विज्जा-मंत-निमित्ते, हेऊसत्थट्ठ दसणट्ठाए। __ चरित्तट्ठा पुव्वगमो, अहव इमे हुंति आएसा॥ कोई विद्या, मंत्र, निमित्त तथा हेतुशास्त्र-गोविन्दनियुक्ति आदि के अध्ययन के लिए, दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने के लिए जाता है। चारित्र के लिए जाने वाले के लिए ये ही पूर्वोक्त विकल्प हैं। अथवा ये आदेश-प्रकार हैं। ५४७४.आयरिय-उवज्झाए, ओसण्णोहाविते व कालगते। ओसण्ण छव्विहे खलु, वत्तमवत्तस्स मग्गणया॥ आचार्य अथवा उपाध्याय अवसन्न हो गया, या अवधारित हो गया (गृहस्थ बन गया), या कालगत हो गया। अवसन्न के छह प्रकार हैं-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त, नित्यवासी तथा यथाच्छंद। उसका जो शिष्य है, वह आचार्यपद योग्य है, वह व्यक्त या अव्यक्त है, उसकी मार्गणा यह है। ५४७५.वत्ते खलु गीयत्थे, अव्वत्ते वएण अहव अगीयत्थे। वत्तिच्छ सार पेसण, अहवाऽऽसण्णे सयं गमणं॥ व्यक्त-अव्यक्त की चतुर्भंगी यह है१. वय से व्यक्त (सोलह वर्ष का), श्रुत से भी व्यक्त (गीतार्थ)। २. वय से व्यक्त, श्रुत से अव्यक्त। ३. वय से अव्यक्त श्रुत से व्यक्त। ४. वय और श्रुत-दोनों से अव्यक्त। प्रथम भगवर्ती शिष्य जो दोनों से व्यक्त है, यह उसकी इच्छा है कि वह अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करे या न करे। तब दूरस्थ कोई अवसन्न आचार्य हैं, उनको प्रेरित करने के लिए एक मुनि संघाटक को भेजा जाता है। अथवा वे निकट हों तो आचार्य स्वयं जाकर उनको प्रेरित करे। ५४७६.एगाह पणग पक्खे, चउमासे वरिस जत्थ वा मिलइ। चोएइ चोयवेइ व, णेच्छंते सयं तु वट्टावे॥ प्रतिदिन या पांच दिनों से या पक्ष में, चातुर्मास में या वर्ष में अथवा जहां समवसरण आदि में मिलते हैं वहां स्वयं उनको प्रेरित करता है, दूसरों से प्रेरित करवाता है, फिर भी यदि वे नहीं चाहते तो स्वयं ही गण की बागडोर संभाले। ५४७७.उद्दिसइ व अन्नदिसं, पयावणट्ठा न संगहट्ठाए। जइ णाम गारवेण वि, मुएज्ज णिच्चे सयं ठाई॥ अथवा वह उभयव्यक्त अन्य आचार्य को इसलिए उद्दिष्ट करता है कि वह निकटस्थ आचार्य उत्तेजित हो, गण के संग्रह के लिए ऐसा नहीं करता। वह आचार्य सोचता है-'मेरे जीवित रहते ये अपर आचार्य को लाना चाहते हैं तो अच्छा है मैं पार्श्वस्थता को छोड़ दूं।' यदि इस गौरव से भी पार्श्वस्थता को छोड़ता है तो अच्छा है। वह गण के भार को ५६७ लेने का इच्छुक न होते हुए भी स्वयं ही गच्छाधिपति के रूप में संलग्न हो जाता है। ५४७८.सुअवत्तो वतऽवत्तो, भणइ गणं ते ण सारितुं सत्तो। सारेहि सगणमेयं, अण्णं व वयामो आयरियं॥ जो श्रुत से व्यक्त है परंतु वय से अव्यक्त है, वह आचार्य को कहता है-मैं तुम्हारे गण की सार-संभाल करने में असमर्थ हूं, इसलिए तुम अपने इस गण की देखरेख करो। हम दूसरे आचार्य को उद्दिष्ट करेंगे, उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लेंगे। ५४७९.आयरिय-उवज्झायं, निच्छंते अप्पणा य असमत्थे। तिगसंवच्छरमद्धं, कुल गण संघे दिसाबंधो॥ ऐसा कहने पर यदि आचार्य अथवा उपाध्याय संयम में रहना नहीं चाहते और वह गण की सार-संभाल करने में असमर्थ हो तो कुलसत्कआचार्य या उपाध्याय को उद्दिष्ट करता है। वहां वह तीन वर्ष रहता है, उसके पश्चात् गणाचार्य को उद्दिष्ट कर एक संवत्सर तथा संघाचार्य का दिग्बंध स्वीकार कर छह मास तक वहीं रहता है। ५४८०.सच्चित्तादि हरंती, कुलं पि नेच्छामो जं कुलं तुब्भं। बच्चामो अन्नगणं, संघं व तुम जइ न ठासि॥ इसके पश्चात् आचार्य कहता है-तुम्हारे कुल और आचार्य हमारे सचित्त आदि का हरण करते हैं अतः हम कुल भी नहीं चाहते। यदि तुम हरण करने से अब भी विरत नहीं होते हो तो हम अन्य गण या कुल में चले जाते हैं। ५४८१.एवं पि अठायंते, ताहे तू अद्धपंचमे वरिसे। सयमेव धरेइ गणं, अणुलोमेणं च सारेइ॥ यदि पूर्व आचार्य साढ़े पांच वर्षों तक प्रेरित होते हुए भी नहीं ठहरते तो वह स्वयं ही गण को धारण करे। अनुलोम वचनों से गण की सारणा करे। ५४८२.अहव जइ अत्थि थेरा, सत्ता परियट्टिऊण तं गच्छं। दुहओवत्तसरिसगो, तस्स उ गमओ मुणेयव्वो॥ अथवा यदि स्थविर हों और वे गण की सार-संभाल करने में समर्थ हों तो वे देखरेख करे और वह सूत्रार्थ वाचना दे। यहां द्विधाव्यक्तसदृश विकल्प जानना चाहिए। ५४८३.वत्तवओ उ अगीओ, जइ थेरा तत्थ केइ गीयत्था। तेसंतिगे पढंतो, चोएइ स असइ अण्णत्थ॥ जो वय से व्यक्त हो, परंतु अगीतार्थ हो और उस गण के यदि स्थविर कोई गीतार्थ हो तो उनके पास पढ़कर गण की भी देखरेख करता है। वह अवसन्न आचार्य को प्रेरित भी करता है। गीतार्थ स्थविरों के अभाव में गण को अन्यत्र उपसंपन्न करता है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ बृहत्कल्पभाष्यम् ५४८४.जो पुण उभयअवत्तो, वट्टावग असइ सो उ उद्दिसई। सव्वे वि उद्दिसंता, मोत्तूण उद्दिसंति इमे॥ जो वय और श्रुत-दोनों से अव्यक्त है और यदि गच्छ का वर्तापक न हो तो दूसरे आचार्य को उद्दिष्ट करता है। चारों भंगवर्ती यदि सभी अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करते हैं तो इन आचार्य को छोड़कर करते हैं। ५४८५.संविग्गमगीयत्थं, असंविग्गं खलु तहेव गीयत्थं। ___ असंविग्गमगीयत्थं, उद्दिसमाणस्स चउगुरुगा। संविग्न अगीतार्थ, असंविग्न गीतार्थ, असंविग्न अगीतार्थ इन तीनों को आचार्य रूप में उद्दिष्ट करने वाले को चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त आता है। ये क्रमशः काल से और तप से तथा तदुभय से गुरुक होते हैं। ५४८६.सत्तरत्तं तवो होइ, तओ छेओ पहावई। छेदेण छिण्णपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं॥ सात रात का तप, फिर छेद, छेद से पर्याय छिन्न होने से फिर मूल और फिर अनवस्थाप्य और पारांचिक। यह जानकर संविग्न गीतार्थ को उद्दिष्ट करना चाहिए। यह प्रायश्चित्तवृद्धि अयोग्य को उद्दिष्ट करने पर होती है। ५४८७.छट्ठाणविरहियं वा, संविग्गं वा वि वयइ गीयत्थं। चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ छह स्थानों से विरहित जो संविग्न और गीतार्थ हो, वह यदि काथिक आदि दोष सहित हो, उसको यदि उद्दिष्ट किया जाता है तो चार अनुद्घात तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ५४८८.छट्ठाणा जा नियगो, तविरहिय काहियाइता चउरो। ते वि य उद्दिसमाणे, छट्ठाणगयाण जे दोसा॥ छह स्थानों-पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त, यथाच्छंद तथा नित्यवासी-इन से विरहित जो काथिक, प्राश्निक, मामाक तथा सम्प्रसारक इन चारों में से किसी को उद्दिष्ट करता है तो षट्स्थान गत जो दोष होते हैं, वे सारे प्राप्त होते हैं। ५४८९.ओहाविय कालगते, जाधिच्छा ताहि उद्दिसावेइ। अव्वत्ते तिविहे वी, णियमा पुण संगहट्ठाए। गुरु के अवधावन करने-गृहस्थ हो जाने पर या कालगत हो जाने पर, प्रथम भंग को वर्जित कर जो शेष तीनों भंगों के अनुसार अव्यक्त है, वह जब चाहता है तब अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करता है। वह अव्यक्त होने के कारण नियमतः संग्रह और उपग्रह के लिए ही उद्दिष्ट करता है। १. प्रस्तुत गाथा का तात्पर्य इन अयोग्य व्यक्तियों को आचार्यरूप में उद्दिष्ट करने पर यह प्रायश्चित्तवृद्धि होती है-प्रथम सप्तरात्र के प्रत्येक दिन चतुर्गुरु, दूसरे सप्तरात्र के प्रत्येक दिन षड्लघु, तीसरे में षड्गुरु, चौथे में चतुर्गुरुकछेद, पांचवें में षड्लघुकछेद, छठे में षड्गुरुकछेद-इस प्रकार बयांलीस ५४९०.ओहाविय ओसन्न, भणइ अणाहा वयं विणा तुज्झे। कम सीसमसागरिए, दुप्पडियरगं जतो तिण्ह।। अवधावित अथवा अवसन्न गुरु के पैरों में शिर रखकर एकांत में कहे-भंते! तुम्हारे बिना हम अनाथ हो गए हैं। तुम फिर संयम में स्थिर होकर हमें सनाथ करो। शिष्य ने प्रश्न किया गृहस्थीभूत अचारित्री के चरणों में सिर कैसे दिया जाता है? आचार्य कहते हैं ये तीन दुष्प्रतिकर होते हैंमाता-पिता, स्वामी और गुरु। इन तीनों के उपकार का बदला नहीं चुकाया जा सकता। ५४९१.जो जेण जम्मि ठाणम्मि ठाविओ दंसणे व चरणे वा। सो तं तओ चुतं तम्मि चेव काउं भवे निरिणो॥ जिस आचार्य ने जिस शिष्य को दर्शन या चारित्र-जिस स्थान में स्थापित किया है, उस आचार्य को उन स्थानों से च्युत हुए देखकर उसको पुनः उस स्थान में स्थापित करने से शिष्य उनके ऋण से उऋण हो सकता है। गणावच्छेइए य इच्छेज्जा अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए, नो से कप्पइ गणावच्छेइयत्तं अणिक्खिवेत्ता अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइसेगणावच्छेइयत्तं निक्खिवेत्ताअण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयंवाअण्णं आयरिय-उवज्झायं उहिसावेत्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावेत्तए, ते य से नो वियरेज्जा,एवं सेनोकप्पइअण्णं आयरियउवज्झायं उद्दिसावेत्तए, नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदीवेत्ताअण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइसे तेसिं कारणं दीवेत्ता अण्णं आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए॥ (सूत्र २३) दिन व्यतीत हो जाने पर तैयालीसवें दिन मूल, चौवालीसवें दिन अनवस्थाप्य और पैंतालीसवें दिन पारांचिक। अथवा षड्गुरुक तप के पश्चात् पहले ही सप्तरात्र का षड्गुरुकछेद, तदनन्तर मूल, अनवस्थाप्य, पारांचिक-पूर्ववत्। अथवा तप के अनन्तर पंचकादि छेद सात सप्तक दिन का होता है। शेष पूर्ववत्। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५६९ आयरिय-उवज्झाए इच्छेज्जा अण्णं दोनों-गणावच्छेदिक और आचार्य-उपाध्याय यदि दो के आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए, नो से लिए अर्थात् ज्ञान, दर्शन के लिए जाते हों तो वे अपने स्वगण का निक्षेपण संविग्न आचार्य के पास करे। यदि आयरिय-उवज्झायत्तं कप्पइ स्वगण अनुत्साहित होता है तो स्वगण को साथ लेकर अणिक्खिवेत्ता अण्णं आयरिय-उवज्झायं जाते हैं। वहां उसका निक्षेपण नहीं करते, क्योंकि यह उद्दिसावेत्तए; कप्पइ से आयरिय आशंका रहती है कि वहां शिष्यों को छोड़ने से वे कहीं उवज्झायत्तं निक्खिवेत्ता अण्णं आयरिय नष्ट न हो जाएं। उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। णो से कप्पइ ५४९४.वत्तम्मि जो गमो खलु, अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणवच्छे सो गमो उ आयरिए। गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरिय निक्खिवणे तम्मि चत्ता, जमुद्दिसे तम्मि ते पच्छा। उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइ से जो विधि उभय व्यक्त के लिए कही गई है वही आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेदक और आचार्य के लिए जाननी चाहिए। असंविग्न गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरिय- के पास निक्षेपण करने से वे शिष्य परित्यक्त हो जाते हैं। उवज्झायं उहिसावेत्तए। ते य से अतः जिस आचार्य को वह गणावच्छेदिक तथा आचार्य वितरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं आयरिय उद्दिष्ट करते हैं, उनके पास ही अपने शिष्यों को भी पश्चात् उवज्झायं उद्दिसावेत्तए, ते य से नो उद्दिष्ट कर देते हैं। ५४९५.जह अप्पगं तहा ते, तेण पहुप्पंते ते ण घेत्तव्वा। वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं अपहप्पंते गिण्हइ, संघाडं मुत्तु सव्वे वा॥ आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए। नो से जैसे स्वयं को वैसे ही उन साधुओं को भी कहते हैं। यदि कप्पइ तेसिं कारणं अदीवेत्ता अण्णं आचार्य के पास पर्याप्त साधु हों तो उन साधुओं को ग्रहण न आयरिय-उवज्झायं उद्दिसावेत्तए; कप्पइ करे। यदि पर्याप्त साधु न हों तो साधुओं का एक संघाटक से तेसिं कारणं दीवेत्ता अण्णं आयरिय- उसको दे दें और शेष अपने पास रख लें। यदि सहायक उवज्झायं उदिसावेत्तए॥ साधु हो ही नहीं तो सबको ग्रहण कर ले। (सूत्र २४) ५४९६.सहु असहुस्स वि तेण वि, वेयावच्चाइ सव्व कायव्वं । ते तेसि अणाएसा, वावारेउं न कप्पंति॥ ५४९२.तीसु वि दीवियकज्जा, उस प्रतीच्छक आचार्य को भी उस असहिष्णु या विसज्जिता जइ य तत्थ तं णत्थि।। सहिष्णु आचार्य का वैयावृत्य आदि सभी करना चाहिए। उन णिक्खिविय वयंति दुवे, साधुओं को भी बिना आचार्य के आदेश के व्याप्त नहीं भिक्खू किं दाणि णिक्खिवतू॥ किया जा सकता। तीनों-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के लिए गुरु को अपना प्रयोजन निवेदित कर, उनके द्वारा विसर्जित होने पर उस वीसुंभवण-पदं गण में जाते हैं जहां अवसन्नता आदि न हो। गणावच्छेदिक तथा आचार्य-उपाध्याय-ये दोनों जब ज्ञान आदि के लिए भिक्खू य राओ वा वियाले वा आहच्च जाते हैं तो अपना गणावच्छेदिकत्व तथा आचार्य- वीसुंभेज्जा, तं च सरीरगं केइ उपाध्यायत्व को निक्षिप्त कर छोड़कर जाते हैं। भिक्षु इस वेयावच्चकरे इच्छेज्जा एगंते बहुफासुए समय क्या निक्षिप्त करे? गण के अभाव में उसका कुछ भी पएसे परिट्ठवेत्तए, अत्थि या इत्थ केइ निक्षेपणीय नहीं होता। सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते ५४९३.दुण्हऽट्ठाए दुण्ह वि, निक्खिवणं होइ उज्जमतेसु। सीअंतेसु अ सगणो, वच्चइ मा ते विणासिज्जा। परिहरणारिहे, कप्पइ से सागारियकर्ड Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० गहाय तं सरीरगं एगंते बहुफासुए पएसे परिद्ववेत्ता तत्थेव उवनिक्खिवियव्वे सिया ॥ (सूत्र २५) ५४९७. तिहिं कारणेहिं अन्नं, आयरियं उद्दिसिज्ज तहिं दुण्णि । मुत्तुं तइए पगयं, वीसुंभणसुत्तजोगोऽयं ॥ तीन कारणों से अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करने का कथन किया गया है। दो लक्षणों - अवधावित और अवसन्न - को छोड़कर तीसरे लक्षण - कालगत का प्रसंग है। यह सूत्र का संबंध है। ५४९८. अहवा संजमजीविय, भवग्गहणजीवियाउ विगए वा । अणुस वुत्तो, इमं तु सुत्तं भवच्चाए ॥ अथवा संयमजीवन से या भवग्रहणजीवितव्य से विगत हो जाने पर अन्य आचार्य को उद्दिष्ट करने का कथन पूर्वसूत्र में कहा है। प्रस्तुत सूत्र भवजीवित के परित्याग से संबंधित है। ५४९९. पुव्विं दव्वोलोयण, नियमा गच्छे उवक्कमनिमित्तं । भत्तपरिण्ण गिलाणे, पुव्वुग्गहो थंडिलस्सेव ॥ पहले वहां वास्तव्य गच्छवासी साधु नियमतः उपक्रम - निमित्त-मरण के निमित्त द्रव्य का वहनकाष्ठ का अवलोकन करते हैं। वह मरण भक्तपरिज्ञा अनशन के कारण या ग्लानत्व के कारण हो सकता है। अतः पहले से ही स्थंडिल आदि का प्रत्युपेक्षण करना चाहिए । ५५००. पडिलेहणा दिसा गंतए य काले दिया व राओ य । जग्गण- बंधण- छेयण, एयं तु विहिं तहिं कुज्जा | ५५०१. कुसपडिमाइ णियत्तण, मत्तग सीसे तणाई उवगरणे । काउस्सग्ग पदाहिण, अब्भुट्ठाणे य वाहरणे ॥ ५५०२. काउस्सग्गे सज्झाइए य खमणस्स मग्गणा होइ । वोसिरणे आलोयण, सुभा - ऽसुभगइ निमित्तट्ठा ॥ सबसे पहले वहनकाष्ठ और स्थंडिल की प्रत्युपेक्षणा करे। फिर दिशा का निर्धारण करे, अनन्तक-मृत के आच्छादन के लिए वस्त्र सदा अपने पास रखे। दिन में या रात्री में कोई भी कालगत हो सकता है, रात्री में शव को रखने पर जागरण, छेदन, बंधण - यह विधि करनी चाहिए । नक्षत्र को देखकर कुश की प्रतिमा बनाए, जिस रास्ते से जाए उसी रास्ते से न लौटे, मात्रक में पानी जाए, मृतक का सिर गांव की ओर करे, तृणों को समानरूप से बिछाए, उसके उपकरण पास में रखे, स्थंडिल में कायोत्सर्ग न करे, प्रदक्षिणा बृहत्कल्पभाष्यम् न दे, शव यदि उठ जाए तो वसति को छोड़ दे, जिसका व्याहरण-नामग्रहण करे उसका लुंचन करे, गुरु के पास आकर कायोत्सर्ग करे, स्वाध्यायक और क्षपण की मार्गणा करे, उच्चार आदि मात्रकों का परिष्ठापन करे। शुभाशुभगति को तथा निमित्त को जानने के लिए परिष्ठापित शव का अवलोकन करे। इन सबका विशद वर्णन इस प्रकार है५५०३. जं दव्वं घणमसिणं, वावारजढं च चिट्ठए बलियं । वेणुमय दारुगं वा, तं वहणट्ठा पलोयंति ॥ जो द्रव्य वेणुमय या लकड़ी का हो, सघन और चिकना हो, पहले व्यापृत न हो, मजबूत हो और वह गृहस्थ के वहां पड़ा हो तो उस वहन करने योग्य काष्ठ को पहले ही देख ले, महास्थंडिल का भी प्रत्युपेक्षणा कर ले। ५५०४. अत्थंडिलम्मि काया, पवयणघाओ य होइ आसण्णे । छड्डावण गहणाई, परुग्गहे तेण पेहिज्जा ॥ अस्थंडिल में शव का परिष्ठापन करने पर षट्काय की विराधना होती है। ग्राम आदि के निकट परिष्ठापन करने से प्रवचनघात होता है। दूसरों के अवग्रह में परिष्ठापित करने पर शव का छर्दापन- बलपूर्वक अन्यत्र निक्षेप हो सकता है तथा ग्रहण - आकर्षण आदि दोष हो सकते हैं। अतः स्थंडिल की प्रत्युपेक्षणा पहले करनी चाहिए । ५५०५. दिस अवरदक्खिणा दक्खिणा य अवरा य दक्खिणापुव्वा । अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुव्वुत्तरा चैव ॥ शव परिष्ठापन के लिए दिशा का अवलोकन करना चाहिए। सबसे पहले अपरदक्षिणा अर्थात् नैर्ऋती दिशा, उसके अभाव में दक्षिण, तत्पश्चात् पश्चिम, दक्षिणपूर्वआग्नेयी, अपरा - उत्तरा - वायवी, पूर्व, उत्तर, उत्तरपूर्व । यह दिशाओं का क्रम है। इनका परिणाम ५५०६. समाही य भत्त-पाणे, उवकरणे तुमंतुमा य कलहो य । भेदो गेलन्नं वा, चरिमा पुण कड्डए अण्णं ॥ प्रथम दिशा (निर्ऋती) में परिष्ठापन करने से भक्त - पान की प्राप्ति और उससे समाधि होती है। दक्षिण दिशा में भक्तपान की अप्राप्ति होती है। पश्चिम दिशा में उपकरणों की प्राप्ति नहीं होती । दक्षिण-पूर्व में करने से तू-तू, मैं-मैं, वायवी दिशा में कलह, पूर्व में करने से गणभेद या चारित्रभेद, उत्तर में ग्लानत्व, चरिमा अर्थात् पूर्वोत्तर में करने से एक साधु की और मृत्यु होती है। ५५०७. आसन्न मज्झ दूरे, वाघातट्ठा तु थंडिले तिन्नि । खेत्तुदय - हरिय- पाणा, णिविट्ठमादी व वाघाए ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक प्रथम दिशा में भी व्याघात न हो इसलिए तीन स्थंडिलों की प्रत्युपेक्षा - गांव के निकट, मध्य में तथा दूर करनी चाहिए ये व्याघात हो सकते हैं उस प्रदेश को कोई खेत बना दे, पानी से आप्लावित हो जाए, हरियाली हो जाए, प्राणियों से संसक्त हो जाए, गांव उजड़ जाए, अथवा सार्थ आदि आकर वहां रह जाए। ५५०८. एसणपेल्लण जोगाण व हाणी भिण्ण मासकप्पो वा । भत्तोवधीअभावे, इति दोसा तेण पढमम्मि ॥ ऐसी स्थिति में अन्न-पान आदि का लाभ न होने पर एषणा की प्रेरणा करनी होती है, अन्यथा योगों कीआवश्यक प्रवृत्तियों की हानि होती है, मासकल्प भिन्न हो जाता है। भक्त तथा उपधि के अभाव में ये दोष होते हैं अतः प्रथम दिग्भाग में महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। ५५०९. एमेव सेसिवासु वि, तुमंतुमा कलह भेद मरणं वा । जं पावंति सुविहिया, गणाहिवो पाविहिति तं तु ॥ इसी प्रकार शेष दिशाओं में जो दोष कहे गए हैं, जैसेकलह, तू-तू-मैं-मैं, गणभेव, मरण आदि जो सुविहित मुनि पाते हैं, वह सारा गणाधिपति भी प्राप्त करेंगे। ५५१०. वित्वारा ऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भती समतिरेगं । चोक्ख सुतिगं च सेतं, उवक्कमट्ठा धरेतव्वं ॥ शव प्रच्छादन का वस्त्र ढ़ाई हाथ चौड़ा और चार हाथ लंबा या कुछ और लंबा-चौड़ा जो प्राप्त हो वह ले। वह वस्त्र साफ, सुगंधित तथा सफेद हो । मृत्यु के समय में काम आने वाला ऐसा वस्त्र गच्छ में रखना चाहिए। ५५११. अत्थुरणट्ठा एगं, बिइयं छोढुमुवरिं घणं बंधे। उक्कोसयरं उवरिं, बंधादीछादणट्ठा ॥ गणना के आधार पर वे वस्त्र तीन होते हैं एक वस्त्र मृतक के नीचे बिछाया जाता है। दूसरा वस्त्र मृतक को ढंक कर डोरे से कस कर बांधा जाता है और तीसरा उत्कृष्टतर वस्त्र सबसे ऊपर, बंधनों को आच्छादित करने के लिए, स्थापित किया जाता है। इस प्रकार जघन्यतः तीन वस्त्र और उत्कृष्टतः गच्छ के अनुपात में अधिक भी रखे जा सकते हैं। ५५१२. एतेसिं अम्महणे, चउगुरु दिवसम्मि वण्णिया दोसा । रत्तिं च पढिच्छते, गुरुगा उट्ठाणमादीया ॥ इस प्रकार के वस्त्रों का ग्रहण न करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है। दिन में शव को मलिन वस्त्रों में लपेट कर ले जाने पर दोष कहे जा चुके हैं। इन दोषों के भय से यदि रात्री की प्रतीक्षा की जाती है तो इसमें चतुर्गुरुक तथा उत्थान आदि दोष होते हैं। ५७१ ५५१३. उन्झाइए अवण्णो, दुविह नियती य महलक्सणाणं । तम्हा तु अहत कसिणं, धरेंति पक्खस्स पडिलेहा ॥ मलिन और कुचेल वस्त्रों से शव को आच्छादित करने पर लोगों में अवर्णवाद फैलता है मलिनवस्त्रों को देखकर दो प्रकार की निवृत्ति होती है-सम्यक्त्व ग्रहण करने वाले तथा प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले प्रतिनिवर्तित हो जाते हैं। इसलिए अहत नया तथा कृत्स्न प्रमाणोपेत वस्त्र सदा रखना चाहिए तथा पक्ष में एक बार उसकी प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। ५५१४. आसुक्कार गिलाणे, पच्चक्खाए व आणुपुव्वीए । दिवसस्स व रत्तीइ व, एगतरे होज्जऽवक्कमणं ॥ कोई मुनि आशुक्कार - आकस्मिक या शीघ्र मरण को प्राप्त होता है, कोई ग्लानत्व के कारण, कोई आनुपूर्वी क्रमशः शरीर परिकर्म के द्वारा भक्त का प्रत्याख्यान कर दिन में या रात में किसी एक काल में अपक्रमण - मरण को प्राप्त होता है। ५५१५. एव य कालगयम्मिं, मुणिणा सुत्त ऽत्थगहितसारेणं । न विसातो गंतव्वो, कातव्व विधीय वोसिरणं ॥ इस प्रकार कालगत होने पर सूत्रार्थ का सार ग्रहण करने वाला मुनि विषाद से ग्रस्त न हो। किन्तु कालगत मुनि का विधिपूर्वक उत्सर्ग करे। ५५१६. आयरिओ गीतो वा, जो व कडाई तहिं भवे साहू | कायव्वो अखिलविही, न तु सोग भया व सीतेज्जा ॥ वहां आचार्य, गीतार्थं या अन्य साधु जो इस प्रकार के कार्य में कृतकरण हो, निपुण हो, वह सारी विधि को संपन्न करे। शोक या भय से विधि के विधान में प्रमाद न करे । ५५१७. सव्वे वि मरणधम्मा, संसारी तेण कासि मा सोगं । जं चप्पणो व होहिति, किं तत्थ भयं परगयम्मि ॥ सभी संसारी जीव मरणधर्मा हैं, इसलिए शोक नहीं करना चाहिए। मृत्यु स्वयं की भी होगी तो फिर पर की मृत्यु पर कौनसा भय ? ५५१८. जं वेलं कालगतो, निक्कारण कारणे भवे निरोधो जग्गण बंधण छेदण, एतं तु विहिं तहिं कुज्जा ॥ जिस बेला में मृत्यु घटित हुई है उसी समय उसका निष्काशन कर देना चाहिए कोई कारण हो तो उसका निरोध भी किया जा सकता है जागरण, बंधन और छेदनयह सारी विधि तब करनी चाहिए। ५५१९. हिम- तेण सावयभया, पिहिता दारा महाणिणादो वा । ठवणा नियगा व तहिं, आयरिय महातवस्सी वा ।। यदि रात्री में बहुत हिमपात हो रहा हो अथवा रात अत्यंत ठंडी हो, चोरों का या श्वापदों का भय हो, नगर के द्वार बंद . Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ = बृहत्कल्पभाष्यम् हों, मृत मुनि महानिनाद-महाजनप्रख्यात हो, उस गांव-नगर आविष्ट हो जाए, प्रांत देवता-प्रत्यनीक देवता उस शरीर में की यह व्यवस्था हो कि रात्री में मृतक को नहीं निकालना। प्रविष्ट हो जाए और शव उठ जाए तो बाएं हाथ में चाहिए, वहां उस मृतक के निजक-संज्ञातक हों और वे कहते परिणामिनी प्रस्रवण लेकर उस कलेवर का सेचन करे और हों कि रात्री में मृतक को न ले जाएं, मृतक आचार्य हो या कहे-'गुह्यक! जागो, जागो! प्रमाद मत करो। संस्तारक से महातपस्वी हो तो रात-रात प्रतीक्षा करनी चाहिए। मत उठो।' ५५२०.णंतक असती राया, वऽतीति संतेपुरो पुरवती तु। ५५२६.वित्तासेज्ज रसेज्ज व, भीमं वा अट्टहास मुंचेज्जा। ___णीति व जणणिवहेणं, दार निरुद्धाणि णिसि तेणं॥ अभिएण सुविहिएणं, कायव्व विहीय वोसिरणं ।। नंतक-शवाच्छादन वस्त्र के अभाव में दिन में मृतक का व्यन्तर अधिष्ठित वह कलेवर विकरालरूप दिखाकर निष्काशन न करे। राजा अपने अन्तःपुर के साथ या पुरपति डराये, जोर से आवाज करे, भयंकर अट्टहास करे तो भी नगर में प्रवेश करता हो, जनसमूह के साथ नगर से बाहर सुविहित मुनि भयभीत न हो और विधिपूर्वक शव का जाता हो, द्वार बंद हों, इसलिए मृतक को रात्री में परिष्ठापन कर दे। निष्काशित करते हैं। ५५२७.दोण्णि य दिवड्डखेत्ते, दब्भमया पुत्तगऽत्थ कायव्वा। ५५२१.वातेण अणक्वंते, अभिणवमुक्कस्स हत्थ-पादे उ। समखेत्तम्मि य एक्को, अवड्ड अभिए ण कायव्वो॥ ___कुव्वंतऽहापणिहिते, मुह-णयणाणं च संपुडणं॥ मुनि के कालगत होने पर नक्षत्र देखना चाहिए। न देखने जब तक मृतक का शरीर वायु के द्वारा आक्रान्त-अकड़ पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि नक्षत्र सार्द्ध क्षेत्र नहीं जाता तब तक जीवमुक्त शरीर के हाथ-पैर यथाप्रणिहित अर्थात् ४५ मुहूर्त योग्य (आधा दिन भोग्य) हो तो दर्भमय दो अर्थात् जितने लंबे किए जा सकते हैं उतना करते हैं, मुंह पुत्तलक बनाए जाते हैं। न बनाने पर दो और साधुओं की और नयनों का संपुटन करते हैं। मृत्यु होती है। यदि नक्षत्र समक्षेत्र अर्थात् तीस मुहूर्त भोग्य ५५२२.जितणिहुवायकुसला, ओरस्सबली य सत्तजुत्ता य। हो तो एक ही पुत्तलक बनाया जाए। यदि नक्षत्र अपार्द्धक्षेत्र कतकरण अप्पमादी, अभीरुगा जागरंति तहिं॥ पन्द्रहमुहूर्त्त भोग्य अथवा अभीचि नक्षत्र हो तो एक भी वहां जो साधु जितनिद्र हों, उपायकुशल और सबली, पुत्तलक नहीं बनाया जाता।' सत्त्वयुक्त, कृतकरण, अप्रमादी और अभीरु हों, वे वहां ५५२८.थंडिलवाघाएणं, अहवा वि अतिच्छिए अणाभोगा। जागते हुए बैठे रहते हैं। भमिऊण उवागच्छे, तेणेव पहेण न नियत्ते॥ ५५२३.जागरणट्ठाए तहिं, अन्नेसिं वा वि तत्थ धम्मकहा। स्थंडिल का व्याघात हो जाने पर अथवा विस्मृति के सुत्तं धम्मकहं वा, मधुरगिरो उच्चसद्देणं॥ कारण स्थंडिल अतिक्रांत हो जाए तो घूमकर आ जाए किन्तु जागरण करने वाले मुनि परस्पर धर्मकथा करे या श्रावकों । उसी मार्ग से न लौटे। को धर्म सुनाये। मधुर तथा उच्चस्वरों में धर्म की ५५२९.वाघायम्मि ठवेडं, पुव्वं व अपेहियम्मि थंडिल्ले। आख्यायिकाओं का परावर्तन करे।। तह णेति जहा से कमा, ण होति गामस्स पडिहुत्ता। ५५२४.कर-पायंगुढे दोरेण बंधिउं पुत्तीए मुहं छाए। स्थंडिल का व्याघात होने पर अथवा पहले स्थंडिल की अक्खयदेहे खणणं, अंगुलिविच्चे ण बाहिरतो॥ प्रत्युपेक्षा न करने पर मृतक को एकान्त में रखकर, स्थंडिल हाथों के दोनों अंगूठों तथा दोनों पैरों के दोनों अंगूठों के की प्रत्युपेक्षा कर घुमाकर ले जाए, जिससे शव के पैर गांव डोरा बांधे। मुंह को मुंहपोतिका से आच्छादित करे। अक्षत के अभिमुख न हों। देह में अंगुली के बीच में चीरा दे, बाहर से नहीं। यह ५५३०.सुत्त-ऽत्थतदुभयविऊ, पुरतो घेत्तूण पाणग कुसे य। छेदन है। गच्छति जइ सागरियं, परिट्ठवेऊण आयमणं ।। ५५२५.अण्णाइट्ठसरीरे, पंता वा देवतऽत्थ उद्वेज्जा। सूत्र-अर्थविद् या तदुभयविद् मुनि मात्रक में पानक और परिणामि डब्बहत्थेण बुज्झ मा गुज्झगा! मुज्झ॥ कुश लेकर शव के आगे-आगे चलता है। वह पीछे मुड़कर इतना करने पर भी यदि शव अन्य व्यन्तर आदि देव से नहीं देखता। यदि वहां गृहस्थ अधिक हों तो शव का सार्द्ध क्षेत्र के छह नक्षत्र होते हैं-उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, श्रवणा, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपदा, पुनर्वसू, रोहिणी तथा विशाखा। समक्षेत्र नक्षत्र पूर्वभद्रपदा, रेवती। अपार्द्ध क्षेत्र के नक्षत्र-शतभिषग, भरणी, पन्द्रह हैं-अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा। (वृ. पृ. १४६४,१४६५) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ५७३ चौथा उद्देशक परिष्ठापन कर आचमन-हाथ-पैर आदि धोए, जिससे यथाजात उपकरण शव के पास न रखने पर, देवलोक से प्रवचन का उड्डाह न हो। वह अपना लिंग न देखकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। ५५३१.जत्तो दिसाए गामो, तत्तो सीसं तु होइ कायव्वं। यहां उज्जयिनी के भिक्षु का दृष्टांत है। राजा के पास पुरुष उद्वेतरक्खणट्ठा, अमंगलं लोगगरिहा य॥ वध की शिकायत पहुंचने पर वह अवसर आने पर वैर का जिस दिशा में गांव हो उस ओर शव का सिर करना । निर्यातन (बदला) करता है, अनेक लोगों का वध करता है। चाहिए। यह इसलिए कि कारणवश शव उठ जाए तो ५५३८.उट्ठाणाई दोसा, हवंति तत्थेव काउसग्गम्मि। प्रतिश्रय के प्रति न आए, इसकी रक्षा करने के लिए। गांव आगम्मुवस्सयं गुरुसमीव अविहीय उस्सग्गो।। की ओर शव के पैर करने से अमंगल होता है तथा लोग गर्दा स्थंडिल भूमी में कायोत्सर्ग करने पर शवोत्थान आदि करते हैं। दोष होते हैं। अतः उपाश्रय में आकर गुरु के समीप अविधि५५३२.कुसमुट्ठिएण एक्केणं, अव्वोच्छिण्णाए तत्थ धाराए। परिष्ठापन का कायोत्सर्ग करना चाहिए। संथार संथरिज्जा, सव्वत्थ समो य कायव्वो॥ ५५३९.जो जहियं सो तत्तो, णियत्तइ पयाहिणं न कायव्वं । जब स्थंडिल का प्रमार्जन कर लिया जाता है तब एक उट्ठाणादी दोसा, विराहणा बाल-वुड्डाणं ।। मुनि कुश की एक मुष्टि से अव्यवच्छिन्न धारा से संस्तारक शव का परिष्ठापन कर जो जहां हो वहीं से वह निवर्तन बिछाए, वह सर्वत्र सम हो। कर दे। प्रदक्षिणा न करे। प्रदक्षिणा करने पर उत्थान आदि ५५३३.विसमा जति होज्ज तणा, उवरिं मज्झे तहेव हेट्ठा य। दोष तथा बाल-वृद्धों की विराधना होती है। मरणं गेलन्नं वा, तिण्हं पि उ णिहिसे तत्थ॥ ५५४०.जइ पुण अणीणिओ वा, यदि तृण ऊपर, नीचे और मध्य में विषम हों तो तीन णीणिज्जंतो विविंचिओ वा वि। मुनियों का मरण या ग्लानत्व होने का निर्देश करे। उद्वेज्ज समाइट्ठो, ५५३४.उवरिं आयरियाणं, मज्झे वसभाण हेट्टि भिक्खूणं। तत्थ इमा मग्गणा होति॥ तिण्हं पि रक्खणट्ठा, सव्वत्थ समा य कायव्वा॥ कालगत मुनि अनिष्काशित है या निष्काश्यमान है या यदि तृण ऊपर में विषम हों तो आचार्यों का, मध्य में परिष्ठापित है? वह शव व्यन्तरसमाविष्ट होकर उठ जाए तो विषम हों तो वृषभों का और नीचे विषम हों तो मुनियों का उसकी यह मार्गणा है। मरण या ग्लानत्व होता है। इन तीनों की रक्षा के लिए सर्वत्र ५५४१.वसहि निवेसण साही, गाममज्झे य गामदारे य। तृणों को सम करना चाहिए। ___ अंतर उज्जाणंतर, णिसीहिया उद्विते वोच्छं।। ५५३५.जत्थ य नत्थि तिणाई, चुण्णेहिं तत्थ केसरहिं वा। शव वसति में, निवेशन (मकान) में, गली में, गांव के कायव्वोऽत्थ ककारो, हेतु तकारं च बंधेज्जा॥ मध्य में, गांव के द्वार पर, गांव और उद्यान के बीच में, जहां तृणों की प्राप्ति न हो वहां चूर्ण से अथवा नागकेशर उद्यान में, उद्यान और नैषेधिकी के मध्य में, नैषेधिकी-शव से अविच्छिन्न धारा से 'ककार' करे और उसके नीचे तकार परिष्ठापन भूमी में-उत्थित होने पर जो विधि करनी होती है, बांधे अर्थात् 'क्त' करे। वह मैं कहूंगा। ५५३६.चिंधट्ठा उवगरणं, दोसा तु भवे अचिंधकरणम्मि। ५५४२.उवस्सय निवेसण साही, गामद्धे दारे गामो मोत्तव्यो। मिच्छत्त सो व राया, कुणति गामाण वहकरणं॥ मंडल कंड हेसे, णिसीहियाए य रज्जं तु॥ शव का परिष्ठापन कर उसके चिह्नस्वरूप यथाजात शव यदि वसति में उठता है तो उपाश्रय को, निवेशन में उपकरण उसके पास रखे। यथाजात उपकरण-रजोहरण, उठता हो तो निवेशन को, गली में हो तो गली को, गांव के मुखपोतिका, चोलपट्टक। चिह्रस्वरूप ये उपकरण स्थापित न मध्य हो तो ग्रामार्द्ध को, ग्रामद्वार में हो तो गांव को, गांव करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष और उद्यान के बीच में हो तो विषयमंडल को, उद्यान में हो होते हैं। कालगत मुनि मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। राजा तो कंड-देशखंड को, उद्यान और नैषेधिकी के मध्य हो तो यह सोचकर कि इस पुरुष का वध आसपास के गांव वालों देश को और नैषेधिकी में हो तो राज्य को छोड़ देना चाहिए। ने किया है, वह गांवों का वध करा सकता है। शव का परिष्ठापन कर गीतार्थ मुनि एक मुहूर्त शव की ५५३७.उवगरणमहाजाते, अकरणे उज्जेणिभिक्खुदिटुंतो। प्रतीक्षा करते हैं कि वह उठ न जाए। वे वहीं एकान्त में खड़े लिंगं अपेच्छमाणो, काले वइरं तु पाडेत्ति॥ रहते हैं। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ = बृहत्कल्पभाष्यम् ५५४३. वच्चंते जो उ कमो, कलेवरपवेसणम्मि वोच्चत्थो। शव की परिष्ठापना कर मुनि उपाश्रय में लौट आते हैं। वे __णवरं पुण णाणत्तं, गामदारम्मि बोद्धव्वं ॥ चैत्यगृह में या उपाश्रय में जाकर संपूर्ण स्तुतियों का पाठ ले जाते समय कलेवर के उत्थान का जो क्रम कहा है करते हैं। उससे पूर्व वसतिपाल संपूर्ण वसति का प्रमार्जन वहीं क्रम विपर्यस्तरूप में परिष्ठापित कलेवर में पुनः प्रवेशन कर देता है तथा और भी अन्य सारे कृत्य संपन्न करता है। वे का क्रम जानना चाहिए। इसमें नानात्व अर्थात् विशेष यह है मुनि गुरु के समीप अविधिपरिष्ठापना के निमित्त कायोत्सर्ग कि ग्रामद्वार में उत्थान करने पर ग्राम त्याग ही करना है, करते हैं। मंगल और शांति के निमित्त अजितनाथ और विपरीत कुछ नहीं। शांतिनाथ की स्तवना करते हैं। ५५४४.बिइयं वसहिमतिते, तगं च अण्णं च मुच्चते रज्जं। ५५५०.खमणे य असज्झाए, तिप्पभितिं तिन्नेव उ, मुयंति रज्जाइं पविसंते॥ रातिणिय महाणिणाय णितए वा। निर्मूढ़ शव यदि दूसरी बार वसति में प्रवेश करता है तो सेसेसु णत्थि खमणं, उस राज्य का तथा अन्य राज्य को भी छोड़ देना चाहिए। व असज्झाइयं होइ॥ यदि तीन, चार या अनेक बार वसति में प्रवेश करता है तो यदि कालगत मुनि रात्निक है या लोकविश्रुत है और तीन राज्यों का त्याग कर देना चाहिए। उसके अनेक निजक-बंधु वहां रहते हों और वे बहुत शोक५५४५.असिवाई बहिया कारणेहिं, विलाप कर रहे हों तो ऐसे मुनियों के लिए क्षपण और तत्थेव वसंति जस्स जो उ तवो। अस्वाध्यायिक करे। शेष साधुओं के कालगत होने पर क्षपण अभिगहिया-ऽणभिगहितो, और अस्वाध्यायिक नहीं होती। सा तस्स उ जोगपरिवुड्डी॥ ५५५१.उच्चार-पासवण-खेलमत्तगा य यदि अशिव आदि कारणों से बाहर नहीं जाया जा सकता अत्थरण कुस-पलालादी। तो वहीं रहते हुए जिस मुनि की अभिगृहीत या अनभिगृहीत संथारया बहुविधा, तपस्या चल रही है, वह उसकी वृद्धि करे। यह योगपरिवृद्धि उज्झंति अणण्णगेलन्ने॥ कही जाती है। उस कालगत मुनि के उच्चार-प्रस्रवण तथा खेल के ५५४६.अण्णाइट्ठसरीरे, पंता वा देवतऽत्थ उट्ठिज्जा। मात्रक जितने हों उनको तथा बिछाने के लिए कुश-पलाल काईय डब्बहत्थेण, भणेज्ज मा गुज्झया! मुज्झा॥ आदि के बहुविध संस्तारक हों, उनको परिष्ठापित कर देना इतना करने पर भी यदि शव अन्य व्यन्तर आदि देव चाहिए। यदि कोई अन्य ग्लान न हो तो उन पात्र आदि को से आविष्ट हो जाए, प्रांत देवता-प्रत्यनीक देवता उस विसर्जित कर दे, अन्य ग्लान के शरीर में प्रविष्ट हो जाए और शव उठ जाए तो बाएं हाथ में उनको धारण करे। परिणामिनी-प्रस्रवण लेकर उस कलेवर का सेचन करे और ५५५२.अहिगरणं मा होहिति, करेइ संथारगं विकरणं तु। कहे-'गुह्यक! जागो, जागो! प्रमाद मत करो। संस्तारक से सव्वुवहि विगिंचंती, जो छेवइतस्स छित्तो वि॥ मत उठो।' 'छेवइय'-अशिव में गृहीत कोई मुनि कालगत हो जाए ५५४७.गिण्हइ णामं एगस्स दोण्ह अहवा वि होज्ज सव्वेहि। तो उसे जिस संस्तारक से ले जाया जाता है, उसका खिप्पं तु लोयकरणं, परिण्ण गणभेद बारसमं॥ विकिरण-खंड-खंड कर परिष्ठापन कर देना चाहिए। उसके वह कलेवर एक, दो मुनियों का या सभी मुनियों का सारे उपकरणों का परिष्ठापन कर देना चाहिए। तथा उस नाम ले, तो सबको लुंचन करना चाहिए। लुंचन शीघ्रता । कालगत मुनि की उपधि को या उसके शरीर से जो उपधि से कर उनको तप द्वादशरूप-उपवास पंचक कराना स्पृष्ट है, उस सबको परिष्ठापित कर देना चाहिए। चाहिए। वे मुनि गणभेद भी कर सकते हैं, गण से बहिरभूत ५५५३.असिवम्मि णत्थि खमणं, हो सकते हैं। जोगविवड्डी य व उस्सग्गो। ५५४८.चेइघरुवस्सए वा, हायंतीतो थुतीओ तो बिंति। उवयोगद्धं तुलितुं, सारवणं वसहीए, करेति सव्वं वसहिपालो॥ णेव अहाजायकरणं तु॥ ५५४९.अविधिपरिट्ठवणाए, काउस्सग्गो य गुरुसमीवम्मि। अशिव में मृत मुनि के लिए क्षपण नहीं होता। योगवृद्धि मंगल-संतिनिमित्तं, थओ तओ अजितसंतीणं॥ होती है। कायोत्सर्ग नहीं होता। उसकी यथाजात नहीं किया Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक जाता अर्थात् उसके पास यथाजात उपकरण नहीं रखे जाते। देवलोक में जाने के पश्चात् देवता एक अन्तर्मुहूर्त में उपयोग लगाता है। उस उपयोगाद्धा को जानकर इतने समय तक उसको उपाश्रय में ही रखते हैं। ५५५४. अवरज्जुगस्स य ततो, सुत्त ऽत्थविसारएहिं थेरेहिं । अवलोयण कायव्वा, सुभा ऽसुभगती निमित्तट्ठा ॥ दूसरे दिन सूत्रार्थं विशारद स्थविरों को उस कालगत मुनि की शुभ-अशुभ गति के निमित्त को जानने के लिए उसका अवलोकन अवश्य करना चाहिए। ५५५५. दिसि विहितो खलु देहेणं अक्खुएण संचिक्ले । जं तं दिसि सिवं वदंती सुत्त उत्थविसारया धीरा ॥ जिस दिशा में वह अशिव आदि से मृत मुनि अक्षत देह से स्थित है उस दिशा में सुभिक्ष होता है, ऐसा सूत्रार्थ विशारद धीर मुनि कहते हैं। ५५५६. जति दिवसे संचिक्खति, विवरीए विवरीतं, अकड्डिए सव्वहिं उदितं ॥ जितने दिन उसको जिस दिशा में रखा जाता है उस दिशा में उतने वर्षों तक सुभिक्ष और मंगल होता है विपरीत 1 अर्थात् क्षतदेह होने पर विपरीत परिणाम आता है। जिस दिशा में क्षतदेह रखा जाता है, उस दिशा में दुर्भिक्ष होता है । अथवा उसे अन्यत्र न ले जाकर नहीं रखा जाता है तो सर्वत्र उदित अर्थात् सुभिक्ष होता है। ५५५७, खमगस्साऽऽयरियस्सा, तति वरिसे धातगं च खेमं च। दीडपरिण्णस्स वा निमित्तं तू । सेसे तथऽण्णधा वा, ववहारवसा इमा य गती ॥ यह क्षपक, आचार्य तथा दीर्घ अनशनी के निमित्त होता है। इनसे व्यतिरिक्त शेष के ऐसे भी हो सकता है और अन्यथा भी हो सकता है। व्यवहारतः ऐसी गति भी हो सकती है। ५५५८. थलकरणे वेमाणितो, जोतिसिओ वाणमंतर समम्मि । गट्टाए भवणवासी, एस गती से समासेणं ॥ यदि उसके शरीर को स्थल में रखा है तो वह वैमानिक देव बना है तथा समभूभाग में है तो ज्योतिष्क या व्यन्तरदेव बना है, गढ़े में हो तो भवनपति देव यह संक्षेप में उसकी गति का वर्णन है। ५५५९. एमम्मि उ ठाणे, हुति विवच्चासकारणे गुरुगा। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा - ऽऽयाए ॥ ५७५ इस प्रकार एक-एक स्थान में विपर्यास करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा आत्मा और संयम की विराधना होती है। ५५६०. एतेण सुत्त न गतं सुत्तनिवातो तु दव्व सागारे । उडवणम्मि वि लहुगा, छट्टणे लहुगा अतियणे य ॥ यह जो द्वारों की व्याख्या की गई है, उससे सूत्र व्यर्थ नहीं हुआ है। यह सारा सामाचारी को बताने के लिए किया है सूत्र-निपात गृहस्थ के अधीनस्थ शव वहनकाष्ट के लिए है उसके लिए गृहस्थ को जगाने पर चतुर्लघु वहनकाष्ठ को वहीं छोड़ देने पर भी चतुर्लघु और यदि गृहस्थ के कलह करने पर, उसको लाकर अतिगमन-प्रवेश करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। ५५६१. मिच्छत्तविन्नवाणं, समलावण्णो दुगुंछितं चेव । दिय रातो आसितावण, वोच्छेओ होति बसहीए ॥ गृहस्थ वहनकाष्ठ को पुनः अर्पित किए जाने पर मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। उसके मन में यह आशंका होती है कि ये श्रमण अदत्त को ग्रहण करने वाले हैं मलिन रहने वाले हैं, इस प्रकार उनका अवर्णवाद होता है। उनसे जुगुप्सा करते हैं। अतः रात हो या दिन मृतक का असियावण- निष्काशन कर देना चाहिए। वे गृहस्थ श्रमणों के लिए वसति का व्यवच्छेद कर सकते हैं कि ये मृतक को वहन कर वह काष्ठ मेरे घर में लाये हैं । ५५६२. अइगमणं एगेणं, अण्णाए पति वेति तत्येव । अलोम तस्स वयण बितियं उट्ठाण असिवे वा ॥ वहनकाष्ठ लाने की विधि सर्वप्रथम एक मुनि उस गृहस्थ के घर में जाए जहां वहनकाष्ठ पड़ा हो। गृहस्थ अभी सो रहा हो तो उसको जगाए बिना उसकी अज्ञात अवस्था में ले आए और प्रयोजन संपन्न हो जाने पर उसे वहीं रख दे । गृहस्थ को जब ज्ञात हो कि वहनकाष्ठ को पुनः लाकर रख दिया है, और वह यदि कुपित हो जाए तो उसे अनुकूल वचनों से शांत करे। यदि वह शांत न हो और बोलता ही रहे तो गुरु उस साधु को निष्काशित कर दे । अपवादपद में अशिव के कारण शाम खाली हो गया हो तो वहनकाष्ठ को वहीं विसर्जित कर दे, सागारिक को प्रत्यर्पित न करे। ५५६३.जइ नीयमणापुच्छा, आणिज्जति किं पुणो घरं मज्झ । दुगुणो एसऽवराधो, ण एस पाणालओ भगवं ! ॥ सागारिक कहे कि तुम यह वहनकाष्ठ मुझे बिना पूछे ले Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् सुएण पट्टविए आइयव्वे सिया, से य सुएण नो पट्टविए नो आइयव्वे सिया, से य सुएण पट्टविज्जमाणे नो आइयइ, से निज्जूहियव्वे सिया॥ (सूत्र २६) ५७६ गए थे तो अब मेरे घर में लाकर क्यों रख रहे हो? यह तुम्हारा दुगुना अपराध है। भगवन्! मेरा यह घर पाणचांडालों का घर नहीं है कि मृतक का उपकरण यहां लाकर रख दो। ५५६४.किमियं सिम्मि गुरू, पुरतो तस्सेव णिच्छुभति तं तू। __ अविजाणताण कय, अम्ह वि अण्णे वि णं बेति॥ आचार्य ने पूछा-यह क्या वृत्तान्त है? शेष साधुओं ने गुरु से कहा-अमुक साधु बिना पूछे गृहस्थ के घर से वहनकाष्ठ ले आया। तब गुरु ने शय्यातर के तथा अन्य साधुओं के समक्ष उस मुनि की भर्त्सना कर गण से निकाल देते हैं। अन्य साध भी शय्यातर से कहते हैं हमें ज्ञात किए बिना उस साधु ने ऐसा किया, अन्यथा हम उसे वैसा करने नहीं देते। ५५६५.वारेति अणिच्छुभणं, इहरा अण्णाए ठाति वसहीए। मम णीतो णिच्छुभई, कइतव कलहेण वा बितिओ॥ सागारिक गुरु को निवेदन करता है, इस मुनि को गण से निष्काशित न करें, सागारिक के अवारित करने पर वह अन्य वसति में रहता है। कोई दूसरा मुनि कपटपूर्वक कहता है, मेरे निजक को निष्काशित करे तो मैं भी चला जाऊंगा। सागारिक के साथ जो कलह करता है, वह भी निष्काशित कर दिया जाता है। वह निष्काशित होने वालों में द्वितीय होता है। अहिगरण-पदं भिक्खू य अहिगरणं कठ्ठ तं अहिगरणं अविओसवेत्ता नो से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, गामाणुगाम वा दूइज्जित्तए, गणाओ वा गणं संकमित्तए, वासावासं वा वत्थए। जत्थेव अप्पणो आयरिय-उवज्झायं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं तस्संतिए आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेज्जा गरहेज्जा विउद्देज्जा विसोहेज्जा अकरणयाए अब्भुटेज्जा आहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। सेय ५५६६.केण कयं कीस कयं, णिच्छुब्भऊ एस किं इहाणेती। एमादि गिहीतुदितो, करेज्ज कलहं असहमाणो॥ गृहस्थ उस मुनि को कहता है-किस मुनि ने वहनकाष्ठ को यहां लाने का आयास किया? यहां क्यों ले आया? यहां क्यों लाता है ? इसको निष्काशित करो। इस प्रकार कहने पर वह मुनि उसको सहन न करते हुए गृहस्थ के साथ कलह करता है। इसलिए प्रस्तुत अधिकरण सूत्र का प्रारंभ हुआ है। ५५६७.अचियत्तकुलपवेसे, अतिभूमि अणेसणिज्जपडिसेहे। अवहारऽमंगलुत्तर, सभावअचियत्त मिच्छत्ते॥ अधिकरण क्यों होता है के उत्तर में कहा गयाअप्रीतिकर कुल में प्रवेश करने पर, अतिभूमी-निषिद्धभूमी में जाने पर, अनेषणीय का प्रतिषेध करने पर, शैक्ष अथवा सज्ञातक का अपहरण करने पर, यात्रा में प्रस्थित गृहस्थ द्वारा साधु के दर्शन को अमंगल मानने के कारण, प्रत्युत्तर देने में असमर्थ होने पर, स्वभावतः किसी साधु को अचियत्त-अनिष्ट करते हुए देख कर, अभिगृहमिथ्यादृष्टि के मन में साधु को देखकर अधिकरण हो सकता है। ५५६८.पडिसेधे पडिसेधो, भिक्ख वियारे विहार गामे वा। दोसा मा होज्ज बहू, तम्हा आलोयणा सोधी। भगवान् ने यह प्रतिषेध किया है कि साधु अधिकरण न करे। इस प्रकार के प्रतिषेध में पुनः यह प्रतिषेध किया जाता है कि जब साधु किसी गृहस्थ के साथ अधिकरण कर ले तो वह उसका उपशमन किए बिना भिक्षा के लिए न जाए, विचारभूमी और विहारभूमी में न जाए, ग्रामानुग्राम विहार न करे, इसमें अनेक दोष होते हैं। इसलिए गृहस्थ के साथ अधिकरण का उपशमन कर गुरु के पास आलोचना करे और शोधि-प्रायश्चित्त ले। ५५६९.अहिगरण गिहत्थेहिं, ओसार विकड्ढणा य आगमणं। आलोयण पत्थवणं, अपेसणे होंति चउलहुगा। गृहस्थों के साथ अधिकरण करने वाले साधु का दूसरा मुनि अपसरण करे-दोनों को अलग-थलग कर दे। भुजा पकड़कर उसे दूर ले जाए। उसे लेकर उपाश्रय में आकर गुरु Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक = ५७७ के पास उसे आलोचना कराए। तदनन्तर गुरु वृषभ मुनियों उस गृहस्थ के सगे-संबंधियों के साथ जाते हैं और सबसे को उस गृहस्थ के पास भेजे। यदि नहीं भेजते हैं तो उसका पहले उस गृहस्थ को प्रज्ञापित करते हैं और कहते हैं-जिस प्रायश्चित्त है चतुर्लघुक। साधु ने तुम्हारे साथ कलह किया है, उसे आचार्य ५५७०.आणादिणो य दोसा, बंधण णिच्छुभण कडगमहो य। निष्काशित कर रहे हैं। आचार्य हमारी बात पूरी नहीं सुनते। वुग्गाहण सत्थेण व, अगणुवगरणं विसं वारे। इसके लिए तुम युक्त हो। तुम चलकर आचार्य को सही आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। वह गृहस्थ अनेक साधुओं जानकारी दो। गृहस्थ के भावों को जानकर गृहस्थ मित्रों का बंधन और निष्काशन करा सकता है, कोई समस्त सहित साधु को साथ ले वृषभ वहां जाते हैं। साधुओं का व्यापादन कर सकता है। लोगों को व्युद्ग्राहित ५५७६.वीसुं उवस्सए वा, ठवेति पेसति फड्डपतिणो वा। कर, वह शस्त्र से साधु को मार देता है। उपाश्रय को जला देंति सहाते सव्वे, व णेति गिहिते अणुवसंते॥ देता है, उपकरणों का अपहरण कर देता है, विष देकर यदि गृहस्थ पूर्णरूप से उपशांत नहीं है तो उस साधु को प्राणघात कर सकता है, भिक्षा की वर्जना कर देता है। अन्य उपाश्रय में स्थापित कर देते हैं अथवा स्पर्द्धकपति के ५५७१.रज्जे देसे गामे णिवेसण गिहे णिवारणं कुणति।। पास भेज देते हैं। उसको सहायक देते हैं। जब मासकल्प जा तेण विणा हाणी, कुल गण संघे य पत्थारो॥ पूर्ण हो जाता है तब सभी मुनि वहां से विहार कर जाते हैं। राज्य, देश, गांव, निवेशन और गृह का निवारण करा यह विधि गृहस्थ के उपशांत न होने की है। सकता है। अतः उससे जो हानि होती है उसका प्रायश्चित्त ५५७७.अविओसियम्मि लहुगा, गुरु को प्राप्त होता है। वह गृहस्थ यदि प्रभावशाली हो तो भिक्ख वियारे य वसहि गामे य। कुल, गण और संघ का प्रस्तार-विनाश करा देता है। गणसंकमणे भण्णति, ५५७२.एयस्स णत्थि दोसो, इह पि तत्थेव वच्चाहि॥ अपरिक्खियदिक्खगस्स अह दोसो। यदि मुनि कलह को उपशांत किए बिना भिक्षा पभु कुज्जा पत्थारं, लिए जाता है, विचारभूमी में जाता है, अन्य साधु की अपभू वा कारवे पभुणा॥ वसति में जाता है या विहार करता है तो उसे चतुर्लघु का गृहस्थ सोचता है-साधु का कोई दोष नहीं है। यह प्रायश्चित्त आता है। यदि गण संक्रमण करता है तो उस सारा दोष उनका है जिन्होंने परीक्षा किए बिना इसको गण के साधु कहते हैं यहां भी गृहस्थ क्रोधी हैं, इसीलिए दीक्षित किया है। अतः मैं उसका ही व्यापादन कर दूं। वहीं लौट जाओ। यह सोचकर समर्थ होने पर वह स्वयं प्रस्तार-साधुओं को ५५७८.इह वि गिही अविसहणा, मार डालता है। समर्थ न होने पर राजा को कहकर मरवा ण य वोच्छिण्णा इह तुह कसाया। देता है। अन्नेसिं पाऽऽयासं, ५५७३.तम्हा खलु पट्ठवणं, पुव्वं वसभा समं च वसभेहिं। जणइस्ससि वच्च तत्थेव॥ अणुलोमण पेच्छामो, णेति अणिच्छं पि तं वसभा॥ यहां भी गृहस्थ असहिष्णु हैं। यहां आने से तुम्हारे कषाय अतः वृषभों को भेजना ही चाहिए। पहले वृषभ उस व्यवच्छिन्न नहीं हो जाएंगे। यहां रहकर तुम दूसरे साधुओं में गृहस्थ के पास जाए, और अनुकूल वचनों से उस गृहस्थ को भी आयास पैदा करोगे, इसीलिए वहीं चले जाओ। उपशांत करे। गृहस्थ कहे-उस कलहकारी को मैं देखना ५५७९.सिट्ठम्मि न संगिण्हति, संकंतम्मि उ अपेसणे लघुगा। चाहता हूं। तब वह साधु उस गृहस्थ के सम्मुख जाना चाहे गुरुगा अजयणकहणे, एगतरपतोसतो जं च॥ या न चाहे, वृषभ उसको वहां अपने साथ ले जाएं। अनुपशांत साधु गणान्तर में संक्रान्त हो जाने पर मूल ५५७४.तस्संबंधि सुही वा, पगता ओयस्सिणो गहियवक्का। आचार्य साधु संघाटक को वहां भेजे। उनके द्वारा कहने पर तस्सेव सुहीसहिया, गति वसभा तगं पुव्वं॥ वहां के आचार्य उसको ग्रहण नहीं करते। यदि मूल आचार्य ५५७५.सो निच्छुब्भति साहू, आयरिए तं च जुज्जसि गमेतुं। संघाटक को नहीं भेजते हैं तो उनको चतुर्लघु का प्रायश्चित्त नाऊण वत्थुभावं, तस्स जती णिति गिहिसहिया॥ है। वह संघाटक यदि अयतनापूर्वक बात कहता है तो वे वृषभ उस गृहस्थ या मुनि के संबंधी या सृहृद् हो चतुर्गुरु। और यदि लोगों के समक्ष उस साधु की बात सकते हैं, वे लोक विश्रुत, ओजस्वी, आदेयवचन वाले हों, वे अयतनापूर्वक कहता है तो वह साधु प्रद्वेषवश एकतर अर्थात् Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ बृहत्कल्पभाष्यम् उस गृहस्थ, संघाटक या मूल आचार्य के प्रति जो करेगा, ५५८५.संजयगणो तदधिवो, गिही तु गाम पुर देस रज्जे वा। उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। एतेसिं चिय अहिवा, एगतरजुतो उभयतो वा। ५५८०.उवसामितो गिहत्थो, तुमं पि खामेहि एहि वच्चाहि। मुनिगण के अधिपति आचार्य होते हैं। गृहस्थों के दोसा हु अणुवसंते, ण य सुज्झति तुज्झ सामइगं॥ ग्रामाधिपति, पुराधिपति, देशाधिपति, राज्याधिपति होते हैं। गुरु उस मुनि को कहते हैं वह गृहस्थ उपशांत हो गया इनमें से किसी एक को अथवा दोनों को साथ ले वहां जाए। है। तुम भी क्षमायाचना कर लो। चलो, हम उसके पास ५५८६.तहिं वच्चंते गुरुगा, चलते हैं। अनुपशांत में अनेक दोष होते हैं। बिना क्षमायाचना दोसु तु छल्लहुग गहणे छग्गुरुगा। किए तुम्हारी सामायिक शुद्ध नहीं होती। उग्गिणि पहरणे छेदो, ५५८१.तमतिमिरपडलभूतो, पावं चिंतेइ दीहसंसारी। मूलं जं जत्थ वा पंथे॥ पावं ववसिउकामे, पच्छित्ते मग्गणा होति॥ उनके साथ वहां जाने का संकल्प करने पर चतुर्लघु, जैसे तमस्तिमिरपटल के सघनतम अंधकार में कुछ भी प्रस्थित हो जाने पर चतुर्गुरु, प्रहरण देखने या मार्गणा करने दृष्टिगत नहीं होता, वैसे ही वह पापी और दीर्घसंसारी श्रमण पर-दोनों में षड्लघु, ग्रहण करने पर षड्गुरु, प्रहार करने तीव्रतम कषाय के उदय से अंधा बना हुआ अपना हित न पर छेद, मर जाए तो मूल, अथवा जो जहां पृथिवी आदि की देखता हुआ गृहस्थ का अनिष्ट चिंतन करता है। उस हिंसा होती है, तनिष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। मार्ग में जाते पाप करने में प्रवृत्त होने वाले श्रमण के लिए प्रायश्चित्त की हुए प्रहरण ग्रहण करता है तो षड्लघु, ग्रहण करने पर मार्गणा होती है। षड्गुरु आदि। यह भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त है। ५५८२.वच्चामि वच्चमाणे, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। ५५८७.एसेव गमो णियमा, गणि आयरिए य होति णायव्वो। उग्गिण्णम्मि य छेदो, पहरणे मूलं च जं जत्थ।। नवरं पुण नाणत्तं, अणवठ्ठप्पो य पारंची। गृहस्थ को मारने के लिए जाऊं-ऐसा संकल्प करने पर यही विकल्प नियमतः गणी-उपाध्याय, आचार्य चतुर्लघु, प्रस्थित होने पर चतुर्गुरु, मारने के लिए प्रहार तथा गणावच्छेदिक के लिए जानना चाहिए। इसमें यह करने पर छेद, मर जाने पर मूल। तथा जहां जहां जो जो नानात्व है जहां भिक्षु के लिए मूल प्रायश्चित्त है वहां परितापना होती है, उसका प्रायश्चित्त भी आता है। उपाध्याय के लिए अनवस्थाप्य और आचार्य के लिए ५५८३.तं चेव णिट्ठवेती, बंधण णिछब्भण कडगमहो य। आयरिए गच्छम्मि य, कुल गण संघे य पत्थारो॥ ५५८८.भिक्खुस्स दोहि लहुगा, गणवच्छे गुरुग एगमेगेणं। उस मुनि को वहां आया हुआ देखकर वह गृहस्थ उसको उज्झाए आयरिए, दोहि वि गुरुगं च णाणत्तं॥ वहीं मार डालता है। बंधन से बांध देता है, गांव से भिक्षु के लिए ये सारे प्रायश्चित्त दोनों अर्थात् तप और निष्काशित कर देता है, कटकमर्द अर्थात् अनेक मुनियों का काल से लघु, गणावच्छेदिक के लिए एकतर अर्थात् तप या वध कर देता है। जैसे पालक ने स्कंदक आचार्य के गच्छ को काल से गुरु, और उपाध्याय और आचार्य के लिए तप और नष्ट कर दिया था। इसी प्रकार कुल, गण और संघ का काल से गुरु होते हैं। यह नानात्व है। प्रस्तार-विनाश कर देता है। ५५८९.काऊण अकाऊण व, उवसंत उवट्ठियस्स पच्छित्तं। ५५८४.संजतगणे गिहिगणे, सुत्तेण उ पट्ठवणा, असुत्ते रागो व दोसो वा॥ गामे नगरे व देस रज्जे य। गृहस्थ पर प्रहार करके या न करके उपशांत होकर अहिवति रायकुलम्मि य, प्रायश्चित्त के लिए उपस्थित हुआ है तो उस मुनि को जा जहिं आरोवणा भणिया॥ प्रायश्चित्त देना चाहिए। सूत्र के द्वारा प्रायश्चित्त की साधु को अकेला वहां नहीं जाना चाहिए। वह संयतगण प्रस्थापना करनी चाहिए। असूत्र के द्वारा प्रायश्चित्त की का या गृहस्थगण का सहयोग ले। वे गृहस्थ ग्राम, नगर, देश प्रस्थापना करने पर उस मुनि के मन में राग-द्वेष हो और राज्य के वास्तव्य हों। उनके जो अधिपति हैं उनकी सकता है। सहायता ले। अथवा राजकुल के पुरुषों का सहयोग ले। जो ५५९०.थोवं जति आवण्णे, अतिरेगं देति तस्स तं होति। एकाकी साधु की या जहां जो संकल्प आदि की आरोपणा सुत्तेण उ पट्ठवणा, सुत्तमणिच्छंते निज्जुहणा।। कही गई है, वही यहां भी जाननी चाहिए। यदि थोड़े प्रायश्चित्त वाले को अधिक प्रायश्चित्त देते हों Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक = ५७९ तो वह अधिक प्रायश्चित्त उसी को वहन करना होता है जो तुयट्टावणं वा उच्चार-पासवण-खेलप्रायश्चित्त देता है। इसलिए सूत्र के आधार पर प्रायश्चित्त की सिंघाणविगिंचणं वा विसोहणं वा प्रस्थापना करनी चाहिए। यदि कोई सूत्र के अनुसार करेत्तए॥ (सूत्र २७) प्रायश्चित्त लेना नहीं चाहता, उसकी नि!हणा करनी अह पुण एवं जाणेज्जा-छिन्नावाएसु चाहिए उसे कहना चाहिए-अन्यत्र जाकर शोधि करो, प्रायश्चित्त लो। पंथेसु आउरे झिंझिए पिवासिए, तवस्सी ५५९१.जेणऽधियं ऊणं वा, ददाति तावतिअमप्पणा पावे। दुब्बले किलंते मुच्छेज्ज वा पवडेज्ज वा अहवा सुत्तादेसा, पावति चतुरो अणुग्घाता॥ एवं से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा । जो अधिक या न्यून प्रायश्चित्त देता है, उतना उसे स्वयं साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा॥ को प्राप्त होता है। अथवा जो सूत्रादेश से अधिक या न्यून (सूत्र २८) प्रायश्चित्त देता है, उसको चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त आता है। ५५९४.पच्छित्तमेव पगतं, सहुस्स परिहार एव न उ सुद्धो। ५५९२.बितियं उप्पाएउं, सासणपंते असज्झे पंच वि पयाई। तं वहतो का मेरा, परिहारियसुत्तसंबंधो।। आगाढे कारणम्मिं रायसंसारिए जतणा॥ प्रस्तुत सूत्र में प्रायश्चित्त का ही अधिकार है। समर्थ मुनि इसका अपवादपद यह है। यदि वह शासनप्रान्त-शासन को परिहारतप ही प्रायश्चित्त के रूप में देना चाहिए। शुद्धतप का प्रत्यनीक हो, असाध्य हो तो उसके साथ अधिकरण कर नहीं। उसको वहन करने वाले की क्या मर्यादा है? इस उसे शिक्षा दे। यदि स्वयं समर्थ न हो तो इन पांचों पदों की जिज्ञासा के समाधान में प्रस्तुत सूत्र परिहारिक सूत्र का सहायता ले-संयत, ग्राम, नगर, देश और राज्य। आगाद प्रारंभ किया जाता है। यह सूत्र-संबंध है। कारण में राजसंसारिक-दूसरे राजा की स्थापना करनी हो तो ५५९५.वीसुंभणसुत्ते वा, गीतो बलवं च तं परिट्टप्पा। वह यतनापूर्वक करे-उसके स्थान पर उस वंश के अन्य राजा चोयण कलहम्मि कते, तस्स उ नियमेण परिहारो॥ को राज्य का भार सौंप दे। मरणसूत्र में बलवान् गीतार्थ मुनि उस मृतक का ५५९३.विज्जा-ओरस्सबली, तेयसलद्धी सहायलद्धी वा। परिष्ठापन कर वहनकाष्ठ ले आता है, गृहस्थ द्वारा कुछ उप्पादेउं सासति, अतिपंतं कालकज्जो वा॥ कहने पर कलह करता है, उसको नियमतः परिहारतप का ऐसा संपादित करने वाले में ये गुण हों-विद्याबल, प्रायश्चित्त देना चाहिए। औरसबल, तेजोलब्धि संपन्न, सहायलब्धियुक्त। ऐसा व्यक्ति ५५९६.कंटगमादीसु जहा, आदिकडिल्ले तहा जयंतस्स। अधिकरण को उत्पन्न कर अतिप्रान्त-अतीव प्रवचन अवसं छलणाऽऽलोयण, ठवणा जुत्ते य वोसग्गो॥ प्रत्यनीक पर अनुशासन करता है, जिस प्रकार कालकाचार्य उसको परिहारतप क्यों के समाधान में कहा गया, जैसेने गर्दभिल्ल राजा को शासित किया था। कंटकाकीर्ण और विषम मार्ग में यतनापूर्वक चलते हुए भी पैरों में कांटा चुभ जाता है वैसे ही आदिकडिल्ल-आद्यगहन परिहारकप्पट्ठिय-पदं उद्गम आदि दोष में अवश्य ही मुनि की छलना होती है, परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स उसके आलोचना आती है तथा जो उन गुणों से युक्त हो, उसको स्थापना-परिहार तप आता है। उस मुनि के वह कप्पइ आयरिय-उवज्झाएणं तद्दिवसं तपःकर्म निर्विघ्नरूप से पार लगे, इसके लिए सारे गच्छ को एगगिहंसि पिंडवायं दवावेत्तए, तेण परं नो कायोत्सर्ग करना चाहिए। से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइम वा ५५९७.एस तवं पडिवज्जति, साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा। कप्पइ ण किंचि आलवति मा ण आलवहा। से अण्णयरं वेयावडियं करेत्तए. तं अत्तचिंतगस्सा, जहा-उठावणं वा निसीयावणं वा वाघातो भेण कायव्वो।। १. विद्याबलेन युक्तो यथा-आर्यखपुटः, औरसेन वा बलेन युक्तो यथा-बाहुबली, तेजोलब्ध्या वा सलब्धिको यथा-ब्रह्मदत्तः सम्भूतभवे, सहायलब्धियुक्तो वा यथा-हरिकेशबलः। (वृ. पृ. १४८०) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० बृहत्कल्पभाष्यम् आचार्य कहते हैं-यह मुनि परिहारतप स्वीकार कर रहा ५६०४.देहस्स तु दोबल्लं, भावो ईसिं व तप्पडीबंधो। है। यह कुछ नहीं कहेगा। तुमको भी इसके साथ बात नहीं अगिलाए सोहिकरणेण वा वि पावं पहीणं से॥ करनी है। यह आत्मचिंतन में लीन रहेगा, इसलिए कोई मुनि देह की दुर्बलता और मनोज्ञ आहारविषयक कुछ व्याघात न करे। प्रतिबंध--यह भाव कहलाता है। अथवा अग्लानी से शोधि ५५९८.आलावण पडिपुच्छण, परियट्टट्ठाण वंदणग मत्ते। करने से उसका पाप प्रक्षीणप्राय है, यह भाव आचार्य जान पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव॥ लेते हैं। ये पद परस्पर न करें-आलपन, प्रतिपृच्छा, परिवर्तना ५६०५.आगंतु एयरो वा, भावं अतिसेसिओ से जाणिज्जा। (चितारना), उत्थापन, वंदनक, मात्रक लाकर देना, हेऊहि व से भावं, जाणित्ता अणतिसेसी वि॥ प्रतिलेखन, संघाटक रूप में उसके साथ होना, भक्त-पान आगंतुक मुनि या इतर अतिशयी ज्ञानी उसके इस प्रकार देना, साथ में भोजन करना आदि। के भाव को जान लेता है। अथवा अनतिशयी ज्ञानी भी बाह्य ५५९९.संघाडगाओ जाव उ, लहुओ मासो दसण्ह उ पयाणं। हेतुओं से उसके भाव को जान लेता है। लहुगा य भत्तदाणे, संभुंजण होतऽणुग्घाता॥ ५६०६.सक्कमहादी दिवसो, पणीयभत्ता व संखडी विपुला। इन दस पदों में आलपन से संघाटक पर्यन्त का धुवलंभिग एगघरं, तं सागकुलं असागं वा॥ आचरण करने पर मासलघु, भक्तपान देने पर चतुर्लघु, शक्रमह आदि के दिन प्रणीतभक्त वाली विपुल संखडी में साथ में भोजन करने पर चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त उसे ले जाते हैं। एक ही घर में अवश्यलाभ होता है चाहे वह आता है। घर श्रावक का हो अथवा अश्रावक का। ५६००.अट्ठण्हं तु पदाणं, गुरुओ परिहारियस्स मासो उ। (यदि वह पारिहारिक जाने में असमर्थ हो तो गुरु स्वयं __ भत्तपदाणे संभुंजणे य चउरो अणुग्घाया॥ जाकर वहां से लाकर देते हैं।) संघाटक पर्यन्त आठ पदों का पारिहारिक मुनि के साथ ५६०७.भत्तं वा पाणं वा, ण दिति परिहारियस्स ण करेंति। आचरण करने पर गुरुमास, भक्तपान देने तथा साथ में भोजन कारणे उट्ठवणादी, चोयग गोणीय दिलुतो। करने पर अनुद्घात चार मास का प्रायश्चित्त है। तत्पश्चात् पारिहारिक को भक्तपान नहीं देते और न ५६०१.कुव्वंताणेयाणि उ, आणादि विराहणा दुवेण्हं पि। उसके साथ बातचीत ही करते हैं। कारणवश दुर्बलता से देवय पमत्त छलणा, अधिगरणादी य उदितम्मि। उसको उत्थान आदि कराते हैं। जिज्ञासु के प्रश्न करने पर इन दस पदों को उसके साथ करने पर आज्ञाभंग आदि आचार्य ने गोदृष्टान्त कहा-जैसे नवप्रसूता गाय उठने में दोष तथा दोनों की पारिहारिक साधु की तथा गच्छ के असमर्थ होती है तब ग्वाला उसे उठाता है-चरने के लिए साधुओं की विराधना होती है। कोई देवता (प्रमत्त मुनि को) जंगल में ले जाता है। चरने के लिए जाने में असमर्थ हो तो छल सकता है। तपस्वी द्वारा कुछ कहे जाने पर अधिकरण वाला वहीं घर में चारा लाकर खिलाता है। इसी प्रकार आदि दोष होते हैं। पारिहारिक भी जितना कर सकता है, उतना उससे कराते ५६०२.विउलं व भत्त-पाणं, दट्ठणं साहवज्जणं चेव।। हैं, न कर सकने पर अनुपारिहारिक करता है। नाऊण तस्स भावं, संघाडं देंति आयरिया॥ ५६०८.उद्वेज्ज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडेज्ज भंडगं पेहे। साधुओं द्वारा विपुल भक्त-पान लाया हुआ देखकर उसके कुवियपियबंधवस्स व, करेइ इयरो वि तुसिणीओ।। मन में उसे ग्रहण करने की इच्छा उत्पन्न हुई। साधुओं ने पारिहारिक कहता है-मुझे उठाओ, बिठाओ, भिक्षा के वर्जना की। उसके मन की भावना को जानकर आचार्य ने लिए जाओ, भांडों का प्रत्युपेक्षण करो, यह सुनकर उसको मुनियों का एक संघाटक दिया। अनुपारिहारिक ये सब क्रियाएं इस प्रकार मौनभाव से ५६०३.भावो देहावत्था, तप्पडिबद्धो व ईसि भावो से। संपादित करे जैसे कुपित प्रियबंधु की कोई बंधु संपादित अप्पातित हयतण्हो, वहति सुहं सेसपछित्तं॥ करता है। भाव का अर्थ है-देह की अवस्था। उससे प्रतिबद्ध उस मुनि ५६०९.णीणेति पवेसेति व, भिक्खगए उग्गहं तउग्गहियं। के मन में उस भोजन के प्रति एक बार थोड़ी भावना जागी। उस रक्खति य रीयमाणं, उक्खिवइ करे य पेहाए। आहार को पाकर उसकी अभिलाषा शांत हो गई, तृप्त हो गई। भिक्षा के लिए गए हुए पारिहारिक ने जो पात्र आदि लिए अब वह शेष प्रायश्चित्त को सुखपूर्वक वहन करने लगा। थे उनको अनुपारिहारिक पात्रबंध-झोली निकालता है अथवा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक वहां दूसरे रखता है, बाहर जाते हुए की वह रक्षा करता है, भांडों को उठाने में असमर्थ उस पारिहारिक से वह अनुपारिहारिक हाथों में ले लेता है और वही उसकी प्रत्युपेक्षा करता है। ५६१०.एवं तु असढभावो, विरियायारो य होति अणुचिण्णो। भयजणणं सेसाण य, तवो य सप्पुरिसचरियं च॥ यथाशक्ति काम करने पर उसमें अशठभाव प्रदर्शित होता है। वीर्याचार का पालन होता है, शेष साधुओं में भी भय उत्पन्न होता है, तप का अनुपालन होता है तथा सत्पुरुषचरित्र का पालन होता है। ५६११.छिण्णावात किलंते, ठवणा खेत्तस्स पालणा दोण्हं। असहुस्स भत्तदाणं, कारणे पंथे व पत्ते वा॥ छिन्नपात (जनशून्य) मार्ग में जाने से पारिहारिक यदि क्लान्त हो जाता है तो उसके लिए क्षेत्र की स्थापना करनी चाहिए जिसमें वह भिक्षाचर्या के लिए जा सके। इससे दोनों की पारिहारिक और अनुपारिहारिक की पालना हो सकती है। यदि पारिहारिक भिक्षा के लिए जाने में भी असमर्थ हो तो अनुपारिहारिक उसे भक्तपान लाकर दे। दोनों यदि कारणिक हो जाएं तो गच्छ के साधु भक्तपान लाकर दे। अब मार्ग और ग्राम-प्रास विषयक यतना कही जा रही है। ५६१२.उवयंति डहरगाम, पत्ता परिहारिए अपाते। तस्सऽट्ठा तं गाम, ठविंति अन्नेसु हिंडंति॥ मार्ग में जाते हुए यदि कोई छोटा गांव प्राप्त हो जाए और यदि पारिहारिक अभी तक नहीं पहुंचा हो तो उसे उसी ग्राम में स्थापित कर दे। वह वहां भिक्षा करे और गच्छ के साधु अन्य ग्राम में भिक्षा करे। ५६१३.वेलइवाते दूरम्मि य गामे तस्स ठाविउमद्धं । अद्धं अडंति सो वि य, अद्धमडे तेहिं अडिते वा।। यदि वह गांव दूर हो और वहां पहुंचते-पहुंचते भिक्षा की वेला का अतिपात हो जाता है तो उसी गांव का आधाभाग पारिहारिक के लिए और शेष आधे में अन्य साधु घूमते हैं, और यदि पूरा आहार न आए तो पारिहारिक के पर्यटन के पश्चात् वे पूरे गांव में जा सकते हैं। ५६१४.बिइयपथ कारणम्मि,गच्छे वाऽऽगाढे सो तु जयणाए। अणुपरिहारिओ कप्पट्टितो व आगाढ संविग्गो॥ अपवाद पद में कारण में अर्थात् कुलादिकार्य में तथा गच्छ में यदि आगाढ़ कारण हो जाए तो पारिहारिक यतनापूर्वक वैयावृत्य करता है। गच्छ के साधु आगाढ़ योग में लगे हुए हैं, उपाध्याय ग्लान हों या कालगत हो गए हों तो ५८१ अनुपारिहारिक या पारिहारिक या कल्पस्थित मुनि वाचना दे सकता है। वह वाचना देता हुआ संविग्न ही है। ५६१५.मयण च्छेव विसोमे, देति गणे सो तिरो व अतिरो वा। तब्भाणेसु सएसु व, तस्स वि जोगं जणो देति॥ मदनकोद्रव खाने से सारा गच्छ ग्लान हो गया हो, अशिव से ग्रस्त हो, किसी ने विष दे दिया हो, अवमौदर्य हो-इस प्रकार के आगाढ़ कारण में गच्छ फंसा हो तो पारिहारिक गच्छ के भाजनों में या स्वयं के भाजनों में अन्नपान आदि लाकर देता है। वह तिरोहित अर्थात् अनुपारिहारिक आदि को देता है, वह गच्छ को दे देता है। यदि अनुपारिहारिक ग्लान हो जाता है तो अतिरोहितस्वयमेव गच्छ को देता है। जनता उनके योग्य आहार-पानी देती है, वह लाकर उनको दे देता है और स्वयं के योग्य रख लेता है। ५६१६.एवं ता पंथम्मि, जत्थ वि य ठिया तहिं पि एमेव । बाहिं अडती डहरे, इयरे अद्धद्ध अडिते वा। यह मार्गगत की विधि है। जहां वे स्थित हैं, वहीं भी यही क्रम है। छोटे ग्राम में गच्छ के साधु तथा पारिहारिक बहिर् भिक्षा के लिए जाता है। अथवा आधे-आधे में दोनों गण के साधु और पारिहारिक भिक्षाचर्या करते हैं। ५६१७.कप्पट्ठिय परिहारी, अणुपरिहारी व भत्त-पाणेणं। पंथे खेत्ते व दुवे, सो वि य गच्छस्स एमेव॥ कल्पस्थित या अनुपारिहारिक मार्ग में या क्षेत्र मेंपारिहारिक को भक्तपान लाकर देते हैं। पारिहारिक भी इसी प्रकार गच्छ का उपग्रह करता है। महानदी-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाओ पंच महण्णवाओ महानईओ उहिट्ठाओ गणियाओ वंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरित्तए वा। तं जहा-गंगा जउणा सरऊ कोसिया मही॥ (सूत्र २९) ५६१८.अद्धाणमेव पगतं, तत्थ थले पुव्ववण्णिया मेरा। जति होज्ज तत्थ तोयं, तत्थ उ सुत्तं इमं होति। पूर्वसूत्र में अध्वा का ही अधिकार था। वहां स्थलगत पूर्व पर्व Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ बृहत्कल्पभाष्यम् वर्णित मर्यादा का उल्लेख हुआ है। यदि स्थलगत मार्ग में प्रद्वेष को प्राप्त हो सकते हैं। अथवा वे निवर्तमान या तट पर पानी हो तो उसके लिए प्रस्तुत सूत्र है। बैठे हुए हरित आदि की विराधना करते हैं अथवा स्तेनों या ५६१९.इमाउ त्ति सुत्तउत्ता, उहिट्ठ नदीउ गणिय पंचेव। श्वापदों से उपद्रव को पाते हैं, वे दूसरी नौका प्रवाहित करते गंगादि वंजिताओ, बहुओदग महण्णवातो तू॥ हैं या अन्य नौका का क्रय करते हैं इनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त प्रस्तुत सूत्र में गिनती की ये पांच नदियां उदिष्ट हैं। गंगा के वे भागी होते हैं। आदि पदों से ये अभिव्यंजित हैं। ये बहुजला और महार्णव ५६२५.मज्जणगतो मुरुंडो, णावं दट्टण अप्पणा णेति। कहलाती हैं। (गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही ये पांच कहिगा जति अक्खेवा, तति लहुगा मग्गणा पच्छा। नदियां हैं) स्नान करते हुए मुरुंड राजा ने साधुओं को देखा और ५६२०.पंचण्हं गहणेणं, सेसा वि उ सूइया महासलिला। स्वयं नौका लेकर गया। नौका में आरूढ़ होकर साधु कथा तत्थ पुरा विहरिंसु य, ण य तातो कयाइ सुक्खंति॥ करने लगा। उस समय नौका चलाने में चप्पू के जितने __ इन पांचों के ग्रहण से शेष महासलिला-बहुजल वाली आक्षेप होते हैं उतने चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। पश्चात् नदियां सूचित की गई हैं। ये पांच नदियां जहां प्रवाहित होती राजा ने साधुओं को अन्तःपुर में कथा करने के लिए हैं, उन क्षेत्रों में मुनियों ने पहले विचरण किया था। ये नदियां प्रार्थना की। कभी सूखती नहीं, इसलिए इसका ग्रहण हुआ है। ५६२६.सुत्त-ऽत्थे पलिमंथो, णेगा दोसा य णिवघरपवेसे। ५६२१.पंच परूवेतुणं णावासंतारिमे . उ जं जत्थ। सइकरण कोउएण व, भुत्ता-ऽभुत्ताण गमणादी॥ उत्तरणम्मि वि लहुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा।। वहां जाने पर ये दोष होते हैं सूत्रार्थ का पलिमंथ, . इन पांचों नदियों की प्ररूपणा करके जो नदी जिस देश में स्मृतिकरण, कौतुक, भुक्त-अभुक्त भोगों की स्मृति, प्रतिगमन जिस रूप में प्रवाहित हो उसका वर्णन करना चाहिए। जो आदि अनेक दोष नृपगृह में प्रवेश करने पर होते हैं। नौका द्वारा पार की जाती हो, उसको पार करने पर षट्काय ५६२७.वुब्भण सिंचण बोलण, विराधना का निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। जंघा आदि से कंबल-सबला य घाडितिनिमित्तं। उत्तरण हो, संतरण रूप हो तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त और अणुसट्टा कालगता, आज्ञाभंग आदि दोष निष्पन्न होते हैं। णागकुमारेसु उववण्णा॥ ५६२२.अणुकंपा पडिणीया, व होज्ज बहवो उ पच्चवाया ऊ। कोई प्रत्यनीक साधुओं को नौका वाहन, सिंचन, जल में ___ एतेसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए। डुबोना आदि करता है। यहां एक दृष्टांत है-मथुरा में नौका आदि से नदी पार करने पर अनुकंपादोष, भंडीरयक्ष की यात्रा में कंबल-शबल नाम के दो बैलों को प्रत्यनीकदोष तथा अनेक प्रत्यवाय-आपत्तियां आती हैं। मित्र जिनदास को पूछे बिना वाहन में जोत दिया। उससे इनका नानात्व मैं क्रमशः कहूंगा। वैराग्य को प्राप्त होकर दोनों बैल श्रावक द्वारा अनुशिष्टि ५६२३.छुभणं जले थलातो, अण्णे वोयारिता छुभति साहू। प्राप्त कर भक्त-प्रत्याख्यान से मृत्यु को प्राप्त कर नागकुमार ठवणं व पत्थिताए, दटुं णावं व आणेती॥ देव में उत्पन्न हुए। साधु नदी पार करना चाहता है, यह जानकर नाविक, ५६२८.वीरवरस्स भगवतो, नावारूढस्स कासि उवसग्गं। अनुकंपा वश नौका को स्थल से नदी के जल में उतारता है मिच्छद्दिट्ठि परद्धो, कंबल-सबलेहिं तारिओ भगवं॥ अथवा दूसरे यात्रियों को उतार कर साधु को नौका में जब भगवान् महावीर नावारूढ़ होकर जा रहे थे, तब चढ़ाता है, अथवा साधु नौका से उतरेंगे यह सोचकर नौका सुदाढ़ा नाम के नागदेव ने उपसर्ग किया। उस मिथ्यादृष्टि को खड़ी रखता है या साधुओं को देखकर नौका को दूसरे देव ने भगवान् को जल में डुबोने का प्रयत्न किया तब तट से लाता है। कंबल-शबल दोनों देवों ने भगवान् को उस उपसर्ग से मुक्त ५६२४.नावित-साधुपदोसो, णियत्तणऽच्छंतगा य हरियादी। कर दिया। ___जं तेण-सावएहि व, पवहण अण्णाए किणणं वा॥ ५६२९.सीसगता वि ण दुक्खं, करेह मज्झं ति एवमवि वोत्तुं। नौका को लाते हुए देखकर लोग नाविक पर या साधु पर जा छुन्भंतु समुद्दे, मुंचति णावं विलग्गेसु॥ १. पूरे कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट नं. १३१। २. पूरे कथानक के लिए देखें-आ. नियु. गा. ४६९-४७१, हारि. टी. पत्र १९९-२०१। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक सरसों के दाने शिर पर पड़े हुए भी दुःख नहीं देते - इस प्रकार कह कर भी जो प्रत्यनीक नावारूढ साधुओं की नौका को नदीमुख पर छोड़ता है, जिससे कि नौका समुद्र में प्रक्षिप्त हो जाए, और साधु क्लेश पाते हुए मर जाएं। ५६३०. सिंचति ते उवहिं वा, ते चेव जले छुभेज्ज उवधिं वा । मरणोवधिनिप्फन्नं, अणेसिग तणादि तरपणं ॥ कोई प्रत्यनीक या नाविक साधुओं की उपधि को जल से सिंचित कर देता है अथवा उन साधुओं को और उपधि- दोनों को पानी में डुबो देता है। इस प्रसंग में आत्मविराधना में मरणनिष्पन्न तथा उपधि के विनाश में उपधिनिष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। वह मुनि पुनः अनेषणीय उपधि ग्रहण करेगा, तृण आदि का उपयोग करेगा, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वह नाविक तरपणी (साधुओं का पात्र - विशेष) की मांग करता है, न देने पर साधुओं को रोक देता है। ये सारे प्रत्यनीक दोष हैं। ५६३१. संघट्टणाऽऽयसिंचण, उवगरणे पडण संजमे दोसा । सावत तेणे तिण्हेगतर, विराहणा संजमा - SSयाए ॥ त्रस प्राणियों की संघट्टना, स्वयं या उपकरणों की पानी से सेचन अथवा गिर पड़ना - ये संयम दोष हैं। श्वापदकृत या स्तेनकृत - यह आत्मविराधना है। तीनों में से प्रत्यनीकता, अनुकंपा, तदुभयादिरूप में से किसी एक से संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। ५६३२. तस - उदग - वणे घट्टण, सिंचण लोगे अ णावि सिंचणता । वुब्भण उवधाऽऽतुभये, मगरादि समुद्दतेणा य ॥ पानी में उत्पन्न होने वाले त्रस प्राणियों का अथवा जल का या सेवालादिरूप वनस्पति का संघट्टन होता है। लोग अथवा नाविक साधु के उपकरणों का जल से सेचन कर देते हैं अथवा उपधि को या साधु को या दोनों को पानी में डुबो देते हैं। वहां मगरमच्छ आदि जानवर या समुद्री स्तेन होते हैं। उ सावया । ५६३३. ओहार - मगरादीया, घोरा तत्थ सरोवहिमादीया, णावातेणा य कत्थई ॥ वहां नदी में ओहार - मत्स्यविशेष तथा मगरमच्छ आदि भयंकर श्वापद होते हैं। वहां शरीरस्तेन, उपधिस्तेन तथा नौस्तेन कहीं-कहीं होते हैं। ५६३४. सावय तेणे उभयं, अणुकंपादी विराहणा तिण्णि । संजम आउभयं वा, उत्तर-णावुत्तरंते वा ॥ श्वापद, स्तेन या दोनों - यह त्रिक, अथवा अनुकंपा से, ५८३ प्रत्यनीकता से अथवा दोनों से यह त्रिक, अथवा संयमविराधना, आत्मविराधना या दोनों - यह त्रिक उदक में उतरते हुए, नौका में आरूढ़ होने पर, नौका से उतरते हुए इस त्रिक में-इन चारों त्रिकों में प्रत्येक में अनेक प्रत्यपाय होते हैं। ५६३५. उत्तरणम्मि परुविते, उत्तरमाणस्स चउलहू होति । आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा - ऽऽताए । उत्तरण का अर्थ है-नदी को नौका के बिना पार करना । उत्तरण की प्ररूपणा का यह तात्पर्य है- जो जंघा आदि से तैर कर नदी पार करता है उसके चतुर्लघु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष, तथा संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। ५६३६. जंघद्धा संघट्टो, संघट्टवरिं तु लेवो जा णाभी । तेण परं लेवोवर, तुंबोडुव णाववज्जेसु ॥ संघट्ट का अर्थ है- पादतल से आधी जंघा का पानी में डूबना | संघट्ट के ऊपर नाभि तक जल का होना लेप है। उस लेप के ऊपर अर्थात् नाभि से ऊपर सारा लेप के ऊपर माना जाता है। पानी की गहराई स्ताघ या अस्ताघ होती है। जिस पानी में नासिका नहीं डूबती वह स्ताघ और जिसमें नासिका डूब जाए वह अस्ताघ । इतने गहरे पानी में जो बिना नौका के उतरता है, वह उत्तरण कहलाता है। उसमें आत्मविराधना और संयमविराधना- दोनों होते हैं। ५६३७. संघट्टणा य सिंचण, उवगरणे पडण संजमे दोसा । चिक्खल्ल खाणु कंटग, सावत भय वुब्भणे आया ॥ लोगों से साधु का संघट्टन होता है या साधु जल का संघट्टन करता है । उपकरणों का जल से सेचन होता है, वे जल में गिर जाते हैं - यह संयमदोष है। चिक्खल में गिर पड़ना, पैरों में लकड़ी या कांटा लग जाना, जल के श्वापदों का भय, नदी के प्रवाह में बह जाना - यह सब आत्मविराधना है। अह पुण एवं जाणेज्जा - एरावई कुणाला जत्थ चक्किया एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवण्हं कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्त वा संतरित्तए वा । जत्थ एवं नो चक्किया एवण्हं नो कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरितए वा ॥ (सूत्र ३० ) . Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ बृहत्कल्पभाष्यम ५६३८.एरवइ जम्हि चक्किय, जल-थलकरणे इमं तु णाणत्तं। उनमें भी जो बहुगुणतर है उससे गमन करना चाहिए।' एगो जलम्मि एगो, थलम्मि इहई थलाऽऽगासं॥ संडेवक यह भी संक्रम का एक भेद है। उन तथा इतर ऐरावती नदी में एक पैर जल में और एक पैर स्थल में- संडेवकों से भी जाया जा सकता है। संडेवक का अर्थ है-ईंटे इस विधि से नदी को पार किया जा सकता है। इसमें यही आदि रखकर पार करना। नानात्व है कि पूर्वोक्त महानदियों में एक मास में दो-तीन बार ५६४३.नदिकोप्पर वरणेण व, थलमुदयं णोथलं तु तं चउहा। नहीं उतरा जा सकता। इसमें उतरा जा सकता है। यहां उवलजल वालुगजलं, सुद्धमही पंकमुदगं च॥ स्थान का अर्थ है-आकाश। नदीकूर्पर मुड़ी हुई कोहनी की तरह नदी का मुड़ना। ५६३९.एरवइ कुणालाए, वित्थिण्णा अद्धजोअणं वहति। वरण-जल पर पालि बांधना। इनसे उदक का परिहार कर कप्पति तत्थ अपुण्णे, गंतुं जा वेरिसी अण्णा॥ गमन करना स्थल है। नोस्थल चार प्रकार का हैकुणाला नगरी के निकट ऐरावती नदी बहती है। वह उपलजल-नीचे पाषाण ऊपर जल, बालुकाजल-नीचे आधी योजन विस्तीर्ण और अर्द्धजंघाप्रमाण ऊंडी है। बालुका ऊपर जल, शुद्धोदक-नीचे पृथ्वी ऊपर जल, ऋतुबद्ध काल में मासकल्प अपूर्ण होने पर उसमें से पंकोदक-नीचे कर्दम ऊपर जल। पंकोदक संबंधी ये तीन बार भिक्षा आदि के लिए यतनापूर्वक जाना-आना विधान हैंकल्पता है। अथवा ऐसी ही अन्य नदी में भी आना-जाना ५६४४.लत्तगपहे य खुलए, तहऽद्धजंघाए जाणुउवरिं च। कल्पता है। लेवे य लेवउवरिं, अक्वंतादी उ संजोगा। ५६४०.संकम थले य णोथल, पासाणजले य वालुगजले य। जितने पैर पर अलक्तक लगाया जाता है उतनामात्र जिस सुद्धदग पंकमीसे, परित्तऽणते तसा चेव॥ पथ में पंक हो वह लत्तकपथ है। इसी प्रकार खुलकनदी उतरने के तीन मार्ग हैं-संक्रम, स्थल और नोस्थल। पादपुंटक प्रमाण, अर्द्धजंघाप्रमाण, जानुप्रमाण, लेप-नाभिनोस्थल के चार प्रकार हैं प्रमाण, उससे ऊपर सारा लेपोपरी पंक ये सारे कर्दम के (१) पाषाणजल (३) शुद्धोदक भेद हैं। नोस्थल कर्दम के चारों प्रकारों में आक्रान्त(२) बालुकाजल (४) पंकमिश्रितजल अनाक्रान्त, सभय-निर्भय आदि संयोग करने चाहिए। इस इन चारों से गमन करने से यथासंभव परीत्त, अनंतकाय । दोष से युक्त मार्ग का परिहार करना चाहिए। तथा त्रसजीव की विराधना होती है। ५६४५.जो वि य होतऽक्कतो, हरियादि-तसेहिं चेव परिहीणो। ५६४१.उदए चिक्खल्ल परित्त-ऽणंतकाइग तसे त मीसे त। तेण वि तु न गंतव्वं, जत्थ अवाया इमे होति। अवंतमणक्वंते, संजोए होति अप्पबहं॥ जो भी मार्ग आक्रान्त होता है और जो हरित आदि तथा उदक में चिक्खल्ल होता है। वहां परीत्तकायिक और त्रस प्राणियों से परिहीन होता है, उससे भी नहीं जाना अनन्तकायिक जीव तथा त्रसकायिक जीव होते हैं। ये सारे चाहिए, क्योंकि वहां ये अपाय होते हैं। मिश्र-आक्रान्त-अनाक्रान्त, स्थिर-अस्थिर आदि होते हैं। ५६४६.गिरिनदि पुण्णा वाला-ऽहि-कंटगा दूरपारमावत्ता। उनके अल्पाबहुत्व में अनेक संयोग होते हैं। चिक्खल्ल कल्लुगाणि य, गारा सेवाल उवला य॥ ५६४२.एगंगिय चल थिर पारिसाडि सालंब वज्जिए सभए। जिस मार्ग में गिरिनदी पूर्णवेग से बह रही हो, उसमें पडिपक्खेसु त गमणं, तज्जातियरे व संडेवा।। व्याल-मकर आदि तथा सर्प, कंटक आदि हों, जिसका पार संक्रम के दो प्रकार हैं-एकांगिक और अनेकांगिक। एक दूर हो, जिसमें आवर्त हों, चिक्खल्ल हो, कल्लुक-जल फलक से बना हुआ एकांगिक तथा अनेक फलकों आदि से पाषाण पर होने वाले द्वीन्द्रिय प्राणी जो पैरों को छेद डालते बना हुआ अनेकांगिक। ये चल-स्थिर, परिशाटि-अपरिशाटि, हैं वे हों, गार-पाषाण की नोकें हों, सेवाल और उपल हों-ये सालंब-निरालंब, सभय-निर्भय होते हैं। प्रतिपक्ष से गमन सारे अपाय हैं। इन अपायों से वर्जित स्थलमार्ग से जाना अर्थात् अनेकांगिक, चल, परिशाटि, निरालंब, सभय इन चाहिए, उसके अभाव में संक्रमण से, उसके अभाव में पांच पदों के जो प्रतिपक्षी हों उनसे गमन करना चाहिए। नोस्थल से। १. अर्थात् एकांगिक, स्थिर, अपरिशाटी, सालंब, निर्भय-इनसे गमन करना चाहिए। २. संडेवक के दो प्रकार हैं-तज्जात और अतज्जात। स्वभावतः जात शिला आदि तज्जात और दूसरे स्थान से लाकर स्थापित ईंट, शिला आदि अतज्जात (वृ. पृ. १४९३) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक = ५८५ ५६४७.उवलजलेण तु पुव्वं, अक्कंत-निरच्चएण गंतव्वं। आक्रान्त-स्थिर शरीर-निरत्यय, सान्तर बस वाले पथ से तस्सऽसति अणक्वंते, णिरच्चएणं तु गंतव्वं॥ जाना चाहिए। ___ चार प्रकार के नोस्थल में से सबसे पहले उपलजल वाले ५६५२.तेऊ-वाउविहूणा, एवं सेसा वि सव्वसंजोगा। मार्ग से जाना चाहिए। उसमें कर्दम नहीं होता। उसमें भी जो उदगस्स उ कायव्वा, जेणऽहिगारो इहं उदए। आक्रान्त-क्षुण्ण हो तथा निरत्यय-निष्प्रत्यपाय हो, उससे तेजस्काय और वायुकाय में गमन नहीं होता अतः जाना चाहिए। उसके अभाव में अनाक्रान्त और निरत्यय से तेजोवायु विहीन शेष सभी संयोग करने चाहिए। अप्काय का भी गमन किया जा सकता है। वनस्पति और त्रस प्राणियों के साथ भंग होते हैं। यहां उदक ५६४८.एमेव सेसएसु वि, सिगतजलादीहिं होति संजोगा। का अधिकार है। शिष्य प्रश्न करता है-वनस्पति वाले मार्ग पंक महुसित्थ लत्तग, खुलऽद्धजंघा य जंघा य॥ से जाना चाहिए या त्रस प्राणियों वाले मार्ग से? सूरी कहते इसी प्रकार ही सिकताजल आदि शेष पदों में आक्रान्त- हैं-सान्तर त्रस वाले मार्ग से, वनस्पतिवाले मार्ग से नहीं अनाक्रान्त आदि संयोग होते हैं। पंकजल बहुत प्रत्युपाय क्योंकि वहां नियमतः त्रस प्राणी होते हैं।' वाला होता है अतः उपलजल आदि के अभाव में उससे ५६५३.एरवइ जत्थ चक्किय, तारिसए न उवहम्मती खेत्तं। जाया जाता है। उसमें भी पहले मधुसिक्थाकृतिपंक अर्थात् पडिसिद्धं उत्तरणं, पुण्णासति खेत्तऽणुण्णायं। केवल पादतल में लगने वाला पंक, उससे, उसके अभाव में ऐरावती नदी, जो कुणाला नगर में बहती है, उसमें उतरा अलक्तकमात्र वाले पंक से, फिर खुलकमात्र, फिर जा सकता है क्योंकि वह अर्द्धयोजन विस्तीर्ण और जंघार्द्ध अर्द्धजंघामात्र, फिर जंघामात्र-जानुप्रमाण वाले पंक-पथ से गहरी है। उसमें उतर कर भिक्षा के लिए जाने पर तीन उदक गमन करे। संघट्टन होते हैं। जाने-आने में छह। वर्षा में सात, जाने-आने ५६४९.अहोरुतमित्तातो, जो खलु उवरिं तु कद्दमो होति।। में चौदह। इस प्रकार के उदक संघट्टन से क्षेत्र का उपहनन कंटादिजढो वि य सो, अत्थाहजलं व सावायं॥ नहीं होता। इससे अधिक संघट्टन वाली नदी में उतरना जानुप्रमाण से जो ऊपरी पंक हो, वह कर्दम, कंटक आदि । प्रतिषिद्ध है। मासकल्प या वर्षावास पूर्ण होने पर यदि अपाय से वर्जित होने पर भी अथाह जलवाला होने के कारण अनुत्तीर्ण मुनियों के लिए अपर मासकल्पयोग्य क्षेत्र हो तो अपाय सहित ही मानना चाहिए। नदी में नहीं उतरना चाहिए। यदि क्षेत्र न हो तो उनके लिए ५६५०.जत्थ अचित्ता पुढवी, तहियं आउ-तरुजीवसंजोगा। उतरना अनुज्ञात है। जोणिपरित्त-थिरेहि य, अक्कंत-णिरच्चएहिं च॥ ५६५४.सत्त उ वासासु भवे, दगघट्टा तिन्नि होति उडुबद्धे। जहां पृथ्वी अचित्त हो वहां अप्काय जीवों का तथा जे तु ण हणंति खेत्तं, भिक्खायरियं व न हणंति॥ वनस्पतिकाय जीवों का संयोग-भंग करना चाहिए। परीत्त- वर्षा ऋतु में सात और ऋतुबद्ध में तीन उदक संघट्टन योनिकस्थिरसंहनन, आक्रान्त तथा निरत्यय-निष्प्रत्यपाय- होते हैं। इतने से क्षेत्र और भिक्षाचर्या का उपहनन नहीं होता। इन चारों के परस्पर भंग करने चाहिए। वे सोलह होते हैं। ५६५५.जह कारणम्मि पुण्णे, अंतो तह कारणम्मि असिवादी। जैसे-प्रत्येकयोनिक-स्थिर, आक्रान्त, निष्प्रत्यपाय-यह उवहिस्स गहण लिंपण, णावोयग तं पि जतणाए। पहला भंग है। ___ कारण के पूर्ण होने पर अर्थात् मासकल्प और वर्षावास ५६५१.एमेव य संजोगा, उदगस्स चउब्विहेहिं तु तसेहिं। की अवधि पूर्ण होने पर, अपरक्षेत्र के अभाव में नदी-उत्तरण अक्कंत-थिरसरीरे-णिरच्चएहिं तु गंतव्वं॥ विहित है तथा एकमास के अन्दर यदि अशिव आदि हो, इसी प्रकार चार प्रकार के त्रस जीवों के साथ उपधि के ग्रहण के लिए अथवा लेप को लाने के लिए नदी में आक्रान्त आदि चार पदों के साथ उदक के संयोग- उत्तरण किया जा सकता है। नौका से नदी पार करनी हो तो भंग करने चाहिए। जैसे-आक्रान्त, स्थिर, निष्प्रत्यपाय- यतनापूर्वक संतरण करे। यह पहला भंग है। इस प्रकार तीन पदों से आठ भंग ५६५६.नाव थल लेवहेट्ठा, लेवो वा उवरि एव लेवस्स। होते हैं। इनको चारों प्रकार के त्रस जीवों के साथ दोण्णी दिवड्डमक्कं, अद्धं णावाए परिहाती॥ संयोग करने से ३२ भंग हो जाते हैं। सान्तर-निरन्तर के यदि नौका उत्तरणस्थान से दो योजन पथ से जाया जाए तो साथ करने से ६४ भंग होते हैं। इन भंगों में से जो उससे जाए, नौका में आरूढ़ न हो। लेप के नीचे उदक के १. वणे वि नियमा तसा अत्थि-निशीथचूर्णि। फरा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ = संघट्टन से यदि सार्द्धयोजन पथ से जाना पड़े तो, उससे जाए, लेप तक उदक हो तो योजन पथ का चक्कर लेकर उससे जाए, नौका से नहीं। लेपोपरी उदक से आधायोजन जाना पड़े तो उससे जाए, नौका से नहीं। इस प्रकार नौका के उत्तरणस्थान से स्थल आदि में योजनद्वय आदि का परिहार होता है। ५६५७.दो जोयणाइं गंतुं, जहियं गम्मति थलेण तेण वए। मा य दुरूहे नावं, तत्थावाया बहू वुत्ता॥ दो योजन जाकर यदि स्थल से जाया जाए तो उससे जाए। नौका पर आरूढ़ न हो क्योंकि उसमें अनेक अपाय कहे गए हैं। ५६५८.थलसंकमणे जयणा, पलोयणा पुच्छिऊण उत्तरणं। परिपुच्छिऊण गमणं, जति पंथो तेण जतणाए॥ स्थल के संक्रमण में यतना करे-एक पैर जल में, एक पैर आकाश में रखते हुए संक्रमण करे। मुनि नौका से उतरने वाले यात्रियों को देखे, या दूसरों को पूछे और जहां अल्पतर पानी हो वहां उतरे। यदि दूसरा मार्ग हो तो पूछकर यतनापूर्वक उस मार्ग से जाए। ५६५९.समुदाणं पंथो वा, वसही वा थलपथेण जति नत्थि। सावत-तेणभयं वा, संघट्टेणं ततो गच्छे॥ उस पथ में भिक्षा की प्राप्ति न हो, स्थलमार्ग ही न हो, यदि उस मार्ग पर वसति न हो, वहां श्वापदभय या स्तेनभय हो तो उस मार्ग को छोड़कर संघट्ट से जाए और उसके अभाव में लेपयुक्त मार्ग से जाए। ५६६०.णिभये गारत्थीणं, तु मग्गतो चोलपट्टमुस्सारे। . सभए अत्थग्धे वा, उत्तिण्णेसुं घणं पढ़ें। यदि मार्ग निर्भय हो तो गृहस्थों के जल में उतर जाने के पश्चात् साधु पानी में उतरे। चोलपट्टक को ऊपर कर ले। यदि अथाह पानी के कारण भय हो तो गृहस्थों के उतर जाने पर मुनि चोलपट्टक को दृढ़ बांधकर, उनके पीछे उतरे।। ५६६१.दगतीरे ता चिट्टे, णिप्पगलो जाव चोलपट्टो तु। सभए पलंबमाणं, गच्छति काएण अफुसंतो॥ यदि कोई उपकरण भीग जाए तो दकतीर-पृथिवी पर, तब तक बैठा रहे जब तक भीगे हुए चोलपट्ट से सारा पानी झर न जाए। यदि वहां बैठना सभय हो तो उस भीगे हुए वस्त्र को अपने शरीर पर प्रलंबरूप से लेकर हाथों से स्पर्श न करता हुआ चले। ५६६२.असइ गिहि णालियाए, आणक्खेउं पुणो वि पडियरणं। एगाभोगं च करे, उवकरणं लेव उवरिं वा॥ =बृहत्कल्पभाष्यम् गृहस्थों के अभाव में नालिका (आत्मप्रमाण से चार अंगुल लंबी) को साथ ले उससे पानी की गहराई का अनुमान कर परतीर से पुनः आ सकता है। वहां से आकर वह उपकरणों को एकाभोगं-एकत्र बांधकर ले जाता है। यह लेप तथा लेप के ऊपरी जल में जाने की विधि है। ५६६३. बिइयपय तेण सावय, भिक्खे वा कारणे व आगाढे। कज्जुवहि मगर छुब्भण, नावोदग तं पि जतणाए। इसमें द्वितीयपद यह है-स्थल तथा संघट्ट आदि पथों में स्तेन, श्वापद आदि हो, भिक्षा की प्राप्ति न हो, अथवा आगाढ़ कारण हो, कुलादि कार्य करना हो, औषधि लानी हो, मगरमच्छ का भय हो, कदाचित् प्रत्यनीक ने पानी में फेंक दिया हो, यदि बलाभियोग से नौका का पानी उलीचने के लिए बाध्य किया जाए तो वह भी यतनापूर्वक करे। ५६६४.पुरतो दुरुहणमेगतो, पडिलेहा पुव्व पच्छ समगं वा। सीसे मग्गतो मज्झे, बितियं उवकरण जयणाए। गृहस्थों के समक्ष वस्त्रों का प्रत्युपेक्षण न करे, नौका में चढ़ने से पूर्व एकान्त में उपकरणों का प्रत्युपेक्षण करे। नौका में आरोहण गृहस्थों से पहले, पश्चात्, या साथ में करे? यदि नाविक भद्र हो तो पहले, प्रान्त हो तो पश्चात् या साथ में करे। नौका के सिर पर नहीं बैठना चाहिए, वह देवता का स्थान होता है। पार्श्व में भी नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि वह निर्यामक का स्थान होता है। मध्य में भी नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि वह कूपक का स्थान है। दूसरे मध्य स्थान में बैठना चाहिए। नौका से उतरते समय न पहले उतरे और न बाद में, किन्तु मध्य में उतरना चाहिए। अन्तप्रान्त चीवर को धारण करे। यदि नाविक उपकरणों की मांग करे, तो यतनापूर्वक अन्तप्रान्त उपकरण दे। दूसरा कोई अनुकंपा कर नाविक को देता है तो प्रतिषेध न करे। उखस्सय-पदं से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेसु अप्पपाणेसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंग - पणग - दगमट्टिय - मक्कडासंताणएसु अहेसवणमायाए नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंत-गिम्हासु वत्थए। (सूत्र ३१) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक ५८७ से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेसु अप्पपाणेसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंग - पणग - दगमट्टिय - मक्कडासंताणएसु उप्पिंसवणमायाए कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंत-गिम्हासु वत्थए। (सूत्र ३२) से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेसु अप्पपाणेसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंग - पणग - दगमट्टिय - मक्कडासंताणएसु अहेरयणिमुक्कमउडे नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं वत्थए। (सूत्र ३३) से तणेसु वा तणपुंजेस वा पलालेस वा पलालपंजेस वा अप्पंडेस अप्पपाणेस अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंग - पणग - दगमट्टिय - मक्कडासंताणएसु उप्पिरयणिमुक्कमउडे कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासंवत्थए। -त्ति बेमि॥ (सूत्र ३४) ५६६५.अद्धाणातो निलयं, उविंति तहियं तु दो इमे सुत्ता। तत्थ वि उडुम्मि पढम, उडुम्मि दूइज्जणा जेणं॥ पूर्वसूत्र में जलपथ लक्षण अध्वा बताया गया था। वहां से मुनि निलय-उपाश्रय में आते हैं। उस विषय में ऋतुबद्ध और वर्षावास से संबंधित प्रत्येक के दो-दो सूत्र हैं। उसमें भी प्रथमसूत्र युगल ऋतुबद्ध विषयक और द्वितीयसूत्र युगल वर्षावास विषयक है। क्योंकि ऋतुबद्धकाल में मुनियों का विहार होता है, वर्षावास में नहीं। ५६६६.अहवा अद्धाणविही, वुत्तो वसहीविहिं इमं भणई। सा वी पुव्वं वुत्ता, इह उ पमाणं दुविह काले॥ अथवा अध्वा की विधि पूर्वसूत्र में कही गई है। प्रस्तुत सूत्र में वसति की विधि कही जाती है। वह भी पूर्व सूत्रों में कही जा चुकी है। प्रस्तुत सूत्रों में दोनों प्रकार की ऋतुबद्ध और वर्षावास काल में उसके प्रमाण विषयक चर्चा है। ५६६७.तणगहणाऽऽरण्णतणा, सामगमादी उ सूइया सव्वे। सालीमाति पलाला, पुंजा पुण मंडवेसु कता। तृण ग्रहण से आरण्यकतृण, श्यामाकतृण आदि सूचित होते हैं। पलाल के ग्रहण से शाल्यादि पलाल गृहीत होते हैं। तृणों के और पलाल के पुंज मंडपों में किए जाते हैं। ५६६८.पुंजा उ जहिं देसे, अप्पप्पाणा य होति एमादी। अप्प तिग पंच सत्त य, एतेण ण वच्चती सुत्तं। जिन देशों में मंडपों में पुंज होते हैं, वे अल्पप्राण, अल्पबीज आदि होते हैं। अल्प शब्द से कोई यह सोच ले कि तीन-पांच-सात जीव वाले मानने चाहिए। इस परोक्त कथन के आधार पर सूत्र नहीं चलता। यहां अल्प शब्द अभाव वाचक है। ५६६९.वत्तव्वा उ अपाणा, बंधणुलोमेणिमं कयं सुत्तं। पाणादिमादिएसुं, ठंते सहाणपच्छित्तं।। तब वह पर व्यक्ति कहता है-तब सूत्रालापक इस प्रकार होना चाहिए-अपाणेसु अबीएसु-आदि। गुरु कहते हैं-यह सूत्र बन्धानुलोम्य से कृत है। यदि दो-चार-पांच आदि प्राणी वाले मंडपों में रहते हैं तो प्राणियों की विराधना से स्वस्थान प्रायश्चित्त आता है। ५६७०.थोवम्मि अभावम्मि य, विणिओगो होति अप्पसहस्स। थोवे उ अप्पमाणो, __ अप्पासी अप्पनिहो य॥ ५६७१.निस्सत्तस्स उ लोए, अभिहाणं होइ अप्पसत्तो त्ति। ___लोउत्तरे विसेसो, अप्पाहारो तुअट्टिज्जा॥ अल्प शब्द का विनियोग-व्यापार दो अर्थों में होता हैस्तोक और अभाव। स्तोक अर्थ में जैसे-अल्पमान, अल्पाशी, अल्पनिद्र। अभाववाची अल्प शब्द, जैसे-लोक में निःसत्त्व पुरुष अल्पसत्त्व कहलाता है। लोकोत्तर में भी यह विशेषरूप से प्रयुक्त है जैसे-अल्पाहार, अल्पत्वग्वर्तन करेसोए, अल्पातंक-नीरोग आदि। ५६७२.बिय-मट्टियासु लहुगा, हरिए लहुगा व होति गुरुगा वा। पाणुत्तिंग-दएसुं, लहुगा पणए गुरू चउरो॥ बीज, मृत्तिकायुक्त तृणों पर बैठने से चतुर्लघु, प्रत्येक Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ वनस्पति पर चतुर्लघु और अनन्त पर चतुर्गुरु, प्राणियों पर- द्वीन्द्रिय आदि पर, उत्तिंग और उदक पर बैठने से चतुर्लधु, पनक पर चतुर्गुरु। ५६७३.सवणपमाणा वसही, अधिठंते चउलहुं च आणादी। मिच्छत्त अवाउड पडिलेह वाय साणे य वाले य॥ जो वसति पुरुष के कानों से नीचे तक तृणयुक्त हो, वैसी श्रवणप्रमाण वाली वसति में रहने से चतुर्लघु तथा आज्ञाभंग आदि दोष होता है। जिन मुनियों का सागारिक (प्रजनेन्द्रिय) अपावृत और वैक्रिय होता है उसे देखकर लोग मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं। ऊपर प्रत्युपेक्षा नहीं होती। झुककर चलने से कटी या पीठ वायु से जकड़ जाते हैं। लटकते हुए सागारिक को कुत्ते काट डालते हैं, ऊपर सिर लगने से सर्प डस लेता है। ५६७४.सवणपमाणा वसही, खेत्ते ठायते बाहि वोसग्गो। पाणादिमादिएसुं, वित्थिण्णाऽऽगाढ जतणाए॥ अन्य क्षेत्रों में अशिव आदि हो तो अधःश्रवणप्रमाण वाली वसति में रहने पर यह यतना है-वसति के बाहर आवश्यक करते हैं। द्वितीयपद में सप्रमाण वाली वसति में रहे तो यतनापूर्वक विस्तीर्ण भूभाग में रहे। आगाढ़ कारण में स्थित मुनियों के लिए यह यतना है-बीज आदि से संसक्त स्थान को राख से लक्षित करे, कुटमुख से हरियाली को ढंके, और बीज आदि को एकान्त में स्थापित करे। ५६७५.वेउव्व-ऽवाउडाणं, वुत्ता जयणा णिसिज्ज कप्पो वा। उवओग जिंतऽइंते, हु छिंदणा णामणा वा वि॥ जिन मुनियों का सागारिक विकुर्वणायुक्त है, वे पूर्वोक्त यतना का पालन करे। वे पिछले भाग को निषद्या या कल्प से आच्छादित करते हैं। वे उपयोगपूर्वक जाते-आते हैं। जो तृण ऊपर से लटकते हैं, उनका छेदन या नामन करते हैं। ५६७६.अंजलिमउलिकयाओ, दोण्णि वि बाहा समूसिया मउडो। हेट्ठा उवरिं च भवे, मुक्कं तु तओ पमाणाओ॥ मुकुलित अंजलियों सहित दोनों भुजाओं को ऊपर करने पर मुकुट की आकृति होती है। उतने प्रमाण को स्वीकार कर संस्तारक पर बैठे हुए मुनि के नीचे और ऊपर जो अन्तराल रहता है, ऐसी ऊपर से रत्निमुक्त मुकुट वाली वसति में वर्षाकाल में रहा जा सकता है। ==बृहत्कल्पभाष्यम् ५६७७.हत्थो लंबइ हत्थं, भूमीओ सप्पो हत्थमुट्ठति। सप्पस्स य हत्थस्स य, जह हत्थो अंतरा होइ।। फलक आदि पर सोए हुए मुनि का हाथ एक हाथ प्रमाण से नीचे लटकता है। भूमी पर चलता हुआ सर्प एक हाथ ऊपर उठ सकता है, इसलिए सर्प और हाथ के बीच एक हाथ का अन्तर हो, वैसे करना चाहिए। ५६७८.माला लंबति हत्थं, सप्पो संथारए निविट्ठस्स। सप्पस्स य सीसस्स य, जह हत्थो अंतरा होइ॥ मुनि संस्तारक पर बैठा है। माले से सर्प एक हाथ नीचे लटकता है। सर्प के और सिर के बीच एक हाथ का अन्तर हो वैसा बिछौना करे। ऐसे उपाश्रय में रहना चाहिए। ५६७९.काउस्सग्गं तु ठिए, मालो जइ हवइ दोसु रयणीसु। कप्पइ वासावासो, इय तणपुंजेसु सव्वेसु॥ कायोत्सर्ग में स्थित मुनि से माला दो रत्नि ऊपर हो, उस वसति में वर्षावास करना कल्पता है। इसी प्रकार सभी तृणपुंजों के विषय में जानना चाहिए। ५६८०.उप्पिं तु मुक्कमउडे, अहि ठंते चउलहुं च आणाई। मिच्छत्ते वालाई, बीयं आगाढ संविग्गो। ऊपर मुक्तमुकुट उपाश्रय में रहे। अधोमुक्तमुकुट उपाश्रय में रहने पर चतुर्लघु, आज्ञाभंग आदि दोष, मिथ्यात्व, व्याल आदि का उपद्रव होता है। अपवादपद भी पूर्ववत् मानना चाहिए। आगाढ़ कारण में वहां रहने वाला संविग्न ही होता है। ५६८१.दीहाइमाईसु उ विज्जबंधं, .. कुव्वंति उल्लोय कडं च पोत्तिं। कप्पाऽसईए खलु सेसगाणं, मुत्तुं जहण्णेण गुरुस्स कुज्जा॥ वसति में यदि सर्प आदि हों तो उनको विद्या द्वारा बांध दिया जाता है। विद्या न होने पर ऊपर चंदोवा बांधते है। चंदोवा के अभाव में चटाई, उसके अभाव में चिलिमिलिका बांधते हैं। यदि उतने कल्प न हों तो शेष मुनियों को छोड़कर जघन्यतः गुरु के ऊपर अवश्य बांध दे। चौथा उद्देशक समाप्त शुकसान Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक (गाथा ५६८२-६०५९) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक मेहुणपडिसेवणा-पदं देवे य इत्थिरूवं विउव्वित्ता निग्गंथं पडिगाहेज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं॥ (सूत्र १) देवी य इत्थिरूवं विउव्वित्ता निग्गंथं पडिगाहेज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्तेआवज्जइचाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र २) देवी य पुरिसरूवं विउव्वित्ता निग्गंथिं पडिगाहेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र ३) देवे य पुरिसरूवं विउव्वित्ता निम्गंथिं पडिगाहेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र ४) ५६८३.अवि य तिरिओवसग्गा, तत्थुदिया आयवेयणिज्जा य। इमिगा उ होति दिव्वा, ते पडिलोमा इमे इयरे॥ __'अपि च' यह संबंध का प्रकारान्तर द्योतक है। पूर्वसूत्र में तिर्यंच के उपसर्ग तथा आत्मसंवेदनीय उपसर्गों का वर्णन था। प्रस्तुत में दिव्य उपसर्गों का वर्णन है। उपसर्ग दो प्रकार के होते हैं-प्रतिलोम-प्रतिकूल और अनुकूल। ५६८४.अहवा आयावाओ, चउत्थचरिमम्मि पवयणे चेव। इमओ बंभावाओ, तस्स उ भंगम्मि किं सेसं॥ अथवा चौथे उद्देशक के चरमसूत्र में आत्मापाय और प्रवचनापाय के विषय में कहा गया था। प्रस्तुत सूत्र में ब्रह्मव्रतापाय कहा जा रहा है। उसके भग्न होने पर शेष अभग्न क्या रह जाता है? ५६८५.सरिसाहिकारियं वा, इमं चउत्थस्स पढमसुत्तेणं। अन्नहिगारम्मि वि पत्थुतम्मि अन्नं पि इच्छंति॥ चौथे उद्देशक के प्रथम सूत्र से प्रस्तुत सूत्र का सदृशाधिकारिक है। अन्य अधिकार प्रस्तुत होने पर भी आचार्य अन्य अधिकार चाहते है। यहां यह दृष्टांत है५६८६.जह जाइरूवधातुं, खणमाणो लभिज्ज उत्तमं वयरं। __ तं गिण्हइ न य दोसं, वयंति तहियं इमं पेवं॥ जैसे जातरूप-सुवर्ण धातु का खनन करते हुए उत्तम वज्र की भी प्राप्ति होती है। वह उसे ग्रहण करता है, यह दोष नहीं है। इस प्रकार प्रस्तुत अपर अधिकार के ग्रहण में कोई दोष नहीं है। ५६८७.कणएण विणा वइरं, न भायए नेव संगहमुवेइ। न य तेण विणा कणगं, तेण र अन्नोन्न पाहन्नं ।। कनक के बिना वज्र शोभित नहीं होता। आश्रय के अभाव में वह संबंध को भी प्राप्त नहीं होता। वज्र के बिना कनक भी शोभित नहीं होता। इस कारण से दोनों की अन्योन्य प्रधानता है। ५६८८.देवे य इत्थिरूवं, काउं गिण्हे तहेव देवी य। दोसु वि य परिणयाणं, चाउम्मासा भवे गुरुगा॥ ५६८२.पाएण होति विजणा, गुज्झगसंसेविया य तणपुंजा। होज्ज मिह संपयोगो, तेस य अह पंचमे जोगो॥ प्रायः तृणपुंज विजन-जनसंपातरहित होते हैं। वे गुह्यकव्यंतर देवों से अधिष्ठित होते हैं। मुनियों का वहां रहने पर परस्पर संप्रयोग होता है। यह पांचवें उद्देशक के आद्यसूत्रचतुष्टय से संबंध है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ बृहत्कल्पभाष्यम् देवता या देवी स्त्रीरूप की विकुर्वणा कर निर्ग्रन्थ को आवश्यकी करने, नैषेधिकी करने, आसज्ज करने (?), ग्रहण कर लेते हैं। दोनों प्रतिसेवना में परिणत होने पर दुःप्रत्युपेक्षित करने, दुःप्रमार्जन आदि करने पर समर्थ व्यक्ति चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। भी प्रमाद के कारण विवादग्रस्त होता है। साधुओं में कलह ५६८९.गच्छगय निग्गए वा, होने पर उसके उपशमन में समय लगता है। साधुओं की होज्ज तगं तत्थ निग्गमो दुविहो। संख्या अधिक होने के कारण चिरकाल से आलोचना होती उवएस अणुवएसे, है। ये सारे व्याघात होते हैं। सच्छदेणं इमं तत्थ॥ ५६९४.मेरं ठवंति थेरा, सीदंते आवि साहति पवत्ती। गच्छगत या गच्छनिर्गत निर्ग्रन्थ के यह वृत्तान्त होता है। थिरकरण सढहेउं, तवोकिलंते य पुच्छंति॥ गच्छ से निर्गम दो प्रकार से होता है-उपदेश से और स्थविर अर्थात् आचार्य मर्यादा स्थापित करते हैं, कोई अनुपदेश से। अनुपदेश या स्वच्छंद ये एकार्थक हैं। यह गच्छ मुनि सामाचारी के पालन में आलस्य करता है, उसकी बात से स्वच्छंदरूप से निर्गम कहा जाता है। आचार्य को निवेदित करनी होती है, अभिनव श्राद्ध को स्थिर ५६९०.सुत्तं अत्थो य बहु, गहियाइं नवरि मे झरेयव्वं। करने के लिए, जो तपस्या से क्लान्त हैं, उनकी सुखपुच्छा गच्छम्मि य वाघायं, नाऊण इमेहिं ठाणेहिं॥ करने के लिए इनमें समय लगाने पर स्वाध्याय का पलिमथु मैंने सूत्र और अर्थ बहुत ग्रहण कर लिया। अब मुझे होता है। पूर्वगृहीत का स्मरण करना है, उनको परिचित करना है। ५६९५.आवासिगा निसीहिगमकरेंते असारणे तमावज्जे। गच्छ में इन कारणों से व्याघात जानकर वह वहां से निर्गमन परलोइगं च न कयं, सहायगत्तं उवेहाए॥ करता है। जो आचार्य आवश्यिकी-नैधिकी सामाचारी का पालन न ५६९१.धम्मकह महिड्डीए, आवास निसीहिया य आलोए। करने वाले मुनि की सारणा नहीं करते तो उसका प्रायश्चित्त पडिपुच्छ वादि पाहुण, महाण गिलाणे दुलभभिक्खं॥ आचार्य को वहन करना होता है। इस प्रकार उनका वे व्याघात के स्थान या कारण ये हैं-धर्मकथा करना, पारलौकिक सहायता भी अकृत होती है। क्योंकि यह आचार्य महर्द्धिक व्यक्ति को धर्म सुनाना, गच्छ से आने-जाने वाले की उपेक्षा का परिणाम है। साधुओं की आवश्यिकी-नैषेधिकी करने पर निरीक्षण करना, ५६९६.सम्मोहो मा दोण्ह वि, वियडिज्जंतम्मि तेण न पढंति। साधुओं की आलोचना में परावर्तन से व्याघात होता है, पडिपुच्छे पलिमंथो, असंखडं नेव वच्छल्लं॥ प्रतिपृच्छा करने वालों को प्रत्युत्तर देना, वादी से वाद करना, कोई मुनि स्वाध्याय में संलग्न है और अन्यान्य मुनि महान् गण में अनेक प्राघूर्णकों की सेवा करना, ग्लान की आलोचना कर रहे हैं तो दोनों में व्यामोह न हो इसलिए अन्य वैयावृत्य करना, दुर्लभभिक्षा वाले क्षेत्र में लंबे समय तक मुनि जब आलोचना ले रहे हों तब नहीं पढ़ना चाहिए, यह घूमना-ये सारे व्याघात होते हैं। भी स्वाध्याय का व्याघात है। कई मुनि प्रश्न आदि पूछने के ५६९२.कामं जहेव कत्थति, पुन्ने तह चेव कत्थई तुच्छे।। लिए आते हैं, यह भी स्वाध्याय का पलिमंथु है। प्रत्युत्तर न वाउलणाय न गिण्हइ, तम्मि य रुढे बह दोसा॥ देने पर कलह हो सकता है और साधर्मिक वात्सल्य का भी यह अनुमत है कि जैसे पूर्ण अर्थात् महर्द्धिक को धर्म कहा पालन नहीं होता। जाता है, वैसे ही तुच्छ अमहर्द्धिक को भी धर्म कहना ५६९७.चिंतेइ वादसत्थे, वादिं पडियरति देति पडिवायं। चाहिए। संभव है वह महर्द्धिक अपनी व्याकुलता के ___महइ गणे पाहुणगा, वीसामण पज्जुवासणया। कारण धर्म को ग्रहण न कर सके, परंतु उसके रुष्ट होने ५६९८.आलोयणा सुणिज्जति, पर अनेक दोष हो सकते हैं। वह देश से साधुओं का जाव य दिज्जइ गिलाण-बालाणं। निष्काशन करा देता है अतः उसको विशेषरूप से धर्म हिंडंति चिरं अन्ने, कहना चाहिए। पाओगुभयस्स वा अट्ठा। ५६९३.आवासिगा-ऽऽसज्ज-दुपहियादी, ५६९९.पाउग्गोसह-उव्वत्तणादि अतरंति जं च वेज्जस्स। विसीयते चेव सवीरिओ वि। किमहिज्जउ खलुभिक्खे, केसवितो भिक्ख-हिंडीहिं॥ विओसणे वा वि असंखडाणं, वादी का आगमन सुनकर वादशास्त्रों का चिंतन करता आलोयणं वा वि चिरेण देती॥ है। वादी की परिचर्या करना तथा प्रतिवाद करना होता है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक बड़े गण में प्राघूर्णक आते हैं, उनकी विश्रामणा और पर्युपासना करनी होती है । आने वालों की आलोचना सुननी होती है, बाल और ग्लान को आलोचना देनी होती है, प्राघूर्णकों के लिए प्रायोग्य दोनों भक्त और पान के लिए देर तक घूमना पड़ता है, दूसरे मुनि भिक्षा के लिए गए उस मुनि की प्रतीक्षा करते हैं। ग्लान के प्रायोग्य भक्त-पान तथा औषधि लानी होती है, उसको उद्वर्तन आदि कराना होता है, वैद्य के क्रियाकांड तक प्रतीक्षा करनी होती है, खुलक्षेत्र ( अन्य भिक्षाप्राप्ति के क्षेत्र) में भिक्षा के लिए घूमते-घूमते बहुत क्लेश होता है-ऐसी स्थिति में क्या अध्ययन हो सकता है ? ये सारे व्याघात हैं। ५७०० ते गंतुमणा बाहिं, आपुच्छंती तहिं तु आयरियं । भणिया भणति भंते!, ण ताव पज्जत्तगा तुब्भे ॥ गण में इन सारे व्याघातों के कारण वे मुनि दूसरे गण में अध्ययन के लिए जाते हैं तब वे आचार्य को पूछते हैं। तब आचार्य कहते हैं- तुम अभी तक उपसर्ग सहन करने और विहार करने में पर्याप्त नहीं हो। तब वे शिष्य कहते हैं-भंते! आपकी कृपा से हम पर्यास बन जायेंगे । ५७०१. उप्पण्णे उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य । हंदि ! असारं नाउं, माणुस्सं जीवलोगं च ॥ दिव्य, मानुष्य और तैरश्च - इन तीन प्रकार के उपसर्गों के उत्पन्न होने पर हम उनको सम्यग्रूप से सहन करेंगे। भंते! हम मानुष्य और जीवलोक को असार जानकर उपसर्गों को सहन क्यों नहीं करेंगे ? ५७०२. ते निग्गया गुरुकुला, अन्नं गामं कमेण संपत्ता । काऊण विद्दरिसणं, इत्थीरूवेणुवस्सग्गो ।। यह कहकर वे साधु गुरुकुल से निकल पड़े। वे क्रमशः एक गांव में आए। वहां एक देवता ने विशेष दर्शनीय स्त्रीरूप की विकुर्वणा कर उपसर्ग किया। ५७०३. पंता व णं छलिज्जा, नाणादिगुणा व होंतु सिं गच्छे। न नियत्तिहिंतऽछलिया, भद्देयर भोग वीमंसा ॥ सम्यग्दृष्टि देवता सोचता है-ये साधु गुरु की आज्ञा के बिना आए हैं। कोई प्रान्त देवता इनको छल न ले। ज्ञान आदि गुण इनको गच्छ में निवास करते हुए अछलित अवस्था में ये गण में नहीं लौटेंगे, यह विचार कर एक भद्रिका का रूप बनाया और दूसरी ने प्रान्त देवता का रूप बनाकर भोगार्थिनी के रूप में परीक्षा करने के लिए उद्यत हुई। ५९३ ५७०४. भिक्ख गय सत्थ चेडी, विहवारूवविउव्वण, किइकम्माऽऽलोयणा इणमो ॥ साधु भिक्षा के लिए चले गए। उस देवता ने तब एक सार्थ की विकुर्वणा कर स्वयं एक चेटी का रूप बनाकर मुनियों के पास आकर बोली- मेरी 'गुज्झक्खिणी' - स्वामिनी श्राविका है। उसको वंदना करने के लिए आने के लिए कहूंगी। वह चेटी रूप देवता वहां से निकल कर विधवा के रूप की विकुर्वणा कर आई और मुनियों का कृतिकर्म - वंदना कर बैठ गई। साधुओं के पूछने पर उसने यह आलोचना दी अर्थात् परिचय दिया । ५७०५. पाडल गुज्झक्खिणि अम्ह साविया कहणं । जम्मं, साएतगसेट्ठिपुत्तभज्जत्तं । पइमरण चेइवंदणछोम्मेण गुरू विसज्जणया ॥ ५७०६. पव्वज्जाए असत्ता, उज्जेणिं भोगकंखिया जामिं । तत्थ किर बहू साधू, अवि होज्ज परीसहजिय त्था ॥ पाटलिपुत्र नगर में मेरा जन्म हुआ और साकेत नगर के एक श्रेष्ठीपुत्र की मैं भार्या बनी। पति की मृत्यु हो गई। मैं चैत्य - वंदन के मिष से गुरु अर्थात् श्वसुर के द्वारा विसर्जित करने पर - आज्ञा प्राप्तकर प्रस्थित हुई हूं। मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने में असमर्थ हूं। मैं भोगों की अभिलाषा से उज्जयिनी नगरी में जा रही हूं। मैंने सुना है कि वहां अनेक साधु परीषह से पराजित होकर वहां रह रहे हैं, इसलिए मैं वहां जा रही हूं। आपको देखकर मेरा मन आगे जाने में असमर्थ हो रहा है। ५७०७. दूरे मज्झ परिजणो, जोव्वणकंडं चऽतिच्छए एवं । पेच्छह विभवं मे इमं, न दाणि रूवं सलाहामि ॥ ५७०८. पडिरूववयत्थाया, किणा वि मज्झं मणिच्छिया तुब्भे । भुंजामु ताव भोए, दीहो कालो तव - गुणाणं ॥ मेरे परिजन दूर हैं। मेरा यौवनकांड - तारुण्य का अवसर ऐसे ही बीतता जा रहा है। आप भी युवा हैं। यह मेरा वैभव देखें। मैं अपने रूप की श्लाघा करना नहीं चाहती। आप मेरी अवस्था के प्रतिरूप हैं। किसी कारण से आप मेरे मन को बहुत भा गए हैं। हम भोग भोगें । तपोगुण का पालन करने के लिए दीर्घ काल सामने है। ५७०९. भणिओ आलिदो या, जंघा संफासणाय ऊरूयं । अवयासिओ विसन्नो, छट्ठो पुण निप्पकंपो उ ॥ वहां अनेक मुनि थे । एक कहने मात्र से स्खलित हो गया। दूसरा स्त्री के स्पर्श स, तीसरा जंघाओं का स्पर्श करने से Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ५९४ विषण्ण, चौथा ऊरु के संस्पर्श से, पांचवां जबरन आलिंगन करने पर और छठा मुनि निष्प्रकंप रहा। ५७१०.पढमस्स होइ मूलं, बितिए छेओ य छग्गुरुगमेव। छल्लहुगा चउगुरुगा, पंचमए छट्ठ सुद्धो उ॥ प्रथम को मूल, दूसरे को छेद, तीसरे को षड्गुरु, चौथे को षडलघु, पांचवे के चतुर्गुरु-यह प्रायश्चित्त है। छठा शुद्ध है। ५७११.सव्वेहिं पगारेहिं, छंदणमाईहिं छट्ठओ सुद्धो। तस्स वि न होइ गमणं, असमत्तसुए अदिन्ने य॥ सभी प्रकार के छंदना आदि से अप्रकंप रहने के कारण छठा मुनि शुद्ध होने पर भी असमाप्तश्रुत होने के कारण उसे भी गुरु की अनुज्ञा के बिना गण से निर्गमन करना नहीं कल्पता। ५७१२.एए अण्णे य बहू, दोसा अविदिण्णनिग्गमे भणिया। मुच्चइ गणममुयंतो, तेहिं लभते गुणा चेमे॥ गुरु की अनुज्ञा के बिना गण से निर्गमन करने पर ये तथा अन्य अनेक दोष होते हैं। जो गण को नहीं छोड़ता वह इन सारे दोषों से मुक्त हो जाता और वह इन गुणों को प्राप्त कर लेता है। ५७१३.नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। ___ धन्ना गुरुकुलवासं, आवकहाए न मुंचंति॥ जो गुरुकुलवास को यावज्जीवन नहीं छोड़ता वह ज्ञान का आभागी होता है, दर्शन और चारित्र में स्थिरतर होता है। ऐसे शिष्यों को धन्य हैं जो गुरुकुलवास को नहीं छोड़ते। ५७१४.भीतावासो रई धम्मे, अणाययणवज्जणा। निग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं॥ गुरुकुल में भीतावास होता है, आचार्य आदि से डरकर रहना होता है। वहां रहने पर धर्म में रति होती है। अनायतन का वर्जन होता है, कषायों का निग्रह होता है। यही धीर अर्थात् तीर्थंकरों का शासन है। ५७१५.जइमं साहुसंसग्गिं, न विमोक्खसि मोक्खसि। उज्जतो व तवे निच्चं, न होहिसि न होहिसि॥ यदि तुम इस साधु संसर्ग को नहीं छोड़ोगे तो मुक्त हो जाओगे। यदि तुम प्रतिदिन तपस्या में उद्यत नहीं रहोगे तो अव्याबाध सुखी नहीं हो सकोगे। ५७१६.सच्छंदवत्तिया जेहिं, सग्गुणेहिं जढा जढा। ___ अप्पणो ते परेसिं च, निच्चं सुविहिया हिया॥ जिन साधुओं ने स्वच्छंदवर्तिता छोड़ दी है और जो सद्ज्ञान से रहित हैं, वे भी मुनि स्वयं के लिए तथा पर के लिए भी सदा सुविहित और हितकारी होते हैं। ५७१७.जेसिं चाऽयं गणे वासो, सज्जणाणुमओ मओ। दुहाऽवाऽऽराहियं तेहिं, निव्विकप्पसुहं सुहं॥ जिन साधुओं को इस गण में वास करना मत है-मान्य है वे इस सज्जनानुमत तीर्थंकरों द्वारा अनुमत गण में रह रहे हैं। वे मुनि निर्विकल्प सुख का अनुभव करते हैं। वे दोनों सुखों-श्रमणसुख और निर्वाणसुख की आराधना करते हैं। ५७१८.नवधम्मस्स हि पाएण, धम्मे न रमती मती। वहए सो वि संजुत्तो, गोरिवाविधुरं धुरं॥ नये प्रव्रजित मुनि का धर्म-श्रुत-चारित्र में मति नहीं होती। वह भी अन्यान्य साधुओं के साथ संयुक्त होकर संयम धुरा को वहन करने में समर्थ हो जाता है। जैसे बैल दूसरे बैल के साथ संयुक्त होकर धुरा शकटभार को वहन करने में समर्थ हो जाता है। ५७१९.एगागिस्स हि चित्ताई, विचित्ताई खणे खणे। उप्पज्जति वियंते य, वसेवं सज्जणे जणे॥ अकेले मुनि का चित्त क्षण-क्षण में विचित्र अध्यवसायों में परिणत होता रहता है। वे उत्पन्न होते हैं और विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए साधु सुसाधुओं के मध्य में रहे। ५७२०.अहवा अणिग्गयस्सा, भिक्ख वियारे य वसहि गामे य। जहिं ठाणे साइज्जति, चउगुरु बितियम्मि एरिसगो। अथवा जो गच्छ से अनिर्गत हैं वे मुनि भिक्षाचर्या तथा विचारभूमी में जाते हैं या वसति में रहते हैं या गांव के बाहर गमन करते हैं, जहां देवता स्त्रीरूप में निर्ग्रन्थ को ग्रहण कर लेता है और यदि निर्ग्रन्थ उसमें आसक्त होकर प्रतिसेवना करता है तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रथम सूत्र की व्याख्या है। द्वितीय सूत्र में भी यही गम है, विकल्प है। ५७२१.एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। नवरं पुण णाणत्तं, पुव्वं इत्थी ततो पुरिसो॥ यही विकल्प आर्याओं के लिए भी जानना चाहिए। यहां नानात्व यह है कि पहले देवी पुरुषरूप की विकुर्वणा कर आर्या से समागम करती है और दूसरा पुरुष सूत्र है उसमें उसमें देव पुरुषरूप की विकुर्वणा करता है। ५७२२.विगुरुब्विऊण रूवं, आगमणं डंबरेण महयाए। जिण-अज्ज-साहुभत्ती, अज्जपरिच्छा वि य तहेव।। सम्यग्दृष्टि देवता पुरुषरूप की विकुर्वणा कर आता है और महान् आडंबर से तीर्थ की विकुर्वणा करता है। जहां साध्वियां हैं वहां श्रावक का रूप बनाकर वंदना । हा Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक करता है और साध्वियों से कहता है- मेरे साथ चलो, भोग भोगो, फिर जिनचैत्यों, आर्यिकाओं और साधुओं की भक्ति करेंगे। वह भी आर्यिकाओं की पूर्ववत् परीक्षा करता है। ५७२३. वीसत्थया सरिसए, सारूप्पं तेण होइ पढमं तु । पुरिसुत्तरिओ धम्मो, निग्गंथो तेण पढमं तु ॥ सदृश में विश्वस्तता होती है, इसलिए पहले दोनों पक्षों का सारूप्यसूत्र बताया गया है। 'पुरुषोत्तर धर्म' के अनुसार पहले निर्ग्रन्थों के दो सूत्र कहे गए हैं। ५७२४. खित्ताइ मारणं चा, धम्माओ भंसणं करे पंता । भद्दाए पडिबंधो, पडिगमणादी व निंतीए ॥ प्रान्तदेवता साधु को प्रतिसेवना में रत देखकर क्षिप्तचित्त कर देती है या मरण-धर्म से भ्रष्ट कर देती है। यदि साधु भद्रा देवी में प्रतिबंध करता है, वह जब चली जाती है तब वह मुनि प्रतिगमन कर देता है। ५७२५. बितियं अच्छित्तिकरो, बहुवक्खेवे गणम्मि पुच्छित्ता । सुत्त - ऽत्थझरणहेतुं, गीतेहिं समं स निग्गच्छे॥ यह द्वितीयपद है। जो मुनि अव्यवच्छित्तिकर होता है वह गच्छ में बहुत व्याक्षेप जानकर गुरु को पूछकर, गीतार्थ साधुओं के साथ सूत्रार्थ के स्मरण के लिए गच्छ से निर्गमन करता है। अहिगरण-पदं भिक्खू य अहिगरणं कट्टु तं अहिगरणं अविओसवेत्ता इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पर तस्स पंच राइंदियं छेयं कट्टु - परिणिव्ववियपरिणिव्वविय दोच्चं पि तमेव गणं पडिनिज्जाएयव्वे सिया, जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ॥ (सूत्र ५) ५७२६. एगागी मा गच्छसु, चोइज्जते असंखडं होज्जा । ऊणाहिगमारुवणे, अहिगरणं कुज्ज संबंधो ॥ 'अकेले मत जाओ' - इस प्रकार कहने पर भी जो नहीं मानता तब कलह होता है। अथवा वह मुनि जब गण में पुनः प्रवेश करता है तब उसे न्यूनाधिक आरोपणा दी जाती है तब वह कलह करता है। ५९५ ५७२७.सच्चित्तऽचित्त मीसे, वओगत परिहारिए य देसकहा। सम्ममणाउ अधिकरण ततो समुप्पज्जे ॥ ५७२८.आभव्वमदेमाणे, गिण्हंते तमेव मग्गमाणे वा । सच्चित्तेयरमीसे, वितहापडिवत्तितो कलहो ॥ ५७२९. विच्चामेलण सुत्ते, देसीभासा पवंचणे चेव । अण्णम्मि य वत्तव्वे, हीणाहिय अक्खरे चेव ॥ ५७३०.परिहारियमठविते, ठविते अणट्ठाइ णिव्विसंते वा । कुच्छितकुले व पविसति, चोदितऽणाउट्टणे कलहो ॥ ५७३१. देसकहापरिकहणे, एक्के एक्के व देसरागम्मि | माकर देसकहं वा, को सि तुमं मम त्ति अधिकरणं ॥ ५७३२.अह- तिरिय उड्डकरणे, बंधणणिव्वत्तणा य णिक्खिवणं । उवसम-खएण उड्लं, उदएण भवे अकरणं ॥ ५७३३. जो जस्स उ उवसमती, विज्झवणं तस्स तेण कायव्वं । जो उ उवेहं कुज्जा, आवज्जति मासियं लहुगं ॥ ५७३४.लहुओ उ उवेहाए, गुरुओ सो चेव उवहसंतस्स । उत्तुयमाणे लहुगा, सहायगत्ते सरिसदोसो ॥ ५७३५. एसो वि ताव दमयतु, हसति व तस्सोमताइ ओहसणा । उत्तरदाणं मा ओसराहि अह होइ उत्तुयणा ॥ ५७३६. वायाए हत्थेहि व, पाएहि व दंत-लउडमादीहिं । पडिसेवणं । परिहायई ॥ सरडा जो कुणति सहायत्तं, समाणदोसं तगं बेंति ॥ ५७३७. परपत्तिया ण किरिया, मोत्तु परद्वं च जयसु आयट्टे । अवि य उहा वुत्ता, गुणो वि दोसायते एवं ॥ ५७३८. जति परों पडिसेविज्जा, पावियं मज्झ मोणं करेंतस्स के अट्ठे ५७३९. णागा ! जलवासिया !, सुह तस - थावरा ! | जत्थ भंडति, अभावो परियत्तई ॥ ५७४०. वणसंड सरे जल-थल - खहचर वीसमण देवता कहणं । वारेह सरडुवेक्खण, धाडण गयणास त्तूरणता ॥ ५७४१. तावो भेदो अयसो, हाणी दंसण- चरित्त नाणाणं । साहु संसारवड्ढणो साहिकरणस्स ॥ ५७४२. अतिभणित अभणिते वा, तावो भेदो य जीव चरणे वा । रूवसरिसं ण सीलं, जिम्हं व मणे अयसो एवं ॥ ५७४३. अक्कुट्ठ तालिए वा, पक्खापक्खि कलहम्मि गणभेदो । एगतर सूयएहिं व, रायादीसिठ्ठे गहणादी ॥ ५७४४. वत्तकलहो उ ण पढति, अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी । जह कोहादिविवड्डी, तह हाणी होइ चरणे वि ॥ ५७४५.आगाढे अहिगरणे, उवसम अवकढणा य गुरुवयणं । उवसमह कुणह झायं, छड्डुणया सागपत्तेहिं ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ =बृहत्कल्पभाष्यम् ५७४६.जं अज्जियं समीखल्लएहिं तव-नियम-बंभमइएहिं। तथा ऊर्ध्वगतिगमन में उनका स्वरूप क्या होता है, उसकी तं दाई पच्छ नाहिसि, छड्डेतो सागपत्तेहिं॥ मीमांसा करनी चाहिए। बंधन का अर्थ है-संयोजना, ५७४७.जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए। निर्वर्तना, निक्षेपणा और निसर्जना। कषायों के उदय से तं पि कसाइयमेत्तो, णासेइ णरो मुहुत्तेणं॥ अधोगतिमान होता है और उपशम और क्षय से ऊर्ध्वगति ५७४८.आयरिओ एग न भणे,अह एग णिवारे मासियं लहुगं। गमन होता है। राग-द्दोसविमुक्को, सीतघरसमो उ आयरिओ॥ जो साधु जिस साधु को कुपित कर देता है, वह उस ५७४९.वारेति एस एतं, ममं न वारेति पक्खराएणं। क्रोध का उपशमन करे, उससे क्षमायाचना करे। जो उपेक्षा बाहिरभावं गाढतरगं च मं पेक्खसी एक्वं॥ करता है, उसे लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। भावाधिकरण की उत्पत्ति के हेतु-सचित्त, अचित्त, मिश्र, जो उपेक्षा करता है उसे लघुमास का प्रायश्चित्त और जो वचोगत, परिहार, देशकथा-इन स्थानों में वर्तन न करने की उपहास करता है उसे गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा जो कलह प्रेरणा देने पर जो सम्यग् स्वीकार नहीं करता, इससे करने वाले को उत्तेजित करता है उसे चार लघुक तथा जो अधिकरण उत्पन्न होता है। (गाथा की विस्तृत व्याख्या आगे कलह में सहायक होता है, उसे कलह करने वाले की भांति की गाथाओं में)। प्रायश्चित्त आता है अर्थात् चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त किसी आचार्य के पास शैक्ष-शैक्षिका प्रव्रज्या लेने आते होता है। हैं, वे उस आचार्य के आभाव्य होते हैं। उनको यदि कोई दो मुनि कलह कर रहे हैं। एक कुछ खिन्न हो रहा है। दूसरा आचार्य ग्रहण कर लेता है, या पूर्वगृहीत आभाव्य दूसरा मुनि कहता है इसका भी (जो खिन्न नहीं हो रहा है) की याचना करने पर वह आचार्य वितथप्रतिपत्तियों-झूठे दमन करना चाहिए। एक की अवमानना होने पर दूसरा तर्कों से उसे झुठला देता है तो कलह होता है। आभाव्य हंसता है, यह उपहास है। दोनों के बीच कोई कहता है-उत्तर सचित्त, अचित्त और मिश्र हो सकता है। (सचित्त-शैक्ष- देते रहना। अपने निश्चय से मत हटना। तुम उससे हार मत शैक्षिका। अचित्त-वस्त्र, पात्र आदि। मिश्र-सभांडोपकरण मान लेना। यह उसको उत्तेजना देना है। शैक्ष आदि।) दो व्यक्ति कलह कर रहे हैं। एक पक्ष में होकर जो वाणी सूत्र विषयक व्यत्यामेडित (अन्यान्य सूत्रालयों को यत्र- से, हाथों से, पैरों से, दांतों से तथा लकड़ी आदि से उनका तत्र मिलाकर बोलना), अपनी-अपनी देशीभाषा बोलने पर, सहयोग करता है, वह भी कलहकारी व्यक्तियों की भांति ही प्रपंच-नाना प्रकार की चेष्टाएं करना, अन्य के बोलने के दोषी है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। समय अन्य का बोलना, हीनाक्षर, अत्याक्षर पद बोलना- परप्रत्ययिक क्रिया-कर्मबंध हमारे नहीं होता। इसलिए रोकने पर ये सब कलह के कारण होते हैं। परार्थ को छोड़कर आत्मार्थ में प्रयत्नशील रहना चाहिए। परिहारिक कुल वे होते हैं जहां गुरु, ग्लान, बाल आदि इसीलिए उपेक्षा की बात कही गई है। आचार्य कहते हैंमुनियों के लिए प्रायोग्य भक्त-पान प्राप्त हो जाता है। यदि उपेक्षा गुण है परन्तु वह भी इस प्रकार दोष हो जाता है।' उनकी स्थापना न की जाए या स्थापित करने पर भी (उपेक्षा सर्वत्र गुणकारी नहीं होती।) निष्कारण उनमें प्रवेश किया जाए और यदि उसमें जाने से ___ यदि कोई मुनि पापिका प्रतिसेवना-अकुशलकर्मरूप रोका जाए तो कलह होता है। अथवा परिहारिककुल अर्थात् अधिकरण आदि की प्रतिसेवना करता है तो मेरा क्या! मौन कुत्सित कुल में मुनि जाता है तो रोकने पर यदि नहीं रुकता का आचरण करने वाले मेरे क्या कोई ज्ञान आदि के अर्थ की है तो कलह होता है। परिहानि होती है? कुछ भी नहीं। अनेक मुनि देशकथा में संलग्न हैं। अलग-अलग मुनियों जो अधिकरण-कलह की उपेक्षा करते हैं, उससे क्या की भिन्न-भिन्न देश के प्रति रागभाव होता है। वह उसकी अनर्थ होता है वह निम्न निदर्शन से बताया गया हैप्रशंसा करता है, दूसरा उसका खंडन करता है। कोई कहता एक अरण्य के मध्य एक विशाल तालाब था। उसमें है देशकथा मत करो। कौन हो तुम मुझे कहने वाले, यह जलचर, स्थलचर और खेचर प्राणी थे। वहीं एक विशाल कहने पर कलह होता है। हस्तीयूथ था। वह यूथ उस तालाब में पानी पीने, क्रीड़ा करने ___ कषायों का उदय भावाधिकरण है। अधोगति, तिर्यक्गति और वृक्षों की छाया में विश्राम करने आता-जाता था। एक १. असंयतों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा गुण है, संयतों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा महान् दोष है। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ५९७ पांचवां उद्देशक = दिन वहीं दो शरट परस्पर झगड़ने लगे। यह देखकर वनदेवता ने सबको सचेत करते हुए कहा___ 'हे हाथियो! हे सभी जलचर प्राणियो! तथा सभी त्रस और स्थावर जीवो! सुनो जो मैं कहता हूं। जहां तालाब के पास शरट लड़ रहे हों तो तुम जान लो कि वहां विनाश होने वाला है।' इतना सुनने पर भी उन प्राणियों ने सोचा-ये शरट हमारा क्या बिगाड़ लेंगे? इतने में दोनों शरट लड़ते-लड़ते विश्राम कर रहे हाथियों के निकट आ गए। एक शरट, बिल समझकर, हाथी के सूंड में घुस गया। दूसरा भी उसके पीछे उसी सूंड में घुस गया। भीतर शिरकपाल में जाकर वहां लड़ने लगे। हाथी को बहुत कष्ट होने लगा। वह आकुल- व्याकुल होकर उठा और उस वनखंड को चूर-चूर करता हुआ, उस तालाब में प्रविष्ट हो गया। वनखंड में अनेक स्थलचर प्राणी नष्ट हो गए। तालाब की पाल तोड़ डाली। सभी जलचर प्राणी विनष्ट हो गए। इसलिए कलह छोटा हो या बड़ा, उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उसके तत्काल उपशमन का प्रयत्न करना चाहिए। अधिकरण के ये दोष हैं-ताप, भेद, अकीर्ति, ज्ञान-दर्शन और चारित्र की हानि, साधुओं में प्रद्वेष और संसार का प्रवर्धन। ताप दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त। अतिभणित प्रशस्त ताप है। व्यक्ति सोचता है-मैंने उसे बहुत ज्यादा कह डाला। अभणित अप्रशस्त ताप है। व्यक्ति सोचता है मैंने उसे बहुत कम कहा। मुझे उसके ये-ये दोष उद्घाटित करने थे। भेद का अर्थ है-कलह करके स्वयं का जीवितभेद या चारित्रभेद कर देना। लोग कहने लगते हैं-इसके रूप के सदृश शील नहीं है। अथवा इसने कुछ लज्जनीय कार्य किया है, इसलिए यह म्लानवदन दिख रहा है। इस प्रकार उसका अयश होता है। आक्रुष्ट या ताडित होने पर साधुओं का परस्पर पक्षग्रहण करने पर कलह होता है और उससे गणभेद हो जाता है। कोई एक पक्ष राजकुल में जाकर इस कलह की सूचना देता है अथवा सूचक-राजपुरुषों द्वारा राजा को ज्ञापित करने पर, ग्रहण-आकर्षण आदि दोष होते हैं। कलह के समाप्त हो जाने पर भी जो पढ़ने से विमुख होता है, उसके ज्ञान की हानि होती है। साधु प्रद्वेष से साधर्मिक मुनियों का वात्सल्य नहीं रहता। इससे दर्शन की हानि होती है। जैसे-जैसे कषायों की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे चारित्र की हानि होती है। कर्कश अधिकरण हो जाने पर दोनों को उपशांत करना चाहिए। पार्श्वस्थित मुनि दोनों का अपसारण करे। गुरु उनको कहे-कलह का उपशमन कर ध्यान करो, स्वाध्याय करो। अनुपशांत के न ध्यान होता है और न स्वाध्याय। तुम द्रमक की भांति कनकरस को शाकपत्रों के लिए क्यों फेंक रहे हो? (एक परिव्राजक ने दीन-हीन द्रमक से पूछा-इतने चिंतातुर क्यों हो? उसने कहा-मैं दरिद्रता से अभिभूत हूं। 'परिव्राजक बोला यदि तुम मेरे कथनानुसार चलोगे, करोगे तो मैं तुम्हें वैभवशाली बना दूंगा। उसने परिव्राजक की बात स्वीकार कर ली। दोनों चले। एक निकुंज में प्रविष्ट होकर परिव्राजक ने कहा-यह कनकरस है। इसके ग्रहण का उपचार-विधि यह है कि जो उसे ग्रहण करता है वह शीत, आतप, परिश्रम, क्षुधा, पिपासा सहन करता हुआ, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ, अचित्त कंदमूल का भोजन करता हुआ, कषायों का उपशमन कर, शमीवृक्ष के पुटकों में इसे ग्रहण करे। यह इसको ग्रहण करने की विधि है।' द्रमक ने वैसे ही किया। एक तुंबक को कनकरस से भरकर, दोनों वहां से चले। परिव्राजक ने कहा-यह बहुमूल्य रस है। इसको क्रोधवश फेंकना नहीं हैं।' चलते-चलते परिव्राजक बार-बार कहता-तुम मेरे प्रभाव से धनी बन जाओगे। द्रमक ने एक-दो बार सुना। फिर रुष्ट होकर बोला-तुम्हारे प्रभाव से मैं धनी बनूं, यह मुझे इष्ट नहीं है। उसने उस कनकरस को फेंक दिया।' तब परिव्राजक बोला-अरे दुरात्मन् ! यह तुमने क्या किया ? कषाय के कारण इतने बड़े लाभ से हाथ धो बैठे?) परिव्राजक ने कहा-जो तुमने तप, नियम, ब्रह्मचर्य से अर्जित गुण रूप कनकरस को तप आदि रूप शमीवृक्ष के पत्रपुटकों में एकत्रित किया था, उसको फेंक दिया। अब तुम जान पाओगे कि तुमने शाकवृक्ष के पत्रतुल्य कषाय के कारण स्वयं की आत्मा को गुणों से रिक्त कर डाला है। जो चारित्र देशोनपूर्वकोटी वर्षों में अर्जित किया है, उसको भी कषायितमात्र व्यक्ति एक मुहूर्त में उसे विनष्ट कर देता है। दो मुनि अधिकरण कर रहे हैं। आचार्य एक को कुछ नहीं कहते, एक को कलह करने से निवारित करते हैं। इस प्रवृत्ति से आचार्य को लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। आचार्य शीतघर के समान होते हैं। वे राग-द्वेष से विप्रमुक्त होते हैं। आचार्य अमुक मुनि को कलह से निवारित करता है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ बृहत्कल्पभाष्यम् तब दूसरा सोचता है-आचार्य मुझे परबुद्धि से देखते हैं, तथा अवसन्न में संक्रान्त होने पर पन्द्रह रात-दिन से मासिक अतः मुझे निवारित नहीं करते, इस पक्षराग के कारण वह का छेद-यह प्रायश्चित्त है। मुनि बाह्यभाव को प्राप्त हो जाता है अथवा कलह को बढ़ा ५७५५.सगणम्मि पंचराइंदियाई भिक्खुस्स तद्दिवस छेदो। देता है अथवा वह आचार्य को कहता है-आप मुझ एक को दस होति अहोरत्ता, गणि आयरिए य पण्णरस।। बाह्यरूप से देखते हैं। स्वगण में संक्रान्त भिक्षु के उसी दिन से प्रारंभ कर ५७५०.खर-फरुस-निट्टराई,अध सो भणिउं अभाणियव्वाई।। प्रतिदिन पांच रातदिन का छेद है। उपाध्याय के दस रातदिन निग्गमण कलुसहियए, सगणे अट्ठा परगणे वा॥ का छेद, और आचार्य के पन्द्रह रातदिन का छेद। खर, परुष और निष्ठुर वचन जो कहने योग्य नहीं है ५७५६.अण्णगणे भिक्खुस्सा, दसेव राइंदिया भवे छेदो। उनको कहकर वह कलुषित हृदय वाला मुनि अपने गण से पण्णरस अहोरत्ता, गणि आयरिए भवे वीसा॥ निर्गमन करता है। उसके स्वगण और परगण में आठ-आठ अन्य गण में संक्रान्त भिक्षु के दस रातदिन का छेद, स्पर्द्धक होते हैं-संघाटकों के साथ रहना होता है। उपाध्याय के पन्द्रह रातदिन का छेद और आचार्य के बीस ५७५१.उच्चं सरोस भणियं, हिंसग-मम्मवयणं खरं तं तू। रातदिन का छेद। अक्कोस णिरुवचारिं, तमसब्भं णिहरं होती॥ ५७५७.अड्डाइज्जा मासा, पक्खे अट्ठहिं मासा हवंति वीसं तू। सरोष उच्च स्वर में कुछ कहना हिंसक वचन है। पंच उ मासा पक्खे, अट्ठहिं चत्ता उ भिक्खुस्स॥ मर्मोद्घाटक वचन खर होता है, निरुपचारी आक्रोशवचन स्वगण में संक्रान्त भिक्षु के प्रतिदिन पंचकछेद से पक्ष में परुषवचन, है, असभ्य वचन निष्ठुरवचन कहलाता है। ढाई मास का छेद होता है। स्वगण में आठ स्पर्द्धक होते हैं, ५७५२.अट्ठट्ट अदमासा, मासा होतऽट्ठ अट्ठसु पयारो। उनमें एक-एक पक्ष तक संचरण करने से बीस मास का छेद वासासु असंचरणं, ण चेव इयरे वि पेसंति॥ होता है। परगण में संक्रान्त भिक्षु के प्रतिदिन दस के छेद से एक-एक स्पर्द्धक में आधे मास के क्रम से संचरण करने पक्ष में पांच मास का छेद आता है और आठ स्पर्द्धकों के पर आठ अर्द्धमास तथा परगण में एक-एक स्पर्द्धक में अध्वा । कारण सारे चालीस मास का छेद होता है। मास के क्रम से संचरण करने पर आठ अर्द्धमास होते हैं। ५७५८.पंच उ मासा पक्खे, अट्ठहिं मासा हवंति चत्ता उ। दोनों को मिलाने पर आठ मास हो जाते हैं। इन आठ महीनों अद्धऽट्ठ मास पक्खे, अट्ठहिं सद्धिं भवे गणिणो॥ में विहार होता है। वर्षाकाल में असंचरण होता है। वह मुनि उपाध्याय के स्वगण में दस के छेद से पक्ष में पांच जिस स्पर्द्धक में संक्रान्त है वे भी उसको उसके गण में नहीं मास और आठ पक्षों में चालीस मास का छेद होता है। भेजते। इन्हीं का परगण में संक्रान्त होने पर पन्द्रह दिन के छेद से ५७५३.सगणम्मि पंचराइंदियाई दस परगणे मणुण्णेसू। पक्ष में साढ़े सात मास और आठ पक्षों में साठ मास का अण्णेसु होइ पणरस, वीसा तु गयस्स ओसण्णे॥ छेद होता है। अपने गण के स्पर्द्धकों में संक्रान्त वह मुनि यदि उपशांत ५७५९.अट्ठ मास पक्खे, अट्ठहिं मासा हवंति सढिं तु। नहीं होता है तो उसे प्रत्येक दिन पांच रातदिन का छेद आता दस मासा पक्खेणं, अट्टहऽसीती उ आयरिए। है। परगण में मनोज्ञ अर्थात् सांभोगिक मुनियों में संक्रान्त हो आचार्य का स्वगण में संक्रान्त करने पर पन्द्रह दिन के तो वहां प्रतिदिन दस रातदिन का छेद आता है और अन्य क्रम से एक पक्ष में साढ़े सात मास और आठ पक्षों में साठ सांभोगिक में रहे तो प्रतिदिन पन्द्रह रातदिन का छेद आता मास का छेद होता है। परगण में संक्रान्त होने पर बीस दिन है। अवसन्न में जाने पर बीस रातदिन का छेद है। यह भिक्षु के क्रम से एक पक्ष में दस मास का छेद और आठ पक्षों में के प्रायश्चित्त का विवरण है। अस्सी मास का छेद होता है। ५७५४.एमेव य होइ गणी, दसदिवसादी उ भिण्णमासंतो। इसी प्रकार भिक्षु, उपाध्याय और आचार्य के अन्य पण्णरसादी तु गुरू, चतुसु वि ठाणेसु मासंतो।। सांभोगिक तथा अवसन्न में संक्रान्त होने पर इसी विधि से इसी प्रकार गणी-उपाध्याय अधिकरण कर परगण में छेद की संकलना करनी चाहिए। संक्रान्त हुआ है उसके लिए दस रात-दिन से प्रारंभ कर ५७६०.एसा विही उ निग्गए, सगणे चत्तारि मास उक्कोसा। भिन्नमास पर्यन्त छेद आता है। इसी प्रकार गुरु-आचार्य के चत्तारि परगणम्मि, तेण परं मूलं निच्छुभणं ।। चारों स्थानों स्वगण-परगण के सांभोगिक, अन्य सांभोगिक, यह विधि गच्छ से निर्गत मुनि की है। उत्कृष्टतः स्वगण Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक में चार मास, परगण में भी चार मास। इतने पर यदि आहार अभी इनके जीर्ण नहीं हुआ है। उसे तीसरा मासगुरु उपशांत होता है तो मूल और उपशांत नहीं होता है तो गण आता है। आर्य! साधु प्रतिक्रमण नहीं कर रहे हैं। तुम से निष्काशन कर देना चाहिए। उपशांत हो जाओ। वह कहता है-सारे श्रमण निरतिचार हैं। ५७६१.चोएइ राग-दोसे, सगण परगणे इमं तु नाणत्तं। उसे चौथा मासगुरु आता है। प्रभातकाल में अधिकरण होने पंतावण निच्छुभणं, पर-कुलघर घाडिए ण गया॥ पर यह विधि है। शिष्य कहता है-यह राग-द्वेष की प्रवृत्ति है। स्वगण में ५७६५.अन्नम्मि वि कालम्मिं, पढंत हिंडत मंडली वासे। थोड़ा छेद और परगण में अधिक छेद। गुरु ने कहा-यह तिन्नि व दोन्नि व मासा, होति पडिक्वंते गुरुगा उ॥ हमारा राग-द्वेष नहीं है। यहां एक दृष्टांत है-एक गृहस्थ के अन्य काल में अर्थात् पढ़ते समय, भिक्षाचर्या के लिए चार भार्यायें थीं। चारों के समान अपराध पर उसने चारों को घूमते समय, मंडली में भोजन करते समय तथा आवश्यक पीटकर घर से निकाल दिया। एक किसी परघर में चली गई। वेला में यदि अधिकरण होता है तो तीन या दो गुरुमास और दूसरी कुलघर में, तीसरी गृहस्थ के मित्र के घर चली गई। प्रतिक्रमण कर लेने पर भी उपशांत न होने पर चार गुरुमास चौथी पीटे जाने पर भी वहीं रही। गृहस्थ ने संतुष्ट होकर का प्रायश्चित्त है। उसको घर की स्वामिनी बना दिया। तीसरी पत्नी जो मित्र के ५७६६.एवं दिवसे दिवसे, चाउक्कालं तु सारणा तस्स। घर गई थी, उसे खरंटित कर बुला लिया। दूसरी पत्नी जो जति वारे ण सारेती, गुरुगो गुरुगो तती वारे॥ कुलगृह में गई थी, उसे भी उपालंभ देकर बुला लिया। इस प्रकार प्रतिदिन चतुष्काल उसकी सारणा करनी पहली पत्नी जो परगृह में चली गई थी, उसे अत्यधिक दंडित चाहिए। जितनी बार सारण नहीं की जाती उतनी बार कर बुला लिया। इसी प्रकार परस्थानीय होते हैं अवसन्न, मासगुरु का प्रायश्चित्त है। कुलगृह स्थानीय अन्य सांभोगिक, मित्र स्थानीय होते हैं ५७६७.एवं तु अगीतत्थे, गीतत्थे सारिए गुरू सुद्धो। सांभोगिक, घर से न जाने के समान होता है स्वगच्छ। जति तं गुरू ण सारे, आवत्ती होइ दोण्हं पि॥ ५७६२.गच्छा अणिग्गयस्सा, अणुवसमंतस्सिमो विही होइ। यह सारणा विधि अगीतार्थ के लिए है। गीतार्थ मुनि की सज्झाय भिक्ख भत्तट्ठ वासए चउर एक्कक्के॥ एक दिन चारों स्थिति में सारणा करने पर गुरु शुद्ध हैं। यदि गच्छ से अनिर्गत और अनुपशांत की यह विधि होती है। गुरु सारणा नहीं करते हैं तो आचार्य और अनुपशांत मुनिस्वाध्याय, भिक्षाचर्या के समय, भक्तार्थनकाल में तथा दोनों को प्रायश्चित्त आता है। प्रादोषिक आवश्यक काल में इन चारों के लिए एक-एक दिन ५७६८.गच्छो य दोन्नि मासे, पक्खे पक्खे इमं परिहवेति। में उस मुनि को प्रेरित न करे। भत्तट्टण सज्झायं, वंदण लावं ततो परेणं ।। ५७६३.दुप्पडिलेहियमादिसु, चोदिए सम्मं तु अपडिवज्जंते। यदि गच्छ अनुपशांत का दो मास तक सारणा करता है न वि पट्ठवेंति उवसम, कालो ण सुद्धो जियं वा सिं॥ और यदि वह उपशांत नहीं होता है तो पक्ष-पक्ष में इन चीजों दुष्प्रतिलेखन आदि में प्रेरित करने पर यदि वह की कमी होती जाती है। पहले पक्ष में उसके साथ भक्तार्थन, सम्यग्रूप से स्वीकार नहीं करता है तो अधिकरण होता है। दूसरे पक्ष में स्वाध्याय, तीसरे पक्ष में वन्दनक तथा चौथे आचार्य कहते हैं-आर्य! उपशांत हो जाओ। ये मुनि पक्ष में उसके साथ आलाप भी बंद कर देते हैं। स्वाध्याय की प्रस्थापना नहीं कर रहे हैं। वह कहता है-ठीक ५७६९.आयरिय चउरो मासे, संभुंजति चउरो देइ सज्झायं। है, अवश्य ही काल शुद्ध नहीं है। अथवा इनके सूत्रार्थ वंदण लावं चउरो, तेण परं मूल निच्छुहणा॥ परिचित है अतः ये स्वाध्याय की प्रस्थापना नहीं कर रहे हैं। आचार्य चार मास तक उसके साथ भोजन करते हैं, चार इस प्रकार कहने पर मासगुरु का प्रायश्चित्त आता है। मास तक उसको स्वाध्याय देते हैं और चार मास तक वंदना ५७६४.णोतरणे अभत्तट्ठी, ण व वेला अभुंजणे ण जिण्णं सिं। और आलापक करते हैं। उसके पश्चात् उपशांत हो जाने पर ___ण पडिक्कमंति उवसम, णिरतीयारा णु पच्चाह॥ मूल का प्रायश्चित्त देते हैं और यदि उपशांत नहीं होता है तो तुम्हारे उपशांत हुए बिना साधु भिक्षाचर्या के लिए नहीं उसे गण से निकाल देते हैं। उठ रहे हैं। वह कहता है-या तो ये सब मुनि उपोसित हैं या ५७७०.एवं बारस मासे, दोसु तवो सेसए भवे छेदो। अभी भिक्षा की बेला नहीं हुई है। उसे दूसरा मासगुरु आता। परिहायमाण तद्दिवस तवो मूलं पडिक्कंते॥ है। साधु भोजन नहीं कर रहे हैं। वह कहता है-पूर्वभुक्त इस प्रकार बारह मास में भी वह उपशांत नहीं होता है Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० तो गच्छ से निष्काशित होने पर प्रथम दो मास तक तप प्रायश्चित्त और शेष दस मासों में पांच रातदिन के छेद के क्रम से सांवत्सरिक पर्व तक छेद होता है। पर्युषणा रात्री में प्रतिक्रमण करने के पश्चात् अधिकरण होता है तो यह विधि है। पर्युषणा के पारणे वाले दिन से परिहीयमान उस दिन तक ले जाएं जहां तप या मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है, छेद नहीं। प्रतिक्रमण करने पर अधिकरण हुआ है तो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर लेने पर केवल मूल का ही प्रायश्चित्त आता है। ५७७१. एवं एक्क्कदिणे, हवेत्तु ठवणादिणे वि एमेव । चेइयवंदण सारे, तम्मि वि काले तिमासगुरु ॥ इस प्रकार एक-एक दिन कम करते करते स्थापना दिवस अर्थात् पर्युषणादिवस तक ले जाएं। उस दिन सूर्योदय से पूर्व कलह उत्पन्न हो तो इसी प्रकार करना चाहिए- पहले स्वाध्याय स्थापित करने वाले उसे उपशांत होने के लिए कहे, फिर वंदनार्थ जाने वाले उसे कहे, अनुपशांत होने पर प्रतिक्रमण की वेला में कहे। फिर भी अनुपशांत रहने पर उस मुनि को तीन गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है । ५७७२. पडिकंते पुण मूलं, पडिक्कमंते व होज्ज अधिकरणं । संवच्छरमुस्सम्गे, कयम्मि मूलं न सेसाई ॥ पर्युषणा के दिन अधिकरणों की व्यवच्छित्ति कर देनी चाहिए। यदि प्रतिक्रमण के पश्चात् अधिकरण रहता है तो उसे मूल का प्रायश्चित्त आता है। प्रतिक्रमण प्रारंभ कर सांवत्सरिक कायोत्सर्ग पर्यन्त यदि अधिकरण रहता है तो मूल प्रायश्चित्त ही आता है, शेष प्रायश्चित्त नहीं। ५७७३. संवच्छरं च रुट्ठ, आयरिओ रक्खए पयत्तेण । जति णाम उवसमेज्जा, पव्वयरातीसरिसरोसो ॥ आचार्य उस रुष्ट मुनि की संवत्सर पर्यन्त रक्षा करते हैं कि वह तब तक उपशांत हो जाए। यदि संवत्सर में भी उपशांत नहीं होता है तो मानना चाहिए की उसका रोष पर्वतराजी सदृश है। ५७७४. अण्णे दो आयरिया, एक्केकं वरिसमेत्तमेअस्स । तेण परं गिहि एसो. वितियपदं रायपव्वहए ॥ वह मुनि एक वर्ष के पश्चात् अपने मूलाचार्य के पास से निर्गत होकर अन्य दो आचार्यों के पास जाता है। यहां प्रत्येक के पास एक-एक वर्ष रहता है। वे उसका संरक्षण करते हैं। उसके बाद वह गृही हो जाता है। अपवादपद में राजप्रवजित होने पर उसके लिंग का अपहार नहीं किया जाता । १. देखें गाथा ५७८० । बृहत्कल्पभाष्यम् ५७७५. एमेव गणा-ऽऽयरिए, गच्छम्मि तवो उ तिन्नि पक्खाई। दो पक्खा आयरिए, पुच्छा य कुमारदिट्ठतो ॥ इसी प्रकार उपाध्याय और आचार्य के विषय में जानना चाहिए। उपाध्याय यदि अनुपशांत होकर गण में रहते हैं तो तीन पक्षों तक तपः प्रायश्चित्त और पश्चात् छेद। अनुपशांत आचार्य को दो पक्ष तप और पश्चात् छेद। शिष्य ने पूछासमान अपराध पर प्रायश्चित्त विषम क्यों ? यहां कुमार का दृष्टांत है। ५७७६. पणयाल दिणा गणिणो, चउहा काऊण साहिएक्कारा। भत्तट्ठण सज्झाए, वंदण लावे य हावेति ॥ गणी - उपाध्याय के ४५ दिनों में चार का भाग देने पर १९६ दिन हुए। गच्छ उपाध्याय के साथ इतने दिनों तक भक्तार्थन इतने ही दिनों तक स्वाध्याय, वंदना और आलापना आदि करता है । पश्चात् दिन कम कर देता है । ५७७७. तीस दिणे आयरिए, अद्धट्ठ दिणे य हावणा तत्थ । , गच्छेण चउपदेहि तु णिच्छूडे लग्गती छेदो ॥ आचार्य के तीस दिनों को चार का भाग देने पर साढ़े सात दिन होते हैं। गच्छ उनके साथ चारों भक्तार्थन, स्वाध्याय, वंदनक और आलाप साढ़े सात दिन साढ़े सात दिन करता है। उसके पश्चात् जब गच्छ इन चारों पदों को छोड़ देता है और तब आचार्य पन्द्रह दिन के छेद के क्रम से संलग्न हो जाता है। ५७७८. संकेतो अण्णगणं, सगणेण य वज्जितो चतुपवेहिं । आयरिओ पुण नवरिं, वंदण-लावेहि णं सारे ।। जब स्वगण में चारों पदों भक्तार्थन आदि से वर्जित हो जाता है तब आचार्य अन्य गण में संक्रान्त करता है। अन्य गण का आचार्य उसकी केवल वंदना और आलाप से एक वर्ष तक सारणा करता है । ५७७९. सज्झायमाइएहिं दिणे दिणे सारणा परगणे वि नवरं पुण णाणत्तं तवो गुरुस्सेतरे छेदो ॥ परगण में संक्रान्त आचार्य की प्रतिदिन स्वाध्याय आदि पदों से सारणा की जाती है। यह नानात्व- विशेष है, यदि अन्य गण का आचार्य यदि सारणा नहीं करता है तो उसे तपः प्रायश्चित्त आता है तथा अधिकरणकारी आचार्य को छेद आता है। ५७८०, सरिसावराधे दंडो, जुवरण्णो भोगहरण-बंधादी । मज्झिम बंध- वहादी, अवत्ति कन्नादि खिंसा वा ॥ www.jainelibrary.arg Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक = ६०१ समाप्त होने पर उसे अनुशिष्टि दी जाती है। गच्छ से उसका निर्गमन न होने पर कलह होता है। कारण में शब्दप्रतिबद्ध वसति में रहते हैं तो परस्पर या उसके साथ कलह करते हैं, जिससे कि शब्द सुनाई न दें। राईभोयण-पदं प्रागुद्दिष्ट कुमार दृष्टांत एक राजा के तीन पुत्र थे-ज्येष्ठ, मध्यम और कनिष्ठ। तीनों ने सोचा-राजा को मारकर राज्य को तीन भागों में विभक्त कर लें। राजा ने उनका यह षड्यंत्र जान लिया। उसने ज्येष्ठ पुत्र से कहा-तुम युवराज हो। ऐसा क्यों करते हो? उसको भोगहरण, बंधन, ताड़ना आदि से दंड दिया। मध्यमपुत्र का भोगहरण नहीं किया। उसको भी बंधन, खिंसना आदि से दंडित किया। कनिष्ठ के कान मरोड़ कर खिंसना की। इसी प्रकार लोकोत्तर में उत्कृष्ट-मध्यम और जघन्य व्यक्ति को भी बड़ा, लघु या लघुतर दंड दिया जाता है। ५७८१.अप्पच्चय वीसत्थत्तणं च लोगगरहा दुरहिगम्मो। आणाए य परिभवो, णेव भयं तो तिहा दंडो॥ सकषाय आचार्य को देखकर लोगों में उनके उपदेशों के प्रति विश्वास नहीं होता। सकषाय शेष मुनियों के प्रति भी विश्वस्तता नहीं रहती। लोगों में गर्दा होती है। क्रोधी आचार्य सभी शिष्यों के लिए दुरधिगम होते हैं। आज्ञा का परिभव होता है, उनमें भय नहीं होता। इसलिए पुरुष विशेष की अपेक्षा से दंड के तीन प्रकार किए गए हैं। ५७८२.गच्छम्मि उ पट्टविए, जम्मि पदे स निग्गतो ततो बितियं । भिक्खु-गणा-ऽऽयरियाणं, मूलं अणवट्ठ पारंची। गच्छ में जिस पद पर प्रस्थापित था उससे निर्गत हुआ है तो परगण में उस पद से दूसरा पद प्राप्त होता है। जैसे छेद में प्रस्थापित पद से परगण में संक्रान्त हआ है तो वहां मल प्राप्त करेगा। भिक्षु, गणी और आचार्य-इन तीनों के अंतिम प्रायश्चित्त आते हैं। भिक्षु के मूल, उपाध्याय के अनवस्थाप्य और आचार्य के पारांचिक। अथवा भक्तार्थन आदि जिस पद से गच्छ से निर्गत हुआ है तो परगण में उसके साथ भोजन नहीं किया जाएगा, स्वाध्याय किया जा सकेगा। इस प्रकार जो स्वाध्याय पद से निर्गत है, उसके साथ वंदनक करेगा, जो वंदनकपद से गया है तो उसके साथ आलाप करेगा, जो आलाप पद से निर्गत है तो उसके साथ चारों पदों का परिहार करेगा। ५७८३.कारणे अणले दिक्खा , समत्ते अणुसट्टि तेण कलहो वा। कारणे सहे ठिताणं, कलहो अण्णोण्ण तेणं वा॥ कारणवश किसी अयोग्य को दीक्षा दे दी गई। कारण चाण, भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए निव्वितिगिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारमाहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा-अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिंसि जं च पडिग्गहे तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र ६) भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए वितिगिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारमाहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा-अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिंसि जं च पडिग्गहे तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं॥ (सूत्र ७) भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकप्पे असंथडिए निव्वितिगिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारमाहारेमाणे अह पच्छा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ जाणेज्जा-अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिंसि जं च पडिग्गहे तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र ८) भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकप्पे असंथडिए वितिगिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता आहारमाहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा-अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिंसि जं च पडिग्गहे तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र ९) ५७८४.अण्णगणं वच्चंतो, परिणिव्ववितो व तं गणं एंतो। विह संथरेतरे वा, गेण्हे सामाए जोगोऽयं॥ अधिकरण करके, अनुपशांत अवस्था में, अन्य गण में जाते हुए या पुनः उसी गण में परिनिर्वापित-आते हुए मार्ग में पर्यास भोजन मिलने पर या न मिलने पर रात्री में आहार ग्रहण करे। यह योग है, संबंध है। ५७८५.संथडमसंथडे या, निव्वितिगिच्छे तहेव वितिगिच्छे। काले दव्वे भावे, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥ प्रस्तुत में चार सूत्र हैं१. संस्तृत निर्विचिकित्स ३. असंस्तृत निर्विचिकित्स २. संस्तृत विचिकित्स ४. असंस्तृत विचिकित्स। प्रथम सूत्र में तीन प्रकार से प्रायश्चित्त की मार्गणा होती है-काल से, द्रव्य से और भाव से। ५७८६.अणुग्गय मणसंकप्पे, गवेसणे गहण भुंजणे गुरुगा। __अह संकियम्मि भुंजति, दोहि वि लहु उग्गते सुद्धो॥ अभी तक सूर्योदय नहीं हुआ है, इस मनोगत संकल्प से बृहत्कल्पभाष्यम् जो भक्तपान की गवेषणा, ग्रहण और भोजन करता है उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा और काल से गुरु आता है। यदि शंकित मनःसंकल्प से भोजन करता है तो उसे काल और तप-दोनों से लघु चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। सूर्य उदित हो गया है-इस निश्चित संकल्प से भोजन करने वाला शुद्ध है। ५७८७.अत्थंगयसंकप्पे, गवेसणे गहणे भुंजणे गुरुगा। अह संकियम्मि भुंजइ, दोहि वि लहुऽणत्थमिए सुद्धो॥ 'सूर्य अस्तगत हो गया है' इस संकल्प के साथ जो भक्तपान की गवेषणा, ग्रहण और भोजन करता है उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तप और काल से गुरु होता है। यदि शंकित अवस्था में भोजन करता है तो उसे चतुर्गुरु दोनों से लघु प्रायश्चित्त होता है। सूर्य अस्तमित नहीं हुआ है, इस निःसंदिग्ध चित्त से भोजन करता है वह शुद्ध है। ५७८८.उग्गयवित्ती मुत्ती, मणसंकप्पे य होंति आएसा। ___ एमेव अणत्थमिए, धाए पुण संखडी पुरतो॥ उद्गतवृत्ति-सूर्य के उदित होने पर जो वर्तन करता है अथवा उद्गतमूर्ति-सूर्य के उदित होने पर जो मूर्ति-शरीर वर्तन करता है। मनःसंकल्प के विषय में ये आदेश हैं(१) अनुदित सूर्य को भी मनःसंकल्प से उदित मानकर भोजन करने वाला दोषी नहीं होता। (२) उदित होने पर भी अनुदित मनःसंकल्प से भोजन करना सदोष है। इसी प्रकार अनस्तमित में भी मानना चाहिए। ध्रात-सुभिक्ष में संखड़ी होती है। वह दो प्रकार की है-पुरःसंखड़ी, पश्चात् संखड़ी, पूर्वाह्न में पुरःसंखड़ी और अपराह्न में पश्चात् संखड़ी होती है। यहां अनुदित रवि के समय पुरः संखड़ी और अस्तमित रवि के समय पश्चात् संखड़ी है। ५७८९.सूरे अणुग्गतम्मिं, अणुदित उदितो व होति संकप्पो। एवं अत्थमियम्मि वि, एगतरे होति निस्संको॥ सूर्य के अनुदित होने पर अनुदित संकल्प या उदित संकल्प, उदित होने पर अनुदित अथवा उदित संकल्प होता है। इसी प्रकार अस्तमित सूर्य के विषय में भी ऐसा मनःसंकल्प होता है। अस्तमित सूर्य के विषय में भी एकतरअनस्तमित या अस्तमित निःशंक मनः संकल्प होता है। ५७९०.अणुदियमणसंकप्पे, गहण गवेसी य भुंजणे चेव। उग्गयऽणत्थमिए या, अत्थंपत्ते वि चत्तारि॥ अनुदित मनःसंकल्प में भक्तपान की गवेषणा, ग्रहण और भोजन करना-इन तीन पदों के साथ चार भंग उचित हैंप्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और अष्टम। उद्गत मनःसंकल्प के साथ भी ये ही चार भंग हैं। अनस्तमित मनःसंकल्प तथा Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक ६०३ अस्तंगत के साथ भी ये ही चार भंग होते हैं। तीसरा, प्रथम लता-अनस्तमितसंकल्प, अनस्तमितऐषी, पांचवां, छठा और सातवां-ये भंग असंभव हैं। . अनस्तमितग्रहण और भोजी। दूसरी लता-संकल्प, एषण ५७९१.अणुदितमणसंकप्पे, और ग्रहण पद में शुद्ध और अन्त्यपद में अशुद्ध। गवेस-गह-भोयणम्मि पढमलता। तीसरी लता-मनःसंकल्प और एषणा में शुद्ध तथा ग्रहण बितियाए तिसु असुद्धो, और भोजन में अशुद्ध। अन्त्य लता अर्थात् चौथी लताउग्गयभोई उ अंतिमओ॥ संकल्प पद में शुद्ध, शेष तीन पदों-गवेषण, ग्रहण और अनुदित मनःसंकल्प में अनुदितगवेषी, अनुदितग्राही और भोजन में अशुद्ध। अनुदितभोजी यह प्रथम लता है, प्रथम भंग है। दूसरी लता ५७९९.पढमाए बितियाए, ततिय चउत्थीए नवम दसमाए। में तीन पदों-संकल्प, गवेषण और ग्रहण-इन तीन पदों में ___एक्कारस बारसीए, लताए चउरो अणुग्घाता॥ अशुद्ध और अंतिम पद-उद्गत भोजीत्वरूप से शुद्ध है। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, नौवीं, दसवीं, ग्यारहवीं ५७९२.तइयाए दो असुद्धा, गहणे भोती य दोण्णि उ विसुद्धा। और बारहवीं-इन आठ लताओं में भावों की अविशद्धि के __संकप्पम्मि असुद्धा, तिसु सुद्धा अंतिमलया उ॥ कारण चार अनुद्घात का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तीसरी लता में दो पद-संकल्प और गवेषण अशुद्ध होते ५८००.पंचम छ स्सत्तमिया, अट्ठमिया तेर चोइसमिया य। हैं और ग्रहण और भोजन-ये दो पद शुद्ध होते हैं। अन्त्यलता पन्नरस सोलसा वि य, लताओ एया विसुद्धाओ॥ तीन पदों में शुद्ध होती है और संकल्पपद में अशुद्ध होती है। पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, तेरहवीं, चौदहवीं और इस प्रकार अनुदित मनःसंकल्प की चार लताएं कही गई हैं। सोलहवीं-ये आठ लताएं विशुद्ध हैं। क्योंकि सर्वत्र भाव की ५७९३.उग्गयमणसंकप्पे, अणुदित गवेसी य गहण भोगी य। विशुद्धि होती है। एमेव य बितियलता, सुद्धा आदिम्मि अंते य॥ ५८०१.दोण्ह वि कतरो गुरुओ, ५७९४.ततियलताए गवेसी, होइ असुद्धो उ सेसगा सुद्धा। अणुग्गतऽत्थमिय/जमाणाणं। सव्वविसुद्धा उ भवे, चउत्थलतिया उदियचित्ते॥ आदेस दोण्णि काउं, प्रथम लता उद्गतमनःसंकल्प अनुदितगवेषी, अनुदित अणुग्गए लहु गुरू इयरे॥ ग्राही और अनुदितभोजी। इसी प्रकार द्वितीय लता भी होती शिष्य ने पूछा-सूर्य के अनुद्गत होने पर या सूर्य के है। आदिपद और अन्त्यपद शुद्ध तथा मध्य दो पद अशुद्ध। अस्तमित हो जाने पर जो भोजन करता है इन दोनों में तृतीय लता में गवेषणापद अशुद्ध है। शेष तीन पद शुद्ध हैं। महादोषी कौन है? आचार्य ने कहा-इस विषयक दो आदेश चतुर्थी लता में चारों पद शुद्ध हैं। ये चारों लताएं उदित- हैं, दो मान्यताएं हैं। कोई आचार्य कहते हैं-अनुदगतभोजी से चित्तविषय वाली हैं। शुद्ध हैं। अस्तमित भोजी गुरुतर होता है। कोई आचार्य इससे विपरीत ५७९५.अत्थंगयसंकप्पे, पढम धरेंतेसि गहण भोगी य। मानते हैं। वे कहते हैं-अस्तमितभोजी से अनुद्गतभोजी दोसंतेसु असुद्धा, बितिया मज्झे भवे सुद्धा॥ गुरुतर होता है। आचार्य कहते हैं-अस्तमित भोजी गुरुतर ५७९६.ततिया गवेसणाए, होति विसुद्धा उ तीसु अविसुद्धा। इसलिए है कि उसके परिणाम संक्लिष्ट होते हैं। दिन में चत्तारि वि होति पदा, चउत्थलतियाए अत्थमिते॥ भोजन कर लेने पर पुनः रात्री में भोजन करता है। उस समय अस्तंगत संकल्प में प्रथम लता में सूर्य के रहते भक्त- काल अविशुद्धयमान होता है। अनुदितभोजी सारी रात भूख पान की एषणा, ग्रहण और भोजन-सूर्य अस्तंगत हो गया है, को सहन कर क्लान्त होकर भोजन करता है। वह काल इस बुद्धि से करता है। द्वितीय लता में दो पद-आदि और विशुद्ध्यमान होता है। अतः वह लघुतर है। दूसरे कहते अन्त-अशुद्ध हैं, मध्यवर्ती दो पद शुद्ध हैं। तीसरी लता में हैं-अस्तमितभोजी से अनुदितभोजी गुरुतर होता है। क्योंकि गवेषणा में शुद्ध है, शेष तीन पद अशुद्ध हैं। चौथी लता में वह सारी रात सहनकर थोड़े समय की भी प्रतीक्षा नहीं कर अस्तमित विषय के कारण चारों पद अविशुद्ध होते हैं। पाता। इसलिए वह संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है। दूसरा ५७९७.अणत्थंगयसंकप्पे, पढमा एसी य गहण भोगी य। सोचता है-मुझे लंबे समय तक सहना पड़ेगा, अतः वह खा मण एसि गहण सुद्धा, बितिया अंतम्मि अविसुद्धा॥ लेता है, वह लघुतर है। यह दोनों आदेश सूत्रों की बात है। ५७९८.मण एसणाए सुद्धा, ततिया गह-भोयणेसु अविसुद्धा। उसका स्थितिपक्ष यह है-अनुद्गत सूर्य में प्रतिसमय संकप्पे नवरि सुद्धा, तिसु वि असुद्धा उ अंतिमिया॥ विशुद्ध्यमान काल होता है अतः अनुदितभोजी लघुतर होता Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६०४ =बृहत्कल्पभाष्यम् है। अस्तमितभोजी के प्रतिसमय अविशुद्ध्यमान काल होता ५८०५.पंचूण तिभागऽद्धे, तिभाग सेसे य पंच मोत्तु संलेहं। है, इसलिए वह गुरुतर है। तम्मि वि सो चेव गमो, णायं पुण पंचहि गतेहिं। ५८०२.गेण्हण गहिए आलोयण, नमोक्कारे भुंजणे य संलेहे। भावप्रायश्चित्त में जो द्रव्यनिष्पन्न चारणागम कहा है, वही सुद्धो विगिंचमाणो, अविगिंचण सोहि दव्व भावे य॥ यहां जानना चाहिए। यदि पांच कवल खाने के बाद ज्ञात हो अनुदित और अस्तमित समय में ग्रहण करने के लिए कि सूर्य अनुदित है या अस्तमित है, उसके पश्चात् भी यदि प्रस्थित होना, यह गवेषणा ही है, गृहीत करने पर ज्ञात शेष पचीस कवल को खाता है तो मासलघु। तीन भागहीन होना, आलोचना करते समय ज्ञात होना, भोजन करते शेष बीस कवलों को खाता है तो मासगुरु। अर्द्ध अर्थात् समय नमुक्कार का स्मरण करते समय ज्ञात होना भोजन पन्द्रह कवलों को खाता है तो चतुर्लघु। त्रिभाग-दस कवलों करते हुए ज्ञात होना, संलेखना कल्प करते समय ज्ञात को खाता है तो चतुर्गुरु। पांच शेष कवल खाता है तो होना-इन समयों में लिए हुए भक्त-पान को यदि परिष्ठापन षड्लघु। संलेखनाशेष खाने पर षड्गुरु। तीस कवल थे। पांच कर देता है तो वह शुद्ध है। वह प्रायश्चित्ती नहीं होता। जो कवलों को खाने के पश्चात् पचीस कवल अज्ञात अवस्था में परिष्ठापन नहीं करता उसे द्रव्यतः और भावतः प्रायश्चित्त खा लिए। शेष पांच कवलों को खाने से षडलघु। आता है। ५८०६.एमेवऽभिक्खगहणे, भावे ततियम्मि भिक्खुणो मूलं। ५८०३.संलेह पण तिभाए, एमेव गणा-ऽऽयरिए, सपया सपदं हसति इक्कं ।। ___ अवड्ढ दोभाए पंच मोत्तु भिक्खुस्स। इसी प्रकार बार-बार ग्रहण करने पर भावनिष्पन्न मास चउ छ च्च लहु-गुरु, प्रायश्चित्त होता है। यह भिक्षु के लिए है। दूसरी बार अभिक्खगहणे तिसू मूलं॥ मासगुरुक से छेद पर्यन्त जाता है। तीसरी बार चतुर्लधु से जो सूर्य के अनुदित और अस्तमित जानते हुए भी। मूल पर्यन्त जाता है। इसी प्रकार उपाध्याय और आचार्य 'संलेख'-तीन कवल प्रमाण शेष बचे हुए को खाता है उसे के विषय में जानना चाहिए। स्वपद से एकपद कम होता है। मासलघु, जो पांच कवल प्रमाण को खाता है उसे मासगुरु, उपाध्याय के प्रथम बार में मासगुरु से प्रारब्ध होकर त्रिभाग-दस कवल में चतुर्लघु, अपार्ध-पन्द्रह कवल में तीसरी बार में अनवस्थाप्य में ठहरता है। आचार्य के प्रथम चतुर्गुरु, दो भाग-बीस कवल में षड्लघु, तीस में से पांच को वार में चतुर्लघुक से प्रारंभ कर तीसरी बार में पारांचिक में छोड़कर अर्थात् पचीस कवल में षड्गुरु। इस प्रकार जैसे-जैसे ठहरता है। द्रव्य की वृद्धि होती है वैसे-वैसे प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। ५८०७.संथडिओ संथरेतो, संतयभोजी व होइ नायव्वो। बार-बार ग्रहण करने पर, दूसरी बार में मासगुरु से प्रारंभ कर पज्जत्तं अलभंतो, असंथडी छिन्नभत्तो य॥ छेद पर्यन्त और तीसरी बार ग्रहण करने पर चतुर्लघु से ___ संस्तृत वह होता है जो पर्याप्त भक्तपान मिलने पर प्रारंभकर मूल पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। निर्वाह कर लेता है अथवा जो सतत भोजी होता है वह ५८०४.एमेव गणा-ऽऽयरिए, अणवठ्ठप्पो य होति पारंची। संस्तृत होता है। जिसको पर्याप्त भक्तपान प्राप्त नहीं होता तम्मि वि सो चेव गमो, भावे पडिलोम वोच्छामि।। अथवा जो उपवास आदि से 'छिन्नभक्त' होता है वह इसी प्रकार गणी-उपाध्याय और आचार्य विषयक यही असंस्तृत है। चारणिका है। उपाध्याय को प्रथम बार मासगुरु से प्रारंभ ५८०८. निस्संकमणुदितोऽतिच्छितो व सूरो त्ति गेण्हती जो उ। कर छेद पर्यन्त, दूसरी बार चतुर्लघु से प्रारंभ कर मूल उदित धरेते वि हु सो, लग्गति अविसुद्धपरिणामो। पर्यन्त, तीसरी बार चतुर्गुरु से प्रारंभ कर अनवस्थाप्य जो मुनि निःशंकरूप से यह मानता हुआ कि सूर्य अनुदित पर्यन्त। आचार्य के प्रथम बार चतुर्लघु से मूल पर्यन्त, दूसरी है या अतिक्रान्त हो गया है फिर भी भक्तपान लेता है और बार चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और तीसरी बार षड्लघु यद्यपि सूर्य उदित है या अनस्तमित फिर भी अशुद्ध परिणामों से पारांचिक पर्यन्त। यह द्रव्य निष्पन्न प्रायश्चित्त है। भाव में के कारण वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। प्रतिलोम प्रायश्चित्त कहूंगा। पूर्व में द्रव्यवृद्धि से प्रायश्चित्त ५८०९.एमेव य उदिउ त्ति व, धरइ त्ति व सोढमुवगतं जस्स। वृद्धि बताई गई। यहां जैसे-जैसे द्रव्य की परिहानि होती है, स विवज्जए विसुद्धो, विसुद्धपरिणामसंजुत्तो॥ वैसे-वैसे परिणामों की संक्लिष्टता बढ़ती जाती है, इससे इसी प्रकार जिस मुनि के चित्त में यह अभिप्राय उत्पन्न प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है, वह मैं कहूंगा। होता है कि सूर्य उदित हो गया है या अभी तक अस्तंगत Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक नहीं हुआ है, इस विपर्यास में वह मुनि कुछ ग्रहण करता है। तो भी वह विशुद्ध है क्योंकि उसका परिणाम विशुद्ध है। ५८१०. समि- चिंचिणिमादीणं, पत्ता पुप्फा य णलिणिमादीणं । उदय -ऽत्थमणं रविणो, कहिंति विगसंत- मउलिंता ॥ सूर्य अनुद्गत या अस्तमित है - यह कैसे जाना जाता है? भाष्यकार कहते हैं- शमी, चिंचिणिका वृक्षों के पत्ते विकसित होने पर तथा नलिनी आदि के पुष्प विकसित देखकर जाना जा सकता है कि सूर्योदय हो गया है और ये सब मुकुलित है तो समझना चाहिए सूर्य अस्तंगत हो गया है, ऐसा कहा जाता है। ५८११. अब्भ-हिम-वास - महिया - महागिरी - राहु-रेणु - रयछण्णो । मूढदिसस्स व बुद्धी, चंदे गेहे व तेमिरिए ॥ आकाश में बादल हो, हिमपात होता हो, वर्षा या महिका गिर रही हो, पूर्व पश्चिम दिशा में महान् पर्वत हो, राहु द्वाटरा ग्रस्त होने पर, रेणु अथवा रजों से आकाश आच्छन्न हो-इन सारे कारणों से सूर्य का उदय और अस्त ज्ञात नहीं होता। तथा कोई विशामूक व्यक्ति पश्चिम दिशा को पूर्व दिशा मानता हुआ, सूर्य को नीचे देखकर सूर्य उदित हुआ है, ऐसा जानकर भक्तपान लेता है, खाता है और अंधकार हुआ जानकर सोचता है, मैंने सूर्य के अस्त होने पर खाया है अथवा कोई व्यक्ति तैमिरिक है, घर के भीतर सोकर उठा है, प्रदोष में चन्द्रमा को सूर्य मानकर भोजन कर लेता है, ये सारे कारण सूर्य के उदित होने या अस्तमित होने का भ्रम पैदा करते हैं। ५८१२. सुत्तं पडुच्च गहिते, णातुं इहरा उ सो ण गेण्हंतो । जो पुण गिण्हति णातुं, तस्सेगट्ठाणगं वड्डे ॥ जिसने सूत्र के प्रामाण्य से भक्तपान ग्रहण किया, फिर ज्ञात हुआ कि सूर्य अनुद्गत या अस्तमित हो गया था, इस स्थिति में वह सारे भक्तपान का परिष्ठापन कर दे। यदि पहले ज्ञात हो जाता तो वह ग्रहण ही नहीं करता। जो जानने के पश्चात् भी ग्रहण करता है उसके एक स्थान की वृद्धि होती है - प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। ५८१३. सव्वस्स छड्डण विगिंचणा उ मुह - हत्थ - पादछूढस्स । फुसण धुवणा विसोहण, सकिं व बहुसो व णाणत्तं ॥ अनुदित या अस्तंगत जानकर जो मुंह में प्रक्षिस है, हाथ में या पात्र में है, उन सबका परिष्ठापन करना वह विवेचना है । हाथ से आमर्शन तथा धोना-कल्प करना -यह विशोधन है । अथवा एक बार परिष्ठापन, स्पर्शन, धावन करना विवेचना है और बहुत बार करना विशोधन है। यही विवेचन और विशोधन में नानात्व है। ६०५ ५८१४. नातिक्कमती आणं, धम्मं मेरं व रातिभत्तं वा । अत्तट्ठेगागी वा, सय भुंजे सेस देज्जा वी ॥ जो विवेचन और विशोधन करता है, वह आज्ञा का धर्म की मर्यादा का और रात्रीभक्तव्रत का अतिक्रमण नहीं करता। आत्मार्थी या एकाकी मुनि स्वयं खाता है, दूसरों को नहीं देता और जो अनात्मलाभी और अनेकाकी होता है, वह स्वयं भी खाता है और दूसरों को भी देता है। - ५८१५. एवं वितिगिच्छो वी, दोहि लहू णवरि ते तु तव काले। तस्स पुण हवंति लता, अट्ठ असुद्धा ण इतरातो ॥ इस प्रकार जो विचिकित्स है उसके विषय में भी यही कथन है। उसके जो तपोई प्रायश्चित्त हैं, वे तप और काल से लघु होते हैं। उसके केवल आठ अशुद्ध लताएं होती हैं, शुद्ध नहीं होतीं, क्योंकि उसका संकल्प शंकित होता है, उसमें प्रतिपक्ष का अभाव होता है। ५८१६.अणुदिय उदिओ किं नु हु, संकप्पो उभयहा अदिट्ठे उ । धरति ण व त्ति व सूरो, सो पुण नियमा चउण्हेको । आदित्य अदृष्ट होने पर यह संकल्प होता है कि क्या सूर्य उदित हो गया अथवा अभी अनुदित है ? अस्तयनवेला में भी यही संकल्प होता है कि क्या सूर्य अस्त हो गया अथवा नहीं? इन चार विकल्पों से एक में होता है सूर्य अनुदित या उदित, अस्तमित या अनस्तमित। भंग इस प्रकार होते हैं को लेकर विचिकिसित मनः संकल्प हो तो विचिकित्सितरावेषी, विचिकित्सितग्राही विचिकित्सितभोजीये आठ भंग होते हैं इसी प्रकार अस्त को लेकर आठ भंग होते हैं। दोनों अष्टभंगियों में पहला, दूसरा, चौथा और आठवां भंग ग्राह्य हैं, शेष चार भंग अग्राह्य हैं। ५८१७. तब गेलन्न - ऽद्धाणे, तिविहो तु असंथडी बिहे तिविहो । तवऽसंथड मीसस्सा, मासादारोवणा इणमो ॥ असंस्तृत तीन प्रकार के हैं-तपस्या से क्लान्त, ग्लानत्व से असमर्थ, लंबे मार्ग में पर्याप्त न मिलने पर असमर्थ मार्ग में असंस्तृत के तीन प्रकार हैं-अध्व के प्रवेश में, अध्व के मध्य में तथा अध्व के उत्तार में । तपो असंस्तृत के मासादिक की यह आरोपणा होती है, मिश्र का अर्थ है विचिकित्सा समापन के भी मासादि की आरोपणा करनी चाहिए। ५८१८. एक्क - दुग - तिण्णि मासा, चउमासा पंचमास छम्मासा । सव्वे वि होंति लहुगा, एगुत्तरवड्डिया जेणं ॥ यदि संलेखनाशेष ज्ञात हो जाने पर खाता है तो एक मासिक, पांच कवल खाता है तो दुमासिक, दस कवल खाता है तो तीन मासिक, पन्द्रह कवल चार मास, बीस . Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् कवल पंचमास, पचीस कवल छह मास-ये सारे प्रायश्चित्त ५८२४.दूइज्जंता दुविधा, णिक्कारणिगा तहेव कारणिगा। लघुक हैं क्योंकि ये एकोत्तरवृद्धि से बढ़े हुए हैं। असिवादी कारणिता, चक्के थूभाइता इतरे। ५८१९.दुविहा य होइ वुड्डी, सट्ठाणे चेव होइ परठाणे। ५८२५.उवदेस अणुवदेसा, दुविहा आहिंडगा मुणेयव्वा। सट्ठाणम्मि उ गुरुगा, परठाणे लहुग गुरुगा वा॥ विहरंता वि य दुविधा, गच्छगता निग्गता चेव।। वृद्धि दो प्रकार की होती है-स्वस्थानवृद्धि और परस्थान- दूइज्जंत (द्रवन्) दो प्रकार के होते हैं-निष्कारणिक और वृद्धि। स्वस्थान में गुरुक होते हैं और परस्थान में लघुक और कारणिक। जो अशिव आदि कारणों से तथा अन्यान्य गुरुक-दोनों होते हैं। प्रयोजन से गमन करते हैं वे कारणिक हैं। जो उत्तरापथ में ५८२०.भिक्खुस्स ततियगहणे, सट्ठाणं होइ दव्वनिप्फन्न। धर्मचक्र, मथुरा में देवनिर्मित स्तूप, कोशला में जीवन्तस्वामी भावम्मि उ पडिलोम, गणि-आयरिए वि एमेव॥ प्रतिमा आदि को देखने के लिए जाते हैं वे निष्कारणिक हैं। भिक्षु के दूसरी बार ग्रहण करने पर द्विमासिक से प्रारंभ आहिंडक के दो प्रकार हैं-उपदेश आहिंडक और अनुपदेश कर छेद पर्यन्त, तीसरी बार ग्रहण करने पर त्रैमासिक से आहिंडक। गुरु के उपदेश से विभिन्न देशों के आचार, भाषा स्वस्थान-मूल पर्यन्त यह द्रव्यनिष्पन्न प्रायश्चित्त है। भाव- आदि को जानने के लिए घूमने वाले उपदेश आहिंडक निष्पन्न यही प्रतिलोमरूप में होता है। गणी और आचार्य के कहलाते हैं। कौतुकवश घूमते हैं वे अनुपदेश आहिंडक भी द्रव्य और भावसूत्र दोनों यही प्रायश्चित्त है। कहलाते हैं। विहार करने वाले दो प्रकार के हैं गच्छगत और ५८२१.एमेव य गेलन्ने, पट्ठवणा णवरि तत्थ भिण्णेणं। गच्छनिर्गत। गच्छगत ऋतुबद्धकाल में मास-मास में विहार चउहि गहणेहिं सपदं, कास अगीतत्थ सुत्तं तु॥ करते हैं। गच्छनिर्गत दो प्रकार के हैं-विधिनिर्गत और ग्लान असंस्तृत के भी प्रायश्चित्त विधान है। किन्तु इसमें अविधिनिर्गत। विधि निर्गत चार प्रकार के हैं जिनकल्पिक, भिन्नमास से प्रस्थापना करनी चाहिए। प्रथम बार पांच प्रतिमाप्रतिपन्न, यथालंदिक और शुद्ध पारिहारिक। अविधिलघुमास, द्वितीय बार छह लघुमास, तृतीय बार छेद, चतुर्थ निर्गत जो सारणा आदि से त्यक्त हैं, जो एकाकीभूत हैं। बार मूल। चार बार में भिक्षु को स्वपद प्रायश्चित्त मूल प्राप्त ५८२६. निक्कारणिगाऽणुवदेसिगा य लग्गंतऽणुदिय अत्थमिते। होता है। उपाध्याय के लघुमास से चार बार में अनवस्थाप्य गच्छा विणिग्गता वि हु, लग्गे जति ते करेज्जेवं ।। और आचार्य के दो लघुमास से चार बार में पारांचिक। निष्कारणिक, अनुपदेश आहिंडक तथा गच्छ से अविधिशिष्य ने पूछा-यह किसके लिए प्रायश्चित्त है? आचार्य ने निर्गत-ये अनुदित या अस्तमित सूर्य के होने पर ग्रहण करते कहा-यह सारा अगीतार्थ का सूत्र है। प्रस्तुत सूत्रोक्त हैं या खाते हैं तो पूर्वोक्त प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। यदि प्रायश्चित्त है। गच्छनिर्गत जिनकल्पिक आदि ऐसा करते हैं तो वे भी ५८२२.अद्धाणासंथडिए, पवेस मज्झे तहेव उत्तिण्णे। प्रायश्चित्त से संलग्न होते हैं। परन्तु वे नियमतः वैसा नहीं मज्झम्मि दसगवुड्डी, पवेस उत्तिण्णि पणएणं॥ करते क्योंकि वे त्रिकालविषयक ज्ञान से संपन्न होते हैं। अध्वा असंस्तृत के तीन प्रकार हैं-मार्ग के प्रवेश, मध्य ५८२७.अहवा तेसिं ततियं, अप्पत्तो अणुदितो भवे सूरो। और उत्तार में। भिक्षु के संलेक्षना आदि छह स्थानों में दस पत्तो तु पच्छिमं पोरिसिं च अत्थंगतो होति॥ रात-दिन से प्रायश्चित्त वृद्धि करनी चाहिए। यह मध्य अध्वा अथवा उन जिनकल्पिक आदि के तीसरा प्रहर न आने के विषय में है। प्रवेश और उत्तीर्ण अध्वा में पांच रात-दिन से तक सूर्य अनुदित माना जाता है। पश्चिम पौरुषी में प्राप्त सूर्य प्रायश्चित्त वृद्धि होती है। अस्तंगत माना जाता है। इसलिए उनके भक्त और पंथा ५८२३.उग्गयमणुग्गते वा, गीतत्थो कारणे णतिक्कमति। तीसरे प्रहर में ही होता है। दूताऽऽहिंड विहारी, ते वि य होती सपडिवक्खा॥ ५८२८.वितिगिच्छ अब्भसंथड, गीतार्थ अध्वप्रवेश आदि में कारण उत्पन्न होने पर सूर्य सत्थो उ पहावितो भवे तुरियं। उद्गत या अनुद्गत होने पर भी यतनापूर्वक भोजन करता अणुकंपयाए कोई, हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। वे अध्वप्रतिपन्न तीन भत्तेण निमंतणं कुज्जा॥ प्रकार के हैं-द्रवन, आहिंडक, विहारी। ग्रामानुग्राम जाने वाला अभ्रसंस्तृत अर्थात् हिमपात आदि के कारण सूर्य न द्रवन्, सतत भ्रमणशील-आहिंडक, एक मास से विहार करने दिखाई देने के कारण विचिकित्सा होती है। जिस सार्थ के वाला विहारी। ये प्रत्येक सप्रतिपक्ष होते हैं। साथ साधु आए हैं, वह सार्थ वहां से शीघ्र चला जाता है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक = एक दूसरा सार्थ आया है। वह अनुकंपावश साधुओं को अनवस्थाप्य पर्यन्त और आचार्य के षड्लघु से स्वपद भक्तपान के लिए निमंत्रण देता है। वे सूर्य उदित हुआ या नहीं अर्थात् पारांचिक पर्यन्त जानना चाहिए। रात्री में यदि एक इस शंका से भक्तपान ग्रहण करते हैं। यहां भी तीन प्रकार से __सिक्थ भी खाता है तो चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष असंस्तत होने पर वे ही आठ लताएं होती हैं। असंस्तृत होते हैं। दूसरों में मिथ्यात्व पैदा होता है। उस वान्ताशी की अवस्था में निर्विचिकित्सा में उभयगुरुक तपःप्रायश्चित्त प्राप्त अथवा दूसरे मुनियों की विराधना होती है। यहां होता है। असंस्तृत विचिकित्सा में उभयलघु, शेष सारा । अमात्यबटुक का दृष्टांत है। प्राग्वत्। ५८३२.एवं ताव दिवसतो, रातो सित्थे वि चउगुरू होति। उद्ददरगहणा पुण, अववाते कप्पए ओमे। उग्गाल-पदं कवलपंचक आदि की बात दिवस संबंधी है। रात्री में एक सिक्थ भी खाने से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ऊर्ध्वदर इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा का ग्रहण इस बात का सूचक है कि अपवादपद में दुर्भिक्ष में राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उद्गार को निगलना भी कल्पता है। उग्गाले आगच्छेज्जा, तं विगिंचमाणे वा ५८३३.रातो व दिवसतो वा, उग्गाले कत्थ संभवो होज्जा। विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ। तं गिरिजण्णसंखडीए, अट्ठाहिय तोसलीए वा। रात में या दिन में उद्गार कहां संभव हो सकता उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राईभोयण है? सूरी कहते हैं-गिरियज्ञ संखड़ियों में अथवा तोसली पडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं देश में अष्टाह्निक उत्सवों में प्रमाणातिरिक्त खाने से उद्गार परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥ होता है। (सूत्र १०) ५८३४.अद्धाणे वत्थव्वा, पत्तमपत्ता य जोअण दुगे य। पत्ता य संखडिं जे, जतणमजतणाए ते दुविहा॥ ५८२९.निसिभोयणं तु पगतं, असंथरंतो बहुं च भोत्तूणं। संखड़ीभोजी साधु दो प्रकार के होते हैं-अध्वप्रतिपन्न उग्गालमुग्गिलिज्जा, कालपमाणा व दव्वं तु॥ और वास्तव्य। वास्तव्य दो प्रकार के हैं-संखड़ीप्रेक्षी और पूर्वसूत्र में निशिभोजन का अधिकार था। यहां भी वही संखड़ीअप्रेक्षी। अध्वप्रतिपन्न दो प्रकार के हैं वहीं जाने वाले कहा जा रहा है। अथवा भूख को सहन न कर सकने के अथवा अन्यत्र जाने वाले। अन्यत्र जाने वाले दो प्रकार के कारण अत्यधिक खाकर रात्री में आने वाले उद्गार को हैं-प्रासभूमिक और अप्राप्तभूमिक। प्राप्तभूमिक वे मुनि हैं जो निगल जाता है। उसके प्रतिषेध के लिए प्रस्तुत सूत्र है। आधे योजन से संखड़ी में पहुंच जाते हैं। अप्राप्तभूमिक वे हैं पूर्वसूत्र में कालप्रमाण बताया गया था। प्रस्तुत में द्रव्यप्रमाण जो एक योजन से, दो योजन से या बारह योजन से भी बताया है। संखड़ी में पहुंच जाते हैं। संखड़ी ग्राम को प्राप्त मुनि दो ५८३०.उद्दद्दरे वमित्ता, आतिअणे पणगवुड्डि जा तीसा। प्रकार के हैं-यतनाप्राप्त और अयतनाप्राप्त। जो सूत्रार्थपौरुषी चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेदो मूलं च भिक्खुस्स॥ करते हुए आते हैं वे यतनाप्राप्त हैं और जो सूत्रार्थ का परिहार ऊर्ध्वदर-सुभिक्ष में पर्याप्त भोजन कर, उसका वमन कर करते हुए अत्यंत उत्सुकता से आते हैं वे अयतनापास हैं। पुनः एक कवल से पांच कवल तक खाता है उसे चतुर्लघु, ५८३५.वत्थव्व जतणपत्ता, एगगमा दो वि होति णेयव्वा। यह पंचकवृद्धि तीस पर्यन्त करनी चाहिए। जैसे-छह कवल अजयण वत्थव्वा वि य, संखडिपेही उ एक्कगमा।। से दस कवल तक चतुर्गुरु, ग्यारह से पन्द्रह तक षड्लघु, जो वास्तव्य संखड़ीप्रलोकी नहीं हैं और यतनाप्राप्त मुनि सोलह से बीस तक षड्गुरु, इक्कीस से पचीस तक छेद, हैं-ये दोनों प्रायश्चित्त चारणिका में एकगम वाले होते हैं। जो छबीस से तीस तक मूल। यह भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त है। वास्तव्य संखड़ीप्रलोकी हैं और जो मुनि अयतनाप्राप्स हैं ये ५८३१.गणि आयरिए सपदं, एगग्गहणे वि गुरुग आणादी। दोनों प्रायश्चित्त चारणिका में एकगम वाले होते हैं। मिच्छत्तऽमच्चबडुए, विराहणा तस्स वऽण्णस्स॥ ५८३६.तत्थेव गंतुकामा, वोलेउमणा व तं उवरिएणं। गणी-उपाध्याय के चतुर्गुरु से स्वपद अर्थात् पदभेद अजयणाए, पडिच्छ उव्वत्त सुतभंगे। १. देखें-कथा परिशिष्ट, नं. १३४। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ बृहत्कल्पभाष्यम् जो मुनि जहां संखड़ी हो, वहीं जाना चाहते हों अथवा ५८४१.तिसु छल्लहुगा छग्गुरु, उस गांव के ऊपर से निकलना चाहते हों, अथवा पदभेद तिसु छग्गुरुगा य अंतिमे छेदो। करते हैं, दिनों की प्रतीक्षा करते हैं पर अवेला में उद्वर्तन छेदादी पारंची, करते हैं तब वे अयतना से प्राप्त कहे जाते हैं। क्योंकि वे __ बारसगादीसु त चउक्कं ।। सूत्रार्थपौरुषी का भंग भी कर लेते हैं। तीन स्थानों-प्रादोषिक स्वाध्याय तथा वैरात्रिक स्वाध्याय ५८३७.संखडिमभिधारेता, दुगाउया पत्तभूमिगा होति। न करने, उद्गार विवेचन करने–इनमें लघुमास, उद्गार जोयणमाई अप्पत्तभूमिया बारस उ जाव॥ निगलने में गुरुमास, अन्यत्र जाने के इच्छुक प्राप्तभूमिक मुनि यदि संखड़ी का अभिधारण कर जो मुनि दो गव्यूती से । संखड़ी के लिए अर्द्धयोजन से आए हैं, उनके प्रादोषिक आते हैं तब वे प्रासभूमिक होते हैं और जो एक योजन से, दो स्वाध्याय आदि तीन स्थानों में मासगुरु, अन्त्यस्थान में योजन से यावत् बारह योजन से आते हैं वे सारे अप्राप्त- चतुर्लघु। जो अप्राप्तभूमिक हैं तथा जो संखड़ी के लिए एक भूमिक होते हैं। योजन से आए हैं, उनके प्रादोषिक आदि तीन पदों में ५८३८.खेत्तंतो खेत्तबहिया, अप्पत्ता बाहि जोयण दुगे य।। चतुर्लघु, अन्त्यपद में चतुर्गुरु। जो दो योजन से आए हैं, चत्तारि अट्ट बारसऽजग्ग सुव विगिंचणाऽऽदियणा॥ उनके तीनों पदों में चतुर्गुरु और अन्त्यपद में षड्लघु। जो जो संखड़ी की बात सुनकर क्षेत्र के अन्तर्गत डेढ़ कोश चार योजन से आए हैं उनके तीन पदों में षड्लघु और से आते हैं वे प्राप्तभूमिक हैं और जो क्षेत्र से बाहर एक, दो, अन्त्यपद में षड्गुरु। जो आठ योजन से आए हैं, उनके तीन चार, आठ और बारह योजन से आते हैं वे अप्राप्तभूमिक हैं। पदों में षड्गुरु और अन्त्यपद में छेद। जो बारह्योजन से ये सभी संखड़ी में अतिमात्रा में खाकर सो जाते हैं और आए हैं, उनके प्रादोषिक स्वाध्याय न करने पर छेद, प्रदोष वेला में भी नहीं जागते। वे वैरात्रिक वेला में भी सोते वैरात्रिक न करने पर मूल, उद्गार की विगिंचणा करने पर ही रहते हैं। उद्गार की विगिंचणा नहीं करते, उसी को अनवस्थाप्य और उसे निगलने पर पारांचिक। जो निगल जाते हैं। इन चार पदों में यह आरोपणा है द्वादशयोजन आदि स्थान हैं, प्रत्येक के साथ प्रादोषिक आदि ५८३९.वत्थव्व जयणपत्ता, सुद्धा पणगं च भिण्णमासो य। चतुष्क मानना चाहिए। चारों स्थानों में तपोर्ह प्रायश्चित्त, तप तव-कालेहिं विसिट्ठा, अजतणमादी विउ विसिट्ठा। और काल से विशेषित जानना चाहिए। संखड़ीप्रलोकी वास्तव्य मुनि तथा यतनापूर्वक आए हुए ५८४२.खेत्तंतो खेत्तबहिया, अप्पत्ता बाहि जोयण दुगे य। आगन्तुक मुनि वहां भोजन कर आचार्य को पूछकर सोते हैं चत्तारि अट्ठ बारसजग्ग सुव विगिंचणाऽऽदियणा। तो वे शुद्ध हैं। वे यदि वैरात्रिक स्वाध्याय नहीं करते तब ५८४३.पणगं च भिण्णमासो, मासो लहुओ उ पढमतो सुद्धो। पांच रातदिन का तपोलघु और कालगुरु का प्रायश्चित्त मासो तव-कालगुरू, दोहि वि लहुओ अ गुरुओ य॥ आता है। यदि वे उद्गार की विगिंचना कर देते हैं तो ५८४४.लहुओ गुरुओ मासो, भिन्नमास तपोगुरु और काललघु। उद्गार को निगल जाते चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। हैं तो मासलघु तप और काल से गुरु। जो संखड़ी में छम्मासा लहु-गुरुगा, अयतना से प्राप्त हैं तथा जो संखड़ीप्रलोकी वास्तव्य मुनि छेदो मूलं तह दुगं च॥ हैं-ये दोनों यदि संखड़ी में खा-पीकर सो जाते हैं और ५८४५.जह भणिय चउत्थस्स य, प्रादोषिक स्वाध्याय नहीं करते उनको मासलघु तप और तह इयरस्स पढमे मुणेयव्वं । काल से लघु। वे वैरात्रिक स्वाध्याय नहीं करते मासलघु पत्ताण होइ भतणा, और कालगुरुक। उद्गार की विगिंचणा करने पर मासलघु जे जतणा जं तु क्त्थव्वे॥ तपोगुरुक। उद्गार को निगलने पर मासगुरु और तप और पूर्वोक्त चार गाथाओं (गा. ५८३८-५८४१) में प्रज्ञप्त अर्थ काल से भी गुरु। के सुखावबोध के लिए इन चार गाथाओं में प्रस्तार-रचना के ५८४०.तिसु लहुओ गुरु एगो, प्रारूप का निर्देश दिया गया है। तीसु य गुरुओ उ चउलहू अंते। सर्वप्रथम ऊर्ध्व-अधः क्रम से आठ घरों की स्थापना करें तिसु चउलहुगा चउगुरु, तथा उनमें क्रमशः वास्तव्य यतनाकारी वास्तव्य तिसु चउगुरु छल्लहू अंते॥ अयतनाकारी आदि आठ पुरुषों की स्थापना करें। तिर्यक् Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक दिशा में चार घर बनाए उनमें क्रमशः प्रदोष में न जागना, वैरात्रिक स्वाध्याय काल में सो जाना, आई हुई उद्गार का विवेचन (परित्याग) तथा उद्गार का पुनः निगलना-इन चार पदों की स्थापना करें। इस प्रकार ये बत्तीस घर बन जाते हैं। प्रथम पंक्ति में द्वितीय घर से क्रमः पनक, भिन्नमास और लघुमास-इन प्रायश्चित्तस्थानों की स्थापना करें। प्रथम पंक्ति का प्रथम घर शुद्ध है। चतुर्थ घर में स्थापित लघुमास तप और काल दोनों से गुरु है। इसी प्रकार प्रथम पद में कथित प्रायश्चित्त दोनों से लघु तथा मध्यम पद का प्रायश्चित्त क्रमशः तप और काल से गुरु होता है। द्रष्टव्य चार्ट द्वितीय पंक्ति में तीन घरों में लघुमास तथा चौथे में गुरुमास, तृतीय पंक्ति में प्रथम तीन घरों में गुरुमास तथा चौथे में चतुर्लघु, इस क्रम से सातवीं पंक्ति के चौथे घर में छेद प्रायश्चित्त की स्थापना करें। आठवीं पंक्ति के चार घरों में क्रमशः छेद, मूल, तथा द्विक-अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त की स्थापना करें। इस प्रकार पूर्व पंक्ति के चतुर्थ स्थान में जो प्रायश्चित्त कहा गया है वही अग्रिम पंक्ति के प्रथम तीन घरों में जानना चाहिए। इसी प्रकार वास्तव्य अयतनाकारी भंग के आधार पर प्राप्तभूमिक (तृतीय पंक्ति) की भजना-भंग रचना करनी चाहिए। ५८४६.एएण सुत्त न गतं, सुत्तनिवाते इमे तु आदेसा। . लोही अ ओम पुण्णा, केइ पमाणं इमं बेति॥ यह सारा प्रसंगतः कहा गया है। इससे सूत्र समाप्त नहीं हुआ है। सूत्रनिपात में ये आदेश हैं। आचार्य कहते हैं- गुणकारी होने से थोड़ा खाना चाहिए। कुछेक आचार्य इसका चार्ट ६०९ प्रमाण यह कहते हैं। यहां 'लोही कवल्ली ' का दृष्टांत है। ५८४७.अतिभुत्ते उम्गालो, तेणोमं भुंज जण्ण उग्गिलसि॥ छड्डिज्जति अतिपुण्णा, तत्ता लोही ण पुण ओमा॥ अति भोजन करने पर उद्गार आता है। इसलिए थोड़ा खाए, जिससे उद्गार नहीं आएगा। कवल्ली (कड़ाही) को यदि अतिमात्रा में भर देंगे तो अग्नि पर तप्त होकर वह सारा निकल जाएगा। जो कवल्ली कुछ खाली रहेगी तो वैसा नहीं होगा। (यदि कवल्ली (हांडी) में कुछ न्यून डालते हैं तो अग्नि पर गर्म करने पर भी हांडी से बाहर नहीं निकलता। यदि वह कंठ तक भरी है तो उसमें डाला हुआ उबलने पर बाहर निकलेगा ही। इसी प्रकार कम खाने से शरीरांत वायु सुखपूर्वक विचरण कर सकेगी। वह यदि सुखपूर्वक विचरण करती है तो उद्गार नहीं आयेगा। यदि अतिमात्रा में खाते हैं तो अन्तर्वायु के वेग से प्रेरित होकर उद्गार बाहर निकलता है।) ५८४८.तत्तऽत्थमिते गंधे, गलग पडिगते तहा अणाभोए। एते ण होंति दोण्णि वि, मुहणिग्गत णातुमोगिलणा। तप्त तवे पर पड़ा जलबिन्दु तत्काल नष्ट को जाता है, इसी प्रकार उतना ही खाना चाहिए जो तत्काल जीर्ण हो जाए। इसी प्रकार दूसरा कहता है-रवि के अस्तमित होने पर जीर्ण हो जाए गंध रहित या सहित उद्गार आता है, वैसा खाना चाहिए। एक कहता है-गले तक उद्गार आकर बिना ज्ञात हुए ही चला जाता है, ऐसा भोजन करना चाहिए। गुरु ने कहा ये दोनों प्रकार नहीं होते। अर्थात् जो दिन में प्रथम और द्वितीय उद्गार का प्रतिषेध करते हैं और जो रात्री में तीसरे-चौथे उद्गार को मान्य करते हैं ये दोनों घटित नहीं प्रदोषे अजागरण १. वास्तव्य यतनाकारी शुद्ध २. वास्तव्य अयतनाकारी लघुमास (त.का.ल.) ३. प्राप्तभूमिक गुरुमास ४. अप्राप्तभूमिक एक योजन से आगत | चतुर्लघु ५. दो योजन से आगत चतुर्गुरु ६. चार योजन से आगत षड्लघु ७. आठ योजन से आगत षड्गुरु ८. बारह योजन से आगत छेद वैरा. स्वपन पंचक लघुमास (त.गु. का.ल.) गुरुमास चतुर्लघु चतुर्गुरु षड्लघु षड्गुरु भिन्नमास लघुमास (त.ल. का.गु.) गुरुमास चतुर्लघु चतुर्गुरु षड्लघु षड्गुरु अनवस्थाप्य उद्गार प्रत्यवगिलन मासलघु (त.का.गु.) गुरुमास (त.का.गु.) चतुर्लघु चतुर्गुरु षड्गुरु षड्गुरु छेद पारांचिक Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् होते। मुख निर्गत उद्गार को जानकर जो उसे निगल जाता ससिक्थ द्रव मुंह से निकला है और वह उसे चबाता है है, उसके लिए सूत्र का निपात है। तो चतुर्लघु, मुखनिर्गतकवल एक हस्तपुट में भरा गया उसे ५८४९.भणति जति ऊणमेवं, तत्तकवल्ले य बिंदुणासणता। निगलता है तो षड्गुरु, अंजली भरने के पश्चात् नीचे भूमी बितिओ न संथरेवं, तं भुंजसुं सूरे जं जिज्जे॥ पर गिरा हुआ निगलता है तो छेद। यह सारा अदृष्ट का ५८५०.निग्गंधो उग्गालो, ततिए गंधो उ एति ण उ सित्थं। प्रायश्चित्त है, दृष्ट का प्रायश्चित्त इससे गुरु है। यह भिक्षु के अविजाणंत चउत्थे, पविसति गलगं तु जो पप्प॥ विषय का है। उपाध्याय के लिए मासगुरु से प्रारंभ कर एक कहता है कि थोड़ा खाना चाहिए जैसे तप्त तवे पर अनवस्थाप्य पर्यन्त और आचार्य के चतुर्लघु से चरमउदक बिन्दु गिरते ही नष्ट हो जाता है वैसे ही भोजन खाते पारांचिक पर्यन्त। इस प्रकार मास आदि से चरम पर्यन्त ही जीर्ण हो जाता है वैसा भोजन करें। दूसरा कहता है-ऐसा आरोपणा माननी चाहिए। करने से तृप्ति न हो तो वैसा भोजन करो जो सूर्यास्त तक ५८५६.दिय रातो लहु-गुरुगा, बितियं रयण सहितेण दिटुंतो। जीर्ण हो जाए। तीसरा कहता है वैसा खाओ जिससे अद्धाणसीसए वा, सत्थो व पहावितो तुरियं॥ अन्नगंधरहित उद्गार आए। एक कहता है उद्गार में गंध अथवा ससिक्थ या असिक्थ दृष्ट या अदृष्टरूप में दिन आए तो आए, उसके साथ सिक्थ न आए वैसा भोजन में निगलता है तो चतुर्लघु, रात्री में चतुर्गुरु। द्वितीयपद करो। ये दोनों तीसरा आदेश है। चौथा कहता है-ससिक्थ में-कारण में वान्त को पीने पर भी कोई प्रायश्चित्त नहीं है। उद्गार गले में प्रवेश कर जाता है तो खा ले। ये चारों यहां रत्नसहित वणिक् का दृष्टांत है। अध्वशीर्षक-मार्ग के अनादेश हैं। अंत में मनोज्ञ भोजन किया। उसका वमन हो गया। अन्यत्र ५८५१.पढम-बितिए दिया वी, उग्गालोणत्थि किं पुण निसाए। वह प्राप्त नहीं होता। सार्थ त्वरित गति से चला गया। तब गंधे य पडिगते या, ते पुण दो वी अणाएसा॥ उसी वान्त भोजन को सुगंधित कर खा लिया जाता है। पहले और दूसरे आदेश में दिन में भी उद्गार नहीं है तो ५८५७.जल-थलपहेसु रयणाणुवज्जणं तेण अडविपच्चंते। रात्री की तो बात ही क्या? ये आदेश हैं। गंध आती है तथा निक्खणण फुट्टपत्थर, मा मे रयणे हर पलावो॥ उद्गार गले में प्रवेश कर जाता है ये दोनों अनादेश हैं। ५८५८.घेत्तूण णिसि पलायण, अडवी मडदेहभावितं तिसितो। ५८५२.पडुपन्नऽणागते वा, संजमजोगाण जेण परिहाणी। पिबिउ रयणाण भागी, जातो सयणं समागम्म॥ __ण वि जायति तं जाणसु, साहुस्स पमाणमाहारे॥ एक रत्नवणिक् ने जल-स्थल पथ से गुजरते हुए रत्न वर्तमान और अनागत काल में जितने भोजन से संयम उपार्जित किए। घर लौटते समय म्लेच्छ देश की एक अटवी योगों की परिहानि नहीं होती, उतना मात्र भोजन करना, पार करनी थी। उसमें म्लेच्छ जाति के लोग रहते थे। वे उसको तुम साधु के आहार का प्रमाण जानो। चोरी कर आजीविका चलाते थे। उस रत्नवणिक ने चोरों के ५८५३.एवं पमाणजुत्तं, अतिरेगं वा वि भुंजमाणस्स। भय से एक स्थान पर उत्खनन कर रत्न उसमें गाड़ दिए और वायादीखोभेण व, एज्जाहि कहंचि उग्गालो। पत्थर के टुकड़ों को कपड़े में बांधकर चला। अटवी में वह इस प्रकार प्रमाणयुक्त आहार करता हुआ अथवा 'मेरे रत्नों का हरण मत करो'-यह प्रलाप करता हुआ जा कारणवश अतिरेक आहार लेता हुआ वायु आदि के क्षोभ से रहा था। चोरों ने पूछा-रत्न कहां हैं। उसने पत्थर के टुकड़े कथंचित् उद्गार आता है तो क्या करना चाहिए? दिखाए। चोरों ने उसे पागल समझ कर छोड़ दिया। रात्री में ५८५४.जो पुण सभोयणं तं, दवं व णाऊण णिग्गतं गिलति। वह गाड़े हुए रत्नों को लेकर पलायन कर गया। अटवी में तहियं सुत्तनिवाओ, तत्थाऽऽएसा इमे होति॥ प्यास से वह व्याकुल हो उठा। वहां मृत कलेवरों से भरे जो उस उद्गार को सभोजन या द्रवरूप में आया हुआ। पानी के कुंड से उसने दुर्गन्धित पानी पीया और रत्नों को जानकर मुख से आने पर भी उसे निगल जाता है, उसके सुरक्षित लेकर अपने स्वजनों से जा मिला। लिए प्रस्तुत सूत्र का निपात है। वहां ये आदेश होते हैं। ५८५९.वणियत्थाणी साह, रतणत्थाणी वता तु पंचेव। ५८५५.अच्छे ससित्थ चव्विय, उदयसरिसं च वंतं, तमादितुं रक्खते ताणि॥ मुहणिग्गतकवल भरियहत्थे य। वणिक् स्थानीय साधु, रत्नस्थानीय पांच महाव्रत, अंजलि पडिते दिडे, तस्करस्थानीय चोर, उदकसदृश वान्त, उसको कारणवश मासादारोवणा चरिमं॥ खाकर उन महाव्रतों की रक्षा करता है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक ५८६०. दियरातो अण्ण गिण्हति, असति तुरंते व सत्थे तं चेव । णिसि लिंगेणऽण्णं वा, तं चैव सुगंधदव्वं वा ॥ मनोज्ञ आहार खाया परंतु वमन हो गया तो दिन या रात में दूसरा ग्रहण करता है । न मिलने पर अथवा सार्थ का त्वरित गति से चले जाने पर रात्री में अन्यलिंग के वेश में दूसरा ग्रहण कर लेता है। वह भी प्राप्त न होने पर उसी वमन को सुगंधित द्रव्यों से वासित कर खा लेने में कोई दोष नहीं है। आहारविहि-पदं निग्मंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स अंतोपडिग्गहंसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, तं च संचाएइ विगिंचित्तए वा विसोहेत्तए वा तं पुव्वामेव लाइया विसोहिया विसोहिया ततो संजयामेव भुंजेज्ज वा पिबेज्ज वा । तं चनो संचाएइ विगिंचित्तए वा विसोहेत्तए वा तं नो अप्पणा भुंज्जेज्जा नो अण्णेसिं दावए, एगंते बहुफासुए पएसे पडिलेहित्ता पमज्जेत्ता परिवेयव्वे सिया ॥ (सूत्र ११) ५८६१. वंतादियणं रत्तिं, णिवारितं दिवसतो वि अत्थेणं । वंतमणेसियगहणं, सिया उ पडिवक्खओ सुत्तं ॥ रात्री में वान्त का आपान करना निवारित है तथा दिन में भी अर्थतः निवारित है। अनेषणीय भक्त-पान भी साधुओं द्वारा वान्त ही है, अतः वह प्रस्तुत सूत्र में प्रतिषिद्ध है। प्रस्तुत सूत्र स्याद् प्रतिपक्षतः अथवा अप्रतिपक्षतः । प्रतिपक्षतः जैसेपूर्वसूत्र में रात्री में वान्तापान निवारित है, प्रस्तुत सूत्र में दिन में अनेषणीय वान्त का ग्रहण निषिद्ध है। अप्रतिपक्षतः जैसे - पूर्वसूत्र में वान्त का प्रत्यापान अयुक्त है, प्रस्तुत सूत्र में भी वान्त अनेषणीय का ग्रहण अयुक्त माना गया है। ५८६२. पाणग्गहणेण तसा, गहिया बीएहि सव्व वणकाओ । रतगहणा होति मही, तेऊ व ण सो चिरट्ठाई ॥ यहां प्राणग्रहण से स गृहीत हैं। बीजग्रहण से सम्पूर्ण वनस्पतिकाय सूचित है। रजोग्रहण से पृथ्वीकाय गृहीत है ६११ तथा तेजःकाय चिरस्थायी नहीं होता अतः उसका विवेचन आदि नहीं होता । ५८६३.ते पुण आणिज्जंते, पडेज्ज पुब्विं व संसिया दव्वे । आगंतु तुब्भवा वा, आगंतूहिं तिमं सुत्तं ॥ वेस आदि जीव लाये जाने वाले भक्तपान में गिर जाते हैं, अथवा पहले ही ये जीव भक्तपान में स्थित होते हैं। वे दो प्रकार के हैं - आगंतुक और उससे उद्भूत । प्रस्तुत सूत्र आगंतुक त्रस आदि विषयक है। ५८६४. रसता पणतो व सिया, एमेव य आगंतू, पणगविवज्जा भवे दुविहा ॥ रसज और पनक आदि-ये अनागंतुक अर्थात् तद् उद्भव होते हैं, शेष पृथ्वीकायिक आदि जीव नहीं । इसी प्रकार पनक विवर्जित दो प्रकार के जीव त्रस और स्थावर - ये सारे आगंतुक होते हैं। ५८६५. सुत्तम्मि कड्डियम्मिं, जयणा गहणं तु पडितो दट्ठव्वो । लहुओ अपेक्खणम्मिं, आणादि विराहणा दुविहा ॥ ‘सुत्तम्मि कड्डियम्मि’—– सूत्र का आकर्षण अर्थात् सूत्र का उच्चारण कर, पदच्छेद कर यह सूत्रार्थ है ऐसा कहना । तत्पश्चात् साधु यतना से भक्तपान का ग्रहण करे। यतना यह है - गृहस्थ के हाथ में जो पिंड है उसका निरीक्षण करे। शुद्ध हो तो ग्रहण करे। फिर पात्र में गिरे हुए उस पिंड को देखे । यदि प्रेक्षा नहीं की जाती तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। इसमें संयमविराधना और आत्मविराधना- दोनों होती हैं। हज्ज अणगंगा ण पुण सेसा । ५८६६.अहिगारो असंसत्ते, संकप्पादी तु देस संसत्ते । संसज्जिमं तु तहियं, ओदण- सत्तू-दधि - दवाई ॥ जिस देश में भक्तपान त्रसजीवों से संसक्त नहीं होता वहां असंसक्त का अधिकार है अर्थात् साधुओं को वहीं विहरण करना चाहिए। संसक्त देश में संकल्प आदि पद होते हैं उसका प्रायश्चित्त होता है। वहां संसक्तियोग्य ओदन, सक्तु, दही, द्रव आदि द्रव्य होते हैं। ५८६७.संकप्पे पयभिंदण, पंथे पत्ते तहेव आवण्णे । चत्तारि छच्च लहु गुरु सट्ठाणं चेव आवण्णे ।। जिस देश में भक्त आदि प्राणियों से संसक्त होते हैं, वहां जाने का संकल्प करने पर चतुर्लघु, पदभेद करने पर चतुर्गुरु, मार्ग में चलने पर षड्लघु, उस देश में चले जाने पर षड्गुरु, वहीं द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों का संघट्टन करने पर स्वस्थान प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ = बृहत्कल्पभाष्यम् ५८६८.असिवादिएहिं तु तहिं पविट्ठा, ५८७३.संसज्जिमम्मि देसे, मत्तग सुक्ख पडिलेहणा उवरिं। संसज्जिमाइं परिवज्जयंति। ___एवं ताव अणुण्हे, उण्हे कुसणं च उवरिं तु॥ भूइट्ठसंसज्जिमदव्वलंभे, संसजिम देश में शुष्क पिंड मात्रक में लेकर गेण्हतुवाएण इमेण जुत्ता। उसकी प्रत्युपेक्षा करे और उसे प्रतिग्रह के ऊपर डाल दे। अशिव आदि कारणों से संसक्तदेश में प्रविष्ट होने पर यह अनुष्ण की विधि है। उष्ण कूर या कुसण हो वह संसजिम-संसक्त द्रव्य का परिवर्जन करते हैं। वहां यदि असंसक्त ही होता है, उसे प्रतिग्रह के सभी द्रव्यों से ऊपर संसजिम द्रव्य प्रभूततर प्राप्त होते हों तो इन उपायों से युक्त ग्रहण करे। होकर ग्रहण करें। ५८७४.गुरुमादीण व जोग्गं, एगम्मितरम्मि पेहिउं उवरिं। ५८६९.गमणाऽऽगमणे गहणे, पत्ते पडिए य होति पडिलेहा। दोसु वि संसत्तेसुं, दुल्लह पुव्वेतरं पच्छा। अगहिय दिट्ठ विवज्जण, अह गिण्हइ जं तमावज्जे॥ गुरु आदि के योग्य एक पात्र में ग्रहण करे, दूसरे पात्र में भिक्षा के लिए गमनागमन करने, दायक के हाथ से ग्रहण संसक्त पिंड की प्रत्युपेक्षणा कर ऊपर ग्रहण करे। यदि भक्तकरने, दायक के हस्तगत पिंड को देखने, पात्र-पतित पिंड पान दोनों संसक्त हों, तो जो भक्त-पान दुर्लभ हो वह पहले का निरीक्षण करने तथा उसका प्रत्युपेक्षण करना चाहिए। ग्रहण करे और जो सुलभ हो उसको पश्चात्। यदि अगृहीत पिंड में बस आदि देखा जाए तो उसका विवर्जन ५८७५.एसा विही तु दिद्वे, कर देना चाहिए। यदि ग्रहण कर लिया जाता है तो उससे आउट्टियगेण्हणे तु जं जत्थ। निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अणभोगगह विगिंचण, ५८७०.पाणाइ संजमम्मि, आता मयमच्छि कंटग विसं वा। खिप्पमविविंचति य जं जत्थ॥ मूइंग-मच्छि-विच्छुग-गोवालियमाइया उभए॥ यह विधि दृष्ट-ग्रहण की है। अप्रत्युपेक्षित संसक्त ग्रहण त्रस प्राणी की विराधना होती है यह संयमविराधना। करने पर जहां जो परितापना आदि होती है, उसका आत्मविराधना में मृतमक्षिका आदि संमिश्र भोजन करने पर प्रायश्चित्त आता है। अजानकारी में संसक्त ग्रहण करने पर रोग उत्पन्न होता है, भोजन में कंटक या विष भी हो सकता। उसकी शीघ्र ही परिष्ठापना करनी चाहिए। यदि शीघ्र है। पिपीलिका, मक्खी, बिच्छु, गोपालिक आदि जीवों को परिष्ठापना नहीं की जाती तो जब तक जिस प्राणी का भक्त के साथ खा लेने पर संयमविराधना, आत्मविराधना विनाशन होता है उसका यथायोग्य प्रायश्चित्त आता है। तथा मेधा आदि का उपघात होता है। ५८७६.सत्त पदा गम्मते, जावति कालेण तं भवे खिप्पं। ५८७१.पवयणघातिं व सिया, तं वियर्ड पिसियमट्ठजातं वा। कीरंति व तालाओ, अडुयमविलंबितं सत्ता॥ आदाण किलेसऽयसे, दिळंतो सेट्ठिकब्बडे॥ क्षिप्र का अर्थ है उतना समय जितने समय में सात पैर गृहस्थ शत्रुभाव से विकट-मद्य, मांस तथा अर्थजात- जाया जाए। जितने काल में अद्रुत-अविलंबित सात ताल स्वर्ण आदि भी दे सकता है। इससे प्रवचन का उपघात होता किये जाते हैं उतना काल विशेष क्षिप्र कहलाता है। है। इसलिए पतित पिंड का प्रत्युपेक्षण करना चाहिए। ५८७७.तम्हा विविंचितव्वं, आसन्ने वसहि दूर जयणाए। प्रत्युपेक्षण न करने पर वह अर्थजात किसी के लिए सागारिय उण्ह ठिए, पमज्जणा सत्तुग दवे य॥ 'आदान'-आजीविका का साधन भी बन सकता है। इसलिए प्राणीसंसक्त द्रव्य का परिष्ठापन कर देना अर्थजात का ग्रहण हो जाने पर उसके रक्षण का महान् चाहिए। यदि वसति निकट हो तो वहां परिष्ठापन कर दे। क्लेश उठाना पड़ता है, अयश होता है। यहां काष्ठश्रेष्ठी का । अथवा वसति दूर हो तो शून्यगृह आदि यतनापूर्वक परित्याग दृष्टांत है। कर देना चाहिए। यदि सागारिक देख रहा हो और भूभाग ५८७२.तम्हा खलु दट्ठव्वो, सुक्खग्गहणं अगिण्हणे लगा। उष्ण हो, तथा मुनि वहां खड़ा-खड़ा परिष्ठापित करता है तो आणादिणो य दोसा, विराहणा जा भणिय पुव्विं॥ प्रायश्चित्त का भागी होता है। परिष्ठापन भूमी का प्रमार्जन इसलिए निश्चितरूप से पात्र पतित पिंड को देखना करना चाहिए। सत्तू और द्रव का परिष्ठापन छाया में करना चाहिए। अन्य पात्र में शुष्ककूर का ग्रहण करना चाहिए। न चाहिए। करने पर चतुर्लघु और आज्ञाभंग आदि दोष और पूर्वकथित ५८७८.जावइ काले वसहिं, उवेति जति ताव ते ण विदंति। आत्मविराधना और संयमविराधना-दोनों होती हैं। तं पि अणुण्हमदवं तो, गंतूणमुवस्सए एडे॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक = जितने समय में वसति में पहुंचता है उतने समय में यदि प्राणी विनष्ट नहीं होते तो वसति में ले जाएं। वह द्रव्य अनुष्ण और अद्रव होना चाहिए। अनुष्ण और अद्रव द्रव्य उपाश्रय में ले जाकर 'एडयेत्'-परिष्ठापन कर दे। उष्ण और द्रव पदार्थ शून्यगृह में परिष्ठापित करे। यदि वसति दूर हो तो अनुष्ण भी शून्यगृह में परिष्ठापित करे। ५८७९.सुण्णघरादीणऽसती, दूरे कोण वतिअंतरीभूतो। __उक्कुडु पमज्ज छाया, वति-कोणादीसु विक्खिरणं॥ यदि शून्यगृह न हों तो दूर एकान्त में जाकर, वृति से अन्तरित होकर एक कोने में ऊकडू बैठकर, भूमी को प्रमार्जित कर, छाया में वृति के कोने में परिष्ठापित कर दे। ५८८०.सागारिय उण्ह ठिए, अपमज्जंते य मासियं लहुगं। वोच्छेदुड्डाहादी, सागारिय सेसए काया। सागारिक वहां हो, उष्ण प्रदेश में स्थित होकर यदि अप्रमार्जित भूमी में परिष्ठापित करता है तो लघुमास। सागारिक के देखते परिष्ठापित करने पर भक्तपान का व्यवच्छेद और उड्डाह आदि होता है। शेष अर्थात् उष्णादि वय में परिष्ठापित करने पर पृथिवी आदि काय की विराधना होती है। ५८८१.इइ ओअण सत्तुविही, सत्तू तद्दिणकतादि जा तिण्णि। वीसुं वीसुं गहणं, चतुरादिदिणाइ एगत्थ॥ यह ओदन जो संसक्त हो, उसके परिष्ठापन की विधि कही गई है। संसक्त सक्तू के परिष्ठापन की विधि यह है। उसी दिन बने हुए सक्तू ग्रहण करे। दूसरे, तीसरे दिन बने हुए सक्तू ग्रहण करने हों तो पृथक्-पृथक् ग्रहण करने चाहिए। तत्पश्चात् चार दिन आदि में बने हुए सक्तू एकत्र ग्रहण किए जा सकते हैं। उनकी प्रत्युपेक्षणा विधि भिन्न है। ५८८२.नव पेहातो अदिद्वे, दिद्वे अण्णाओ होति नव चेव। एवं नवगा तिण्णी, तेण परं संथरे उज्झे॥ यदि उन सक्तूओं की नौ बार प्रत्युपेक्षणा करने पर भी प्राणजातीय न दिखाई दें तो वे सक्तू खाए जा सकते हैं। यदि दिखाई दें तो पुनः नौ बार प्रत्युपेक्षा करे। फिर तीसरी बार नौ प्रत्युपेक्षा कर उन्हें खाए। यदि शुद्ध न हों तो उनका परिष्ठापन कर दे। यदि उनके बिना निर्वाह न हो तो और प्रत्युपेक्षा तब तक करे, जब तक वे शुद्ध न हों। ५८८३.आगरमादी असती, कप्परमादीसु सत्तुए उरणी। पिंडमलेवाडाण य, कातूण दवं तु तत्थेव॥ यदि सक्तूओं में जीव-जन्तु हो तो आकर आदि में परिष्ठापित करें। यदि आकर न हो तो कर्पर आदि में सक्तू रखकर, चारों ओर पाल बांधकर अनाबाध प्रदेश में रख दें। जो सक्तू शुद्ध हों और अलेपकृत हों उन्हें पिंडित कर, उसी पात्र में द्रव पदार्थ लेकर उसके साथ उसे खा ले। ५८८४.आयामु संसट्टसिणोदगं वा, गिण्हति वा णिव्वुत चाउलोदं। गिहत्थभाणेसु व पेहिऊणं, मत्ते व सोहेत्तुवरिं छुभंति॥ कांजी यदि संसक्त हो जाए तो आयाम अवस्रावण, संसृष्टपानक-गोरस के बर्तन का धावन, निर्वृत्त उष्णोदक, चाउलोदक ग्रहण करते हैं। इनके अभाव में उसी कांजी का गृहस्थ के भाजन में प्रत्युपेक्षणा करे, उसको स्वयं के पात्र में डालकर शोधित करे, यदि असंसक्त हो तो उसे पात्र के ऊपर प्रक्षिप्त करे। ५८८५.बिइयपद अपेक्खणं तू, गेलण्ण-ऽद्धाण-ओममादीसु। तं चेव सुक्खगहणे, दुल्लभ दव दोसु वी जयणा॥ अपवादपद में ग्लानत्व, अध्वा, अवम आदि कारणों में पिंड का अप्रत्युपेक्षण भी विहित है। यह द्वितीय पद शुष्क ओदन के ग्रहण के विषय में मानना चाहिए। यदि द्रव पदार्थ दुर्लभ हो और वह पहले ले लिया गया हो, शुष्क के लिए दूसरा पात्र न हो तो दोनों-अप्रत्युपेक्षणा और शुष्कग्रहण के विषय में यह यतना करनी चाहिए। ५८८६.अच्चाउर सम्मूढो, वेलाऽतिक्कमति सीयलं होइ। असढो गिण्हण गहिते, सुज्झेज्ज अपेक्खमाणो वि॥ कोई मुनि अतीव ग्लानत्व के कारण संमूढ़ है और वह जितनी वेला में प्रत्युपेक्षण करता है, उतने में वेला अतिक्रान्त हो जाती है और वह पदार्थ शीतल हो जाता है। इस अशठविशुद्धभाव से ग्रहण करता हुआ या गृहीत पिंड की प्रत्युपेक्षणा न करता हुआ भी वह शुद्ध है, उसे प्रायश्चित्त नहीं आता। ५८८७.ओमाणपेल्लितो वेलऽतिक्कमो चलिउमिच्छति भयं वा। एवंविहे अपेहा, ओमे सतिकाल ओमाणे॥ कोई सार्थ 'अवमानप्रेरित' अर्थात् अनेक भिक्षाचरों से आकीर्ण है, जितने समय में प्रत्युपेक्षा की जाती है उतने समय में वह सार्थ वहां से चल पड़ता है। उसके पश्चात् जाने से भय बना रहता है। ऐसी स्थिति में अप्रेक्षा-प्रत्युपेक्षा के बिना भी पिंड लिया जा सकता है। अवम में प्रत्युपेक्षा करने पर 'सत्काल'–भिक्षाकाल बीत जाता है अथवा अवमानभिक्षाचरों से भर जाता है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ ५८८८. तो कुज्जा उवओगं, पाणे दट्टूण तं परिहरेज्जा । कुज्जा ण वा वि पेहं, सुज्झइ अतिसंभमा सो तु ॥ यदि उपरोक्त कारणों से प्रत्युपेक्षा नहीं होती है तो उपयोग करना चाहिए । यदि उपयोग करने पर प्राणी दिखाई दें तो उस भक्त-पान का परिहार कर देना चाहिए। वह प्रेक्षा करे या न करे, अति-संभ्रम के कारण वह मुनि शुद्ध है। ५८८९.वीसुं घेप्पइ अतरंतगस्स बितिए दवं तु सोहेति । ते उ असुक्खगहणं, तं पि य उण्हेयरे पेहे ॥ ग्लान के लिए पृथक् पात्र लिया जाए। द्वितीय पात्र में द्रव का शोधन किया जाए। तीसरा पात्र न होने के कारण उसी पात्र में शुष्क भी ले ले। दोनों - द्रव और शुष्क एक ही पात्र में आ जायेंगे। वह भी उष्ण ले । इतरत् शीतल की प्रत्युपेक्षा करे। यदि वह असंसक्त हो तो ले, अन्यथा नहीं । ५८९०. अद्धाणे ओमे वा, तहेव वेलातिवातियं णातुं । दुल्लभदवे व मा सिं, धोवण-पियणा ण होहिंति ॥ अध्वा में, अवमौदर्य में, वेला का अतिक्रम जानकर तथा शुष्क को पृथक् ग्रहण न करे। द्रव प्राप्त होना दुर्लभ है इसलिए साधुओं को पात्र धोने या पीने के लिए अभाव न हो, इसलिए शुष्क और द्रव एक ही पात्र में ले । ५८९१. आउट्टिय संसत्ते, देसे गेलण्णऽद्धाण कक्खडे अखिप्पं । इयराणि य अदाणे, कारण गहिते य जतणाए । 'आकुट्टी से' अर्थात् जानते हुए भी संसक्त देश में जाते हैं और संसक्त पानक लेते हैं और ग्लानत्व, अध्वा, कर्कश - अवमौदर्य में उसका शीघ्र परित्याग नहीं करते। 'इतर' सागारिक के देखते परिष्ठापन करना आदि अध्वा में करते हैं। कारण में उस गृहीत संसक्त पानक का यतनापूर्वक विवेचन विधि ज्ञातव्य है । ५८९२. आउट्टि गमण संसत्त गिण्हणं न य विविंचए खिप्पं । ओम गिलाणे वेला, विहम्मि सत्थो वइक्कमइ ॥ आकुट्टि - संसक्त देश में गमन, संसक्त ग्रहण और उसका क्षिप्र विचिणा न करना - यह मान्य है । क्योंकि अवमौदर्य में वेला बीत जाती है, ग्लान के लिए वेला का अतिक्रमण हो जाता है, मार्ग में सार्थ व्यतिक्रान्त हो जाता है, अतः संसक्त का क्षिप्र परित्याग नहीं करना चाहिए। ५८९३. असिवादी संसत्ते, संकप्पादी पदा तु जह सुज्झे । संसद सत्तु चाउल, संसत्तऽसती तहा गहणं ॥ अशिव आदि कारणों से संसक्त देश में संकल्प आदि पदों को करने वाला भी शुद्ध है। यदि वहां असंसक्त पानक बृहत्कल्पभाष्यम् प्राप्त न हो तो संसक्त पानक, तंदुलोदक, संसक्त सक्तू को ग्रहण करे । ५८९४. ओवग्गहियं चीरं, गालणहेउं घणं तु गेण्हंति । तह वि य असुज्झमाणे, असती अद्भाणजयणा उ । औपग्रहिक चीवर अर्थात् सघन चीवर संसक्त पानक को छानने के लिए ग्रहण किया जाता है। यदि उससे भी छानने पर शुद्ध नहीं होता है और न तंदुलधावन आदि प्राप्त होता है तो मार्ग में जाते हुए जो पानकयतना गाथा २९२२ में कही गई है, वह करणीय है। ५८९५.संसत्त गोरसस्सा, ण गालणं णेव होइ परिभोगो । कोडिदुग-लिंगमादी, तहिं जयणा णो य संसत्तं ॥ यदि संसक्त गोरस प्राप्त होता है तो न उसको छानना चाहिए और न उसका परिभोग करना चाहिए। किन्तु दो कोटियों-विशोधिकोटि से तथा अविशोधिकोटि से भक्तपान ग्रहण करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । अन्यलिंग करके भक्तपान का उत्पादन करे किन्तु संसक्त गोरस ग्रहण न करे । ५८९६. सागारिय सव्वत्तो, णत्थि य छाया विहम्मि दूरे वा । वेला सत्थो व चले, ण णिसीय पमज्जणे कुज्जा ॥ मार्ग में जाते हुए चारों ओर सागारिक हैं, छाया नहीं है, अथवा दूर मार्ग पर छाया है, वहां तक पहुंचने पर वेला अतिक्रान्त हो जाती है, सार्थ प्रस्थित हो जाता है, वहां न बैठे, न प्रमार्जन करे। ऐसी स्थिति में उष्ण भूभाग में भी परिष्ठापन कर दे। पाणगविहि-पदं निग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडिया अणुप्पविट्ठस्स अंतोपडिग्गहंसि दए वा दगरए वा दगफुसिए वा परियावज्जेज्जा, से य उसिणे भोयणजाए भत्तव्वे सिया, से य सीए भोयणजाए तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अन्नेसि दावए, एगंते बहुफाए पसे पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिवेयव्वे सिया | (सूत्र १२) ५८९७. आहारविही वृत्तो, अयमण्णो पाणगस्स आरंभो । कायचउक्काऽऽहारे, कायचउक्कं च पाणम्मि ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक = = ६१५ पूर्वसूत्र में आहारविधि का निरूपण किया गया है। यह द्रव्य के चार प्रकार हैंअन्य पानकविधि का सूत्रारंभ किया जाता है। आहार के सूत्र १. उष्ण-शीत ३. उष्ण-उष्ण में काय-चतुष्क का ग्रहण किया गया है-प्राणग्रहण से त्रस, २. शीत-उष्ण ४. शीत-शीत। बीजग्रहण से वनस्पति, रजोग्रहण से पृथ्वी और अग्निकाय। चाउलोदक, चंदन और घृत-ये शीत-शीत होते हैं। प्रस्तुत सूत्र में भी कायचतुष्क-शीतोदक अप्काय, उष्णोदक ५९०३.आयाम अंबकंजिय, अग्निकाय, नालिकेरपानक आदि वनस्पतिकाय, दुग्ध-त्रस जति उसिणाणुसिण तो विवागे वी। काय। पानक में भी ये चार काय हैं। उसिणोदग-पेज्जाती, ५८९८.परिमाणे नाणत्तं, दगबिंदुं दगरयं वियाणाहि। उसिणा वि तणुं गता सीता। सीभरमो दगफुसितं, सेसं तु दगं दव खरं वा॥ आयाम, अम्लकांजी-ये यदि उष्ण हैं तो इनका विपाक इनके परिमाण में नानात्व है। दक बिन्दु को दकरज भी उष्ण ही होता है, उष्णोदक-पेय आदि द्रव्य उष्ण होने पर जानो। सीभर को दकस्पर्शित जानो। शेष जो प्रभूत उदक है भी शरीर में जाकर शीत हो जाते हैं। उसे दक कहते हैं। वह द्रव या खर कहलाता है।' ५९०४.सुत्ताइ अंबकंजिय-घणोदसी-तेल्ल-लोण-गुलमादी। ५८९९.एमेव बितियसुत्ते, पलोगणा गिण्हणे य गहिते य। सीता वि होति उसिणा, दुहतो वुण्हा व ते होंति।। __ अणभोगा अणुकंपा, पंतत्ता वा दगं देज्जा॥ सुत्त-मदिराखोल, अम्लकांजी, अम्लघनविकृति पूर्वसूत्र से यह द्वितीय सूत्र है। पानक को ग्रहण करते या अम्ल-तक्र, तैल, लवण, गुड़ आदि-ये द्रव्य शीत होने पर ग्रहण कर लेने पर प्रत्युपेक्षण करना चाहिए। उदक तीन भी उष्ण परिणाम वाले होते हैं। ये सारे द्वितीय भंग में कारणों से दिया जाता है-अनाभोग-विस्मृति के कारण, आते हैं। तृतीय भंग में उष्ण और उष्ण परिणाम वाले द्रव्य अनुकंपावश, प्रत्यनीकता से। आते हैं। ५९००.सुद्धम्मि य गहियम्मी, पच्छा णाते विगिंचए विहिणा। ५९०५.परिणामो खलु दुविहो, कायगतो बाहिरो य दव्वाणं। मीसे परूविते उण्ह-सीतसंजोग चउभंगो॥ सीओसिणत्तणं पि य, आगंतु तदुब्भवं तेसिं॥ ___ यदि वह उदक शुद्ध पात्र में लिया गया है, फिर ग्रहण परिणाम दो प्रकार का है-कायगत और बाह्य। यह द्रव्यों करने के पश्चात् यह ज्ञात हुआ कि यह शुद्ध नहीं है तो का परिणाम है। शरीर में आहारित द्रव्यों का जो शीत आदि विधिपूर्वक उसका परिष्ठापन कर दे। मिश्र अर्थात् पात्र में परिणाम होता है वह कायगत है और जो आहारित द्रव्यों का पहले उष्ण द्रव लिया हुआ है, पश्चात् पानी ले लिया गया, मूल परिणाम है वह बाह्य है। बाह्य परिणाम दो प्रकार का वह मिश्र कहलाता है। उष्ण-शीत के संगम से चतुर्भंगी है-शीत या उष्ण। वह भी दो प्रकार का है-आगंतुक और होगी। तद्उदभव। ५९०१.तत्थेव भायणम्मी, अलब्भमाणे व आगरसमीवे। ५९०६.साभाविया व परिणामिया व सीतादतो तु दव्वाणं। सपडिग्गहं विगिंचइ, अपरिस्सव उल्लभाणे वा॥ असरिससमागमेण उ, णियमा परिणामतो तेसिं॥ रिक्त पात्र में जो उदक लिया उसके परिष्ठापन की यह द्रव्यों के शीत आदि पर्याय स्वाभाविक या परिणामिक विधि है। गृहस्थ ने जिस भाजन से वह उदक दिया है, उसी होते हैं। असदृशसमागम से नियमतः उन द्रव्यों का में उसको डाल दे। यदि गृहस्थ उस पात्र में न डालने दे तो परिणाम-पर्यायान्तर होता है। उसे आकर के समीप जाकर उसकी परिष्ठापना कर दे। या ५९०७.सीया वि होति उसिणा, पात्र सहित उसको वृक्ष की छाया में रख दे। यदि अन्य पात्र उसिणा वि य सीयगं पुणरुवेंति। न हो तो अपरिस्रावी आर्द्र भाजन में डाल दे। दव्वंतरसंजोगं, ५९०२.दव्वं तु उण्हसीतं, सीउण्हं चेव दो वि उण्हाई। कालसभावं च आसज्ज॥ दुण्णि वि सीताई चाउलोद तह चंदण घते य॥ द्रव्यान्तर के संयोग से तथा काल-स्वभाव से शीत द्रव्य १. कांजिक और पानी का पात्र पास-पास रखे हुए हैं। कोई विस्मृतिवश कांजिक के बदले पानी दे देता है। ग्रीष्म का समय। अनुकंपावश शीतल पानी दे देता है। कोई प्रत्यनीकता से जानबूझकर कांजिक के बदले पानी दे देता है। २. सुत्त-मदिरा खोल यह देशविशेष में प्रसिद्ध कोई द्रव्य-विशेष। (वृ. पृ. १५५७) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् ६१६ भी उष्ण और उष्ण द्रव्य भी शीत हो जाते हैं। यह आगंतुक परिणाम है। ५९०८.तावोदगं तु उसिणं, सीया मीसा य सेसगा आवो। एमेव सेसगाई, रूवीदव्वाइं सव्वाइं॥ तापोदक उष्ण होता है। शेष अप्काय द्रव्य शीत तथा शीत-उष्ण उभयस्वभाव वाले होते हैं। इसी प्रकार शेष सभी रूपी द्रव्य (अप्कायविरहित) उष्ण, शीत या शीतोष्ण होते हैं। ५९०९.एएण सुत्त न गतं, जो कायगताण होइ परिणामो। सीतोदमिस्सियम्मि उ, दव्वम्मि उ मग्गणा होति॥ जो यह कायगत द्रव्यों का परिणाम कहा गया है यह कोई सूत्र का विषय नहीं है। सूत्र में शीतोदकमिश्रित द्रव्य का अधिकार है। वहां यह मार्गणा होती है। ५९१०.दुहतो थोवं एक्वेक्कएण अंतम्मि दोहि वी बहुगं। ___ भावुगमभावुगं पि य, फासादिविसेसितं जाणे॥ पूर्वगृहीत द्रव्य में यदि शीतोदक गिरता है तो यहां चतुर्भंगी होती है १. स्तोक में स्तोक गिरा। २. स्तोक में बहुत गिरा। ३. बहुत में स्तोक गिरा। ४. दोनों बहुत अर्थात् बहुत में बहुत गिरा। जो द्रव्य गिरता है या जहां गिरता है वह विशेष स्पर्श आदि से भावुक या अभावुक होता है। ५९११.चरमे विगिंचियव्वं, __दोसु तु मज्झिल्ल पडिए भयणा उ। खिप्पं विविचियव्वं, मायविमुक्केण समणेणं॥ चरम अर्थात् शीत में शीत गिरा, स्तोक में स्तोक या बहुक में बहुक-तो शीघ्र परिष्ठापन कर देना चाहिए। दोनों मध्यम भंगों-उष्ण में शीत गिरा और शीत में उष्ण गिरा-इन दोनों में परिष्ठापन की भजना है। उष्ण में शीत गिरा उसका शीघ्र परिष्ठापना कर देना चाहिए। श्रमण माया से मुक्त होकर सहजभाव से वैसा करे। ५९१२.थोवं बहुम्मि पडियं, उसिणे सीतोदगं ण उज्झंती। हंदि हु जाव विगिंचति, भावेज्जति ताव तं तेणं॥ बहुक में स्तोक गिरा-उष्ण पानी बहुत है और उसमें स्तोक शीतोदक गिरा तब उसका परित्याग नहीं करते। जब तक वे उसका परिष्ठापन करते हैं तब तक वह शीतोदक उस उष्णोदक से परिणत हो जाता है। ५९१३.जं पुण दुहतो उसिणं, सममतिरेगं व तक्खणा चेव। मज्झिल्लभंगएसु, चिरं पि चिट्ठे बहुं छूढं। जो दोनों प्रकार से उष्ण हो-उष्ण में उष्ण गिरा। दोनों तुल्य हैं। ठीक हैं। दोनों में एक अधिकतर हो तो तत्क्षण सचित्तभाव का अपहार नहीं होता। जो दो मध्यम भंग हैं-उष्ण में शीत और शीत में उष्ण-यदि इनमें स्तोक में बहुत क्षिप्त है तो वह चिरकाल तक सचित्त ही रहेगा। उसका भी परिष्ठापन कर देना चाहिए। ५९१४.वण्ण-रस-गंध-फासा, जह दव्वे जम्मि उक्कडा होति। तह तह चिरं न चिट्ठइ, असुभेसु सुभेसु कालेणं॥ जिस द्रव्य में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श उत्कट होते हैं, उस द्रव्य के साथ मिश्रित उदक चिरकाल तक सचित्त नहीं रहता। जो अशुभ वर्ण आदि उत्कट हैं तो क्षिप्र परिणमन हो जाता है और यदि शुभ वर्ण आदि उत्कट हैं तो काल से परिणमन होता है। ५९१५.जो चंदणे कडुरसो, संसट्ठजले य दूसणा जा तु। सा खलु दगस्स सत्थं, फासो उ उवग्गहं कुणति॥ तंदुलोदक चन्दन के साथ मिश्रित हो गया। चंदन का कटुक रस तंदुलोदक का शस्त्र होता है। किन्तु चन्दन का स्पर्श शीतल होने के कारण जल का उपग्रह करता है, इसलिए वह चिरकाल से परिणत होता है। इसी प्रकार संसृष्टजल की जो दूषणा अर्थात् अम्लरसता है वह उदक का शस्त्र है, किन्तु उसका स्पर्श शीतल होने के कारण वह उसका उपग्रह करता है, वह चिरकाल के बाद परिणत होता है। ५९१६.घयकिट्ट-विस्सगंधा, दगसत्थं मधुर-सीतलं ण घतं। कालंतरमुप्पण्णा, अंबिलया चाउलोदस्स॥ घृतकिट्ट तथा कच्चे मांस की गंध ये दोनों उदक के शस्त्र हैं। जो रस से मधुर और स्पर्श से शीतल है वह उदक का उपग्रह करता है अतः चिरकाल से परिणत होता है। चाउलोदक में कुक्कुसों के द्वारा कालांतर में उत्पन्न अम्लता भी उदक का शस्त्र होती है। ५९१७.अब्बुक्कंते जति चाउलोदए छुब्भते जलं अण्णं। दोण्णि वि चिरपरिणामा, भवंति एमेव सेसा वि॥ अव्युत्क्रान्त-अपरिणत चाउलोदक में दूसरा सचित्त जल डाला जाता है तो दोनों उदक चिरकाल से परिणत होते हैं। इसी प्रकार शेष भी। जैसे-संसृष्टपानक, फलपानक आदि में भी यदि सचित्त पानी डाला जाता है तो वे भी चिरकाल से परिणत होते हैं। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक = ६१७ ५९१८.थंडिल्लस्स अलंभे, अद्धाणोम असिवे गिलाणे वा। सुन्दा अविविंचंता, आउट्टिय गिण्हमाणा वा॥ स्थंडिल न मिलने पर, अध्वा, दुर्भिक्ष, अशिव, ग्लानत्व आदि कारणों में अपरिणत पानक की परिष्ठापना न करते हुए तथा जानते हुए भी अपरिणत पानक को लेते हुए भी शुद्ध हैं। मेहुणपडिसेवणा-पदं निग्गंथीए राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अण्णयरे पसुजातीए वा पक्खिजातीए वा अण्णयरं इंदियजायं परामुसेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, हत्थकम्मपडिसेवणपत्ता आवज्जइ मासियं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र १३) निग्गंथीए य राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अण्णयरे पसुजातीए वा पक्खिजातीए वा अण्णयरंसि सोयंसि ओगाहेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र १४) ५९१९.पढमिल्लुग-ततियाणं, चरितो अत्थो वताण रक्खट्ठा। मेहुणरक्खट्ठा पुण, इंदिय सोए य दो सुत्ता॥ पूर्वसूत्र में पहले और तीसरे महाव्रत की रक्षा के लिए अर्थ-उपाय बताए गए हैं। प्रस्तुत दो सूत्रों में मैथुनव्रत की रक्षा के लिए इन्द्रिय विषयक तथा श्रोतविषयक चर्चा है। ५९२०.वानर छगला हरिणा, सुणगादीया य पसुगणा होति। बरहिण चासा हंसा, कुक्कुडग-सुगादिणो पक्खी॥ वानर, छगल, हरिण, शुनक आदि पशुगण होते हैं। मयूर, चास, हंस, कुक्कुट, शुक आदि पक्षी होते हैं। ५९२१.जहियं तु अणाययणा, पासवणुच्चार तहिं पडिक्कुटुं। लहुगो य होइ मासो, आणादि सती कुलघरे वा। जहां ये पशु, पक्षी होते हैं वह अनायतन कहलाता है। वहां आर्याओं का अवस्थान, प्रस्रवण और उच्चार आदि के लिए जाना प्रतिकुष्ट है, निषिद्ध है। यदि वहां जाती हैं तो लधुमास तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। वहां भुक्तभोगिनी के स्मृति उभरती है और स्वजन पुनः उन्हें अपने घर ले जाना चाहते हैं। ५९२२.भुत्ता-ऽभुत्तविभासा, तस्सेवी काति कुलघरे आसि। बंधव तप्पक्खी वा, दट्ठण लयंति लज्जाए। जो भुक्तभोगिनी होती है, उसके स्मृति होती है और जो अभुक्तभोगिनी होती है उसके कौतुक होता है। वह जब अपने कुलघर में थी तब पशु-पक्षी गण के साथ प्रतिसेवना करती थी। उनको देखकर वह प्रतिगमन कर सकती है। अथवा उसके बन्धु वैसे अनायतन में रहने वाली साध्वी को अपने घर ले जाते हैं। ५९२३.आलिंगणादिगा वा, अणिय-मादीसु वा निसेविज्जा। एरिसगाण पवेसो, ण होति अंतेपुरेसुं पि॥ वे पशु उस आर्यिका का आलिंगन करते हैं, वह भी उनका आलिंगन करती है। वे वानर आदि स्वभावतः अनिभृत-कन्दर्पबहुल और मायावी होते हैं। वह आर्यिका उनसे क्रीड़ा करती है। ऐसे पशु-पक्षियों का प्रवेश अन्तःपुर में भी नहीं होता। ५९२४.कारणे गमणे वितहिं, विविंचमाणीए आगतो लिहेज्जा। गुरुगो य होति मासो, आणाति सती तु स च्चेव॥ कारणवश वैसे अनायतन में रहने पर उच्चारभूमी तथा प्रस्रवणभूमी में वह आर्या परिष्ठापन के लिए जाती है तब वानर आदि आकर उसका आलिंगन करे और वह आर्या उसके स्पर्श को मन से चाहे तो उसे गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा पूर्वोक्त स्मृति आदि दोष होते हैं। ५९२५.वंदेण दंडहत्था, निग्गंतुं आयरंति पडिचरणं। पविसंते वारिति य, दिवा वि ण उ काइयं एक्का।। आर्यायें वृन्द-समूहरूप में हाथ में दंड लेकर बाहर निकलें और कायिकी आदि करे। वानरों की दंड से ताड़ना करे और प्रतिश्रय में उनके प्रवेश को रोके। दिन में भी कायिकीभूमी में एकाकिनी न जाए। ५९२६.एवं तु इंदिएहिं, सोते लहुगा य परिणए गुरुगा। बितियपद कारणम्मि, इंदिय सोए य आगाढे॥ इस प्रकार इन्द्रियसूत्र में प्रायश्चित्त विधि बताई है। जहां Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ पशु-पक्षी स्रोतोवगाहन करते हैं वहां रहने वाली आर्याओं के चतुर्लघु और यदि आर्या उसमें परिणत होती है तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। द्वितीय पद में आगाद कारण में इन्द्रिय और श्रोत (योनि) में परामर्श को चाहती है। ५९२७. गिहिणिस्सा एगागी, ताहिं समं णिति रत्तिमुभयस्सा । दंडगसारक्खणया, वारिंति दिवा य पेल्लंते ॥ कारणवश कोई एकाकिनी साध्वी गृहस्थ की निश्रा में रहती है तो वह रात्री में प्रस्रवण और उच्चार के व्युत्सर्जन में वहां की स्त्रियों के साथ बाहर जाती है और वानर आदि के उपद्रव में डंडे से अपना संरक्षण करती है। वह दिन में भी प्रतिश्रय में प्रवेश करने वाले वानरों का निवारण करती है। ५९२८. अट्ठाण सद्द आलिंगणादिपाकम्मऽतिच्छिता संती । अच्चित्त बिंब अणिहुत, कुलघर सड्डादिगे चेव ॥ किसी साध्वी के मोहोद्भव हो गया तो उसे उस स्थिति में शब्दप्रतिबद्ध वसति में रखना चाहिए। वहां से वह स्त्रियों के साथ किए जाने वाले आलिंगन आदि को देख सके। इससे मोहकर्म उपशांत न हो तो पादकर्म, उससे भी यदि उपशांत न हो तो अचित्त बिंब से प्रतिसेवना कराई जाती है। यदि उससे भी उपशांत न हो तो जो अनिभृत पुरुष - नपुंसक से सब कुछ कराए, तत्पश्चात् कुलगृह में भगिनी या भोजाई के साथ होने वाले आलिंगन आदि दिखाए जाते हैं। उसके अभाव में श्राविका का या यथाभद्रिका का दिखाया जाता है। बंभचेरसुरक्खापदं नो कप्पइ निम्गंथीए एमाणियाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्त वा पविसित्तए वा, एवं गामाणुगामं वा दूइज्जित्तए वा वासावासं वा वत्थए ॥ (सूत्र १५) ५९२९.बंभवयरक्खणट्ठा, एगधिगारा तु होंतिमे जा एगपाससायी, विसेसतो ब्रह्मव्रत की रक्षा के लिए पूर्वोक्त दो सूत्र प्रस्तुत सारे 'एकपार्श्वशायिसूत्र' पर्यन्त सुत्ता। संजतीवग्गे ॥ कहे गए हैं। सभी सूत्र बृहत्कल्पभाष्यम् एकाधिकार वाले उसी ब्रह्मव्रत की रक्षा के लिए कहे जाते हैं। विशेषतः संयतीवर्ग के लिए ये सारे सूत्र हैं। इनमें किंचित् निर्ग्रन्थों के लिए है, जैसे- एकाकिसूत्र । ५९३०. एगागी वच्चंती, अप्पा त महव्वता परिच्चत्ता । लहु गुरु लहुगा गुरुगा, भिक्ख वियारे वसहि गामे ॥ अकेली जाती हुई निर्ग्रन्थी आत्मा को तथा महाव्रतों को परित्यक्त कर देती है। यदि भिक्षाचर्या में एकाकिनी जाती है तो लघुमास, बहिर्विचारभूमी में जाने पर गुरुमास, वसति में एकाकी जाने पर चतुर्लघु, ग्रामानुग्राम एकाकी जाने पर चतुर्गुरु । ५९३१. मासादी जा गुरुगा, थेरी- खुड्डी- विमज्झ-तरुणीणं । तव कालविसिट्ठा वा, चउसुं पि चउण्ह मासाई || स्थविरा यदि अकेली भिक्षा आदि के लिए जाती है तो मासलघु, क्षुल्लिका का मासगुरु, विमध्यमा का चतुर्लघु और तरुणी का चतुर्गुरु । अथवा क्षुल्लिका के इन चारों स्थानों में चार मास गुरु तप और काल से विशेषित करने चाहिए । विमध्यमा के चारों स्थानों में चारलघु, तप और काल से विशेषित तथा तरुणी के चारों स्थानों में चतुर्गुरु तप और काल से विशेषित । ५९३२.अच्छंती वेगागी, किं ण्हु हु दोसे ण इत्थिगा पावे । आमोसग तरुणेहिं किं पुण पंथम्मि संका य॥ शिष्य ने पूछा- क्या अकेली स्त्री प्रतिश्रय में रहती हुई दोषों को प्राप्त नहीं होती कि जिससे भिक्षाटन आदि अकेली के लिए प्रतिषेध करते हैं ? आचार्य कहते हैं- अकेली रहने पर वहां भी दोष को प्राप्त होती है। परंतु मार्ग में अकेली स्त्री को देखकर स्तेन और तरुण अनेक दोष उत्पन्न करते हैं। अकेली साध्वी को देखकर शंका होती है । ५९३३. एगाणियाए दोसा, साणे तरुणे तहेव पडिणीए । भिक्खऽविसोहि महव्वत, तम्हा सबितिज्जियागमणं ॥ अकेली साध्वी भिक्षाचर्या के लिए जाती है तो ये दोष होते हैं-- कुत्ता काट सकता है, तरुण उपसर्ग करता हैं, प्रत्यनीक मारपीट कर सकता है, अनेक कारणों से भिक्षा की विशोधि नहीं रहती, महाव्रतों की विराधना होती है-इन दोषों के कारण भिक्षाचर्या में दो साध्वियां जाएं । ५९३४. असिवादि मीससत्थे, इत्थी पुरिसे य पूतिते लिंगे । एसा उ पंथ जयणा, भाविय वसही य भिक्खा य ॥ अशिव आदि कारणों से अकेली भी होती है। ग्रामान्तर जाते समय वह स्त्रीसार्थ के साथ जाए। उसके अभाव में . Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक पुरुषमिश्रित स्त्रीसार्थ के साथ, उसके अभाव में केवल पुरुष सार्थ के साथ या पूजित लिंग धारण कर जाए। यह मार्गगत यतना है। ग्राम को प्राप्तकर साध्वी साधु-भावित कुल में ठहरे और वहीं भिक्षा करे। अचेल आर्या को देखकर प्रव्रज्या लेने वाली कुलस्त्री का मन पलट जाता है। कोई दूसरा व्यक्ति उसको प्रव्रज्या से निवारण कर देता है। कोई उदीर्ण मोहवाला व्यक्ति उस अप्रावृत आर्या को देखकर अपने साथ आने के लिए प्रेरित करता है। वह भी उसी में प्रतिबंध कर उसके साथ गृहस्थरूप में चली जाती है। 'डिंडिमदोष' अर्थात् गर्भोत्पत्ति आदि होती है। ये सारे नग्न रहने के दोष है। अतः आर्या को अचेल नहीं होना चाहिए। नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए॥ (सूत्र १६) ५९३५.वुत्तो अचेलधम्मो, इति काइ अचेलगत्तणं ववसे। __नो कप्पइ निग्गंथीए अपाइयाए जिणकप्पो वऽज्जाणं, निवारिओ होइ एवं तु॥ होत्तए॥ भगवान् ने अचेलक धर्म की प्ररूपणा की है, यह सोचकर (सूत्र १७) कोई आर्यिका अचेलकत्व करना चाहे, उसके निषेध के लिए प्रस्तुत सूत्र है। अचेलकत्व के प्रतिषेध से आर्यिकाओं के ५९४०.गोणे साणे व्व वते, ओभावण खिंसणा कुलघरे य। लिए प्रस्तुत सूत्र से जिनकल्प भी निवारित हो जाता है। णीसट्ठ खइयलज्जा, सुण्हाए होति दिढतो॥ ५९३६.अजियम्मि साहसम्मी, इत्थी ण चए अचेलिया होउं। प्रस्तुत सूत्र का कथन है कि साध्वियों को पात्र रहित साहसमन्नं पि करे, तेणेव अइप्पसंगण॥ होना नहीं कल्पता। ५९३७.कुलडा वि ताव णेच्छति, पात्र के बिना उनको यत्र-तत्र भोजन करना पड़ता है। यह अचेलयं किमु सई कुले जाया। देखकर लोग कहते हैं इन्होंने गोव्रत और श्वाव्रत ले रखा है। धिक्कारथुक्कियाणं, जैसे गाय और कुत्ता यत्र-तत्र जो मिलता है उसे खा लेते हैं, तित्थुच्छेओ दुलभ वित्ती॥ वैसे ही ये साध्वियां हैं। इस प्रकार उनकी अपभ्राजना होती जब तक साध्वी तरुणों द्वारा कृत उपसर्गों के भय से है। लोग खिंसना करते हैं। उन साध्वियों के कुलघर में नहीं उबरती तब तक वह अचेलिका नहीं हो सकती। यदि जाकर निंदा करते हैं। लोगों के समक्ष खाने से वे कहते हैं ये होती है तो फिर उसी अचेलता के अतिप्रसंग से वह दूसरा बहुभक्षिका हैं। इन्होंने लज्जा को परित्यक्त कर दिया है। यहां अनाचार सेवन का भी साहस कर सकती है। कुलटा स्त्री भी। स्नुषा का दृष्टांत है। वह दो प्रकार का है-प्रशस्त और अचेलकता नहीं चाहती तो फिर कुल में उत्पन्न साध्वी अप्रशस्त। उसकी इच्छा कैसे करेगी? अचेलता प्रतिपन्न आर्यिकाओं ५९४१.उच्चासणम्मि सुण्हा, को, जो धिक्कारथुक्ति-लोकापवाद से जुगुप्सित हैं, उनसे ण णिसीयइ ण वि य भासए उच्चं। तीर्थ का उच्छेद होता है और वृत्ति-भक्तपान की प्राप्ति दुर्लभ णेव पगासे भुंजइ, हो जाती है। गृहइ वि य णाम अप्पाणं॥ ५९३८.गुरुगा अचेलिगाणं, समलं च दुगंछियं गरहियं च। प्रशस्त दृष्टांत-जैसे वधू ऊंचे आसन पर नहीं बैठती, होइ परपत्थणिज्जा, बिइयं अद्धाणमाईसु॥ जोर से नहीं बोलती, प्रकाश में भोजन नहीं करती और जो आर्यिका अचेलिका होती है, उसके चतुर्गुरु और अपना नाम नहीं बताती। वैसे ही साध्वियों को होना चाहिए। आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। चेलरहित साध्वी को मैलसहित ५९४२.अहवा महापदाणिं, सुण्हा ससुरो य इक्कमेक्कस्स। देखकर लोग जुगुप्सा और गर्दा करते हैं। अचेलका स्त्री दलमाणाणि विणासं, लज्जाणासेण पावंती॥ दूसरों के लिए प्रार्थनीय होती है। यहां द्वितीयपद मार्ग में अप्रशस्त दृष्टांत-अथवा स्नुषा और श्वसुर दोनों को बिछुड़ जाने वाली आर्या का मानना चाहिए। परस्पर महापद अर्थात् विकृष्टतर पैरों से प्रहार करते हुए ५९३९.पुणरावत्ति निवारण, उदिण्णमोहो व दट्ट पेल्लेज्जा। लज्जानाश से विनाश को प्राप्त होते हैं वैसे ही निर्लज्ज पडिबंधो गमणाई, डिंडियदोसा य निगिणाए॥ साध्वी भी विनष्ट हो जाती है। जैसे-एक ब्राह्मण की भार्या Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० =बृहत्कल्पभाष्यम् मर गई। पुत्र माता की अस्थियां गंगा नदी पर ले गया। इधर ५९४५.आयावणा य तिविहा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा य। श्वसुर और स्नुषा-दोनों हास्यक्रीड़ा कर रहे थे। निर्लज्जता उक्कोसा उणिवण्णा, णिसण्ण मज्झा ठिय जहण्णा॥ से दोनों निश्रेणी पर चढ़कर अभिप्रायपूर्वक परस्पर आतापना के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और विकृष्टतर पैर प्रहार करते हुए एक दूसरे का योनिघात कर जघन्य। उत्कृष्ट है-निपन्न, मध्यम है-निषण्ण, जघन्य हैडाला। दोनों नष्ट हो गए। इस प्रकार निर्लज्जता से विनाश खड़े रहना। हो गया। ५९४६.तिविहा होइ निवण्णा, ओमत्थिय पास तइयमुत्ताणा। ५९४३.पायासइ तेणहिए, झामिय बूढे व सावयभए वा। उक्कोसुक्कोसा उक्कोसमज्झिमा उक्कोसगजहण्णा॥ बोहिभए खित्ताइ व, अपाइया हुज्ज बिइयपदे॥ निपन्न आतापना के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, द्वितीयपद-पात्र के अभाव में, स्तेन द्वारा हृत हो जाने उत्कृष्टमध्यम, उत्कृष्टजघन्य। ओंधे मुंह लेटकर की जाने पर, अग्नि में जल जाने पर, जलप्रवाह में बह जाने पर, वाली उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, पार्श्वतः लेटकर की जाने वाली श्वापद और बोधिक स्तेन का भय होने पर शीघ्र ही पात्रों उत्कृष्टमध्यम और खड़े होकर की जाने वाली तीसरी को छोड़कर भाग जाने पर, वह द्वितीयपद में पात्ररहित आतापना है-उत्कृष्टजघन्य। होती है। ५९४७.मज्झुक्कोसा दुहओ, वि मज्झिमा मज्झिमाजहण्णा य। नो कप्पइ निग्गंथीए वोसट्ठकाइयाए अहमुक्कोसाऽहममज्झिमा य अहमाहमा चरिमा। निषण्ण की जो मध्यम आतापना है उसके तीन प्रकार होत्तए॥ हैं-मध्यम-उत्कृष्ट, मध्यम-मध्यम और मध्यम-जघन्य। (सूत्र १८) जघन्य आतापना के भी तीन प्रकार हैं-अधम उत्कृष्ट, ५९४४.वोसट्ठकाय पेल्लण-तरुणाई गहण दोस ते चेव। अधममध्यम और अधम-अधम। यहां अधम शब्द जघन्य दव्वावइ अगणिम्मि य, सावयभय बोहिए बितियं॥ वाचक है। आर्यिका को व्युत्सृष्टकाय' होना नहीं कल्पता। क्योंकि ५९४८.पलियंक अद्ध उक्वडुग,मो य तिविहा उ मज्झिमा होइ। वह तरुणों द्वारा प्रेरित होती है, गृहीत होती है तथा पूर्वोक्त तझ्या उ हत्थिसुंडेगपाद समपादिगा 'चेव॥ दोष होते हैं। द्वितीय पद में अर्थात् द्रव्य आपदा में, अग्नि के मध्यम आतापना के तीन प्रकार हैं-मध्यम-उत्कृष्ट संभ्रम से, श्वापद तथा बोधिक का भय होने पर आर्यिका पर्यकासनसंस्थित, मध्यम-मध्यम अर्द्धपर्यंक, मध्यम-जघन्य व्युत्सृष्टकाय भी हो सकती है। उत्कटिक। तीसरे प्रकार की आताफ्ना अर्थात् खड़े-खड़े की जाने वाली के तीन भेद कहे गए हैं-जघन्य-उत्कृष्ट नो कप्पइ निग्गंथीए बहिया गामस्स हस्तिशुंडिका, जघन्य-मध्यम एकपादिका, जघन्य-जघन्यवा जाव सन्निवेसस्स वा उर्ल्ड बाहाओ समपादिका। पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहीए ५९४९.सव्वंगिओ पतावो, पताविया घम्मरस्सिणा भूमी। एगपाइयाए ठिच्चा आयावणाए _ण य कमइ तत्थ वाओ, विस्सामो णेव गत्ताणं॥ निपन्न (शयित) की आतापना उत्कृष्ट होती है, क्योंकि आयावेत्तए॥ उसमें सर्वांगीण ताप लगता है। सूर्य की धर्मरश्मियों से भूमी (सूत्र १९) प्रतापित हो जाती है। वहां वायु का प्रचार नहीं होता। शरीर कप्पइ से उवस्सयस्स अंतोवगडाए के अंगों को विश्राम नहीं मिलता। संघाडिपडिबद्धाए पलंबियबाहियाए ५९५०.एयासी णवण्हं पी, अणुणाया संजईण अंतिल्ला। समतलपाइयाए ठिच्चा आयावणाए सेसा नाणुन्नाया, अट्ठ तु आतावणा तासिं॥ आयावेत्तए॥ इन नौ प्रकार की आतापनाओं में से अंतिम आतापना अर्थात् समपादिका आतापना आर्यिकाओं के लिए अनुज्ञात (सूत्र २०) है। शेष आठ आतापनाएं उनके लिए अनुज्ञात नहीं हैं। १. कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १३६ । २. मुझे दिव्य उपसर्ग सहन करने हैं'-इस अभिग्रह से शरीर का व्युत्सर्ग कर अभिनव कायोत्सर्ग में स्थित होना। (वृ. पृ. १५६७) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२१ पांचवां उद्देशक ५९५१.पालीहिं जत्थ दीसइ, गोनिषधिका, हस्तिशंडिका, पर्यंका, अर्धपर्यंका। वीरासन जत्थ य सइरं विसंति न जुवाणा। अर्थात् सिंहासन पर बैठा हुआ व्यक्ति भूमि पर दोनों पैर उग्गहमादिसु सज्जा, टिकाए हुए है, उसके पीछे से सिंहासन निकाल देने पर आयावयते तहिं अज्जा॥ सिंहासन पर बैठे हुए कि भांति मुक्तजानुक होकर निरालंब आर्या को ऐसे स्थान में आतापना लेनी चाहिए जहां से में बैठना। यह दुष्कर होता है इसलिए इसको वीरासनिक वह प्रतिश्रय की पालिका संयतिओं द्वारा देखी जा सके। जहां कहते हैं। दंडासन, लगंडासन-दंडासनिका, लगंडशायिकास्वच्छंद रूप से युवा व्यक्ति आ-जा न सके, वहां अवग्रह, इन पदद्वय में क्रमशः आयत और कुजता-दोनों से उपमा अनन्तक तथा संघाटिक आदि से उपकरणों आयुक्त होकर करनी चाहिए। जैसे-दंड की भांति आयत अर्थात् पैरों के आर्यिका बाहृयुगल को प्रलंबित कर आतापना ले। प्रसारण से लंबा जो आसन है वह हैं दंडासन। लगंड का ५९५२.मुच्छाए निवडिताए, वातेण समुद्भुते व संवरणे। अर्थ है-दुःसंस्थित काष्ठ। उसकी भांति कुब्जता से, गोतरमजयणदोसा, जे वुत्ता ते उ पाविज्जा॥ मस्तिष्क और कोहनी को भूमी पर लगाकर, पीठ को ऊपर आतापना लेती हुई वह आर्या मूर्छावश नीचे गिर जाए, उठाकर सोना, यह लगंडशायी है। ये सारे अभिग्रह विशेष वायु से प्रावरण इधर-उधर हो जाए, तो अवग्रह और आर्याओं के लिए निषिद्ध हैं। अनन्तक के बिना गोचरचर्या में अयतना से प्रविष्ट आर्या के ५९५५.जोणीखुब्भण पेल्लण, गुरुगा भुत्ताण होइ सइकरणं। जो दोष बताए गए हैं वे दोष होते हैं, उसे प्राप्त होते हैं। गुरुगा सवेंटगम्मी, कारणे गहणं व धरणं वा॥ ऊर्ध्वस्थान के स्थानविशेष में स्थित आर्यिका के योनिनो कप्पइ निग्गंथीए ठाणाययाए क्षोभ हो सकता है। तरुण इस प्रकार से स्थित साध्वी को होत्तए॥ देखकर उसे प्रतिसेवना के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए प्रस्तुत सूत्रगत अभिग्रहों को लेने वाली आर्यिका के चतुर्गुरु। (सूत्र २१) भुक्तभोगिनी आर्या के स्मृतिकरण का हेतु होता है तो नो कप्पइ निग्गंथीए पडिमट्ठाइयाए अन्यान्य श्रमणियों के कौतुक का विषय बनता है। आर्या यदि होत्तए॥ सवेंटक तुम्बक ग्रहण करती है तो चतुर्गुरु। कारण में उसका (सूत्र २२) ग्रहण और धारण अनुज्ञात है। ५९५६.वीरासण गोदोही, मुत्तं सव्वे वि ताण कप्पंति। नो कप्पइ निग्गंथीए नेसज्जियाए, ते पुण पडुच्च चेटुं, सुत्ता उ अभिग्गहं पप्पा॥ उक्कुडुगासणियाए वीरासणियाए, अनन्तरोक्त आसनों में वीरासन और गोदोहिकासन को छोड़कर शेष ऊर्ध्वस्थान आदि सभी आसन आर्यिकाओं को दंडासणियाए, लगंडसाइयाए, कल्पता है। वे सूत्र में प्रतिषिद्ध हैं तो फिर अनुज्ञात कैसे हैं ? ओमंथियाए, उत्ताणियाए, अंबखुज्जियाए, आचार्य कहते हैं-शेष सारे स्थान चेष्टारूप में कल्पते हैं, एकपासियाए-होत्तए॥ अभिग्रहरूप में नहीं। सूत्र अभिग्रहरूप में प्रवृत्त है, इसलिए (सूत्र २३) यह कहा जाता है कि आर्यिकाओं को आभिग्रहरूप ऊर्ध्वस्थान आदि नहीं कल्पता, सामान्यतः आवश्यक आदि ५९५३.उद्धट्ठाणं ठाणायतं तु पडिमाउ होति मासाई। के समय जो किए जाते हैं वे कल्पते हैं। पंचेव णिसिज्जओ, तासि विभासा उ कायव्वा॥ ५९५७.तवो सो उ अणुण्णाओ, जेण सेसं न लुप्पति। ५९५४.वीरासणं तु सीहासणे व जह मुक्कजण्णुक णिविट्ठो। अकामियं पि पेल्लिज्जा, वारिओ तेणऽभिग्गहो।। दंडे लगंड उवमा, आयत खुज्जाय दुण्हं पि॥ शिष्य ने पूछा-भगवान् ने अभिग्रहरूप तप कर्म निर्जरा के स्थानायत अर्थात् ऊर्ध्वस्थान, प्रतिमास्थायी-मासिकी लिए कहा है। उसका प्रतिषेध क्यों? आचार्य ने कहाआदि प्रतिमा में स्थित, पांच प्रकार की निषद्याएं। निषद्या भगवान् ने तप वही अनुज्ञात किया है जिससे शेष व्रतों का का अर्थ है-उपवेशन की विधि। उनकी विभाषा करनी विनाश न हो। दंडायत आदि स्थान स्थित आर्यिका को चाहिए। वह इस प्रकार है-निषद्याएं पांच हैं-समपादपुता, देखकर, उसकी इच्छा न होते हुए भी कोई उसको Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ प्रतिसेवना के लिए प्रेरित कर दे। इस कारण से उनके लिए ऐसे अभिग्रह का वारण किया है। ५९५८. जे य दंसादओ पाणा, जे य संसप्पगा भुवि । चिट्ठस्सग्गट्टिया ता वि, सहंति जह संजया ॥ कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं- चेष्टा कायोत्सर्ग और अभिभव कायोत्सर्ग । अभिभव कायोत्सर्ग आर्यिकाओं के लिए प्रतिषिद्ध है। चेष्टा कायोत्सर्ग में स्थित आर्यिकाएं दंशमशक आदि प्राणियों के तथा जो पृथ्वी पर संचरणशीलउन्दुर, कीट आदि के उपद्रवों को मुनियों की भांति सहन करती हैं। ५९५९. वसिज्जा बंभचेरंसी, भुज्जमाणी तु कादि तु । तहावि तं न पूयंति, थेरा अयसभीरुणो ॥ कोई आर्या प्रतिसेवित होती हुई भी भावरूप से ब्रह्मचर्य में वास करती है, फिर भी अयशभीरु स्थविर मुनि उन आर्यिकाओं की प्रशंसा नहीं करते अर्थात् पूजा नहीं करते। ५९६०. तिव्वाभिग्गहसंजुत्ता, रता । थाण-मोणा - Ssसणे जहा सुज्झंति जयओ, एगा ऽणेगविहारिणो ॥ ५९६१. लज्जं बंभं च तित्थं च, रक्खंतीओ तवोरता । गच्छे चेव विसुज्झंती, तहा अणसणादिहिं ॥ तीव्र अभिग्रहों में संलग्न, स्थान, मौन तथा आसनों में रत, एक अर्थात् जिनकल्पी की साधना करने वाले तथा अनेक-विहारी - स्थविरकल्प के साधक मुनि जैसे शुद्ध होते हैं, वैसे ही आर्यिकाएं लज्जा, ब्रह्मचर्य तथा तीर्थ की रक्षा करती हुई, तप में संलग्न, गच्छ में रहती हुई अनशन आदि का पालन करती हुई शुद्ध होती हैं । ५९६२. जो वि दधिणो हुज्जा, इत्थिचिंधो तु केवली । वसते सो वि गच्छम्मी, किमु त्थीवेदसिंधणा ॥ जो भी दग्धेन्धन - वेदमोहनीय कर्म को भस्मसात् कर देता है, जो स्त्री चिह्न से लक्षित केवली होता है, वह भी गच्छ में रहता है तो सेन्धना - स्त्रीवेद युक्त संयती गच्छ में क्यों न रहे ? उनको गच्छ में ही रहना चाहिए। ५९६३. अलायं घट्टियं ज्झाई, फुंफुगा हसहसायई । कोवितो वढती वाही, इत्थीवेदे वि सो गमो ॥ अलात को घुमाने से वह प्रज्वलित होता है, फुम्फुक को घट्ट करने से वे दीप्त होते हैं, व्याधि कुपित होने पर बढ़ती है, स्त्रीवेद के विषय में भी यही विकल्प है। वह भी घट्टित होने पर प्रज्वलित होता है। ५९६४.कारणमकारणम्मि य, गीयत्थम्मि य तहा अगीयम्मि । एए सव्वे वि पए, संजयपक्खे विभासिज्जा ॥ बृहत्कल्पभाष्यम् ये जो व्युत्सृष्टकायिक आदि पद कहे गए हैं वे कारण या अकारण में गीतार्थ तथा अगीतार्थ मुनि को सारे पद कल्पते हैं। आकुंचणपट्टादि-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं आकुंचणपट्टगं धारितए वा परिहरित्तए वा ॥ (सूत्र २४) कप्पइ निग्गंथाणं आकुंचणपट्टगं धारितए वा परिहरित्तए वा ॥ (सूत्र २५) ५९६५.बंभवयपालणट्ठा, तहेव पट्टाइया उ समणीणं । बिइयपदेण जईणं, पीढग फलए विवज्जित्ता ॥ जैसे ब्रह्मव्रतपालन के लिए आर्याओं को अचेलकत्व आदि नहीं कल्पता, वैसे ही ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए पट्ट आदि । (दारुक दंड पर्यन्त) नहीं कल्पते । द्वितीयपद में साधुओं को वे कल्पते हैं पर पीठ और फलक का वर्जन करना चाहिए। ये तो साधुओं को बिना अपवाद पद के भी कल्पते हैं। ५९६६.गव्वो अवाउडत्तं, अणुवधि पलिमंथु सत्थुपरिवाओ। पट्टमजालिय दोसा, गिलाणियाए उ जयणाए ॥ पर्यस्तिकापट्ट को धारण की हुई साध्वी को देखकर लोग कहते हैं - देखो ! इसमें कितना गर्व है ? कोई अप्रावृत साध्वी पर्यस्तिका में बैठ जाती है। पर्यस्तिकापट्ट अनुपधि है, उपधि नहीं है। उपधि वह होती है जो उपकारी हो। इसके प्रत्युपेक्षण में सूत्रार्थ का परिमन्थ होता है, शास्ता का परिवाद होता है । द्वितीयपद में जो ग्लान है स्थविरा है, वह यतना पूर्वक अर्थात् जहां सागारिक न हों वहां पर्यस्तिकापट्ट धारण करे, वह जालरहित हो । जाल सदृश में शुषिर दोष होते हैं। इसी प्रकार यतियों को भी बिना कारण पर्यस्तिका करने वालों को चतुर्लघु और गर्व आदि दोष लगते हैं। ५९६७. थेरे व गिलाणे वा, सुत्तं काउमुवरिं तु पाउरणं । सावस्सए व वेट्ठो, पुव्वकतमसारिए वाए । सूत्रपौरुषी या अर्थपौरुषी शिष्यों को देते समय स्थविर या ग्लान वाचनाचार्य पर्यस्तिका कर ऊपर आवरण कर दे । जो आचार्य वृद्ध हों वे पूर्वकृत सावश्रय- अवष्टम्भ वाले आसन पर बैठकर एकान्त में शिष्यों को वाचना दे। . Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक = ६२३ ५९६८.फल्लो अचित्तो, अह आविओ वा, लाकर दे। साध्वियों के दंड-पादपोंछन से उसे आच्छादित चउरंगुलं वित्थडो असंधिमो अ। कर दे या मिट्टी से उसे ढंक दे। विस्सामहेउं तु सरीरगस्सा, ५९७१.समणाण उ ते दोसा, न होति तेण तु दुवे अणुण्णाया। दोसा अवटुंभगया ण एवं॥ पीढं आसणहेउं, फलगं पुण होइ सेज्जट्ठा। वह पर्यस्तिकापट्ट सौत्रिक, अकर्बुर, अथवा आविक-भेड़ श्रमणों के वे दोष नहीं होते इसलिए दोनों-पीढ और की ऊन से बना हो। वह चार अंगुल विस्तृत, संधिरहित हो। फलक अनुज्ञात हैं। पीढ बैठने के लिए तथा फलक शय्या के ऐसा पर्यस्तिकापट्ट शरीर के विश्राम के लिए ग्रहण किया लिए, सोने के लिए। जाता है। जो अवष्टंभगत दोष हैं वे आकुंचनपट्ट पहनने पर ५९७२.कुच्छण आय दयट्ठा, उज्झायगमरिस-वायरक्खट्ठा। नहीं होते। पाणा सीतल दीहा, रक्खट्ठा होइ फलगं तु॥ आर्द्र भूमी में स्थापित निषद्या कुथित हो जाती है। नो कप्पइ निग्गंथीणं सावस्सयंसि भोजन जीर्ण नहीं होता, अतः आत्मविराधना होती है। आसणंसि आसइत्तए वा तुयट्टित्तए वा॥ दया के निमित्त वर्षा में भूमी पर नहीं बैठना चाहिए। 'उज्झायग'-भूमी की आर्द्रता के कारण उपधि (सूत्र २६) जुगुप्सनीय हो जाती है। अर्श क्षुब्ध हो जाते हैं। कप्पइ निग्गंथाणं सावस्सयंसि वायु अत्यधिक कुपित हो जाती है। अतः इनकी रक्षा के आसणंसि आसइत्तए वा तुयट्टित्तए वा॥ लिए पीढ-फलक पर बैठना चाहिए। शीतल भूमी में (सूत्र २७) अनेक प्रकार के प्राणी सम्मूर्छित होते हैं। सर्प आदि डस सकते हैं। अतः इन सबकी रक्षा के लिए फलक ग्रहण नो कप्पइ निग्गंथीणं सविसाणंसि किया जाता है। पीढंसि वा फलगंसि वा आसइत्तए वा तुयट्टित्तए वा॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटयं लाउयं (सूत्र २८) धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ३०) कप्पइ निग्गंथाणं सविसाणंसि पीढंसि कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटयं लाउयं वा फलगंसि वा आसइत्तए वा तुयट्टित्तए धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ वा॥ (सूत्र ३१) (सूत्र २९) ५९७३.ते चेव सवेंटम्मि, दोसा पादम्मि जे तु सविसाणे। ५९६९.सविसाणे उड्डाहो, पाकम्मादी य तो पडिक्कुटुं। अइरेग अपडिलेहा, बिइय गिलाणोसहठ्ठवणा॥ थेरीए वासासु, कप्पइ छिण्णे विसाणम्मि॥ साध्वी को वृन्त सहित अलाबुपात्र रखना अनुज्ञात नहीं जैसे कपाट के दोनों ओर श्रृंग होते हैं वैसे ही श्रृंग वाले है। उसमें पादकर्म आदि वे ही दोष हैं जो सविषाण वाले पीढ-फलक पर बैठने से आर्यिकाओं का उड्डाह होता है, आसन में हैं। इसमें अतिरिक्त पात्र रखने का दोष, अप्रत्युपेक्षा पादकर्म आदि दोष होते हैं अतः उस पर बैठने पर प्रतिषेध होती है। द्वितीय पद में ग्लान योग्य औषधि रखने के लिए है। द्वितीयपद में वर्षाऋतु में विषाणों को छिन्न कर स्थविरा साध्वी को उस पर बैठना कल्पता है। ५९७०.जं तु न लब्भइ छेत्तुं, तं थेरीणं दलंति सविसाणं। __नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटियं छायंति य से दंडं, पाउंछण मट्टियाए वा॥ पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ पीढ-फलक विषाण का छेदन करने की अनुमति से प्रास न हो सके तो मुनि स्थविरा साध्वी को सविषाण पीढ-फलक (सूत्र ३२) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ = कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटियं पायकेसरियं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ३३) ५९७४.लाउयपमाणदंडे, पडिलेहणिया उ अग्गए बद्धा। सा केसरिया भन्नइ, सनालए पायपेहट्ठा। अलाबु जितना ऊंचा हो उतने प्रमाण का दंड बनाकर उसके अग्रभाग में बद्ध प्रत्युपेक्षणिका होती है, उसे सवृन्ती पादकेसरिका कहते हैं। वह कारणवश गृहीत सनाल पात्र के प्रत्युपेक्षण के लिए होती है। आर्यिकाएं उसे लेती हैं तो चतुर्गुरु और वही प्रतिसेवना आदि विराधना। उत्सर्गतः निर्ग्रन्थों को भी नहीं कल्पता। बृहत्कल्पभाष्यम् का अधिकार समाप्त हुआ। उसी व्रत के पालन के लिए दोनों पक्षों-संयत-संयती विषयक मोक सूत्र का प्रारंभ होता है। ५९७७.मोएण अण्णमण्णस्स आयमणे चउगुरुं च आणाई। मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा भावसंबंधो॥ अन्योन्य अर्थात् एक दूसरे का-संयत संयती का और संयती संयत का मोक-प्रस्रवण को निशाकल्प मानकर रात्री में आचमन करते हैं तो चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष, मिथ्यात्व, उड्डाह, संयमविराधना और आत्मविराधना तथा भावसंबंध भी हो जाता है। ५९७८.दिवसं पिता ण कप्पइ, किमु णिसि मोएण अण्णमण्णस्स। इत्थंगते किमण्णं, ण करेज्ज अकिच्चपडिसेवं॥ दिन में भी उसका आचमन नहीं कल्पता, तो फिर रात्री में तो बात ही क्या? रात्री में यदि एक दूसरे के प्रस्रवण का आचमन किया जाता है तो फिर ऐसा कौनसा दूसरा अकृत्य है जिसका प्रतिसेवन न किया जाए? ५९७९.वुत्तुं पिता गरहितं, किं पुण घेत्तुं जे कर बिलाओ वा। घासपइट्ठो गोणो, दुरक्खओ सस्सअब्भासे॥ मोक के आचमन का कथन करना भी गर्हित है तो फिर आर्या के हाथ से या बिल-योनि से मोक का ग्रहण कैसेगर्हित नहीं होगा? घास चरने के लिए प्रविष्ट बैल जो धान्य के निकट चर रहा है, उसको धान्य खाने से रोकना कष्टप्रद होता है। इसी प्रकार यह मुनि भी संयती के मोक का आचमन करता हुआ प्रसंगवश अन्यान्य क्रियाएं भी कर नो कप्पइ निग्गंथीणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ३४) कप्पइ निग्गंथाणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ३५) ५९७५.ते चेव दारुदंडे, पाउंछणगम्मि जे सनालम्मि। दुण्ह वि कारणगहणे, चप्पडए दंडए कुज्जा॥ जो सनालपात्र के विषय में दोष कहे गए हैं, वे ही दोष दारुदंडक, पादपोंछनक के विषय में हैं। दोनों अर्थात् सनालपात्र और दारुदंडक कारणवश आर्याएं ग्रहण कर सकती हैं। ग्रहण करने पर चतुष्पल दंडक (?) करे। पासवण-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अण्णमण्णस्स मोयं आइयत्तए वा आयमित्तए वा, नण्णत्थ गाढागाढेहिं रोगायंकेहिं॥ (सूत्र ३६) ५९८०.दिवसओ सपक्खे लहुगा, अद्धाणाऽऽगाढ गच्छ जयणाए। रतिं च दोहिं लहुगा, बिइयं आगाढ जयणाए। दिन में सपक्ष में भी संयत संयत का और संयती संयती का यदि मोकाचमन करती है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। द्वितीयपद में अध्वा में वर्तमान गच्छ का तथा आगाढ़ कारण में यतनापूर्वक दिन में स्वपक्ष के मोक का आचमन करे और रात्री में यदि निष्कारण मोक का आचमन करते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। वे भी तप और काल से लघु होते हैं। द्वितीयपद में कारण में यतनापूर्वक रात्री में भी मोक का आचमन किया जा सकता है। ५९८१.अविसरक्खा वि जिया, लोए णत्थेरिसऽन्नधम्मेस। सरिसेण सरिससोही, कीरइ कत्थाइ सोहेज्जा॥ ५९७६.बंभवयपालणट्ठा, गतोऽहिगारो तु एगपक्खम्मि। तस्सेव पालणट्ठा, मोयाऽऽरंभो दुपक्खे वी॥ ब्रह्मव्रत पालन करने के लिए संयती लक्षण वाले एकपक्ष Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक: जब शैक्ष ऐसा आचरण देखता है तो उसके मन में अन्यथा भाव आ जायेगा परतीर्थिक उड्डाह करने लग जाते हैं- 'अहो ! इन श्रमणों ने तो अस्थिसरजस्क साधुओं को भी जीत लिया है, उनसे भी आगे बढ़ गए हैं। लोक में अन्य धर्मों में ऐसी शोधि नहीं है । सदृश से सदृश की शोधि ये श्रमण करते हैं तो क्या कहीं शोधि की जा सकती है ? अशुचि से अशुचि का शोधन नहीं हो सकता।' ५९८२. निच्छुभई सत्थाओ, भत्तं वारेह तक्करदुर्ग वा । फासुदवं च न लब्भइ, सा वि य उच्चिविज्जा उ॥ यदि सार्थवाह प्रत्यनीक हो तो वह सार्थ से निष्काशित कर देता है । भक्तपान का वर्जन कर देता है। दोनों प्रकार के तस्कर - उपधिस्तेन और शरीरस्तेन - उपद्रुत करते हैं। कोई साधु अभी शौच से निवृत्त हुआ है, प्रासुक द्रव न मिलने पर मोक से आचमन लेकर उच्छिष्ट विद्या का जाप करे । वह आभिचारुका विद्या उस सार्थवाह को अनुकूल कर सकती है। ५९८३. अच्चुक्कडे व दुक्खे, अप्पा वा वेदणा खवे आऊं । तत्थ वि स च्चेव ममो, उच्चिनुगमंत विज्जाऽऽसु ॥ किसी मुनि के अति उत्कट दुःख उत्पन्न हो गया, सर्प आदि के इसने से अल्पवेदना है परन्तु वह आयु का क्षय कर सकती है। वहां भी यही विकल्प है। प्राशुक द्रव न मिलने पर मोक से आचमन करे वहां भी उच्छिष्ट मंत्र या विद्या का जाप कर साधु को वेदनामुक्त करे। ५९८४. मत्तग मोयाऽऽयमणं, · अभिगए आइण्ण एस निसिकप्पो । संफासुडाहावी, अमोयमत्ते भवे दोसा ॥ मात्रक में मोक लेकर आचमन करे यह निशाकल्प गीतार्थ के द्वारा आचीर्ण है। मोकमात्रक न होने पर स्वपक्ष सागारिक से मोक लेते हैं तो संस्पर्श-उड्डाह आदि दोष होते हैं। इस प्रकार रात्री में मोक से आचमन ले, उसके लिए द्रव न रखे। अपवादपद में द्रव रखा जा सकता है। ५९८५. पिट्ट को विय सेहो जह सरई मा व हुज्ज से सन्ना । जयणाए ठवेंति दवं, दोसा य भवे निरोहम्मि || यदि किसी शैक्ष के "पि सरई' अत्यधिक मल व्युत्सर्ग हो रहा हो, रात्री में अकस्मात् व्युत्सर्ग-संज्ञा न हो, इसलिए यतनापूर्वक द्रव रखे। मलनिरोध करने से अनेक दोष होते हैं। ५९८६. मोयं तु अन्नमन्नस्स, आयमणे चउगुरुं च आणाई । मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा देविदिट्टंतो ॥ १. कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १३७ । ६२५ परस्पर एक-दूसरे का मोक पीने से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। मिथ्यात्व, उड्डाह और विराधना होती है। यहां देवी का दृष्टांत है। ५९८७. दी ओसहभावित, मोयं देवीय पज्जिओ राया। आसाय पुच्छ कहणं, पडिसेवा मुच्छिओ गलितं ॥ ५९८८. अह रन्ना तूरंते, सुक्खग्गहणं तु पुच्छणा विज्जे । जइ सुक्खमत्थि जीवइ, खीरेण य पज्जिओ न मओ ॥ एक राजा को विषधर ने काट डाला वैद्य ने रानी का औषधभावित मोक राजा को पिलाया। आस्वाद को जानकर राजा ने उसके विषय में पूछा। मूर्च्छित अवस्था में वह दिनरात देवी से प्रतिसेवना करने लगा। प्रभूत शुक्र निकल गया । राजा मृत्यु के निकट पहुंच गया। वैद्य से पूछा । वैद्य ने कहायदि शुक्र है तो जी सकता है। दूध के साथ उसका शुक्र मिलाकर उसे पिलाया। वह मरा नहीं। " इसी प्रकार संयती के मोक का आचमन करने पर साधु उसके वश में हो जाता है और तब वह प्रतिगमन आदि कर लेता है। इसलिए संयती का मोक नहीं पीना चाहिए। ५९८९. सुत्तेणेवऽववाओ, आयमइ पियेज्ज वा वि आगाढे। आयमण आमय अणामए य पियणं तु रोगम्मि ॥ सूत्र के द्वारा ही अपवाद दिखाया गया है कि आगाढ़रोगातंक में मोक का आचमन करे या पीए । आचमन का अर्थ है- निलेपन, शरीर पर लगाना आमय रोग में तथा अनामय-निशाकल्प में होता है। मोक का पान करना तो रोग में ही संभव है अन्यथा नहीं। - ५९९०. दीहाइयणे गमणं, सामारिय पुच्छिए य अहगमणं । तासि सगारजुवाणं, कप्पड़ गमणं जहिं च भयं ॥ सर्प के काटने पर स्वपक्ष का मोक प्राप्त न हो तो संयती के प्रतिश्रय में जाए। वहां रहने वाले सागारिक को पूछकर भीतर प्रवेश करे। साध्वियों को भी सागारिक के साथ मोक के लिए साधु वसति में जाना कल्पता है जहां भय हो वहां दीपक लेकर जाए। ५९९१. निद्धं भुत्ता उववासिया व वोसिरितमत्तगा वा वि । सागारियाइसहिया, सभए दीवेण य ससद्दा ॥ यदि किसी मुनि को सर्प काट ले तो स्वपक्ष का मोक ही पिलाया जाता है। यदि इन कारणों से उनके मोक न हो उस दिन स्निग्ध आहार किया है, उपवास है, अभीअभी मोक का व्युत्सर्ग कर चुके हैं, ऐसी स्थिति में मोक लेने के लिए मुनि साध्वियों के प्रतिश्रय में जाए। साथ में सागारिक आदि को ले जाए। यदि भय हो तो दीपक लेकर . Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ बृहत्कल्पभाष्यम् चलने वाले सागारिक के साथ जाए। मौन न रहें, शब्द परिवासियभोयण-पदं करते हुए जाएं। ५९९२.तुसिणीए चउगुरुगा, मिच्छत्ते सारियस्स वा संका। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पडिबुद्धबोहियासु व, सागारिय कज्जदीवणया॥ पारियासियस्स आहारस्स जाव वहां यदि शब्द किए बिना प्रवेश करते हैं तो चतुर्गुरु, तयप्पमाणमेत्तमवि भूइप्पमाणमेत्तमवि मिथ्यात्व का प्रसंग तथा सागारिक को शंका हो सकती है। बिंदुप्पमाणमेत्तमवि आहारमाहारित्तए, वहां सबसे पहले सागारिक को जागृत करना चाहिए। वह नण्णत्थ आगाढेहिं रोगायंकेहिं॥ साध्वियों को जगाता है। फिर उस सागारिक को अपने आगमन का प्रयोजन बताना चाहिए। कार्य बताते हुए उसे (सूत्र ३७) कहना चाहिए–'एक साधु को सर्प ने काट डाला है। यहां औषधि है। उसके लिए हम आये हैं।' ५९९७.उदिओऽयमणाहारो, इमं तु सुत्तं पड़च्च आहारं। ५९९३.मोयं ति देइ गणिणी, थोवं चिय ओसह लहुं हा। अत्थे वा निसि मोयं, पिज्जति सेसं पि मा एवं॥ ___मा मग्गेज्ज सगारो, पडिसेहे वा वि वुच्छेओ। मोक लक्षण वाला अनाहार पूर्वसूत्र में कहा गया है। सर्पदंश की औषधि है-मोक। वह हमें दो। गणिनी प्रस्तुत सूत्र आहार से संबंधित है। अर्थतः मोक रात्री में भी मोक लाकर साधुओं को देती हुई कहती है यह औषधि पिया जाता है। शेष आहार रात्री में न खाया जाए, इसलिए थोड़ी ही है। शीघ्र इस ले जाएं। कोई सागारिक इस प्रस्तुत सूत्र का आरंभ है। औषधि को मांग न ले। यदि उसे प्रतिषेध किया जाए ५९९८. परिवासियआहारस्स मग्गणा आहारो को भवे अणाहारो। तो उसका व्यवच्छेद हो जाता है, वह पुनः उसकी मार्गणा आहारो एगंगिओ, चउव्विहो जं वऽतीइ तहिं॥ नहीं करता। परिवासित आहार की मार्गणा करनी चाहिए। शिष्य ने ५९९४.न वि ते कहंति अमुगो,खइओ ण वि ताव एय अमुईए। पूछा-भंते ! आहार क्या है और अनाहार क्या है? आचार्य ने घेत्तुं णयणं खिप्पं, ते वि य वसहिं सयमुवेति॥ कहा-आहार एकांगिक अर्थात् शुद्ध तथा क्षुधा को शांत करने वे मुनि साध्वियों को यह भी नहीं कहते कि अमुक वाला होता है। आहार के चार प्रकार है-अशन, पान, साधु को सर्प ने काटा है और वे साध्वियां भी यह नहीं खादिम और स्वादिम या आहार में जो दूसरी वस्तुएं नमक कहतीं कि यह मोक अमुक साध्वी का है। उस मोक को आदि डाली जाती हैं, वे भी आहार हैं। शीघ्र ले जाना चाहिए। वे मुनि उसे लेकर स्वयं अपनी ५९९९.कूरो नासेइ छुहं, एगंगी तक्क-उदग-मज्जाई। वसति में आ जाते हैं। खाइमे फल-मसाई, साइमे महु-फाणियाईणि।। ५९९५.जायति सिणेहो एवं, भिण्णरहस्सत्तया य वीसंभो। अशन में एकांगिक कूर-भात आदि भोजन क्षुधा का नाश तम्हा न कहेयव्वं, को व गुणो होइ कहिएणं॥ करता है और पानक में-एकांगिक तक्र, उदक, मद्य आदि यदि यह कहा जाए कि अमुक साधु को सर्प ने काटा है प्यास को मिटाती है। खादिम में फल आदि, स्वादिम में या अमुक साध्वी का यह मोक है तो दोनों में स्नेह हो सकता मधु-फाणित आदि-ये सारे आहार का कार्य करती हैं। है। भिन्नरहस्यता होती है और उससे विभ्रम-पूर्ण घनिष्टता ६०००.जं पुण खुहापसमणे, असमत्थेगंगि होइ लोणाई। होती है। इसलिए कहना नहीं चाहिए। कहने से कौन सा गुण तं पि य होताऽऽहारो, आहारजुयं व विजुतं वा। होता है? कोई नहीं। जो एकांगिक क्षुधाशमन में असमर्थ हो, जैसे--लवण ५९९६.सागारिसहिय नियमा, दीवगहत्था वए जईनिलय।। आदि, वह भी आहार से संयुक्त या असंयुक्त होकर आहार सागारियं तु बोहे, सो वि जई स एव य विही उ॥ होता है। अशन में लवण, हींग, जीरा आदि उपयोग में आर्यिका नियमतः सागारिकसहित दीपक के साथ आते हैं। साधुओं के प्रतिश्रय में आती हैं। आर्यिका के साथ आने ६००१.उदए कप्पूराई, फलि सुत्ताईणि सिंगबेर गुले। वाला सागारिक संयत प्रतिश्रय में रहने वाले सागारिक को न य ताणि खविंति खुहं, उवगारित्ता उ आहारो॥ जागृत करता है। वह साधुओं को जागृत करता है। यहां भी उदक में कपूर आदि, आम आदि फलों में सुत्त आदि मोक देने की वही पूर्वोक्त विधि जाननी चाहिए। शूठ में गुड़ डाला जाता है। कपूर आदि सारे द्रव्य भूख Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक ६२७ को नहीं मिटाते, परन्तु ये उपकारी होने के कारण आहार जाते हैं तो प्राणी उसमें आ गिरते हैं। अन्य प्राणियों की माने जाते हैं। तर्कणा होती है वे उसके चारों ओर घूमते हैं। भाजन से वह ६००२.अहवा जं भुक्खत्तो, कद्दमउवमाइ पक्खिवइ कोटे। द्रव पदार्थ झरता है तो पात्र के नीचे प्राणी एकत्रित हो जाते __ सव्वो सो आहारो, ओसहमाई पुणो भइतो॥ हैं। शिष्य ने कहा-ये दोष आहार में दृष्ट हैं, इसलिए अथवा भूख से पीड़ित व्यक्ति कर्दम के सदृश मिट्टी आदि अनाहार परिवासित करना कल्पता है। जो कुछ अपनी कुक्षी में प्रक्षिप्त करता है वह सारा आहार ६००८.सुत्तभणियं तु निद्धं, कहलाता है। औषध आदि में विकल्प है-वह आहार भी है तं चिय अदवं सिया अतिल्ल-वसं। और अनाहार भी है। सोवीरग-दुराई, ६००३.जं वा भुक्खत्तस्स उ, संकसमाणस्स देइ अस्सातं। दवं अलेवाड लेवाडं। सव्वो सो आहारो, अकामऽणिटुं चऽणाहारो॥ सूत्र में जो कहा है कि तैल और वसा से वर्जित जो घृत अथवा क्षुधार्त व्यक्ति को जिस द्रव्य को चबाते हुए आदि अद्रव होता है वही स्निग्ध कहलाता है। जो सौवीर कवल-प्रक्षेप जैसा आस्वाद आता है वह सारा आहार है। द्रवादिक अलेपकृत है, जो दुग्ध आदि लेपकृत हैं-ये दोनों द्रव तथा बिना मन खाए जाने वाला तथा अनिष्ट आहार सारा ___कहलाते हैं। अनाहार है। ६००९.गूढसिणेहं उल्लं, तु खज्जगं मक्खियं व जं बाहिं। ६००४.अणहारो मोय छल्ली, मूलं च फलं च होतऽणाहारो। नेहागाढं कुसणं, तु एवमाई पणीयं तु॥ सेस तय-भूइ-तोयंबिंदुम्मि व चउगुरू आणा॥ गूढस्नेह वाले घृतपूर आदि आर्द्रखाद्यक प्रणीत कहलाते मोक-कायिकी, छाल, मूल और फल-आंवला, हैं, अथवा बाहर से स्नेह से प्रक्षित मंडक आदि तथा हरीतकी, बेहरड़-ये सारे अनाहार हैं। शेष आहार है। उस स्नेहावगाढ़ कुसण आदि प्रणीत कहलाते हैं। परिवासित आहार का तिलतुषत्वगमात्र, अंगुली पर लगे ६०१०.अणहारो विन कप्पइ, दोसा तेचे उतनी भूतिमात्र इतना भी यदि कोई खाता है, पान का तद्दिवसं जयणाए, बिइयं आगाढ संविग्गे॥ बिन्दुमात्र भी पीता है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा अनाहार भी स्थापित करना नहीं कल्पता। आहार संबंधी आज्ञाभंग आदि दोष। जो दोष कहे गए हैं, वे सारे इसमें भी होते हैं। जिस दिन ६००५.मिच्छत्ता-ऽसंचइए, विराहणा सत्तु पाणजाईओ। प्रयोजन हो उस दिन अनाहार द्रव्य लाकर यतनापूर्वक उसे सम्मुच्छणा य तक्कण, दवे य दोसा इमे होति॥ रखे। द्वितीय पद में आगाढ़ कारण में संविग्न मुनि उसको - मुनि यदि अशन आदि को परिवासित रखता है तो स्थापित कर सकता है। मिथ्यात्व आता है। लोग उड्डाह करते हैं कि ये तो ६०११.जह कारणे अणहारो, उ कप्पई तह भवेज्ज इयरो वी। असंचिक असंग्रही हैं। इससे संयम और आत्मविराधना वोच्छिण्णम्मि मडंबे, बिइयं अद्धाणमाईसु॥ होती है। सत्तू आदि में जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। चूहे जैसे कारणवश अनाहार द्रव्य स्थापित करना कल्पता है, आदि उसको खाने की इच्छा करते हैं। द्रव पदार्थ में ये वैसे ही आहार भी कारणवश स्थापित करना कल्पता है। वक्ष्यमाण दोष होते हैं। शिष्य ने पूछा-कैसे? आचार्य कहते हैं-मडंब के व्यवच्छिन्न ६००६.सेह गिहिणा व दिद्वे, मिच्छत्तं कहमसंचया समणा। हो जाने पर वहां रहने वाले मुनि अपवाद का सेवन करते हैं। संचयमिणं करेंती, अण्णत्थ वि नूण एमेव॥ जैसे कारणवश पिप्पल आदि का सेवन करते हैं, वैसे ही शैक्ष या गृहस्थ परिवासित अशन आदि को देखकर अपवादस्वरूप आहार आदि की भी स्थापना करते हैं। मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। ये श्रमण असंचयशील अध्वप्रतिपन्न मुनि अध्वकल्प की स्थापना करते हैं। कैसे? ये इस प्रकार संचय करते हैं। अन्यत्र भी इनका ६०१२.वुच्छिण्णम्मि मडंबे, सहसरुगुप्पायउवसमनिमित्तं। आचरण ऐसा ही होगा। दिद्वत्थाई तं चिय, गिण्हती तिविह भेसज्जं॥ ६००७.निद्धे दवे पणीए, आवज्जण पाण तक्कणा झरणा। मडंब के व्यवच्छिन्न होने पर सहसा किसी मुनि के रोग ___ आहारे दिट्ठ दोसा, कप्पइ तम्हा अणाहारो॥ उत्पन्न हो सकता है। उसके उपशमन के लिए दृष्टार्थ गीतार्थ स्निग्ध और प्रणीत द्रव पदार्थ यदि रात्री में स्थापित किए आदि मुनि अनागत में ही उसी द्रव्य को लेते हैं, जिससे रोग Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ का उपशमन हो। वह भैषज द्रव्य तीन प्रकार का है-वात, पित्त और श्लेष्म को शांत करने वाला या तीनों का उपशमन करने वाला। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पारियासिएणं आलेवणजाएणं गायाई आलिंपित्तए वा विलिंपित्तए वा. नण्णत्थ आगाढेहिं रोगायंकेहिं॥ (सूत्र ३८) ६०१३.जइ भुत्तुं पडिसिद्धो, परिवासे मा हु को वि मक्खट्ठा। वुत्तो वा पक्खेवे, आहारो इमं तु लेवम्मि॥ यदि परिवासित आहार को खाना प्रतिषिद्ध है तो कोई परिवासित द्रव्य म्रक्षण के लिए काम में न ले, इसके लिए प्रस्तुत सूत्र का आरंभ है। पूर्वसूत्र में प्रक्षेप आहार विषयक कथन है, प्रस्तुत सूत्र आलेप विषयक है। ६०१४.अभिंतरमालेवो, वुत्तो सुत्तं इमं तु बज्झम्मि। अहवा सो पक्खेवो, लोमाहारे इमं सुत्तं॥ अथवा पूर्वसूत्र में आभ्यन्तर आलेप के विषय में कहा है, प्रस्तुत सूत्र बाह्य आलेप विषयक है। अथवा वह प्रक्षेप आहार विषयक था। यह सूत्र लोमाहार विषयक है। ६०१५.मक्खेऊणं लिप्पइ, एस कमो होति वणतिगिच्छाए। जइ ते ण तं पमाणं, मा कुण किरियं सरीरस्स॥ व्रणचिकित्सा में पहले व्रण का प्रक्षण किया जाता है, पश्चात् उस पर लेप किया जाता है-यह क्रम है। यदि तुम्हारे लिए यह प्रमाण न हो तो तुम कभी शरीर की क्रिया-चिकित्सा मत कराना। ६०१६.आलेवणेण पउणइ, जो उ वणो मक्खणेण किं तत्थ। होहिइ वणो व मा मे, आलेवो दिज्जई समणं॥ आचार्य ने कहा-यह एकान्तमत नहीं है कि व्रण पर म्रक्षण और आलेपन-दोनों हों। कहीं एक से काम हो जाता है और कहीं दोनों करने होते हैं। जो व्रण आलेपन से उपशांत हो जाता है वहां म्रक्षण का क्या प्रयोजन? मेरे व्रण न हो इसलिए उसको आलेपशमन की औषध दी जाती है। ६०१७.अच्चाउरे उ कज्जे, करिति जहलाभ कत्थ परिवाडी। अणुपुव्वि संतविभवे, जुज्जइ न उ सव्वजाईसु॥ अत्यातुर कार्य में अर्थात् आगाढ़ रोग में जिससे लाभ हो वैसी चिकित्सा की जाती है। उसमें कोई परिपाटी-क्रम नहीं =बृहत्कल्पभाष्यम् होता। जो वैभवशाली है उसकी चिकित्सा में आनुपूर्वीपरिपाटी होती है, सभी जातियों में नहीं। ६०१८.सुत्तम्मि कड्डियम्मि, आलेव ठविंति चउलहू होति। आणाइणो य दोसा, विराहणा इमेहिं ठाणेहिं।। सूत्र में कथित हो जाने के कारण यदि कोई रात्री में आलेप रखता है तो उसे चतुर्लघु और आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं और इन स्थानों में विराधना होती है। ६०१९.निद्धे दवे पणीए, आवज्जण पाण तक्कणा झरणा। __ आयंक विवच्चासे, सेसे लहुगा य गुरुगा य॥ स्निग्ध, द्रव और प्रणीत आलेप रात्री में रखने में प्राणियों का आपतन, और तर्कणा होती है। पात्र से द्रव्य झरता है। इसमें दोष प्राग्वत्। रोग में विपर्यास से चिकित्सा करने पर प्रायश्चित्त आता है। बिना कारण परिवासित रखता है, प्रासुक रखने पर चतुर्लघु, अप्रासुक रखने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। ६०२०.ति च्चिय संचयदोसा, तयाविसे लाल छिवण लिहणं वा। अंबीभूयं बिइए, उज्झमणुज्झंति जे दोसा॥ आलेप आदि रात्री में रखने से वे ही संचय आदि दोष होते हैं। त्वग्विष-सर्प उसका स्पर्श करता है, लालाविष उसको जीभ से चाटता है, दूसरे दिन अम्ल हो जाने से उसका परिष्ठापन किया जाता है, परिष्ठापन न करने पर जो दोष होते हैं, वे प्राप्त होते हैं। ६०२१.दिवसे दिवसे गहणं, पिट्ठमपिढे य होइ जयणाए। आगाढे निक्खिवणं, अपिट्ट पिटे य जयणाए। प्रयोजन होने पर प्रतिदिन उसका ग्रहण करना चाहिए। सबसे पहले पिष्ट का ग्रहण करना चाहिए पश्चात् अपिष्ट का यतनापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। आगाढ़ रोग में आलेप का निक्षेपण-परिवासन भी किया जा सकता है। वह भी अपिष्ट या पिष्ट का यतनापूर्वक करना चाहिए। ६०२२.आगाढे अणागाढं, अणगाढे वा वि कुणइ आगाढं। एवं तु विवच्चासं, कुणइ व वाए कफतिगिच्छं। आगाढ़ ग्लानत्व में अनागाढ़ क्रिया करने पर चतुर्गुरु, अनागाढ़ में आगाढ़ क्रिया करने पर चतुर्लघु। अथवा वायु चिकित्सनीय है और करता है कफ की चिकित्सा, अथवा कफ चिकित्सनीय है और करता है वायु की चिकित्सा-यह सारा विपर्यास है। ६०२३.अगिलाणो खलु सेसो, दव्वाईतिविहआवइजढो वा। पच्छित्ते मग्गणया, परिवासिंतस्सिमा तस्स॥ हा Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक शेष अर्थात् जो अग्लान है, जो द्रव्य, क्षेत्र और काल-इन तीन प्रकार की आपदाओं से मुक्त है, वह यदि परिवासित रखता है तो उसके लिए प्रायश्चित्त की मार्गणा यह है। ६०२४.फासुगमफासुगे वा, अचित्त चित्ते परित्तऽणंते वा। असिणेह सिणेहगए, अणहाराऽऽहार लहु-गुरुगा॥ ___ वह यदि प्राशुक, अचित्त, परीत्त, अस्नेह और अनाहार को स्थापित करता है तो चतुर्लघु तथा अप्रासुक, सचित्त, अनन्त, स्नेहावगाढ़ और आहार को स्थापित करता है तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पारियासिएणं तेल्लेण वा घएण वा नवणीएण वा वसाए वा गायाई अब्भंगित्तए वा मक्खित्तए वा, नण्णत्थ आगाढेहिं रोगायंकेहिं॥ (सूत्र ३९) । ६२९ स्नेह के कारण मलिन हुए वस्त्र और शरीर को धोने पर या न धोने पर दोनों में दोष है। यदि न धोया जाए तो निशिभक्त और धोया जाए तो प्राणियों का उत्प्लावन होता है। उपकरण और शरीर की बकुशता होती है। फिर वही 'हेवाक' आदत हो जाती है। पैरों में धूली न लगे, इसलिए वह तलिका पहन लेता है। गात्र का उद्वर्तन आदि करने पर सूत्रार्थ का परिमंथ होता है। ६०२८.तदिवसमक्खणेण उ,दिट्ठा दोसा जहा उ मक्खिज्जा। अदाणेणुव्वाए, वाय अरुग कच्छु जयणाए॥ तद्दिवसानीत द्रव्य से म्रक्षण करने पर ये दोष दृष्ट हैं। अपवादपद में म्रक्षण की यह विधि है-मार्ग में अत्यंत थक गया हो, वायु से कमर जकड़ गई हो, ऊरु-व्रण हो गया हो, खाज हो गई हो यतनापूर्वक म्रक्षण करे। ६०२९.सन्नाईकयकज्जो, धुविउं मक्खेउ अच्छए अंतो। परिपीय गोमयाई, उव्वट्टण धोव्वणा जयणा।। संज्ञागमन, भिक्षाचर्यागमन तथा अन्यान्य बहिर्गमन के कार्य जिसने कर लिए हों उसे जितने शरीर का म्रक्षण करना है उतने मात्र शरीर को धोकर, फिर म्रक्षण करे। म्रक्षण कर फिर प्रतिश्रय के भीतर तब तक बैठा रहे जब तक वह शरीर तैलादिक म्रक्षण को पी न ले। फिर गोबर आदि से उद्वर्तन कर यतनापूर्वक उसका प्रक्षालन करे। ६०३०.जह कारणे तदिवसं, तु कप्पई तह भवेज्ज इयरं पि। आयरियवाहि वसभेहि पुच्छिए विज्ज संदेसो॥ जैसे कारण में तद्दिवस आनीत म्रक्षण कल्पता है तो परिवासित भी कल्पता है। आचार्य के कोई व्याधि हो गई। वृषभों ने वैद्य से पूछा। वैद्य ने कहा-शतपाक आदि तैल हो तो चिकित्सा की जा सकती है। ६०३१.सयपाग सहस्सं वा, सयसाहस्सं व हंस-मरुतेल्लं। दूराओ वि य असई, परिवासिज्जा जयं धीरे॥ शतपाक, सहस्रपाक, शतसहस्रपाक, हंसतैल, मरु तैल-ये दुर्लभ द्रव्य सबसे पहले तदैवसिक लाने चाहिए। प्राप्त न होने पर धीर गीतार्थ मुनि दूर से मंगा कर भी उनकी स्थापना करे। ६०३२.एयाणि मक्खणट्ठा, पियणट्ठा एव पतिदिणालंभे। पणहाणीए जइडं, चउगुरुपत्तो अदोसाओ।। ये शतपाक तैल आदि म्रक्षण के लिए तथा पान करने के लिए प्रतिदिन न मिलने पर पंचक परिहानि से चतुर्गुरु से भरकर तैल में पकाना, वह तैल। मरुतैल-मरुदेश में पर्वत से उत्पन्न (वृ. पृ. १५९१) ६०२५.ससिणेहो असिणेहो, दिज्जइ मक्खित्तु वा तगं देति। सव्वो वा णालिप्पइ, दुहतो वा मक्खणे सूया॥ आलेप के दो प्रकार हैं-सस्नेह और अस्नेह। यह आलेप दिया जाता है। अथवा व्रण का म्रक्षण कर पश्चात् आलेप दिया जाता है। सारा व्रण आलिप्त नहीं किया जाता। दो प्रकार से म्रक्षण की सूचा की गई है। व्रण भी म्रक्षित किया जाता है और आलेप भी म्रक्षण के लिए दिया जाता है। ६०२६.तदिवसमक्खणम्मि, लहुओ मासो उ होइ बोधव्वो। ___ आणाइणो विराहण, धूलि सरक्खे य तसपाणा॥ शिष्य ने पूछा-यदि परिवासित से म्रक्षण करना नहीं कल्पता तो क्या उसी दिन आनीत द्रव्य से म्रक्षण आदि करना कल्पेगा? आचार्य कहते हैं-यदि उसी दिन लाए हुए द्रव्य से म्रक्षण करता है तो लघुमास, आज्ञाभंग आदि दोष और विराधना होती है। म्रक्षित शरीर पर धूल, सचित्तरजें। लग जाती हैं। वस्त्र मलिन हो जाते हैं। उनको धोने पर संयमविराधना होती है। स्नेह के गंध से त्रस प्राणियों की विराधना होती है। ६०२७.धुवणा-ऽधुवणे दोसा, निसिभत्तं उप्पिलावणं चेव। बउसत्त समुइ तलिया, उव्वट्टणमाइ पलिमंथो॥ १. शतपाक तैल वह होता है जो सौ औषधियों में पकाया जाता है या एक ही औषधी को सौ बार पकाया जाता है। इसी प्रकार सहस्रपाक और शतसहस्रपाक तैल को जानना चाहिए। हंसपाक अर्थात् हंसको औषध परिवार तैल। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त प्रास होने तक प्रयत्नपूर्वक परिवासित करने पर भी अदोष है। (इन तैलों की सर्वथा अप्राप्ति होने पर गुरु के लिए मुनि स्वयं इन तैलों को पकाए।) अहालहुसगववहार-पदं परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहच्च अइक्कमेज्जा, तं च थेरा जाणेज्जा अप्पणो आगमेणं अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नाम ववहारे पट्टवियव्वे सिया॥ (सूत्र ४०) ६०३३.निक्कारणपडिसेवी, अजयणकारी व कारणे साहू। अदुवा चिअत्तकिच्चे, परिहारं पाउणे जोगो॥ जो निष्कारण प्रतिसेवी है, जो साधु कारण में अयतनाकारी है अथवा जो त्यक्तकृत्य-स्वस्थ होने पर भी म्रक्षण आदि क्रिया को नहीं छोड़ता, वह परिहारतप को प्राप्त होता है, यह योग है, संबंध है। ६०३४.परिहारिओ य गच्छे, आसण्णे गच्छ वाइणा कज्जं। आगमणं तहिं गमणं, कारण पडिसेवणा वाए॥ गच्छ में कोई पारिहारिक है। निकटस्थ किसी अन्यगच्छ में वादी का कार्य उत्पन्न हो गया। उस गच्छ से एक संघाटक आया और उसने आचार्य से कहा-वादी साधु को भेजो। गुरु के आदेश से वह पारिहारिक तप करने वाला मुनि वहां गया। वहां जाकर वाद के प्रसंग में उसने ये प्रतिसेवनाएं की। ६०३५.पाया व दंता व सिया उ धोया, वा-बुद्धिहेतुं व पणीयभत्तं। तं वातिगं वा मइ-सत्तहेउं, सभाजयट्ठा सिचयं व सुक्कं । उसने पैर और दांत धोए। बुद्धि की स्थिरता के लिए प्रणीत-भोजन किया। मति के लिए तथा शक्ति के लिए विकट-मद्य का सेवन किया। सभी को जीतने के लिए सफेद वस्त्र धारण किए। ६०३६.थेरा पुण जाणंती, आगमओ अहव अण्णओ सुच्चा। परिसाए मज्झम्मि, पट्ठवणा होइ पच्छित्ते॥ =बृहत्कल्पभाष्यम् उसने ये प्रतिसेवनाएं कीं। उसके लौट आने पर स्थविरआचार्य जान लेते हैं अथवा अन्यतः सुनकर जान लेते हैं। तब उसके लिए परिषद् में प्रायश्चित्त की प्रस्थापना करनी चाहिए। ६०३७.नव-दस-चउदस-ओही मणनाणी केवली य आगमिउं। सो चेवण्णो उ भवे, तदणुचरो वा वि उवगो वा॥ वे आचार्य नौपूर्वी, दशपूर्वी, चतुर्दशपूर्वी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी हो सकते हैं। वे अतिशय ज्ञान से जानकर प्रायश्चित्त देते हैं। अन्य अर्थात् उसी पारिहारिक से आलोचना सुनकर अथवा उसके अनुचर से अथवा 'उक्क'-वह व्यक्ति जो पारिहारिक से कहीं से आ मिला हो-इनसे सुनकर। ६०३८.तेसिं पच्चयहेउं, जे पेसविया सुयं व तं जेहिं। भयहेउ सेसगाण य, इमा उ आरोवणारयणा॥ जिनको पारिहारिक के साथ भेजा था, उनके विश्वास के लिए, जिन्होंने प्रतिसेवना सुनी उनके विश्वास के लिए तथा शेष शिष्यों के भय के लिए यह आरोपणारचना-व्यवहारप्रस्थापना करनी चाहिए। ६०३९.गुरुओ गुरुअतराओ, अहागुरूओ य होइ ववहारो। लहुओ लहुयतराओ, अहालहू होइ ववहारो॥ ६०४०.लहुसो लहुसतराओ, अहालहूसो अ होइ ववहारो। एतेसिं पच्छित्तं, वुच्छामि अहाणुपुवीए॥ व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरुक, लघुक, लघुस्वक। गुरुक के तीन प्रकार हैं-गुरुक, गुरुतरक, यथागुरुक। लघुक के तीन प्रकार हैं-लघु, लघुतर, यथालघु। लघुस्वक के तीन प्रकार हैं-लघुस्वक, लघुस्वतरक, यथालघुस्वक। इन व्यवहारों का यथानुपूर्वी से यथोक्तपरिपाटी से प्रायश्चित्त कहूंगा। ६०४१.गुरुगो य होइ मासो, गुरुगतरागो भवे चउम्मासो। अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ गुरुक व्यवहार मासपरिमाण वाला होता है। गुरुतरक चतुर्मासपरिणाम वाला और यथागुरुक छह मास परिमाण वाला होता है। गुरुक पक्ष में यह प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। ६०४२.तीसा य पण्णवीसा, वीसा वि य होइ लहुयपक्खम्मि। पन्नरस दस य पंच य, अहालहसगम्मि सुद्धो वा॥ लघुक व्यवहार तीस दिन परिमाण, लघुतरक पचीस दिन Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक= और यथालघुक बीस दिन परिमाण-यह लघुक पक्ष में निग्रह कर प्रवचन की उद्भावना की है, अतः तुमको थोड़ा प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। लघुस्वक व्यवहार पन्द्रह दिन, प्रायश्चित्त दिया है। यह सुनकर अतिपरिणत और अपरिणत लघुस्वतरक दश दिन और यथालघुस्वक पांच दिन परिमाण शिष्य सोचते हैं यह इतने मात्र प्रायश्चित्त से दोषमुक्त का प्रायश्चित्त। अथवा यथालघुस्वक व्यवहार शुद्ध होता है, हो गया। यदि वह शिष्य पूर्व का कोई अन्य प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त नहीं आता। वहन कर रहा हो तो वह गुरु से सबके सामने कहता ६०४३.गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होइ दसमं तु। है आपने मुझे पहले यह प्रायश्चित्त दिया था उसे मैं वहन अहगुरुग दुवालसम, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ कर रहा हूं। एकमासपरिमाण वाला गुरुक व्यवहार अष्टम से चातुर्मास प्रमाण वाला गुरुतरक व्यवहार दशम से और पुलागभत्त-पदं छहमास प्रमाण वाला यथागुरुक व्यवहार द्वादश से पूरा हो जाता है। यह गुरुक पक्ष में अर्थात् गुरुव्यवहार के पूर्ति ___निग्गंथीए य गाहावइकुलं विषयक तपःप्रतिपत्ति है। पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठाए अण्णयरे ६०४४.छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल एगठाण पुरिमहूं। पुलागभत्ते पडिग्गाहिए सिया, सा य निव्वीयं दायव्वं, अहालहुसगम्मि सुद्धो वा॥ संथरेज्जा, कप्पइ से तदिवसं तेणेव तीस दिन प्रमाण वाला लघुक व्यवहार षष्ठ से दो दिन भत्तद्वेणं पज्जोसवेत्तए, नो से कप्पइ दोच्चं के उपवास से, पचीस दिन प्रमाण वाला लघुतरक व्यवहार पि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए उपवास से तथा बीस दिन प्रमाण वाला यथालघुक व्यवहार पविसित्तए। सा य नो संथरेज्जा एवं से आचाम्ल से पूरा हो जाता है। यह तीन प्रकार के लघुक व्यवहार की तपःप्रतिपत्ति है। पन्द्रह दिन प्रमाण वाला कप्पइ दोच्चं पि गाहावइकुलं लघुस्वकव्यवहार एकस्थान से, दस दिन प्रमाण वाला पिंडवायपडियाए पविसित्तए॥ लघुस्वतरकव्यवहार पूर्वार्द्ध से, पांच दिन प्रमाण वाला -त्ति बेमि यथालघुस्वकव्यवहार निर्विकृति से पूरा हो जाता है। कोई (सूत्र ४१) मुनि परिहारतपप्रायश्चित्त वहन कर रहा हो और उसके प्रति यदि यथालघुस्वक व्यवहार की प्रस्थापना करनी हो तो वह ६०४७.उत्तरियपच्चयट्ठा, सुत्तमिणं मा हु हुज्ज बहिभावो। आलोचनामात्र से शुद्ध है क्योंकि उसने कारण में यतनापूर्वक जससारक्खणमुभए, सुत्तारंभो उ वइणीए॥ प्रतिसेवना की है। लोकोत्तरिक अपरिणामक तथा अतिपरिणामक शिष्यों के ६०४५.जं इत्थं तुह रोयइ, इमे व गिण्हाहि अंतिमे पंच। प्रत्यय के लिए यह सूत्र अर्थात् अनन्तरोक्तसूत्र कहा गया है। हत्थं व भमाडेउं, जं अक्कमते तगं वहइ॥ पूर्वोक्त का बहिर्भाव न हो, इसलिए वह उपक्रम था। प्रस्तुत इस प्रायश्चित्त के प्रस्तार की रचना कर आचार्य कहते सूत्रारंभ व्रतिनीविषयक उभय लोक इहलोक और परलोक में हैं-शिष्य! इन प्रायश्चित्तों में से तुमको जो रुचिकर लगे उसे यश में संरक्षण के लिए है। ग्रहण करो। यह अंतिम जो पांच रातदिन का प्रायश्चित्त है ६०४८.तिविहं होइ पुलागं, धण्णे गंधे य रसपुलाए य। उसे ग्रहण करो। तब वह शिष्य यथालघुस्वक प्रायश्चित्त चउगुरुगाऽऽयरियाई, समणीणुद्दद्दरग्गहणे।। लेता है। अथवा हाथ को घुमाकर गुरु जिस प्रायश्चित्त के पुलाक के तीन प्रकार हैं-धान्यपुलाक, गंधपुलाक, लिए कहते हैं उसे ग्रहण कर लेता है। रसपुलाक। यदि आचार्य प्रवर्तिनी को यह सूत्र नहीं कहते हैं ६०४६.उब्भावियं पवयणं, थोवं ते तेण मा पुणो कासि।। तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि प्रवर्तिनी आर्याओं अइपरिणएसु अन्नं, बेइ वहतो तगं एयं॥ को नहीं कहती है तो चतुर्गुरु और आर्याएं स्वीकार नहीं आचार्य उस शिष्य को कहते हैं किसी अपराध पर करती हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आर्याएं तुमको पारिहारिक तप का प्रायश्चित्त दिया गया था। अब यदि ऊर्ध्वदर-सुभिक्ष में पुलाक ग्रहण करती हैं तो चतुर्गुरु वैसा अपराध पुनः मत करना। इस बार तुमने परवादी का का प्रायश्चित्त है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ =बृहत्कल्पभाष्यम् ६०४९.निप्फावाई धन्ना, गंधे वाइग-पलंडु-लसुणाई। ६०५४.छक्कायाण विराहण, वाउभय-निसग्गओ अवन्नो य। खीरं तु रसपुलाओ, चिंचिणि-दक्खारसाईया॥ उज्झावणमुज्झंती, सइ असइ दवम्मि उड्डाहो॥ निष्पाव-वल्ल आदि धान्य धान्यपुलाक है। मद्य, कांदा, तीनों प्रकार के पुलाक के सेवन से ये दोष यथायोग होते लहसुन आदि गंधपुलाक हैं। दूध, इमली का रस, दाक्षारस हैं-छहकाय की विराधना, वायु का प्रकोप, कायिकी और आदि रसपुलाक है। संज्ञा का व्युत्सर्ग गृहस्थों के यहां करने पर अवर्णवाद होता ६०५०.आहारिया असारा, करेंति वा संजमाउ णिस्सारं।। है, स्थान की स्वामिनी उसी साध्वी से जहां उसने पुरीष निस्सारं व पवयणं, द8 तस्सेविणिं बिंति॥ आदि का व्युत्सर्ग किया था, पुरीष उठवाती है या फिर स्वयं पुलाक का अर्थ है-असार। वल्ल आदि का भोजन उठाकर यथास्थान फेंकती है। शौच के लिए कलुषित द्रव है, असार है। ये सभी प्रकार के पुलाक संयम से व्यक्ति थोड़ा है या है ही नहीं तो दोनों ओर से प्रवचन का उड्डाह को निस्सार कर देते हैं। रसपुलाक का सेवन करने वाली होता है। साध्वी को देखकर प्रवचन की निःसारता को लोग कहने लग ६०५५.हिज्जो अह सक्खीवा, आसि ण्हं संखवाइभज्जा वा। जाते हैं। ___ भग्गा व णाए सुविही', दुद्दिट्ठ कुलम्मि गरहा य॥ ६०५१.आणाइणो य दोसा, विराहणा मज्जगंध मय खिंसा। लोग कहने लगते हैं-ओह! कल तो यह साध्वी मद्यमद निरोहेण व गेलण्णं, पडिगमणाईणि लज्जाए॥ से उन्मत्त थी। गंधपुलाक का भोजन कर साध्वी जब तीनों प्रकार के पुलाक ग्रहण करने पर आज्ञाभंग आदि गोचरचर्या में जाती है और उसके अधोवायु के शब्द को दोष होते हैं। संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। सुनकर लोग उपहास करते हुए कहते हैं-ओह! पूर्व में यह रस-पुलाक का सेवन करने पर मद्यगंध आती है, मदविह्वल शंख बजाने वाले की भार्या थी अथवा इसने वायु के शब्द से साध्वी को देखकर लोग खिंसना करते हैं। धान्यपुलाक से 'सुविही'-आंगन की मंडपिका को भी तोड़ डाला है। यह वायुप्रकुपित होती है। उसका निरोध करने से ग्लानत्व हो दुर्दष्टधर्मा है, अपने कुल को कलंकित किया है। इस प्रकार सकता है। वायु निकलने से उड्डाह होता है। तब लज्जावश उसकी गर्दी होती है। साध्वी प्रतिगमन आदि कर देती है। ६०५६.जहिं एरिसो आहारो, तहिं गमणे पुव्ववण्णिया दोसा। ६०५२.वसहीए वि गरहिया, गहणं च अणाभोए, ओमे तहकारणेण गया। किमु इत्थी बहुजणम्मि सक्खीवा। ६०५७.गहियमणाभोएणं, वाइग वज्जं तु सेस वा भुंजे। लाहुक्कं पिल्लणया, भिच्छुप्पियं तु भुत्तुं, जा गंधो ता न हिंडती॥ लज्जानासो पसंगो य॥ जहां ऐसा पुलाक आहार प्राप्त होता है वहां जाने स्त्री अर्थात् निर्ग्रन्थी जो सक्षीब-मद्यमदयुक्त हो, वह पर पूर्ववर्णित दोष होते हैं। अवम-दुर्भिक्ष आदि कारणों से यदि वसति में भी गर्हित होती है तो अनेक लोगों में पर्यटन वहां जाना पड़े और अनाभोग से पुलाकभक्त का ग्रहण करती हुई का तो कहना ही क्या? उसे देखकर लोग करना पड़े तो अनाभोग से गृहीत पुलाक आहार में मद्य को प्रवचन की लघुता करते हैं। उद्भ्रामक पुरुष उसकी छोड़कर शेष का भोजन कर ले। भिक्षप्रिय अर्थात कांदा।२ प्रतिसेवना करते हैं। मद के वशीभूत वह प्रलाप करती है, उसको खाने के बाद जब तक उसकी गंध रहे तब तक उसके लज्जा का नाश हो जाता है। फिर प्रतिसेवना का बाहर न जाए। प्रसंग भी आ सकता है। ६०५८.कारणगमणे वि तहिं, पुव्वं घेत्तूण पच्छ तं चेव। ६०५३.घुन्नइ गई सदिट्ठी, जहा य रत्ता सि लोयण-कवोला। हिण्डण पिल्लण बिइए, ओमे तह पाहुणट्ठा वा॥ अरहइ एस पुताई, णिसेवई सज्झए गेहे। अवम आदि स्थानों में कारणवश जाना भी पड़े तो मदभावित साध्वी को देखकर लोग कहते हैं-देखो, वहां मद्य, पलांडु, लहसुन आदि ग्रहण करना एकान्ततः इसकी गति और दृष्टि घूर्णित हो रही है। इसके लोचन और निषिद्ध हैं। यदि पहले ले लिए गए हों तो उसीका भोजन कपोल रक्त दिखाई दे रहे हैं। यह पुताकी-उद्भ्रामिका होनी कर ले, अन्य न लाए, भिक्षा के लिए न घूमे। अपवादपद में चाहिए। इसीलिए यह 'सध्वजगेह' अर्थात् कल्यपाल के घर यदि कोई साध्वियां अतिथिरूप में आ गई हों तो उनके में आती-जाती है। भक्त-पान के लिए जाया जा सकता है। दुर्भिक्ष में १. सुविही-अङ्गणमण्डपिका। (वृ. पृ. १५९८) २. भिक्षुप्रियं नाम-पलाण्डु। (वृ. पृ. १५९८) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३३ पांचवां उद्देशक= पर्याप्त लाभ न होने पर दूसरी बार भिक्षा के लिए जा सकता है। धान्य पुलाक के भोजन से वायु का प्रकोप या संज्ञा संभव हो तो अन्य साध्वियों की वसति में संज्ञा का विसर्जन करे या श्राविका के घर में पुरोहड़ में व्युत्सर्ग क्रिया करे। ६०५९.एसेव गमो नियमा, तिविह पुलागम्मि होइ समणाणं। नवरं पुण नाणत्तं, होइ गिलाणस्स वइयाए॥ तीनों प्रकार के पुलाक संबंधी यही गम-विकल्प श्रमणों के लिए है। इनमें नानात्व यह है-ग्लान के लिए दूध आदि लाने के लिए जिका में साधु जा सकते हैं। यदि पर्याप्त भोजन कर चुके हैं तो स्वयं के लिए रसपुलाक ग्रहण नहीं करते। दूध आदि पीकर फिर भिक्षा के लिए नहीं जाते। कारणवश जा भी सकते हैं। यतना पूर्ववत्। पांचवां उद्देशक समाप्त Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक (गाथा ६०६०-६४९०) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक अवयण-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वइत्तए, तं जहा-अलियवयणे हीलियवयणे खिसियवयणे फरुसवयणे गारत्थियवयणे विओसवियं वा पुणो उदीरित्तए॥ (सूत्र १) ६०६०.कारणे गंधपुलागं, पाउं पलविज्ज मा हु सक्खीवा। ___ इइ पंचम-छट्ठाणं, थेरा संबंधमिच्छंति॥ कोई साध्वी कारणवश गंधपुलाक पीकर मद से उन्मत्त होकर अलीक आदि वचनों का प्रलाप न करे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का प्रारंभ है। इस प्रकार पांचवें और छठे उद्देशक का संबंध स्थविर 'श्री भद्रबाहस्वामी' चाहते हैं। ६०६१.दुचरिमसुत्ते वुत्तं, वादं परिहारिओ करेमाणो। बुद्धी परिभूय परे, सिद्धंतावेत संबंधो॥ पांचवें उद्देशक के दो चरिय सूत्रों में पारिहारिक मुनि वाद करता हुआ परवादी की बुद्धि को पराजित कर सिद्धांत से हटकर भी वचन कहता है, परंतु सूत्रगत छह वचनों को छोड़कर। यह प्रकारान्तर से संबंध है। ६०६२.दिव्वेहिं छंदिओ हं, भोगेहिं निच्छिया मए ते य। ___ इति गारवेण अलियं, वइज्ज आईय संबंधो॥ __ कोई मुनि गुरु के पास आकर कहता है-दिव्य भोगों के लिए मैं निमंत्रित हुआ, परन्तु मैंने उन भोगों की इच्छा नहीं की। इस प्रकार स्वयं के गौरव के लिए उसने झूठ बोल दिया। दोनों उद्देशकों के आदि सूत्र का यह संबंध है। ६०६३.छ च्चेव अवत्तव्वा, अलिगे हीला य खिंस फरुसे य। गारस्थ विओसविए, तेसिं च परूवणा इणमो।। ये छह प्रकार के वचन अवक्तव्य हैं। अलीकवचन, १. प्रचलायते-उपविष्टः सन निद्रायत इत्यर्थः। (वृ. पृ. १६०३) हीलितवचन, खिंसितवचन, परुषवचन, गृहस्थवचन, व्यवशमित-उदीरितवचन। इनका प्ररूपणा इस प्रकार है। ६०६४.वत्ता वयणिज्जो या, जेसु य ठाणेसु जा विसोही य। जे य भणओ अवाया, सप्पडिक्खा उ णेयव्वा॥ अलीक वचन बोलने वाला वक्ता, वचनीय–जिसको उद्दिष्ट कर अलीकवचन बोला जाता है, जिन-जिन स्थानों में वह वचन अलीक होता है, जैसी उनकी शोधि-प्रायश्चित्त होता है, अलीक बोलने के जो-जो अपाय हैं, उनके जो अपवाद हैं ये सब कथनीय हैं। ६०६५.आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि य थेरए य खुड्डे य। गुरुगा लहुगा गुरु लहु, भिण्णे पडिलोम बिइएणं॥ आचार्य आचार्य को अलीक कहता है चतुर्गुरु, आचार्य अभिषेक को अलीक कहता है चतुर्लघु, आचार्य भिक्षु को अलीक कहता है मासगुरु, आचार्य स्थविर को अलीक कहता है मासलघु और आचार्य क्षुल्लक को अलीक कहता है भिन्नमास। द्वितीय आदेश के अनुसार यही प्रायश्चित्त प्रतिलोमरूप में वक्तव्य है। ६०६६.पयला उल्ले मरुए, पच्चक्खाणे य गमण परियाए। समुद्देस संखडीओ, खुड्डग परिहारिय मुहीओ। समुदस सख ६०६७.अवस्सगमणं दिसासुं, एगकुले चेव एगदव्वे य। पडियाखित्ता गमणं, पडियाखित्ता य भुंजणयं॥? अलीकवचन के स्थान-प्रचला, आर्द्र, मरुक, प्रत्याख्यान, गमन, पर्याय, समुद्देश, संखड़ी, क्षुल्लक, पारिहारिक, घोटकमुखी, अवश्यगमन, दिशा, एककुल, एकद्रव्य, प्रत्याख्यायगमन, प्रत्याख्यायभोजन। (ये द्वारगाथा हैं। विवरण आगे की गाथाओं में) ६०६८.पयलासि किं दिवा ण पयलामि, लहु दुच्चनिण्हवे गुरुगो। अन्नदाइत निण्हवे, लहुगा गुरुगा बहुतराणं॥ एक साधु दिन में बैठे-बैठे नींद ले रहा था। दूसरे साधु ने कहा-नींद ले रहे हो? उसने कहा नहीं। इस प्रकार प्रथम Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ बृहत्कल्पभाष्यम् बार अलीक बोलने से मासलघु। दूसरी बार मासगुरु। तीसरी बार दूसरे साधु को दिखाया, फिर भी वह अलीक कहता है तो चतुर्लघु और अनेक साधुओं के कहने पर भी स्वीकार न करने पर चतुर्गुरु। ६०६९.निण्हवणे निण्हवणे, पच्छित्तं वड्डए य जा सपयं। ___ लहु-गुरुमासो सुहुमो, लहुगादी बायरो होति॥ इस प्रकार बार-बार अलीक बोलने पर प्रायश्चित्त बढ़ता है-स्वपद अर्थात् पारांचिक पर्यन्त। जैसे-पांचवीं बार अलीक कहने पर षड्लघु, छठी बार षड्गुरु, सातवीं बार छेद, आठवीं बार मूल, नौवीं बार अनवस्थाप्य, दसवीं बार पारांचिक। प्रस्तुत प्रसंग में जहां-जहां लघुमास या गुरुमास है, वहां-वहां सूक्ष्म मृषावाद है और जहां चतुर्लघुक आदि है वहां बादर मृषावाद है। ६०७०.किं नीसि वासमाणे, ण णीमि नणु वासबिंदवो एए। __ भुंजंति णीह मरुगा, कहिं ति नणु सव्वगेहेसु॥ वर्षा बरस रही है। मुनि कहीं जाने के लिए प्रस्थित हुआ। दूसरे साधु ने कहा-'अरे! बरसात में कहां जा रहे हो? उसने कहा बरसात में नहीं जा रहा हूं। ये वर्षा के बिन्दु हैं। 'वासति' धातु का अर्थ है-शब्द करना। शब्द होता हो तब जाने की मनाही है। मैं जा रहा हूं, कोई शब्द नहीं हो रहा है। छल से प्रत्युत्तर देने पर प्रथम बार, द्वितीय बार आदि में प्रायश्चित्त पूर्ववत्। एक साधु ने बाहर से उपाश्रय में आकर कहा-साधुओं! उठो, वहां जाओ जहां ब्राह्मण भोजन करते हैं। साधु उठे, हाथों में पात्र लेकर भिक्षाचर्या के लिए निकले। उस साधु से पूछा-वे ब्राह्मण कहां भोजन कर रहे हैं? उसने कहा-'सभी अपने-अपने घरों में। इस प्रकार छल से उत्तर देना।' ६०७१. जसु पच्चक्खातं, महं ति तक्खण प जिओ पुट्ठो। किं व ण मे पंचविहा, पच्चक्खाया अविरई उ॥ एक साधु ने दूसरे साधु से कहा-भोजन कर लो। उसने कहा-मैंने प्रत्याख्यान कर लिया है। तत्क्षण वह भोजनमंडली में गया और भोजन करने लगा। साधु ने पूछा-'आर्य! तुमने तो कहा था कि मैंने प्रत्याख्यान कर लिया है।' वह बोला-'क्या मैंने पांच प्रकार की अविरति का प्रत्याख्यान नहीं किया है?' ६०७२.वच्चसि नाहं वच्चे, तक्खण वच्चंति पुच्छिओ भणइ। सिद्धंतं न विजाणसि, नणु गम्मइ गम्ममाणं तु॥ एक साधु ने दूसरे से पूछा-क्या चलोगे? नहीं, मैं नहीं चलूंगा। तत्क्षण वह चलने लगा। पूछने पर बोला-'तुम सिद्धांत को नहीं जानते-'गम्यमानमेव गम्यते नागम्यमानम्'चलने वाला ही चलता है, नहीं चलने वाला नहीं। जब तुमने मुझे पूछा तब मैं गम्यमान नहीं था।' ६०७३.दस एयस्स य मज्झ य, पुच्छिय परियाग बेइ उ छलेण। मम नव पवंदियम्मि, भणाइ बे पंचगा दस उ॥ दो साधु खड़े थे। तीसरा साधु आया। पूछा-आपका संयम-पर्याय कितना है। एक ने कहा-इसका और मेरा दस वर्ष का संयमपर्याय है। इस प्रकार उसने छल से उत्तर दिया। आगंतुक ने कहा-मेरा संयमपर्याय नौ वर्ष का है। वह वंदना करने लगा। तब उससे कहा-मेरा संयमपर्याय पांच वर्ष का और इसका पांच वर्ष का, दोनों को मिलाने पर दस होते हैं। इसलिए आप हम दोनों के लिए वंदनीय हैं। ६०७४.वट्टइ उ समुद्देसो, किं अच्छह कत्थ एस गगणम्मि। वटुंति संखडीओ, घरेसु णणु आउखंडणया।। एक साधु ने उपाश्रय में आकर अपने साथी साधुओं से कहा-आज समुद्देश है। ऐसे ही क्यों बैठे हो? इतना सुनते ही वे साधु गोचरचर्या के लिए उठे और उससे पूछा-कहां है समुद्देश? उसने कहा-गगनमार्ग में देखो, आज सूर्यग्रहण है। एक साधु ने उपाश्रय में आकर कहा-यहां प्रचुर संखड़ियां हैं। मुनियों ने गोचरी जाने की तैयारी की और उससे पूछा-कहां हैं संखड़ियां? उसने कहा-घर-घर में संखड़ी है। कैसे? घर-घर में आयुष्य का खंडन होता है, प्राणी मारे जाते हैं। ६०७५.खुड्डग! जणणी ते मता, परुण्णो जियइ त्ति अण्ण भणितम्मि। माइत्ता सव्वजिया, भविंसु तेणेस ते माता। एक साधु उपाश्रय में आकर एक क्षुल्लक साधु से बोला-क्षुल्लक! तुम्हारी जननी मर गई। क्षुल्लक रोने लगा। तब वह साधु बोला-अरे! रोते क्यों हो? तुम्हारी मां जीवित है। तब दूसरे साधुओं ने कहा-तुमने ही तो कहा था कि जननी मर गई है। तब वह बोला-मैंने ठीक ही कहा था। यह जो कुतिया मर गई, वह इसकी माता होती है। कैसे? अतीत में सभी जीव मातृत्वरूप में थे। इसलिए यह इसकी माता है। ६०७६.ओसण्णे दट्टणं, दिट्ठा परिहारिग त्ति लहु कहणे। कत्थुज्जाणे गुरुओ, वयंत-दिद्वेसु लहु-गुरुगा। ९/ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ६०७७.छल्लहुगा उ णियत्ते, आलोएंतम्मि छग्गुरू होति। परिहरमाणा वि कहं, अप्परिहारी भवे छेदो॥ ६०७८.किं परिहरंति णणु खाणु-कंटए सव्वे तुब्भे हं एगो। सव्वे तुब्भे बहि पवयणस्स पारंचिओ होति॥ किसी मुनि ने उद्यान में अवसन्न साधुओं को देखा उपाश्रय में आकर बोला-मैंने पारिहारिक साधुओं को देखा। इस प्रकार छलपूर्वक कहने वाले को मासलघु। साधुओं ने पूछा-कहां देखा? उसने कहा-उद्यान में। इस प्रकार कहने पर मासगुरु। पारिहारिक साधुओं को देखने के लिए उपाश्रय से मुनि चले और जब तक उन्हें देख नहीं लेते तब तक उस कहने वाले को चतुर्लघु और देख लेने पर चतुर्गुरु। 'ये मुनि अवसन्न हैं। ऐसा सोचकर वे साधु वहां से लौट आए। तब उस कहने वाले को षड्लघु, वे साधु आचार्य के पास आलोचना करते हैं, तब षड्गुरु, वह मुनि उत्तर-प्रत्युत्तर करता हुआ कहता है-वे उद्यानस्थ मुनि परिहार करते हुए भी अपरिहारी कैसे? ऐसा कहने वाले को छेद। साधुओं ने तब कहा-वे क्या परिहार करते हैं जिससे उनको पारिहारिक कहा जाए? तब वह कहता है-वे कंटक, स्थाणु आदि का परिहार करते हैं, इस प्रकार कहने वाले को मूल। अन्त में उसने कहा-तुम सब एक हो, मैं अकेला हूं। इस प्रकार कहने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। उसने तब कहा-तुम सब प्रवचन से बाह्य हो-ऐसा कहने वाले को पारांचिक प्रायश्चित्त है। ६०७९.किं छागलेण जंपह, किं मं होप्पेह एवऽजाणंता। बहुएहिं को विरोहो, सलभेहि व नागपोतस्स। उसने तब कहा-तुम क्यों इस प्रकार 'छागल न्याय' से बोल रहे हो? अर्थात् क्यों बकरे की भांति प्रलाप कर रहे हो? तुम मुझे ऐसा नहीं जानते हुए भी मेरा गला पकड़ कर क्यों प्रेरित कर रहे हो? अथवा बहुतों के साथ मेरा क्या विरोध है? हाथी के बच्चे का शलभों के साथ कैसा विरोध? ६०८०.भणइ य दिट्ठ नियत्ते, आलोए आमं ति घोडगमुहीओ। माणुस सव्वे एगे, सव्वे बाहिं पवयणस्स॥ ६०८१.मासो लहुओ गुरुओ, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेओ मूलं तह दुगं च॥ एक साधु बाहर से प्रतिश्रय में आया और साधुओं से बोला-आज मैंने एक आश्चर्य देखा। पूछने पर कहा-घोड़े के मुंहवाली स्त्रियों को देखा। कहां? उद्यान में। ऐसा कहने वाले को मासगुरु। देखने के लिए साधु प्रस्थित होते हैं तो चतुर्लघु, घोड़ियों को देख लेने पर चतुर्गुरु, साधुओं के लौट आने पर षड्लघु, गुरु के समक्ष आलोचना करने पर षड्गुरु, गुरु के पूछने पर यदि कहता है-आमं-हां, घोटकमुखी स्त्रियों को देखा। ऐसा कहने पर छेद। साधुओं ने उससे कहा-उनको तुम स्त्रियां कहते हो? वह बोला तो क्या वे मनुष्य हैं? इस प्रकार कहने पर मूल। फिर वह मुनि बोला-तुम सब एक हो गए हो। मैं अकेला हूं। इस प्रकार कहने पर अनवस्थाप्य और 'तुम सब प्रवचन के बाह्य हो'-ऐसा कहने पर पारांचिक। ६०८२.सव्वेगत्था मूलं, अहगं इक्कल्लगो य अणवट्ठो। सव्वे बहिभावा पवयणस्स वयमाणे चरिमं तु॥ प्रकारान्तर प्रायश्चित्त-'तुम सब एक हो' ऐसा कहने पर मूल, “मैं अकेला हूं' ऐसा कहने पर अनवस्थाप्य, 'तुम सब प्रवचन के बाह्य हो' ऐसा कहने पर पारांचिक। ६०८३.किं छागलेण जंपह, किं मं हंफेह एवऽजाणंता। बहुएहिं को विरोहो, सलभेहि व नागपोयस्स। उसने तब कहा-तुम क्यों इस प्रकार 'छागल न्याय' से बोल रहे हो? अर्थात् क्यों बकरे की भांति प्रलाप कर रहे हो? तुम मुझे ऐसा नहीं जानते हुए भी मेरा गला पकड़ कर क्यों प्रेरित कर रहे हो? अथवा बहुतों के साथ मेरा क्या विरोध है? हाथी के बच्चे का शलभों के साथ कैसा विरोध? ६०८४.गच्छसि ण ताव गच्छं, किं खु ण जासि त्ति पुच्छितो भणति। वेला ण ताव जायति, परलोगं वा वि मोक्खं वा॥ एक साधु ने दूसरे से पूछा-जाओगे। 'हां' जाऊंगा। अरे! तुम अभी तक नहीं गए, यह पूछने पर वह कहता है-अभी तक परलोक या मोक्ष जाने की वेला नहीं हुई है। ६०८५.कतरं दिसं गमिस्ससि, पुव्वं अवरं गतो भणति पुट्ठो। किं वा ण होति पुव्वा, इमा दिसा अवरगामस्स॥ एक साधु ने दूसरे से पूछा-किस दिशा में जाओगे? उसने कहा-पूर्व दिशा में। कुछ समय पश्चात् वह पश्चिम दिशा में चला गया। वहां वह साधु मिल गया। उसने पूछाअरे! यह क्या! तुमने पूर्व दिशा में जाने को कहा था, पश्चिम दिशा में कैसे आ गए? वह बोला-क्या अपरग्राम से यह पूर्व दिशा नहीं है? है ही। ६०८६.अहमेगकुलं गच्छं, वच्चह बहुकुलपवेसणे पुट्ठो। भणति कहं दोण्णि कुले, एगसरीरेण पविसिस्सं॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० = बृहत्कल्पभाष्यम् भिक्षाचर्या के लिए उत्थित एक साधु ने कहा-चलो, ६०९१.गहियं च अहाघोसं, तहियं परिपिंडियाण संलावो। भिक्षा के लिए चलते हैं। उसने कहा-तुम चलो, मैं तो एक अमुएणं सुत्तत्थो, सो वि य उवजीवितुं दुक्खं॥ ही कुल में जाऊंगा। यह कहकर वह अनेक कुलों में जाने एक साधु को गुरु ने जिस घोष से आलाप दिए, उसने लगा तब पूर्व मुनि ने पूछा-यह कैसे? उसने कहा-क्या मैं उसी घोष में ग्रहण किया। वह प्रतीच्छकों को वाचना देता एक शरीर से दो कुलों में प्रवेश कर सकता हूं? था। वहां अन्यत्र एकत्रित साधुओं का परस्पर यह संलाप ६०८७.वच्चह एगं दव्वं, घेच्छं णेगगह पुच्छितो भणती।। होने लगा कि अमुक मुनि के पास से शुद्ध सूत्रार्थ प्राप्त हो गहणं तु लक्खणं पोग्गलाण णण्णेसि तेणेगं॥ सकता है। किन्तु उनकी सेवा करना बहुत कष्टप्रद है। भिक्षाचर्या के लिए चलने के लिए कहने पर मुनि क्योंकि.......... बोला-आप जाएं। मुझे तो केवल एक ही द्रव्य लेना है। वह ६०९२.जह कोति अमयरुक्खो , घरों में गया और अनेक द्रव्य ग्रहण करने लगा। तब उससे विसकंटगवल्लिवेढितो संतो। पूछा गया-एक द्रव्य को छोड़कर अनेक द्रव्य कैसे ले रहे ण चइज्जइ अल्लीतुं, हो? उसने कहा-धर्मास्तिकाय आदि छह प्रकार के द्रव्य हैं। एवं सो खिंसमाणो उ॥ उनमें ग्रहणलक्षण वाला केवल पुद्गलास्तिकाय है। मैं केवल कहीं कोई अमृतवृक्ष है। वह विषकंटकवल्ली से उस एक ही द्रव्य को ले रहा हूं। परिवेष्टित है। उसका आश्रय नहीं लिया जा सकता। इसी ६०८८.एमेव य हीलाए, खिंसा-फरुसवयणं च वदमाणो। प्रकार उस खिंसना करने वाले मुनि का आश्रय लेना अत्यंत गारत्थि विओसविते, इमं च जं तेसि णाणत्तं॥ दुष्कर है। इसी प्रकार हीलावचन, खिंसावचन, परुषवचन, ६०९३.ते खिंसणापरद्धा, जाती-कुल-देस-कम्मपुच्छाहिं। गृहस्थवचन तथा व्यवशमित-उदीरणावचन बोलने वाले आसागता णिरासा, वच्चंति विरागसंजुत्ता।। को प्रायश्चित्त जानना चाहिए। उनमें जो नानात्व है वह इस जो उस साधु की उपसंपदा स्वीकार करता है वह सबसे प्रकार है। पहले जाति, कुल, देश और कर्म-व्यवसाय के विषय में ६०८९.आदिल्लेसुं चउसु वि, सोही गुरुगाति भिन्नमासंता।। पूछता है। फिर आगंतुक शिष्य पढ़ने लगते हैं और कहीं पणुवीसतो विभाओ, विसेसितो बिदिय पडिलोमं॥ स्खलित हो जाने पर वह उनकी जाति आदि से खिंसना इन वचनों में प्रथम चार वचनों को बोलने से प्रायश्चित्त है करता है तब वे प्रतीच्छक सोचते हैं हम यहां सूत्रार्थ ग्रहण चतुर्गुरु से भिन्नमास पर्यन्त। आचार्य आचार्य की हीलना करने के आशय से आए थे। परंतु निराश होकर लौट रहे हैं। करता है-चतुर्गुरु, उपाध्याय की चतुर्लघु, भिक्षु की हमें यहां से विरक्ति हो गई है। वे कहते हैंमासगुरु, स्थविर की मासलघु और क्षुल्लक की भिन्नमास। 'दिवासि कसेरुमई, अणुभूया सि कसेरुमई। ये आचार्य के तप और काल से गुरु होते हैं। ये आचार्य के पीयं च ते पाणिययं, वरि तुह नाम न दंसणयं।' पांच संयोग हैं। इसी प्रकार सबके मिलाकर ५४५ पचीस ६०९४.सुत्त-उत्थाणं गहणं, अहगं काहं ततो पडिनियत्तो। भंग हो जाते हैं। वह प्रायश्चित्त तप और काल से विशेषित जाति कुल देस कम्म, पुच्छति खल्लाड धण्णागं॥ होते हैं। द्वितीय आदेश के अनुसार यह प्रायश्चित्त प्रतिलोम एक साधु ने सोचा-'मैं उस मुनि के पास जाकर सूत्र से ज्ञातव्य है। भिन्नमास से प्रारंभ होकर चतुर्गुरु तक रहेगा। और अर्थ ग्रहण करूंगा और मुनि को भी खिंसना दोष से ६०९०.गणि वायए बहुस्सए, मेहावाऽऽयरिय धम्मकहि वादी। मुक्त करूंगा। उसने आचार्य से उस मुनि के विषय में पूछा। अप्पकसाए थूले, तणुए दीहे य मडहे य॥ आचार्य ने कहा-वह मुनि गोबरग्राम में मिलेगा। यह सुनकर हीलितवचन के दो आधार हैं-सूचा या असूचा। सूचा से वह मुनि वहां से प्रतिनिवृत्त होकर गोबरग्राम की ओर गया। जैसे-हम अमुक अमुक नहीं हैं जो उनकी हीलना करें। वहां जाकर उसने उस मुनि के जाति कुल, देश और कर्मअसूचा से जैसे-तुम क्या आचार्य हो? तुम से क्या होना व्यवसाय के विषय में पूछा। लोगों ने कहा-'खल्वाट जाना है आदि। इस प्रकार गणी, वाचक, बहुश्रुत, मेधावी, घन्निका'-एक नापित था। उसके धन्निका नाम की दासी थी। आचार्य, धर्मकथी, वादी, अल्पकषायी, स्थूल, कृश, दीर्घ, वह खल्वाट कोलिक के साथ रहती थी। उसका पुत्र है वह ठिगने आदि सूचा या असूचा से इनकी हीलना करना हीलित । मुनि। यह सुनकर वह उस मुनि के पास जाकर बोला-मैं वचन है। तुम्हारे पास उपसंपदा स्वीकार करना चाहता हूं। उपसंपदा Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ग्रहण करने के पश्चात् उसने पूछा-तुम्हारा जन्म कहां हुआ? ६१०१.केणाऽऽणीतं पिसियं, तुम्हारी मां कौन है? पूछने पर उसने कुछ उत्तर नहीं दिया फरुसं पुण पुच्छिया भणति वाही। तब प्रश्नकर्ता ने समझ लिया कि यह हीन जाति का है। किं खू तुमं पिताए, अत्यधिक आग्रह करने पर उसने कहा आणीतं उत्तरं वोच्छं। ६०९५.थाणम्मि पुच्छियम्मि, एक बार व्याध की पुत्री मांस लेकर आई। कुटुम्बी की __ ह णु दाणि कहेमि ओहिता सुणधा। पुत्री ने पूछा-मांस कौन लाया है ? व्याध पुत्री को पूछने पर साहिस्सऽण्णे कस्स व, वह परुषवचन में कहती है-क्या तुम्हारा बाप लाया है? इमाइं तिक्खाइं दुक्खाइं॥ कुटुम्बी की पुत्री बोली क्या मेरे पिता व्याध हैं जो मांस उचित स्थान पर तुमने पूछा है, अवधानपूर्वक सुनो, अब लाए? यह लौकिक परुषवचन का उदाहरण है। अब मैं आगे मैं बता रहा हूं, किस दूसरे व्यक्ति के समक्ष मैं मेरे जीवनवृत्त लोकोत्तरिक परुषवचन के विषय में कहूंगा। के तीक्ष्ण दुःखदायी कष्टों को कहूंगा। ६१०२.फरुसम्मि चंडरुद्दो, अवंति लाभे य सेह उत्तरिए। ६०९६.वइदिस गोब्बरगामे, खल्लाडग धुत्त कोलिय त्थेरो। आलत्ते वाहिते, वावारिय पुच्छिय णिसिटे॥ ___ण्हाविय धणिय दासी, तेसिं मि सुतो कुणह गुज्झं॥ परुषवचन में चंडरुद्र का उदाहरण है। अवन्ती नगरी में वइदिस नगर के निकट गोबरग्राम में एक धूर्त कोलिक उसे एक शिष्य का लाभ हुआ। वही लोकोत्तरिक परुषवचन खल्वाट स्थविर था। उसकी धन्निका नाम की पत्नी थी। वह एक का उदाहरण है। लोकोत्तरिक परुषवचन की उत्पत्ति के ये नाई की दासी थी। मैं उनका पुत्र हूं।इस बात को तुम गुप्त रखना। पांच स्थान हैं-आलप्त, व्याहृत, व्यापारित, पृष्ट, निसृष्टकिसी के समक्ष प्रकाशित मत करना। आदिष्ट, जैसे-यह करो, वह करो। ६०९७.जेट्ठो मज्झ य भाया, गब्भत्थे किर ममम्मि पव्वइतो। ६१०३.ओसरणे सवयंसो, इब्भसुतो वत्थभूसियसरीरो। तमहं लद्धसुतीओ, अणु पव्वइतोऽणुरागेण॥ दायण त चंडरुद्दे, एस पवंचेति अम्हे ति॥ मैं जब गर्भ में था तब मेरा बड़ा भाई प्रवजित हो गया। ६१०४.भूतिं आणय आणीते दिक्खितो कंदिउं गता मित्ता। मैंने जब यह सुना तब भाई के अनुराग से मैं भी उसके बाद वत्तोसरणे पंथं, पेहा वय दंडगाऽऽउट्टो।। प्रवजित हो गया। उज्जयिनी में रथयात्रा का उत्सव था। वहां 'ओसरण'-- ६०९८.आगारविसंवइयं, तं नाउं सेसचिंधसंवदियं। अनेक मुनि एकत्रित हुए। एक सेठ का लड़का वस्त्रभूषित णिउणोवायच्छलितो, आउंटण दाणमुभयस्स॥ शरीर वाला अपने मित्रों के साथ वहां आया और साधुओं से यद्यपि मेरे भाई का ऐसा आकार नहीं है-आकार का बोला-मुझे प्रव्रज्या दो। साधुओं ने सोचा-यह हमें धोखा दे विसंवाद है फिर भी जाति आदि के चिह्नों से संवादित है, यह रहा है। उन्होंने उसे चंडरुद्र आचार्य के दर्शन कराए। उस जानकर उसने सोचा-मैं इस साधु के निपुण उपाय से छला। सेठ के लड़के ने आचार्य से कहा-मुझे प्रव्रज्या दो। आचार्य गया हूं। तत्पश्चात् उसने 'मिच्छामि दुक्कडं' पूर्वक दोषों से ने कहा-राख ले आओ। वह राख ले आया। आचार्य ने आवर्तन-उपरमण किया और सूत्र और अर्थ-दोनों की वाचना उसका लुंचन कर दीक्षित कर दिया। उसके मित्र क्रन्दन उसको दी। करते हुए वहां से चले गए। समवसरण संपन्न हुआ। आचार्य ६०९९.दुविहं च फरुसवयणं, लोइय लोउत्तरं समासेणं। ने उस नए शिष्य को कहा-मार्ग की प्रतिलेखना करो। हमें लोउत्तरियं ठप्पं, लोइय वोच्छं तिमं णातं॥ यहां से जाना है। वह मार्ग की प्रतिलेखना कर आ गया तब संक्षेप में परुषवचन के दो प्रकार हैं-लौकिक और आचार्य ने वहां से प्रस्थान कर दिया-आगे शिष्य और लोकोत्तरिक। उनमें लोकोत्तरिक स्थाप्य है-आगे बतायेंगे। पीछे आचार्य। एक स्थान पर शिष्य स्खलित हुआ। लौकिक परुषवचन के विषय में कहूंगा। उसमें यह उदाहरण है। आचार्य ने रुष्ट होकर डंडे से उसे ताड़ित किया। वह शांत ६१००.अन्नोन्न समणुरत्ता, वाहस्स कुडुंबियस्स वि य धूया। रहा। उसने कहा-अब मैं सावधानीपूर्वक चलूंगा। वह उपशम तासिं च फरुसवयणं, आमिसपुच्छा समुप्पण्णं॥ भाव में लीन हो गया। उसे केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। व्याध और कुटुम्बी की पुत्रियां परस्पर अनुरक्त थीं। दोनों आचार्य उसके उपशमभाव को देखकर स्वयं भी उपशमभाव सखियां थीं। आमिष-मांस की पृच्छा से दोनों के मध्य में लीन हो गए। उसके फलस्वरूप उन्हें भी केवलज्ञान प्राप्त परुषवचन उत्पन्न हुआ। जैसे हो गया। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ ६१०५. तुसिणीए हुंकारे, किं ति व किं चडगरं करेसि त्ति । किं णिव्वुर्ति ण देसी, केवतियं वा वि रहसि त्ति ।। जो शिष्य आचार्य आदि द्वारा बुलाए जाने पर मौन रहता है, हुंकार करता है, क्या है ? ऐसा कहता है, क्या चटकर करते हो? क्या हमें शांति से रहने नहीं दोगे ? कितनी देर बोलते रहोगे ? - ये सारे परुषवचन के प्रकार हैं। ६१०६. मासो लहुगो गुरुगो, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ इनका प्रायश्चित्त इस प्रकार है-लघुमास, गुरुमास, चार लघुमास, चार गुरुमास, छह लघुमास, छह गुरुमास, छेद, मूल तथा द्विक अनवस्थाप्य और पारांचिक । ६१०७. आयरिएणाऽऽलत्तो, आयरितो चेव तुसिणितो लहुओ । रडसि त्ति छम्गुरुतं, मूल वाहिते गुरुगादि छेदतं ॥ ६१०८.लहुगाई वावारिते, मूलंतं चतुगुरुगाइ पुच्छिए णवमं । णीस छसु पतेसु, छल्लहुगादी तु चरिमंतं ॥ आचार्य ने आहूत किया, दूसरा बोला नहीं, आचार्य को मौन हो जाना पड़ा मासलघु हुंकार आदि से रटसि पर्यन्त कहना षड्गुरु । व्याहृत करने पर तूष्णीक आदि पदों में गुरुमास से छेद पर्यन्त । व्यापारित करने पर चतुर्लघु से पर्यन्त । पृष्ट-पूछने पर चतुर्गुरु से नौवें प्रायश्चित्तअनवस्थाप्य पर्यन्त । निसृष्ट में षड्लघु से चरम प्रायश्चितपारांचिक पर्यन्त ( यह सारा आचार्य द्वारा आचार्य को आलप्स, व्याहृत आदि करने पर प्रायश्चित्त कहा गया है | ) ६१०९. एवमुवज्झाएणं, भिक्खु थेरेण खुट्टएणं च । आलत्ताइपएहिं इक्किक्कपयं तु हासिज्जा ॥ इसी प्रकार आचार्य की भांति उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर तथा क्षुल्लक के साथ आलप्त आदि पदों में तूष्णीकता आदि छह प्रकारों में यथाक्रम एक-एक प्रायश्चित्त पद का हास करे। ६११०. आयरियादभिसेगो, एक्कगहीणो तदिक्किणा भिक्खू । थेरो तु तदिक्केणं, थेरा खुड्डो वि एगेणं ॥ अभिषेक का अर्थ है- उपाध्याय उपाध्याय आचार्य से आलस आदि पदों को करता हुआ प्रायश्चित्त की चारणिका में आचार्य से एक प्रायश्चित्तपद हीन होता है उपाध्याय । उपाध्याय से एक प्रायश्चित्तपद हीन भिक्षु का, उससे एक पदहीन स्थविर का और उससे एक पदहीन क्षुल्लक का। १.२. विस्तार के लिए देखें-वृ. पृ. १६१५, १६१६ । ६१११. भिक्खुसरिसी तु गणिणी, भिक्खुणि खुडुसरिच्छी, गुरु लहुपणगाइ दो इयरा ॥ निर्ग्रन्थीवर्ग में भी पांच पद होते हैं-प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका । गणिनी अर्थात् प्रवर्तिनी को भिक्षुसदृश माननी चाहिए। अभिषेका को स्थविरसदृश, भिक्षुणी को क्षुल्लकसदृश तथा इतर दो अर्थात् स्थविरा और क्षुल्लिका के यथाक्रम गुरूपंचक आदि और लघुपंचक आदि का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।" ६११२.लहुओ य लहुसगम्मिं, गुरुगो आगाढ फरूस वयमाणे । णिडुर-कक्कसवयणे, गुरुगा व पतोसओ जं च ॥ लघुस्वक अर्थात् थोड़ा परुषवचन बोलने पर मासलघु, आगाढ़ परुषवचन बोलने पर मासगुरु, निष्ठुर और कर्कश वचन बोलने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। परुषवचन बोलकर प्रद्वेष से जो कुछ किया जाएगा, उसका प्रायश्चित्त भी प्राप्त होगा। ६११३. निव्वेद पुच्छितम्मिं, उन्भामइल त्ति णिडुरं सव्वं । मेहुण संसङ्कं कक्कसाई णिव्वेग साहेति ॥ एक महिला ने किसी साधु से पूछा- किस वैराग्य से तुम प्रब्रजित हुए ? उसने कहा- मेरी पत्नी उद्भ्रामिका - दुःशील थी. इसलिए मैं प्रबजित हो गया यह सारा निष्ठुर वचन है। इस प्रकार मैथुन का संसृष्ट-विलीनभाव देखकर मैं प्रब्रजित हो गया। इस प्रकार अपना निर्वेद - वैराग्य बताना - ये वचन कर्कश माने जाते हैं। ६११४.मयं व जं होइ रयावसाणे, अंगेसु अंगाई णिगृहयंती, ६११५. सन्दणीसद्वविमुक्ागत्तो, बृहत्कल्पभाष्यम् थेरसरिच्छी त होइ अभिसेगा । तु हीओ मिजं आसि स्यावसाणे, तं चिक्कणं गुज्झ मलं झरतं । णिव्वेयमेयं मम जाण सोमे ! ॥ भारेण छिन्नो ससई व दीहं । अणेगसो तेण दमं पवण्णो ॥ मेरी भार्या रतिक्रिया के बाद निढाल होकर मृत की भांति हो जाती है। उसके गुह्य प्रवेश से इस प्रकार का मुह्य चिक्कण मल झरता रहता है। तब वह अपने अंगों में अपना अंग छुपाती है। यह मैंने देखा है। हे सौम्ये! यह मेरे निर्वेद Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ६४३ का कारण तुम जानो। तथा सखेद अत्यंत शिथिलगात्र होकर भार से तूटे हुए भारवाहक की भांति निःश्वास लेता हुआ मैं भी रतिक्रिया के पश्चात् अनेक बार वैसा हो जाता हूं। इससे लज्जित होकर मैंने दम संयम को स्वीकार किया है। ६११६.अरे हरे बंभण पुत्ता, अव्वो बप्पो त्ति भाय मामो त्ति। भट्टिय सामिय गोमिय, लहुओ लहुआ य गुरुआ य॥ यदि साधु अरे या हरे या ब्राह्मण या पुत्र-इन आमंत्रण वचनों को बोलता है तो उसे मासलघु, और मां, पिता, भाई, मामा-ऐसा कहता है तो चतुर्लघु तथा भट्टिन, स्वामिन, गोमिन् आदि गौरवास्पद वचन कहता है तो चतुर्गुरुक तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। ६११७.संथवमादी दोसा, हवंति धी मुंड! को व तुह बंधू। मिच्छत्तं दिय वयणे, ओभावणता य सामि ति॥ संस्तववाचक शब्द (पिता, माता आदि) बोलने से प्रतिबंध आदि अनेक दोष होते हैं। किसी को बन्धु कहने से वह रुष्ट होकर कहता है-धिग् मुंड! कौन है यहां तुम्हारा बंधु ? द्विज आदि कहने पर मिथ्यात्व होता है। स्वामिन् आदि कहने पर प्रवचन की अपभ्राजना होती है। ६११८.खामित-वोसविताई, अधिकरणाइं तु जे उईरति। ते पावा णायव्वा, तेसिं च परूवणा इणमो॥ जिस व्यक्ति ने अधिकरणों-कलहों को क्षामित-वचन से शमित कर दिया है तथा व्युत्सृष्ट-मन से निकाल दिया है, वह यदि उन अधिकरणों की उदीरणा करता है, तो उसे पापधर्मा मानो। ऐसे व्यक्तियों की यह प्ररूपणा है। ६११९.उप्पायग उप्पण्णे, संबद्धे कक्खडे य बाहू य। आवट्टणा य मच्छण, समुघायऽतिवायणा चेव।। ६१२०.लहुओ लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहुग गुरुगा य। छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची॥ एक बार दो मुनियों में कलह हो गया। दोनों ने परस्पर क्षमायाचना कर कलह को उपशांत कर दिया। कुछ काल के पश्चात् दोनों मिले तब एक ने कहा-'अरे! उस दिन तुमने मुझे ऐसा-वैसा कहा' यह कलह उत्पादक कहलाता है। उसको मासलघु। दूसरा बोला-'उस समय क्या तुमने मुझे कम कहा था ?'-पुनः दोनों में कलह उत्पन्न हो गया। दोनों संबद्ध अर्थात् वचनों से परस्पर आक्रोश करने लगे। इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त। तटस्थ व्यक्तियों द्वारा उपशांत करने पर भी अनुपशांत रहे, कर्कश बने रहे। इसका प्रायश्चित्त है षडलघु। दोनों बाहयुद्ध करने लगे। प्रायश्चित्त है षड्गुरुक। आवर्तन-एक मुनि ने दूसरे को पीट कर नीचे गिरा दिया। उसे छेद। यदि मुनि मूर्च्छित हो जाए तो मूल। मारणांतिक समुद्घात में अनवस्थाप्य तथा अतिपातना-मरण हो जाने पर पारांचिक। ६१२१.पढमं विगिंचणट्ठा, उवलंभ विविंचणा य दोसु भवे। अणुसासणाय देसी, छठे य वगिंचणा भणिता॥ प्रथम अलीकवचन अयोग्य शिष्य को गण से निष्काशन करने के लिए कहा जाता है। हीलित और खिसित-ये दो वचन क्रमशः उपालंभ और विवेचना-अयोग्य शिष्य के परित्याग में बोले जाते हैं। अनुशासना में परुषवचन, देशीभाषा में गृहस्थवचन, छठा अर्थात् व्यवशमित उदीरणावचन शैक्ष की विगिंचणा के संबंध में कहा जाता है। ६१२२.कारणियदिक्खितं तीरियम्मि कज्जे जहंति अणलं तू। संजम-जसरक्खट्ठा, होढं दाऊण य पलादी॥ कारण अर्थात् अशिव आदि में अनल-अयोग्य शैक्ष को भी दीक्षित करते हैं। कार्य (कारण) के निष्पन्न हो जाने पर उस शिष्य का परित्याग कर देते हैं। वे आचार्य संयमयश अर्थात् प्रवचन के यश की रक्षा के लिए उस पर 'होढ़' गाढ़ अलीक का आरोप लगाकर पलायन कर जाते हैं शीघ्रता से अन्यत्र चले जाते हैं। ६१२३.केणेस गणि त्ति कतो, अहो! गणी भणति वा गणिं अगणिं। एवं विसीतमाणस्स कुणति गणिणो उवालंभ। किसने इसको गणी बना डाला। अथवा अहो! यह गणी है! अथवा गणी को अगणी कहता है। इस प्रकार वह सामाचारी आदि में अनुपयुक्त गणी को उपालंभ देता है। ६१२४.अगणिं पि भणाति गणिं, जति नाम पढेज्ज गारवेण वि ता। एमेव सेसएसु वि, वायगमादीसु जोएज्जा॥ कोई मुनि बहुत प्रेरित करने पर भी नहीं पढ़ता तो अगणी होते हुए भी उसे गणी इसलिए कहा जाता है कि वह गौरववश पढ़ने लगे। इसी प्रकार वाचक आदि शेष पदों के विषय में योजित करना चाहिए। ६१२५.खिंसावयणविहाणा, जे च्चिय जाती-कुलादि पुव्वुत्ता। कारणियदिक्खियाणं, ते च्चेव विगिंचणोवाया। जो जाति, कुल आदि खिंसनावचन के विधान पूर्वोक्त हैं वे ही कारणवश दीक्षित अयोग्य शिष्यों के निष्काशन के उपाय मानने चाहिए। आवदा Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ ==बृहत्कल्पभाष्यम् ६१२६.खरसज्झं मउयवइं, अगणेमाणं भणंति फरुसं पि। दव्वफरुसं च वयणं, वयंति देसिं समासज्जा।। जो कठोरवचन के बिना शिक्षा को स्वीकार नहीं करता, वह खरसाध्य व्यक्ति मृदु वाणी की गणना नहीं करता। उसको परुषवचन में कहना पड़ता है। उसे देशी भाषा में द्रव्यपरुषवचन में कहा जाता है जैसे मालववासी परुषवाक्य होते हैं। ६१२७.भट्टि त्ति अमुगभट्टि, त्ति वा वि एमेव गोमि सामि त्ति। जह णं भणाति लोगो, भणाति जह देसिमासज्ज॥ भट्टिन्, अमुकभट्टिन्, इति, इसी प्रकार गोमिन, स्वामिन् आदि आदि जैसे-जैसे लोग बोलते हैं, वैसे-वैसे साधु भी देशी भाषा के आधार पर बोलते हैं। ६१२८.खामिय-वोसवियाई, उप्पाएऊण दव्वतो रुट्ठो। कारणदिक्खिय अनलं, आसंखडिउ त्ति धाडेति॥ कारणवश जिस अयोग्य शिष्य को दीक्षित किया था, उसके साथ क्षमायाचना तथा वैरभाव को व्युत्सृष्ट कर, उसके साथ कृत्रिम अधिकरण करके द्रव्यतः रुष्ट होकर कृत्रिम क्रोध दिखाता हुआ 'आसंखडिक' यह कलहकारी है यह दोष निकालता हुआ उसे गच्छ से निकाल देता है। ६१३०.पत्थारो उ विरचणा, सो जोतिस छंद गणित पच्छित्ते। पच्छित्तेण तु पगयं, तस्स तु भेदा बहुविगप्पा॥ प्रस्तार का अर्थ है-विरचना, स्थापना। वह प्रस्तार चार प्रकार का है-ज्योतिषप्रस्तार, छन्दःप्रस्तार, गणितप्रस्तार और प्रायश्चित्तप्रस्तार। यहां प्रायश्चित्त प्रस्तार का प्रसंग है। उसके अनेक विकल्प भेद हैं। ६१३१.उग्घातमणुग्घाते, मीसे य पसंगि अप्पसंगी य। आवज्जण-दाणाई, पडुच्च वत्थु दुपक्खे वी॥ प्रायश्चित्त के दो भेद हैं-उद्घात, अनुद्घात। ये दोनों मिश्र और अमिश्र भी होते हैं। इनके दो प्रकार हैं-प्रसंगी और अप्रसंगी। दोनों के दो-दो प्रकार हैं-आपत्ति प्रायश्चित्त और दान प्रायश्चित्त। ये सारे प्रायश्चित्त दोनों पक्षों-श्रमणपक्ष और श्रमणीपक्ष में वस्तु के आधार पर होते हैं। वस्तु का अर्थ है-आचार्य आदि तथा प्रवर्तिनी आदि, जिसके जो योग्य हो, वह प्रायश्चित्त उसका देना। इसको प्रायश्चित्तप्रस्तार कहा जाता है। ६१३२.जारिसएणऽभिसत्तो, स चाधिकारी ण तस्स ठाणस्स। सम्मं अपूरयंतो, पच्चंगिरमप्पणो कुणति॥ जिस प्रकार के अभ्याख्यान से साधु अभिशस है वह साधु अप्रमत्त होने के कारण उस स्थान का अधिकारी नहीं है। इसलिए उस पर अभ्याख्यान लगाकर उसका सम्यक् निर्वाह न करने पर वह स्वयं अपनी आत्मा को प्रत्यंगिर कर डालता है अर्थात् उस दोष का स्वयं भागी बन जाता है। ६१३३.छ च्चेव य पत्थारा, पाणवह मुसे अदत्तदाणे य। अविरति-अपुरिसवाते, दासावातं च वतमाणे॥ प्रस्तार छह ही हैं-प्राणवधवाद, मृषावादवाद, अदत्तादानवाद, अविरतिकावाद, अपुरुषवाद तथा दासवाद-इन वादों को बोलना। ६१३४.दडुर सुणए सप्पे, मूसग पाणातिवादुदाहरणा। एतेसिं पत्थारं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ प्राणातिपात के ये उदाहरण हैं-दर्दुर, शुनक, सर्प और मूषक। इनके विषय का प्रस्तार-प्रायश्चित्तरचना यथानुपूर्वी कहूंगा। ६१३५.ओमो चोदिज्जंतो, दुपहियादीसु संपसारेति। अहमवि णं चोदिस्सं, न य लब्भति तारिसं छेड़ें। रात्निक मुनि अवमरात्निक (ज्येष्ठ मुनि छोटे मुनि) को प्रत्युपेक्षा आदि समाचारी में स्खलित होने पर बार-बार कप्पस्स पत्थार-पदं छ कप्पस्स पत्थारा, पण्णत्ता, तं जहा-पाणाइवायस्स वायं वयमाणे, मुसावायस्स वायं वयमाणे, अदिण्णादाणस्स वायं वयमाणे, अविराइयावायं वयमाणे, अपुरिसवायं वयमाणे, दासवायं वयमाणे। इच्चेए छ कप्पस्स पत्थारे पत्थरेत्ता सम्म अप्पडिपूरेमाणे तट्ठाणपत्ते सिया॥ (सूत्र २) ६१२९.तुल्लहिकरणा संखा, तुल्लहिगारो व वादिओ दोसो। अहवा अयमधिगारो, सा आवत्ती इहं दाणं॥ पूर्वसूत्र और प्रस्तुतसूत्र--दोनों का संख्या से तुल्याधि- करण हैं, दोनों में सूत्र समान हैं, छह-छह हैं। अथवा वाचिक दोष तुल्याधिकार है। अथवा यह अधिकार है-पूर्व सूत्रोक्त शोधि आपत्तिरूप थी। प्रस्तुत में उसी शोधि के दान का अधिकार है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक कहता है, टोकता है तो अवमरानिक 'सत्प्रसारयति' मन में सोचता है कि मैं भी इस रात्निक को टोकूंगा। वह प्रयत्न करता है परंतु उसे रात्निक मुनि का वैसा छिद्र नहीं मिलता जिसके लिए वह कुछ कह सके। ६१३६. अत्रेण घातिए दद्दुरम्मि द चलणं कतं ओमो । उद्दवितो एस तुमे, ण मित्ति वितियं पि ते णत्थी ॥ एक बार रात्निक मुनि भिक्षाचर्या के लिए जा रहा था। मार्ग में एक दर्दुर मरा पड़ा था। उस पर रात्निक मुनि का पैर पड़ा। अवमरात्निक ने यह देख कर कहा- तुमने इस दर्दुर को मारा है। उसने कहा- मैंने नहीं मारा। तब अवमरात्निक बोला- तब तुम्हारे दूसरा व्रत मृषावादविरति भी नहीं है। उसके प्रायश्चित्तरचना यह है ६१३७. वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिते णिसिद्धे य साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे ॥ ६१३८. मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ अवमरात्निक आचार्य के पास आता है, मासलघु कहता है - इसने दर्दुर को मारा, मासगुरु । गुरु रानिक को कहते हैं- आलोचना करो कि तुमने दर्दुर को मारा या नहीं ? रानिक ने आलोचना की मैंने नहीं मारा। ऐसा कहने पर अभ्याख्यानदाता के चतुर्लघु अवमरात्निक पुनः पूछता है, रात्निक वही दोहराता है। अवम के चतुर्गुरु । अवम कहता है गृहस्थों को पूछ लो उनको पूछने पर वे निषेध करते हैं। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर षड्गुरु । साधु भी आकर कहते हैं- उसने नहीं मारा। अवम को छेद। अवम यदि कहता है कि गृहस्थ अलीक कहते हैं या सत्य ? उसको तब मूल अवम यदि कहता है-ये गृहस्थ और साधु मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य । यदि कहे ये सब प्रवचन के बाह्य है, तब पारांचिक ६१३९. किं आगओ सि णाहं, अडामि पाणवहकारिणा सद्धिं । सम्म आलोय ति य, जा तिष्णि तमेव वियडेति ॥ अवमरात्निक को अकेले आया हुआ देखकर गुरु ने पूछा- अकेले कैसे आ गए? उसने कहा मैं प्राणवधकारी के साथ घूमना नहीं चाहता। थोड़े समय बाद रात्निक भी आ गया। गुरु ने कहा- तुम सम्यग् आलोचना करो कि क्या तुमने किसी प्राणी का वध किया है या नहीं? उसने कहा- नहीं। तीन बार आलोचना करने पर भी उसने वही कहा। तब ज्ञात हो गया कि यह सत्य कह रहा है। ६१४०. तुमए किर बहुरओ, ६४५ ओति सोविय भणाति ण मए त्ति । तेण परं तु पसंगो, धावति एक्के व बितिए वा ॥ तुमने दर्दुर को मारा है वह कहता है-मैंने नहीं मारा। इसके पश्चात् प्रायश्चित्त वृद्धि का प्रसंग आता है यह रात्निक के या अवमरात्निक के होता है। यदि रात्निक ने दर्दुर को मारा है और बार-बार कहने पर भी वह स्वीकार नहीं करता है तो उसके प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। यदि अवमरात्निक उस अभ्याख्यान का बार-बार समर्थन करता है तो उसके प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। ६१४१. एक्स्स मुसावादो, काउं णिण्हाइणो दुवे दोसा । तत्य वि य अप्पसंगी, भवति य एको व एक्को वा ।। जो दूसरे पर अभ्याख्यान लगाता है उसके मृषावाद का दोष लगता है और जो दर्दुर का वध कर झुठलाता है। उसके दो दोष होते हैं-प्राणातिपात और मृषावाद । उसमें भी यदि अभ्याख्यान प्राणातिपात करने पर भी 'एक' अर्थात् अवमरात्निक तथा 'एक' अर्थात् रात्निक इनमें जो अप्रसंगी होता है उसके प्रायश्चित्त वृद्धि नहीं होती। इसका तात्पर्य है कि अभ्याख्यान देकर उसका निकाचन ( समर्थन) नहीं करता, वह तथा आरोप लगाए जाने पर भी जो रुष्ट नहीं होता, वह ये दोनों अप्रसंगी होते हैं, उनके प्रायश्चित्त वृद्धि नहीं होती। अभ्याख्याता यदि उसका बार-बार समर्थन नहीं करता तथा दूसरा भी बार-बार रुष्ट नहीं होता तो प्रायश्चित्त वृद्धि नहीं होती। यह वर्तुरविषयक प्रस्तार है। इसी प्रकार शुनक, सर्प और मूषकविषयक प्रस्तार जानने चाहिए। ६१४२. मोसम्म संखडीए, मोयगगहणं अदत्तदाणम्मि । आरोवणपत्यारो, तं चैव इमं तु णाणत्तं ॥ मृषावाद में संखड़ी का अदत्तादान में मोदकग्रहण का उदाहरण है। इन दोनों का आरोपणा प्रायश्चित्त का प्रस्तार ही जानना चाहिए। यह नानात्व है। ६१४३, वीण कलुणेहि जायति, पडिसिद्धां विसति एसणं हणति । जंपति मुहप्पियाणि य, जोग - तिगिच्छा-निमित्तानं ॥ साधु ने आचार्य से कहा-अमुक रात्निक मुनि संखड़ी में जाकर दीन और करुणवचनों से याचना करता है, प्रतिषिद्ध होने पर भी भीतर प्रवेश करता है, एषणा का हनन करता है, घर में प्रवेश कर मुखप्रियवचन बोलता है तथा योग, . Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ बृहत्कल्पभाष्यम् चिकित्सा और निमित्त बताता है-इस प्रकार मृषावाद बोलने अवमरात्निक पुनः पूछता है। रात्निक वही दोहराता है। अवम पर प्रायश्चित्तप्रस्तार होता है। को चतुर्गुरु। अवम कहता है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने ६१४४.वच्चइ भणाइ आलोय णिकाए पुच्छिए णिसिद्धे य। पर वे निषेध करते हैं। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वदमाणे॥ षड्गुरु। अन्य साधु भी कहते हैं-रात्निक ने बिना दिए नहीं ६१४५.मासो लहुओ गुरुओ, लिए। अवम को छेद। अवम यदि कहता है-गृहस्थ अलीक कहते चउरो लहुगा य होति गुरुगा य।। हैं, तब अवम को मूल। अवम यदि कहता है-ये साधु और गृहस्थ छम्मासा लहु-गुरुगा, मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य। यदि कहे-ये सब प्रवचन छेदो मूलं तह दुगं च॥ से बाह्य हैं, तब पारांचिक। अवमरात्निक आचार्य के पास आता है, मासलघु। कहता ६१४९.रातिणितवाइतेणं, है-यह रात्निक मुनि संखड़ी में जाकर दीन तथा करणवचनों खलिय-मिलिय-पेल्लणाए उदएणं। से याचना करता है आदि आदि। उसको मासगुरु। गुरु देउल मेहुण्णम्मि, रात्निक को कहते हैं-आलोचना करो। रात्निक ने कहा-मैंने अब्भक्खाणं कुडंगे वा। संखड़ी में ऐसा कुछ नहीं कहा।............. ऐसा कहने पर एक रात्निक मुनि अवमरात्निक को बार-बार शिक्षा देता अभ्याख्यानदाता के चतुर्लघु। अवमरात्निक पुनः पूछता है, था। अवमरानिक ने सोचा-यह 'रत्नाधिकवातद' से अर्थात् रात्निक वही दोहराता है। अवम को चतुर्गुरु। अवम कहता रत्नाधिक के गर्व से मुझे कहता है-तुम उच्चारण में स्खलित है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने पर वे निषेध करते हैं। हो गए। तुम सूत्रपाठों को मिलाकर बोलते हो। वह मुझे हाथों पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर षड्गुरु। साधु भी आकर से प्रेरित करता है। यह मुझे बुरा लगता। मैं प्रतिशोध लेना कहते हैं-उस रात्निक ने संखड़ी में ऐसा कुछ नहीं कहा। चाहता था। एक बार हम दोनों भिक्षा के लिए गए। सोचाअवम को छेद। अवम यदि कहता है कि गृहस्थ अलीक कहते आर्या के देवकुल में या कुडंग में प्रातराश कर पानी पीयेंगे। हैं या सत्य ? उसको तब मूल। अवम यदि कहता है ये वहां गए। इतने में एक परिव्राजिका को उसी दिशा में आती गृहस्थ और साधु मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य। यदि हुई देखकर अवमरात्निक वहां से छिटक कर उपाश्रय में कहे ये सब प्रवचन के बाह्य हैं, तब पारांचिक। आकर गुरु के समक्ष उस रात्निक पर मैथुन का अभ्याख्यान ६१४६.जा फुसति भाणमेगो, बितिओ अण्णत्थ लड्डते ताव। लगाते हुए बोला लखूण णीति इयरो, ते दिस्स इमं कुणति कोई।। ६१५०.जेट्ठज्जेण अकज्जं, सज्जं अज्जाघरे कयं अज्जं। एक अवमरात्निक साधु एक घर से भिक्षा लेकर उपाश्रय उवजीवितो य भंते!, मए वि संसट्ठकप्पोऽत्थ॥ में आया। जब तक वह उस पात्र को साफ कर रहा था तब ज्येष्ठ आर्य ने अभी आर्यागृह में अकार्य-मैथुनसेवन दूसरा अर्थात् रत्नाधिक मुनि अन्य संखड़ी से लड्ड प्राप्त कर किया है। भंते! मैने भी इस प्रसंग में संसृष्टकल्प अर्थात् आ रहा था। अवम मुनि ने उसे देखा और ईर्ष्यावश ऐसा मैथुन प्रतिसेवा का आचरण किया है। आचरण किया। ६१५१.वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिए णिसिद्धे य। ६१४७.वच्चइ भणाइ आलोय निकाए पुच्छिए निसिद्धे य। साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे॥ साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थासे जाव वयमाणे॥ ६१५२.मासो लहुओ गुरुओ, ६१४८.मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। छम्मासा लहु-गुरुगा, छम्मासा लहु-गुरुगा, . छेदो मूलं तह दुगं च॥ छेदो मूलं तह दुगं च॥ अवमरात्निक आचार्य के पास आता है, मासलघु। कहता वह अवम साधु गुरु के पास आकर बोला-उस रात्निक मुनि है-रात्निक ने मैथुनसेवन किया है। उसे गुरुमास। गुरु ने ने अमुक घर से बिना दिए मोदक लिए हैं। उसे मासगुरु। गुरु कहा-आर्य! सम्यग् आलोचना करो। रात्निक ने कहा-मैंने रात्निक को कहते हैं-आलोचना करो। रात्निक ने कहा मैं संखड़ी मैथुन की प्रतिसेवना नहीं की। ऐसा कहने पर में गया। वहां मुझे मोदक की प्राप्ति हुई। मैंने मोदक बिना दिए अभ्याख्यानदाता के चतुर्लघु। अवमरात्निक पुनः पूछता है, नहीं लिए। यह कहने पर अभ्याख्यानदाता को चतुर्लघु। रात्निक वही दोहराता है। अवम के चतुर्गुरु। अवम कहता Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने पर वे निषेध करते हैं। ६१५७.खरओ त्ति कहं जाणसि, देहायारा कहिंति से हंदी!। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर षड्गुरु। साधु भी आकर छिक्कोवण उब्भंडो, णीयासी दारुणसभावो। कहते हैं-रात्निक ने मैथुन की प्रतिसेवना नहीं की। अवम को एक मुनि ने आचार्य से कहा-यह रत्नाधिक साधु छेद। अवम यदि कहता है कि गृहस्थ अलीक कहते हैं या खरक दास है। आचार्य ने पूछा-तुमने कैसे जाना? उसने सत्य ? उसको तब मूल। अवम यदि कहता है ये गृहस्थ कहा-इसके ज्ञातिजनों ने मुझे कहा तथा इसके शरीर के और साधु मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य। यदि कहे-ये आकार (कुब्जता आदि) उसके दासत्व को कहते हैं। तथा सब प्रवचन के बाह्य हैं, तब पारांचिक। यह 'छिक्कोवण' शीघ्रकोपन है, 'उभंड'-असंवृतपरिधान६१५३. तइओ त्ति धं जाणसि, दिट्ठा णीया से तेहि मी वुत्तो। वाला है, नीचे आसन में बैठने वाला तथा दारुण स्वभाव वट्टति ततिओ तुभं, पव्वावेतुं मम वि संका॥ वाला है। ६१५४.दीसति य पडिरूवं, ठित-चंकम्मित-सरीर-भासाहि। ६१५८.देहेण वा विरूवो, खुज्जो वडभो य बाहिरप्पादो। बहुसो अपुरिसवयणे, सवित्थराऽऽरोवणं कुज्जा। फुडमेव से आयारा, कहिंति जह एस खरओ त्ति॥ एक साधु ने आचार्य से कहा यह रात्निक मुनि तृतीय यह शरीर से भी विरूप है-कुब्ज है, वडभ है और वेद अर्थात् नपुंसक है। आचार्य ने पूछा-यह कैसे जाना? बाह्यपाद वाला है। इसके शरीर का आकार यह स्पष्टरूप से उसने कहा-मैंने इसके निजक-स्वजनों को देखा और उनसे बता रहा है कि यह खरक है, दास है। मिला। उन्होंने मुझसे पूछा- क्या तृतीयवेद को प्रव्रजित करना ६१५९.केइ सुरूव दुरूवा, खुज्जा वडभा य बाहिरप्पाया। कल्पता है? तब मेरे मन में शंका हुई। इसका प्रतिरूप न हु ते परिभवियव्वा, वयणं व अणारियं वोत्तुं। नपुंसक के अनुरूप है। इसका बैठना, चलना, शरीर के आचार्य ने कहा-संसार में कुछ लोग सुरूप होते हैं और हावभाव तथा भाषा लक्षण भी नपुंसक जैसे हैं। इस प्रकार कुछ कुरूप होते हैं, कुछ कुब्ज, वडभ और बाह्यपाद वाले अपुरुषवचन अर्थात् नपुंसकवाद में विस्तारसहित आरोपणा होते हैं। किन्तु इनका परिभव-तिरस्कार नहीं करना चाहिए। करता है। इनके प्रति अनार्य वचन जैसे-'यह दास है' आदि नहीं ६१५५.वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिए निसिद्धे य। बोलना चाहिए। साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे॥ ६१६०.वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिए निसिद्धे य। ६१५६.मासो लहुओ गुरुओ, साह गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे॥ चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। ६१६१.मासो लहुओ गुरुओ, छम्मासा लहु गुरुगा, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। छेदो मूलं तह दुगं च॥ छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च॥ वह अवमरात्निक अकेला प्रतिश्रय में आकर गुरु को अवमरात्निक आचार्य के पास आता है, मासलघु। कहता है-यह राशिक है। इसके ज्ञातिजनों ने मुझे कहा है। कहता है-यह रात्निक मुनि दास है। उसे मासगुरु। गुरु उसे गुरुमास। गुरु ने कहा-आर्य! सम्यग् आलोचना करो। रात्निक को कहते हैं-आर्य! सम्यग् आलोचना करो। क्या बताओ, क्या तुम तृतीयराशि में हो। रात्निक ने कहा-यह तुम दास हो? रात्निक ने कहा नहीं, मैं दास नहीं हूं। ऐसा मेरे ऊपर झूठा आरोप है। अभ्याख्यानदाता को चतुर्लघु। कहने पर अभ्याख्यानदाता के चतुर्लघु। अवमरात्निक पुनः पुनः पूछने पर रात्निक वही दोहराता है। अवम को चतुर्गुरु। पूछता है, रात्निक वही दोहराता है। अवम के चतुर्गुरु। अवम कहता है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने पर वे अवम कहता है-गृहस्थों को पूछ लो। उनको पूछने पर वे निषेध करते हैं। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर षड्गुरु। निषेध करते हैं। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर अन्य साधु भी कहते हैं-यह तृतीयराशि में नहीं है। अवम को षड्गुरु। साधु भी आकर कहते हैं यह दास नहीं है। अवम छेद। अवम यदि कहता है-गृहस्थ अलीक कहते हैं। उसे मूल को छेद। अवम यदि कहता है कि गृहस्थ अलीक कहते हैं और यदि कहता है-साध और गृहस्थ परस्पर मिले हुए हैं या सत्य? उसको तब मूल। अवम यदि कहता है ये तो अनवस्थाप्य। यदि कहे कि ये सब प्रवचन से बाह्य हैं तब गृहस्थ और साधु मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य। यदि पारांचिक। कहे ये सब प्रवचन के बाह्य हैं, तब पारांचिक। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ ६१६२.बिइयपयमणाभोगे, सहसा वोत्तूण वा समाउद्दे। जाणंतो वा वि पुणो, विविंचणट्ठा वदेज्जा वि॥ अपवादपद में अज्ञानवश अथवा सहसा प्राणातिपात आदि विषयकवाद को कहकर आने पर उस मुनि को पुनः वैसा न करने के कथनपूर्वक मिथ्यादुष्कृत प्रायश्चित्त दे। अथवा जानते हुए भी जिस अयोग्य शिष्य को प्रव्रजित किया है उसको निष्काशित करने के लिए उसे प्राणातिपात आदि वाद भी कहा जा सकता है, जिससे वह उद्वेलित होकर स्वयं चला जाए। खाणुपभिनीहरण-पदं निग्गंथस्स य अहेपाईसि खाणू वा कंटए वा हीरे वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नाइक्कम॥ (सूत्र ३) निग्गंथस्स य अच्छिंसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र ४) निग्गंथीए य अहेपायंसि खाणू वा कंटए वा हीरए वा सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं च निग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र ५) निग्गंथीए अच्छिंसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाएज्जा नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं च निग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र ६) =बृहत्कल्पभाष्यम् ६१६३.पायं गता अकप्पा, इयाणि वा कप्पिता इमे सुत्ता। आरोवणा गुरु त्ति य, तेण तु अण्णोण्ण समणुण्णा॥ प्रायः अकल्पिक सूत्र अर्थात् निषेध प्रतिपादक सूत्र इस अध्ययन में संपन्न हो गए। आगे कल्पिक सूत्रों का प्रतिपादन है। 'वा' शब्द का तात्पर्यार्थ है-सूत्र में अनुज्ञा देकर अर्थतः प्रतिषेध करना। यहां एक प्रश्न है कि सूत्र में ही अनुज्ञा क्यों दी? भाष्यकार कहते हैं कि आरोपणा गुरुक होती है इसलिए परस्पर (निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी) समनुज्ञा सूत्रों में की गई है। ६१६४.जह चेव य पडिसेहे, होति अणुन्ना तु सव्वसुत्तेसु। तह चेव अणुण्णाए, पडिसेहो अत्थतो पुव्वं ।। सूत्रतः अनुज्ञात का अर्थतः प्रतिषेध क्यों? जैसे सूत्रपदों से प्रतिषेध किया जाता है तो सभी सूत्रों में अर्थतः उसकी अनुज्ञा होती है। वैसे ही जिन सूत्रों में अनुज्ञा की गई है तो पहले अर्थतः प्रतिषेध था, इसलिए अनुज्ञा की जाती है। ६१६५.तट्ठाणं वा वुत्तं, निग्गंथो वा जता तु ण तरेज्जा। सो जं कुणति दुहट्टो, तदा तु तट्ठाणमावज्जे॥ अथवा दूसरे मुनि पर अभ्याख्यान करने वाला मुनि यदि अपने अभ्याख्यान को प्रमाणित नहीं कर पाता तो कहा गया है कि उसे वह स्थान प्रायश्चित्त प्राप्त होता है जिस तथ्य का उसने अभ्याख्यान लगाया है। यदि निर्ग्रन्थ अपने पैर में लगे कांटे को नहीं निकाल सकता और निर्ग्रन्थी उसका नीहरण नहीं करती है तो पीड़ित निर्ग्रन्थ जो आत्मविराधना और संयमविराधना करता है उसका स्थान-प्रायश्चित्त उस निर्ग्रन्थी को भी प्राप्त होता है। ६१६६.पाए अच्छि विलग्गे, समणाणं संजएहि कायव्वं । समणीणं समणीहिं, वोच्चत्थे होति चउगुरुगा॥ श्रमण के पैरों में कांटा लग जाए अथवा आंख में कणुक आदि गिर जाए तो श्रमण ही उसका नीहरण करें। श्रमणियों का श्रमणियां करें। व्यत्यास करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। ६१६७.अण्णत्तो च्चियं कुंटसि, अण्णत्तो कंटओ खतं जातं। दिलृ पि हरति दिद्विं, किं पुण अहिट्ठ इतरस्स। एक संयती संयत के कंटक का नीहरण करते समय कंटक वाले स्थान को छोड़कर अन्यत्र अन्यत्र खोदती है। साधु ने कहा-तुम अन्यत्र खोद रही हो, कंटक अन्यत्र है। खोदने से मेरे घाव हो गया है। संयती बोली-भुक्तभोगिनी स्त्री ने अनेक बार पुरुषलिंग को देखा है फिर भी वह (लिंग) दृष्टि का हरण करता है, बार-बार उसे देखने का मन हो ही Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ६४९ जाता है। परंतु उस स्त्री का तो कहना ही क्या जिसने कभी कहने पर अनवस्थाप्य और नृप को कहने पर दसवां उसको देखा ही नहीं। प्रायश्चित्त पारांचिक प्राप्त होता है। ये सारे दोष संयत और ६१६८.कंटग-कणुए उद्धर, धणितं अवलंब मे भमति भूमी।। संयतियों के परस्पर कंटकोद्धरण में होते हैं। सूलं च बत्थिसीसे, पेल्लेहि घणं थणो फुरति॥ ६१७३.एए चेव य दोसा, अस्संजतिकाहि पच्छकम्मं च। निर्ग्रन्थी ने निर्ग्रन्थ से कहा-मेरे पैरों में कांटा है और गिहिएहिं पच्छकम्म, तम्हा समणेहिं कायव्वं ।। आंखों में कणुक लग गया है। उन दोनों का नीहरण करो। असंयतीस्त्रियों से कंटकोद्धरण कराने पर ये ही दोष होते तुम मुझे दृढ़ता से पकड़ो। मेरे चारों ओर भूमी घूम रही है। हैं तथा उनके पश्चात्कर्म (हाथ धोना) का दोष भी होता है। मेरे वस्तीशीर्ष पर शूल चल रही है, इसलिए स्तन स्फुटित गृहस्थ से कंटकोद्धरण कराता है उसके केवल पश्चात्कर्म का हो रहे हैं। अतः बलपूर्वक उन्हें दबाओ। ही दोष होता है, पूर्वोक्त दोष नहीं होते। अतः श्रमण श्रमणों ६१६९.एए चेव य दोसा, कहिया थीवेद आदिसुत्तेसु। का कंटकोद्धरण करे।। अयपाल-जंबु-सीउण्हपाडणं लोगिगी रोहा॥ ६१७४.एवं सुत्तं अफलं, ये सारे दोष आदि सूत्र अर्थात् सूत्रकृतांग के स्त्रीपरिज्ञा सुत्तनिवातो तु असति समणाणं। आदि अध्ययनों में कहे गए हैं। यहां अजापालक-शीतोष्ण गिहि अण्णतित्थि गिहिणी, जम्बूपातन-इनसे उपलक्षित लौकिकी रोहा का दृष्टांत है। परउत्थिगिणी तिविह भेदो। रोहा नाम की एक परिव्राजिका थी। उसने अजापालक को जिज्ञासु ने कहा यदि निर्ग्रन्थियों से न कराया जाए तो देखा। वह उसमें अनुरक्त हो गई। उसने उसके विज्ञान की सूत्र निरर्थक हो जाएगा। आचार्य ने कहा-सूत्रनिपात श्रमणों परीक्षा करनी चाही। उसके कहने पर वह जम्बू वृक्ष पर के अभाव में मानना चाहिए। कंटकोद्धरण पहले गृहस्थ से, चढ़ा। रोहा ने फल मांगे। उसने कहा-उष्ण फल दूं या उसके अभाव में अन्यतीर्थिक से, उसके अभाव में गृहस्थस्त्री शीतल ? उसने कहा-उष्ण। उसने तब फल तोड़कर जमीन से, उसके अभाव में परतीर्थिकी से। उसके तीन भेद हैंपर फेंक दिए। रोहा ने फूंक कर फल खाए और कहा-ये फल स्थविरा, मध्यमा, तरुणी। यदि गृहस्थ से कंटक नीहरण उष्ण कहां थे? अजापालक ने तब कहा जो उष्ण होता है कराया जाए तो उसे कहे-हाथ मत धोना। यदि वह उसे फूंक-फूंक कर खाया जाता है। परिवाजिका संतुष्ट हो अशौचवादी हो तो हाथ को हाथ से पोंछ लेता है या उसको गई। उसने कहा-मेरी योनि में कांटा चुभ गया है। वह उसे झटक देता है। निकालने लगा। वह हंसी। उसने कहा-कांटा दिखाई नहीं दे ६१७५.जइ सीसम्मि ण पुंछति, रहा है। रोहा ने उसे कोहनी मारी। तणु पोत्तेसु व ण वा वि पप्फोडे। ६१७०.मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा फास भावसंबंधो। तो सि अण्णेसि असति, पडिगमणादी दोसा, भुत्तमभुत्ते य णेयव्वा॥ दवं दलंति मा वोदगं घाते॥ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को परस्पर कंटकोद्धरण करते हुए यदि वह अपने हाथ मस्तक से, शरीर से, वस्त्रों से नहीं देखकर मिथ्यात्व होता है, उड्डाह तथा संयम की विराधना पोंछता है तथा न झटकता है और यह सोचता है घर जाकर होती है। स्पर्श से दोनों में भाव संबंध हो जाता है। भुक्तभोगी हाथ धोलूंगा, तब अन्य के अभाव में वह अपना प्रासुक पानी या अमुक्तभोगी-दोनों में प्रतिगमन आदि दोष होते हैं। हाथ धोने के लिए देता है, जिससे वह घर जाकर उदक का ६१७१.दिढे संका भोइय, घाडिग णाती य गामबहिया य। घात न करे। चत्तारि छ च्च लहु गुरु, छेदो मूलं तहं दुगं च॥ ६१७६.माया भगिणी धूया, अज्जिय णत्तीय सेस तिविधाओ। ६१७२.आरक्खियपुरिसाणं, तु साहणे पावती भवे मूलं। आगाढे कारणम्मि, कुसलेहिं दोहिं कायव्वं॥ अणवट्ठो सेट्ठीणं, दसमं च णिवस्स कधितम्मि। गृहस्थ के अभाव में नालबद्ध स्त्रियों से भी कराया जा परस्पर कंटकोद्धरण करते हुए देखकर किसी को शंका सकता है। जैसे–माता, भगिनी, बेटी, दादी, पौत्री, आदि। होती है कि यह सारा मैथुन के लिए है तो चतुर्लघु, भोजिक इनके अभाव में शेष अनालबद्ध तीन प्रकार की स्त्रियों से भी को कहने पर चतुर्गुरु, घाटित-मित्रगण को कहने पर कराया जा सकता। वे तीन प्रकार ये हैं स्थविरा, मध्यमा षड्लघु, ज्ञाति को ज्ञापित करने पर षड्गुरु, ग्राम के बाहर और तरुणी। आगाढ़ कारण में दोनों कुशल हों तो परस्पर कहने पर छेद, आरक्षिक पुरुषों को कहने पर मूल, श्रेष्ठी को कंटकोद्धरण कर सकते हैं, करा सकते हैं। वे दोनों ये हैं Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = बृहत्कल्पभाष्यम् ६१७७.गिहि अण्णतित्थि पुरिसा, सूत्र वैसे ही वक्तव्य हैं। यदि कोई असंवृत आर्या हो तो इत्थी वि य गिहिणि अण्णतित्थीया। प्रतिगमन आदि दोष होते हैं। संबंधि एतरा वा, अपवादपद में निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी का कंटकोद्धरण प्रागुक्त वइणी एमेव दो एते॥ विधि से कर सकता है। गृहस्थ तथा अन्यतीर्थिक पुरुष-ये दो अथवा गृहस्थस्त्री तथा अन्यतीर्थकी स्त्री ये दो, अथवा संबंधिनी व्रतिनी तथा निग्गंथीअवलंबण-पदं असंबंधिनी व्रतिनी-ये दो। इनमें से कोई द्विक कुशल हो तो आगाढ़ कारण में कराया जा सकता है। निग्गंथे निग्गंथिं दुग्गंसि वा विसमंसि ६१७८.तं पुण सुण्णारणे, दुट्ठारण्णे व अकुसलेहिं वा। वा पव्वयंसि वा पक्खुलमाणिं वा कुसले वा दूरत्थे, ण चएइ पदं पि गंतुं जे॥ पवडमाणिं वा गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे पहले जो कहा गया-साधुओं के अभाव में तो अभाव कब वा नाइक्कमइ॥ होता है, यह बताया जा रहा है। शून्य अरण्य तथा (सूत्र ७) दुष्टअरण्य में साधुओं का अभाव होता है। साधु हैं परंतु कंटकोद्धरण में अकुशल हैं अथवा कुशल साधु दूरस्थ हैं निग्गंथे निग्गंथिं सेयंसि वा पंकसि वा अथवा कंटक से विद्ध पैर वाला मुनि एक पैर भी चल नहीं पणगंसि वा उदगंसि वा ओकसमाणिं वा सकता, ऐसी स्थिति में पूर्वोक्त यतना करणीय है। ओवुज्झमाणिं वा गिण्हमाणे वा ६१७९.परपक्ख पुरिस गिहिणी, अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ __ असोय-कुसलाण मोत्तु पडिवक्खे। पुरिस जयंत मणुण्णे, (सूत्र ८) ___ होति सपक्खेतरा वा तू॥ निग्गंथे निग्गंथिं नावं आरुभणमाणिं जो यतमान मनोज्ञ पुरुष हों उनसे कराए, उनके अभाव में वा ओरुभमाणिं वा गिण्हमाणे वा अमनोज्ञ पुरुषों से कराए। यह स्वपक्ष यतना है। परपक्ष में अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ गृहस्थ या अन्यतीर्थिक पुरुषों से, उनके अभाव में स्त्रियों से, या अशौचवादी कुशल पुरुषों से कराए। प्रतिपक्ष को छोड़कर (सूत्र ९) अर्थात् शौचवादी अकुशल को छोड़कर। ६१८०.सल्लुद्धर णक्खेण व, अच्छिव वत्थंतरं व इत्थीसु। ६१८२.सो पुण दुग्गे लग्गेज्ज कंटओ लोयणम्मि वा कणुगं। भूमी-कट्ठ-तलोरुसु, काऊण सुसंवुडा दो वि॥ इति दुग्गसुत्तजोगो, थला जलं चेयरे दुविहे ।। __ स्त्री यदि कंटकोद्धरण कर रही हो तो उसकी विधि यह दुर्ग में जाते समय पैर में कंटक या आंख में कणुक लग है-पैरों का स्पर्श न करती हुई शल्योद्धरण से या नखों से सकता है। यह दुर्ग सूत्र के साथ पूर्वसूत्र का योग-संबंध है। कांटे का नीहरण करे। कांटा न निकले तो पैरों को भूमी पर दुर्ग स्थल होता है। उससे आगे जल होता है। अतः दुर्ग सूत्र रख कर या काठ पर या तल पर या ऊरु पर रखकर के अनन्तर ही 'इतर' में अर्थात् जल प्रतिबद्ध दो प्रकार के वस्त्रांतरित होकर कांटा निकाले। संयती और संयत-दोनों सूत्र-पंकविषयक तथा नौविषयक का प्रारंभ किया जाता है। सुसंवृत होकर बैठे। ६१८३.तिविहं च होति दुग्गं, रुक्खे सावय मणुस्सदुग्गं च। ६१८१.एमेव य अच्छिम्मि, चंपादिद्रुतो णवरि नाणत्तं। णिक्कारणम्मि गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ निग्गंथीण तहेव य, वरिं तु असंवुडा काई।। दुर्ग के तीन प्रकार हैं-वृक्षदुर्ग, श्वापददुर्ग और इसी प्रकार आंख में कणिका आदि लग जाने पर सारी मनुष्य-दुर्ग। गहनतम वृक्षों से युक्त दुर्ग वृक्षदुर्ग है। जहां विधि जानें। यहां चंपा नगरी में सुभद्रा का उदाहरण ज्ञातव्य सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र पशुओं का भय हो वह श्वापददुर्ग है। उसमें नानात्व है। साधु के आंख में लगे हुए तृण को और जहां म्लेच्छ, बोधिक आदि स्तेनों का भय हो वह सुभद्रा ने निकाला, वैसे ही साधु के आंख से तृण का मनुष्यदुर्ग है। अपनयन साध्वी कर सकती है। आर्यायों के विषय में भी दो इन तीनों प्रकार के दुर्गों में यदि निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक निष्कारण अवलंबन देता है तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। ६१८४.मिच्छत्ते सतिकरणं, विराहणा फास भावसंबंधो। पडिगमणादी दोसा, भुत्ता-ऽभुत्ते व णेयव्वा॥ निर्ग्रन्थी को अवलंबन देते हुए देखकर कोई मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। जो मुनि भुक्तभोगी है उसके स्मृतिकरण और अभुक्तभोगी को कुतूहल होता है। संयमविराधना तथा स्पर्श से भावसंबंध होता है और उसके परिणाम स्वरूप प्रतिगमन आदि दोष होते हैं। ये दोष भुक्त और अभुक्त साधु- साध्वियों के होते हैं। ६१८५.तिविहं च होति विसम, भूमिं सावय मणुस्सविसमं च। तम्मि वि सो चेव गमो, णावोदग सेय जतणाए॥ विषम के तीन प्रकार हैं-भूमीविषम, श्वापदविषम तथा मनुष्यविषम। भूमीविषम का तात्पर्य है-गढ़ा, पाषाण आदि से आकीर्ण भूभाग। प्रस्तुत में भूमीविषम का प्रसंग है। इसमें भी वही गम-विकल्प है जो दुर्ग विषयक कहा गया है। नौका, उदक तथा पंक में निष्कारण निर्ग्रन्थी को अवलम्बन देने पर वे ही दोष होते हैं। कारणवश यतना से अवलंबन दिया जा सकता है। ६१८६.भूमीए असंपत्तं, पत्तं वा हत्थ-जाणुगादीहिं। पक्खुलणं णायव्वं, पवडण भूमीय गत्तेहिं॥ प्रस्खलन उसे कहा जाता है जहां से फिसलने पर हाथ, जानु आदि भूमी को प्राप्त न हुए हों या हो गए हों। प्रपतन वह कहलाता है जिसमें सारा शरीर भूमी पर आ गिरता है। ६१८७.अहवा वि दुग्ग विसमे, थद्धं भीतं व गीत थेरो तु। सिचयंतरेतरं वा, गिण्हतो होति निदोसो॥ अथवा द्वितीय पद में स्तब्ध या भीत निर्ग्रन्थी को दुर्ग या विषम में अवलंबन देता हुआ गीतार्थ तथा स्थविर निर्ग्रन्थ निर्दोष होता है। वह निर्ग्रन्थी वस्त्रान्तररित या अन्यथा भी क्यों न हो। ६१८८.पंको खलु चिक्खल्लो, आगंतू पयणुओ दुओ पणओ। सो पुण सजलो सेओ, सीतिज्जति जत्थ दुविहे वी॥ पंक का अर्थ है-चिक्खल। पनक वह है जो आगंतुक है, पतला है तथा द्रवरूप पंक है। जब पंक और पनक-दोनों सजल होते हैं तब उनमें निमज्जन होता है। उसे 'सेक' कहते हैं। ६१८९.पंक-पणएसु नियमा, ओगसणं वुब्भणं सिया सेए। थिमियम्मि णिमज्जणता, सजले सेए सिया दो वि॥ पंक और पनक-दोनों का नियमतः 'अपकसन' ह्रास होता है। सेक का हरण पानी से होता है। जब वह गाढ़ और आर्द्र होता है तब उसमें निमज्जन होता है। सजल सेक में अपवहन-बहा कर ले जाना तथा निमज्जन-दोनों होते हैं। ६१९०.ओयारण उत्तारण, अत्थुरण ववुग्गहे य सतिकारो। छेदो व दुवेगयरे, अतिपिल्लण भाव मिच्छत्तं॥ कारण में निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को नौका में चढ़ाते हुए, उतारते हुए यदि आस्तरण या शरीर को पकड़ता है तो दोनों भुक्तभोगियों के स्मृतिकरण होता है। नख आदि से एक-दूसरे के छेद (घाव) होता है। अतिप्रेरणा से भाव अर्थात् मैथुन की अभिलाषा उत्पन्न हो सकती है। उसे देखकर कोई मिथ्यात्व को प्रास हो जाता है। ६१९१.अंतोजले वि एवं, गुज्झंगप्फास इच्छऽणिच्छंते। मुच्चेज्ज व आयत्ता, जा होउ करेतु वा हावे॥ जल के भीतर भी उसे अवलंबन देने पर ये ही दोष होते हैं। गुह्यांग के स्पर्श से मोह का उदय होता है। उससे मैथुन की इच्छा होती है। वह चाहे या न चाहे-दोनों ओर दोष होते हैं। वह निर्ग्रन्थ उस निर्ग्रन्थी को जल के मध्य छोड़ देता है जिससे वह साध्वी स्वतंत्र होकर हाव-मुखविकार करती रहे। कारण में अपवादस्वरूप उसे नौका में चढ़ाने, उतारने, आदि यतनापूर्वक कर सकता है। ६१९२.सव्वंगियं तु गहणं, करेहिं अवलंबणेगदेसम्मि। जह सुत्तं तासु कयं, तहेव वतिणो वि वतिणीए॥ ग्रहण का अर्थ है-सर्वांगीण रूप से, हाथों से पकड़ना। अवलंबन का अर्थ है-शरीर के एक देश-बाहु आदि से ग्रहण करना। ये तीनों सूत्र निर्ग्रन्थियों के लिए किए गए हैं। वैसे ही व्रती को व्रतिनीयां उस परिस्थिति में ग्रहण करती हुईं या अवलंबन देती हुईं मर्यादा का लोप नहीं करतीं। ६१९३.जुगलं गिलाणगं वा, असहुँ अण्णेण वा वि अतरंगं। गोवालकंचुगादी, सारक्खण णालबद्धादी॥ बाल, वृद्ध, ग्लान, दुर्ग आदि पर जाने में असमर्थ, अन्य कोई जो अशक्त है उसको नालबद्ध अथवा अनालबद्ध साध्वी गोपालकंचुक परिधानयुक्त होकर उसको संरक्षण देती है, उसको ग्रहण करती है या अवलंबन देती है यह विहित है। खित्तचित्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र १०) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ ६१९४.ओवुज्झंती व भया, संफासा रागतो व खिप्पेज्जा। संबंधत्थविहिण्णू, वदंति संबंधमेयं तु॥ पानी में बहती हुई साध्वी भय से क्षिप्तचित्त हो जाती है, अथवा संस्पर्श से, राग से क्षिप्तचित्त हो जाती है संबंधार्थ विधिज्ञ आचार्य प्रस्तुत सूत्र में यह संबंध बताते हैं। ६१९५.रागेण वा भएण व, अहवा अवमाणिया णरिदण। ___एतेहिं खित्तचित्ता, वणिताति परूविता लोए॥ क्षिप्तचित्त होने के ये कारण हैं-राग, भय अथवा राजा से अपमानित होने पर। लोक में उदाहरणरूप में वणिग आदि प्ररूपित हैं। राग से-एक वणिग् भार्या पति का मरण सुनकर क्षिप्तचित्त हो गई। ६१९६.भयओ सोमिलबडुओ, सहसोत्थरिया य संजुगादीसु। __णरवतिणा व पतीण व, विमाणिता लोगिगी खेत्ता॥ भय से सोमिल नामक ब्राह्मण क्षिसचित्त हो गया। संग्राम आदि में सहसा शत्रु-सेना से गृहीत मनुष्य क्षिप्तचित्त हो जाते हैं। राजा से या पति से अपमानित स्त्री क्षिप्तचित्त हो जाती है। ये सारे लौकिक क्षिप्तचित्त के उदाहरण हैं। ६१९७.रागम्मि रायखुड्डी, जड्डाति तिरिक्ख चरिय वातम्मि। रागेण जहा खेत्ता, तमहं वोच्छं समासेणं॥ राग से क्षिसचित्त का उदाहरण है राजक्षुल्लिका का। हाथी आदि तिर्यंच प्राणी के भय से तथा बाद में चरिका से पराजित निर्ग्रन्थी क्षिप्तचित्त हो जाती है। राग से जैसे राजक्षुल्लिका क्षिप्तचित्त हुई, वह मैं संक्षेप में कहूंगा। ६१९८.जियसत्तू य णरवती, पव्वज्जा सिक्खणा विदेसम्मी। काऊण पोतणम्मि, सव्वायं णिव्वुतो भगवं॥ ६१९९.एक्का य तस्स भगिणी,रज्जसिरिं पयहिऊण पव्वइया। ___ भातुयअणुराएणं, खेत्ता जाता इमा तु विही॥ जितशत्रु राजा ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। स्थविर मुनि के पास उसने शिक्षा प्रास की और कालान्तर में विदेश चला गया। पोतनपुर में परतीर्थिकों के साथ सद्वाद किया। जैन शासन की प्रभावना कर वह भगवान् मुनि निर्वृत हो गया, मोक्षपद को प्रास कर लिया। जितशत्रु राजा की भगिनी राज्यश्री को छोड़कर प्रवजित हो गई। कालान्तर में उसने सुना कि उसके मुनि भाई की मृत्यु हो गई है। वह भाई के अनुराग से क्षिप्तचित्त हो गई। क्षिप्सचित्त को स्वस्थ करने की यह विधि है६२००.तेलोक्कदेवमहिता, तित्थगरा णीरता गता सिद्धिं। थेरा वि गता केई, चरण-गुणपभावगा धीरा॥ उसको आश्वासन देते हुए कहना चाहिए-त्रिभुवन के बृहत्कल्पभाष्यम् देवों से पूजित तीर्थंकर भी नीरजा होकर सिद्धि को प्राप्त हो गए। चरणगुणप्रभावक कुछ धीर स्थविर भी सिद्धि में चले गए। ६२०१.बंभी य सुंदरी या, अन्ना वि य जाउ लोगजेट्ठाओ। ताओ वि अ कालगया, किं पुण सेसाउ अज्जाओ।। ब्राह्मी, सुन्दरी तथा अन्य लोकज्येष्ठ साध्वियां भी कालगत हो गईं तो फिर शेष आर्यिकाओं की बात ही क्या? ६२०२.न हु होति सोतियव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि। सो होति सोतियव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे॥ वह शोचनीय नहीं होता अर्थात् उसके पीछे शोक नहीं मनाया जाता जो चारित्र को दृढ़तापूर्वक पालन करता हुआ कालगत होता है। वह शोचनीय होता है जो संयम पालन में दुर्बल होकर विहरण करता हुआ कालगत होता है। ६२०३.जो जह व तह व लद्धं, भुंजति आहार-उवधिमादीयं। समणगुणमुक्कजोगी, संसारपवडतो होति॥ जो मुनि यथातथा प्रास आहार, उपधि आदि का परिभोग करता है, वह श्रमणगुणों से मुक्त योगी संसार को बढ़ाने वाला होता है। वह शोक करने योग्य होता है। (हे आर्ये! तुम्हारा भाई तो चारित्र का दृढ़ता से पालन करता हुआ कालगत हुआ है। उसके विषय में शोक करना व्यर्थ है।) ६२०४.जड्डादी तेरिच्छे, सत्थे अगणीय थणिय विज्जू य। ___ओमे पडिभेसणता, चरियं पुव्वं परूवेडं। हाथी, सिंह आदि तिर्यंच प्राणियों के भय से, शस्त्र, अग्नि, स्तनित, विद्युत् आदि के भय से जो क्षिसचित्त होती है उसको स्वस्थ करने की विधि यह है-उस क्षिसचित्त साध्वी से छोटी साध्वी को तैयार कर सिंह आदि को डराने का उपक्रम कराने से क्षिसचित्त साध्वी भयमुक्त हो जाती है। इसी प्रकार वाद में पराजय होने के कारण क्षिप्तचित्त हुई साध्वी के सम्मुख उस चरिका को पहले बताकर लाया जाए और उससे स्वयं के पराजित होने की बात कहलाई जाए तो वह साध्वी स्वस्थ हो सकती है। ६२०५.अवहीरिया व गुरुणा, पवत्तिणीए व कम्मि वि पमादे। वातम्मि वि चरियाए, परातियाए इमा जयणा।। कोई साध्वी आचार्य के द्वारा उपालब्ध होने पर अथवा प्रवर्तिनी के द्वारा किसी प्रमाद में शिक्षित किए जाने पर अथवा चरिका द्वारा वाद में पराजित होने पर अपमानित होकर क्षिप्तचित्त हो जाती है। भय से क्षिप्तचित्त उस साध्वी के लिए यह यतना है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ६२०६.कण्णम्मि एस सीहो, ६२१०.छक्कायाण विराहण, झामण तेणे निवायणे चेव। गहितो अह धारिओ य सो हत्थी। अगड विसमे पडेज्ज व, तम्हा रक्खंति जयणाए॥ खुड्डलतरिया तुज्झं, क्षिप्तचित्त साध्वी छहकाय की विराधना करती है, अग्नि ते वि य गमिया पुरा पाला॥ जला देती है, चोरी कर लेती है, स्वयं या दूसरे को गिरा कोई साध्वी हाथी या सिंह के भय से क्षिप्तचित्त हो जाती देती है, कुएं में या विषम-गढ़े में जा गिरती है, इसलिए है। उसका प्रतिकार यह है-पहले से ही हस्तिपाल, सिंहपाल यतनापूर्वक उसका संरक्षण किया जाता है। आदि को समझा दिया जाए। फिर क्षिप्तचित्त साध्वी को वहां ६२११.सस्सगिहादीणि दहे, तेणेज्ज व सा सयं व हीरेज्जा। ले जाया जाए। फिर उस साध्वी से लघुतरी साध्वी सिंह के मारण पिट्टणमुभए, तद्दोसा जं च सेसाणं॥ कानों को पकड़ती है तथा हाथी को धाडित करती है, फिर वह धान्य के गृहों आदि को जला डालती है। वह चोरी भी वे शांत रहते हैं। फिर क्षिसचित्त साध्वी को कहते हैं- करती है अथवा स्वयं उसका कोई हरण कर लेता है। उसे देखो, यह छोटी साध्वी भी नहीं डरती। क्या तुम इससे कोई पीटे या मारे या स्वयं वह अपने को पीटे या मारे। उस छोटी हो, जो हाथी आदि से डरती हो? धैर्य रखो। वह क्षिसचित्त साध्वी के दोष से शेष साध्वियों का पिट्टन-मारण स्वस्थ हो जाती है। आदि होता है। ६२०७.सत्थडग्गी थंभेतुं, पणोल्लणं णस्सते य सो हत्थी। ६२१२.महिड्डिए उट्ठ निवेसणे य, थेरी चम्म विकड्डण, अलायचक्कं तु दोसुं तु॥ आहार विविंचणा विउस्सग्गो। जो शस्त्र और अग्नि के भय से क्षिप्तचित्त हो तो उसके रक्खंताण य फिडिया, समक्ष शस्त्र और अग्नि का स्तंभन कर उसको पैरों से अगवेसणे होति चउगुरुगा। कुचले। हाथी के भय से क्षिप्सचित्त साध्वी को हाथी को महर्द्धिक, उत्थान, निवेशन, आहार, विगिंचना, व्युत्सर्ग, पराङ्मुख जाता हुआ दिखाए। गर्जन से भीत साध्वी को कहे- रक्षा करते हुए भी वह कहीं चली जाए, उसकी गवेषणा न यह शब्द चर्म को खींचने से होता है। वैसा शब्द उसे सुनाए। करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त। यह द्वार गाथा है। इसका उसका भय नष्ट हो जाता है। अग्नि और विद्युत् इन दोनों के विस्तार इस प्रकार है। भय से भीत साध्वी को बार-बार अलातचक्र दिखाए। वह ६२१३.अम्हं एत्थ पिसादी, रक्खंताणं पि फिट्टति कताई। भयमुक्त हो सकती है। सा हु परिरक्खियव्वा, महिड्दिगाऽऽरक्खिए कहणा॥ ६२०८.एईए जिता मि अहं, तं पुण सहसा ण लक्खियं णाए। महर्द्धिक अर्थात् नगर का रक्षक। उसको कहना चाहिए धिक्कतकतितव लज्जाविताए पउणायई खुड्डी। इस उपाश्रय में हम एक साध्वी का संरक्षण कर रहे हैं। ६२०९.तह वि य अठायमाणे, हमारे संरक्षण से वह पिशाची-ग्रथिल साध्वी कहीं भाग जाए सारक्खमरक्खणे य चउगुरुगा। तो आप उसकी रक्षा करें। आणाइणो य दोसा, ६२१४.मिउबंधेहिं तहा णं, जमेंति जह सा सयं तु उठेति। विराहण इमेहि ठाणेहिं॥ उव्वरग सत्थरहिते, बाहि कुडंडे असुन्नं च॥ जिस चारिका से वह साध्वी पराजित होकर क्षिप्तचित्त उस क्षिप्तचित्त साध्वी को मदु बंधनों से बांध कर रखें। हुई थी वह चारिका वहां आकर कहती है-मैं इस साध्वी से बंधन ऐसे हो जिससे वह स्वयं उठ सके, बैठ सके। उसको पराजित हो गई थी। इसने सहसा अपनी जय को लक्षित ऐसे कमरे में रखें जहां शस्त्र न हों। उस कमरे का द्वार बंद नहीं किया। तब उसे धिक्कृत किया गया और कपट करने रखें और कुंडी लगा दे। स्थान को अशून्य न रखें अर्थात् कोई के कारण लज्जित कर वहां से निकाल दिया गया। यह न कोई जागता रहे। देख वह क्षुल्लिका-साध्वी स्वस्थ हो जाती है तो ठीक है। ६२१५.उव्वरगस्स उ असती, इस प्रकार यतना करने पर भी यदि वह स्वस्थ नहीं पुव्वकतऽसती य खम्मते अगडो। होती है तो उसका संरक्षण वक्ष्यमाण यतना से करना तस्सोवरिं च चक्कं, चाहिए। यदि संरक्षण नहीं किया जाए तो चतुर्गुरु का ण छिवति जह उप्फिडंती वि॥ प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा इन स्थानों से अपवरक के अभाव में उस साध्वी को पहले खोदे हुए विराधना होती है। पानी रहित कुएं में या नए गढ़े को खोद कर उसमें रख दे। Jain Education international Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ =बृहत्कल्पभाष्यम् उस गढ़े पर चक्का इस प्रकार रखे जिससे वह उछल कर भी ६२२०.पुत्तादीणं किरियं, सयमेव घरम्मि कोइ कारेति। उस चक्के को छू न सके। अणुजाणते य तहिं, इमे वि गंतुं पडियरंति॥ ६२१६.निद्ध महरं च भत्तं, करीससेज्जा य णो जहा वातो। यदि कोई क्षिप्तचित्त साध्वी का स्वजन घर में स्वयं ही देविय धाउक्खोभे, णातुस्सग्गो ततो किरिया॥ अपनी पुत्री आदि से उस साध्वी की क्रिया-चिकित्सा उस क्षिप्तचित्त साध्वी को स्निग्ध और मधुर भोजन दे। करवाता है और साधुओं को निवेदन करने पर वे उसका उसकी शय्या करीषमयी हो। ऐसा प्रयत्न करना चाहिए अनुमोदन करते हैं तो उस साध्वी को वहां ले जाते हैं और जिससे उसके वायु का क्षोभ न हो। सोचना चाहिए कि तब वे गच्छवासी साधु जाकर उसकी प्रतिचर्या करते हैं। क्षिसचित्तता दैविक है या धातुक्षोभ के कारण है? यह जानने ६२२१.ओसह विज्जे देमो, पडिजग्गह णं इहं ठिताऽऽसण्णं। के लिए कायोत्सर्ग करे, फिर देवता के कथनानुसार उसका तेसिं च णाउ भावं, ण देति मा णं गिहीकुज्जा। प्रासुक क्रिया से उपचार करे। स्वजन यह कहे कि औषधि और वैद्य की हम व्यवस्था ६२१७.अगडे पलाय मग्गण, करेंगे। केवल तुम हमारे स्थान के निकट प्रदेश में रह कर अण्णगणो वा वि जो ण सारक्खे। साध्वी की प्रतिचर्या करो। तब उन स्वजनों के भावों को गुरुगा जं वा जत्तो, सूक्ष्मता से जानकर वे साध्वी को नहीं सौंपते अर्थात् उनके तेसिं च णिवेयणं काउं॥ निकट स्थान में इस आशंका से नहीं ले जाते कि वे साध्वी यदि वह साध्वी अवट-कूप से या अपवरक से पलायन को कहीं गृहस्थ न बना लें। कर जाए तो उसकी मार्गणा करनी चाहिए। आसपास के ६२२२.आहार उवहि सिज्जा, उग्गम-उप्पायणादिसु जयंति। अन्य गणों में भी साध्वी के पलायन की सूचना कर उसके वायादी खोभम्मि व, जयंति पत्तेग मिस्सा वा॥ संरक्षण और संग्रह की बात बताए। गवेषणा और संरक्षण वे प्रतिचरण करने वाले आहार, उपधि और शय्या न करने पर गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा वह क्षिप्तचित्त विषयक उद्गम, उत्पादन आदि में यत्नवान् रहते हैं। यह साध्वी जो विराधना आदि करेगी, उसका प्रायश्चित्त भी। यतना दैविक क्षिप्तचित्तता विषयक है। वायु आदि से होने प्राप्त होता है। वाले धातुक्षोभ के कारण भी क्षिप्तचित्तता होती है। उसमें ६२१८.छम्मासे पडियरिउं, अणिच्छमाणेसु भुज्जयरओ वा। सांभोगिक या मिश्र अर्थात् असाम्भोगिकों से सम्मिश्र पूर्वोक्त कुल-गण-संघसमाए, पुव्वगमेणं णिवेदेति॥ प्रकार से यतना करते हैं। पूर्वोक्त प्रकार से छह मास तक उस साध्वी की प्रतिचर्या ६२२३.पुव्वुद्दिट्ठो य विही, इह वि करेंताण होति तह चेव। करनी चाहिए। यदि वह स्वस्थ हो जाए तो अच्छा है, तेइच्छम्मि कयम्मि य, आदेसा तिण्णि सुद्धा वा॥ अन्यथा पुनः उसका प्रतिचरण करे। यदि वे प्रतिचरण करना पूर्व उद्दिष्ट विधि अर्थात् प्रथम उद्देशक के ग्लानसूत्र में न चाहें तो कुल, गण, संघ का समवाय कर पूर्वगम- प्रतिपादित विधि यहां भी क्षिप्तचित्त की वैयावृत्य करते समय ग्लानद्वार में उक्त प्रकार से उनको निवेदन करे। निवेदन करने जाननी चाहिए। चिकित्सा के पश्चात् स्वस्थ हो जाने पर पर कुल आदि क्रमशः उसका प्रतिचरण करते हैं। उसके प्रायश्चित्त विषयक तीन आदेश हैं-एक आदेश है ६२१९.रन्नो निवेइयम्मि, तेसिं वयणे गवसणा होति। उसके प्रति गुरुक व्यवहार करना चाहिए। दूसरा आदेश ओसह वेज्जा संबंधुवस्सए तीसु वी जयणा॥ है-उसके प्रति लघुक व्यवहार करना चाहिए। तीसरा आदेश वह साध्वी राजा की पुत्री अथवा अन्य किसी की है-लघुस्वक व्यवहार होना चाहिए। यहां तीसरा आदेश स्वजन हो सकती है, उन्हें सूचित कर दिया जाता है। व्यवहारसूत्र के अनुसार होने के कारण प्रमाण है। अथवा वह उसके कहने पर उस साध्वी को वहां लाया जाता है। वहां क्षिसचित्त साध्वी शुद्ध है, प्रायश्चित्तभाक् नहीं है, क्योंकि उसकी गवेषणा होती है। उसके संबंधी कहते हैं-हम परवशता के कारण वह राग-द्वेष के अभाव में प्रतिसेवना औषधि आदि तथा वैद्य की व्यवस्था करेंगे। साधु यदि उस करती है। साध्वी के स्वजन हों तो वे कहते हैं तुम हमारे उपाश्रय ६२२४.चउरो य हुंति भंगा, तेसिं वयणम्मि होति पण्णवणा। में रहकर इस साध्वी का प्रतिचरण करो। हम सारी परिसाए मज्झम्मी, पट्ठवणा होति पच्छित्ते॥ व्यवस्था करेंगे। वहां आहार, उपधि और शय्या-इन तीनों वृद्धि-हानि के आधार पर चारित्र के विषय में चार भंग की यतना करे। होते हैं। आचार्य के वचनों में उसकी प्ररूपणा होती है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न बढ़ता है छठा उद्देशक जिज्ञासु ने पूछा-वह साध्वी अप्रायश्चित्ती कैसे? आचार्य अचेतन है इसलिए उसके कर्मोपचय नहीं होता, किन्तु परिषद् के मध्य उस साध्वी के प्रायश्चित्त-लघुस्वक की क्षिसचित्त साध्वी का शरीर जीवपरिगृहीत है, सचेतन है, प्रस्थापना करते हैं। इसलिए कर्मोपचय संभव है। जो 'सासेरा' दृष्टांत से समता ६२२५.वड्वति हायति उभयं, अवट्ठियं च चरणं भवे चउहा। बताई है, उसमें असमंजसता है, यह युक्त नहीं है। खइयं तहोवसमियं, मिस्समहक्खाय खेत्तं च॥ ६२३१.चेयणमचेयणं वा, परतंतत्तेण णणु हु तुल्लाई। चारित्र विषयक चार भंग ये हैं ___ण तया विसेसितं एत्थ किंचि भणती सुण विसेसं॥ १. चारित्र बढ़ता है आचार्य ने कहा-चेतन हो या अचेतन पारतंत्र्य से २. चारित्र का हास होता है दोनों तुल्य होते हैं। तब जिज्ञासु ने कहा-भंते! आपने ३. चारित्र बढ़ता भी है, ह्रास भी होता है कर्मोपचय के संबंध में चेतन-अचेतन में किंचिद् भी ४. चारित्र अवस्थित रहता है-न बढ़ता है, न ह्रास होता विशेष नहीं बताया। आचार्य ने तब कहा-मैं विशेष बता रहा हूं, तुम सुनो। क्षपकश्रेणी वाले का क्षायिक चारित्र बढ़ता है। ६२३२.णणु सो चेव विसेसो, जं एक्कमचेतणं सचित्तेगं। उपशमश्रेणी वाले का ह्रास होता है। क्षायोपशमिक चरित्र जह चेयणे विसेसो, तह भणसु इमं णिसामेह॥ घटता, बढ़ता है। यथाख्यातचारित्र अवस्थित रहता है। यही विशेष है कि एक अचेतन है और एक सचेतन है। क्षिप्तचित्त का चारित्र भी अवस्थित होता है, अतः वह इसलिए जो सचेतन है, उसमें जो विशेष है, वह बताओ। प्रायश्चित्तभाक् नहीं है। . आचार्य कहते हैं यह तुम सुनो। ६२२६.कामं आसवदारेसु वट्टियं पलवितं बहुविधं च। ६२३३.जो पेल्लिओ परेणं, हेऊ वसणस्स होइ कायाणं। लोगविरुद्धा य पदा, लोउत्तरिया य आइण्णा॥ तत्थ न दोसं इच्छसि, लोगेण समं तहा तं च। ६२२७.न य बंधहेउविगलत्तणेण कम्मस्स उवचयो होति। दूसरों के द्वारा प्रेरित होकर जो षट्जीवनिकायों के लोगो वि एत्थ सक्खी, जह एस परव्वसा कासी॥ व्यसन-संघट्टन, परितापन आदि का हेतु बनता है, उसमें तुम यह अनुमत है कि यह क्षिप्तचित्त साध्वी बहुत समय तक दोष नहीं मानते, क्योंकि लोकव्यवहार में यही सम्मत है। आश्रवद्वारों में प्रवर्तित हुई, बहुविध प्रलाप किया, लोक- वैसे ही तुम उस क्षिप्लचित्त साध्वी को निर्दोष मानो। विरुद्ध तथा लोकोत्तर विरुद्ध पदों का आचरण किया। ६२३४.पस्संतो वि य काए, अपच्चलो अप्पगं विधारेउ। फिर भी उस साध्वी के कर्मबंध का कोई हेतु न होने के जह पेल्लितो अदोसो, एमेव इमं पि पासामो॥ कारण उसके कर्मों का उपचय नहीं होता। लोक भी इस परायत्त व्यक्ति स्वयं द्वारा होने वाली छह काय की विषय में साक्षी हैं कि इसने जो कुछ किया वह सारा । विराधना को देखते हुए भी स्वयं को संस्थापित करने में परवशता में किया। असमर्थ होता है, वह अदोष होता है, इसी प्रकार क्षिप्तचित्त ६२२८.राग-दोसाणुगया, जीवा कम्मस्स बंधगा होति।। साध्वी को भी हम अदोष देखते हैं। रागादिविसेसेण य, बंधविसेसो वि अविगीओ॥ ६२३५.गुरुगो गुरुगतरागो, अहागुरूगो य होइ ववहारो। राग-द्वेष में अनुगत जीव कर्म के बंधक होते हैं। रागद्वेष लहुओ लहुयतरागो, अहालहूगो य ववहारो॥ के तारतम्य से कर्मबंध का तारतम्य कहा गया है। ६२३६.लहुसो लहुसतरागो, अहालहूसो य होइ ववहारो। ६२२९.कुणमाणा वि य चेट्ठा, परतंता णट्टिया बहुविहातो। एतेसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए। किरियाफलेण जुज्जति, ण जहा एमेव एतं पि॥ ६२३७.गुरुतो य होइ मासो, गुरुगतरागो य होइ चउमासो। जैसे यंत्रमयी नर्तकी परतंत्र होने के कारण अनेक प्रकार अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ की चेष्टाएं करती हुई भी क्रिया के फल से युक्त नहीं होती, ६२३८.तीसा य पण्णवीसा, वीसा पन्नरसेव य। वैसे ही यह क्षिप्तचित्त साध्वी भी विरुद्ध क्रियाएं करती हुई दस पंच य दिवसाइं, लहसगपक्खम्मि पडिवत्ती॥ भी क्रिया के फल से संबद्ध नहीं होती। ६२३९.गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होइ दसमं तु। ६२३०.जइ इच्छसि सासेरा, अचेतणा तेण से चओ णत्थि। आहागुरुग दुवालस, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती।। जीवपरिग्गहिया पुण, बोंदी असमंजसं समता॥ ६२४०.छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल-एगठाण-पुरिमड्डा। __यदि तुम यह मानते हो, यथा-'सासेरा'-यंत्रमयी नर्तकी निव्वियगं दायव्वं, अहलहुसगगम्मि सुद्धो वा। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरुक, लघुक, लघुस्वक। गुरुक के तीन प्रकार हैं-गुरुक, गुरुतरक, यथागुरुक। लघुक के तीन प्रकार हैं-लघु, लघुतर, यथालघु। लघुस्वक के तीन प्रकार हैं-लघुस्वक, लघुस्वतरक, यथालघुस्वक। इन व्यवहारों का यथानुपूर्वी से यथोक्तपरिपाटी से प्रायश्चित्त कहूंगा। गुरुक व्यवहार मासपरिमाण वाला होता है। गुरुतरक चतुर्मासपरिणाम वाला और यथागुरुक छह मास परिमाण वाला होता है। गुरुक पक्ष में यह प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। लघुक व्यवहार तीस दिन परिमाण, लघुतरक पचीस दिन और यथालघुक बीस दिन परिमाण-यह लघुक पक्ष में प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। लघुस्वक व्यवहार पन्द्रह दिन, लघुस्वतरक दश दिन और यथालघुस्वक पांच दिन परिमाण का प्रायश्चित्त। अथवा यथालघुस्वक व्यवहार शुद्ध होता है, प्रायश्चित्त नहीं आता। ___ एकमासपरिमाण वाला गुरुक व्यवहार अष्टम से, चातुर्मास प्रमाण वाला गुरुकतरक व्यवहार दशम से और छहमास प्रमाण वाला यथागुरुक व्यवहार द्वादश से पूरा हो जाता है। यह गुरुक पक्ष में अर्थात् गुरुव्यवहार के पूर्तिविषयक तपःप्रतिपत्ति है। तीस दिन प्रमाण वाला लघुक व्यवहार षष्ठ से दो दिन के उपवास से, पचीस दिन प्रमाण वाला लघुतरक व्यवहार उपवास से तथा बीस दिन प्रमाण वाला यथालघुक व्यवहार आचाम्ल से पूरा हो जाता है। यह तीन प्रकार के लघुक व्यवहार की तपःप्रतिपत्ति है। पन्द्रह दिन प्रमाण वाला लघुस्वकव्यवहार एकस्थान से, दस दिन प्रमाण वाला लघुस्वतरकव्यवहार पूर्वार्द्ध से, पांच दिन प्रमाण वाला यथालघुस्वकव्यवहार निर्विकृति से पूरा हो जाता है। कोई मुनि परिहारतपप्रायश्चित्त वहन कर रहा हो और उसके प्रति यदि यथालघुस्वक व्यवहार की प्रस्थापना करनी हो तो वह आलोचनामात्र से शुद्ध है क्योंकि उसने कारण में यतनापूर्वक प्रतिसेवना की है। बृहत्कल्पभाष्यम् नियमतः जानना चाहिए। जो दीप्तचित्त होता है वह अनीप्सित बहुत प्रलाप करता है। ६२४२.इति एस असम्माणा, खित्ता सम्माणतो भवे दित्ता। अग्गी व इंधणेणं, दिप्पति चित्तं इमेहिं तु॥ पूर्वसूत्र में क्षिप्तचित्त के विषय में कहा गया था। क्षिप्सचित्त होने का कारण है असम्मान और दीसचित्त होने का कारण है सम्मान। जैसे अग्नि इन्धन से दीप्त होती है वैसे ही इन कारणों से चित्त दीप्त होता है। ६२४३.लाभमएण व मत्तो, अहवा जेऊण दुज्जए सत्तू। दित्तम्मि सायवाहणो, तमहं वोच्छं समासेण॥ लाभमद से मत्त अथवा दुर्जय शत्रुओं को जीतना-ये दोनों दीप्तचित्त के कारण हैं। इनमें सातवाहन का दृष्टांत है। मैं उसको संक्षेप में कहूंगा। ६२४४. महुराऽऽणत्ती दंडे, सहसा णिग्गम अपुच्छिउं कयरं। तस्स य तिक्खा आणा, दुहा गता दो वि पाडेउं॥ ६२४५.सुतजम्म-महुरपाडण-निहिलंभनिवेदणा जुगव दित्तो। सयणिज्ज खंभ कुड्डे, कुट्टेइ इमाई पलवंतो॥ सातवाहन राजा ने अपने दंडनायक को आज्ञापित करते हुए कहा-मथुरा को हस्तगत करो। तब दंडनायक ने कौनसी मथुरा (दक्षिण या उत्तर) यह बिना पूछे ही सहसा वहां से निष्क्रमण कर दिया। राजा की आज्ञा तीक्ष्ण थी। इसलिए दूसरी बार पूछने का अवकाश नहीं रहा। दंडनायक ने सेना को दो भागों में विभक्त कर दोनों ओर भेज दिया। सेना दोनों को हस्तगत कर लौट आई। वर्धापक ने राजा को पुत्रजन्म की बधाई दी। इधर से दंडनायक ने आकर मथुरा-विजय की बात कही। तीसरे व्यक्ति ने निधि-प्राप्ति का संवाद सुनाया। इन सारी बधाइयों को एक साथ सुनकर राजा दीप्त हो गया। वह प्रलाप करता हुआ शयनीय स्तंभ और भीत को पीटने लगा। ६२४६.सच्चं भण गोदावरि!, पुव्वसमुद्देण साविया संती। साताहणकुलसरिसं, जति ते कुले कुलं अत्थि॥ ६२४७.उत्तरतो हिमवंतो, दाहिणतो सालिवाहणो राया। समभारभरक्वंता, तेण न पल्हत्थए पुहवी।। सातवाहन का प्रलाप हे गोदावरी! तुमको पूर्वसमुद्र की शपथ है, तुम सच बताओ-यदि तुम्हारे कूल पर कहीं भी सातवाहन के कुल के सदृश कोई कुल है? उत्तर दिशा में हिमवान् पर्वत है, दक्षिण में सातवाहन राजा है, इसलिए समान भार से आक्रान्त यह पृथ्वी उलट नहीं रही है। दित्तचित्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र ११) ६२४१.एसेव गमो नियमा, दित्तादीणं पि होइ णायव्वो। जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवति णिच्छियव्वाइं॥ यही विकल्प दीप्तचित्त आदि निर्ग्रन्थियों के विषय में १. पूरे कथानक के लिए देखें-कथा परिशिष्ट, नं. १४०। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ६२४८.एयाणि य अन्नाणि य, पलवियवं सो अणिच्छियव्वाई। कुसलेण अमच्चेणं, खरगेणं सो उवाएणं॥ इन प्रलापों तथा अन्य अनीप्सित अनेक प्रलापों से प्रलाप कर रहे सातवाहन राजा को खरक नामक कुशल अमात्य ने उपाय से प्रतिबोध दिया। ६२४९.विद्दवितं केणं ति व, तुब्भेहिं पायतालणा खरए। कत्थ त्ति मारिओ सो, दुट्ठ त्ति य दरिसिते भोगा॥ राजा को प्रतिबोध देने के लिए मंत्री ने खंभे और भीतें खंडित कर दीं। राजा ने पूछा-यह विनाश किसने किया? अमात्य ने कहा-आपने। तब राजा ने पैरों से अमात्य खरक की ताड़ना की। लोगों ने उसे उठाकर कहीं छुपा दिया। एक दिन किसी प्रयोजनवश राजा ने पूछा-अमात्य कहां है? सामंत बोले उसको तो मार डाला। तब राजा ने सोचा-मैंने यह उचित नहीं दिया, बहुत बुरा किया। राजा स्वस्थ हुआ। तब अमात्य को लाकर दिखाया। राजा प्रसन्न हुआ। उसे भोग-पारितोषिक देकर संतुष्ट किया। यह लौकिक दीप्तचित्त का उदाहरण है। लोकोत्तरिक का दृष्टांत यह है। ६२५०.महज्झयण भत्त खीरे, कंबलग पडिग्गहे य फलए य। पासाए कप्पट्टी, वातं काऊण वा दित्ता॥ किसी साध्वी ने आगम का महाध्ययन-पौण्डरीक आदि सीख लिया या गांव में उत्कृष्ट भक्त प्राप्त कर लिया, क्षीर प्राप्त हो गई, उत्कृष्ट कंबल मिल गया, पात्र और फलक भी अच्छा मिला, रहने के लिए उत्तम उपाश्रय मिला, एक धनिक की सुंदर कन्या मिल गई, वाद में जीत हुई-इन सब प्रसंगों से वह दीप्तचित्त हो गई। ६२५१.दिवसेण पोरिसीए, तुमए पढितं इमाए अद्धेणं। एतीए णत्थि गव्वो, दुम्मेहतरीए को तुज्झं। आचार्य ने उस दीप्सचित्त साध्वी से कहा-तुमने यह महाध्ययन एक दिन में अथवा एक पौरुषी में सीखा और इस साध्वी ने आधे दिन में या आधी पौरुषी में सीख लिया। तुम इससे मंदबुद्धि हो। इसको कोई गर्व नहीं है तो तुमको कैसा गर्व? ६२५२.तहव्वस्स दुगुंछण, दिट्ठतो भावणा असरिसेणं। काऊण होति दित्ता, वादकरणे तत्थ जा ओमा॥ जिन उत्कृष्ट द्रव्यों की प्राप्ति होने के कारण दीप्तचित्तता हुई है, उन द्रव्यों की जुगुप्सा करते हुए उनके विपरिणामों का कथन करना चाहिए। अथवा उस साध्वी को भी इससे शतगुणित अच्छे द्रव्यों की प्राप्ति हुई थी। इस प्रकार दृष्टांत की भावना से उसकी प्राप्ति को हीन बतानी चाहिए। वाद करने के कारण जो दीसचित्त हुई हो तो उस प्रचंड परवादिनी को पहले प्रतिबुद्ध कर, वहां बुलाकर, किसी छोटी साध्वी से वाद में उसे पराजित करना चाहिए। उससे वह दीप्त साध्वी स्वस्थ हो सकती है। ६२५३.दुल्लभदव्वे देसे, पडिसेहितगं अलद्धपुव्वं वा। आहारोवहि वसही, अक्खतजोणी व धूया वि॥ जिस देश में द्रव्यों की प्राप्ति दुर्लभ है, जहां दुर्लभ द्रव्यों का प्रतिषेध है, जहां वे द्रव्य अलब्धपूर्व हैं, वहां उन्हें प्राप्त कर कोई साध्वी दीसचित्त हो जाती है। अथवा उत्कृष्ट आहार, उपधि, वसति अथवा अक्षतयोनिका ईश्वरकन्या प्रास कर कोई दीप्तचित्त हो जाती है। ६२५४.पगयम्मि पण्णवेत्ता, विज्जाति विसोधि कम्ममादी वा। खुड्डीय बहुविहे आणियम्मि ओभावणा पउणा।। प्रकृत-विशिष्टतर भक्त-पान, क्षीर, आदि के लिए किसी श्रावक या इतर व्यक्ति को प्रज्ञापित कर विद्या आदि तथा कार्मण का प्रयोग कर क्षुल्लिका साध्वी द्वारा उन द्रव्यों को संपादित किया जाता है। जब वह क्षुल्लिका साध्वी बहुविध द्रव्य लाती है तब उसकी अपभ्राजना की जाती है। यह देखकर वह दीप्तचित्त साध्वी स्वस्थ हो जाती है। इस विधि से प्राप्त द्रव्यों के लिए विशोधि-प्रायश्चित्त दिया जाता है। ६२५५.अहिट्ठसड कहणं, आउट्टा अभिणवो य पासादो। कयमित्ते य विवाहे, सिद्धाइसुता कतितवेणं॥ उस दीप्तचित्त साध्वी ने जिस श्रावक को पहले न देखा हो, उसको जाकर कहना, उसको प्रभावित कर देना। वह उस साध्वी के समक्ष जाकर कहता है-इस क्षुल्लिका के कहने पर आपको यह अभिनव प्रासाद रहने के लिए दिया है। तथा कपटपूर्वक सिद्धपुत्र आदि की पुत्रियों से जो अभी-अभी विवाहित हुई हैं, को उस साध्वी के समक्ष लाकर व्रत की दीक्षा देने की प्रार्थना करानी चाहिए, जिससे उसकी अपभ्राजना हो। कर जक्खाइ8 निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र १२) ६२५६.पोग्गल असुभसमुदयो, एस अणागंतुगो व दोण्हं पि। जक्खावेसेणं पुण, नियमा आगंतुको होइ। दोनों-क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त के यह अशुभ पुद्गलों का समुदय अनागंतुक है अर्थात् स्वशरीरसंभवी है। यक्षावेश से जो अशुभ पुद्गल समुदय होता है वह नियमतः आंगतुक होता है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ =बृहत्कल्पभाष्यम् जो साध्वी भूतप्रयुक्त असमंजस प्रलापों से यक्षावेशन से पीड़ित है उसकी भूतचिकित्सा करनी चाहिए। उस भूत (यक्ष) का नीच या उत्तम भाव स्वयं जानकर अथवा अन्य मांत्रिक से जानकर उसकी पूर्वोक्त क्रिया-चिकित्सा करनी चाहिए। यक्षाविष्ट साध्वी उन्माद को प्राप्त हो जाती है। उम्मायपत्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र १३) ६२५७.अहवा भय-सोगजुया, चिंतद्दण्णा व अतिहरिसिता वा। आविस्सति जक्खेहि, अयमण्णो होइ संबंधो॥ अथवा जो भय और शोकयुक्त होती है, चिंता से पीड़ित होती है वह क्षिप्तचित्त है और जो अतिहर्षित होती है वह दीप्तचित्त होती है। इन दोनों में यक्ष आविष्ट हो जाते हैं। पूर्वसूत्र से यह अन्य संबंध है। ६२५८.पुव्वभवियवेरेणं, अहवा राएण राइया संती। एतेहिं जक्खइट्ठा, सवत्ति भयए य सन्झिलगा। यक्षाविष्ट होने के दो मुख्य कारण हैं-पूर्वभविकवैर से तथा रागभाव से रंजित होने पर। पूर्वभविकवैर विषयक सपत्नी का दृष्टांत है तथा राग विषयक दो दृष्टांत हैं-भृतक का और सहोदरभाई का। ६२५९.वेस्सा अकामतो णिज्जराए मरिऊण वंतरी जाता। पुव्वसवत्तिं खेत्तं, करेति सामण्णभावम्मि॥ एक सेठ के दो पत्नियां थीं। एक प्रिय थी और दूसरी अप्रिय-द्वेष्य। अप्रिय पत्नी अकामनिर्जरा से मरकर व्यंतरी हुई। प्रिय पत्नी प्रव्रजित हो गई। व्यंतरी ने श्रामण्यभाव में रमण करने वाली अपनी पूर्वसपत्नी को, पूर्वभविकवैर का अनुस्मरण कर उसे क्षिप्त अर्थात् यक्षाविष्ट कर डाला। ६२६०.भयतो कुडंबिणीए, पडिसिद्धो वाणमंतरो जातो। सामण्णम्मि पमत्तं, छलेति तं पुव्ववेरेणं॥ एक भृतक कुटुम्बिनी में आसक्त हो गया। कुटम्बिनी ने प्रतिषेध किया। वह मरकर वानव्यंतर देव बना। वह कुटुम्बिनी प्रव्रजित हो गई। उसे श्रामण्य में प्रमत्त जानकर पूर्ववैर के कारण वानव्यंतर देव ने उसको छला। उसे क्षिप्त कर दिया। ६२६१.जेट्ठो कणेट्ठभज्जाए मुच्छिओ णिच्छितो य सो तीए। जीवंते य मयम्मी, सामण्णे वंतरो छलए॥ बड़ा भाई छोटे भाई की भार्या में मूञ्छित हो गया। उसने उसको नहीं चाहा और कहा-तुम्हारा भाई जीवित है, क्या तुम इसको नहीं देखते? तब बड़े भाई ने सोचा-जब तक छोटा भाई जीवित है, तब तक यह मेरी नहीं होगी? अतः उसको मार डालना ही उचित है। उसे मार डाला। पत्नी प्रव्रजित हो गई। बड़ा भाई वियोग में मरकर व्यंतर हुआ। वह पूर्वभविक वैर के कारण उसको ठगने लगा। उसे यक्षाविष्ट करने लगा। ६२६२.तस्स य भूततिगिच्छा, भूतरवावेसणं सयं वा वि। णीउत्तमं च भावं, णाउं किरिया जहा पुव्वं ।। ६२६३.उम्मातो खलु दुविधो, जक्खाएसो य मोहणिज्जो य। जक्खाएसो वुत्तो, मोहेण इमं तु वोच्छामि॥ उन्माद के दो प्रकार हैं-यक्षावेश और मोहनीय। यक्षावेश के विषय में पहले बताया जा चुका है। मोह से होने वाले उन्माद के विषय में बताऊंगा। ६२६४.रूवंगं दट्टणं, उम्मातो अहव पित्तमुच्छाए। तद्दायणा णिवाते, पित्तम्मि य सक्करादीणि॥ रूपांग और गुह्यांग देखकर अथवा पित्तमूर्छा से उन्माद होता है। रूपांग को देखकर होने वाले उन्माद के प्रतिकार के लिए रूपांग की विरूपावस्था का दर्शन कराना चाहिए। जो वायु के द्वारा उन्मादप्राप्त है, उसे निवात में रखना चाहिए और जो पित्त के कारण उन्मत्त है तो उसे शर्करा आदि पिलानी चाहिए। ६२६५.दट्ठण नडं काई, उत्तरवेउव्वितं मतणखेत्ता। तेणेव य रूवेणं, उड्डम्मि कयम्मि निविण्णा॥ कोई साध्वी उत्तरवैक्रयिक नट को देखकर मदनक्षिप्त अर्थात् उन्माद को प्राप्त हो सकती है। नट को स्वाभाविक रूप से दिखाने अथवा उसको वमन करते हुए दिखाने पर वह साध्वी उसके विषय में विरक्त हो जाती है। ६२६६.पण्णवितो उ दुरूवो, उम्मंडिज्जति अ तीए पुरतो तु। रूववतो पुण भत्तं, तं दिज्जति जेण छड्डेति॥ यदि वह नट स्वभावतः कुरूप हो तो उसे उन्मादप्राप्त साध्वी के सम्मुख लाकर उसके सारे मंडन को उतारा जाता है। उसको विरूप देखकर विराग हो जाता है। यदि वह नट स्वभाव से रूपवान् हो तो उसे मदनफल का भक्त दिया जाता है। ज्योंही वह साध्वी के समक्ष आता है, उसे वमन होने लगते हैं। वह निर्विण्ण हो जाती है। ६२६७.गुज्झंगम्मि उ वियडं, पज्जावेऊण खरगमादीणं। तहायणे विरागो, तीसे तु हवेज्ज दह्णं॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक गुह्यांग विषयक उन्माद होने पर किसी दास आदि को मद्य पिलाकर अपावृत सुलाकर उसके गुह्यांग को पूति मद्य से खरंटित करने पर मक्खियां भिनभिनाने लगती हैं। साध्वी को वह अवस्था दिखाने पर उसको विराग हो जाता है। उवसग्गपत्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र १४) उवालन ६२६८.मोहेण पित्ततो वा, आतासंवेतिओ समक्खाओ। एसो उ उवस्सग्गो, अयं तु अण्णो परसमुत्थो॥ मोह से अथवा पित्त से जो उन्मत्त होता है उसे आत्म- संवेदिक (आत्मा द्वारा आत्मा को दुःखोत्पादक) उपसर्ग कहते हैं। उससे अन्य परसमुत्थ उपसर्ग है। ६२६९.तिविहे य उवस्सग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। दिव्वे य पुव्वभणिए, माणुस्से आभिओग्गे य॥ उपसर्ग के तीन प्रकार हैं-दिव्य, मानुष्य और तैरश्च। दिव्य उपसर्गों के विषय में पहले कहा जा चुका है। मनुष्यकृत तथा आभियोग्य अर्थात् अभियोगजनित उपसर्गों को । कहा जा रहा है। ६२७०.विज्जाए मंतेण व, चुण्णेण व जोतिया अणप्पवसा। अणुसासणा लिहावण, खमए मधुरा तिरिक्खाती। विद्या, मंत्र या चूर्ण से योजित होने पर कोई साध्वी अनात्मवश हो जाती है। विद्या आदि का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को अनुशिष्टि द्वारा समझाना चाहिए। यदि न समझे तो प्रतिविद्या के द्वारा विद्वेषण उत्पन्न करना चाहिए। 'लिहावण' अर्थात् उस व्यक्ति के सागारिक-लिंग को विद्या के प्रयोग से आलेखित कर उस साध्वी को दिखाए। उसके बीभत्स रूप को देखकर वह विरक्त हो जाती है। एक बार मथुरा में बोधिक स्तेनों ने श्रमणियों को उपसर्ग दिए तथा । क्षपक ने उनका निवारण किया। यह मनुष्यकृत उपसर्ग है। तिर्यञ्चकृत उपसर्गों का साध्वियां स्वयं निराकरण करे। ६२७१.विज्जादऽभिओगो पुण, एसो माणस्सओ य दिव्वोय। तं पुण जाणंति कहं, जति णामं गेण्हए तस्स॥ विद्या आदि से अभियोग होता है। वह दो प्रकार का हैमानुषिक और दैविक। यह अभियोग मानुषिक है या दैविक- यह कैसे जाना जाता है? अभियोजित साध्वी जिसका नाम लेती है वह उसके द्वारा कृत है-ऐसा जानना चाहिए। १. एवमग्नेर्भूतादिप्रयुक्तस्यौषधमग्निः। ६२७२.अणुसासियम्मि अठिए, विदेसं देति तह वि य अठंते। जक्खीए कोवीणं, तीसे पुरओ लिहावेंति॥ जो विद्या आदि से अभियोजित करता है उसको अनुशासित करने पर भी वह यदि विरत नहीं होता है तो साध्वी के प्रति उसके मन में विद्वेष पैदा किया जाता है। फिर भी यदि वह व्यक्ति नहीं मानता है तो विद्याप्रयोग से कुत्ती के कौपीन (गुह्यांग) को चाटते हुए कुत्ते की छवि उस साध्वी को दिखाते हैं। वह विरक्त हो जाती है। ६२७३.विसस्स विसमेवेह, ओसहं अग्गिमग्गिणो। ___मंतस्स पडिमंतो उ, दुज्जणस्स विवज्जणं॥ विष की औषधि विष ही है, अग्नि का औषध है अग्नि और मंत्र का निवारण है प्रतिमंत्र। दुर्जन का औषध है उसका विवर्जन। ६२७४.जइ पुण होज्ज गिलाणी, णिरुब्भमाणी उ तो से तेइच्छं। संवरियमसंवरिया, उवालभंते णिसिं वसभा।। विद्या द्वारा अभियोजित उस साध्वी को उसके अभिमुख जाती हुई को रोका जाता है तो वह ग्लान हो जाती है तब उसकी चिकित्सा संवृत रूप से अर्थात् किसी को ज्ञात न हो, उस प्रकार से की जाती है। यदि वह असंवृत अर्थात् जिसके द्वारा अभियोजित हुई है उसके सम्मुख होती है तो वृषभ मुनि रात्री में उस व्यक्ति को उपालंभ देते हैं, डराते हैं, पीटते हैं, जिससे वह उस साध्वी को छोड़ देता है। ६२७५.थूभमह सड्डिसमणी, बोहिय हरणं तु णिवसुताऽऽतावे। मज्झेण य अक्कंदे, कयम्मि जुद्धेण मोएति॥ स्तूप महोत्सव के अवसर पर श्रमणियों के साथ श्राविकाएं भी गईं। चोरों ने उनका अपहरण कर लिया। एक साधु (पूर्व राजकुमार) वहां समीप में ही आतापना ले रहा था। चोर उन स्त्रियों को उसके मध्य से ले जा रहे थे। श्राविकाओं ने साधु को देख आक्रन्दन किया। साधु (पूर्व राजकुमार) ने चोरों के साथ युद्ध कर उन्हें मुक्त करा डाला। ६२७६.गामेणाऽऽरण्णेण व, अभिभूतं संजतिं तु तिरिगेणं। थद्धं पकंपियं वा, रक्खेज्ज अरक्खणे गुरुगा। गांव के अथवा अरण्य के तिर्यञ्चों से अभिभूत कोई Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० संयती भय से स्तब्ध, प्रकंपित हो रही हो तो उसकी रक्षा करनी चाहिए। यदि रक्षा नहीं की जाती तो उस श्रमण को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। · साहिगरणं निम्गंथिं निम्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ ॥ (सूत्र १५) ६२७७. अभिभवमाणो समणिं, परिग्गहो वा से वारिते कलहो। किं वा सति सत्तीए, होइ सपक्खे उविक्खाए । किसी श्रमणी का अभिभव करने वाले गृहस्थ को अथवा उसके परिजन को वारित करने पर वह कलह करता है। तो मुनि उस कलह का उपशमन करे, उपेक्षा न करे। उस शक्ति से क्या प्रयोजन जो स्वपक्ष की उपेक्षा करे ? कोई प्रयोजन नहीं। ६२७८. उप्पण्णे अहिगरणे, ओसमणं दुविहऽतिक्रमं दिस्स । अणुसासण भेस निरंभणा य जो तीए परिपक्खो ॥ संयती का गृहस्थ के साथ अधिकरण- कलह उत्पन्न होने पर उसका व्यवशमन करना चाहिए क्योंकि वह गृहस्थ अनुपशांत रहकर दो प्रकार से अतिक्रम कर सकता हैसंयती का संयमभेद तथा जीवितभेद कर सकता है। यदि वह गृहस्थ संयती का प्रतिपक्ष हो तो उसे अनुशिष्टि देकर शांत करे, भय दिखाकर या निरंभण कर उसका निवारण करना चाहिए। सपायच्छित्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ ॥ (सूत्र १६) ६२७९. अहिगरणम्मि कयम्मिं खामिय समुपठिताए पच्छित्तं । तप्पढमताए भएणं, होति किलंता व वहमाणी ॥ अधिकरण करके, क्षमायाचना कर समुपस्थित साध्वी को प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रायश्चित्त को प्राप्त कर वह प्रथमतः भय से विषण्ण हो जाती है अथवा प्रायश्चित्त को वहन करती हुई वह क्लान्त हो जाती है। ६२८०. पायच्छिते दिण्णे भीताए विसज्जणं किलंताए । अणुसद्धि वहंतीए भएण खित्ताह तेइच्छं ॥ जो साध्वी प्रायश्चित्त देने पर भीत या क्लान्त हो जाती बृहत्कल्पभाष्यम् है, उसको प्रायश्चित्त से मुक्त कर देना चाहिए। यदि वह प्रायश्चित्त वहन करती हुई क्लान्त होती है तो उसे कहना चाहिए - डरो मत। हम तुम्हारा सहयोग करेंगे। यदि वह भय से सिसचित्त हो जाए तो उसकी चिकित्सा करनी चाहिए। भत्त- पाणपडियाइक्खियं निम्गंथिं निम्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ ॥ (सूत्र १७) ६२८१.पच्छित्तं इत्तिरिओ, होह तवो वण्णिओ य जो एस। आवकथितो पुण तवो, होति परिण्णा अणसणं तु ॥ प्रायश्चित्तरूप तप जो पूर्वसूत्र में वर्णित है वह इत्वर तप है जो परिज्ञा रूप तप अर्थात् अनशन है वह यावत्कथिक होता है। ६२८२. अ वा हेडं वा समणीणं विरहिते कहेमाणो । मुच्छाए विपडिताए, कप्पति गहणं परिण्णाए । अशिव आदि के कारण श्रमणियों से विरहित होकर एक साध्वी अकेली रह गई। उसने भक्तप्रत्याख्यान कर लिया। निर्ग्रन्थ उसे अर्थ और हेतु कह रहा था । मूर्च्छा से वह नीचे गिर पड़ी। अनशन में उस साध्वी को ग्रहण करना, उसे अवलंबन देना निर्ग्रन्थ को कल्पता है। ६२८३. गीतऽज्जाणं असती, पाणग भत्त समाही, सव्वाऽसतीए व कारण परिण्णा । कहणा आलोत धीरवणं ॥ गीतार्थ आर्यिकाओं के अभाव में अथवा अशिव आदि के कारण सभी आर्थिकाओं के अभाव में एकाकिनी साध्वी ने भक्तप्रत्याख्यान कर लिया। वह यदि दुःख पा रही हो तो उसकी समाधि के लिए भक्तपान लाकर देना चाहिए। उसे धर्मकथा कहनी चाहिए। उसे आलोचना दिलानी चाहिए तथा उसे धैर्य बंधाना चाहिए। ६२८४. जति वाण णिव्वहेज्जा, असमाही वा वि तम्मि गच्छमि । करणिज्जं अण्णत्थ वि, ववहारो पच्छ सुद्धा वा ॥ यदि वह अनशन का निर्वहण न कर सके, उस गच्छ में उसकी असमाधि हो तो उसे अन्यत्र ले जाकर जो उचित हो . Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक वह करना चाहिए। उसे अनशनभंग करने का व्यवहार- प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि वह स्वगच्छ में असमाधि के कारण अन्यत्र गई हो तो वह 'मिथ्यादुष्कृत' मात्र से शुद्ध हो जाती है। अद्वजायं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥ (सूत्र १८) ६२८९.अपरिग्गहियागणियाऽ विसज्जिया सामिणा विणिक्खंता। बहुगं मे उवउत्तं, __ जति दिज्जति तो विसज्जेमि॥ एक अपरिग्रहगणिका एक व्यक्ति के साथ रहती थी। वह व्यक्ति देशान्तर चला गया। उसने उस गणिका का विसर्जन नहीं किया। कालान्तर में वह प्रवजित हो गई। एक बार वह स्वामी देशान्तर से आ गया और स्थविर से कहा-इसने मेरा बहुत सारा धन खाया है, उसका उपभोग किया है। वह यदि मुझे मिल जाता है तो मैं इसका विसर्जन करूंगा। अन्यथा नहीं। ६२९०.सरभेद वण्णभेदं, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि। वरधणुग पुस्सभूती, गुलिया सुहमे य झाणम्मि। तब उसका गुटिका के प्रयोग से स्वरभेद, वर्णभेद कर देते हैं, उसे अन्यग्राम में भेजकर अन्तर्धान कर देते हैं, विरेचन आदि देकर ग्लान बना देते हैं-यह सारा देखकर वह उसे छोड़ देता है। अथवा वरधनु और पुष्यभूति आचार्य सूक्ष्म ध्यान में प्रवेश कर मृतवत् हो गए। यह देखकर उनको ६२८५.वुत्तं हि उत्तमढे, पडियरणट्ठा व दुक्खरे दिक्खा । इंती व तस्समीवं, जति हीरति अट्ठजायमतो॥ यह पहले कहा जा चुका है कि उत्तमार्थ-अनशन ग्रहण करने वाले को तथा यह मेरी सेवा करेगी इस दृष्टि से दासी को दीक्षित किया जा सकता है। वह अनशन करने वाली साध्वी के पास आ रही हो और तब मार्ग में चोर उसका अपहरण कर ले उसके लिए अर्थजात (धन) की आवश्यकता होती है। ६२८६.अद्वेण जीए कज्जं, संजातं एस अट्ठजाता तु। तं पुण संजमभावा, चालिज्जंती समवलंबे॥ जिसका कार्य अर्थ से उत्पन्न हुआ है वह है अर्थजाता। जो दासी संयमभाव से चाल्यमान है, उसको सम्यग् अवलंबन दे, सहायता करे। ६२८७.सेवगभज्जा ओमे, आवण्ण अणत्त बोहिये तेणे। एतेहि अट्ठजातं, उप्पज्जति संजमठिताए॥ संयम में स्थित साध्वी के भी इन कारणों से अर्थजात उत्पन्न होता है, आवश्यक होता है। सेवक भार्या के विषय में, दुर्भिक्ष में, आवण्ण-दासत्व की अवस्था में, अणत्त-ऋणात होने पर, बोधिक-अनार्य म्लेच्छ, स्तेनों द्वारा अपहरण अवस्था में। ६२८८.पियविप्पयोगदुहिया, णिक्खंता सो य आगतो पच्छा। अगिलाणिं च गिलाणिं, जीवियकिच्छं विसज्जेति॥ एक राजसेवक ने अपनी भार्या को छोड़ दिया। वह अपने प्रिय पति के विप्रयोग से दुःखी होकर प्रवजित हो गई। कालान्तर में वह सेवक स्थविर के पास आकर अपनी पत्नी की मार्गणा करता है। तब स्थविर ने उस अग्लान साध्वी को ग्लानरूप में प्रस्तुत किया। सेवक ने उसे देखकर सोचा यह अब कष्ट से जीवित रहेगी। उसने उसका विसर्जन कर दिया। १. ब्रह्मदत्त हिण्डी। ६२९१.अणुसिट्ठिमणुवरंतं, गति णं मित्त-णातगादीहिं। एवं पि अठायंते, करेंति सुत्तम्मि जं वुत्तं॥ उस पुरुष को अनुशिष्टि दी जाती है। यदि वह इससे भी उपरत नहीं होता है तो उसके मित्रों तथा ज्ञातियों को यह बात कही जाती है। इससे भी यदि वह नहीं मानता है तो सूत्र में जो कहा है, उसका अवलंबन लेना चाहिए। ६२९२.सकुडुबो मधुराए, णिक्खिविऊणं गयम्मि कालगतो। ओमे फिडित परंपर, आवण्णा तस्स आगमणं॥ मथुरा नगरी में एक वणिक् अपने पूरे कुटुम्ब के साथ प्रव्रजित हो गया। उसने अपनी एक छोटी लड़की को अपने मित्र को सौंपकर वहां से प्रस्थान कर दिया। कालान्तर में वह मित्र कालगत हो गया। दुर्भिक्ष होने पर वह लड़की वहां से चली गई। वह परंपरा से दासत्व को प्राप्त हो गई। विहार करते-करते उसके मुनि पिता वहां आए और अपनी पुत्री की सारी बात जानकर उसे दासत्व से मुक्त करने का उपाय सोचने लगे। ६२९३.अणुसासण कह ठवणं, भेसण ववहार लिंग जं जत्थ। दूराऽऽभोग गवेसण, पंथे जयणा य जा जत्थ। सबसे पहले जिस घर में वह दासी है उस पुरुष को समझाना चाहिए। उस पर अनुशासन करना चाहिए। कथा २. आवश्यक नियुक्ति गाथा. १३१७, हारि. टी. प. ७२२। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ = बृहत्कल्पभाष्यम् प्रसंग से कहना, या स्वयं स्थापित द्रव्य उसे देना, ६२९८.सोऊण अट्ठजाय, अट्ठ पडिजग्गती उ आयरिओ। डराना-धमकाना, राजकुल में व्यवहार करना, लिंग को संघाडगं च देती, पडिजग्गति णं गिलाणं पि॥ बदल कर, जो जहां पूज्य हो वैसा लिंग धारण कर, दूर निधिग्रहण के लिए मार्ग में जाते हुए उस 'अर्थजात' निधि का आभोग, गवेषणा, मार्ग में यतना, जो जहां यतना साधु की बात सुनकर आचार्य अर्थ का उत्पादन करनी हो वह। यह द्वार गाथा है। इसका तात्पर्य इन (संरक्षण) करते हैं। वह यदि अकेला हो तो उसे संघाटक गाथाओं में है। देते हैं। वह यदि ग्लान हो जाता है तो उसके प्रति जागरूक ६२९४.निच्छिण्णा तुज्झ घरे, इसिकण्णा मुंच होहिती धम्मो। रहते हैं। सेहोवट्ठ विचित्तं, तेण व अण्णेण वा णिहितं॥ ६२९९.काउं णिसीहियं अट्ठजातमावेदणं गुरूहत्थे। उस व्यक्ति से कहे यह ऋषिकन्या है। तेरे घर से दाऊण पडिक्कमते, मा पेहंता मिया पासे॥ दुर्भिक्ष आदि मिट गया है। इसको मुक्त कर दे, तुझे धर्म नैषेधिकी करके गुरु को अर्थजात का आवेदन कर, होगा। कोई शैक्ष वहां आया। उसने विविध प्रकार का उसको गुरु के हाथ में देकर प्रतिक्रमण करता है। वह उस अर्थजात कहीं स्थापित कर रखा है। वह द्रव्य उस व्यक्ति अर्थजात को अपने पास इसलिए नहीं रखता कि मृग को लाकर दिया जाता है। अथवा उस पिता ने या अन्य की भांति अज्ञानी अगीतार्थ मुनि उसे देखते हुए भी न व्यक्ति ने प्रव्रज्या लेते समय द्रव्य स्थापित किया था, उसे जान सके। लाकर दिया जाता है। ६३००.सण्णी व सावतो वा, केवतितो दिज्ज अट्ठजायस्स। ६२९५.नीयल्लगाण तस्स व, भेसण ता राउले सतं वा वि। पुव्वुप्पण्ण णिहाणे, कारणजाते गहण सुद्धो। ___ अविरिक्का मो अम्हे, कहं व लज्जा ण तुज्झं ति॥ जहां संज्ञी-सिद्धपुत्र या श्रावक हो, वहां उसको सारी अपने स्वजनों को भयभीत करना चाहिए। उन्हें कहना बात बताए। उसको प्रज्ञापित करने पर वह द्रव्यार्थी साधु को चाहिए-मैंने जब प्रव्रज्या ली थी, तब हम सब साथ में थे। अर्थजात का कितना ही भाग दे सकता है। पूर्वोत्पन्न निधान धनमाल का विभाजन नहीं किया था। तुमको लज्जा क्यों नहीं से कारणवश ग्रहण करने वाला भी शुद्ध है। आई जब मेरी पुत्री दासी बनकर रहने लगी? अथवा जिसके ६३०१.थोवं पि धरेमाणी, कत्थइ दासत्तमेइ अदलंती। अधीन वह पुत्री है, उस व्यक्ति को कहना चाहिए-मैं तुमको परदेसे वि य लब्भति, वाणियधम्मे ममेस त्ती॥ शाप दूंगा, जिससे तुम नष्ट हो जाओगे। इतने पर भी यदि अवशिष्ट थोड़ा ऋण भी धारण करती हुई कोई स्त्री ऋण वह उसे मुक्त नहीं करता है तो राजकुल में शिकायत करनी न दे सकने के कारण किसी देश में दासत्व को स्वीकारती चाहिए। यदि उसे स्वजनों द्वारा अपना हिस्सा मिल जाता है है। उसको स्वदेश में दीक्षा नहीं दी जाती। परदेश में जाने पर तो उसे देकर कन्या को छुड़ा लेना चाहिए। अज्ञातरूप में वह दीक्षित हो जाती है। परदेश में गया हुआ ६२९६.नीयल्लएहि तेण व, सद्धिं ववहार कातु मोदणता। वह वणिक उसे देखकर अपना अधिकार जताता है। वहां यह जं अंचितं व लिंगं, तेण गवेसित्तु मोदेइ॥ न्याय है-परदेश में भी वणिक् अपने प्राप्तव्य को प्राप्त कर स्वजनों तथा उस व्यक्ति के साथ व्यवहार का आश्रय सकता है। इस प्रकार वाणिज्य-धर्म के अनुसार वह कहता लेकर कन्या को मुक्त कराना चाहिए। वैसा न होने पर जहां है-यह मेरी दासी है, इसे मैं नहीं छोडूंगा। जो लिंग अर्चित हो उस लिंग को धारण कर, उनमें जो ६३०२.नाहं विदेसयाऽऽहरणमादि विज्जा य मंत जोए य। महान्त हैं उनसे गवेषणा कराकर मुक्त करना चाहिए। निमित्ते य राय धम्मे, पासंड गणे धणे चेव॥ ६२९७.पुट्ठा व अपुट्ठा वा, चुतसामिणिहिं कहिंति ओहादी। द्वार गाथा-मैं वह नहीं, विदेश, आहरण आदि, विद्या, घेत्तूण जावदढे, पुणरवि सारक्खणा जतणा।। ___मंत्र, योग, निमित्त, राजा, धर्म, पाषंड, गण, धन। विस्तार अथवा अवधिज्ञानी या विशिष्ट ज्ञानियों द्वारा पूछने आगे की गाथाओं में। पर या बिना पूछे ही च्युतस्वामी की निधि का कथन ६३०३.सारिक्खएण जंपसि, जाया अण्णत्थ ते वि आमं ति। किए जाने पर, जितने अर्थ का प्रयोजन हो, उतना अर्थ उस बहुजणविण्णायम्मि, थावच्चसुतादिआहरणं ।। निधि से निकाल कर, पुनः उस निधि का संरक्षण करना वह वणिक् से कहे-मैं अन्यत्र विदेश में जन्मी हूं। तुम चाहिए। लौटते समय यतना रखनी चाहिए। यह आगे के सादृश्य से ऐसा कह रहे हो। तब वहां के लोग भी कहते गाथा में है। हैं-हां, यह जो कह रही है, वह सच है। यदि वह साध्वी Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ६६३ बहुजन विज्ञात हो तो स्थापत्यापुत्र के उदाहरण के द्वारा उन्हें वर्ष हीन या दो वर्ष हीन धर्म हमें दे दो। बात होते होते जब समझाए। वे कहे-इसने जो एक दिन में धर्म किया है, वह हमें दे दो। ६३०४.सरभेद वण्णभेदं, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि। तब उन्हें कहे-इसने तुम्हारा जितना लिया है वह मुहूर्त ___वरधणुग पुस्सभूती, गुलिया सुहमे य झाणम्मि॥ आदि धर्म से तुलनीय है। उतना हम देंगे। यदि वे इसे तब उसका गुटिका के प्रयोग से स्वरभेद, वर्णभेद कर स्वीकार करते हैं तब विद्या से तुला का स्तंभन कर कहना देते हैं, उसे अन्यग्राम में भेजकर अन्तर्धान कर देते हैं, चाहिए क्षणमात्र धर्म से भी नहीं तोला जा सकता। विरेचन आदि देकर ग्लान बना देते हैं-यह सारा देखकर वह धर्मतोलन धर्माधि-करणिक-नीति शास्त्र प्रसिद्ध है। उसे छोड़ देता है। अथवा वरधनु और पुष्यभूति आचार्य क्षणमात्रकृत धर्म का लाभ पाने के लिए तप ग्रहण करना सूक्ष्म ध्यान में प्रवेश कर मृतवत् हो गए। यह देखकर उनको आवश्यक है। वे तपग्रहण करना न चाहें तो कहे-यह छोड़ दिया। साध्वी वणिग्न्याय से शुद्ध है। ६३०५.पासंडे व सहाए, गिण्हति तुज्झं पि एरिसं अत्थि। ६३०९.वत्थाणाऽऽभरणाणि य, सव्वं छड्डेउ एगवत्थेणं। होहामो य सहाया, तुब्भ वि जो वा गणो बलितो॥ पोतम्मि विवण्णम्मि, वाणितधम्मे हवति सुद्धो।। पाषंडों को अपना सहायक बनाले। उनको कहे- वणिग्न्याय-एक वणिग् वस्त्रों और आभरणों को जहाज तुम्हारे भी जब ऐसा ही प्रयोजन उपस्थित होगा तब हम में भरकर चला। उसने अनेक व्यक्तियों से प्रभूत ऋण ले भी तुम्हारे सहायक बनेंगे। अथवा जो गण बलवान् हो रखा था। मार्ग में जहाज टूट गया। तब उसने पोतगत सारा उसकी सहायता ले। (उस समय मल्लगण, सारस्वतगण सामान छोड़कर स्वयं एक वस्त्र पहन कर तैर कर बाहर बलवान् थे।) आया। वह वणिग्धर्म में शुद्ध होता है। इसी प्रकार यह साध्वी ६३०६.एएसिं असतीए, संता व जता ण होति उ सहाया। भी सबकुछ त्याग कर निष्क्रान्त हुई है, यह वणिग्धर्म से ठवणा दूराभोगण, लिंगेण व एसिउं देंति॥ शुद्ध है। यह न अपना ऋण किसी से मांगती है और न इसका इन पाषंडों और गणों के अभाव में अथवा होने पर भी ये किसी को देना होता है। सहायक न बनते हों तो निष्क्रमण के समय जो द्रव्य स्थापित ६३१०.तम्हा अपरायत्ते, दिक्खेज्ज अणारिए य वज्जेज्जा। किया था, उससे उसको दासत्व से मुक्त कराए। अथवा अद्धाण अणाभोगा, विदेस असिवादिसू दो वी॥ दूरस्थ निधि के आभोग से अथवा अर्चित लिंग धारण कर इसलिए परायत्त को दीक्षा देना और अनार्य देश में धन की एषणा कर-उत्पादन कर वृषभ मुनि उसको देकर जाना इसका वर्जन करे। इसमें अपवाद यह है-यात्रा के मुक्त कराए। समय, अनाभोग अर्थात् अज्ञातदशा में, विदेश में अथवा ६३०७.एमेव अणत्ताए, तवतुलणा णवरि तत्थ णाणत्तं।। अशिव आदि में दीक्षा भी दी जा सकती है और अनार्य देश बोहिय-तेणेहि हिते, ठवणादि गवेसणे जाव॥ में भी विहार किया जा सकता है। इसी प्रकार ऋणार्ता को मुक्त कराने के लिए धनदान में __ पलिमंथू-पदं नानात्व है। वह है-तपस्तुलना। साध्वी को बोधिकों या स्तेनों द्वारा अपहरण हो जाने पर उसकी गवेषणा करनी चाहिए छ कप्पस्स पलिमंथू पण्णत्ता, तं तथा पूर्वोक्त अर्थजात की स्थापना विधि तक अपनानी जहा कोक्कुइए संजमस्स पलिमंथू, चाहिए। (तपस्तुलना का तात्पर्य है-बोधिक या स्तेन द्रव्य मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू, की मांग करे तो उनको कहना चाहिए-हम साधु तपोधन हैं। हमारे पास न सुवर्ण है और न हिरण्य। हमारे पास धर्म है। चक्खुलोलुए इरियावहियाए पलिमंथू, तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमंथू, तुम भी धर्म ग्रहण करो।) ६३०८.जो णाते कतो धम्मो, तं देउ ण एत्तियं समं तुलइ। इच्छालोभिए मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू, ____ हाणी जावेगाहं, तावतियं विज्जथंभणता॥ भिज्जानियाणकरणे मोक्खमग्गस्स यदि वे कहें-इस साध्वी ने जो धर्म किया है, वह सारा पलिमंथू। सव्वत्थ भगवता अनियाणया हमें दो। तब साधु कहे-इसके साथ इतने धर्म को नहीं पसत्था॥ तोला जा सकता नैतावत् समं तुलति। तब वे बोले-एक (सूत्र १९) Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ = बृहत्कल्पभाष्यम् ६३११.दप्पेण जो उ दिक्खेति एरिसे एरिसेसु वा विहरे। द्रव्यपरिमंथ मंथिक है, मन्थान है। इससे जैसे दही मथा तत्थ धुवो पलिमंथो, को सो कतिभेद संबंधो॥ जाता है वैसे ही दधितुल्य जो कल्प-साधु समाचार है वह जो आचार्य दर्प से ऐसे परायत्त को दीक्षित करता है कौत्कुच्य आदि परिमंथों से मथा जाता है, विनष्ट किया अथवा जो अनार्य देशों में दर्प से विहरण करता है, वहां जाता है। निश्चित ही परिमंथ होता है। परिमंथ क्या है और उसके ६३१७.कोकुइओ संजमस्स उ, मोहरिए चेव सच्चवयणस्स। कितने भेद हैं? इरियाए चक्खुलोलो, एसणसमिईए तितिणिए। ६३१२.अहवा सव्वो एसो, कप्पो जो वण्णिओ पलंबादी। ६३१८.णासेति मुत्तिमग्गं, लोभेण णिदाणताए सिद्धिपहं। तस्स उ विवक्खभूता, पलिमंथा ते उ वज्जेज्जा॥ एतेसिं तु पदाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं। अथवा जो यह सारा प्रलंब आदि का कल्प-समाचार संयम का परिमंथ है कौत्कुचिक, सत्यवचन का है वर्णित है उस कल्प का विपक्षीभूत परिमंथ होते हैं उनका मौखरिक, ईर्यासमिति का है चक्षु की लोलुपता, एषणावर्जन करना चाहिए। समिति का है तिन्तिणिक ये परिमंथु है। लोभ से मुक्तिमार्ग ६३१३.आइम्मि दोन्नि छक्का, अंतम्मि य छक्कगा दुवे हुँति। का, निदानता से सिद्धिपथ का नाश होता है। इन प्रत्येक पदों सो एस वइरमज्झो, उद्देसो होति कप्पस्स॥ की मैं प्ररूपणा कहूंगा। __ इस छठे उद्देशक की आदि में दो षट्क-भाषा-षट्क ६३१९.ठाणे सरीर भासा, तिविधो पुण कुक्कुओ समासेणं। और प्रस्तारषट्क आए हैं और अन्त में भी दो चलणे देहे पत्थर, सविगार कहक्कहे लहुओ॥ षट्क-परिमंथषट्क और कल्पस्थितिषट्क आए हैं। इसलिए ६३२०.आणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमा-ऽऽयाए। यह कल्पोद्देशक का वज्रमध्य है। वज्र की भांति आदि-अंत जंते व णट्टिया वा, विराहण मइल्लए सुत्ते॥ में विस्तीर्ण और मध्य में संक्षिप्त होता है। आद्य षट्कद्वय कौत्कुचिक संक्षेप से तीन प्रकार का है-शरीर पहले कहा जा चुका है, अब अन्त्य षट्कद्वय बताया जा विषयक, स्थानविषयक और भाषाविषयक। स्थानरहा है। कौत्कुचिक स्थान से बार-बार भ्रमण करना। शरीर ६३१४.पलिमंथे णिक्खेवो, णामा एगट्ठिया इमे पंच।। कौत्कुचिक-हाथ आदि से पत्थर आदि फेंकना। भाषा पलिमंथो वक्खेवो, वक्खोड विणास विग्यो य॥ कौत्कुचिक-सविकार बोलना, अट्टहास करना। इन तीनों में परिमंथ निक्षेप के चार प्रकार हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य प्रायश्चित्त है मासलघु, आज्ञाभंग आदि दोष तथा और भाव। उसके एकार्थक ये पांच हैं-परिमंथ, व्याक्षेप, संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। यंत्र तथा व्याखोट, विनाश और विघ्न। नर्तिका की भांति स्थान और शरीर को जो घूमाता है, ६३१५.करणे अधिकरणम्मि य, वह कौत्कुचिक होता है। जो जोर से हंसता है, उसके कारग कम्मे य दव्वपलिमंथो। मुंह आदि में मक्खी प्रवेश कर सकती है। उससे विराधना एमेव य भावम्मि वि, होती है। इस प्रसंग में मृतदृष्टांत और सुस-दृष्टांत-ये दो चउसु वि ठाणेसु जीवे तु॥ दृष्टांत है। द्रव्य परिमंथ के चार प्रकार हैं-करण, अधिकरण, कारक ६३२१.आवडइ खंभकुड्डे, अभिक्खणं भमति जंतए चेव। और कर्म। करण–जिस मन्थान आदि से दही मथा जाता है, कमफंदण आउंटण, ण यावि बद्धासणो ठाणे॥ अधिकरण-जिस पृथ्वीकाय निष्पन्न मथनी में दही मथा जाता जो बैठा-बैठा या खड़ा-खड़ा स्तंभ और भीत से है, कर्ता-जो स्त्री या पुरुष दही मथता है। कर्म-मथने से जो जा टकराता है, यंत्र की भांति बार-बार भ्रमण करता है, नवनीत निकलता है। इसी प्रकार भावविषयक परिमंथ के भी पैरों का स्पन्दन तथा आकुंचन करता है तथा एक चार प्रकार हैं-करण कौत्कुच्य आदि से संयम को मथना, स्थान पर बद्धासन होकर नहीं बैठता। वह स्थान अधिकरण आत्मा में संयम को मथना, कर्ता-साधु-साध्वी कौत्कुचिक होता है। परिमंथ के द्वारा संयम का मंथन करना, कर्म-संयम को मथने ६३२२.संचारोवतिगादी, संजमे आयाऽहि-विच्चुगादीया। पर असंयम निष्पन्न होता है। दुब्बद्ध कुहिय मूले, चडप्फडते य दोसा तु॥ ६३१६.दव्वम्मि मंथितो खलु, तेणं मंथिज्जए जहा दधियं। जो स्थानकौत्कुचिक होता है उसके ये दोष होते हैं-भीतों दधितुल्लो खलु कप्पो, मंथिज्जति कोकुआदीहिं॥ पर संचरणशील उद्देशिका, मंथु, कीटिका आदि जीवों की Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक विराधना होती है, वह संयमविराधना है। आत्मविराधना में वह? रानी ने साधु की ओर इशारा किया। राजा ने सर्प, बिच्छु आदि का उपद्रव हो सकता है। यदि वह स्तंभ पूछा-यह मरा हुआ कैसे? रानी ने कहा-यह संसार से आदि से टकराता है। और वह स्तंभ यदि दुर्बद्ध हो या मूल विरक्त है अतः मृत की भांति मृत है। हो तो गिर कर उसकी पीड़ा का हेतु बनता है। (ख) इसी प्रकार सुप्त मनुष्य भी मृतवत् होता है। बार-बार इधर-उधर घूमने से संधि विसंधि हो सकती है ६३२७.मुहरिस्स गोण्णणाम, आवहति अरिं मुहेण भासंतो। तथा अन्यान्य अनेक दोष हो सकते हैं। ___ लहुगो य होति मासो, आणादि विराहणा दुविहा॥ ६३२३.कर-गोफण-धणु-पादादिएहिं उच्छुभति पत्थरादीए। मौखरिक-यह गुणनिष्पन्न नाम है। वह मुंह से असमंजस भमुगा-दाढिग-थण-पुतविकंपणं णट्टवाइत्तं॥ बोलता हुआ वैर को वहन करता है अर्थात् वैर बांधता है। हाथ से, गोफण से, धनुष्य से, पैर आदि से उसको मासलघु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा बलपूर्वक पत्थर आदि फेंकने वाला शरीर कौत्कुचिक संयम और आत्मविराधना दोनों होती हैं। उसके सत्यव्रत के होता है। भौंहों को, दाढ़ी को, स्तनों को तथा पुतों को परिमंथ के कारण संयमविराधना होती है। कंपित करना नृत्यपातित्व कहलाता है। वह भी शरीर ६३२८.को गच्छेज्जा तुरियं, अमुगो त्ति य लेहएण सिट्ठम्मि। कौत्कुचिक है। सिग्घाऽऽगतो य ठवितो, केणाहं लेहगं हणति॥ ६३२४.छेलिय मुहवाइत्ते, जंपति य तहा जहा परो हसति। राजा ने सभा में पूछा-मेरा एक कार्य है, कौन शीघ्र जा कुणइ य रुए बहुविधे, वग्घाडिय-देसभासाए॥ सकता है? एक लेखक ने कहा-अमुक व्यक्ति पवनवेग से मुंह से सीटी बजाना, मुंह को वादित्र बनाकर जाता है। राजा ने उसी को अपने कार्य के लिए भेजा और बजाना अथवा उस प्रकार बोलना जिससे दूसरे हंस वह कार्य संपन्न कर शीघ्र आ गया। राजा ने उसको 'दूत' पड़े, बहुविध शब्द करना, वग्घाडिक उद्घट्टकारक भाषा के रूप में स्थापित कर दिया। उसने पूछा-मेरा नाम राजा या देशी भाषा बोलना जिससे सभी हंसने लगे। वह के समक्ष किसने लिया? लोगों ने कहा-लेखक ने। अवसर भाषाकौत्कुचिक है। देखकर उसने लेखक को मार डाला। मुनि को मुखरता से ६३२५.मच्छिगमाइपवेसो, असंपुडं चेव सेट्ठिदिलुतो। बचना चाहिए। दंडिय घतणो हासण, तेइच्छिय तत्तफालेणं॥ ६३२९.आलोयणा य कहणा, परियट्टऽणुपेहणा अणाभोए। भाषाकौत्कुचिक की बात सुनकर लोग जोर-जोर से लहुगो य होति मासो, आणादि विराहणा दुविहा।। हंसने लगे। मुंह को फाड़ कर हंसने से अन्दर मक्षिका जो मुनि इधर-उधर देखता हुआ चलता है, धर्मकथा, आदि प्रवेश कर जाती है। कभी-कभी मुंह खुला का खुला परिवर्तना, अनुप्रेक्षा करता हुआ मार्ग में अनुपयुक्त होकर रह जाता है। मुंह संपुट नहीं होता। यहां एक सेठ का चलता है तो लघुमास, आज्ञाभंग आदि दोष तथा दोनों प्रकार दृष्टांत है-एक राजा के पास एक भांड था। एक बार की विराधना होती है। उसने राज्य सभा में ऐसा हास्यकारी वचन कहा जिससे ६३३०.आलोएंतो वच्चति, थूभादीणि व कहेति वा धम्म। सभी हंसने लगे। एक सेठ बहुत जोर से हंसा। उसका परियट्टणाऽणुपेहण, न यावि पंथम्मि उवउत्तो॥ मुंह वैसा का वैसा खुला रह गया। वह संपुट नहीं स्तूप आदि को देखते हुए, धर्मकथा करते हुए, हुआ। स्थानीय वैद्यों ने उपचार किया, पर व्यर्थ। एक ___ परिवर्तना तथा अनुप्रेक्षा करते हुए मार्ग में चलता है प्राघूर्णक चिकित्सक आया। उसने लोहमय फाल को तप्त अथवा मार्ग में अनुपयुक्त होकर गमन करता है, उसे चक्षु का कर उस सेठ के मुंह में डाला। उसके भय से सेठ का मुंह लोलुप कहते हैं। संपुट हो गया। ६३३१.छक्कायाण विराहण, संजमे आयाए कंटगादीया। ६३२६.गोयर साहू हसणं, गवक्खे दटुं निवं भणति देवी। आवडणे भाणभेदो, खद्धे उड्डाह परिहाणी।। हसति मयगो कहं सो, त्ति एस एमेव सुत्तो वी॥ वह संयम में छहकाय की विराधना करता है। कांटा गाथा ६३२० में उल्लिखित दोनों दृष्टान्त आदि लगने से आत्मविराधना होती है। कहीं गिर जाने पर (क) राजा-रानी गवाक्ष में बैठे थे। रानी ने देखा कि एक पात्र टूट जाते हैं। प्रचुर भक्त-पान भूमी पर गिर जाने से साधु गोचरचर्या में घूमता हुआ हंस रहा है। रानी ने राजा उड्डाह होता है। भाजन आदि की गवेषणा में या उनके परिकर्म से कहा-मृत मनुष्य हंस रहा है। राजा ने पूछा-कहां है से सूत्रार्थ की परिहानि होती है। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् ६३३२.तितिणिए पुव्व भणिते, इच्छालोभे य उवहिमतिरेगे। ६३३८.तुरियगिलाणाहरणे, मुहरित्तं कुज्ज वा दुपक्खे वी। लहुओ तिविहं व तहिं, अतिरेगे जे भणिय दोसा। ओसह विज्जं मंतं, पेल्लिज्जा सिग्घगामि त्ति। तितिणिक के विषय में पूर्व अर्थात् पीठिका में कहा जा ग्लान के लिए शीघ्र औषध लाने के लिए चुका है। इच्छालोभ का अर्थ है-लोभवश उपधि को द्विपक्ष-संयतपक्ष और संयतीपक्ष में मौखर्य कर सकता अतिरिक्त ग्रहण करना। उसको लघुमास का प्रायश्चित्त है। है। यह मुनि शीघ्रगामी है-औषधि लाने के लिए, विद्या अथवा उसमें तीन प्रकार का प्रायश्चित्त है-जघन्य- तथा मंत्र का प्रयोग करने के लिए, अतः इसे प्रेरित करें, पंचक, मध्यम-मासलघु और उत्कृष्ट-चतुर्लघु। अतिरिक्त व्याप्त करें। उपधि के विषय में तीसरे उद्देशक में जो दोष कहे हैं, वे ६३३९.अच्चाउरकज्जे वा, तुरियं व न वा वि इरियमुवओगो। होते हैं। विज्जस्स वा वि कहणं, भए व विस सूल ओमज्जे॥ ६३३३.अनियाणं निव्वाणं, काऊणमुवट्टितो भवे लाओ। आगाढ़ ग्लान के प्रयोजन से यह त्वरित जाता है, ईर्या पावति धुवमायातिं, तम्हा अणियाणया सेया॥ में उपयोग नहीं देता, वैद्य को धर्मकथा कहता हुआ जाता निर्वाण अनिदान साध्य है। जो निदान करके पुनः न करने है, भय में मंत्रजाप करता हुआ, विषभक्षण का मंत्र से के लिए उपस्थित होता है उसको लघुमास का प्रायश्चित्त उपचार करता हुआ, नई सीखी हुई विषविद्या का परावर्तन आता है। जो निदान करता है वह निश्चित ही पुनः भव करता हुआ, किसी साधु के शूल का अपमार्जन करता हुआ करता है। इसलिए अनिदानता, श्रेयस्करी है। जाता है। ६३३४.इह-परलोगनिमित्तं, अवि तित्थकरत्तचरिमदेहत्तं। ६३४०.तितिणिया वि तदट्ठा, अलब्भमाणे वि दव्वतितिणिता। सव्वत्थेसु भगवता, अणिदाणत्तं पसत्थं तु॥ वेज्जे गिलाणगादिसु, आहारुवधी य अतिरित्तो॥ इहलोक के निमित्त, परलोक के निमित्त, तीर्थंकरत्व या ग्लान और आचार्य के प्रयोजन से तिन्तिणिकता भी की चरमदेहत्व के लिए भी निदान करना वर्ण्य है। समस्त विषयों जाती है। ग्लानप्रायोग्य औषधादि न मिलने पर के प्रति अनिदानता को भगवान् ने प्रशस्त माना है। द्रव्यतिन्तिणिकता (हाय! यहां ग्लान प्रायोग्य कुछ नहीं ६३३५.बिइयपदं गेलण्णे, अद्धाणे चेव तह य ओमम्मि। मिलता) करनी चाहिए। इच्छालोभ में यह अपवादपद है मोत्तूणं चरिमपदं, णायव्वं जं जहिं कमति॥ ___ वैद्य को दान देने के लिए या ग्लान के लिए आहार और छहों प्रकार के परिमंथुओं में द्वितीयपद यह है-ग्लानत्व, उपधि अधिक भी ग्रहण किया जा सकता है। अध्वा तथा अवम-दुर्भिक्ष। चरमपद-निदान-करणरूप में ६३४१.अवयक्खंतो व भया, कोई अपवाद नहीं होता। कौत्कचिका आदि में जो अपवाद कहेति वा सत्थिया-ऽऽतिअत्तीणं। जहां अवतरित होता है, वहां उसको जानना चाहिए। विज्जं आइसुतं वा, ६३३६.कडिवेयणमवतंसे, गुदपागऽरिसा भगंदलं वा वि। खेद भदा वा अणाभोगा॥ गुदखील सक्करा वा, ण तरति बद्धासणो होउं॥ मार्ग में ईर्या का शोधन न कर भय से इधर-उधर देखता किसी के कटिवेदना होती है, किसी के अवतंस-पुरुष- हुआ भी गमन कर सकता है। मार्ग में सार्थिकों को तथा व्याधि नामक रोग, गुदा में अर्श, भगंदर होता है, किसी के सार्थचिन्तकों को धर्मकथा कह सकता है। विद्या का परावर्तन गुदाकीलक होता है। कोई शर्करा से पीड़ित होता है-ये करता हुआ, आदिश्रुत-पंचमंगल का स्मरण करता हुआ चल बद्धासन होकर एक स्थान पर नहीं बैठ सकते। ऐसी स्थिति सकता है। खेद या भय से ईर्या में विस्मृतिवश या सहसा में वह कौत्कुचिक भी होता है। अनुपयुक्त होकर भी चल सकता है। ६३३७.उव्वत्तेति गिलाणं, ओसहकज्जे व पत्थरे छुभति। ६३४२.संजोयणा पलंबातिगाण कप्पादिगो य अतिरेगो। वेवति य खित्तचित्तो, बितियपदं होति दोसुं तु॥ ओमादिए वि विहुरे, जोइज्जा जं जहिं कमति॥ जो ग्लान को उद्वर्तन आदि कराता है, औषधकार्य से मार्ग में आहार आदि की संयोजना भी करता है। प्रलंब उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर संक्रमण करता है, जो आदि के लिए पिप्पलक आदि अतिरिक्त उपधि भी रखी जा क्षिसचित्त होता है, वह पत्थर फेंकता है, कांपता है-ये। सकती है। और्णिक कल्प आदि तथा पात्रादिक भी क्रमशः शरीर कौत्कुचिक और भाषा कौत्कचिक के अपवाद अतिरिक्त रखा जा सकता है। यह सारा अध्वा में पद हैं। अपवादपद है। अवम आदि में विधुर-आत्यंतिक आपदा में Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६७ कप्पद्विति-पदं छव्विहा कप्पट्टिती पण्णत्ता, तं जहासामाइय-संजयकप्पट्टिती, छेदोवठ्ठावणियसंजयकप्पद्विती, निव्विसमाणकप्पद्विती, निविट्ठकाइयकप्पद्विती, जिणकप्पट्टिती, थेरकप्पट्टिति॥ -त्ति बेमि॥ (सूत्र २०) छठा उद्देशक पांच प्रकार के परिमंथु के जो द्वितीयपद प्राप्त होते हैं उनकी यथायोग्य योजना करनी चाहिए। ६३४३.जा सालंबणसेवा, तं बीयपदं वयंति गीयत्था। आलंबणरहियं पुण, निसेवणं दप्पियं बेति॥ निदान में द्वितीयपद क्यों नहीं? जो सालंबन प्रतिसेवना (ज्ञान आदि आलंबनयुक्त) है, गीतार्थ मुनि उसको द्वितीयपद कहते हैं। आलंबनरहित प्रतिसेवना को दर्पिका कहते हैं। निदानकरण में वह कोई आलंबन नहीं होता। ६३४४.एवं सुनीहरो मे, होहिति अप्प त्ति तं परिहरंति। ___ हंदि! हु णेच्छंति भवं, भववोच्छित्तिं विमग्गंता॥ कोई व्यक्ति यह अवधारणा करता है कि मैं यदि दरिद्रकुल में उत्पन्न होऊंगा तो मेरा उससे सुनिर्हार-निर्गम सहज हो जाएगा, मैं सुगमता से संयम ले सकूँगा ऐसे निदान का भी साधु परिहार करते हैं क्योंकि निदान करने से भवों की वृद्धि होती है। साधु भवव्यवच्छित्ति की मार्गणा करते हैं, वे भव की इच्छा नहीं करते। ६३४५.जो रयणमणग्घेयं, विकिज्जऽप्पेण तत्थ किं साहू। दुग्गयभवमिच्छंते, एसो च्चिय होति दिटुंतो।। जो बहुमूल्य रत्न को अल्पमूल्य में बेच देता है क्या वह अच्छा है? दरिद्र के भव की वांछा करने वालों के लिए यही दृष्टान्त उपयुक्त होता है। ६३४६.संगं अणिच्छमाणो, इह-परलोए य मुच्चति अवस्सं। एसेव तस्स संगो, आसंसति तुच्छतं जं तु॥ ___ जो इहलोक और परलोक के संग की इच्छा नहीं करता वह अवश्य ही मुक्त होता है। यही उसका संग है कि वह महान् फलदाता तपस्या के द्वारा तुच्छ फल की आशा करता है। ६३४७.बंधो त्ति णियाणं ति य, आससजोगो य होंति एगट्ठा। ते पुण ण बोहिहेऊ, बंधावचया भवे बोही॥ बंध, निदान और आशंसायोग-ये एकार्थक हैं। ये बोधि के हेतु नहीं है। बोधि प्राप्त होती है बंध के अपचय से अर्थात् कर्मबंध की निर्जरा से। ६३४८.नेच्छंति भवं समणा, सो पुण तेसिं भवो इमेहिं तु। पुव्वतव-संजमेहिं, कम्मं तं चावि संगणं॥ श्रमण भव-जन्म-मरण की वांछा नहीं करते। उनका भव (देव भव) सरागसंयम से होता है। इस प्रकार पूर्वसंयम, तप से कर्मबंध होता है। कर्मबंध का कारण है-संग (संज्वलन क्रोध आदि) ६३४९.पलिमंथविप्पमुक्कस्स होति कप्पो अवट्टितो णियमा। कप्पे य अवट्ठाणं, वदंति कप्पद्वितिं थेरा॥ कल्पस्थिति-परिमंथ विप्रमुक्त मुनि के नियमतः अवस्थितकल्प होता है। जो कल्प में अवस्थान है, उसी को स्थविर मुनि कल्पस्थिति कहते हैं। ६३५०.आहारो त्ति य ठाणं, जो चिट्ठति सो ठिइ त्ति ते बुद्धी। ववहार पडुच्चेवं, ठिइरेव तु णिच्छए ठाणं ।। कल्प का अर्थ है-आधार अर्थात् स्थान। जो कल्प में स्थित होता है वह स्थिति है। तुम ऐसा सोच सकते हो कि स्थिति और स्थान-दोनों का परस्पर अन्यत्व हो गया। व्यवहारनय की अपेक्षा से स्थान और स्थिति का अन्यत्व है और निश्चयनय की अपेक्षा स्थिति ही स्थान है। ६३५१.ठाणस्स होति गमणं, पडिवक्खो तह गती ठिईए तु। एतावता सकिरिए, भवेज्ज ठाणं व गमणं वा।। सक्रिय जीव की इतनी ही क्रिया है-स्थान और गमन। स्थान का गमन प्रतिपक्ष है और स्थिति का गति प्रतिपक्ष है। ६३५२.ठाणस्स होति गमणं, पडिपक्खो तह गती ठिईए उ। ण य गमणं तु गतिमतो, होति पुढो एवमितरं पि॥ स्थान का गमन प्रतिपक्ष होता है स्थिति नहीं तथा स्थिति का गति प्रतिपक्ष होता है स्थान नहीं। इस प्रकार स्थिति और स्थान का एकत्व है। गमन गतिमान् से पृथग नहीं होता और स्थान भी स्थितिमान् से पृथग नहीं होता। ६३५३.जय गमणं तु गतिमतो, होज्ज पुढो तेण सो ण गच्छेज्जा। जह गमणातो अण्णा, ण गच्छति वसुंधरा कसिणा॥ यदि गमन गतिमान् से पृथक् हो तब गतिमान् उससे (गमन से) नहीं जा सकता। जैसे-सारी पृथ्वी गमन Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ = =बृहत्कल्पभाष्यम् से अन्य (पृथक्) है, इसलिए वह नहीं जाती गमन ६३६०.चउहिं ठिता छहिं अठिता, नहीं करती। पढमा बितिया ठिता दसविहम्मि। ६३५४.ठाण-द्विइणाणतं, गति-गमणाणं च अत्थतो णत्थि। वहमाणा णिव्विसगा, वंजणणाणत्तं पुण, जहेव वयणस्स वायातो॥ जेहि वह ते उ णिव्विट्ठा। स्थान और स्थिति तथा गति और गमन में अर्थ की पहली कल्पस्थिति चार स्थानों में स्थित और छह स्थानों अपेक्षा से नानात्व नहीं है। व्यंजन का नानात्व है। जैसे में अस्थित है। दूसरी कल्पस्थिति दस स्थानों में स्थित होती वचन और वाणी का परस्पर अर्थ से कोई भेद नहीं है, है। निर्विशमान का अर्थ है-परिहारविशुद्धिक तप वहन करने शब्दतः भेद है। वाला, निर्विष्टकल्प का अर्थ है-जिस साधक ने पारिहारिक६३५५.अहवा ज एस कप्पो, पलंबमादि बहुधा समक्खातो। तप वहन कर लिया है। छट्ठाणा तस्स ठिई, ठिति त्ति मेर त्ति एगट्ठा॥ ६३६१.सिज्जायरपिंडे या, चाउज्जामे य पुरिसजेटे य। अथवा जो यह प्रलंब आदि अनेक प्रकार का कल्प कहा कितिकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा॥ गया है, उसकी छह प्रकार की स्थिति होती है। स्थिति और ये चार अवस्थित कल्प हैं-शय्यातरपिंड, चतुर्याम धर्म, मर्यादा एकार्थक माने गए हैं। पुरुषज्येष्ठधर्म, कृतिकर्मकरण। ६३५६.पतिट्ठा ठावणा ठाणं, ववत्था संठिती ठिती। ६३६२.आचेलक्कद्देसिय, सपडिक्कमणे य रायपिंडे य। __अवट्ठाणं अवत्था य, एकट्ठा चिट्ठणाऽऽति य॥ मासं पज्जोसवणा, छऽप्पेतऽणवट्ठिता कप्पा॥ प्रतिष्ठा, स्थापना, स्थान, व्यवस्था, संस्थिति, ये छह अनवस्थित कल्प हैं-आचेलक्य, औद्देशिक, स्थिति, अवस्थान, अवस्था ये सारे एकार्थक पद हैं। सप्रतिक्रमणधर्म, राजपिंड, मासकल्प, पर्युषणाकल्प। खड़े होना, बैठना तथा सोना-ये तीनों स्थिति के ही ६३६३.दसठाणठितो कप्पो, विशेषरूप हैं। पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। ६३५७.सामाइए य छेदे, निव्विसमाणे तहेव निविट्ठे। एसो धुतरत कप्पो, जिणकप्पे थेरेसु य, छव्विह कप्पद्विती होति। दसठाणपतिहितो होति॥ कल्पस्थिति के छह प्रकार हैं पूर्व-पश्चिम अर्थात् प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन १. सामायिकसंयत कल्पस्थिति। में छेदोपस्थापनीय साधुओं के दसस्थानस्थितकल्प था। यह २. छेदोपस्थापनीयसंयत कल्पस्थिति। धुतरजाकल्प दसस्थान में प्रतिष्ठित होता है। ३. निर्विशमान कल्पस्थिति। ६३६४.आचेलक्कुइसिय, सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे। ४. निर्विष्टकाय कल्पस्थिति। वत जेट्ठ पडिक्कमणे, मासं-पज्जोसवणकप्पे॥ ५. जिनकल्प कल्पस्थिति। दस स्थान ये हैं६. स्थविर कल्पस्थिति। १. आचेलक्य ६. व्रत ६३५८.कतिठाण ठितो कप्पो, कतिठाणेहिं अद्वितो। २. औद्देशिक ७. पुरुषज्येष्ठ धर्म वुत्तो धूतरजो कप्पो, कतिठाणपतिट्टितो॥ ३. शय्यातरपिंड ८. प्रतिक्रमण सामायिक साधुओं का कल्प-आचार जो पाप का ४. राजपिंड ९. मासकल्प अपनयन करने वाला है, वह कितने स्थानों में स्थित, कितने ५. कृतिकर्म १०. पर्युषणाकल्प। स्थानों में अस्थित और कितने स्थानों में प्रतिष्ठित कहा ६३६५.दुविहो होति अचेलो, संताचेलो असंतचेलो य। गया है? तित्थगर असंतचेला, संताचेला भवे सेसा॥ ६३५९.चउठाणठिओ कप्पो, छहिं ठाणेहिं अट्ठिओ। अचेल दो प्रकार का होता है-सदचेल और असदचेल। ___ एसो धूयरय कप्पो, दसट्ठाणपतिट्ठिओ॥ तीर्थंकर असदचेल होते हैं। शेष सभी साधु सदचेल होते हैं। कल्प चार स्थानों में स्थित और छह स्थानों में अस्थित (जघन्यतः रजोहरण, मुखवस्त्रिका रखते हैं।) है। इस प्रकार यह धुतरज वाला सामायिकसंयतकल्प दस ६३६६.सीसावेढियपुत्तं, णदिउत्तरणम्मि नग्गयं बेंति। स्थान में प्रतिष्ठित है-कुछ स्थानों में स्थित और कुछ स्थानों जुण्णेहि णग्गिया मी, तुर सालिय! देहि मे पोत्तिं ।। में अस्थित। नदी में उतरते समय सिर पर वस्त्र बांधा जाता है। उस Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ६६९ गल छठा उद्देशक व्यक्ति को देखकर लोग वस्त्र होने पर भी, उसको नग्नक कहते हैं। परिजीर्ण वस्त्र को धारण किए हुए एक स्त्री ने जुलाहे से कहा है-'हे तन्तुवाय! मैं नग्निका हूं। शीघ्रता कर। मुझे शाटिका दे। ६३६७.जुन्नेहिं खंडिएहि य, असव्वतणुपाउतेहिं ण य णिच्चं। संतेहिं वि णिग्गंथा, अचेलगा होति चेलेहि।। जीर्ण, खंडित, शरीर को पूर्ण रूप से प्रावृत न कर सकने वाले वस्त्रों तथा जो सदा शरीर को प्रावृत न करने वाले किन्तु यदा-कदा विशेष ऋतु में प्रावृत करने वाले वस्त्रों के होते हुए भी निर्ग्रन्थ अचेलक होते हैं। ६३६८.एवं दुग्गत-पहिता, अचेलगा होति ते भवे बुद्धी। ते खलु असंततीए, धरति ण तु धम्मबुद्धीए। __तो तुम यह सोचते हो कि इस प्रकार के जो दुर्गतपथिक होते हैं वे अचेलक होते हैं। देखो, वे दुर्गतपथिक वस्त्रों की असंप्राप्ति के कारण वैसे जीर्ण वस्त्र धारण करते हैं, धर्मबुद्धि से नहीं, अतः वे अचेलक नहीं कहे जा सकते। ६३६९.आचेलक्को धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं, होति अचेलो सचेलो वा॥ प्रथम और अंतिम जिनेश्वर के तीर्थ में आचेलक्य धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में अचेल और सचेल-दोनों प्रकार के धर्म होते हैं। ६३७०.पडिमाए पाउता वा, णऽतिक्कमंते उ मज्झिमा समणा। पुरिम-चरिमाण अमहद्धणा तु भिण्णा इमे मोत्तुं॥ मध्यम तीर्थंकरों के श्रमण प्रतिमा अर्थात् नग्न या प्रावृत-सवस्त्र रहकर भी भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। प्रथम और चरम तीर्थंकर के श्रमण स्वल्पमूल्यवाले और भिन्नवस्त्रों (अकृत्स्न वस्त्रों) को धारण करते हैं। निम्नोक्त कारणों को छोड़कर अर्थात् इन कारणों का अपवाद है। ६३७१.आसज्ज खेत्तकप्पं, वासावासे अभाविते असह। काले अाणम्मि य, सागरि तेणे व पाउरणं॥ क्षेत्रकल्प अर्थात् देशविशेष के आचार के अनुसार अभिन्नवस्त्र धारण करना। वर्षावास में, अभावित अवस्था में, असहिष्णु अवस्था में, प्रत्यूष काल में, मार्ग में, सागारिकप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहते हुए, स्तेन की आशंका से उत्कृष्ट उपधि कंधों पर रखकर पूरे शरीर को प्रावृत कर मार्ग में जा सकते हैं। ६३७२.निरुवहय लिंगभेदे, गुरुगा कप्पति तु कारणज्जाए। गेलण्ण लोय रोगे, सरीरवेतावडितमादी॥ निरुपहत अर्थात् नीरोग व्यक्ति द्वारा लिंगभेद करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। अथवा निरुपहत का अर्थ है-यथाजातलिंग। उसका भेद करने पर चतुर्गुरू। द्वितीयपद है कारण में लिंगभेद भी करना कल्पता है। कारण ये हैं-ग्लानत्व, लोच, रोगी, शरीरवैयावृत्य-मृतसंयतशरीर का नीहरण करना। ६३७३.खंधे दुवार संजति, गरुलऽद्धंसे य पट्ट लिंगदुवे। लहुगो लहुगो लहुगा, तिसु चउगुरु दोसु मूलं तु॥ लिंगभेद के ये भेद हैं कंधे पर कल्प रखने पर मासलघु, शीर्षद्वारिका करने पर मासलघु, संयती प्रावरण करने पर चतुर्लघु, गरुड़पाक्षिक की भांति प्रावरण करने पर, अर्धांस करने पर, कटीपट्टक बांधने पर-इन तीनों में चतुर्गुरु, गृहस्थलिंग या परलिंग करने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ६३७४.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे व वादिदुढे वा। आगाढ अन्नलिंगं, कालक्खेवो व गमणं वा॥ अशिव में, अवमौदर्य में, राजद्विष्ट होने पर, वादिद्विष्ट होने पर, आगाढ़ कारण होने पर-इन कारणों से अन्यलिंग कर कालक्षेप या गमन कर देना चाहिए। ६३७५.आहा अधे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य। तं पुण आहाकम्म, कप्पति ण व कप्पती कस्स। नं आधाकर्म, अधःकर्म, आत्मघ्नं, आत्मकर्म-ये आधाकर्म के एकार्थक हैं। यह आधाकर्म किसको ग्रहण करना कल्पता है और किसको नहीं कल्पता? ६३७६.संघस्सोह विभाए, समणा-समणीण कुल गणे संघे। कडमिह ठिते ण कप्पति, अट्ठित कप्पे जमुहिस्स। इसकी विस्तृत व्याख्या तीसरे उद्देशक में की जा चुकी है। यहां संक्षेप में कहा जा रहा है-ओघतः या विभागतः श्रमण-श्रमणी के कुल का, गण का, संघ का संकल्प कर जो भक्तपान किया जाता है, वह स्थितकल्प साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता। जो अस्थित-कल्प में स्थित हैं उनमें से जिसके उद्देश्य से कृत होता है, उस एक को नहीं कल्पता, दूसरों को कल्पता है। ६३७७.आयरिए अभिसेए, भिक्खुम्मि गिलाणगम्मि भयणा उ। तिक्खुत्तऽडविपवेसे, चउपरियट्टे ततो गहणं॥ आचार्य, अभिषेक, भिक्षु के ग्लान हो जाने पर आधाकर्म Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० = बृहत्कल्पभाष्यम् सेवन की भजना है। अटवी में प्रवेश करने पर यदि तीन बार राजा के चार भंग होते हैंअन्वेषणा करने पर भी शुद्ध न मिले तो चौथे परिवर्त में १. मुदित और मूर्धाभिषिक्त। आधाकर्म का ग्रहण किया जा सकता है। २. मुदित और मूर्धामिषिक्त नहीं। ६३७८.तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अण्णात उग्गमो ण सुज्झे। ३. मुदित नहीं किन्तु मूर्धाभिषिक्त। अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा विउच्छेदो॥ ४. न मुदित न मूर्धाभिषिक्त। प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर, मध्यम और प्रथम भंग में राजपिंड वर्ण्य है फिर चाहे उसके विदेहज तीर्थंकरों ने आधाकर्म ग्रहण की आज्ञा दी है, परंतु ग्रहण में दोष हों या न हों। शेष तीन भंगों में वह राजपिंड शय्यातरपिंड का प्रतिषेध किया है। अतः शय्यातरपिंड नहीं होता। जिनमें दोष हों उन भंगों का वर्जन करना तीर्थंकरों द्वारा प्रतिक्रुष्ट है। जो उसे लेता है, वह आज्ञाभंग चाहिए। करता है, अज्ञातोञ्छ का सेवन करता है, उसके उद्गमदोषों ६३८४.असणाईआ चउरो, वत्थे पादे य कंबले चेव। की शुद्धि नहीं होती, अविमुक्ति-गृद्धि का अभाव नहीं होता, पाउंछणए य तहा, अट्ठविधो रायपिंडो उ॥ लाघवता नहीं होती, शय्या वसति दुर्लभ हो जाती है अथवा राजपिंड आठ प्रकार का होता है-अशन, पान, खादिम, सर्वथा उसका विच्छेद हो जाता है। स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल और पादपोंछन (रजोहरण)। ६३७९.दुविहे गेलण्णम्मि, निमंतणे दवदुल्लभे असिवे। ६३८५.अट्ठविह रायपिंडे, अण्णतरागं तु जो पडिग्गाहे। ओमोदरिय पओसे, भए य गहणं अणुण्णातं॥ सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त विराहणं पावे॥ दोनों प्रकार के ग्लानत्व-आगाढ़ और अनागाढ़ में आठ प्रकार के राजपिंड में से कोई मुनि किसी भी प्रकार शय्यातरपिंड लिया जा सकता है। शय्यातर द्वारा निमंत्रण का राजपिंड ग्रहण करता है तो वह आज्ञाभंग, अनवस्था, देने पर, आग्रह करने पर, द्रव्य की दुर्लभता होने पर, अशिव मिथ्यात्व तथा विराधना को प्राप्त होता है। में, अवमौदर्य में, राजप्रद्वेष में, तस्करादि के भय में- ६३८६.ईसर-तलवर-माडंबिएहि सिट्ठीहिं सत्थवाहेहिं। शय्यातरपिंड अनुज्ञात है। जिंतेहिं अतितेहि य, वाघातो होति भिक्खुस्स। ६३८०.तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं जोयणम्मि कडजोगी। ईश्वर, तलवर, माडंबिक, श्रेष्ठी, सार्थवाह-इनके दव्वस्स य दुल्लभता, सागारिणिसेवणा ताहे॥ निर्गमन तथा प्रवेश करते समय भिक्षा के लिए गए हए भिक्षु अपने क्षेत्र में चारों दिशाओं में कोशसहित योजन तक के व्याघात होता है। तीन बार गवेषणा करने पर भी यदि दुर्लभद्रव्य की प्राप्ति नहीं ६३८७.ईसर भोइयमाई, तलवरपट्टेण तलवरो होति। होती है तो कृतयोगी मुनि सागारिकपिंड की निषेवना करे। वेट्टणबद्धो सेट्ठी, पच्चंतऽहिवो उ माडंबी॥ ६३८१.केरिसगु त्ति व राया, भेदा पिंडस्स के व से दोसा। भोजिक-ग्रामस्वामी आदि ईश्वर कहलाता है। नृप द्वारा केरिसगम्मि व कज्जे, कप्पति काए व जयणाए॥ प्रदत्त सुवर्णतलवरपट्ट से अंकित शिरवाला तलवर होता है। किस राजा के राजपिंड का परिहार किया जाए ? राजपिंड वेष्टनक (श्रीदेवताध्यासित पट्ट) बद्ध श्रेष्ठी कहलाता है। के भेद कौन से हैं? उसके ग्रहण में दोष क्या है? किस कार्य प्रत्यन्ताधिप माडंबिक होता है। में राजपिंड लेना कल्पता है? उसके ग्रहण में यतना कैसी ६३८८.जा णिति इंति ता अच्छओ अहो? इन द्वारों की मीमांसा करनी चाहिए। सुत्तादि-भिक्खहाणी य। ६३८२.मुइए मुद्धभिसित्ते, मुतितो जो होइ जोणिसुद्धो उ। इरिया अमंगलं ति य, __अभिसित्तो व परेहिं, सतं व भरहो जहा राया। पेल्लाऽऽहणणा इयरहा वा॥ राजा के दो प्रकार हैं-मुदित, मूर्धाभिषिक्त। जो जब ईश्वर आदि निर्गमन या प्रवेश करते हैं तब तक योनिशुद्ध (जिसके माता-पिता राजवंशीय राजा है) वह भिक्षा के लिए गया हुआ भिक्षु प्रतीक्षा करता रहता है। तब मुदित राजा है। दूसरों से राजा के रूप में अभिषिक्त है वह । तक उसके सूत्रार्थ और भिक्षा की हानि होती है। अश्व, हाथी मूर्धाभिषिक्त राजा है। अथवा जो भरत नृप की भांति स्वयं आदि के संघट्टन के भय से ईर्या का शोधन नहीं होता। साधु ही अभिषिक्त होता है। को देखकर कोई अमंगल मान सकता है, इससे प्रेरित होकर ६३८३. पढमग भंगे वज्जो, होतु व मा वा वि जे तहिं दोसा। अश्व-हाथी आदि का आहनन कर सकता है अथवा जनसंमई सेसेसु होतऽपिंडो, जहिं दोसा ते विवज्जति॥ से साधु के संघट्टन हो सकता है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ६३८९.लोभे एसणघाते, संका तेणे नपुंस इत्थी य। इच्छंतमणिच्छंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा॥ राजभवन में प्रविष्ट मुनि लोभवश एषणाघात करता है। राजपुरुषों को यह शंका होती है कि यह कोई स्तेन है। वहां नपुंसक या स्त्रियां उस साधु को उपसर्गित कर सकते हैं। चाहते हुए या न चाहते हुए भी संयमविराधना आदि दोष होते हैं। वहां जाने पर चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त प्रास होता है। ६३९०.अन्नत्थ एरिसं दुल्लभं ति गेण्हेज्जणेसणिज्जं पि। अण्णेणावि अवहिते, संकिज्जति एस तेणो ति॥ 'अन्यत्र ऐसा उत्कृष्ट द्रव्य मिलना दुर्लभ है'यह सोचकर राजभवन में गया हुआ मुनि अनेषणीय भी ग्रहण कर लेता है। राजभवन में यत्र-तत्र स्वर्ण आदि बिखरा पड़ा रहता है। कोई दूसरा व्यक्ति उसमें से अपहृत कर लेता है, चुरा लेता है परन्तु 'वह साधु चोर है' ऐसी आशंका होती है। साधु पर चोरी का आरोप आ जाता है। ६३९१.संका चारिग चोरे, मूलं निस्संकियम्मि अणवट्ठो। परदारि अभिमरे वा, णवमं णिस्संकिए दसमं॥ यह मुनि चारिक है, चोर है, ऐसी शंका होने पर मूल प्रायश्चित्त आता है, निःशंकित अवस्था में अनवस्थाप्य, पारदारिक की शंका होने पर तथा अभिमर की शंका होने पर नौवां प्रायश्चित्त और निःशंकित होने पर दसवां-पारांचिक प्रायश्चित्त है। ६३९२.अलभंता पवियारं, इत्थि-नपुंसा बला वि गेण्हेज्जा। आयरिय कुल गणे वा, संघे व करेज्ज पत्थारं॥ राजभवन से स्त्री-नपुंसकों का बाहर जाना कठिन होता है। ऐसी स्थिति में बलपूर्वक वे साधु को ग्रहण कर लेते हैं। प्रतिसेवना करने पर चारित्र विराधना और न करने से उड्डाह तथा प्रान्तापना दोष होते हैं। इससे राजा रुष्ट होकर प्रस्तार-आचार्य, कुल, गण और संघ का विनाश कर देता है। ६३९३.अण्णे वि होति दोसा, आइण्णे गुम्म रतणमादीया। तण्णिस्साए पवेसो, तिरिक्ख मणुया भवे दुट्ठा॥ वहां जाने पर अन्य अनेक प्रकार के दोष होते हैं। वह स्थान रत्नों से आकीर्ण होता है। वहां गौल्मिक-स्थानपाल रहते हैं। वे साधु को वहां आया देखकर उसे ग्रहण कर परितापना दे सकते हैं। साधु के निश्रा में चोर भी प्रवेश कर लेते हैं। राजभवन में पशु, मनुष्य आदि दुष्ट हो सकते हैं और वे साधु को उपद्रुत करते हैं। ६३९४.आइण्णे रतणादी, गेण्हेज्ज सयं परो व तन्निस्सा। गोम्मिय गहणाऽऽहणणं, रण्णो व णिवेदिए जंतु॥ रत्न आदि से आकीर्ण उस भवन में रत्नों को साधु स्वयं अथवा उसकी निश्रा में जाने वाला कोई दूसरा आदमी ले लेता है। गौल्मिक उसे ग्रहण और आहनन करता है। राजा को निवेदन करने पर जो प्रान्तापनादि करता है, उसका प्रायश्चित्त आता है। ६३९५.चारिय चोराऽभिमरा, कामी व विसंति तत्थ तण्णीसा। वाणर-तरच्छ-वग्या, मिच्छादि णराव घातेज्जा। चारिक, चोर, अभिमर और कामी-ये सारे साधु की निश्रा से वहां प्रवेश कर सकते हैं। वानर, तरक्ष, बाघ, म्लेच्छ आदि साधु पर घात कर सकते हैं। ६३९६.दुविहे गेलण्णम्मी, णिमंतणे दवदुल्लभे असिवे। ओमोयरिय पदोसे, भए य गहणं अणुण्णायं॥ ६३९७.तिक्खुत्तो सक्खित्ते, चउद्दिसिं जोयणम्मि कडजोगी। दव्वस्स य दुल्लभया, जयणाए कप्पई ताहे।। दोनों प्रकार के ग्लानत्व-आगाढ़ और अनागाढ़ में राजपिंड लिया जा सकता है। आगाढ़ कारण में तत्काल और अनागाढ़ कारण में तीन बार मार्गणा करने पर भी यदि उसके प्रायोग्य आहार न मिले तो प्रायश्चित्तपूर्वक उसे लिया जा सकता है। राजा द्वारा आग्रहपूर्वक निमंत्रण देने पर, द्रव्य की दुर्लभता होने पर, अशिव और अवमौदर्य में, राजा के प्रद्विष्ट होने पर, तस्कर आदि का भय होने पर-इन स्थितियों में राजपिंड के ग्रहण की अनुज्ञा है। अपने क्षेत्र में चारों दिशाओं में कोशसहित योजन तक तीन बार गवेषणा करने पर भी यदि दुर्लभद्रव्य की प्राप्ति नहीं होती है तो कृतयोगी मुनि को यतनापूर्वक राजपिंड लेना कल्पता है। ६३९८.कितिकम्मं पि य दुविहं, अब्भुट्ठाणं तहेव वंदणगं। समणेहि य समणीहि य, जहारिहं होति कायव्वं॥ कृतिकर्म के दो प्रकार हैं-अभ्युत्थान और वंदनक। श्रमण और श्रमणियों को यथार्ह परस्पर दोनों करने चाहिए। ६३९९.सव्वाहिं संजतीहिं, कितिकम्मं संजताण कायव्वं । पुरिसुत्तरितो धम्मो, सव्वजिणाणं पि तित्थम्मि। सभी श्रमणियों को श्रमणों का कृतिकर्म करना चाहिए। क्योंकि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पुरुषोत्तर धर्म होता है। ६४००.तुच्छत्तणेण गव्वो, जायति ण य संकते परिभवेणं। अण्णो वि होज्ज दोसो, थियासु माहुज्जहज्जासु॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ बृहत्कल्पभाष्यम् साधु द्वारा वन्दित होने पर साध्वी तुच्छत्व के कारण होता है। वे नाना प्रकार के दुःखों से भर्सित तथा शारीरिक | जाती है। वह साधु का परिभव करने में शंका नहीं और मानसिक दुर्बलता के कारण परीषहों को सहन करने में करती, नहीं डरती। माधुर्यहार्य स्त्रियों में अन्य दोष भी होता अक्षम होते हैं। इसी प्रकार चरमतीर्थंकर के मुनियों के उत्कट है। वे मार्दव से ग्राह्य हो जाती हैं। मान आदि का परिहार करने के लिए उन पर अनुशासन ६४०१.अवि य हु पुरिसपणीतो, करना बहुत कष्टप्रद होता है। धम्मो पुरिसो य रक्खिउं सत्तो।। ६४०७.एए चेव य ठाणा, सुप्पण्णुज्जुत्तणेण मज्झाणं। लोगविरुद्धं चेयं, सुह-दुह-उभयबलाण य, विमिस्सभावा भवे सुगमा।। तम्हा समणाण कायव्वं॥ ये ही आख्यान आदि स्थान मध्यम तीर्थंकरों के तथा जिनधर्म पुरुषों द्वारा प्रणीत है। पुरुष ही इसकी साधुओं के लिए सुगम हो जाते हैं। क्योंकि वे साधु सुप्रज्ञ रक्षा करने में समर्थ हैं। पुरुष द्वारा स्त्री को वंदना करना और ऋजु होते हैं। वे शारीरिक-मानसिक-दोनों शक्तियों से लोकविरुद्ध भी है। इसलिए श्रमणियों को चाहिए कि वे युक्त होते हैं, अतः सुख-दुःख को सहने में सक्षम होते हैं। श्रमणों को वंदना करें। वे न एकान्ततः दान्त होते हैं और न उत्कट कषायित होते ६४०२.पंचायामो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। हैं। इस विमिश्रीभाव के कारण उन पर अनुशासन करना ___ मज्झिमगाण जिणाणं, चाउज्जामो भवे धम्मो॥ सुगम होता है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के तीर्थ में पंचयाम धर्म ६४०८.पुव्वतरं सामइयं, जस्स कयं जो वतेसु वा ठविओ। अर्थात् पांच महाव्रतात्मक धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के एस कितिकम्मजेट्ठो, ण जाति-सुततो दुपक्खे वी॥ तीर्थ में चतुर्याम धर्म होता है। . जिस व्यक्ति पर सामायिक पहले आरोपित किया गया है ६४०३.पुरिमाण दुव्विसोज्झो, चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो। अथवा जिसको महाव्रतों में पहले स्थापित किया है, वह मज्झिमगाण जिणाणं, सुविसोज्झो सुरणुपालो य॥ कृतिकर्मज्येष्ठ माना जाता है। न जन्मपर्याय के आधार पर प्रथम तीर्थंकर के साधुओं का कल्प दुर्विशोध्य होता है या श्रुत के आधार पर ज्येष्ठ माना जाता है। दोनों पक्षोंऔर अंतिम तीर्थंकर के साधुओं का कल्प दुरनुपाल्य होता संयतपक्ष और संयतीपक्ष में यही व्यवस्था है। है। मध्यम तीर्थंकरों के साधुओं का कल्प सुविशोध्य और ६४०९.सा जेसि उवट्ठवणा, जेहि य ठाणेहिं पुरिम-चरिमाणं। सुखानुपाल्य होता है। ___ पंचायामे धम्मे, आदेसतिगं च मे सुणसु॥ ६४०४.जड्डत्तणेण हंदि, आइक्ख-विभाग-उवणता दुक्खं। वह उपस्थापना जिनके होती है वे वक्तव्य हैं। प्रथम सुहसमुदिय दंताण व, तितिक्ख अणुसासणा दुक्खं॥ और चरमतीर्थंकर के पंचयाम में स्थित साधुओं की जिन जड़ता के कारण प्रथम तीर्थंकर के मुनियों को वस्तुतत्त्व स्थानों में उपस्थापना होती है, उनमें स्थानों का उल्लेख का आख्यान करना, विभाग करना, उपनय अर्थात् हेतु भी करना चाहिए। जिनके उपस्थापना होती है, उनके दृष्टांतों से समझाना दुःशक्य होता है। वे साधु सुखों से विषय में तीन आदेश हैं-दस, छह और चार। वह समुदित होते हैं, अतः परीषहों को सहना उनके लिए दुष्कर आदेशत्रय मेरे से सुनो। होता है। वे स्वभावतः दान्त होते हैं, अतः उन पर अनुशासन ६४१०.तओ पारंचिया वुत्ता, अणवट्ठा य तिण्णि उ। करना कष्टप्रद होता है। दंसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले॥ ६४०५.मिच्छत्तभावियाणं, दुवियड्डमतीण वामसीलाणं। ६४११.अदुवा चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे। आइक्खिउं विभइउं, उवणेउं वा वि दुक्खं तु॥ सेहे दसमे वुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया। ६४०६.दुक्खेहि भत्थिताणं, पहला आदेशतणु-धितिअबलत्तओ य दुतितिक्खं। १-३. पारांचिक-दुष्ट, प्रमत्त, अन्योन्य करने वाले। एमेव दुरणुसासं, . ४-६. अनवस्थाप्य-साधर्मिक, अन्यधर्मिक, स्तैन्यकारी। माणुक्कडओ य चरिमाणं॥ ७. जिसने संपूर्ण दर्शन-सम्यक्त्व को वान्त कर दिया है। चरम तीर्थंकर के साधु मिथ्यात्वभावित, दुर्विदग्ध ८. जिसने संपूर्ण चारित्र को वान्त कर दिया है। मतिवाले, वामशीलवाले होते हैं। उनको वस्तुतत्त्व का ९. अथवा त्यक्तकृत्य-संयम को त्यक्त कर जीवकाय का आख्यान करना, विभाग करना, उपनय से समझाना दुःखप्रद समारंभ करने वाला। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक १०. शैक्ष इन दसों की उपस्थापना प्रथम तथा चरमतीर्थंकर ने कही है। ६४१२.जे य पारंचिया वुत्ता, अणवट्टप्पा य जे विदू । दंसणम्मिय वंतम्मिं चरित्तम्मि य केवले ॥ चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे । भणिया || ६४१३. अदुवा सेहे छट्टे बुत्ते, जस्स जस्स उवट्ठावणा १. जो सामान्यतः पारांचिक कहे गए हैं। २. जो विद्वान् अनवस्थाप्य हैं। ३. जिसने संपूर्ण दर्शन को वान्त कर दिया है। ४. जिसने संपूर्ण चारित्र को वान्त किया है। ५. अथवा जो त्यक्तकृत्य है-जीवकाय का समारंभ करता है। ६. शैक्ष। इन छहों की उपस्थापना दूसरे आदेश में कही है। ६४१४. दंसणम्मि य यंतम्मिं चरितम्मि य केवले । चियत्तकिच्चे सेहे य उवद्वप्पा य आहिया ॥ १. जिसने संपूर्ण दर्शन को वान्त कर दिया है। २. जिसने संपूर्ण चारित्र को वान्त कर दिया है। ३. त्यक्तकृत्य । ४. शैक्ष । ये चारों उपस्थापनायोग्य हैं, ऐसा कहा है। यह तीसरा आदेश है। ६४१५. केवलगहणा कसिणं, जति वमती दंसणं चरित्तं वा । तो तस्स उबडवणा, देसे वंतम्मि भयणा तु ॥ दर्शन और चारित्र के साथ केवल पद का ग्रहण संपूर्ण अर्थ में है। यदि दर्शन और चारित्र का संपूर्ण वमन होता है तो उसकी उपस्थापना होती है। यदि देशतः वमन होता है तो उपस्थापना हो भी सकती है और नहीं भी । ६५१६. एमेव य किंचि पदं, सुयं व असूयं व अप्पदोसेणं । अविकोवितो कहितो, चोदिय आउट्ट सुद्धो तु ॥ बिना विमर्श किए ऐसे ही कोई कवाग्रह आदि दोष रहित अगीतार्थ मुनि किसी के समक्ष किंचित् सूत्रार्थविषयक पद, श्रुत अथवा अश्रुत को अन्यथारूप में कहता है और गुरु उसको वैसी वितथप्ररूपणा न करने की प्रेरणा देते हैं और यदि वह उसे सम्यग्रूप से स्वीकार कर लेता है तब वह मिथ्यादुष्कृत मात्र से शुद्ध हो जाता है। ६४१७. अणाभोएण मिच्छत्तं, सम्मत्तं तमेव तस्स पच्छितं जं मग्गं पुणरागते । पडिवज्जई ॥ ६७३ कोई श्राद्ध अजानकारी से निह्नव के पास प्रव्रजित हो गया अर्थात् वह शुद्ध दर्शन को वान्त कर मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। ज्ञात होने पर वह पुनः शुद्ध दर्शनी के पास उपसम्पन्न होता है। उसके लिए वही प्रायश्चित्त है कि वह शुद्ध मार्ग में आ गया। उसका व्रतपर्याय पूर्ववत् रहता है, पुनः उपस्थापना नहीं होती। ६४१८. आभोगेण मिच्छत्तं, सम्मत्तं पुणरागते । जिण थेराण आणाए, मूलच्छेज्जं तु कारए । जो जानता हुआ भी मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया अर्थात् निह्नवों के पास प्रव्रजित हो गया, वह पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होता है, उसे जिनेश्वर तथा स्थविरों की आज्ञा से मूलच्छेच प्रायश्चित्त देना चाहिए, मूलतः उपस्थापना देनी चाहिए। ६४१९. छण्हं जीवनिकायाणं, अणप्पज्झो तु विराहओ । आलोइय-पडिक्कंतो, सुद्धो हति संजओ ॥ जो मुनि क्षिप्तचित्त आदि होने के कारण अनात्मवश स्थिति में षड्जीवनिकाय की विराधना करता है, फिर वह संयत गुरु के पास आलोचना कर प्रायश्चित्त ( मिथ्यादुष्कृत) लेकर शुद्ध हो जाता है। ६४२०.छण्हं जीवनिकायाणं, अप्पज्झो उ विराहतो । आलोइय-पडिक्कंतो, मूलच्छेज्जं तु कारए ॥ जो मुनि आत्मवश होकर षड्जीवनिकाय की विराधना करता है, उसे आलोचना और प्रतिक्रमण कर लेने के पश्चात् मूलच्छेद्य प्रायश्चित्त कराए। ६४२९. जं जो उ समावन्नो, जं पाउम्मं व जस्स वत्थुस्स तं तस्स उ दायव्वं, असरिसदाणे इमे दोसा ॥ जिसने जो प्रायश्चित्त तपोई या छेदाई प्राप्त किया है तथा जिस वस्तु व्यक्ति के जो प्रायश्चित्त प्रायोग्य है, उसको वह देना चाहिए। असदृश अर्थात् अनुचित प्रायश्चित्त देने पर ये दोष होते हैं। ६४२२. अप्पच्छित्ते य पच्छिलं, पच्छिले अतिमत्तया । धम्मस्साssसायणा तिव्वा, मग्गस्स य विराहणा ॥ जो अप्रायश्चित्ती को प्रायश्चित्त देता है और प्रायश्चित्ती को अतिमात्रा में प्रायश्चित्त देता है, वह धर्म की तीव्र आशातना करता है और मार्ग मोक्ष मार्ग की विराधना करता है। ६४२३. उस्सुतं ववहरतो, कम्मं बंधति चिक्कणं । संसारं च पवड्ढेति, मोहणिज्जं च कुव्वती ॥ उत्सूत्र से व्यवहार करता हुआ अर्थात् सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त देता हुआ वह चिकने कर्मों का बंधन करता है वह संसार को बढ़ाता है और मोहनीयकर्म का बंध करता हैं। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ % E ६४२४.उम्मग्गदेसणाए य, मग्गं विप्पडिवातए। परं मोहेण रंजिंतो, महामोहं पकुव्वती॥ उन्मार्ग देशना से व्यक्ति मोक्षमार्ग का व्यवच्छेद करता है और दूसरे को भी मोह से रंजित कर महामोह का बंधन करता है। ६४२५.सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स इ पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं॥ पूर्व और पश्चिम जिनेश्वरदेव का प्रतिक्रमणयुक्त धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में कारण उत्पन्न होने पर प्रतिक्रमण होता है। ६४२६.गमणाऽऽगमण वियारे, सायं पाओ य पुरिम-चरिमाणं। नियमेण पडिक्कमणं, अतियारो होउ वा मा वा॥ प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधु गमनागमन करते हुए, विचारभूमी में जाते हुए, अतिचार हो या न हो, वे नियमतः प्रातः और सायं प्रतिक्रमण करते हैं। ६४२७.अतिचारस्स उ असती, णणु होति णिरत्थयं पडिक्कमणं। ण भवति एवं चोदग!, तत्थ इमं होति णातं तु॥ शिष्य ने पूछा-अतिचार न होने पर प्रतिक्रमण निरर्थक होता है। हे शिष्य! तुम्हारे कहने के अनुसार प्रतिक्रमण का निरर्थकत्व नहीं होता। उसके सार्थकत्व में यह उदाहरण है। ६४२८.सति दोसे होअगतो, जति दोसो णत्थि तो गतो होति। बितियस्स हणति दोसं, न गुणं दोसं व तदभावा॥ ६४२९.दोसं हतूण गुणं, करेति गुणमेव दोसरहिते वि। ततियसमाहिकरस्स उ, रसातणं डिंडियसुतस्स॥ ६४३०.जति दोसो तं छिंदति, असती दोसम्मि णिज्जरं कुणई। कुसलतिगिच्छरसायणमुवणीयमिदं पडिक्कमणं॥ राजकुमार बीमार हो गया। तीन वैद्य चिकित्सा करने आए। राजा के सामने पहले वैद्य ने कहा-मेरी औषधी रोग १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. १५०। बृहत्कल्पभाष्यम् होगा तो उसे मिटा देगी। रोग न होने पर वह औषधी स्वयं रोग बन जाएगी। दूसरे वैद्य ने कहा-मेरी औषधी रोग का नाश करेगी। यदि रोग नहीं होगा तो न गुण करेगी और न दोष। तीसरे वैद्य ने कहा-मेरी औषधी रसायन है और वह राजपुत्र के लिए उपयुक्त है। यह प्रतिक्रमण कुशल चिकित्सक के रसायन तुल्य है। यदि कोई दोष लगा है तो उसको नष्ट कर देगा और कोई दोष न लगा हो तो कर्म निर्जरा होगी। ६४३१.दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पे चेव थेरकप्पे य। एक्वेक्को वि य दुविहो, अट्ठियकप्पो य ठियकप्पो।। मासकल्प के दो प्रकार हैं-जिनकल्प और स्थविरकल्प। प्रत्येक दो-दो प्रकार का है-अस्थितकल्प और स्थितकल्प। ६४३२.पज्जोसवणाकप्पो, होति ठितो अद्वितो य थेराणं। एमेव जिणाणं पि य, कप्पो ठितमट्टितो होति। पर्युषणाकल्प स्थविरकल्पिकों और जिनकल्पिकों-दोनों के होता है। दोनों के वह स्थित और अस्थित-दोनों प्रकार का होता है। ६४३३.चाउम्मासुक्कोसे, सत्तरिराइंदिया जहण्णेणं। ठितमट्टितमेगतरे, कारणवच्चासितऽण्णयरे॥ पर्युषणाकल्प उत्कृष्टतः चार मास का (आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिकी पूर्णिमा तक) और जघन्यतः सत्तर रातदिन का (भाद्र शुक्ल ५ से कार्तिक पूर्णिमा तक) होता है। यह कल्प पूर्व और पश्चिम तीर्थंकरों के स्थित होता और शेष तीर्थंकरों के अस्थित होता है। पूर्व और पश्चिम तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्यतर अशिव कारण में मासकल्प या पर्युषणाकल्प में व्यत्यास भी कर सकते हैं। ६४३४.थेराण सत्तरी खलु, वासासु ठितो उडुम्मि मासो उ। वच्चासितो तु कज्जे, जिणाण नियमऽट्ठ चउरो य॥ प्रथम-चरम तीर्थंकरों के स्थविरकल्पी साधुओं के वर्षा में सत्तर दिन का पर्युषणाकल्प होता है, उनके ही ऋतुबद्ध काल में एक मास का स्थित कल्प होता है। अशिव आदि कार्य में व्यत्यासित-हीनाधिक भी होता है। प्रथम-चरम तीर्थंकर के . जिनकल्पिक साधुओं के नियमतः ऋतुबद्धकाल में आठ मास और वर्षा में चार मास होते हैं। ६४३५.दोसाऽसति मज्झिमगा, अच्छंती जाव पुव्वकोडी वि। विचरंति अ वासासु वि, अकद्दमे पाणरहिए य॥ ६४३६.भिण्णं पि मासकप्पं, करेंति तणुगं पि कारणं पप्प। जिणकप्पिया वि एवं, एमेव महाविदेहेसु॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ६७५ जो मध्यम तीर्थंकरों के अस्थितकल्पिक साधु हैं वे स्थापनाकल्प के दो प्रकार हैं-अकल्पस्थापनाकल्प और पूर्वकोटि के दोषों के अभाव में एक क्षेत्र में रहते हैं और शैक्षस्थापनाकल्प। अकल्पिक-जिसने पिण्डैषणा न पढ़ा हो, अकर्दम और प्राणरहित भूतल होने पर वर्षा में भी वे विहरण उससे आहार आदि न ग्रहण न करे और न उससे मंगाए। करते हैं। ६४४३.अट्ठारसेव पुरिसे, वीसं इत्थीओ दस णपुंसा य। तनुक (सूक्ष्म) कारण को प्राप्त करके भी वे मासकल्प दिक्खेति जो ण एते, सेहट्ठवणाए सो कप्पो॥ को भिन्न कर देते हैं अर्थात् उसे पूरा किए बिना विहार कर अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियां तथा दस जाते हैं। मध्यम तीर्थंकरों के जिनकल्पिक मुनि और इसी प्रकार के नपुंसक-इन अड़तालीस को दीक्षा नहीं देता, वह प्रकार महाविदेह के स्थविरकल्पी और जिनकल्पमुनि भी शैक्षस्थापनाकल्प कहलाता है। अस्थितकल्पी होते हैं। ६४४४.आहार-उवहि-सेज्जा, उग्गम-उप्पादणेसणासुद्धा। ६४३७. एवं ठियम्मि मेरं, अट्ठियकप्पे य जो पमादेति। जो परिगिण्हति णिययं, उत्तरगुणकप्पिओ स खलु॥ सो वट्टति पासत्थे, ठाणम्मि तगं विवज्जेज्जा॥ जो आहार, उपधि, शय्या-इनको उद्गम, उत्पादन और इस प्रकार स्थितकल्प और अस्थितकल्प विषयक जो ____ एषणा दोषों से सदा शुद्ध ग्रहण करता है, वह उत्तरगुणमर्यादा कही गई है, उसमें जो प्रमाद करता है वह पार्श्वस्थ कल्पिक कहलाता है। स्थान में होता है। उसके साथ सम्भोज नहीं करना चाहिए। ६४४५.सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्ठतरए वा। ६४३८.पासत्थ संकिलिटुं, ठाणं जिण वुत्तं थेरेहि य। साहूहिं संथवं कुज्जा, णाणीहिं चरित्तगुत्तेहिं। तारिसं तु गवसंतो, सो विहारे ण सुज्झति॥ सदृशकल्पी, सदृशछंद, तुल्यचारित्र अथवा विशिष्टतरजिनेश्वर ने तथा स्थविरों ने पार्श्वस्थ के स्थान को ऐसे जो ज्ञानी और चारित्रगुप्त साधु हों उनके साथ संस्तव संक्लिष्ट कहा है। वैसे स्थान की गवेषणा करने वाला मुनि करें। संविग्नविहारी नहीं होता। ६४४६.सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्ठतरए वा। ६४३९.पासत्थ संकिलि8, ठाणं जिण वुत्तं थेरेहि य। आदिज्ज भत्त-पाणं, सतेण लाभेण वा तुस्से। तारिसं तु विवज्जेतो, सो विहारे विसुज्झति॥ सदृशकल्प, सदृशछंद, तुल्यचारित्र अथवा विशिष्टतरजिनेश्वर ने तथा स्थविरों ने पार्श्वस्थ के स्थान को ऐसा जो साधु हो उससे भक्तपान ग्रहण करे अथवा अपने संक्लिष्ट कहा है। वैसे स्थान का विवर्जन करने वाला मुनि विहार में विशुद्ध होता है। ६४४७.परिहारकप्पं पवक्खामि, परिहरंति जहा विऊ। ६४४०.जो कप्पठितिं एयं, सद्दहमाणो करेति सट्ठाणे। आदी मज्झऽवसाणे य, आणुपुव्विं जहक्कम।। तारिसं तु गवेसेज्जा, जतो गुणाणं ण परिहाणी॥ मैं परिहारकल्प के विषय में कहूंगा, जिसका विद्वान् जो इस कल्पस्थिति पर श्रद्धा रखता हुआ स्वस्थान में मुनि आसेवन करते हैं। मैं उसकी आदि में, मध्य में और उसका पालन करता है-अस्थितकल्प के स्थान में अस्थित- अन्त में होने वाली सामाचारी का यथाक्रम आनुपूर्वी से कथन कल्प की और स्थितकल्प के स्थान में स्थितकल्प की और करूंगा। वैसे संविग्नविहारी मुनि की गवेषणा करता है, जिससे गुणों ६४४८.भरहेरवएसु वासेसु, जता तित्थगरा भवे। की परिहानि न हो तथा वैसे साधु के साथ संभोज का पुरिमा पच्छिमा चेव, कप्पं देसेंति ते इमं॥ व्यवहार रखे। भरत और ऐरावत क्षेत्रों में जितने पहले-पीछे तीर्थंकर ६४४१.ठियकप्पम्मि दसविधे, ठवणाकप्पे य दुविहमण्णयरे। होते हैं, सभी इस कल्प की प्ररूपणा करते हैं। उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स संभोगो॥ ६४४९.केवइयं कालसंजोगं, गच्छो उ अणुसज्जती। दस प्रकार के स्थितकल्प में और दो प्रकार के तित्थयरेसु पुरिमेसु, तहा पच्छिमएसु य॥ स्थापना कल्प में से किसी एक प्रकार में तथा शिष्य ने पूछा-पूर्व और पश्चिम तीर्थंकरों के परिहारउत्तरगुणकल्प में जो सदृक्कल्प (तुल्य सामाचारिक) होता कल्पिकों का गच्छ कितने काल-संयोग तक परंपरा से है, वह सम्भोग्य होता है। अनुवर्तित होता है? ६४४२.ठवणाकप्पो दुविहो, अकप्पठवणा य सेहठवणा य। ६४५०.पुव्वसयसहस्साई, पुरिमस्स अणुसज्जती। पढमो अकप्पिएणं आहारादी ण गिण्हावे॥ वीसग्गसो य वासाई, पच्छिमस्साणुसज्जती॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ आचार्य ने कहा- पूर्व अर्थात् प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में परिहारकल्प एक लाख पूर्वों तक चलता है और अंतिम तीर्थंकर के तीर्थ में 'विंशत्यग्रशः' अर्थात् कुछेक विंशति संख्या परिच्छिन्न वर्षों तक वह अनुवर्तित होता है अर्थात् देशोन दो सौ वर्ष तक | वीसहिं । ६४५१. पव्वज्ज अट्ठवासस्स, दिट्ठिवातो उ इति एकूणतीसाए, सयमूणं तु पच्छिमे ॥ ६४५२. पालइत्ता सयं ऊणं, वासाणं ते अपच्छिमे । काले देसिंति अण्णेसिं, इति ऊणा तु बे सता ॥ श्री वर्द्धमान स्वामी के काल में किसी बालक की जन्मकाल से आठवें वर्ष में प्रव्रज्या हो गई। उसने बीसवें वर्ष में दृष्टिवाद का ग्रहण कर लिया। तदनन्तर भगवान् महावीर के पास नौ व्यक्तियों ने परिहारकल्प स्वीकार कर देशोनवर्षशत तक उसका पालन किया। इस प्रकार उनतीस वर्ष से न्यून सौ वर्ष तक उस तीर्थ में कल्प का प्रवर्तन रहा। स्वयं सौ वर्षों से न्यून कल्प का पालन कर अपने जीवन के अन्तकाल में वे दूसरों को कल्प का प्ररूपण करते हैं। वे भी उनतीस वर्ष न्यून सौ वर्ष तक पालन करते हैं। इस प्रकार कुछ न्यून दो सौ वर्ष होते हैं। ६४५३. पडिवन्ना निर्णिक्स्स, पादमूलम्मि जे बिऊ । ठावयंति उ ते अण्णे, णो उ ठावितठावगा ॥ जो विद्वान् व्यक्ति जिनेन्द्र के पादमूल में इस कल्प को स्वीकार करते हैं वे ही दूसरों को उसमें स्थापित कर सकते हैं, न कि स्थापितस्थापक इसका हार्द यह है कि यह कल्प तीर्थंकर के पास स्वीकार किया जाता है या जिस साधु ने तीर्थंकर के पास इसको स्वीकार किया है, उसके पास इसका ग्रहण किया जाता है, दूसरे के पास नहीं । ६४५४. सव्वे चरित्तमंतो य, दंसणे परिनिडिया। णवपुव्विया जहन्नेणं, उक्कोस दसपुब्विया ॥ ६४५५. पंचविहे बवहारे, कप्पे तदुविहम्मि य । दसविहे य पच्छित्ते, सव्वे ते परिणिट्टिया ॥ परिहारकल्प स्वीकार करने वाले सभी मुनि चारित्रवान्, दर्शन में परमकोटि को प्राप्त, जघन्यतः नौपूर्वी, उत्कृष्टतः दशपूर्वी (किंचित् न्यूनदशपूर्वी) तथा पांच प्रकार के व्यवहार में-3 -आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत तथा दो प्रकार के कल्प में अकल्पस्थापनाकल्प तथा शैक्षस्थापनाकल्प अथवा स्थविरकल्प और जिनकल्प में तथा दश प्रकार के प्रायश्चित्त में इन सबमें वे मुनि परिनिष्ठित होते हैं। ६४५६. अप्पणो आउगं से, जाणित्ता ते महामुनी । परक्कमं च बल विरियं पच्चवाते तहेव य ॥ बृहत्कल्पभाष्यम् वे महामुनि अपने आयुष्य का अन्त जानकर अपने बल, वीर्य और पराक्रम को समझकर परिहारकल्प स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार प्रत्यपाय-रोग आदि के विषय में भी पहले ही ध्यान दे देते हैं। ६४५७. आपुच्छिऊण अरहंते, मगं देसेंति ते इमं । पमाणाणि य सव्वाई, अभिग्गहे य बहुविहे ॥ अरिहंतों को पूछकर वे इस कल्प को स्वीकार करते हैं। अरिहंत उनको इस कल्प का मार्ग सामाचारी बताते हैंसभी प्रमाण और बहुविध अभिग्रह निदर्शित करते हैं। ६४५८. गणोवहिपमाणाई, पुरिसाणं च जाणि तु । दव्वं खेत्तं च कालं च भावमण्णे व पज्जवे ॥ अरिहंत उन्हें गणप्रमाण, उपधिप्रमाण, पुरुषप्रमाण जो इस कल्प में जघन्य आदि भेद से अनेक प्रकार के होते हैं तथा द्रव्य - अशन आदि, क्षेत्र - मासकल्प प्रायोग्य वर्षावास - प्रायोग्य काल मासकल्प और वर्षावास के लिए प्रतिनियतकाल तथा भाव - क्रोध आदि के निग्रहरूप तथा अन्यनिष्प्रतिकर्मता आदि तथा लेश्या ध्यान आदि रूप पर्याय- इन सभी का उनको उपदेश देते हैं। ६४५९. पंचहिं अग्गहो भत्ते, तत्थेगीए अभिग्गहो । उबहिणो अग्गहो दोसुं, इयरो एक्कतरीय उ । भक्तपान के विषय में सात एषणाओं में प्रथम दो को छोड़कर शेष पांच का आग्रह स्वीकार, उसमें से किसी एक का अभिग्रह उपधि विषयक चार एषणाओं में से अंतिम दो एषणाओं का आग्रह स्वीकार और तीसरी, चौथी एषणाओं में से किसी एक का अभिग्रह। ६४६०, अहरोन्गयम्मि सूरे, कप्पं देसिंति ते आलोइय-पडिक्कंता, ठावयंति तओ इमं । गणे ॥ सूर्य के उदित होते ही वे इस कल्प को स्वयं स्वीकार कर दूसरों को दिखाते हैं। तत्पश्चात् आलोचित - प्रतिक्रान्त होकर तीन गणों की स्थापना करते हैं। ६४६१. सत्तावीस जहणेणं, उक्कोसेण सहस्ससो। निग्गंथसूरा भगवंतो, सव्वग्गेणं वियाहिया ।। इन तीन गणों में जघन्यतः २७ पुरुष और उत्कृष्टतः हजार पुरुष होते हैं। इस प्रकार वे भगवान् निर्ग्रन्थशूर सर्वसंख्या से कहे गए हैं। ६४६२. सयग्गसो य उक्लोसा, जहण्णेण तओ गणा । गणो य णवतो वृत्तो, एमेता पडिवत्तितो॥ इनके गणों की उत्कृष्ट संख्या सौ होती है। और जघन्य संख्या तीन होती है। प्रत्येक गण नौ पुरुष प्रमाण का होता है। ये इनकी प्रतिपत्तियां हैं-प्रमाणों के प्रकार हैं। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक ६४६३.एगं कप्पट्ठियं कुज्जा, चत्तारि परिहारिए। होता है। अनुपारिहारिक द्वारा अपराधपद का आसेवन होने अणुपरिहारगा चेव, चउरो तेसिं ठावए॥ पर वही गीतार्थ मुनि प्रायश्चित्त देने में प्रमाण होता है। . .. नौ पुरुषों में से एक को कल्पस्थित-गुरुकल्प करे। ६४७०.आलोयण कप्पठिते, तवमुज्जाणोवमं परिवहते। चार को पारिहारिक और शेष चार को अनुपारिहारिक अणुपरिहारिए गोवालए, व णिच्च उज्जुत्तमाउत्ते॥ स्थापित करे। वे पारिहारिक और अनुपारिहारिक मुनि आलोचना आदि ६४६४.ण तेसिं जायती विग्धं, जा मासा दस अट्ठ य। कल्पस्थित के सम्मुख करते हैं। वे पारिहारिक उद्यानिका ___ण वेयणा ण वाऽऽतंको, णेव अण्णे उवहवा॥ सदृश तप का परिवहन करते हैं। चारों अनुपारिहारिक चारों ६४६५.अट्ठारससु पुण्णेसु, होज्ज एते उवद्दवा। पारिहारिकों के साथ भिक्षा में सदा उद्युक्त (प्रयत्नयुक्त) तथा ऊणिए ऊणिए यावि, गणे मेरा इमा भवे॥ आयुक्त (उपयुक्त) होकर उनके पीछे-पीछे घूमते हैं, जैसे जो इस प्रकार कल्प-प्रतिपन्न होते हैं उनके अठारह गोपालक गायों के पीछे रहकर उद्युक्त और आयुक्त होकर महीनों तक कोई विघ्न (संहरण आदि) नहीं होता। न उनके घूमता है। कोई वेदना होती है, न आतंक होता है और न अन्य ६४७१.पडिपुच्छं वायणं चेव, मोत्तूणं णत्थि संकहा। उपद्रव। अठारह मास पूर्ण होने पर ये उपद्रव हो सकते आलावो अत्तणिद्देसो, परिहारिस्स कारणे॥ हैं। कोई मुनि मर जाए या स्थविरकल्पी जिनकल्प में उन पारिहारिकों आदि को नौ आदमी के साथ सूत्रार्थ की चला जाए, तो शेष उसी कल्प का पालन करते हैं। इस प्रतिपृच्छा और वाचना के अतिरिक्त परस्पर संकथा करना प्रकार गण न्यून-न्यून होने पर भी यही मर्यादा सामाचारी नहीं कल्पता। पारिहारिक को कारणवश आत्मनिर्देशरूप होती है। आलाप जैसे-उलूंगा, बैलूंगा, आदि हो सकता है। ६४६६.एवं तु ठाविए कप्पे, उवसंपज्जति जो तहिं। ६४७२.बारस दसऽट्ठ दस अट्ट छ च्च अट्टेव छ च्च चउरो य। एगो दुवे अणेगा वा, अविरुद्धा भवंति ते॥ उक्कोस-मज्झिम-जहण्णगा उ वासा सिसिर गिम्हे॥ इस प्रकार कल्प स्थापित करने पर, एक-दो मुनि मृत्यु पारिहारिककल्प वाले मुनियों की तपःतालिकाको प्राप्त हो जाएं और एक-दो या अनेक व्यक्ति उपसंपदा वर्षा शिशिर ग्रीष्म ग्रहण करें, उन्हें ग्रहण कर गण को पूरा करे। वे उपसंपन्न उत्कृष्ट पंचोला चोला तेला मुनि पारिहारिकों के साथ रहते हुए अविरुद्ध होते हैं अर्थात् वे मध्यम चोला । तेला बेला पारिहारिकों के अकल्पनीय नहीं होते। जघन्य - तेला बेला उपवास ६४६७.तत्तो य ऊणए कप्पे, उवसंपज्जति जो तहिं। ६४७३.आयंबिल बारसमं, पत्तेयं परिहारिगा परिहरंति। जत्तिएहिं गणो ऊणो, तत्तिते तत्थ पक्खिवे॥ अभिगहितएसणाए, पंचण्ह वि एगसंभोगो॥ कल्प न्यून अर्थात् एक-दो मुनि से ऊन होने पर जो वहां पारिहारिक मुनि उत्कृष्टतः पंचोला करके आचाम्ल से उपसंपन्न होते हैं उनमें से उतने ही साधुओं को गण में प्रवेश पारणा करते हैं। प्रत्येक पारिहारिक पृथक्-पृथक् भोजन दे जितनों की न्यूनता हो। आदि करते हैं, यथोक्त सामाचारी का पालन करते हैं। ६४६८.तत्तो अणूणए कप्पे, उवसंपज्जति जो तहिं। पारिहारिक मुनि अभिगृहीत एषणा से भक्तपान लेते हैं। चार उवसंपज्जमाणं तु, तप्पमाणं गणं करे॥ पारिहारिक मुनि और एक कल्पस्थित-इन पांचों का एक कल्प अन्यून हो और वह जो उपसंपन्न होते हैं, उन । संभोग होता है। वे प्रतिदिन आचाम्ल करते हैं। जो उपसंपन्न होने वालों के यदि नौ का प्रमाण हो जाता है तो कल्पस्थित होता है वह भिक्षा के लिए नहीं जाता, उसके अन्य गण की स्थापना कर दे। योग्य भक्तपान पारिहारिक मुनि लाते हैं। ६४६९.पमाणं कप्पट्टितो तत्थ, ववहारं ववहरित्तए। ६४७४.परिहारिओ वि छम्मासे अणुपरिहारिओ वि छम्मासा। अणुपरिहारियाणं पि, पमाणं होति से विऊ॥ कप्पट्ठितो वि छम्मासे एते अट्ठारस उ मासा॥ कल्प में यदि पारिहारिकों का कोई अपराधपद हो जाए पारिहारिक मुनि छह मास तक प्रस्तुत तपस्या करते हैं। तो कल्पस्थित मुनि व्यवहार-प्रायश्चित्त देने में प्रमाणभूत अनुपारिहारिक भी छह मास तक तप करते हैं। कल्पस्थित १. उद्यानिकासदृशतप-यथा किल कश्चिद् उद्यानिकांगत एकान्तरतिप्रसक्तः स्वच्छंदसुखं विहरमाण आस्ते, एवं तेपि पारिहारिका एकान्त समाधिसिन्धुनिमग्नमनसस्तत् तप उद्यानोपमम्। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ -बृहत्कल्पभाष्यम् मुनि भी छह मास तक तपस्या करते हैं। ये अठारह मास होते हैं। ६४७५.अणुपरिहारिगा चेव, जे य ते परिहारिगा। अण्णमण्णेसु ठाणेसु, अविरुद्धा भवंति ते॥ जो अनुपारिहारिक हैं और जो वे पारिहारिक हैं वे अन्यान्य स्थानों में कालभेद से परस्पर एक दूसरे का वैयावृत्य करते हुए अविरुद्ध ही होते हैं। ६४७६.गएहिं छहिं मासेहिं, निविट्ठा भवंति ते। ततो पच्छा ववहार, पट्ठवंति अणुपरिहारिया॥ ६४७७.गएहिं छहिं मासेहि, निविट्ठा भवंति ते। वहइ कप्पट्टितो पच्छा, परिहारं तहाविहं॥ वे पारिहारिक मुनि छह मास तक तपस्या वहन कर लेने पर निर्विष्टकायिक हो जाते हैं। तत्पश्चात् अनुपारिहारिक परिहारतप के व्यवहार-समाचार की स्थापना करते हैं। वे भी छह महीनों में निर्विष्ट हो जाते हैं। पश्चात् कल्पस्थित भी तथाविध परिहार का उतने ही महीनों तक वहन करता है। ६४७८.अट्ठारसहिं, मासेहिं, कप्पो होति समाणितो। मूलट्ठवणाए सम, छम्मासा तु अणूणगा। वह कल्प अठारह महीनों में समाप्त होता है। मूलस्थापना अर्थात् जो प्रथमतः परिहारतप स्वीकार करते हैं, वे अन्यून छहमास पर्यन्त उसका पालन करते हैं, इसी प्रकार अनुपरिहारिक तथा कल्पस्थित भी उसी के तुल्य छह-छह मास का तप वहन करते हैं। इस प्रकार ६४३१८ मास होते हैं। ६४७९.एवं समाणिए कप्पे, जे तेसिं जिणकप्पिया। तमेव कप्पं ऊणा वि, पालए जावजीवियं॥ इस प्रकार अठारह महीनों में कल्प समाप्त कर देने पर जो उनके मध्य जिनकल्पिक मुनि होते हैं वे उसी कल्प को अठारह मास न्यून भी यावज्जीवन तक पालन करते हैं। ६४८०.अट्ठारसेहिं पुण्णेहि, मासेहिं थेरकप्पिया। पुणो गच्छं नियच्छंति, एसा तेसिं अहाठिती॥ स्थविरकल्पिक मुनि अठारह मास पूर्ण होने पर पुनः गच्छ में आ जाते हैं। यह उनकी यथास्थिति है। ६४८१.तइय-चउत्था कप्पा, समोयरंति तु बियम्मि कप्पम्मि। पंचम-छट्ठठितीसुं, हेट्ठिल्लाणं समोयारो॥ तीसरा और चौथा कल्प (निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक) दूसरे कल्प (छेदोपस्थापनीय) में समवतरित होते हैं। तथा सामायिक, छेदोपस्थानीय, निर्विशमानक, निर्विष्टकायिक ये चार अधस्तन स्थितियां मानी जाती हैं। इनका प्रत्येक का पांचवीं, छठी कल्प स्थिति में (जिनकल्प, स्थविरकल्प) में समवतार होता है। ६४८२.णिज्जुत्ति-मासकप्पेसु वण्णितो जो कमो उ जिणकप्पे। सुय-संघयणादीओ, सो चेव गमो निरवसेसो॥ पंचकल्प नियुक्ति के मासकल्प प्रकरण में जिनकल्पी के श्रुत, संहनन आदि का जो क्रम वर्णित है वही संपूर्ण क्रम यहां भी जानना चाहिए। ६४८३.गच्छम्मि य णिम्माया, धीरा जाहे य मुणियपरमत्था। अग्गह जोग अभिग्गहे, उविंति जिणकप्पियचरितं॥ जब गण में ही निष्पन्न, धीर, परमार्थ से अवगत अर्थात् यह जानकर कि अब उद्यतविहार करने का हमारा अवसर है, असंसृष्ट और संसृष्ट एषणाओं के ग्रहण का परिहार करने में तत्पर तथा इन एषणाओं को ही लेने का अभिग्रह रखते हुए तथा एक बार में एक का ही योग-परिभोग करने वाले होते हैं, वे ही जिनकल्पचारित्र स्वीकार करते हैं। ६४८४.धितिबलिया तवसूरा, णिति य गच्छातो ते पुरिससीहा। बल-वीरियसंघयणा, उवसग्गसहा अभीरू य॥ जो धृति से बलवान होते हैं, तपःशूर होते हैं, वे पुरुषसिंह गच्छ से निर्गत होते हैं। जो बल, वीर्य और संहननयुक्त होते हैं, उपसर्गों को सहने में सक्षम और अभीरू होते हैंवैसे पुरुष जिनकल्पस्थिति स्वीकार करते हैं। ६४८५.संजमकरणुज्जोवा, णिप्फातग णाण-दसण-चरित्ते। दीहाउ वुड्डवासो, वसहीदोसेहि य विमुक्का॥ स्थविरकल्पी मुनि संयम का यथावत् पालन करने वाले, प्रवचन के उद्योतक, शिष्यों का ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निष्पादक, दीर्घायुष्क तथा जंघाबल से हीन होने पर वृद्धावास में रहने वाले तथा वसति दोषों से विप्रमुक्त होते हैं। ६४८६.मोत्तुं जिणकप्पठिइं, जा मेरा एस वण्णिया हेट्ठा। एसा तु दुपदजुत्ता, होति ठिती थेरकप्पस्स। जिनकल्पस्थिति को छोड़कर जो यह मर्यादा-स्थिति इसी अध्ययन में वर्णित है वह द्विपदयुक्त अर्थात् उत्सर्ग और अपवाद-इन दो पदों से युक्त स्थविरकल्प की स्थिति होती है। ६४८७.पलंबादी जाव ठिती, उस्सग्ग-ऽववातियं करेमाणे। अववाते उस्सगं आसायण दीहसंसारी॥ प्रलंबसूत्र से प्रारंभ कर इस षड्विधकल्पस्थितिसूत्र तक उत्सर्ग में आपवादिक क्रिया तथा अपवाद में उत्सर्ग क्रिया Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ६७९ छठा उद्देशक करने वाला अर्हत् शासन की आशातना करता है और वह दीर्घसंसारी होता है। ६४८८.छव्विहकप्पस्स ठितिं, नाउं जो सद्दहे करणजुत्तो। पवयणणिही सुरक्खितो, इह-परभववित्थरप्फलदो॥ जो मुनि छह प्रकार के कल्प की स्थिति को जानकर उस पर श्रद्धा करता है तथा करणयुक्त यथानुष्ठानयुक्त होता है, वह प्रवचननिधि और आत्मसंरक्षित होता है। उसको इहभव और परभव में विस्तृत फल प्राप्त होते हैं। ६४८९.भिण्णरहस्से व णरे, णिस्साकरए व मुक्कजोगी य। छविहगतिगुविलम्मिं, सो संसारे भमति दीहे॥ जो मुनि भिन्नरहस्य अर्थात् अयोग्य मुनियों को अपवादपदों का रहस्य बताता है, ऐसे नर को तथा जो निश्राकर होता है अर्थात् अपवादपद की निश्रा में ही चलता है, जो मुक्तयोगी ज्ञान, दर्शन आदि योगों से रहित है-ऐसे व्यक्ति को रहस्य नहीं बताने चाहिए, जो बताता है वह षट्काय से गहन दीर्घ संसार में परिभ्रमण करता है। ६४९०.अरहस्सधारए पारए य असढकरणे तुलासमे समिते। कप्पाणुपालणा दीवणा य, आराहण छिन्नसंसारी।। नायम्मि गिण्हियव्वे, अगिण्हियव्वम्मि चेव अत्थम्मि। जइयव्वमेव इइ जो, उवएसो सा नओ नाम॥ सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता। तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरण-गुणट्ठितो साहू। अरहस्य धारक-अतीव रहस्यमय शास्त्रों को धारण करने वाला, सूत्रों का पारगामी, अशठकरण-माया-पद से विप्रमुक्त, तुलासदृश, समित-पांच समितियों से समायुक्त, कल्प की अनुपालना करने वाला, दीपन-स्वसमय की दीपना करने वाला, जो आलस्य को छोड़कर भगवद् कथन की दीपना करने वाला होता है, वही ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने वाला तथा संसार भ्रमण को छिन्न करने वाला होता है। वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। छठा उद्देशक समाप्त १. नास्त्यपरं रहस्यान्तरं यस्मात् तद् अरहस्यम्। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : कथा परिशिष्ट परिशिष्ट २ : सूक्त और सुभाषित परिशिष्ट ३ : आयुर्वेद और आरोग्य परिशिष्ट ४ : गाथानुक्रम Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट १. नृप दृष्टान्त एक पुरुष अपने कार्य के लिए राजा के सम्मुख उपस्थित हुआ। मंगल के प्रतीक पुष्प आदि राजा के चरणों में अर्पित कर राजा को प्रणाम किया। राजा उसके विनय से तुष्ट हो गया। राजा के संतुष्ट होने पर उसका कार्य सिद्ध हो गया। यथायोग्य उपचार से किया हुआ कार्य सिद्ध होता है। परिशिष्ट १ २. निधि, विद्या और मंत्र का दृष्टांत निधि का उत्खनन, विद्या और मंत्र को सिद्ध करने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से उपचार करना होता है। जो ये सब उपचार करता है। वह निधि खनन, विद्या और मंत्र सिद्ध कर लेता है। जो उपचार नहीं करता वह निधि आदि प्राप्त करने में सफल नहीं होता। गा. २० वृ. पृ. १० ३. वत्स और गाय जब गोपालक श्वेत गाय के वत्स को चूंघने के लिए काली गाय के पास छोड़ता है और काली गाय के वत्स को चूंघने के लिए श्वेत गाय के पास छोड़ता है तब उसे दूध प्राप्त नहीं होता है। यह अननुयोग है। गा. २० वृ. पृ. १० इसके विपरीत श्वेत गाय के वत्स को श्वेत गाय के पास और काली गाय के वत्स को काली गाय के पास छोड़ता है तो दूध प्राप्त हो जाता है। यह अनुयोग है। जैसे अननुयोग से दूध प्राप्त नहीं होता वैसे ही अननुयोग से जो भाव को अन्यथा ग्रहण करता है, उससे अर्थ का विसंवाद होता है, अर्थ के विसंवाद से चारित्र का विसंवाद और उससे मोक्ष का अभाव हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति की फलश्रुति के बिना दीक्षा व्यर्थ हो जाती है। ४. कुब्जा प्रतिष्ठान नगर में सातवाहन नामक राजा राज्य करता था। वह प्रतिवर्ष भृगुकच्छ नगर में नभवाहन राजा पर चढ़ाई करता और वर्षा ऋतु प्रारंभ होने पर अपने नगर में लौट आता था। एक बार भृगुकच्छ जाते हुए राजा ने आस्थानमंडप में थूक दिया। उसके पास छत्र धारिणी एक कुब्जा स्त्री थी । थूकने के कारण उसने जाना कि अब यह भूमि अपरिभोग्य हो गई है। राजा कहीं अन्यत्र जाना चाहता है। राज्य का यानशालिक उस कुब्जा से परिचित था। उसने राजा का अभिप्राय यानशालिक को बताया। उस यानशालिक ने यान वाहनों को साफ कर, प्रक्षित कर उन्हें प्रस्थित कर दिया। यह देखकर शेष सेना ने भी प्रस्थान कर दिया। राजा रथ में अकेला जा रहा था। उसने धूल आदि के भय से प्रातः जाने की बात सोची। उसने देखा कि सारी सेना प्रस्थित हो चुकी है। गा. १७१ वृ. पृ. ५२ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ -बृहत्कल्पभाष्यम् उसने मन ही मन विचार किया कि मैंने किसी से कुछ नहीं कहा, फिर इन लोगों ने मेरे मन की बात कैसे जानी? उसने गवेषणा की। एक-दूसरे से पूछते-पूछते अंत में बात कुब्जा पर आकर टिकी। राजा ने कुब्जा को बुलाकर उससे कारण पूछा। उसने राजा को यथार्थ बात बता दी। राजा उससे तुष्ट हुआ। गा. १७१ वृ. पृ. ५२ ५. काल और अकाल का विवेक एक मुनि कालिक श्रुत का स्वाध्याय कर रहा था। रात्रि का पहला प्रहर बीत गया। उसे इसका भान नहीं रहा। वह स्वाध्याय करता ही गया। एक सम्यक्दृष्टि देवता ने यह जाना। उसने सोचा-यह मुनि अकाल में स्वाध्याय कर रहा है। कोई मिथ्यादृष्टि देवता उसको छल न ले, इसलिए उसने छाछ बेचने वाले की विकुर्वणा की। 'छाछ ले लो, छाछ ले लो'-यह कहता हुआ वह उस मार्ग से निकला। वह बार-बार उस मुनि के उपाश्रय के पास आता जाता रहा। मुनि ने वे शब्द सुने। उसे ऐसा अनुभव हुआ मानो कानों पर कोई प्रहार कर रहा हो। मुनि बोला-कौन हो? अभी क्या छाछ बेचने का समय है? तब उसने कहा-मुनिवर ! क्या यह कालिक श्रुत का स्वाध्याय काल है? मुनि ने यह सुना और सोचा यह कालिक श्रुत का स्वाध्याय काल नहीं है? आधी रात बीत चुकी है। मुनि ने प्रायश्चित्त स्वरूप 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण किया। देवता बोला-फिर ऐसा मत करना, अन्यथा तुम मिथ्यादृष्टि देवता से छले जाओगे। स्वाध्याय-काल में ही स्वाध्याय करो न कि अस्वाध्याय काल में। गा. १७१ वृ. पृ. ५३ ६. बधिर एक ग्राम में एक परिवार रहता था। उसके चार सदस्य थे। चारों ही बधिर थे। एक दिन उसका पुत्र हल लेकर खेत की ओर जा रहा था। रास्ते में एक आदमी ने उससे गांव का मार्ग पूछा। उसने सोचा, यह मुझसे बैल मांग रहा है। वह बोला ये जातिवान बैल मेरे हैं। तम कैसे मांग रहे हो? उसने कहा-मैं बैल नहीं मांग रहा ह मार्ग पूछ रहा हूं। वह बात को समझा नहीं और हल लेकर उसके पीछे दौड़ा। पथिक ने सोचा यह पागल है। मार्ग में उसकी पत्नी मिल गई जो भाता (भोजन) लेकर आ रही थी। उसे देख कर बोला-'यह आदमी मुझसे बैल मांग रहा था।' वह भी सुनने में असमर्थ थी। उसने सोचा कि मुझे कह रहे है कि भोजन में नमक नहीं है। वह बोली-भोजन तुम्हारी मां ने बनाया है।' वह घर गई और सास से कहा-'तुम्हारे बेटे ने कहा-भोजन में नमक नहीं है।' वह सूत कात रही थी, उसने सोचा मुझे कह रही है कि सूत मोटा कात रही हो। वह बोली सूत मोटा हो या खरदरा। तेरे लिए नहीं कात रही हूं, मेरे बेटे के लिए कात रही हूं। उसका श्वसुर बाहर तिल सुखा रहा था। उसने बहु को बात करते देखा तो सोचा, यह अपनी सास को कह रही है कि यह वृद्ध तिल खा रहा है। वह बोला-'तुम्हारी सौगंध मैंने एक भी तिल नहीं खाया।' गा. १७१ वृ. पृ. ५३ ७. अज्ञानी पुत्र एक गांव में एक छोटा परिवार रहता था। उसमें तीन सदस्य थे-माता-पिता और पुत्र। पिता का देहावसान हो गया। माता अपने पुत्र को लेकर अन्यत्र चली गई। पुत्र बड़ा हुआ। एक दिन मां से पूछा-मेरे पिता कहां है? उसने कहा-तेरे पिता का देहान्त हो गया। फिर पूछा-मां! पिताजी कौन सा कार्य करके आजीविका चलाते थे। वह बोली-दूसरों की सेवा करके। पुत्र बोला-मां! मैं भी सेवा करके आजीविका चलाऊंगा। मां बोली-बेटा ! तुम अभी बालक हो, तुम्हें अभी यह ज्ञात हो नहीं है कि सेवा कैसे करते हैं ? बालक बोला-मां! तुम बताओ सेवा Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =६८५ कैसे करते हैं? मां ने कहा-विनय करके। वह बोला विनय क्या होता है? उसने बताया-बड़ों को प्रणाम करना, नीचे झुकना और दूसरों के अभिप्राय अनुसार चलना। पुत्र ने मां के वचनों को स्वीकार किया और वहां से प्रस्थान कर दिया। रास्ते में उसने देखा, कुछ शिकारी ओट में छुपे हुए हैं। वे मृगों को मारना चाहते थे। इतने में वह बालक जोर से बोला-प्रणाम! उसकी आवाज सुनकर मृग जंगल में भाग गए। शिकारियों ने उसे पकड़ा और पीटने लगे। वह बोला-मुझे मत मारो, मुझे ऐसा ही बताया था कि बड़ों को प्रणाम करना। यथार्थ जानकर उसे छोड़ दिया। उससे कहा कभी ऐसा काम पड़े तब धीरे-धीरे जाकर प्रणाम करना, आवाज नहीं करना। वह आगे चला। रास्ते में धोबी कपड़े धो रहे थे। उनके कपड़े अनेक दिनों से गायब हो रहे थे। वे बहुत चिन्तित थे। उन्होंने सोचा-आज ध्यान रखेंगे कौन कपड़े चुराता है ? वह धीरे-धीरे चलकर उनके पास जाने लगा। धोबियों ने देखा और सोचा यही चोर होना चाहिए। उसे पकड़ा और पीटने लगे। वह बोला-'मेरा दोष नहीं है। मुझे ऐसा ही बताया था।' उसकी स्थिति जानकर उसे छोड़ दिया। फिर कहा-'अब कभी ऐसा देखो तो कहना (वस्त्र का) पानी झर जाए, साफ हो जाए (शुद्ध हो, रिक्त हो)।' वहां से आगे बढ़ा। किसान बीज बो रहे थे। उसने देखा और कहा-रिक्त हो, शुद्ध हो। किसान ने सुना और सोचा, ये दुष्ट ऐसा क्यों बोल रहा है? उसने भी उसे पकड़ा और पीटने लगा। वह बोला-मुझे मत मारो, मुझे ऐसा ही सिखाया था। यथास्थिति जानकर उसे सिखाया कि अब ऐसे अपशब्द मत बोलना। ऐसा कहना बहुत हो, गाड़ी भर-भर हो। वहां से आगे बढ़ा। लोग शव को श्मशान में ले जा रहे थे। उसने देखा और बोला-ऐसा बहुत हो गाड़ी भरभर हो। लोगों ने सुना और सोचा शोक बेला में ऐसा बोल रहा है? वहां भी वह पीटा गया। उसने सारी बात बता दी। उन्होंने कहा-ऐसे बोलो-ऐसा कार्य कभी मत हो। ऐसे कार्य का सदा वियोग रहे। वहां से आगे बढ़ा। उसने देखा विवाह का आयोजन है। वह बोला-ऐसा कार्य कभी न हो। लोगों ने उसके अशुभ वचन सुनकर उसकी पीटाई की। उसने यथार्थ बात बता दी। लोगों ने उसे शिक्षा देते हुए कहा-कभी ऐसे अवसर देखो तो कहना-ऐसे दृश्य प्रतिदिन हो। बार-बार हों। कुछ और आगे गया। देखा कि राजपुरुष एक कैदी को पकड़ कर ले जा रहे थे। वह बोला-ऐसे दृश्य हमेशा हो। लोगों ने समझाया, ऐसा नहीं बोलना चाहिए। ऐसा कहो-यह बंधन मुक्त हो जाए। ___मार को सहन करते-करते वह नगर के निकट पहुंच गया। एक स्थान पर मित्र गोष्ठी कर रहे थे। उन्हें देखकर बोला-'सब मुक्त हो जाएं। अलग-अलग हो जाएं।' वे सब उसको पीटने लगे। वह रोता हुआ बोला-मुझे मत मारो। मुझे ऐसा ही बताया था। उसे छोड़ दिया। ___ नगर में जाकर वह दंडिकुलपुत्र के पास सेवा के लिए रह गया। एक बार दुर्भिक्षु पड़ा। कुलपुत्र की पत्नी ने खाटी राब रांधी। उसने उससे कहा-'वे लोगों के बीच में बैठे हैं उन्हें बुला लाओ। राब ठंडी हो रही है। वह गया और जोर से बोला-'राब ठंडी हो रही है, चलो, जल्दी चलो।' वह लोगों के बीच लज्जित हो गया। घर जाकर उसने उपालंभ दिया। कभी बुलाना हो तो एकांत में धीरे-से कान में कहना चाहिए। वह बोला-ठीक, आगे से ध्यान रखूगा। कुछ दिन बाद घर पर आग लग गई। कुलपुत्र की पत्नी ने शीघ्र ही कुलपुत्र को बुला लाने के लिए भेजा। वह भाग कर गया और एकांत की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर बाद एकान्त होने पर धीरे से कान में कहा-घर जल रहा है, जल्दी करो। जब वह घर पहुंचा तब तक घर काफी जलकर राख हो गया। उसने कहा-कभी आग लग जाए तो उसे पानी, गोबर, गोरस आदि से बुझाने का प्रयत्न करना चाहिए। यहां तक आने की जरूरत नहीं है। एक दिन कुलपुत्र गर्म पानी से स्नान कर धूपित हुआ। उसने देखा-धूआं निकल रहा है। उसने तत्काल गोबर, गोमूत्र आदि लाकर उस पर फेंका। कुलपुत्र ने रुष्ट होकर उसे निकाल दिया। जो दूसरों को कहने योग्य को अन्यथा कहता है, वह अननुयोग है, सम्यक् बात कहना अनुयोग है। गा. १७१ वृ. पृ. ५३ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ = बृहत्कल्पभाष्यम् ८. श्रावक भार्या एक श्रावक किसी स्त्री के रूप में आसक्त हो गया। पत्नी ने पूछा-आप उदास क्यों है? उसने सारी बात कह दी। वह बोली-आप चिन्ता न करें संध्या के समय उसे ले आऊंगी। पति आश्वस्त हो गया। वह उस स्त्री के घर गई। उसके कपड़े और आभूषण ले आई। सायं उसने स्वयं उन वस्त्रों को धारण किया। आभूषण पहनें। अब वह उस स्त्री की भांति दिखाई देने लगी। अंधकार हो गया। उसने उसके साथ भोग भोगा। दूसरे दिन उसे पश्चात्ताप हुआ। उसने अपनी पत्नी से कहा-'मेरा व्रत खंडित हो गया।' वह बोली-नहीं, आपका व्रत खंडित नहीं हुआ। वह स्त्री मैं ही थी दूसरी नहीं। उसने विश्वास दिलाया। गा. १७२ वृ. पृ. ५४ ९. साप्तपदिक किसी सीमान्त गांव में एक व्यक्ति था, जो किसी साधु और ब्राह्मण को न सुनता और न उनकी सेवा करता और न उनको आवास स्थान ही देता था। वह मानता था कि उनको सम्मान देने से वे मेरे घर आयेंगे, मुझे धर्म की बात कहेंगे। उनकी बात सुनकर मैं श्रद्धालु न हो जाऊं, अतः अच्छा है मैं उनसे दूर ही रहूं। एक बार उस गांव में साधु आ गए। उन्होंने रहने के लिए स्थान मांगा। उस के मित्रों ने सोचा कि वह स्थान नहीं देता। वह भी इन साधुओं से छला जाए, ऐसा सोचकर उन्होंने साधुओं को उसका घर बताते हुए कहा-'वह आपको स्थान अवश्य देगा क्योंकि वह तुम्हारा भक्त श्रावक है।' साधु वहां गए। उन्होंने स्थान के लिए पूछा। परन्तु उसने साधुओं को कोई आदर नहीं दिया। तब एक साधु ने कहा-'हम कहीं दूसरे के घर तो नहीं आ गए। हमें तो कहा या था कि वह श्रावक ऐसा है, वैसा है। हम तो ठगे गए।' यह सुनकर उस व्यक्ति ने सारी बात पूछी। उत्तर देते हुए मुनि ने कहा-'अभी एक व्यक्ति ने आपके विषय में बहुत कुछ बताया था। इसलिए हम यहां आए हैं।' यह सुनकर उसने सोचा-'अकार्य हो गया। मैं भले ही ठगा जाऊं, पर साधुओं की कैसी प्रवंचना ?' उसने मुनियों से कहा-'मैं आपको स्थान दे सकता हूं, परन्तु आपको एक व्यवस्था रखनी होगी कि आप मुझे कभी धर्म का उपदेश नहीं देंगे।' साधुओं ने कहा-ठीक है। उसने रहने के लिए साधुओं को स्थान दे दिया। चातुर्मास प्रारंभ हुआ। वर्षावास संपन्न होने पर उस व्यक्ति ने धर्म पूछा। मुनियों ने धर्मवार्ता सुनाई। वह परित्याग करने में समर्थ नहीं हुआ। न वह मूलगुण-उत्तरगुण विषयक व्रत लेना चाहता था न मद्य-मांस और मधु की विरति ही करना चाहता था। तब मुनि बोले-'तुम साप्तपदिक व्रत ग्रहण करो अर्थात् जिसको तुम मारना चाहो, उसे मारने से पूर्व सात कदम पीछे हटने में जितना समय लगे उतने समय की प्रतीक्षा करना। यह व्रत उसने स्वीकार कर लिया। साधुओं ने जान लिया कि यह एक न एक दिन संबुद्ध होगा। साधु वहां से अन्यत्र चले गए। एक बार वह चोरी करने घर से निकला। मार्ग में अपशकुन हो जाने के कारण वह वापस घर की ओर लौटा। चलते-चलते वह रात्रि में घर आया और मंद गति से घर में प्रवेश किया। उस दिन उसकी बहन वहां आई थी। वह पुरुषवेश में भाभी के साथ नृत्य देखने गई थी। देर रात से घर आने के कारण वह उसी वेश में भाभी के साथ सो गई। चोर घर पहुंचा और उसने देखा कि उसकी पत्नी किसी पर-पुरुष के साथ सो रही है। वह क्रोधित हो गया और मारने के लिए तलवार निकाली। इतने में ही गृहीत व्रत की स्मृति हो आई। सात कदम पीछे हटने जितने समय तक प्रतीक्षा की। इतने में ही बहिन की बाहु पर पत्नी का सिर आक्रान्त हुआ। बहिन की नींद उड़ गई। वह बोली-भाभी मेरी भुजा दुःखने लगी है, अतः तुम अपना सिर उठाओ। उसने अपनी बहिन का स्वर पहचान लिया। वह मन ही मन लज्जित हुआ और सोचने लगा कि मैंने पुरुषवेश में इसे पर-पुरुष मान लिया। यदि व्रत नहीं होता तो आज अनर्थ हो जाता। प्रतीक्षा करने के कारण अकरणीय से बच गया। वह संबुद्ध हो गया। उसकी ज्ञान चेतना जाग गई। पुनः मुनि को ढूंढ कर धर्म सुना और फिर उन्हीं के पास प्रवजित हो गया। गा. १७२ वृ. पृ. ५५ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट ६८७ १०. कोंकणक देश का बालक कोंकणक देश में एक बालक था। उसके मां की मृत्यु हो गई। पिता ने बालक के कारण दूसरी शादी नहीं की। बालक के कारण कोई लड़की उससे शादी करना नहीं चाहती थी। एक दिन पिता-पुत्र दोनों काष्ठ लाने जंगल में गए। पिता ने सोचा-मुझे पुत्र के कारण कोई योग्य स्त्री नहीं मिल रही है। तो मुझे इसे मार देना चाहिए। यह सोच पिता ने बाण को दूर फेंका और पुत्र से कहा-'बाण लाओ।' वह दौड़ा। पिता ने पीछे से बाण फेंका और वह घायल हो गया। रोता हुआ बोला-मैं बाण से घायल हो गया। इतने में दूसरा बाण फेंका और वह मर गया। गा. १७२ वृ. पृ. ५५ ११. नेवला एक गांव में एक लुटेरा रहता था। उसकी पत्नी गर्भवती हुई। उसके घर में मादा नेवला थी। संयोग से लुटेरे की पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया और उसी दिन मादा नेवले ने प्रसव किया। लुटेरे की पत्नी ने सोचा कि यह नेवला मेरे पुत्र के मनोरंजन के लिए ठीक रहेगा। वह उसे दूध पिलाती, खाद्य पदार्थ भी देती। एक दिन वह बच्चे को मञ्चिका पर सुलाकर स्वयं धान्य कूटने के लिए बाहर गई। तभी एक सांप आया और मंचिका पर सोए हुए बालक को डस दिया। उसी समय बालक मर गया। नेवले ने सांप को मंचिका से उतरते हुए देखा तो उसने सांप के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रक्त से लिप्स मुंह से लुटेरे की पत्नी के पास जाकर चरणों में लुटने लगा। उसने रक्त लिप्त मुंह देखा तो सोचा इसने मेरे पुत्र को मार दिया। तब आवेश में मूसल से उस पर प्रहार किया और वह भी मर गया। वह भागती हुई घर में गई और देखा बच्चा मरा पड़ा है। पास में सांप के टुकड़े-टुकड़े पड़े हैं। सच्चाई को समझकर वह पश्चात्ताप करने लगी। गा. १७२ वृ. पृ. ५६ १२. कमलामेला द्वारिका में बलदेव का पुत्र सागरचन्द्र था। वह अत्यन्त रूपवान् था। सबके लिए इष्ट था। उसी नगरी के राजा की कन्या कमलामेला बहुत सुन्दर थी। उसका वाग्दान महाराज उग्रसेन के पोते धनदेव के साथ हुआ। एक दिन नारद सागरचन्द्र के पास आए। सागर ने उसका स्वागत किया और आसन प्रदान कर पूछा-'भगवन् ! कहीं आपने कुछ आश्चर्य देखा? नारद बोले-हां देखा है। 'कहां और कैसा आश्चर्य देखा'-सागर ने पूछा। नारद बोले-यहीं द्वारिका नगरी में कमलामेला कन्या एक आश्चर्य है? सागर ने पूछा क्या उसका वाग्दान हो चुका है? हां, नारद ने कहा। किसके साथ ? नारद ने बताया-उग्रसेन के पौत्र धनदेव के साथ। सागर बोला-क्या मेरा और उसका संबंध हो सकता है? वे बोले-मैं नहीं जानता। ऐसा कहकर नारद ऋषि चले गए। सागर नारद का कथन सुनकर खिन्न हो गया। वह न शांति से बैठ सकता था और न सो सकता था। अब वह एक फलक पर कमलामेला का काल्पनिक चित्र बनाकर उसके नाम की रटन लगाने लगा। इधर नारद कमलामेला के पास पहुंचा। उसने भी पूछा-'भंते! क्या आपने कोई नया आश्चर्य देखा?' नारद बोले-हां, दो आश्चर्य देखे हैं। रूप में बलदेवपुत्र सागरचन्द्र और विरूपता में उग्रसेन पौत्र धनदेव। यह सुन वह सागरचन्द्र के प्रति अनुरक्त हो गई और धनदेव के प्रति विरक्त हो गई। उसने नारद से पूछा-क्या सागरचन्द्र मेरा पति हो सकता है ? नारद ने उसे आश्वासन दिया कि मैं तुम्हारे साथ उसका संयोग कराऊंगा। वहां से नारद चलकर सागरचन्द्र के पास आए और कहा कमलामेला तुम्हें चाहती है। तुम्हारे प्रति अनुरक्त है। सागरचन्द्र विक्षिप्त हो गया। तब उसकी माता तथा अन्यकुमार खिन्न हो गए। तभी शांब आया। उसने देखा सागरचन्द्र विलाप कर रहा है। तब शांब ने उसके पीछे जाकर उसकी दोनों आंखें अपनी हथेलियों से ढक दी। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८= = बृहत्कल्पभाष्यम् सागरचन्द्र बोला-कमलामेला! शांब ने कहा-मैं कमलामेला नहीं, कमलामेल हूं। सागरचन्द्र बोला-अच्छा अब तुम ही मुझे मिलाओगे। तब अन्य कुमारों ने शांब को मद्य पिलाया। वह मदिरा से मत्त हो गया तब उससे यह स्वीकृति ले ली कि वह कमलामेला से सागरचन्द्र को मिला देगा। शांब का नशा उतरा तब उसने सोचा-ओह! मैंने झूठा वादा कर लिया। क्या अब इससे इन्कार कर सकता हूं? अब तो मुझे इसका निर्वाह करना होगा। शांब ने प्रद्युम्न से प्रज्ञप्ति विद्या की मांग की। उसने विद्या दे दी। कमलामेला के विवाह के दिन अपनी विद्या से उसने कमलामेला का प्रतिरूप बनाकर रख दिया और कमलामेला का अपहरण कर रेवती उद्यान में ले आया। वहां दोनों का विवाह हो गया। सागरचन्द्र और कमलामेला दोनों क्रीड़ा रत हो गए। इधर विद्या से बनी कमलामेला की प्रतिकृति विवाह होने पर अट्टहास करती हुई आकाश में उड़ गई। यह देखकर सभी क्षुब्ध हो गए। कमलामेला का अपहरण किसने किया? यह कोई नहीं जानता था। इतने में नारद ऋषि आए। उनसे पूछा तो वे बोले-'मैंने उसे रेवती उद्यान में देखा है। किसी विद्याधर ने अपहरण किया है।' सेना लेकर कृष्ण वहां पहुंचे। शांब विद्याधर का रूप बना कर युद्ध करने लगा। सारे राजाओं को पराजित कर दिया। तब स्वयं कृष्ण युद्ध के लिए तत्पर हो गए। शांब ने सोचा पिताश्री रुष्ट न हो जाए। वह उनके चरणों में गिर गया। कृष्ण ने आलिंगन किया। शांब बोला-मैंने इसे गवाक्ष से आत्महत्या करती हुई देखा अतः अपहरण किया। कृष्ण ने उग्रसेन को समझाया। वे भोग भोगते हुए समय व्यतीत कर रहे थे। उन्हीं दिनों भगवान् अरिष्टनेमि पधारे। सागरचन्द्र और कमलामेला ने भगवान् के पास धर्म सुनकर अणुव्रत स्वीकार किया। सागरचन्द्र अष्टमी, चतुर्दशी को शून्यघर या श्मशान में एक रात्रि की प्रतिमा करने लगा। यह बात धनदेव को ज्ञात हुई। उसने ताम्बे की तीक्ष्ण सुइयों का निर्माण करवाया। शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित सागरचन्द्र की बीसों अंगुलियों, नखों में सुइयां ठोक दीं। उसने वेदना को समभाव से सहन किया। वह मरकर देवरूप में उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन मृत्यु के कारणों की खोज की। खोजते हुए सागरचन्द्र के बीसों अंगुलियों के नखों में तांबे की सुइयां देखी। ताम्बे कूटने वाले से ज्ञात हुआ कि सुइयां धनदेव ने बनवाई थी। उसकी खोज करवाई। दोनों सेना में युद्ध प्रारंभ हुआ। तब सागरचन्द्र देव ने दोनों को उपशांत किया। कमलामेला ने भगवान के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। गा. १७२ वृ. पृ. ५६ १३. शाम्ब का साहस जाम्बवती ने कृष्ण से कहा-मैंने मेरे पुत्र शाम्ब का आचरण गलत नहीं देखा। कृष्ण ने कहा-मैं तुम्हें आज उसके आचरण को दिखाऊंगा। जाम्बवती ने आभीरी और कृष्ण ने आभीर का रूप बनाया। दोनों द्वारिका में छाछ बेचने निकले। शाम्ब ने आभीरी को देखा और बोला-आओ, मैं छाछ खरीदूंगा। आभीरी उसके पीछे-पीछे चलने लगी। शाम्ब ने एक देवकुल में प्रवेश किया। आभीरी को भी अन्दर आने का आग्रह करने लगा। उसने कहा-मैं अन्दर नहीं आऊंगी। तुम छाछ लो और मूल्य दे दो। आभीरी ने जब अन्दर जाने से आनाकानी की तो शाम्ब उसका हाथ पकड़ खींचने लगा। इतने में दौड़ता हुआ आभीर वहां आ गया। वह शाम्ब के साथ युद्ध करने लगा। अन्त में आभीर कृष्ण के रूप में और आभीरी जाम्बवती के रूप में प्रगट हो गई। यह देख शाम्ब लज्जा से मुंह छिपाकर भाग गया। दूसरे दिन शाम्ब कीलों का निर्माण कर रहा था। वासुदेव ने पूछा-क्या कर रहे हो? वह बोला कीलें बना रहा हूं। कल की घटना के विषय में यदि कोई कुछ कहेगा तो मैं उसके मुंह में कील ठोक दूंगा। गा. १७२ वृ. पृ. ५७ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट = =६८९ १४. श्रेणिक राजगृह में राजा श्रेणिक राज्य कर रहा था। उसकी रानी का नाम चेलना था। एक बार भगवान् महावीर राजगृह पधारे। राजा श्रेणिक और रानी चेलना वंदना कर विकाल वेला में लौट रहे थे। माघ मास का समय था। उसने रास्ते में एक प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि को देखा। उस रात्रि में रानी चेलना का हाथ रजाई से बाहर आ गया। ठंड बढ़ी, उसका हाथ सुन्न हो गया। वह जाग गई, तब उसने अपना हाथ भीतर खींच लिया। हाथ के कारण पूरा शरीर ठंड से कांपने लगा। तब उसके मुंह से निकला-वह क्या करता होगा? श्रेणिक ने यह वाक्य सुना और वह सोचने लगा कि यह रानी द्वारा सांकेतिक पर पुरुष है। राजा रुष्ट हो गया। दूसरे दिन उसने अभय से कहा-अन्तःपुर को शीघ्र जला दो। आज्ञा देकर श्रेणिक भगवान् के पास गया। अभय ने पुरानी हस्तिशाला में आग लगा दी। श्रेणिक ने भगवान् से पूछा-भंते! चेलना एक पति वाली है या अनेक पति वाली। भगवान् बोले-एक पति वाली। यह सुनते ही श्रेणिक शान्त हुआ। अभय अन्तःपुर न जला दे, इसलिए शीघ्रता से वंदना कर महल की ओर लौटा। अभय मार्ग में ही मिल गया। श्रेणिक ने पूछा-क्या आग लगा दी? वह बोला-हां! तब श्रेणिक ने व्याकुल होकर कहा-तुम अग्नि में प्रविष्ट क्यों नहीं हो गए ? अभय बोला राजन्! मैं क्यों आग में प्रवेश करूं? मुझे तो दीक्षा ग्रहण करनी है। आप अनुमति प्रदान करें। श्रेणिक ने कहा ठीक है ले लो दीक्षा। फिर अभय बोला-राजन् ! अन्तःपुर नहीं जलाया, पुरानी हस्तिशाला जलाई है। तब श्रेणिक शान्त हुआ। गा. १७२ वृ. पृ. ५७ १५. उंडिका पत्रक . राजा की सेवा में तीन व्यक्ति थे। राजा उनकी सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ। राजा ने प्रत्येक को एक-एक गांव की बख्शीस की। उनमें से एक व्यक्ति नगर के राजपुरुष के पास गया, मुद्रा रहित पत्र उसे दिखाया। दूसरा व्यक्ति पत्र लेकर गया किन्तु उस पर केवल मुद्रा थी। तीसरा व्यक्ति मुद्रा सहित पत्र ले गया। जिसमें गांव दिए जाने का निर्देश भी था। राजपुरुष ने तीनों के पत्र देखे। पहले व्यक्ति से कहा तुम्हारे पास पत्र है किन्तु इस पर मुद्रा नहीं है, अतः मैं तुम्हें गांव नहीं दे सकता। दूसरे से कहा-इस पत्र पर केवल मुद्रा है किन्तु इस पर लिखा हुआ कुछ नहीं है? अतः मैं तुम्हें भी कुछ नहीं दे सकता। तीसरे से कहा-इस पत्र पर मुद्रा भी है और निर्देश भी। इसलिए मैं तुम्हें गांव दे सकता हूं। गा. १९५ वृ. पृ. ६३ १६. चार मंखपुत्र चार मंख थे। उनमें से एक मंख फलक लेकर गांव में घूमता। न गाथा का उच्चारण करता और न अर्थ का कथन करता। उसे कुछ प्राप्त नहीं हुआ। दूसरा न फलक ग्रहण करता और न अर्थ का कथन करता, केवल पाठ का उच्चारण करता। वह भी लाभ प्राप्त नहीं कर सका। तीसरे मंख ने न फलक ग्रहण किया, न गाथा का उच्चारण किया और केवल अर्थ का कथन करता। वह भी लाभ से वंचित रहा। चौथे मंख ने फलक ग्रहण किया व गाथा का और अर्थ का उच्चारण भी करता। उसे लाभ प्राप्त होता था। पहले तीन मंख अपने कुटुम्ब का पोषण नहीं कर सके। केवल चौथा मंख ही अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करने में समर्थ हुआ। गा. २०० वृ. पृ. ६५ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० १७. कालकाचार्य एक बार विहरण करते हुए आचार्य कालक का पदार्पण अवन्ति में हुआ। उस समय वे वृद्धावस्था में थे और अपने शिष्य वर्ग को अत्यंत जागरुकता के साथ आगम वाचना देते थे। उनके जैसा उत्साह उनके शिष्य वर्ग में नहीं था। सभी शिष्य आगम-वाचना ग्रहण करने में अत्यंत उदासीन थे। अपने शिष्यों के इस प्रमादयुक्त व्यवहार से आचार्य कालक खिन्न हो गए। वे उनको शिक्षा देने की दृष्टि से शय्यातर के पास जाकर बोले- 'मैं अपने अविनीत शिष्यों को छोड़कर, इन्हें बिना सूचित किए सुवर्णभूमि में स्थित आर्य सागर के पास जा रहा हूं। किन्तु मेरे चले जाने की सूचना उन्हें मत देना । वे आग्रह पूर्वक पूछे तब सरोष स्वरों में बताना।' शय्यातर को अच्छी तरह समझाकर गुप्त रूप से उन्होंने वहां से विहार कर दिया । बृहत्कल्पभाष्यम् वे सुदूर सुवर्णभूमि में आर्य सागर के पास पहुंचे आगम वाचनारत आर्य सागर ने उन्हें सामान्य वृद्ध साधु जानकर अभ्युत्थान आदि द्वारा उनका आदर नहीं किया। अर्थपौरुषी के समय आर्य सागर ने अपने सम्मुख बैठे हुए उस वृद्ध साधु से पूछा- वृद्ध ! मेरा कथन समझ में आ रहा है? आचार्य कालक ने हां कहकर स्वीकृति दी । आर्य सागर सगर्व बोले- वृद्ध ! एकाग्रता से सुनो। वे गंभीर मुद्रा में बैठ गए। आर्य सागर अनुयोग देने में प्रवृत्त हुए । उधर अवन्ति में आचार्य कालक के शिष्यों ने देखा उनके बीच आचार्य नहीं है। उन्होंने इधर-उधर खोज की पर वे नहीं मिले। तब शिष्यों ने शय्यातर से पूछा- आचार्य कहां गए? आग्रहपूर्वक पूछने पर कठोर शब्दों में शिष्यों से कहा- आप जैसे अविनीत शिष्यों की अनुयोग ग्रहण करने में आलस्य के कारण खेदखिन्न हुए आचार्य कालक सुवर्णभूमि में आर्य सागर के पास गए हैं। शय्यातर के कटु उपालम्भ से लज्जित, उदासीन शिष्यों ने तत्काल वहां से सुवर्णभूमि की ओर विहार कर दिया। विशाल श्रमणसंघ को विहार करते देख लोग प्रश्न करते कौन से आचार्य जा रहे हैं ? शिष्य कहते - आचार्य कालक । श्रावकवर्ग ने आर्य सागर से निवेदन किया-विशाल परिवारसहित आचार्य कालक पधार रहे हैं। अपने दादा गुरु के आगमन की बात सुनकर उन्हें अत्यंत प्रसन्नता हुई । पुलकित होकर आर्य सागर ने अपने शिष्यों को दादा गुरु के आगमन की सूचना दी और कहा- मैं उनसे गंभीर प्रश्न पूछकर समाहित हो जाऊंगा। शीघ्र गति से चलते हुए आचार्य कालक के शिष्य सुवर्णभूमि में पहुंचे और आर्य सागर के अग्रवर्ती शिष्यों से पूछा- आचार्य कालक यहां पधारे हुए हैं? उत्तर मिला एक वृद्ध श्रमण के अतिरिक्त यहां कोई नहीं आया। कौन वृद्ध ? तत्पश्चात् नवागंतुक श्रमणसंघ द्वारा अभिवंदित होते देखकर आर्य सागर ने अपने दादा गुरु आचार्य कालक को पहचाना। उन्हें अपने द्वारा कृत अविनय के कारण लज्जा की अनुभूति हुई । आर्य सागर ने कहा- मैंने बहुत प्रलाप किया है, वंदना करवा कर क्षमाश्रमण की आशातना की है, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो, फिर विनम्र स्वरों में पूछा - क्षमाश्रमण। क्या मैं अनुयोग वाचना उचित प्रकार से दे रहा था? आचार्य कालक ने धूलिपुंज के उपमा से बताया तुम्हारा अनुयोग सम्यक् है पर गर्व मत करना। ज्ञान अनन्त है जैसे मुष्टि-भर धूलि राशि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर एवं दूसरे स्थान से तीसरे स्थान पर रखते-रखते समय वह न्यून से न्यूनतर होती जाती है, वैसे ही तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित अर्थ गणधरों को, गणधरों से आचार्य परम्परा को यावत् हम आचार्यो - उपाध्यायों को प्राप्त हुआ है। कौन जाने किस अनुयोग के कितने पर्याय गलित हो गए ? अतः गर्व मत करना। आर्य सागर ने कहा- मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । तब आचार्य कालक शिष्य-प्रशिष्यों को अनुयोग देने से प्रवृत्त हुए। गा. २३९ वृ. पृ. ७३ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट १८. गणिका एक गणिका चौसठ कलाओं में प्रवीण थी। आगंतुकों का अभिप्राय जानने के लिए उसने अपनी चित्रसभा में मनुष्य जाति के जातिकर्म शिल्प, कुपित-प्रसादन आदि से संबंधित अपने-अपने व्यापार में प्रवृत्त व्यक्तियों के चित्र आलेखित करवाए। जो कोई व्यक्ति वहां आता, अपने व्यापार की प्रशंसा करता, अच्छे-बुरे चित्र की समीक्षा करता, उसके आधार पर वह अंकन कर लेती कि कौन व्यक्ति किस श्रेणी का है, कैसे स्वभाव वाला है और फिर उसके प्रति अनुकूल आचरण कर उसे प्रसन्न कर पर्याप्त धन प्राप्त कर लेती। गा. २६२ वृ. पृ. ८० १९. ब्राह्मणी एक ब्राह्मणी थी। वह चाहती थी कि विवाह के बाद मेरी तीनों पुत्रियां सुखी रहें। ऐसी व्यवस्था करने के लिए उसने अपनी पुत्रियों से कहा-आज तुम पहली बार ससुराल जा रही हो। जब तुम्हारा पति घर में आए तो कोई गलती बताकर उसके सिर पर अपनी एड़ी से प्रहार करना फिर उसकी प्रतिक्रिया मुझे बताना। पहली पुत्री ने अपने पति के सिर पर पाद प्रहार किया। पति ने उसके पांव को सहलाते हुए कहा-'मेरे कठोर सिर से तुम्हारे कोमल पांव में पीड़ा तो नहीं हुई ?' इस घटना चक्र को सुनकर मां ने कहा-'बेटी! वह दास बनकर रहेगा।' दूसरी पुत्री ने प्रहार किया तो उसका पति थोड़ा सा गुस्सा कर शान्त हो गया। इस स्थिति को सुनकर मां ने कहा-'तुम भी थोड़ी सी सावधानी के साथ इच्छानुसार घर में रहो।' ___ तीसरी पुत्री के पति आहत होने पर रुष्ट हो गया, उसे पीटा और उठकर चला गया। इस घटना चक्र को सुनकर मां ने कहा-'बेटी! यह उत्तम है। तुम जागरुकता से देवता की भांति उसकी सेवा करो।' यह निर्देश देकर मां जामाता के पास गई और बोली-'यह हमारी कुल की परम्परा है, अन्यथा वह तुम्हारे प्रति ऐसा व्यवहार कैसे कर सकती है?' ऐसा कहकर उसे प्रसन्न किया। गा. २६२ वृ. पृ. ८० २०. अमात्य एक राजा शिकार के लिए जा रहा था। रास्ते में अश्व ने प्रस्रवण किया। लौटते समय राजा ने उस स्थान को देखा, वहां प्रस्रवण सुखा नहीं स्थिर हो गया। राजा के मन में आया, यहां तालाब हो तो अच्छा रहे। मंत्री ने राजा के अन्तर्मन की बात जान ली और वहां तालाब खुदवा दिया। तट पर वृक्ष लगा दिए। एक दिन राजा उधर से गुजरा, वहां तालाब देख कर मंत्री से पूछा-यह तालाब किसका है? मंत्री ने कहा-आपका। राजा ने कहा-कैसे? मंत्री ने उस दिन की सारी बात बताई। राजा मंत्री पर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसका वेतन बढ़ा दिया। गा. २६२ वृ. पृ.८० २१. स्त्री एक स्त्री का पुत्र बीमार था। वह वैद्य के पास गई, औषधी ले आई। उसने सोचा औषधी कड़वी व तिक्त है अतः पुत्र को पीड़ा न हो। यह सोचकर उसने आधी मात्रा में पुत्र को औषधी दी। वह स्वस्थ नहीं हुआ और मर गया। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२= = बृहत्कल्पभाष्यम् एक स्त्री का पुत्र बीमार हुआ। वह वैद्य के पास गई। औषधी लाई और यह सोचकर कि पुत्र जल्दी स्वस्थ हो जाए अतः उसने अधिक मात्रा में पुत्र को औषधी दे दी। वह स्वस्थ नहीं हुआ अपितु मर गया। गा. २८९ वृ. पृ. ८७ २२. अभय एक बार भगवान् राजगृह नगर में समवसृत हुए। वहां एक विद्याधर भगवान को वंदना करने आया। वह वंदना कर लौटने लगा तब विद्या के कुछ अक्षर भूल गया। जैसे ही वह ऊपर उठने का प्रयत्न करता वह नीचे आ जाता। तब अभय को लगा कि विद्याधर ऊपर उठने वाली विद्या के कुछ अक्षर भूल रहा है। अभय ने उसकी इस स्थिति को देखा। उसके पास गया और पूछा क्या हुआ? उसने कहा-मैं विद्या के कुछ अक्षर भूल रहा हूं इसलिए ऊपर नहीं उठ सकता। अभय ने कहा तुम मुझे एक पद बता दो मैं तुम्हें पूरी विद्या बता सकता हूं। उसने एक पद सुनाया, तब पदानुसारिणी लब्धिसम्पन्न अभय ने उसे पूरा पद्य बता दिया। वह अपने स्थान पर चला गया। गा. २९१ वृ. पृ. ८८ २३. अशोक और कोणिक पाटलीपुत्र के राजा अशोक का एक पुत्र कुणाल था। उसे बचपन में ही अवन्ति का राज्य दे दिया गया। अशोक से निवेदन किया कि कुमार अध्ययन के योग्य हो गया है। राजा ने पत्र लिखा-कुमारं अधीयताम्। राजा के पास कुणाल की विमाता बैठी थी। उसने राजा से पत्र मांगा और अपने चातुर्य से शलाका के द्वारा अञ्जन से अकार पर अनुस्वार कर दिया। अधीयताम् की जगह अंधीयताम् हो गया। पुनः राजा को पत्र दे दिया। राजा ने पत्र को देखा नहीं। पत्रवाहक के साथ पत्र प्रेषित कर दिया। जब वह वहां पहुंचा तो कुमार ने कहा-लाओ, पत्र में क्या लिखा है ? कुमार ने स्वयं पत्र पढ़ा। पत्र पढ़ते ही कुमार ने चिंतन किया-मैं मौर्यवंश का हूं। इसमें जनमा अप्रतिहत आज्ञा वाला होता है, मैं अप्रतिहत आज्ञा वाला हूं। क्या मैं पिता की आज्ञा का अतिक्रमण करूंगा? नहीं, उसने तत्काल तप्तशलाका ली और आंखों में आंज ली। वह अंधा हो गया। अशोक को ज्ञात हुआ तो वह बहुत दुःखी हुआ। उसने अवन्ति का राज्य कुमार को दे दिया तथा कुणाल को अन्य गांव दे दिया। समय व्यतीत हुआ। कुणाल की पत्नी गर्भवती हुई। उसने पुत्र को जन्म दिया। कुणाल गन्धर्वगान में अति निपुण था। एक बार अशोक की नगरी में मधुर गीत गाता हुआ घूम रहा था। उसके मधुर गीत सुनकर अशोक ने गीत सुनने के लिए उसे बुलवाया वह वहां आया और परदे के पीछे रहकर गीत गाने लगा। राजा गीत सुनकर बहुत आकृष्ट हुआ। राजा ने कहा-मांगों क्या चाहते हो? कुणाल बोला-एक काकिणी। राजा ने कहा बस इतना ही। तुम्हारा परिचय क्या है? वह बोला-मैं चन्द्रगुप्त का प्रपौत्र बिन्दुसार का पौत्र और अशोक का पुत्र हूं। राजा ने तत्काल परदा हटवाया और कुणाल को गले लगा लिया। आंखों से अश्रुधारा बह चली। अशोक ने कहा-तुम क्या चाहते हो? कुणाल बोला-मैं एक काकिणी की याचना करता हूं। उसी वक्त अमात्य बोला-राजन्! राजपुत्र के लिए राज्य ही काकिणी है। राजा ने कहा-तुम देख नहीं सकते हो, राज्य का क्या करोगे? कुणाल ने निवेदन किया-मेरे अभी पुत्र जन्मा है उसका नाम संप्रति कर दिया। अशोक ने उसे राज्य दे दिया। गा. २९२-२९४ वृ. पृ. ८९ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट = २४. वानर कामिक सरोवर में तट पर एक विशाल काय अशोक वृक्ष था। उस वृक्ष की विशेषता थी कि उस वृक्ष से जो भी सरोवर में छलांग लगाता, उसका रूप परिवर्तित हो जाता था। तिर्यंच मनुष्य के रूप में बदल जाता और मनुष्य देव बन जाता। दूसरी बार छलांग लगाने पर वह अपनी मूल स्थिति को प्राप्त हो जाता। एक बार एक वानर युगल वहां पानी पीने आया हुआ था। उसने भी यह बात सुनी लेकिन अधूरी बात सुनी। दोनों ने परस्पर चिंतन कर सरोवर में छलांग लगा दी। गिरते ही दोनों सुन्दर मानव युगल बन गए। वानर के मन में लोभ जाग गया। उसने सोचा-दूसरी बार छलांग लगाऊंगा तो देव बन जाऊंगा। पत्नी के रोकने पर भी वह अपने लोभ का संवरण नहीं कर सका और कूद पड़ा। परिणाम यह आया वह पुनः बन्दर बन गया। इधर बंदरी को रूपवती स्त्री देखकर राजपुरुष पकड़कर ले गए। वह राजा की पत्नी बन गई। उस बंदर को मदारी ले गया। वह उसे खेल सिखाने लगा। एक दिन घूमता हुआ वह उसी नगर में आया। मदारी ने राजा के सामने वानर के करतब दिखाए। वानर ने रानी को देखा और पूर्व प्रेम जागृत हो गया। रानी ने भी बंदर को देखा और वह बोली-वानर! अब जिस स्थिति में हो, उसी का सम्यक् रूप से पालन करो। गा. २९५ वृ. पृ. ८९ २५. खीर एक जुलाहे की पत्नी ने खीर बनाने के लिए दूध को गर्म किया। जैसे-जैसे उबाल आता वैसे-वैसे वह दूध में अन्न डालती गई। मन में यही कल्पना करती रही कि यह खीर ही बनेगी। ऐसा चिंतन करती हुई उसने चवला, तंदुल, मूंग, तिल आदि अनेक प्रकार के धान्य उसमें डाल दिए। सारी वस्तुएं भी नष्ट हो गई और खीर भी नहीं बनी। गा. २९६ वृ. पृ. ९० २६. माला एक आभीरी नगर में अपनी सखी के पास गई। (वह वणिक् की पत्नी थी) वह हार पिरो रही थी। उसने कहा लाओ, मैं पिरो देती हूं। उसने उसे दे दिया। आभीरी ने कभी हार नहीं पिरोया था। अज्ञानतावश उसने हार को व्यवस्थित नहीं पिरोया, वणिक् पत्नि क्रोधित होकर बोली-दुष्टे! तुमने मेरे हार का विनाश कर दिया। यह ठीक नहीं किया। गा. २९६ वृ. पृ. ९० २७. मुद्गशैल एक बार मुद्गशैल और पुष्करावर्त मेघ के परस्पर विवाद हो गया। मुद्गशैल बोला-हे पुष्करावर्त! तुम तिल मात्र भी मुझे खंडित नहीं कर सकते। यदि तिल मात्र भी खंडित करो तो मैं तुम्हें सही रूप में पुष्कपरावर्त मेघ मानूंगा। वह बोला अहंकार मत करो, तुम मेरी एक धार को भी सहन कर सकोगे तो मैं तुम्हें मुद्गशैल मानूंगा। ऐसा कहकर वह मुष्टि प्रमाण धारा से बरसने लगा। लगातार सात दिन-रात तक बरसता रहा। फिर उसने सोचा कि अब तो मुद्गशैल नष्ट हो गया होगा लेकिन निरन्तर जलप्रपात के कारण उस पर जमी धूल आदि के साफ होने से वह ओर ज्यादा चमकने लगा। तिल मात्र भी खंडित नहीं हुआ। पुष्करावर्त मेघ को देखकर वह जोर से बोला-तुमने कहा-उसका क्या हुआ? वह मेघ लज्जित होकर चला गया। गा. ३३४ वृ. पृ. १०१ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ २८. भेरी द्वारिका नगरी में वासुदेव के पास तीन प्रकार प्रकार की भेरियां थीं - कौमुदिकी, सांग्रामिकी और दुर्भूतिकी । तीनों ही गोशीर्ष चन्दनमयी थी और देव परिगृहीत थी। वासुदेव के पास चौथी भेरी थी, जो अशिव का उपशमन करने में समर्थ थी। उसकी प्राप्ति का वृत्तान्त इस प्रकार है बृहत्कल्पभाष्यम् एक बार इन्द्र ने देव सभा में वासुदेव का गुणोत्कीर्तन करते हुए कहा - 'अहो ! कृष्ण सबके गुणों का ग्रहण करते हैं, किसी के अवगुण ग्रहण नहीं करते तथा अधम से युद्ध नहीं करते। देव सभा में उपस्थित एक देव ने इन्द्र के कथन पर विश्वास नहीं किया वह परीक्षा करने वासुदेव के पास आया। उस समय वासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि को वंदना करने के लिए प्रस्थित हो रहे थे। देवता मरे हुए सड़े-गले, दुर्गन्धयुक्त एक काले कुत्ते का रूप बनाकर मार्ग के पास लेट गया। उसकी दुर्गन्ध से पूरे स्कन्धावार ने मार्ग बदल दिया। तब वासुदेव ने पूछा तो बताया गया कि मार्ग के पास दुर्गन्धयुक्त कुत्ते का कलेवर पड़ा है इसलिए अन्य मार्ग से जा रहे हैं। वासुदेव ने मार्ग नहीं छोड़ा, वे उसी मार्ग पर चले । मार्ग में कुत्ते का कलेवर देखकर उन्होंने न मुंह ढंका और न मुंह बिगाड़ा। वे तत्काल बोले-काले वर्ण के कुत्ते पर सफेद वंतपंक्ति कितनी सुन्दर लग रही है। देवता ने सोचा- 'वास्तव में वासुदेव गुणग्राही हैं । ' उस देवता ने वासुदेव के अश्वरत्न का अपहरण कर लिया। शाम्ब आदि अनेक कुमार उसके पीछे दौड़े। देवता ने उन्हें हत-प्रतिहत कर दिया। तब वासुदेव स्वयं अश्वरत्न लेने गए। उस देवता से कहा- तुम अश्व ले जा रहे हो। देव बोला- यदि अश्व लेना चाहते हो तो पहले मुझे पराजित करो बासुदेव बोले-'ठीक है, पर हम युद्ध कैसे करें ? वह बोला 'पुएहिं' पुतयुद्ध । कृष्ण ने कहा- मैं अधम प्रकार का युद्ध नहीं करूंगा। मैं पराजित हुआ, तुम अश्व ले जाओ। देवता संतुष्ट हुआ और बोला- इन्द्र ने सत्य कहा, देव सभा की सारी वार्ता वासुदेव को बताई और वर मांगने को कहा। तब कृष्ण ने अशिवोपशमिनी भेरी मांगी। देवता ने भेरी दे दी। उसने कहा- जहां तक इस भेरी का शब्द सुनाई देगा, वहां तक छह मास तक कोई रोग पैदा नहीं होगा और पूर्व उत्पन्न रोग अतिशीघ्र ही नष्ट हो जायेगा। ऐसा बताकर वह अन्तर्धान हो गया। २९. भेरीपालक एक बार एक महर्द्धिक वणिक् भेरीपालक के पास आया। वह शिरोवेदना से पीड़ित था । वैद्य ने उसे गोशीर्ष चंदन लगाने को कहा। उसने भेरीपालक से कहा तुम बहु मूल्य ले लो और मुझे मेरी का एक टुकड़ा दे दो। उसने लोभ में आकर भेरी का टुकड़ा उसे दे दिया और भेरी के चन्दन का दूसरा टुकड़ा लगा दिया। अनेक बार ऐसे करने से भेरी कंथा बन गई फिर उसे बजाते तो रोग नष्ट नहीं होते। नगर में बहुत लोग रोग से पीड़ित हो गए। कृष्ण ने भेरी बजायी तो उसका शब्द सुनायी नहीं दिया। तब भेरी को देखा कि वह कंथा बनी हुई थी । तब कृष्ण ने सपरिवार भेरीपालक का शिरोच्छेद कर दिया। पुनः तेला कर देवाराधना की और भेरी प्राप्त कर उसकी रक्षा के लिए अन्य निर्लोभी भेरीपालक को रखा। गा. ३५७,३५८ वृ. पृ. १०७ ३०. आभीर दंपति (१) एक आभीर अपनी पत्नी के साथ शकट में घी के घड़े लेकर नगर में बेचने गया । अन्य आभीर भी उसके साथ घी बेचने गए। आभीर गाड़ी के ऊपर और आभीरी गाड़ी के नीचे खड़ी थी। आभीर घी के घड़े उठाकर आभीरी को देता और वह उसे भूमि पर रख देती। लेने या देने में प्रमाद होने पर एक घड़ा हाथ से छूटा और फूट गया। आभीरी बोली- तुमने पहले घड़ा क्यों छोड़ा ? वह बोला- तुमने ठीक से पकड़ा क्यों नहीं ? दोनों एक दूसरे गा. ३५९ वृ. पृ. १०७ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट ६९५ पर दोषारोपण करने लगे। आभीर को गुस्सा आया, वह नीचे उतर कर आभीरी को पीटने लगा। परस्पर लड़ाईझगड़े के कारण बचा हुआ घी बिखर गया। कुछ कुत्ते चाट गए और कुछ जमीन सोख गई। शेष बचे घी को बेचने में ज्यादा परिश्रम करना पड़ा। इधर अन्य आभीर घी बेचकर अपने-अपने गांव की ओर प्रस्थान कर गए। पीछे से यह आभीर अकेले चला, रास्ते में चोरों ने लूट लिया। गा. ३६१ वृ. पृ. १०८ ३१. आभीरी दंपति (२) एक आभीर अपनी पत्नी के साथ शकट में घी के घड़े लेकर नगर में बेचने गया। अन्य आभीर भी उसके साथ घी बेचने गए। आभीर गाड़ी के ऊपर और आभीरी गाड़ी के नीचे खड़ी थी। लेने या देने में प्रमाद हो जाने पर एक घड़ा हाथ से छूटा और फूट गया। आभीरी बोली-दोष मेरा है, तुम्हारा नहीं। मैंने ठीक से पकड़ा नहीं। आभीर बोला-नहीं, नहीं, दोष मेरा है, तेरा नहीं। मैंने ही जल्दी छोड़ दिया। आभीर तत्काल नीचे उतरा। दोनों ने जल्दी-भूमि पर गिरे घीयुक्त मिट्टी को एकत्रित किया। गर्म पानी में उस मिट्टी को डाला। घी ऊपर आ गया और मिट्टी नीचे जम गई। घी इक्कट्ठा किया और बेच दिया। अन्य आभीरों के साथ वे अपने गांव चले गए। चोर भी नहीं मिले और घी का पूरा-पूरा मूल्य आ गया। गा. ३६२ वृ. पृ. १०८ ३२. वैयाकरण एक पुरुष व्याकरण के कुछ सूत्रों को पढ़कर सीमावर्ती गांव में गया। वहां के लोगों से कहा-मैं वैयाकरण हूं। ग्रामीण लोगों ने उसे गांव में रख लिया और अच्छी वृत्ति देने लगे। वह सुखपूर्वक रहने लगा। एक बार अपने शिष्यों सहित एक दूसरा वैयाकरण वहां आया। ग्रामवासियों ने शिष्यों से पूछा-कौन आये हैं? वे बोलेवैयाकरण। ग्रामवासी बोले-हमारे यहां भी एक वैयाकरण है। उसके साथ शब्द संगोष्ठी करो। उन्होंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। सब एकत्रित हो गए। संगोष्ठी प्रारंभ हुई। पहले वैयाकरण ने पूछा-काग किसे कहते हैं ? वह बोला-काक। पूर्व वैयाकरण बोला इसमें व्याकरण की क्या विशेषता है? अन्य लोग भी काक ही कहते हैं। मैं क्रीकाक कहता हूं। ग्रामीण हर्षित हुए और अपने वैयाकरण को उत्कृष्ट माना। उसकी जीत हो गई और आगंतुक वैयाकरण की पराजय हो गई। आगन्तुक वैयाकरण रुष्ट होकर नगर में गया। वहां के भोजिक से सारी बात कही। उसने उस वैयाकरण को बुलाया और उसे तिरस्कृत कर गांव से निष्काशित कर दिया। गा. ३७२ वृ. पृ. ११० ३३. वैद्यपुत्र एक वैद्य राजकुल में सेवा के लिए नियुक्त था। अचानक उसकी मृत्यु हो गई। राजा ने पूछा-क्या वैद्य के कोई पुत्र है ? उत्तर मिला-हां, पर अशिक्षित है। राजा ने निर्देश दिया, उसे विद्या सिखाओ? शिक्षित बनाओ। वह पढ़ने के लिए अन्यत्र गया। वहां किसी वैद्य के पास विद्या सिखना प्रारंभ की। एक बार उसने देखा एक बकरी सामने चर रही थी। उसके गले में ककड़ी फंस गई। बकरी को वैद्य के पास लाया गया। वैद्य ने पूछा-बकरी कहां चर रही थी? उत्तर मिला कि घर के सामने चर रही थी। वैद्य अनुभवी था, उसने सोचा जरूर ककड़ी फंस गई है। उसने वस्त्र से गले को बांधकर खींचा, ककड़ी के टुकड़े हो गए और नीचे उतर गई। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ बृहत्कल्पभाष्यम् वैद्य पुत्र ने यह सब देखा, उसने सोचा- बस ! यही है वैद्य का रहस्य । वह राजा के पास चला गया। राजा ने पूछा- क्या विद्या पूर्ण हो गई। वह बोला- हां ! राजा ने सोचा- अतिशीघ्र ही इसने आयुर्वेद सीख ली। लगता है यह बहुत मेधावी है। राजा ने उसका सम्मान किया। एक दिन महारानी के गले में गांठ हो गई। वैद्य को बुलाया गया। उसने रानी को देखा और पूछा कहां चर रही थी ? कोई बोला - पुरोहड़ में। राजा ने सोचा- यह कोई वैद्य का रहस्य होगा। वैद्य ने रानी के गले को साड़ी से आवेष्टित कर खींचा। रानी मर गई। बाद में राजा ने अन्य वैद्यों को बुलवाया और पूछा, उन्होंने कहा- 'शास्त्रों में ऐसी कोई विद्या नहीं है।' राजा ने यथार्थ जानकर उसे दंडित किया। ३४. वाचक और उत्सारकल्पिक वाचक एक वाचक आचार्य एक नगर में आए। उनके साथ अनेक शिष्य थे। नगरवासी अत्यंत प्रमुदित हुए। आचार्य के प्रवचनों से सारा नगर आनन्द विभोर हो उठा। अन्ययूथिक निर्ग्रथ प्रवचन की प्रशंसा सुनकर बौखला गए । उन्होंने आचार्य के साथ वादगोष्ठी का आयोजन किया। बाद में आचार्य की जीत हुई और अब नगर में उनकी कीर्ति अत्यधिकरूप से फैली। अन्ययूथिकों के मन में ईर्ष्या और जलन उत्पन्न हो गई। वे अवसर की प्रतीक्षा में थे। वाचक आचार्य वहां से विहार कर अन्यत्र चले गए। गा. ३७६ वृ. पृ. १९१ एक बार उसी नगर में उत्सारकल्पिक वाचक आए। श्रावक प्रमुदित हुए। अन्ययूथिकों ने उनके साथ वादगोष्ठी स्थापित करने से पूर्व एक व्यक्ति को समागत वाचक के ज्ञान की परीक्षा करने भेजा। उसने वहां जाकर बाचक से पूछा- भंते! परमाणु पुद्गल के कितनी इन्द्रियां होती हैं? वाचक ने सोचा- परमाणु पुद्गल एक समय जितने काल में लोक के चरमान्त तक पहुंच जाता है। तो निश्चित ही वह पांच इन्द्रियों वाला होना चाहिए। उसने तत्काल कहा- परमाणु पुद्गल के पांच इन्द्रियां होती हैं। परीक्षा के लिए आगत उस व्यक्ति ने जान लिया कि ये वाचक ज्ञानशून्य हैं। अन्ययूथिकों ने वादगोष्ठी का समायोजन किया । अन्ययूथिकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का वह उत्तर न दे सका। पग-पग पर उसका पराभव हुआ और अन्ययूथिक विजयघोष करते हुए वाचक का तिरस्कार कर चले गए। निग्रंथ प्रवचन की अवहेलना हुई। श्रावकों के सिर लज्जा से झुक गए। ३५. घंटा सियार एक इक्षुवाटक था। उसमें सियार प्रवेश कर इक्षु खा जाते थे। स्वामी ने वाटक के चारों ओर खाई खुदवा दी। एक बार एक सियार उस खाई में गिर पड़ा। स्वामी ने उसे पकड़ लिया। उसकी पूंछ और कान काट दिये, शरीर पर चीते की खाल मढ़कर गले में घंटा बांध दिया। वह भयभीत होकर वहां से दौड़ा अन्य सियारों ने उसे देखा और विचित्र प्राणी समझकर वे सब भयभीत होकर दौड़ने लगे। उन्हें भागते देख तरक्षों ने कारण पूछा। सियारों ने कहा कोई अपूर्व प्राणी विचित्र शब्द करता हुआ आ रहा है तरक्ष (लकड़बग्घे भी भयाक्रान्त होकर दौड़ने लगे। चीतों ने तरक्षों से पूछा। उनका उत्तर सुन वे भी भयभीत होकर भागने लगे । रास्ते में एक सिंह मिला। उसने चीतों से पलायन का कारण पूछा। चीतों ने सारी बात कही। सिंह ने सोचा- मैं खोज करूंगा। उसने ध्यान से उसे देखा और जान लिया कि यह सियार है उसे पकड़ा और मार डाला । सब आश्वस्त हो गए। गा. ७१७ वृ. पृ. २१७ गा. ७२१-७२३ वृ. पृ. २२१ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट ३६. रक्तपट भिक्षु पांच सौ व्यक्तियों का सार्थ अटवी में भटक गया। उसके साथ एक अभागी रक्तपट भिक्षु भी था। उसने उन पांच सौ व्यक्तियों के पुण्य का उपहनन कर दिया। सब प्यास से व्याकुल थे। उनसे कुछ दूरी पर बादल बरस रहे थे। किन्तु उनको एक बूंद भी नहीं मिल रही थी । सार्थ दो भागों में बंट गया । रक्तपट भिक्षु प्रथम विभाग के साथ मिल गया। वर्षा सर्वत्र होने लगी, परन्तु जहां वह भिक्षु था, वहां वर्षा नहीं हुई । सार्थ के लोगों ने उसे निकाल दिया। वह अकेला हो गया। जहां वह रहा, वहां वर्षा नहीं हुई । अन्यत्र वर्षा का अभाव नहीं रहा । गा. ७४२ वृ. पृ. २३० ३७. अमात्य एक राजा के गर्दभ जैसे कान थे। वह हमेशा अपने कानों को ढंककर रखता था। एक बार मंत्री ने एकान्त में राजा से पूछा- आप सिर और कान को सदा आवृत्त क्यों रखते हैं ? राजा ने यथास्थिति बता दी और कहा- यह रहस्य किसी के सामने प्रगट मत करना। मंत्री बात पचाने में असमर्थ था। दूसरी और राजा का निर्देश था बात किसी को कहनी नहीं है। अब क्या करे? वह अटवी में गया। एक वृक्ष के कोटर में मुख डालकर जोर-जोर से बोलने लगा - 'गर्दभ कन्ना राया, गर्दभ कन्ना राया' फिर चला गया। उधर कोई बढ़ई आया। उसी वृक्ष को काटकर वह ले गया। उसका बाजा बनाया। भवितव्यता से उस बाजे को सबसे पहले राजा के सामने बजाया । वह बाजा शब्द करने लगा-गर्दभ कन्ना राया, गर्दभ कन्ना राया ( राजा के गर्वभ जैसे कान) । राजा ने सुना तो मंत्री से पूछा- तुम्हारे अतिरिक्त किसी को पता नहीं था। क्या तुमने किसीको कहा है ? अमात्य ने सारी बात राजा से निवेदन कर दी। ३८. ब्राह्मणी पुरोहित की पत्नी अत्यन्त रूप सम्पन्न थी। उसके सौन्दर्य पर राजा श्रेष्ठी आरक्षित और मूलदेव - ये सभी मुग्ध थे। पुरोहित पत्नी चतुर थी, उसने सभी को आने का संकेत दे दिया। वे सभी समय पर आ गए और द्वार पर खड़े हो गए। पुरोहित पत्नी ने कहा- जो महिला का रहस्य जानता है, वह प्रवेश करे। मूलदेव को छोड़कर सब मौन हो गए। मूलदेव बोला- मैं जानता हूं। उसने प्रवेश किया। उसने पूछा- महिला का रहस्य क्या है? वह बोला- मर जाने पर भी किसी को नहीं कहना । वह बोली- तुम विद्वान् भी हो और कामुक भी । वह संतुष्ट हुई और उसके साथ पूरी रात बिताई। प्रातः राजा ने मूलदेव से पूछा- महिला का रहस्य क्या है ? वह बोला- मैं नहीं जानता। राजा ने कहा- तुम अपलाप कर रहे हो। राजा ने उसके वध का आदेश दे दिया। तभी पुरोहित पत्नी ने आकर राजा से निवेदन किया- यही महिला का रहस्य है। जो शरीर त्याग करने पर भी बात किसी को नहीं कहता। यह लौकिक अपरिस्रावी है। गा. ७६० वृ. पृ. २३७ ३९. परिव्राजक एक गांव में एक नापित रहता था वह अनेक विद्याओं का ज्ञाता था। विद्या के प्रभाव से उसका 'क्षुरप्रभांड' अधर आकाश में स्थिर हो जाता था। एक परिव्राजक उस विद्या को हस्तगत करना चाहता था। वह नापित की सेवा में रहा और विविध प्रकार से उसे प्रसन्न कर वह विद्या प्राप्त की। अब वह अपने विद्याबल से त्रिदंड को गा. ७६० वृ. पृ. २३८ ६६९७ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ = बृहत्कल्पभाष्यम् आकाश में स्थिर रखने लगा। इस आश्चर्य से लोग उस परिव्राजक की पूजा करने लगे। एक बार राजा ने पूछा-भगवन्! क्या यह आपका विद्यातिशय है या तप का अतिशय है? उसने कहा-यह विद्या का अतिशय है। राजा ने पूछा-आपने यह विद्या किससे प्राप्त की? परिव्राजक बोला-हिमालय पर्वत पर एक फलाहारी ऋषि से विद्या प्राप्त की। विद्यागुरु के अपलाप करने के कारण इतना कहते ही आकाशस्थित त्रिदंड भूमि पर गिर गया। गा. ७८६ वृ. पृ. २४७ ४०.आम्र फल एक दिन आचार्य शिष्यों को वाचना दे रहे थे। उन्होंने परिणामक, अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्यों की परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहा-शिष्यो! मुझे आम की आवश्यकता है। जो परिणामक शिष्य था, उसने आचार्य से निवेदन किया-भंते! कैसा आम लाऊं? सचेतन या अचेतन? भावित (लवणादि से) या अभावित ? बड़े या छोटे? छिन्न (टुकड़े किए) या अछिन्न? कितनी संख्या में? आचार्य ने कहा-आम तो पहले से ही प्राप्त हैं। अभी अपेक्षा नहीं है, कभी अपेक्षा होगी तो बता दूंगा। मैंने तो तुम्हारी परीक्षा के लिए ऐसा कहा था। जो अपरिणामक शिष्य था, वह बोला-आचार्यवर! क्या आपको पित्त का प्रकोप हो गया है, जो आप असंबद्ध प्रलाप कर रहे हैं? आज आपने मेरे सामने कहा, वह कह दिया, दूसरी बार ऐसे सावध वचन मत कहना। दूसरा कोई सुन न ले। हमें ऐसा कहना नहीं कल्पता। जो अतिपरिणामक शिष्य था. वह बोला-आचार्यश्री! यदि आपको आम की आवश्यकता है, तो मैं अभी आम ले आऊंगा। अभी आम का मौसम है। आम तरुण हैं फिर वे कठोर हो जाएंगे। मुझे भी आम प्रिय है परन्तु आपके भय से कह नहीं सका। यदि आम अपने लिए ग्रहण करने योग्य है, तो फिर इतने दिन क्यों नहीं कहा? पहले ही कह देते। क्या बिजौरा आदि दूसरे फल ले आऊं? ___ आचार्य ने अतिपरिणामक और अपरिणामक शिष्यों की बात सुनकर कहा-तुम लोगों ने मेरा अभिप्राय नहीं समझा। मैंने बात पूरी भी नहीं की और तुम अनर्गल बोलने लग गए। मैंने कांजी अथवा लवण से भावित, टुकड़े किए हुए अथवा शाक रूप में पकाए हुए आम मंगाए थे, अपरिणत नहीं। गा. ७९८-८०१ वृ. पृ. २५१ ४१. राजाज्ञा एक राजा की छह व्यक्तियों ने बहुत सेवा की। राजा उनकी सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ। खुश होकर राजा ने उन्हें नगर में स्वतंत्रता से विचरण करने की अनुमति दे दी। नगर में घोषणा करवा दी कि जो इन व्यक्तियों को पीड़ित करेगा या मारेगा वह उग्रदंड का भागी बनेगा। जन समूह से उनका परिचय हुआ। लोगों ने देखा कि वे न रूपवान् है, न वैभव सम्पन्न और न ही उनके पास अच्छे वस्त्र तथा आभूषण हैं। भद्र व्यक्तियों ने राजाज्ञा की विधिपूर्वक अनुपालना की। लेकिन जो उदंड थे, उन्होंने राजाज्ञा की अवहेलना की जिसके कारण उन्हें दंड भोगना पड़ा। गा. ९२६-९२७ वृ. पृ. २९३ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट ४२. दो म्लेच्छ दो म्लेच्छ पुरुषों ने राजा की सेवा कर उसे प्रसन्न किया। प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें दो बकरे और दो मधु घट दिए। दोनों ने इस पारितोषिक को स्वीकार किया। ___ एक म्लेच्छ ने बकरे को एक ही प्रहार में मार दिया और दो-तीन दिन तक उसके मांस का आस्वादन लिया। दूसरा प्रतिदिन एक अंग छेदन करता और खाता| बकरे के छेदे अंग पर नमक, मधु लगाता तथा उस स्थान को गोबर से लिप्स कर देता। पहले ने एक प्रहार में मारा, उसके एक बार हिंसा हुई। दूसरे ने जितनी बार प्रहार किया, छेदन किया उसके उतनी बार हिंसा का कर्मबंध हुआ। गा. ९८३ वृ. पृ. ३०९ ४३. अप्रशस्त-प्रशस्त किसान एक किसान ने ईख की खेती की। उसने खेत की सुरक्षा के लिए न खाई खोदी, न बाड़ लगाई, न गायों को रोका और न पथिकों को खाने से निषेध किया। गायों का निवारण नहीं करने से वे सारे खेत को चर गई और खेत नष्ट हो गया। पैदावार नहीं होने पर कर्मचारियों को वेतन भी नहीं दे सका। खेत के मालिक को हिस्सा नहीं मिला और स्वयं भी हानि को प्राप्त हुआ। ईख का पूरा खेत नष्ट हो गया। मालिक ने किसान को बांध दिया। वह विनाश को प्राप्त हुआ। किसी किसान ने ईख की खेती की। उसकी सुरक्षा के लिए खाई खोदी, बाड़ लगाई, गायों को चरने से रोका और पथिकों का निषेध किया। बहुत परिश्रम किया तो ईख की पैदावार अच्छी हुई। उसने कर्मचारियों को पूरा वेतन दिया। खेत के मालिक को उसका हिस्सा दे दिया। किसान को भी लाभ प्राप्त हुआ। गा. ९८८ १. पृ. ३१० ४४. अंतःपुर रक्षक एक राजा ने कन्याओं के अन्तःपुर की रक्षा के लिए एक व्यक्ति को रखा। वे राजकन्याएं गवाक्ष से इधरउधर देखती थीं। वह रक्षक उनका वर्जन नहीं करता था। धीरे-धीरे वे कन्याएं अग्रद्वार से बाहर जाने-आने लगीं। तब भी उसने निषेध नहीं किया। इस प्रकार के व्यवहार का वर्जन नहीं करने पर कुछ कन्याएं श्रेष्ठी पुत्रों से आलाप-संलाप करने लगी। कुछ कन्याएं भाग गई। अतः वह रक्षक कन्याओं के अन्तःपुर की रक्षा करने में असमर्थ रहा। अन्य राजा ने कन्याओं के अन्तःपुर की रक्षा के लिए रक्षक रखा। वह रक्षक किसी कन्या को वातायन से झांकते देखता तो वह सभी कन्याओं के समाने उसे डांटता और शिक्षा देता। शेष सारी कन्याएं भयभीत हो जाती। कोई वातायन तक जाने का साहस नहीं करती। वह अन्तःपुर की अच्छी रक्षा करने में समर्थ हुआ। गा. ९९१,९९२ वृ. पृ. ३११ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० बृहत्कल्पभाष्यम् ४५. देवद्रोणी देवद्रोणी की गायें चरने चली गई। उनमें से एक वृद्ध गाय मर गई। भीलों ने उसे खा लिया। गोपालकों ने देवद्रोणी परिचारक से सारी बात निवेदन की। उसने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया और कहा कोई बात नहीं खा गए तो खा गए। परिणाम यह आया कि धीरे-धीरे भील स्वयं गायों को मारकर खाने लगे और देवद्रोणी नष्ट हो गई। देवद्रोणी की गायें चरने गयी। उनमें से एक वृद्ध गाय मर गई। भीलों ने उसे खा लिया। गोपालकों ने देवद्रोणी परिचारक से सारी बात निवेदन की। परिचारक ने बात पर ध्यान दिया और भील पल्ली को बंदी बना दिया। जिससे गायों का विनाश नहीं हुआ। गा. ९९३ वृ. पृ. ३१२ ४६. मद्यपायी एक मनुष्य न मद्य पीता और न मांस खाता लेकिन उसकी संगत मद्य पीने वालों और मांस खाने वालों से थी। एक दिन उन सबने मिलकर उसे मद्य पीने के लिए प्रेरित किया और कहा-देखो मद्य पीने में क्या दोष है? वह निर्जीव है। उसे शपथ दिला दी। उसने लज्जित होकर एकान्त में जाकर थोड़ा-सा मद्यपान किया। धीरे-धीरे उसकी वृत्ति का विस्तार हो गया। कुछ दिन बाद लज्जा रहित होकर लोगों के मध्य में, मार्ग में मद्य पीना प्रारंभ कर दिया। वह मद्य चनें, पापड़ आदि के साथ पीता था। साथ रहने वालों ने कहा-मांस बिना मद्यपान कैसा? उसे मांस के लिए प्रेरित किया और कहा मांस खाने में क्या दोष है? हम तो किसी प्राणी को मारते नहीं हैं। सबने बारबार उसे कहा। उसने भी सोचा-मांस खाने में क्या दोष है ? उसने मांस खाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे आसक्त और कठोरचित्त वाला हो गया। उसके परिणाम हिंसक हो गए। अब वह स्वयं प्राणियों को मारकर खाने लगा। निर्दयी बन गया। गा. ९९४ वृ. पृ. ३१२ ४७. कच्ची मूंग एक स्त्री मूंग के खेत में बैठी थीं, वह कच्ची मूंग की फलियां खा रही थी। उधर से राजा आखेट खेलने गया। वापस आखेट खेलकर आया तब भी उसने देखा कि वह स्त्री मूंग की फलियां खा रही है। राजा को आश्चर्य हुआ, उसने सोचा यह स्त्री कब से ही फलियां खा रही है? न जाने कितनी फलियां खा गई होगी? इस कुतूहल वश राजा ने स्त्री के पेट को चीर डाला। उसने देखा पेट में तो फेनरस (झाग ही झाग) है। गा. ९९४ वृ. पृ. ३१३ ४८. चार ब्राह्मण चार ब्राह्मणों ने अध्ययनार्थ विदेश के लिए प्रस्थान किया। उन्होंने एक शाखापारक को देखा। उससे पूछा-तुम कहां जा रहे हो? वह बोला-जहां तुम जा रहे हो वहीं मैं जा रहा हूं। वे सब एक साथ प्रत्यन्त गांव से होते हुए अटवी के पास पहुंच गए। वहां सार्थ की प्रतीक्षा करने लगे। एक सार्थ मिल गया। सब उसके साथ हो Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट गये। शाखापारक के पास एक कुत्ता था। ब्राह्मणों ने कहा-कुत्ता साथ क्यों लाए? वह बोला-मैं इसको किसी कारण से लाया हूं। सार्थ के साथ उन्होंने अटवी में प्रवेश किया। अटवी के मध्य में सार्थ छूट गया। लोग इधरउधर बिखर गए। वे छहों प्राणी एक साथ एक दिशा की ओर चल पड़े। दो दिन तक उनको न पीने का पानी मिला, न खाने की रोटी। तीसरे दिन उन्होंने मृत कलेवर युक्त कुत्सित पानी देखा। उस समय शाखापारक बोला-यहां पर हम इस कुत्ते को मारकर अपनी क्षुधा को शान्त कर लें और यह रुधिर युक्त पानी पीकर प्यास मिटा लें। अन्यथा मर जायेंगे। यह वेद रहस्य है इसमें दोष नहीं है। क्योंकि हमारे सामने ऐसी ही परिस्थिति है। चार ब्राह्मणों में से एक परिणामक, दो अपरिणामक और चौथा अतिपरिणामक था। जो परिणामक था उसने इस बात को स्वीकार कर लिया। जो अपरिणामक थे उनमें से एक बोला-मैं ऐसे शब्द सुनना ही नहीं चाहता। भले भूख-प्यास से मर जाऊं। वह मर गया। दूसरा अपरिणामक बोला-इतने दुःख से कैसे मरा जाए? इससे तो खाना ही अच्छा है। जो अतिपरिणामक था, वह बोला-मांस खाना वेद विहित है तो दो दिन भूखे क्यों रखा? पहले क्यों नहीं बताया? वह गाय आदि को मारकर खाने लगा। साथ-साथ मद्य भी पीने लगा। जंगल पार होने पर शाखापारक ने कहा-हमें प्रायश्चित्त वहन करना है। जो परिणामक था, वह गांव में वेद विद्वान के पास गया। एकान्त में प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो गया। अपरिणामक ने अनेक ब्राह्मणों को एकत्रित किया। सारी स्थिति उन्हें बताई। सबने उसको धिक्कारा और जाति से बहिष्कृत कर दिया। अतिपरिणामक मांसमद्य का सेवन करने से चंडाल हो गया। गा. १०१२-१०१६ वृ. पृ. ३१८ ४९. कौतूहली रानी महादेवी को ककड़ी अतिप्रिय थी। ककड़ी लाने के लिए एक व्यक्ति की नियुक्ति कर दी। वह प्रतिदिन ककड़ी लाकर महादेवी को दे देता। एक दिन उसने अंगादान संस्थान वाली ककड़ी लेकर आया और रानी को दे दी। रानी के उस ककड़ी को देखा और कौतुक पैदा हुआ कि इसका स्पर्श कैसा है। ऐसा सोच उससे प्रतिसेवना की। ककड़ी में कांटा था। वह उसके लग गया और विस्तार हो गया। वैद्य के पास गई। वैद्य अनुभवी था। उसने यथास्थिति जानकर चीरा दिया, कांटा निकाला और वह स्वस्थ हो गई। गा. १०५३ वृ. पृ. १२९ ५०. सोमिल अवन्ति में सोमिल ब्राह्मण रहता था। परिवार में आठ पुत्र, उनकी पुत्र-वधुएं और ब्राह्मण की पत्नी थी। भरापूरा परिवार था। एक दिन ब्राह्मण के आंखों की रोशनी कमजोर होने लगी। पुत्रों ने कहा-पिताजी! आपके आंखों की चिकित्सा करवा लें। वह बोला बुढ़ापे में चिकित्सा करवा कर क्या करूंगा? तुम सबकी १६ आंखें, तुम्हारी बहुओं की १६ आंखें और दो आंखें तुम्हारी मां की है। कुल मिलाकर ३४ आंखें है। ये सब मेरी ही आंखें है। ऐसा चिंतन कर सोमिल ब्राह्मण ने आंखों की चिकित्सा नहीं करवायी। धीरे-धीरे आंख की रोशनी चली गई। ___एक दिन घर में आग लग गई। सभी अपनी जान बचाकर घर से निकल गए। किसी को वृद्ध की याद नहीं आई। आखिर वृद्ध चिल्लाता हुआ आग में भस्म हो गया। गा. ११५३ वृ. पृ. ३५९ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२== बृहत्कल्पभाष्यम् ५१. यव राजर्षि अवन्ति नगरी। वहां अनिलपुत्र राजा यव के गर्दभ नाम का पुत्र और अडोलिका नाम की पुत्री थी। उसके दीर्घपृष्ठ मंत्री था। गर्दभ की योग्यता देखकर उसे युवराज पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। युवराज गर्दभ राज्य कार्य में राजा का सहयोग करने लगा। अडोलिका बड़ी होने लगी। उसका रूप लावण्य निखरने लगा। अडोलिका के रूप में गर्दभ अनुरक्त हो गया। वह उदास खिन्न रहने लगा। एक दिन मंत्री ने उसे उदासी का कारण पूछा। युवराज गर्दभ बोला-मेरा मन अडोलिका को पाना चाहता है। यह कैसे संभव हो सकता है? मंत्री बोला-मैं उसे भूमिगृह में ले आऊंगा। वहां आप उसके साथ रह सकते हैं। अडोलिका को भूमिगृह में छोड़ दिया और युवराज गर्दभ उसके साथ भोग भोगने लगा। उधर अडोलिका की खोज की तब राजा यव को यथास्थिति ज्ञात हो गई। राजा का मन विरक्त हो गया। उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। मुनि यव अध्ययन नहीं करता। पुत्र स्नेह के कारण बार-बार अवन्ति नगरी में आने लगा। एक बार मुनि यव ने अवन्ति की ओर विहार किया। अवन्ति के निकटवर्ती ग्राम में पहुंचकर यव के खेत के पास विश्राम कर रहा था। खेत के पास गधा घूम रहा था। खेत में यव खाना चाहता था पर रक्षापालक से डर रहा था। रक्षापालक उसे देख कर बोला-हे गर्दभ! मैं जानता हूं, तुम इधर-उधर क्यों घूम रहे हो? क्योंकि तुम यव की इच्छा कर रहे हो। 'आधावसी............' मुनि ने श्लोक सीख लिया। आगे चला तो नगर के बाहर बच्चे गुल्ली-दंडा खेल रहे थे। खेलते-खेलते गुल्ली कहीं गिर गई। बच्चे उसे खोजने लगे। एक बच्चे ने देखा गुल्ली खड्ढे में गिर गई। तब बच्चे बोले-'इओ गया इओ गया.............' मुनि ने वह श्लोक भी सीख लिया। वह नगर में कुंभकार के उपाश्रय में ठहर गया। वहां एक चुहिया थी। रात्री में वह बार-बार बिल से बाहर आती, इधर-उधर कूदती और बिल में चली जाती। कुंभकार उस चुहिया को देखकर बोला-चुहिया में जानता हूं तुम मुझसे नहीं डर रही हो बल्कि सर्प, बिल्ली आदि से डर रही हो। 'सुकुमालग! भद्दलया!,...................' इस श्लोक को भी मुनि यव ने सीख लिया। पृष्ठ को ज्ञात हुआ कि मुनि यव कुंभकार के उपाश्रय में ठहरे हैं। मंत्री ने राजा गर्दभ से निवेदन किया कि परिषह से हारकर मुनि यव आपसे राज्य लेने आए है। यदि विश्वास न हो तो कुंभकार के उपाश्रय की निगरानी करें, जिसमें आयुध छिपाये हुए हैं। मंत्री ने पहले से ही आयुध उपाश्रय से छिपा दिए थे। राजा मंत्री के साथ गया उपाश्रय में देखा कि आयुध पड़े हैं। राजा अपने पिता मुनि को मारने के लिए उद्यत हुआ। वह सोच रहा था कि लोगों में उड्डाह न हो। इसलिए रात की प्रतीक्षा में घर के बाहर इधर-उधर टहलने लगा। इधर मुनि यव दिन में सीखे श्लोकों का स्वाध्याय कर रहा था। राजा ने पहला श्लोक सुना 'आधावसी'....... तो राजा ने सोचा-मुनि कह रहे हैं कि तुम इधर-उधर घूम रहे हो, मैं देख रहा हूं कि तुम यव की इच्छा कर रहे हो। दूसरा श्लोक सुना-'इओ गया......' तब राजा ने सोचा मुनि कह रहे है कि इधर-उधर खोज करने पर अडोलिका कहीं दिखाई नहीं दी। पर मैं जानता हूं वह भूमिगृह में है। तीसरा श्लोक सुना–'सुकुमालगा.....' और राजा ने चिंतन किया कि मुनि बता रहे है कि हे सुकुमार! रात्री में घूम रहे हो, तुम्हें मेरा भय नहीं अपितु दीर्घपृष्ठ का भय है। राजा ने सोचा मुनि इतने ज्ञान सम्पन्न हैं, इन्होंने अपनी इच्छा से राज्य का त्याग किया है। ये क्यों राज्य लेने आयेंगे? राजा ने तत्काल मंत्री को मरवा डाला। ___ मुनि यव के पास गया। वन्दना की कृत कार्य के लिए क्षमायाचना की। मुनि यव ने चिंतन किया-इन सामान्य श्लोकों ने मुझे मृत्यु से बचा दिया। तो आगम ज्ञान से निश्चित ही जन्म-मरण के चक्र से बच जाऊंगा। ऐसा सोचकर ज्ञानाराधना में लीन हो गए। गा. ११५५ से ११५९ वृ. पृ. ३५९ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =७०३ ५२. वणिक् दासी एक वृद्ध दासी प्रातः काष्ठ लाने के लिए जंगल में गई। मध्याह्न में लौटी। वह भूख-प्यास से क्लान्त थी। काष्ठ बहुत थोड़ा था, अतः वणिक् ने उसे पीटा। वह बिना कुछ खाए पुनः काष्ठ लाने गई। लौटते समय काष्ठभार अधिक था। ज्येष्ठ मास में मध्याह्न का समय था। उसके हाथ से एक काष्ठयष्टि गिर गई, जिसे उठाने के लिए नीचे झुकी। उस समय उसे तीर्थंकर की देशना सुनाई दी, वह झुकी हुई ही सुनती रही, उसे भूख-प्यास और गर्मी की अनुभूति ही नहीं हुई। सूर्यास्त समय में तीर्थंकर धर्मकथा कहकर उठे। दासी जागृत ह कारण उसकी भूख, प्यास आदि होने पर भी कष्ट की अनुभूति नहीं रही। गा. १२०५ वृ. पृ. ३७४ ५३. बैल दृष्टांत बैल पूरे दिन गाड़ी में अथवा अरहट में जुते रहकर काम करता। सायं वहां से मुक्त होने के पश्चात् उसे चारा दिया गया। सरस-नीरस चारे को बिना स्वाद लिए वह खा लेता है। तृप्त होने के बाद बैठकर उसकी जुगाली करता हुआ स्वाद का अनुभव करता है। उसमें जो कचवर (कचरा) होता है, उसका परित्याग कर सार को ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार मुनि गुरु के पास सम्पूर्ण सूत्र को ग्रहण करता है, उसके बाद अर्थ का ग्रहण करता है। बिना अर्थ के सूत्र स्वादरहित भोजन के तुल्य होता है। गा. १२१९ वृ. पृ. ३७७ ५४. शालि दृष्टांत किसान बहुत परिश्रम से चावल की खेती करता है। चावल पकने के बाद काटकर, छिलके उतारकर, भूसी को अलगकर कोष्ठागार में रख देता है। यदि वह उन चावलों को खाने में उपभोग नहीं करता है तो चावल संग्रह का फल निष्फल हो जाता है। वैसे ही शिष्य १२ वर्ष तक सूत्र का अध्ययन करने में परिश्रम करता है। पुनः अर्थ को नहीं सुनता है तो परिश्रम निष्फल हो जाता है। गा. १२१९ वृ. पृ. ३७८ ५५. बैल उदाहरण बैल प्रतिदिन भार वहन करता है और हल को भी वहन करता है। फिर भी यदि मालिक उस बैल पर बारबार चाबुक का प्रहार करता है तो वह क्रुद्ध हो जाता है। कूदकर भार को गिरा देता है। हल को तोड़ देता है। वैसे ही आचार्य शिष्य को रुक्ष व्यवहार से वाचना देता है तो शिष्य कषाय से पीड़ित होकर गच्छ से निकल सकता है। गा. १२६८ वृ. पृ. ३९१ ५६. राज दृष्टान्त एक राजा अक्षिवेदना से पीड़ित हो गया। वहां के वैद्य सफल चिकित्सा नहीं कर सके। आगंतुक वैद्य ने कहा-मेरे पास अक्षिशूलप्रशामक गुटिका है। इसे आंख में आंजने से कुछ क्षणों के लिए तीव्रतर दुःसह वेदना होगी। यदि आप मुझे मृत्यु-दंड न दें तो मैं गुटिका से आपकी आंखें आंज दूं। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४= बृहत्कल्पभाष्यम् मैं वेदना को सहन कर लूंगा-राजा के ऐसा कहने पर वैद्य ने गुटिका से उसकी आंखें आंज दी। एक बार तो असह्य वेदना हुई, किन्तु कुछ समय बाद आंखें स्वस्थ हो गईं। गा. १२७७-७८ वृ. पृ. ३९४ ५७. सिंह दृष्टान्त एक सिंह गिरि-नदी को तैर कर उस पार जाना चाहता था। वह नदी में उतरा। पानी के तीव्र वेग ने उसे पुनः तट पर ला पटका। वह पुनः वहां से लौटा और पर तीर पर जाने के लिए नदी में उतरा। पानी के वेग ने उसका पुनः अपहरण कर लिया। इस प्रकार वह जब तक नदी में तैर कर पार नहीं गया, तब तक उसने नदी में तैरने का अभ्यास नहीं छोड़ा। उसी प्रकार मुनि भी जब तक विवक्षित तप आत्मसात् नहीं हो जाता तब तक उसका अभ्यास नहीं छोड़ता। गा. १३२९ वृ. पृ. ४०७ ५८. पुष्पचूल राजर्षि पुष्पपुर नगर में पुष्पकेतु महाराजा की महारानी पुष्पावती ने एक युगल का प्रसव किया। पुत्र का नाम पुष्पचूल और पुत्री का नाम पुष्पचूला रखा। दोनों साथ-साथ बड़े हुए। दोनों में गहरा अनुराग था। पुष्पचूल राजा बना। उसने पुष्पचूला का पाणिग्रहण ऐसे व्यक्ति से किया जो गृहदामाद (घर जंवाई) रह सके। वह भर्ता से केवल रात्रि में ही मिलती, दिनभर भाई के साथ रहती। भाई पुष्पचूल प्रवजित हुआ तो वह भी अनुराग के कारण प्रव्रजित हो गई। कालान्तर में मुनि जिनकल्प साधना स्वीकार करने के लिए एकत्व भावना से अपने आपको भावित कर रहे थे। एक देव ने परीक्षा के बहाने आर्या पुष्पचूला का रूप बनाया। कई धूर्त व्यक्ति पुष्पचूला के साथ बलात्कार करने का प्रयत्न करने लगे। उस समय मुनि पुष्पचूल उधर जा रहे थे। उन्हें देखकर पुष्पचूला आर्या चिल्ला उठी ज्येष्ठार्य! मुझे बचाओ। मुनि प्रेम बन्धन से मुक्त हो चुके थे। 'एगो हं नत्थि मे को वि, नाहमन्नस्स कस्सइ'-इस एकत्व भावना को गुनगुनाते हुए वे अपने स्थान पर चले गए। गा. १३४९-१३५१ वृ. पृ. ४११ ५९. गर्दभ दृष्टान्त एक गर्दभ प्रचुरमात्रा में आहार करने से उन्मत्त हो गया। जब कुंभकार उस पर मिट्टी के बर्तन रखता तब वह उछल कर सारे बर्तन तोड़ देता। कुंभकार ने उसका आहार बंद कर दिया, जिससे वह बर्तनों का भार वहन करने में असमर्थ हो गया। कुंभकार ने उसे उचित आहार दिया तब वह बर्तन वहन करने लगा। साधु भी प्रतिदिन स्निग्ध, मधुर आहार करता है, उससे शरीर पुष्ट होता है साथ में विकार भी पैदा होते हैं। वह मोहकर्म से पीड़ित होता हुआ संयम योगों का बलपूर्वक मर्दन करता है। आहार के अभाव में कृशशरीरी हो जाता है जिससे संयमयोगों का पालन करने में असमर्थ हो जाता है। अतः उचित मात्रा में आहार करता हुआ वह संयम की अच्छी आराधना कर सकता है। गा. १५२७ वृ. पृ. ४५० Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट ६०. शुनिका दृष्टान्त शिकारी एक कुतिया रखता था। तितर को पकड़ने के लिए कुतिया को बुलाता फिर उसे दुत्कार देता। ऐसा बार-बार करने पर वह कुतिया थक गई। फिर शिकार सामने होने पर शिकारी ने कुतिया को बुलाया लेकिन वह एक कदम भी नहीं चली। ६१. स्थापित कुल एक नगर में चार साधु आए। वहां पहले से स्थित साधुओं ने उनसे आहार के लिए पूछा। पहला साधु बोला- मुझे उदरपूर्ति करनी है। गर्म-ठंडा कैसा भी हो? पर बासी न हो। दूसरा बोला-स्नेह रहित आहार भले हो पर कोमल हो । तीसरा बोला- मेरे लिए मधुर आहार हो । चौथा बोला- अन्न-पान पक्व हो पर गंध रहित हो । गा. १५८५ वृ. पृ. ४६४ साधु उक्त आहार के लिए श्रेष्ठ कुलों में जाता है स्थापित कुलों में आहार प्राप्त हो जाता है यदि स्थापित कुल न हों तो आहार प्राप्त नहीं होता । आगन्तुक साधुओं के लिए आहार आदि लाना महानिर्जरा होती है। गा. १५९० वृ. पृ. ४६६ ६२. विशुष्क गाय एक ब्राह्मण के पास दुधारू गाय थी। वह दोनों समय प्रचुर दूध देती थी । ब्राह्मण ने सोचा- दस दिनों बाद मेरी पुत्री का विवाह है। उस समय अधिक दूध की आवश्यकता होगी। अतः आज से मैं गाय को दुहना बन्द कर दूं । जिससे कि दस दिनों बाद मुझे इससे प्रचुर दूध प्राप्त हो सकेगा । उसने गाय को दुहना बंद कर दिया। विवाह के दिन वह गाय को दुहने बैठा। एक बूंद दूध भी नहीं मिला। सारा दूध सूख गया था। इसी प्रकार स्थापनाकुलों में न जाने पर, वहां के व्यक्ति भूल जाते हैं कि अभी यहां साधु हैं या नहीं ? मुनि कुछ दिनों के अंतराल से वहां जाते हैं तो प्रायोग्य द्रव्य प्राप्त नहीं होता। अतः दो-तीन दिनों के अंतराल से वहां अवश्य जाना चाहिए। ६३. आराम दृष्टान्त एक बागवान् था। वह अपने बगीचे से पुष्पों को लेकर शहर में जाता और उनको बेच आता। उसने सोचा-पन्द्रह दिनों के पश्चात् इन्द्रमहोत्सव है । उस दिन पुष्पों की बहुत बिक्री होगी, अतः उस दिन मैं बहुत सारे पुष्प लेकर शहर में जाऊंगा और एक साथ उन्हें बेचूंगा । उसने सारे पुष्प तोड़ने बंद कर दिए। इन्द्रमहोत्सव के दिन उसे एक भी पुष्प नहीं मिला। सब सूख गए थे। इसी प्रकार स्थापनाकुलों में न जाने पर, गृहस्थ भी उनकी प्रतीक्षा करना भूल जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर साधु जाते है तो उन्हें वहां वह नहीं मिलता जो उनको चाहिए था। गा. १५९९ वृ. पृ. ४६६ गा. १५९१ वृ. पृ. ४६६ ७०५ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ - बृहत्कल्पभाष्यम् ६४. पुत्र दृष्टान्त पिता के दो पुत्र थे। एक कृश शरीर वाला था, दूसरा स्थूल शरीर वाला। एक दिन दोनों पुत्रों को लेकर अन्य गांव में जा रहा था। मार्ग में एक बहुवेग वाली नदी थी। दोनों को एक साथ लेकर नदी तैरना कठिन था। पिता ने अपने सामर्थ्य के अनुसार कशकाय पुत्र को लेकर नदी को पार किया। दूसरे की उपेक्षा की। वैसे ही साधु के लिए छह काय विराधना का प्रसंग हो तो पृथ्वी आदि की उपेक्षा कर त्रसकाय की रक्षा करे। गा. १६६६-१६६७ वृ. पृ. ४९१ ६५. धावनकल्प दृष्टान्त एक साधु वृक्ष के पास गया। चारों दिशाओं की ओर दृष्टिपात किया। कोई दिखाई नहीं दिया। उसने वृक्षमूल में आहार करना प्रारंभ कर दिया। वृक्ष के ऊपर एक ब्राह्मण बैठा था। उसने साधु को आहार करते देखा। कुछ देर बाद वह नीचे उतरा और गांव की ओर जाने लगा। साधु ने उसे देख लिया। तब साधु जल्दी-जल्दी आहार कर पात्र को अच्छी तरह से चाट लिया और स्वाध्याय करना प्रारंभ कर दिया। इधर ब्राह्मण ने गांव में जाकर लोगों से कहा कि कोई साधु वृक्षमूल में आहार कर रहा था। लोग आए और पूछा-महाराज आहार हो गया? साधु बोला-क्या गोचरी का समय हो गया ? आपके घरों में रसोई बन गई। लोगों ने ब्राह्मण की ओर देखा, वह बोला-मैंने आहार करते हुए देखा है। लोगों ने साधु का पात्र देखा तो पात्र बिल्कुल साफ था। तब लोगों ने ब्राह्मण से कहा-तुम पापी हो। गा. १७१४ वृ. पृ. ५०६ ६६. मेंढ़ा दृष्टान्त एक सेठ था। उसके पास एक गाय, गाय का बछड़ा और मेंढ़ा था। वह मेंदे को मेहमान के निमित्त से खूब अच्छा पोषक आहार देता। उसे प्रतिदिन स्नान कराता, शरीर पर हल्दी आदि का लेप करता। सेठ के बच्चे उसके साथ क्रीड़ा करते। कुछ दिन बाद वह स्थूल हो गया। बछड़ा प्रतिदिन यह देखता और मन ही मन सोचता कि मेंढ़े का इतना लालन-पालन क्यों हो रहा है। मेरा ध्यान क्यों नहीं रखते। इन विचारों से उसका मन उदास हो गया। उसने स्तन-पान करना छोड़ दिया। उसकी मां ने इसका कारण पूछा। उसने कहा-मां! इस मेंढे का पुत्रवत् लालन-पालन होता है, अच्छा भोजन दिया जाता है। मैं मंदभागी हूं, मेरी कोई परवाह नहीं करता। सूखी घास चरता हूं और वह भी कभी पूरी नहीं मिलती। उसने कहा-वत्स! तू नहीं जानता। मेंढ़ा जो कुछ खा रहा है, वह आतुर लक्षण है। कुछ दिन व्यतीत हुए। सेठ के घर मेहमान आए। बछड़े के देखते-देखते मोटे-ताजे मेंढ़े के गले पर छुरी चली और उसका मांस पकाकर मेहमानों को परोसा गया। बछड़ा भयभीत हो गया। उसने खाना पीना छोड़ दिया। मां ने कारण पूछा-बछड़े ने कहा-मां! मेंढ़े को मार दिया, उसकी जीभ और आंखें बाहर निकल गयी। क्या मैं भी ऐसे ही मारा जाऊंगा? मां ने कहा नहीं वत्स! तुम्हें ऐसा फल नहीं भोगना पड़ेगा। गा. १८१२ वृ. पृ. ५३३ ६७. गर्वोन्मत्त ब्राह्मण एक महर्द्धिक राजा कार्तिक पूर्णिमा के दिन ब्राह्मणों को दान देता था। एक चौदह विद्यास्थानों में पारगामी ब्राह्मण को उसकी पत्नी ने कहा-तुम राजा के पास जाओ। ब्राह्मण ने कहा-मैं राजा के निमंत्रण के बिना दान लेने Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट ७०७ नहीं जाऊंगा। यदि राजा को अपने पूर्वजों का अनुग्रह प्राप्त करना हो तो राजा स्वयं आकर मुझे साथ ले जाए। पत्नी पुनः बोली-पतिवर! राजा के पास तुम्हारे जैसे अनुग्रह करने वाले अनेक ब्राह्मण हैं। यदि तुम्हें धन पाना हो तो वहां जाओ। वह राजा से दान लेने नहीं गया, धन से वंचित रह गया। गा. १८८३ वृ. पृ. ६८. क्रयिक दृष्टान्त कोई ग्राहक गन्ध की दुकान पर गया। रुपये दिये और गन्धपात्र खरीदा। दूसरे दिन उसी दुकान पर गया और मद्य मांगा। दुकानदार ने कहा मेरे यहां गन्धयुक्त वस्तु मिल सकती है मद्य नहीं। वैसे ही धर्म की दुकान में धर्म मिलता है खाद्य आदि वस्तुएं नहीं मिलती। गा. १९६५ वृ. पृ. ५७२ ६९. दंतपुर दृष्टान्त दंतपुर में राजा ने यह आज्ञा प्रसारित की कि कोई हाथी दांत न लाए? एक बार धनमित्र सार्थवाह के मित्र दृढ़मित्र ने हाथी दांतों को दर्भ में पूलों से आच्छादित कर ले आया। वे स्तेनाहृत हो गए। इसमें दांत और तृण-दोनों स्तेनाहृत माने गए। राजा द्वारा प्रतिषिद्ध दांत के कारण उन तृणों को लाना भी स्तेनाहृत माना जाता है। गा. २०४३ वृ. पृ. ५९१ ७०. कपट श्रावक बौद्ध श्रावक ने साध्वियों को देखा। उन साध्वियों में एक साध्वी अत्यधिक रूपवती थी। बौद्ध श्रावक उस पर मोहित हो गया। वह कपट से जैन श्रावक बन गया। प्रतिदिन उपाश्रय में आने-जाने लगा। साध्वियों से परिचित हो गया। साध्वियों का भी उस पर विश्वास हो गया। वह अच्छे श्रावक की गणना में आने लगा। ___ एक दिन वह उपाश्रय में आया वंदना की और निवेदन किया कि मैं मेरे गांव जा रहा हूं। आप साध्वियों को भिक्षा के लिए भेजें। साध्वियां उसके घर गई। उसने कहा-मेरे वाहन में मन्दिर है, आप वंदना करे फिर भिक्षा ग्रहण करना। यह सोचकर कि श्रावक कितना विवेकवान् है साध्वियां चैत्य वंदन के लिए वाहन पर आरूढ़ हुई। वे आरूढ़ हुई और तत्काल ही उसने वाहन को चालू कर दिया। इस प्रकार उनका अपहरण कर लिया। गा. २०५४ वृ. पृ. ५९४ ७१. आम्रप्रिय राजा एक राजा को आम्रफल बहुत प्रिय था। अत्यधिक आम खाने से उसके शरीर में व्याधि उत्पन्न हो गई। वैद्य ने उपचार किया। राजा स्वस्थ हो गया। लेकिन वैद्य ने भविष्य में आम खाने का बिल्कुल निषेध कर दिया। ___ एक दिन राजा और मंत्री शिकार के लिए जंगल में गये। बहुत दूर जाने पर राजा थक गया। अचानक राजा को आम का वृक्ष दिखाई दिया। वह उसकी छाया में बैठ विश्राम करने लगा। मंत्री ने कहा राजन्! हमें यहां नहीं बैठना चाहिए। दूसरे वृक्ष की छाया में चलते है। राजा ने कहा मंत्री वैद्य ने आम खाने का निषेध किया है बैठने का Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ = बृहत्कल्पभाष्यम् नहीं। मंत्री मौन हो गया। कुछ क्षणों में ही हवा के झोंके से एक आम नीचे गिरा। राजा ने आम हाथ में ले लिया और सूंघने लगा। मंत्री ने फिर मना किया तब राजा बोला-मंत्री खाने का निषेध किया है सूंघने का नहीं। केवल सूंघने से मेरे पेट में नहीं जायेगा। धीरे-धीरे राजा आम चूसने लगा। मंत्री के मना करने पर भी वह नहीं माना। आम खाते ही शरीर में व्याधि उत्पन्न हो गई। राजा मृत्यु को प्राप्त हो गया। एक राजा को आम बहुत प्रिय थे। अत्यधिक आम खाने से शरीर में व्याधि पैदा हो गई। वैद्य ने उपचार किया। राजा स्वस्थ हो गया। वैद्य ने राजा से कहा-राजन्! आप भविष्य में कभी आम न खाएं। राजा ने वैद्य के सुझाव को स्वीकार किया और यथावत् पालन किया। तब राजा ने लम्बे समय तक राज्य का भोग किया। गा. २१६६ वृ. पृ. ६२१ ७२. मुरुण्ड दूत पाटलिपुत्र नगर में मुरूंड नाम का राजा था। एक बार उसका दूत पुरुषपुर में गया। सचिव से वह मिला सचिव ने उसे आवास स्थल दिया। वह राजा को देखने मिलने के लिए प्रस्थान करता, परंतु रक्त पट वाले भिक्षुओं का अपशकुन होता। वह लौट आता। तीसरे दिन राजा ने सचिव से दूत के विषय में पूछा। अमात्य राजभवन से प्रस्थित हो दूत के आवास पर आया और राजभवन में न आने का कारण पूछा। दूत ने यथार्थ बात अमात्य को बता दी। अमात्य तब दूत से बोला-इन रक्त पट भिक्षुओं का मार्ग के भीतर या बाहर अपशकुन नहीं होता, क्योंकि यह नगर इनसे भरा पड़ा है। यह बात सुनकर दूत राजभवन में प्रवेश कर गया। गा. २२९२-२२९३ वृ. पृ. ६५० ७३. राजाज्ञा पाटिलपुत्र में चन्द्रगुप्स राजा था। 'वह मयूरपोषक का पुत्र है' यह जानकर क्षत्रिय लोग उसकी आज्ञा का सम्मान नहीं करते थे। चाणक्य ने सोचा-आज्ञाहीन राजा कैसा? अतः वह काम करूं, जिससे राजाज्ञा की अखंड आराधना हो। एक बार चाणक्य कापटिक के रूप में घूम रहा था। एक गांव में उसे भिक्षा नहीं मिली। उस गांव में आम और बांस प्रचुर मात्रा में थे। आज्ञा को प्रतिष्ठित करने के लिए चाणक्य ने उस गांव में यह राजाज्ञा प्रेषित की-आमों का छेदन कर शीघ्र बांस के झुरमुट के चारों ओर उनकी बाड़ बनाई जाये। _ 'यह दुर्लिखित है-ऐसा सोचकर ग्रामीणों ने बांसों को काटकर आम्रवृक्षों के चारों ओर बाड़ बना दी। चाणक्य ने यह खोज करवायी कि गांव वालों ने राजाज्ञा का पालन किया या नहीं। जब उसे ज्ञात हुआ कि ग्रामीणों ने राजाज्ञा के विपरीत कार्य किया है, तब वह उस गांव में आया और गांव वालों को उपालम्भ देते हुए बोला-तुम लोगों ने यह क्या किया? बांस नगररोध आदि में काम आते हैं। तुमने उनको क्यों कांटा? राजाज्ञा का पत्र दिखाते हुए आगे कहा-राजाज्ञा कुछ और है और तुम लोगों ने कुछ और ही कर डाला। तुम अपराधी हो, दंडनीय हो। गांव के सारे लोग लज्जित हो गए। चाणक्य ने उनसे वृत्ति का निर्माण करा कर उस गांव को जला डाला। इसके भय से सारी जनता आज्ञापालन में रत हो गई। गा. २४८९ वृ. पृ. ७०४ ७४. सोपारक दृष्टान्त सोपारक नगर में राजा ने ५०० व्यापारियों से कर मांगा। उन्होंने स्वीकार नहीं किया। राजा ने कहा-या तो कर दो या अग्नि में प्रवेश करो। उन्होंने मरना स्वीकार कर लिया। उनकी ५०० पत्नियों ने उनके साथ अग्नि में Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट = प्रवेश कर जीवनलीला समाप्त कर दी। वे मरकर बालतप के कारण अपरिगृहीत वानव्यंतर देवियों के रूप में उत्पन्न हुईं। उन देवियों ने देवकुल की ५०० शालभंजिकाओं को परिगृहीत कर लिया। अल्पऋद्धिक देव भी उनको नहीं चाहते थे, तब वे धूर्तों के साथ संयुक्त हो गईं। 'यह तेरी नहीं हैं, यह मेरी है-इस प्रकार धूर्त परस्पर कलह करने लगे। देवियों से पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर धूर्त परस्पर कहने लगे। अरे! यह तो अमुक है। यह तुम्हारी माता है। यह उसकी बहिन है। अभी अमुक के साथ संप्रलग्न है। वे किसी एक के साथ प्रतिबंधित न होकर, जो मनोज्ञ लगता है, उसी के साथ रहती हैं। यह सुनकर उन देवियों के पूर्वभविक पुत्रों आदि ने 'हमारा अपयश होगा' यह सोचकर विद्या-प्रयोग से उन देवियों को कीलित कर डाला। गा. २५०६,२५०७ वृ. पृ. ७०८ ७५. मैथुनार्थी सिंहनी एक सिंहनी ऋतुकाल में मैथुनार्थी हो गई। उसे कोई सिंह न मिलने पर, वह किसी एक सार्थ से एक पुरुष को उठाकर अपने गुफा में ले आई और उसकी चाटुकारिता करने लगी। पुरुष ने सिंहनी के साथ मैथुन प्रतिसेवना की। दोनों में अनुराग हो गया। यह क्रम प्रतिदिन चलता रहा। सिंहनी मांस के द्वारा उस पुरुष का पोषण करने लगी। पुरुष को अब उसका भय नहीं रहा। गा. २५४६ वृ. पृ. ७१७ ७६. संयोजना दृष्टान्त एक बार एक आचार्य अपने शिष्यों को महिषों के उत्पादन का योग बता रहे थे। उस योग का पूरा विवरण आचार्य के भानजे ने सुन लिया। वह हिंसक वृत्ति का था। वह उस योग के अनुसार महिषों का उत्पादन करता और कसाई को बेच देता। आचार्य ने यह सुना। वे उसके पास गए और बोले-अरे! इससे क्या? मैं तुझे सोना उत्पादन का योग बताऊंगा। तुम अमुक-अमुक द्रव्य ले आओ। वह सारे द्रव्य ले आया। आचार्य ने उनकी संयोजना कर, एकान्त में स्थापित कर उससे कहा-इतना समय बीतने पर इसको उठाना। मैं जा रहा हूं। समय बीतने पर उसने उसे उठाया। उससे एक दृष्टिविष सर्प निकला। उसको डसा जिससे वह वहीं मर गया। अन्तर्मुहूर्त के बाद वह सर्प भी मर गया। गा. २६८१३. पृ. ७५३ ७७. उपेक्षा से महाविनाश अरण्य के मध्य में एक अगाध जल वाला सुंदर सरोवर था। वह चारों ओर वृक्षों से मंडित था। वहां जलचर, स्थलचर तथा खेचर प्राणियों की बहुलता थी। एक बड़ा हस्तियूथ भी वहां रहता था। ग्रीष्मकाल में वह हस्तियूथ उस सरोवर में पानी पीता, जलक्रीड़ा करता और वृक्षों की छाया में सुखपूर्वक विश्राम करता था। सरोवर के निकट गिरगिटों का निवास था। एक बार दो गिरगिट लड़ने लगे। वन देवता ने यह देखा। उसे भविष्य का अनिष्ट स्पष्टरूप से दृग्गोचर होने लगा। उसने अपनी भाषा में सबको सावचेत करते हुए कहा हे हाथियो! जलवासी मच्छ-कच्छपो! बस-स्थावर प्राणियों! सब मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें-जहां सरोवर के निकट गिरगिट लड़ रहे हैं, वहां सर्वनाश हो सकता है। इसलिए इन लड़ने वाले गिरगिटों की उपेक्षा न करें। इनको निवारित करें। जलचर आदि प्राणियों ने सोचा-लड़ने वाले ये छोटे से गिरगिट हमारा क्या बिगाड़ देंगे? इतने में एक गिरगिट भाग कर सरोवर के किनारे सोए हुए हाथी की सूंड को बिल समझकर उसमें चला गया। दूसरा गिरगिट Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्कल्पभाष्यम् भी उसके पीछे-पीछे भागता हुआ सूंड में घुस गया। वे हाथी के कपाल में लड़ने लगे। हाथी अत्यंत पीड़ित हुआ। महान् वेदना से पराभूत होकर हाथी उठा और वनखण्ड का विनाश करने लगा। अनेक प्राणी मारे गये। वह सरोवर में घुसा। वहां अनेक जलचरों को मारा। सरोवर की पाल तोड़ डाली, सभी प्राणी नष्ट हो गये। गा. २७०६,२७०७ वृ. पृ. ७६२ ७८. द्रमक दृष्टान्त एक परिव्राजक ने द्रमक को देखा और पूछा-तुम चिंतित क्यों हो? द्रमक ने कहा-मैं दरिद्रता से अभिभूत हूं। जक ने कहा-जैसा मैं कहूं, वैसा करोगे तो धनवान बन जाओगे यह कहते हुए वह उसे एक पर्वतनिकुंज में ले गया और कहा-'यह कनकरस है। इसे प्राप्त करने के लिए तुम ठंडी-गर्म हवाओं को सहन करो, भूख-प्यास को सहन करो-ब्रह्मचर्य का पालन करो, अचित्त कंद-मूल-पत्र-पुष्प-फलों का आहार करो और फिर पवित्र भावधारा से शमीपत्रपुटक में इसे ग्रहण करो' यह स्वर्ण-रस प्राप्ति की उपचारविधि है। द्रमक ने उपचारपूर्वक कनकरस को शमीपत्रकपुटक में भर लिया। घर लौटते समय परिव्राजक ने कहा-रोष उत्पन्न होने पर भी तुम इस शाकपत्र से तुम्बिका में एकत्रित स्वर्णरस को मत फेंकना। उसने आगे कहा-'देखो! तुम मेरे प्रभाव से धनी हो जाओगे।' पुनः पुनः इन शब्दों को सुना तो द्रमक क्रोध भरे शब्दों में बोला-तुम्हारे प्रसाद से मैं धनी होऊं तो इससे मुझे प्रयोजन नहीं है-यह कहते हुए उसने स्वर्णरस फेंक दिया। सारी मेहनत निष्फल हो गई। गा. २७१३,२७१४ वृ. पृ. ७६४ ७९. भाव वैर दृष्टान्त एक गांव में चोरों ने गायों को चुरा लिया। महत्तर (गांव का मुखिया) खोजी को साथ लेकर गया। गायें हमारी हैं-यह कहकर चोरों का अधिपति महत्तर के साथ झगड़ने लगा। वे रौद्रध्यान में लीन होकर एक-दूसरे का वध करते हुए मर गये और प्रथम नरक में नारक के रूप में उत्पन्न हुए। वहां से उवृत्त होकर दोनों महिष रूप में उत्पन्न हुए। एक-दूसरे को देखकर तमतमा उठे, झगड़ने लगे। मरकर दूसरी नरक में उत्पन्न हुए वहां से उद्वृत्त हो, वृषभ बने। उसी वैर परम्परा में आबद्ध होने के कारण एकदूसरे को मारकर पुनः दूसरी नरक में गये। वहां आयुष्य पूर्णकर दोनों ही बाघ रूप में जन्मे। वहां भी परस्पर वध कर मरकर तीसरी नरक में पैदा हुए। वहां से निकलकर सिंह रूप में पैदा हुए, फिर परस्पर लड़कर मरकर चौथी नरक में उत्पन्न हुए। वहां से आयुष्यपूर्णकर दोनों मनुष्य योनि में जन्में, जिनशासन में दीक्षित हुए और सदा के लिए मुक्त हो गए। गा. २७६२ वृ. पृ. ७७९ ८०. पट्टक दृष्टान्त गांव के पास एक कूप था। गांव की औरतें वहां पानी लेने आती थी। उस कूप के पास सुन्दर उद्यान था। उद्यान में एक संन्यासी रहता था। एक दिन उसने कूप पर पानी भरती हुई सुन्दर औरत को देखा। संन्यासी ने औरत को मंत्रित पुष्प दिया। उसने पुष्प लिया और घर जाकर एक पट्ट पर रख दिया। अर्ध रात्री में पुष्पसहित Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =७११ पट्ट घर द्वार को पीटने लगा। आवाज सुन उसका पति जाग गया। वह उठा, द्वार पर जाकर देखा कि पुष्पसहित पट्ट दरवाजा पीट रहा है। उसने अपनी औरत से पूछा-ये पुष्प कहां से लाई? औरत ने सारी बात बता दी। तब उसने गांव के लोगों को एकत्रित किया और सारी जानकारी दी। लोगों ने संन्यासी को गांव से निकाल दिया। गा. २८१९ वृ. पृ. ७९७ ८०. भिक्षुक दृष्टान्त कालोदायी नामक एक भिक्षुक. रात्री के समय एक ब्राह्मण के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुआ। ब्राह्मणी भिक्षा लाने के लिए घर के भीतर गई। अंधकार के कारण एक कील से वह टकराई और नीचे गिर पड़ी। उस कील से उसका पेट फट गया। वह गर्भवती थी। पेट के फटते ही बच्चा भूमी पर आ गिरा और मर गया। वह ब्राह्मणी भी मर गई। यह देख कर लोगों ने प्रवचन का उड्डाह करते हुए कहा-निर्गंथ धर्म अदृष्टधर्मा है। गा. २८४१,२८४२ वृ. पृ. ८०३ ८२. कृतकरण मुनि सभी मुनि सो रहे थे। एक कृतकरण मुनि हाथ में गदा लेकर जाग रहा था। इतने में एक सिंह आ गया। मुनि ने उस पर प्रहार किया। वह वहां से कुछ दूरी पर गिरा और मर गया। दूसरा सिंह आया। मुनि ने सोचा, वही सिंह पुनः आ गया है। उस पर तीव्रता से प्रहार किया। वह भी कुछ दूर जाकर मर गया। तीसरा सिंह आया। मुनि ने तीव्रतम प्रहार किया और वह भी मर गया। रात्री सुखपूर्वक बीत गई। प्रातः वह गुरु के पास जाकर बोला-भंते! पहले मेरा शरीर शक्तिसंपन्न था। मैंने खुड्डका (हाथ के चपेटा) मात्रा से सिंह को मार डाला था। अब मेरे शरीर की शक्ति मंद हो गई है। रात्री में एक सिंह तीन बार आया। मैंने उस पर तीन बार प्रहार किया, वह मरा नहीं, भाग गया। गुरु ने उसे मिच्छामि दुक्कडं का दंड दिया, क्योंकि उसका परिणाम शुद्ध था। प्रभात में बाहर जाते समय आचार्य ने तीन सिंहों को मरे हुए देखा। उन तीनों की जिह्वा बाहर निकली हुई थी। एक सिंह निकट ही मरा पड़ा था, दूसरा कुछ दूरी पर और तीसरी उससे आगे मरा पड़ा था। आचार्य ने उस मुनि से पूछा-ये तीन सिंह कैसे मरे ? वह बोला भंते! जब पहला सिंह आया, मैंने सोचा-यह मर न जाए इसलिए उस पर गाढ़ प्रहार नहीं किया, हल्का प्रहार किया। वह बहुत दूर जाकर मर गया। दूसरी बार सिंह आया। मैंने सोचा वही पुनः आ गया है, इसलिए उस पर गाद प्रहार किया वह भी कुछ दूर जाकर मर गया। तीसरी बार सिंह के आने पर मैंने गाढ़तर प्रहार किया, वह निकट भूमी पर ही मर गया। मैं नहीं जान पाया कि ये पृथग्-पृथग तीन सिंह थे। गा. २९६४-२९६८ वृ. पृ. ८३८ ८३. सर्प की पूंछ एक बार पूंछ ने सर्प के सिर से कहा हे सिर! सर्दी, गर्मी और वर्षा में सघन अंधकार वाले प्रदेश में जहांकहीं तुम मुझे ले जाते हो, वहीं मैं सदा तुम्हारे पीछे-पीछे चली जाती हूं किन्तु अब कुछ समय के लिए मार्ग में मैं भी तुमसे आगे चलूंगी। ___ सिर ने कहा-पुच्छिके ! मैं कंकरीले, कंटीले मार्ग से मयूर और नकुल आदि से बचने के लिए जाता हूं। मैं दुष्ट-अदुष्ट बिलों को जानता हूं, जिन्हें तुम नहीं जानती। अतः तुम खेद का अनुभव मत करो। पूंछ ने कहा-तुम तो ज्ञानी हो, मैं तो अज्ञानी ही रह जाऊंगी। आज तो मुझे अग्रगामी बना लो, नहीं तो मैं इस हल से लिपटकर Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ बृहत्कल्पभाष्यम् यहीं रह जाऊंगी। तुम जाओ, शीघ्र जाओ। सिर ने कहा- मूर्खे ! तुम मेरे से आगे हो जाओ। अज्ञानी के साथ विरोध करने से क्या लाभ? अज्ञे! मेरे इस वंश का विनाश देखकर भी आगे जाती हो तो जाओ, तुम भी विनष्ट हो जाओगी। पूंछ ने कहा- जो शक्तिविहीन होते हैं, वे ही बुद्धि को बलशाली मानते हैं। बुद्धि शक्तिसंपन्न का क्या बिगाड़ सकती है? क्या तुमने यह कहावत नहीं सुनी- 'वीरभोग्या वसुंधरा ।' सिर के वचनों को अमान्य करती हुई पूंछ स्वच्छन्दता से अग्रगामिनी बन गई। मुहूर्त्तमात्र चली होगी कि नेत्रविहीन होने से गाड़ी से आक्रान्त होकर विनष्ट हो गई। ८४. नील वर्ण सियार , रात्रि के समय एक सियार एक घर में घुसा। घरवालों ने उसे देखा। वे उसे बाहर निकालने लगे। उसे देख कुत्ते भौंकने लगे। वह भयभीत होकर इधर-उधर भागते हुए एक नीले रंग के कुंड में गिर पड़ा। ज्यों-त्यों उससे वह निकला। नीले रंग के कारण वह नीलवर्ण वाला हो गया। उसको देखकर हाथी तरक्ष आदि पशुओं ने पूछा- तुम इस वर्णवाले कौन हो ? उसने कहा- सभी वन्य प्राणियों ने मुझे खसद्रुम नाम से मृगराज बना दिया है। अतः मैं यहां आकर देखता हूं कि मुझे कौन प्रणाम नहीं करता? उन पशुओं ने सोचा इसका वर्ण अपूर्व है। निश्चित ही देवता द्वारा अनुगृहीत है वे बोले-देव! हम सब आपके किंकर हैं। आप आज्ञा दें। हम आपके लिए क्या करे ? खसद्रुम बोला- मुझे हाथी की सवारी चाहिए। उन्होंने आज्ञा का पालन किया। अब वह खसद्रुम हाथी पर आरूढ़ होकर घूमने लगा। एक बार उसने एक सियार देखा, जो आकाश की ओर मुंह कर हूं हूं की आवाज कर रहा था। खसद्रुम भी अपने सियार स्वभाव के कारण वैसी ही आवाज करने लगा। जिस हाथी पर वह आरूद था, उसने जान लिया कि यह सियार है। उसने सूंड से उस खसद्रुम को धरती पर गिरा कर मार डाला । गा. ३२४६-३२५० वृ. पृ. ९०८ ८५. बया और वानर वर्षा ऋतु का समय था। ठंडी हवा चल रही थी । जंगल में एक वृक्ष पर बैठा वानर ठिठुर रहा था। उसी वृक्ष पर बया अपने सुन्दर घौसले में बैठी थी। उसने ठिठुरते हुए वानर को देखा और बोली- वानर ! तुम इतने ठिठुर रहे हो तो पहले अपना घर बना लेते। जिससे तुम्हारी यह हालत नहीं होती और आराम से रहते। उसने बया के शब्दों को सुना और क्रोधाविष्ट हो गया। वानर बोला- आई हो मुझे शिक्षा देने, अभी बताता हूं। इतना कहतेकहते एक छलांग लगाई। बया के घोसले के पास पहुंच गया। एक झटके में घोसले को तोड़ दिया। बया बेचारी रोती-बिलखती रह गई। इतने श्रम से बनाये सुन्दर घोसले को वानर ने बिखेर दिया। फिर वानर बोला हे बया! अब रह आराम से आई है मुझे उपदेश देने देख लिया ना दूसरों को उपदेश देने से तुम भी बेघर हो गई। बेचारी बया सोचने लगी- मैंने अनावश्यक ही सुझाव दिया है उपदेशो न दातव्यो यादृशे तादृशे जने । पश्य वानरमूर्खेण, सुगृही निगृही कृता ॥ गा. ३२५१ वृ. पृ. ९०९ गा. ३२५२ वृ. पृ. ९०९ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =७१३ ८६. वैद्यपुत्र राजवैद्य की मृत्यु के पश्चात् राजा ने वैद्य पुत्र की वृत्ति का निषेध कर दिया। वह वैद्यकशास्त्रवेत्ता नहीं था, अतः वह विदेश गया। एक वैद्य के पास रहा और वैद्य के मुख से एक पद्य सुना पूर्वाह्ने वमनं दद्यादपराह्ने विरेचनम्। वातिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यामाहुर्विशोषणम्॥ रोगी को पूर्वाह्न में वमन तथा अपराह्न में विरेचन कराना चाहिए। वातिक रोगों में भी विशोषण पथ्य होता है। उसने सोचा-वैद्यकशास्त्र का यही सार है। वह अपने आपको कुशल वैद्य मानने लगा और स्वदेश लौट आया। राजा ने पुनः वृत्ति देना प्रारंभ कर दिया। एक दिन राजा की आज्ञा से वैद्यकपुत्र ने राजपुत्र की चिकित्सा में प्रवृत्त हुआ। उसने रोग का निदान किए बिना ही इस श्लोक के माध्यम से कालानुपाती वमन, विरेचन तथा विशोषण-तीनों क्रियाएं एक साथ की। राजकुमार मर गया। राजा ने अन्य वैद्यों से इलाज की जानकारी की। तब ज्ञात हुआ कि इलाज गलत होने के कारण राजकुमार मर गया। राजा ने वैद्य पुत्र को दंडित किया। गा. ३२५९ वृ. पृ. ९१२ ८७. आर्य स्कंदक श्रावस्ती नगरी का राजा जितशत्रु था। उसके धारिणी नाम की रानी थी। उसके स्कंदक पुत्र और पुरंदरयशा पुत्री थी। उत्तरापथ में कुंभकारकर नगर में राजा दण्डकी के साथ पुरंदरयशा का विवाह हुआ। एक बार दण्डकी का पुरोहित पालक दूत के रूप में श्रावस्ती में आया। राजपरिषद् में शास्त्रार्थ के प्रसंग में स्कन्दक द्वारा पराजित पालक रुष्ट होकर अपने देश चला गया। स्कंदक ५०० व्यक्तियों के साथ अर्हत् मुनि सुव्रत के साथ पास प्रव्रजित हुआ। एक दिन स्कंदक ने पूछा-भंते! क्या मैं इन ५०० साधुओं के साथ कुंभकारकर नगर में चला जाऊं? 'वहां मारणांतिक उपसर्ग होगा'-यह कहते हुए भगवान् ने उसे रोका। उसने पूछा-हम आराधक होंगे या विराधक। भगवान् ने कहा-तुम्हारे अतिरिक्त शेष सब आराधक होंगे। यह सुनकर स्कंदक चला, कुंभकारकर के एक उद्यान में ठहरा। __ उसे देखते ही पालक का पूर्व वैर जागा। उसने दण्डकी से कहा-यह मुनि आपके राज्य को हड़पने आया है। राजा को विश्वास नहीं हुआ, तब पालक ने उद्यान में स्वयं द्वारा छिपाये हुए आयुधों को दिखाया। क्रुद्ध राजा ने कहा-तुम जैसा चाहो, वैसा करो। पालक ने पुरुषयंत्र बनाकर सब साधुओं को पीलना शुरू किया। एक-एक करते ४९८ साधुओं को पीला दिया। एक छोटा साधु ही बाकी रहा। स्कंदक ने पालक से कहा-यंत्र में पहले मुझे डालो। पालक ने स्कंदक की बात अस्वीकार कर उसे बांध दिया। शिष्य के रक्त से अभिषिक्त स्कंदक ने अशुभ परिणामों से निदान कर दिया और वहां से मरकर भवनपतिदेवों में अग्निकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ। शिष्य सब आराधक हो गए। भगिनी पुरंदरयशा ने अपने भ्राता मुनि को रत्नकंबल दिया था। जिसका रजोहरण बनाया गया था। बाज पक्षी ने रक्तरंजित रजोहरण को मांस का टुकड़ा समझ कर उठा लिया और वह संयोगवश पुरंदरयशा के सामने जा गिरा। उसे देखते ही वह आर्त्तस्वर में बोली-अरे! यह यहां कैसे? क्या मेरा भाई मारा गया? उसने राजा के सामने दुःख प्रकट किया। राजा ने पूरी जानकारी की किन्तु तब तक काफी देर हो चुकी थी। अग्निकुमार ने पूर्वकृत निदान के फलस्वरूप संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर जनपद सहित नगर को जला दिया और पुत्र-पत्नी सहित पालक को कुत्ते के साथ कुंभी में पकाया तथा सपरिवार पुरंदरयशा को अर्हत् समवसरण में पहुंचा दिया। गा. ३२७१-३२७४ १. पृ. ९१६ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४= बृहत्कल्पभाष्यम् ८८. संप्रति एक बार एक रंक ने सुहस्ती के साधुओं को देखा। क्षुधाकुल होने के कारण उसने उनसे आहार मांगा। साधुओं ने कहा-हम अपने आचार्य सुहस्ती को पूछे बिना नहीं दे सकते। वह वहां पहुंच गया। आर्य सुहस्ती ने ज्ञान बल से देखा-यह प्रवचन प्रभावक होगा। उससे कहा-तुम दीक्षा लो तो भोजन दे सकते हैं। वह तैयार हो गया। सामायिक चारित्र स्वीकार किया। कई दिनों बाद भोजन मिलने से उसने अतिभोजन कर लिया, जिससे उसके अजीर्ण हो गया। उसी रात्री में मृत्यु को प्राप्त हो गया। (वह यहां से मरकर अव्यक्त सामायिक के कारण कुणाल के पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ।) चन्द्रगुप्त का पुत्र बिंदुसार। बिंदुसार का पुत्र अशोक। अशोक का पुत्र कुणाल। कुणाल को बचपन से ही उज्जैनी का अधिपत्य दे दिया गया। कुणाल के घर में वह रंक पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। जन्म के बारह दिन बीतने पर उसका नाम सम्प्रति रखा गया। कालान्तर से विहरण करते हुए आर्य सुहस्ती उज्जैनी पधारे। राजा संप्रति ने गवाक्ष से आर्य सुहस्ती को देखा और उसे जातिस्मृति ज्ञान हो गया। वह अतिशीघ्र आचार्य सुहस्ती के पास आया और बोला आप मुझे पहचानते हो। आचार्य सुहस्ती ने ज्ञान के द्वारा जान लिया। वे बोले-हां जानता हूं। वे कुछ बताते उससे पूर्व राजा सम्प्रति ने कहा-मैं वही भिखारी हूं। जिसको आपने दीक्षित किया। मैं वहां से मरकर यहां उत्पन्न हुआ हूं। राजा ने धर्म स्वीकार किया। गा. ३२७५,३२७६ वृ. पृ.९१७ ८९. स्तेन दृष्टान्त एक राजा आचार्य का उपदेश सुनकर श्रद्धावान् हो गया। राजा ने आचार्य से सब साधुओं को रत्नकम्बल देने की इच्छा व्यक्त की। आचार्य ने कहा-राजन् ! साधु को बहुमूल्य वस्त्र अपेक्षित नहीं है। राजा के अति आग्रह पर आचार्य ने एक रत्नकम्बल ग्रहण किया। उपाश्रय में आकर उसके छोटे-छोटे टुकड़े कर संतों को बैठने के लिए दे दिए। इधर एक चोर ने आचार्य को रत्नकम्बल ग्रहण करते हुए देख लिया। वह रात को उपाश्रय में आया और सोए हुए आचार्य के ऊपर छूरी लेकर बैठ गया। और बोला-मुझे वह रत्नकंबल दो नहीं तो मार दूंगा। आचार्य बोले-उसके टुकड़े कर दिए। चोर बोला-सिलाई करके दो, तब आचार्य ने सिलवाकर रत्नकम्बल चोर को दिया। गा. ३९०३,३९०४ १. पृ. १०७१ ९०.सुलक्षण अश्व पारस देश के एक व्यक्ति के पास प्रति वर्ष प्रसव करने वाली अनेक घोड़ियां थीं। उसके पास अश्वों की प्रचुरता हो गई। उनकी सार संभाल के लिए उसने एक नौकर को इस शर्त पर रखा कि वर्ष के अन्त में उसके मनपसन्द के दो अश्व उसे दे दिए जायेंगे। अश्व-रक्षक का अश्वस्वामी की कन्या से साहचर्य हो गया था। एक वर्ष पूरा हुआ। अश्वस्वामी ने उसे कहा-जाओ, दो मनपसन्द अश्व ले लो। वह अश्वों के लक्षण नहीं जानता था। उसने स्वामी की कन्या से लक्षण युक्त अश्वों के विषय में पूछा। वह बोली-तुम प्रतिदिन अश्वों को लेकर जंगल में जाते हो। जब अश्व एक विशाल वृक्ष के नीचे बैठे हों तब तुम चमड़े के कुतप में पत्थर भरकर वृक्ष के ऊपरी भाग से उसे गिराना और पटहवादन करना। जो अश्व इस क्रिया से त्रस्त न हो, वे सुलक्षण अश्व हैं। उसने वैसा ही किया और स्वामी से उन दो अश्वों को मांगा, जो इस प्रक्रिया से त्रस्त नहीं हुए थे। स्वामी ने सोचा-ये दोनों अश्व समस्त लक्षणों से युक्त हैं। इन्हें दे देने पर शेष क्या रहेगा? इसलिए उससे कहा-इन दो अश्वों के Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =७१५ अतिरिक्त तुम दो, चार, दस अश्व ले लो। अश्वरक्षक अपनी मांग पर अडिग रहा। अश्वस्वामी ने सोचा-यदि मैं इसका अपनी कन्या से विवाह कर इसे घरजमाता बनाऊं तो ये अश्व यहीं रह जाएंगे। उसने अपने मन की बात पत्नी से कही। वह ऐसा करना नहीं चाहती थी। तब अश्वस्वामी ने उसे समझाने के लिए एक दृष्टांत कहा-एक बढ़ई ने अपनी कन्या का विवाह अपने भानजे से कर उसे गृहजामाता के रूप घर में ही रख लिया। वह आलसी था। पत्नी के कहने पर वह कुठार लेकर जंगल में जाता परन्तु काष्ठ बिना लिए ही लौट आता। छह महीने बीत गए। एक दिन उसे 'कृष्णचित्रकाष्ठ' प्राप्त हुआ। उसने उससे धान्य मापने का कुलक बनाया और उसे एक लाख मुद्राओं में बेचने के लिए अपनी पत्नी को बाजार में भेजा। एक लाख मूल्य में उसे कौन खरीदे ? अंत में एक बुद्धिमान् ग्राहक वणिक् आया। वह पारखी था। उस धान्यमापक पात्र का गुण था कि उससे जो धान्य मापा जाता, वह कम नहीं होता था। उस वणिक ने एक लाख मुद्राएं देकर पात्र खरीद लिया। बढ़ई के जमाता ने अपने कुटुम्ब को धन-धान्य से समृद्ध बना दिया।' अतः सलक्षण अश्वों के लिए पुत्री का विवाह अश्वरक्षक से करना श्रेष्ठ है। ऐसा चिंतन कर उससे कन्या का विवाह कर उसे घरजामाता रख लिया। गा. ३९५९,३९६०वृ. पृ. १०८५ ९१. वारत्तग दृष्टान्त वारत्तणपुर नगर में राजा अभयसेन राज्य करता था। उसका मंत्री वारत्तग था। मंत्री ने पुत्र को घर का सारा दायित्व दिया और स्वयं दीक्षित हो गया। पुत्र ने पितृभक्ति के कारण पिता की स्मृति में एक देवकुल बनवाया। उसमें पात्र, रजोहरण, मुखवस्त्रिका धारण किए हुए पिता की प्रतिमा स्थापित की। एक बार वहां एक पात्रचारी मुनि आया। उसने पात्र में भिक्षा ग्रहण कर आहार किया। फिर उसी पात्र में पानी लिया। थोड़ी देर बाद लघुशंका पात्र में कर परिष्ठापन किया। देवकुल के लोगों ने उसके इस आचार को देखा और सोचा यह साधु एकपात्रधारी है। ये बड़ी शंका (पंचमी) का कार्य कैसे करता है? यथास्थिति जानकर उसे निकाल दिया। फिर कोई वैसा साधु वहां आता तो उसे रहने का स्थान नहीं मिलता। गा. ४०६६ वृ. पृ. १११० ९२. राजा मुरुण्ड कुसुमपुर नगर का राजा मुरुण्ड था। उसकी बहिन छोटी उम्र में विधवा हो गई। उसने अपने भाई राजा मुरुण्ड से कहा-मैं दीक्षा लेना चाहती हूं। राजा ने सोचा-बहिन को किसके पास दीक्षित करें? परीक्षा के निमित्त एक योजना बनायी। उसने महावत को आदेश दिया कि इधर से जो भी साध्वियां गुजरे उनकी ओर हाथी छोड़ देना और उनको कहना-तुम अपने वस्त्र उतार दो अन्यथा हाथी मार देगा। महावत ने आदेश का पालन किया। राजा गवाक्ष में बैठा सारा दृश्य देखने लगा। एक संन्यासिनी उधर से गुजरी उसने भय से सारे वस्त्र उतार दिये। राजा ने जान लिया यह पाखण्डी है। थोड़ी देर बाद एक जैन साध्वी उधर से निकली। उसके साथ वही व्यवहार किया। उसने मुखवस्त्रिका, निषद्या आदि एक-एक वस्त्र डालना प्रारंभ किया। इतने में ही नगरजन एकत्रित हो गए और महावत को कहा-इस तपस्विनी को क्यों सता रहे हो? हाथी को क्यों पीछे कर रहे हो? राजा का आदेश पाकर उसने हाथी को रोकने का प्रयत्न किया। राजा ने सोचा-इस साध्वी ने इतने वस्त्र छोड़ दिए पर अनावृत नहीं हुई। राजा ने उसी साध्वी के पास अपनी बहिन को दीक्षित कर दिया। गा. ४१२३.४१२५ वृ. पृ. ११२३ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ = बृहत्कल्पभाष्यम् ९३. साधु कौन? प्रव्रज्या ग्रहण करने की भावना से एक युवक गुरु के पास जा रहा था। मार्ग में उसने एक कुशील स्त्री के घर के बाहर में रात्रि व्यतीत की। वहां एक यक्ष निरंतर आता था, किन्तु उस रात वह नहीं आया। दूसरी रात्रि में स्त्री ने यक्ष से पूछा-तुम कल क्यों नहीं आए? यक्ष ने कहा-कल यहां यति था। इसलिए नहीं आया। साधु ब्रह्मचर्य के तेज से प्रदीप्त होते हैं, उस तेज का अतिक्रमण कर भीतर आना संभव नहीं है। स्त्री ने कहा-असत्य क्यों बोल रहे हो? कल तो यहां एक तरुण सोया हुआ था। साधु तो आज सो रहा है। उसे लांघकर कैसे आ गए। यक्ष ने कहा कल जो सो रहा था वह प्रव्रज्याभिमुखी था। आज तुम्हारे घर के बाहर जो सो रहा है, वह यतिवेश में चोर है। चारित्र से भ्रष्ट होकर वह चोरी करना चाहता है। गा. ४१९३,४१९४७. पृ. ११३९ ९४. भुततडाग भृगुकच्छ के एक वणिक् को भूतों के अस्तित्व पर विश्वास नहीं था। एक बार वह वणिक् उज्जयिनी नगरी में आया। उसे ज्ञात हुआ कि कुत्रिकापण में भूत आदि प्राप्त होते हैं। वह वहां गया और कुत्रिकापण के स्वामी से 'भूत' देने की बात कही। उस दुकानदार ने सोचा यह वणिक् मुझे धोखा देना चाहता है, इसलिए मैं इससे 'भूत' का इतना मूल्य मांगूं कि यह उसे खरीद ही न सके। उसने कहा यदि तुम मुझे एक लाख रुपये दोगे तो मैं तुम्हें भूत दूंगा। वणिक् ने इतना मूल्य देना स्वीकार कर लिया। तब दुकानदार बोला-देखो, तुमको पांच दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। फिर मैं तुम्हें भूत दे दूंगा। दुकानदार ने तेले की तपस्या कर अपने अधिष्ठाता देव से पूछा। देव ने कहा-तुम वणिक् को निर्धारित मूल्य में भूत दे दो। पर उसको कह देना कि यह भूत विचित्र है। इसे सतत कार्य में व्याप्त रखना होगा। यदि तुम इसको कोई कार्य नहीं दोगे, तो यह तुम्हें मार डालेगा। पांचवें दिन वणिक् आया और भूत की मांग की। दुकानदार ने देवता द्वारा कथित बात बताकर उसे भूत दे दिया। भूत को साथ ले वणिक् भृगुकच्छ चला गया। वहां जाते ही भूत बोला-मुझे कार्य बताओ। वणिक् ने कार्य बताया। भूत ने उसे तत्काल सम्पन्न कर दूसरे कार्य की मांग की। वणिक् के सारे कार्य सम्पन्न हो गए। भूत ने फिर नए कार्य की मांग की, तब वणिक् ने बुद्धिमत्ता से कहा-तुम यहां एक ऊंचा स्तंभ गाड़ो और उस पर तब तक चढ़ते-उतरते रहो जब तक कि मैं तुम्हें दूसरे काम में नियोजित न करूं। यह सुनते ही भूत ने कहा-मैं हारा, तुम जीते। मैं अपनी पराजय के स्मृतिचिह्न के रूप में एक तड़ाग बनाना चाहता हूं। तुम जाते हुए जब तक पीछे मुड़कर नहीं देखोगे, उतने क्षेत्र में एक तालाब निर्मित हो जाएगा। उस वणिक् ने अश्व पर आरूढ़ होकर बारह योजन तक जाने के बाद मुड़कर पीछे देखा। भूत ने तत्काल वहां भृगुकच्छ के उत्तरीभाग में 'भूततड़ाग' नाम का तालाब निर्मित कर दिया। तोसलीनगर का वणिक् उज्जयिनी में आया और एक कुत्रिकापण से ऋषिपाल नामक वानव्यन्तर को खरीदा। आपणिक ने कहा-इस वानव्यंतर को निरंतर कार्य में व्याप्त रखना, अन्यथा यह तुमको मार देगा। वणिक उसे तोसलीनगर ले गया और अपने सारे कार्य करवाकर अंत में उसी प्रकार खंभे पर चढ़ने-उतरने की बात कहकर उसे पराजित कर दिया। उसने भी 'ऋषितडाग' नामक तलाब बना दिया। गा.४२२०-४२२३७. पृ.११४५ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट ९५. दास राजा एक दास राजा की सेवा करता था। एक बार राजा ने दास के कार्य पर प्रसन्न होकर उसे पारितोषिक रूप में एक राज्य दे दिया। दास अब उस राज्य का राजा बन गया। उस राज्य के प्रधान लोग दास रूपी राजा का न आदर करते, न अभ्युत्थान करते। अपितु उसका तिरस्कार करते। उसने ऐसा व्यवहार देखकर आदेश दिया कि जो विनय करेगा उसे बहुमान मिलेगा। जो तिरस्कार करेगा वह दंडित होगा। लोग समझ गए। विनय नहीं किया तो हमारे ही समस्या होगी। वैसे ही साधु को प्राघूर्णक आचार्य आदि के प्रति विनय करना चाहिए। गा. ४४३१,४४३२ वृ. पृ. ११९६ ९६. भद्रक भोजिक राजा के निकट एक भोजिक रहता था। किसी कारण से राजा भोजिक पर प्रसन्न हो गया। प्रसन्न होकर पारितोषिक रूप में एक गांव दिया। वह गांव का प्रधान बन गया। गांववासी भोजिक को प्रधान रूप में स्वीकार कर उसका आदर, सम्मान करते। भोजिक के व्यवहार से सारे ग्रामवासी खुश थे। 'कर' का प्रसंग आया तो वृद्ध और प्रौढ़ लोगों ने भोजिक से कहा-हम कर नहीं देंगे, हमारे पुत्र, पौत्र आदि 'कर' देंगे। उसने स्वीकार कर लिया। ग्रामवासी जो भी निवेदन करते, भोजिक सबकी बात स्वीकार कर लेता। इतने ऋजु व्यवहार के कारण अनेक गलत वृत्तियों का विस्तार हो गया। वे उसका अविनय करने लगे। भोजिक ने सारी स्थिति की जानकारी की। उस पर नियंत्रित करने के लिए जो अविनय करता, उपद्रव करता उसे दंडित किया जाता। दंड के भय धीरेधीरे पुनः लोग विनीतता को प्राप्त हो गए। वैसे ही आचार्य के प्रति शिष्य विनय आदि नहीं करते तो आचार्य रुष्ट होकर प्रायश्चित्त देते हैं। अत्यन्त अपराध होने पर गच्छ से विच्छेद कर देते हैं। विनय नहीं करने पर इहलोक-परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। गा. ४४५८ वृ. पृ. १२०३ ९७. वक्खार भांड एक भाटिक एक नगर से दूसरे नगर में वक्खार-भांड लेकर गया। वक्खार स्वामी साथ में था। उसने कहा-कुछ ठहरो। वक्खार को उतारने का उपयुक्त स्थान ढूंढ लेता हूं। उस भाटिक ने कहा-मैंने तो भांडों को इस नगर में लाने की बात कही थी। यही नगर है। मैं अब अधिक रुक नहीं सकता। उसने वहीं भांडों को उतार डाला। अस्थान पर रखने के कारण वे सारे भांड नष्ट हो गए। गा. ४४७७ वृ. पृ. १२०९ ९८. शर्करा घट एक राजा ने शक्कर से भरे हुए दो घट मंगवाये। उस पर मुद्रा लगाकर दो पुरुषों को देते हुए कहा-इनकी सुरक्षा करना और मांगने पर देना। दोनों घट ग्रहण कर चले गए। एक पुरुष ने उस घट के नीचे राख लगाकर, उसे कंटिकाओं से वेष्टित कर दिया। उसे कपाटयुक्त निर्बाध प्रदेश में रख दिया और तीनों संध्याओं में उसकी देखभाल करता। दूसरे पुरुष ने शर्कराघट को कीटिनगर के पास स्थापित कर दिया। शक्कर की गध से चींटियों ने मुद्रा को छिन्न-भिन्न नहीं किया किन्तु नीचे से घट को चालनी बना दिया। उस जर्जरित बने घट में से सारी शक्कर खा डाली। कुछ समय बाद राजा ने घट मंगवाये। प्रथम पुरुष को पुरस्कृत किया। दूसरे पुरुष को प्रमाद करने के कारण दण्डित किया। इसी प्रकार मुद्रा रूपी मुनि लिङ्ग होने पर भी प्रमादयुक्त साधु के शक्कर रूपी Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८३ =बृहत्कल्पभाष्यम् चारित्र चींटियों से नष्ट हो जाता हैं। जो संयमश्रेणी में आरूढ़ होता है, वह यदा-कदा प्रमाद करके संभल जाता है। गा. ४५१६-४५१९ वृ. पृ. १२२० ९९. बगीचा एक बगीचा था। उसको सारणी से पानी पिलाया जाता था। सारणी में तिनके गिरे। किसी ने उन्हें नहीं निकाला। तिनके गिरते गए। धीरे-धीरे पानी का बहाव रुक गया। पानी के अभाव में बगीचा सूख गया। इसी प्रकार उत्तरगुणों की बार-बार प्रतिसेवना से दोषों का संचय होता है और प्रवहमान संयमजल अवरुद्ध हो जाता है, व्यक्ति चारित्र से च्युत हो जाता है। गा. ४५२२ वृ. पृ. १२२१ १००. शकट और मंडप शकट और मंडप पर सरसों के दाने डाले. वे उसमें समा गए। प्रतिदिन डालते गए, वे समाते गए। एक दिन ऐसा आया कि सरसों ने भार के कारण शकट और मंडप को तोड़ डाला। इसी प्रकार एक-एक दोष चारित्र पर अपना भार डालते रहे तो एक दिन चारित्र टूट जाता है। गा. ४५२२ वृ. पृ. १२२१ १००. वस्त्र दृष्टान्त नया वस्त्र। एक तैल बिन्दु उस पर पड़ा। उसका शोधन नहीं किया गया। उस पर धूल लग गई। दूसरीतीसरी बार भी उस पर तैल पड़ा। शोधन नहीं हुआ। कालान्तर में वह मलिन वस्त्र अत्यंत मलिन हो गया। इसी प्रकार चारित्र भी अपराधपदों से मलिन हो जाता है यदि उनका शोधन न किया जाए। गा. ४५२२ वृ. पृ. १२२१ १०१. अजापालवाचक एक बार आचार्य ने साधुओं को क्षेत्र प्रतिलेखना के लिए भेजा। वे साधु अगीतार्थ थे। साधु आज्ञा प्राप्त कर उस गांव में गए। उस गांव में एक भ्रष्ट व्रती साधु रहता था। उसका उस गांव में अच्छा प्रभाव था। उस गांव में वह प्रमाण पुरुष था। उस गांव में जाकर साधुओं ने लोगों से पूछा यहां कोई वाचक रहता है क्या? लोगों ने बताया हां रहता है। पूछा कहां है? बताया अरण्य में। वे साधु अरण्य में गए। बकरियों की रक्षा करते हुए उस साधु को देखा। वे उससे मिले बिना ही गांव की ओर मुड़ गए। उसने जाते हुए साधुओं को देखकर सोचा-इन्होंने मेरे आचार को जान लिया है। जरूर ये गांव में जाकर मेरे आचार को बता देंगे। वह कुपित होकर अतिशीघ्र पल्लीपति के पास गया और उन साधुओं को बंदी बना दिया। साधु पुनः आचार्य के पास नहीं पहुंच सके। आचार्य उनकी खोज करते हुए उस गांव में पहुंचे। लोगों से यथास्थिति की जानकारी कर वाचक के पास गए। अभिवादन कर उससे कहा ये साधु अगीतार्थ है। ऐसा कहकर उन्हें मुक्त करवाया। गा. ४५३७,४५३८ वृ. पृ. १२२५ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट १०२. उदक दृष्टान्त एक साधु भिक्षा के निमित्त से अन्य गांव जा रहा था। रास्ते में एक आदमी का साथ हो गया। दोनों साथसाथ चले। मार्ग में नदी थी। अन्य मार्ग नहीं था। उसके साथ वह साधु भी नदी पार कर गांव में पहुंच गया। वह आदमी अपनी बहिन के घर चला गया और साधु भिक्षा के लिए चला। अनेक घरों में भिक्षा करता हुआ वह उसी आदमी की बहिन के घर पहुंचा। उसके हाथ गीले थे। वह गीले हाथों से भिक्षा देने के लिए तैयार हुई। साधु ने भिक्षा लेने से इन्कार कर दिया। तब वह आदमी बोला-तुम पाखंडी हो, मायावी हो, धर्मभ्रष्ट हो। नदी पार करने में तो दोष नहीं लगा और गीले हाथ से भिक्षा लेने में दोष है। साधु ने कहा-हम न पाखंडी है और न मायावी। अन्य मार्ग नहीं था इसलिए नदी पार की। जिसे छोड़ा जा सकता है उसे छोड़ देते हैं। गा. ४५७७ वृ. पृ. १२३६ १०३. पिशाच गृह एक किसान ने सुन्दर मकान बनवाया। उसने चिंतन किया कि भोज करने के बाद गृह प्रवेश करेंगे। सारी व्यवस्था हो गई। रात में वाणव्यन्तर देव ने किसान से कहा यदि तुम इस घर में प्रवेश करोगे तो मैं तुम्हारे कुल का उच्छेद कर दूंगा। किसान ने गृह प्रवेश नहीं किया और घर के चारों ओर बाड़ लगा दी। एक दिन वहां साधु आए, उन्होंने किसान से घर की याचना की। किसान ने यथास्थिति बता दी। साधु बोले-यह घर देव परिगृहीत है पर तुम रहने के लिए हमें दे दो। किसान ने साधुओं को घर में रहने की आज्ञा दे दी। साधुओं ने कायोत्सर्ग कर ध्यान कर, देव को आह्वान किया। देव उपस्थित हुआ तब साधुओं ने मकान में रहने की स्वीकृति मांगी। देव ने कहा-आप यहां रह सकते हैं पर ऊपर की मंजिल में मत जाना। उसकी स्वीकृति प्राप्तकर वहां रह गए। फिर अन्य साधुओं के लिए उस ग्राम में रहने की सुविधा हो गई। गा. ४७६८,४७६९ वृ. पृ. १२८१ १०४. अव्याकृत दृष्टान्त राजगृह नगर में एक वणिक् रहता था। वह ऋद्धिमान था। उसने एक अत्यन्त सुन्दर मकान बनवाया। गृह प्रवेश से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गई। धीरे-धीरे पुत्रों के व्यापार में हानि होने लगी। पुत्र वैभव रहित हो गए। इतने बड़े मकान का 'कर' लगता था। पुत्रों ने 'कर' के भय से उसे बन्द कर दिया और छोटी कुटिया में रहने लगे। वह घर साधुओं के रहने के लिए उपयोगी बन गया। गा. ४७७० वृ. पृ. १२८२ १०५. राजकन्या दृष्टान्त पादलिप्त आचार्य ने राजा की बहिन के सदृश एक यन्त्र प्रतिमा बनाई। उस प्रतिमा में चंक्रमण और उन्मेष निमेष की क्षमता थी। उसके हाथ में तालवृन्त का पंखा था। वह आचार्य के सामने प्रस्थापित थी। राजा भी पादलिप्त आचार्य से स्नेह करता था। एक दिन द्वेषवश एक ब्राह्मण ने राजा से कहा-आपकी बहिन आचार्य द्वारा अभिमंत्रित है। राजा को विश्वास नहीं हुआ। ब्राह्मण राजा को अपने साथ ले गया और आचार्य के सम्मुख प्रस्थापित यंत्रमयी प्रतिमा दिखाई। राजा रुष्ट होकर वहां से लौट आया। तब आचार्य ने तत्काल उस प्रतिमा को नष्ट कर विसर्जित कर दिया। राजा का संदेह दूर हो गया। यवन देश में ऐसी प्रतिमाएं प्रचुरता से निर्मित की जाती थी। गा. ४९१५ वृ. पृ. १३१६ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२०= = बृहत्कल्पभाष्यम् १०६. सरसों की भाजी एक मुनि को गोचरी में सरसों की भाजी मिली। उसने आचार्य को उसके लिए निमंत्रित किया। गुरु ने सारी भाजी खाली। शिष्य इससे कुपित हो गया। गुरु ने क्षमायाचना की, पर वह उपशांत नहीं हुआ। तब गुरु ने उस गण के लिए दूसरे आचार्य की स्थापना कर स्वयं अन्य गच्छ में जाकर भक्तप्रत्याख्यान अनशन कर लिया। गुरु कालगत हो गए। उस दुष्ट शिष्य ने अपने साथी साधुओं से गुरु के विषय में पूछताछ की। किसी ने कुछ नहीं बताया तब दूसरे स्रोतों से सारी जानकारी प्राप्त कर वह वहां गया जहां गुरु ने अनशन कर शरीर को त्यागा था। वहां जाकर उसने पूछा-उनका शरीर कहां है? गुरु ने प्राणत्याग से पूर्व ही कह दिया था कि उस दुष्ट शिष्य को मेरे विषय में कुछ मत बताना। अतः उसके पूछने पर भी उन्होंने कुछ नहीं बताया। उसने अन्य स्रोत से सारी जानकारी प्राप्त कर वहां पहुंचा जहां आचार्य के शरीर का परिष्ठापन किया था। उसने उस मृत शरीर को निकाला और गुरु के दांतों को तोड़ते हुए बोला-तुमने इन्हीं दांतों से सरसों की भाजी खाई थी। साधुओं ने यह देखा और सोचा-इस दुष्ट ने प्रतिशोध लेकर अपना क्रोध शांत किया है। गा. ४९८८, ४९८९ वृ. पृ. १३३३ १०७. मुखवस्त्रिका एक साधु को अत्यंत उज्ज्वल मुखवस्त्रिका प्राप्त हुई। उसने गुरु को दिखाई। गुरु ने उसको ले ली। उसके मन में गुरु के प्रति प्रद्वेष उत्पन्न हो गया। गुरु ने यह जाना और मुखवस्त्रिका पुनः देते हुए क्षमायाचना की किन्तु का क्रोध शांत नहीं हो रहा था। यह जानकर गुरु ने भक्तप्रत्याख्यान अनशन ले लिया। रात्री में एकान्त पाकर शिष्य गुरु के निकट गया और गुरु के गले को जोर से दबाया। संमूढ होकर दूसरे शिष्य ने उस दुष्ट का गला पकड़कर जोर से दबाया। दोनों-गुरु और वह दुष्ट शिष्य- मृत्यु को प्रास हो गए। गा. ४९९० वृ. पृ. १३३३ १०८. उलूकाक्ष एक साधु सूर्यास्त के समय कपड़े सी रहा था। दूसरे मुनि ने कहा-अरे उलूकाक्ष! सूर्य के अस्तगत हो जाने पर भी सी रहा है? वह कुपित होकर बोला-'तुम मुझे इस प्रकार कहते हो, मैं तुम्हारी दोनों आंखें उखाड़ दूंगा।' उसे क्रोधाविष्ट देखकर दूसरा शिष्य सहम गया। क्षमायाचना करने पर भी वह शांत नहीं हुआ यह जानकार उस शिष्य के अनशनपूर्वक मरने के पश्चात् पहले शिष्य ने उसकी दोनों आंखें उखाड़ कर 'तुमने मुझे उलूकाक्ष कहा था', यह कहते हुए दोनों आंखें निकाल कर अपना गुस्सा शांत किया। गा. ४९९१ वृ. पृ. १३३३ १०९. शिखरिणी एक बार एक शिष्य को भिक्षा में उत्कृष्ट शिखरिणी की प्राप्ति हुई। कायोत्सर्ग कर गुरु के समक्ष पात्र रख गुरु को उसके लिए आमंत्रित किया। गुरु ने स्वयं समूची शिखरिणी का पान कर लिया। तब उस दुष्ट शिष्य ने गुरु को मारने के लिए दंड उठाकर प्रतीक्षा की। गुरु ने क्षमायाचना की, परन्तु वह शिष्य उपशांत नहीं हुआ। तब गुरु ने अपने गण में ही अनशन स्वीकार कर समाधिमरण को प्राप्त किया। तदनन्तर उस दुष्ट शिष्य ने गुरु के शरीर को दंडे से खूब कूटा फिर उसका गुस्सा शांत हुआ। गा. ४९९२ वृ. पृ. १३३३ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =७२१ ११०. मांसभक्षी एक व्यक्ति गृहवास में मांसभक्षी था। कालान्तर में प्रतिबुद्ध हो उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार भिक्षा के लिए वजन करते हुए कसाइयों द्वारा एक महिष को कटते हुए देखा। पूर्व अभ्यास के कारण महिष के मांस खाने की तीव्र लालसा उत्पन्न हो गई। वह उपाश्रय में लौट आया। रात्री में तीव्राभिलाषा के वशीभूत हो स्त्यानर्द्धि निद्रा में उठा। महिष मंडल में पहुंच एक महिष को मारा। मांस खाकर अपनी मनोभिलाषा पूर्ण कर बचा हुआ मांस उपाश्रय के बाहर डाल पुनः अपनी शय्या पर सो गया। प्रातः गुरु से आलोचना के लिए निवेदन किया कि स्वप्न में मैंने ऐसे किया। सूर्योदय होने पर उपाश्रय के बाहर मांस के टुकड़े देख गुरु ने जाना कि स्त्यानद्धि का प्रभाव है। गा. ५०१८ वृ. पृ. १३४० १११. मोदकभक्त एक साधु गोचरी के लिए घर-घर में भ्रमण कर रहा था। उसने एक घर में मोदक तैयार होते हुए देखा। मोदक खाने की अभिलाषा हो गई। उस दिन काफी घरों में घूमने पर भी मोदक प्राप्त नहीं हुए। गोचरी कर उपाश्रय में लौट आया। रात में सोने के उपरांत मोदक खाने की भावना के वशीभूत हो उठा। पात्र लेकर मोदक वाले गृह के कपाटों को तोड़कर घर में प्रवेश किया। मोदकों को देख वहीं मोदक खाने लगा। मन तृस कर पात्रों को मोदकों से भर उपाश्रय में आ गया। पात्र यथास्थान रख अपने संस्तारक पर सो गया। पश्चिम रात्री में आवश्यक संपन्न कर गुरु के समक्ष स्वप्न बतला आलोचना की। सूर्योदय होने पर पात्र प्रतिलेखन करते समय मोदकों को देख गुरु ने जाना यह स्त्यानर्द्धि निद्रा के कारण हुआ है। गा. ५०१९ वृ. पृ. १३४० ११२. कुंभकार एक कुंभकार प्रतिबुद्ध हो प्रव्रजित हो गया। साधना करते-करते एक रात्री में स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हो गया। पूर्वाभ्यास के कारण पास में सुप्त साधु के सिर को मृत्तिकापिंड समझ पहले उसे पैरों से मसला। उस सिर को घूमाने लगा। कुंभ तैयार हो गया है यह सोच उस सिर का छेदन कर पास में रख सो गया। प्रातः उठ कर गुरु से आलोचना की कि रात स्वप्न में मैंने एक घड़ा तैयार किया। किंचित् प्रकाश होने पर गुरु ने मृत कलेवर को देखा और जान लिया कि स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ है। गा. ५०१८ वृ. पृ. १३४० ११३. मदोन्मत्त हाथी भिक्षा के लिए घूमते हुए एक साधु को सामने से आते हुए एक मदोन्मत्त हाथी ने अपनी सूंड से पकड़ हवा में उछाल दिया। पास ही घास पर गिरने से साधु के विशेष क्षति नहीं हुई किन्तु उसके मन में हाथी के प्रति अत्यन्त प्रद्वेषभाव उत्पन्न हो गए। उस रात उसके स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हो गया। सुबह के प्रद्वेष के कारण वह सीधा हस्तिशाला पहुंचा। हस्तिशाला के दरवाजों को तोड़ भीतर एक हाथी को मुष्टि प्रहार से हत कर उसके दांत उखाड़ दिए। नींद में ही चलते उपाश्रय के बाहर दांत रख पुनः अपनी शय्या पर जाकर सो गया। प्रभात में स्वप्न बतला कर आलोचना की। सुबह क्षेत्र प्रतिलेखन करने पर गुरु ने जान लिया यह स्त्यानद्धि निद्रा के कारण हुआ है। गा. ५०२१ वृ. पृ. १३४१ १. स्त्यानीि निद्रा की उदयावस्था में व्यक्ति की शक्ति शतगुणित हो जाती है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२= बृहत्कल्पभाष्यम् ११४. वटवृक्ष एक बार एक मुनि उद्भ्रामक भिक्षा के लिए मूल गांव के पास वाले गांव में गया। पुनः लौटते समय ग्राम के बाह्य भाग में स्थित विशाल वटवृक्ष की शाखा से उसके सिर टकरा गया। खेद खिन्न हो मन में उस वट के प्रति प्रद्वेष जाग उठा। रात्री में स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हो गया। उपाश्रय से बाहर आ सीधा वटवृक्ष के पास पहुंचा। स्त्यानर्द्धि निद्रा के कारण अतिशय शक्तिसंपन्न उस साधु ने वटवृक्ष को उखाड़ कर उसकी शाखाओं को छिन्नभिन्न कर दिया। कुछ शाखाएं उठा उपाश्रय के द्वारमूल के पास रख अपने शयनीय स्थान पर सो गया। प्रतिक्रमण के पश्चात् गुरु के समक्ष स्वप्न बतला आलोचना की। सूर्योदय होने पर शाखाओं को देख गुरु ने समझ लिया इस साधु के स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ है। गा. ५०२२ वृ. पृ. १३४१ ११६. निमितज्ञ आचार्य उज्जैनी नगरी में एक निमितज्ञ आचार्य थे। उसके दो मित्र थे। वे दोनों व्यापारी थे। वे जब भी कोई व्यापार करते आचार्य से पूछकर करते थे। क्रय-विक्रय क्या करना? जैसा वे बताते वैसा ही करते। ऐसे करते हुए वे दोनों धनी हो गए। एक दिन निमितज्ञ आचार्य का संसारपक्षीय भाणजा आया। उसने मामा महाराज से कहा-मुझे १००० रुपये की जरूरत है। उन्होंने अपने शिष्य के साथ मित्र के पास भेजा। वह गया और बोला १००० रुपये चाहिए। वह बोला-मैं इतने रुपये नहीं दे सकता, यहां कोई स्वर्ण बीट करने वाला पक्षी थोड़े ही है। मैं तो २० रुपये दे सकता हूं। वह मामा के पास गया और सारी बात कह दी। उसने अपने दूसरे मित्र के पास भेजा। उस मित्र ने उसकी खूब आवभगत की और उसको कहा-जितना चाहिए उतना ले जाओ। वह रुपये लेकर मामा के पास आया और मित्र की बहुत प्रशंसा की। दूसरे वर्ष व्यापार के निमित्त दोनों मित्र फिर आचार्य के पास आए। क्या खरीदें ? क्या बेचें? सारी बात पूछी? पहले मित्र के व्यवहार से आचार्य का मन खिन्न था। अतः उन्होंने उसे बताया-तुम्हारे पास जितना धन है उससे कपास, घी, गुड़ खरीदकर घर के अन्दर रख दो। उसने वैसा ही किया। दूसरे मित्र के व्यवहार से आचार्य बहुत प्रभावित थे। उसने उसे कहा-तुम सारा तृण, काष्ठ और धान्य खरीदकर नगर के बाहर रखवा दो। उसने वैसे ही किया। कुछ दिन बाद नगर में आग लग गई। पहले मित्र का सारा माल जल गया। दूसरे का माल बहुत मूल्य में बिका उसके खूब कमाई हुई। पहला मित्र आचार्य के पास आया और बोला-इस बार आपका निमित्त गलत हो गया। आचार्य ने कहा-मेरे पास क्या कोई निमित्त बताने वाला पक्षी है? उसे अपनी गलती का अहसास हुआ, उसने आचार्य से क्षमायाचना की। गा. ५११४ वृ. पृ. १३६२ ११७. वेदोपघात से मृत्यु एक बार राजकुमार हेम इन्द्रमह के अवसर पर इन्द्र-स्थान में गया। वहां उसने नगर की पांच सौ रूपवती कुल-बालिकाओं को देखा और पूछा ये बालिकाएं क्यों आई हैं? क्या चाहती हैं ? सेवकों ने बताया-ये इन्द्र से सौभाग्य का वर चाहती हैं। राजकुमार ने कहा-इन्द्र ने वर रूप में मुझे भेजा है, इसलिए इन सबको अन्तःपुर में ले जाओ। सेवक उन्हें अन्तःपुर में ले गया। राजकुमार ने सबके साथ शादी कर ली। वह उनमें अत्यन्त आसक्त था। आसक्ति के कारण उसका सारा वीर्य निर्गलित हो गया, उससे वेद का उपघात हुआ और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। गा. ५१५३ १. पृ. १३७१ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट ११८. शिष्य कपिल , आचार्य के कपिल नाम का शिष्य था । वह शय्यातर की पुत्री के साथ यदा कदा क्रीड़ा करता था। धीरे-धीरे मुनि कपिल का मन उस कन्या में आसक्त हो गया। वह उससे छेड़खानी करने लगा। एक दिन वह गायों को दुहने के लिए बाड़े में गई। इधर कपिल भी उसी समय भिक्षा के लिए गया उसको अकेली देख उसकी इच्छा के विरुद्ध ही उसे अपनी भार्या बना दिया। उसने अपने पिता से सारी बात कह दी। पिता ने आचार्य से निवेदन किया। एक दिन अत्यधिक आसक्ति के कारण कपिल ने उसका योनि भेद कर लिया। वह बेहोश हो गई। जब उसका पिता घर पर आया और पुत्री की स्थिति देखी तो उसने कपिल का मूल से ही लिंगच्छेद कर लिया। वह नपुंसक बन गया। संयोगवश वह वेश्या के पास पहुंच गया। वहां उसके स्त्रीवेद का उदय हो गया। उसने एक ही भव में तीनों वेदों का अनुभव किया। ११९. बौद्ध भिक्षु एक दिन एक बौद्ध भिक्षु नाव में आरूढ़ होकर दूसरे तट पर जा रहा था। उसने वहां निर्वस्त्र औरत को देखा। वह सहजभाव से अपना कार्य कर रही थी। उस औरत को देखने से ही बौद्ध भिक्षु के वेदोदय हो गया। वह अपने पर नियंत्रण नहीं कर सका। सबके सामने ही औरत के साथ भोग करने लगा। लोगों ने उसे इतना मारा कि वह निवीर्य हो गया। गा. ५१५४ वृ. पृ. १३७१ १२०. द्रव्यमूढ़ वणिक् एक घटिकावोद्र नाम का वणिक् धन कमाने के लिए प्रदेश गया। पीछे उसकी पत्नी अकेली थी। वह किसी पुरुष के प्रति आसक्त हो गई वह पुरुष उसके घर आने लगा। एक दिन उसने कहा तुम्हारा मेरे प्रति सच्चा राग है या नहीं इसका क्या प्रमाण ? तुम्हारे पति के आने पर तुम मुझे छोड़ भी सकती हो। अतः एकान्त और विश्वास के बिना भोग संभव नहीं हो सकता। पहले तुम ऐसा उपाय करो जिससे तुम और मैं सदा साथ रह सके। अन्य कोई अपने बीच में न आए। इसके लिए एक उपाय किया। एक शव को घर में लाकर रख दिया और घर के आग लगा दी। दोनों अन्यत्र चले गए। गा. ५१६५ वृ. पृ. १३७४ कुछ दिन बाद वणिक् नगर में आया तो देखा कि घर जलकर भस्म हो गया। राख में एक व्यक्ति की अस्थियां पड़ी है। उसने सोचा कि मेरी पत्नी जलकर मर गई है उसका पत्नी के प्रति अनुराग था। लोक मान्यतानुसार पत्नी की गति अच्छी हो ऐसा सोचकर अस्थियां लेकर गंगा नदी की ओर चल पड़ा। संयोग से गंगातट पर उसकी पत्नी ने उसे देखा और पहचान गई। उससे परिचय पूछा-उसने अपनी राम कथा कह दी और कहा घर पर आग लग जाने से मेरी पत्नी जल कर मर गई मैं उसकी अस्थियां गंगा में बहाने आया हूं। जिससे उसका कल्याण हो सके। ऐसा कहते कहते रोने लगा। उसका व्यवहार देख वह सोचने लगी इनका मेरे प्रति कितना अनुराग है, प्रेम है ? मैं अभागी अन्य के साथ बंध गई। उसका प्रेम पुनः जागृत हो गया। उसने कहा-मैं ही तुम्हारी पत्नी हूं, मैं मरी नहीं। वह बोला- मेरी पत्नी तुम्हारे सदृश ही थी पर तुम कैसे हो? मैं उसकी अस्थियां लाया हूं। उसने विश्वास पैदा करने के लिए अतीत की अनेक गुप्त बातें बता दी अपनी गुप्त बातें सुनकर उसे विश्वास हो गया कि यही मेरी पत्नी है। गा. ५२९५ वृ. पृ. १३८६ ७२३ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ = बृहत्कल्पभाष्यम् १२१. कालमूढ़ ग्वाला वाला प्रतिदिन प्रातः गायों को चराने के लिए जंगल में जाता और सायंकाल के समय गांव में गायों को लेकर आ जाता। एक दिन गरिष्ठ भोजन कर सो गया। जब उसकी नींद खुली तब आकाश सघन बादलों से आच्छादित था। दिन को रात समझ कर वह गायों को लेकर गांव में आया। गायों को अपने-अपने स्थान पर छोड़कर वेश्या के पास चला गया। लोगों ने उसका यह व्यवहार देखा तो उसे बुरा-भला कहा। उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। गा. ५२१६ वृ. पृ. १३८६ १२२. गणनामूढ़ उष्ट्रपालक एक ऊंटपालक के पास २१ ऊंट थे। उसने एक ऊंट पर बैठे-बैठे ही ऊंटों की गणना शुरू कर दी। उसकी गणना में ऊंट बीस ही हो रहे थे। जिस पर बैठा उसे गिनना भूल गया। बार-बार गिनने पर भी २१वां ऊंट मिल नहीं रहा था। वह परेशान हो गया। उसने सोचा एक ऊंट खो गया। इतने में उसने एक व्यक्ति को आते हुए देखा। वह निकट पहुंच गया तब उसने कहा-तुमने कहीं एक ऊंट देखा है ? मेरा ऊंट खो गया। उसने पूछा-तुम्हारे पास कितने ऊंट थे। वह बोला-२१। उसने गणना की तो २१ ऊंट पूरे हो गए। उसने कहा-जिस पर तुम बैठे हो वह २१वां ऊंट है। गा. ५२१७वृ. पृ. १३८६ १२३. सादृश्यमूढ़ सेनापति चोरों का सेनापति अपने अनेक साथियों के साथ गांव में चोरी करने गया। वहां वह व्यक्तियों को मारने लगा। गांव का प्रधान वहां पहुंचा और चोर सेनापति के साथ युद्ध करने लगा। युद्ध में चोर सेनापति की मौत हो गई। प्रधान और चोर सेनापति की सूरत मिलती-जुलती (एक-समान) थी। ग्रामीणों ने सोचा-प्रधान मर गया। उन्होंने उसका दाह-संस्कार कर दिया। चोरों ने प्रधान को अपना सेनापति समझकर उसे अपनी पल्ली में ले आए। उसने चोरों से कहा-मैं सेनापति नहीं हूं पर वे माने नहीं। एक दिन मौका देखकर वह वहां से भाग कर गांव में आया। ग्रामीणों ने उसे देखा और भयभीत हो गए। उन्होंने सोचा यह मरकर भूत बन गया। साहस जुटाकर किसी ने पूछा-तुम मर चुके हो, अब भूत हो या पिशाच ? यहां क्यों आए हो? उसने कहा-मैं न भूत हूं न पिशाच। मैं मरा नहीं। युद्ध से पूर्व और वर्तमान की सारी स्थिति बताने पर गांव वालों को विश्वास हुआ कि यह प्रधान ही है। गा. ५२१७ वृ. पृ. १३८६ १२४. वेदमूढ़ राजा आनन्दपुर नगर में राजा जितारि का शासन था। उसके एक रानी थी। रानी ने पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम अनंग रखा। वह जन्म से ही रोने लगा। उसका रोना बंद ही नहीं होता। अनेक उपाय करने पर भी वह चुप ही नहीं हुआ। एक दिन रानी सहज भाव से पुत्र को चुप करने के लिए उसे जानु और ऊरु के बीच बैठाकर खिलाने लगी। अचानक दोनों के गुह्य स्थान का स्पर्श हो गया। स्पर्श होते ही उसका रोना बंद हो गया। जब-जब वह रोता तब-तब रानी वैसा ही करती और वह रोना बंद कर देता। राजकुमार बड़ा होने लगा। इस व्यवहार के प्रति आसक्ति बढ़ने लगी। राजा की मृत्यु हो गई। अनंग का राज्याभिषेक किया। वह उम्र से छोटा होने के कारण Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =७२५ मंत्री राज्य का पालन करता था। मंत्री को मां-बेटे के इस व्यवहार का पता चला तो उसने अनंग को समझाया पर वह माना नहीं। माता के साथ निःसंकोच भोग भोगता रहा। गा. ५२१८ वृ. पृ. १३८७ १२५. भोगासक्ति एक वणिक् को अपनी पत्नी के प्रति अपार स्नेह था। वह व्यापार के निमित्त से प्रदेश जाना चाहता था। उसने पत्नी से प्रदेश जाने की इच्छा व्यक्त की। वह बोली-पतिदेव! मैं आपके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकती, मैं भी आपके साथ ही चलूंगी। वणिक ने उसकी बात स्वीकार कर ली। पत्नी सगर्भा थी। शुभ मुहूर्त में दोनों जहाज में रवाना हो गए। संयोग की बात जहाज समुद्र के बीच पहुंचा और तूफान आ गया। भयंकर तूफान से जहाज टूट गया। वणिक् समुद्र में गिर जाने से मर गया और उसकी पत्नी के काष्ठ हाथ लग गया। वह काष्ठ के सहारे तैरती हुई अन्तर द्वीप पहुंच गयी। जंगल में उसने पुत्र को जन्म दिया। पुत्र के प्रति आसक्ति बढ़ने लगी। दोनों ही भोग भोगने लगे। उसने पुत्र को ऐसे संस्कार दिये कि वह मनुष्य को देखने मात्र से भयभीत हो जाता। एक बार किसी व्यापारी का जहाज टूट गया तो कुछ वणिक् काष्ठ के सहारे उसी जंगल में पहुंच गए। उन्होंने उस बच्चे को देखा और सोचा इससे कुछ जानकारी कर ले। किन्तु उस बालक ने उनको देखा और देखते ही भाग गया। वे सभी वणिक् उसी जंगल में रहने लगे। धीरे-धीरे बालक के साथ उनका सम्पर्क बढ़ा। यथास्थिति ज्ञात हुई तो उन्होंने बालक से कहा कि मां के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। इससे महापाप होता है। मां-बेटे दोनों परस्पर राग रंजित थे। उन्हें अपना आचरण गलत नहीं लगता। गा. ५२२३ वृ. पृ. १३८८ १२६. अंध दृष्टान्त अंधपुर नगर पर अनंध राजा का शासन था। राजा अंधों का बहुत आदर करता था। एक दिन राजा ने राज्य के सभी अंधे मनुष्यों को आमंत्रित किया। वे आए, राजा ने उन्हें राजदरवार में अग्रिम पंक्ति में स्थान दिया। खूब आवभागत की, खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था की और आभूषणों से अलंकृत किया। वे सभी धनी हो गए। नगर में उनके रहने की उचित व्यवस्था की। किसी धूर्त ने अंधों के प्रति राजा का यह व्यवहार देखा तो वह अंधों की सेवा में लग गया। मिथ्या-उपचार से उसने उनका मन जीत लिया और सबका विश्वास-पात्र बन गया। वे सभी उसका गुणानुवाद करते तो वह कहता मैं अंधों का दास हूं, आपकी सेवा करना मेरा परम कर्त्तव्य है। एक दिन अवसर देखकर धूर्त ने कहा-मैं आपको अपने-अपने घर पहुंचा दूंगा। पर रास्ता विकट है। वहां चोर और डाकुओं का स्थान है। आप सावधान होकर मेरे साथ चले। सब तैयार हो गए। मार्ग में धन सुरक्षित रखने के बहाने उसने सबसे अपना-अपना अंतर्धन मांगा। सबने विश्वास के कारण धन दे दिया। थोड़ी दूर चले ही थे और उन्हें एकदूसरे से बांध दिया और कहा-आप इस मार्ग पर चलते रहे कोई कुछ भी कहे तो उन्हें पत्थर की मारना। क्योंकि वे चोर ही होंगे। मैं धन सुरक्षित रखता हुआ आगे-आगे चल रहा हूं। धूर्त सारा धन लेकर नो दो ग्यारह हो गए। वे पूरी रात घूमते रहे। रात बीती, सूर्योदय हुआ और ग्वाले गायों को चराने के लिए जंगल में आए। उन्होंने अंधों को पर्वत के चारों ओर चक्कर लगाते देखा तो ग्वाले बोले देखो बेचारे डूंगर के चारों ओर घूम रहे है। यह सुनते ही वे पत्थर फैंकने लगे। मार की डर से ग्वाले भाग गए। गा. ५२२६ वृ. पृ. १३८९ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ = =बृहत्कल्पभाष्यम् १२७. धूर्त स्वर्णकार एक स्वर्णकार ने एक युवक के कानों में सोने के कुंडल देखे। उसने कुंडल ग्रहण करने का चिंतन किया। स्वर्णकार ने उस युवक को संबोधित करते हुए कहा-भाणेज ! कैसे आये हो? बहुत वर्षों बाद ननिहाल की याद आयी है क्या? आओ, आओ तुम्हारे मामी तो तुम्हें बहुत याद करती है। चलो, घर चलो। युवक ने सोचा-मेरा ननिहाल तो इसी नगर में है पर मैं बहुत छोटा था तब आया था। मैं मामा को पहचानता नहीं हूं। संभव है यह मेरे मामा ही हो। वह मामा के पास रहने लगा। कुछ दिन बाद स्वर्णकार ने कहा-भाणेज! इन कुंडल को देख कोई कोई चोर कान नहीं काट दे। मैं इन पर पालिश कर दूंगा। जिससे ये कुंडल स्वर्णवत् प्रतीत नहीं होंगे। उसने कुंडल दे दिए। स्वर्णकार ने वे कुंडल रख लिये और अन्य धातु के वैसे ही कुंडल बनाकर दे दिये। वह बाहर गया, लोगों ने उसके कुंडल देखकर कहा-ये कुंडल सोने के नहीं है खोटे प्रतीत होते है। वह बोला-आप नहीं जानते। मैं और मेरे मामा ही जानते हैं। ये खोटे नहीं सोने के ही है। लोगों के समझाने पर भी वह सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता। गा. ५२२७ वृ. पृ. १३८९ १२८. शशक मशक भरत क्षेत्र में एक वनवासी नगरी थी। वहां जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसके शशक-मशक दो पुत्र और सुकुमारिका पुत्री थी। दोनों भाई यौवनावस्था में ही विरक्त होकर दीक्षित हो गए। दीक्षित होकर दोनों ने आगमों का गहन अध्ययन किया। जिससे वे गीतार्थ साधुओं की गणना में आने लगे। एक बार वनवासी नगरी में अचानक आग लग गई। सुकुमारिका को छोड़ पूरा वंश नष्ट हो गया। कुछ दिनों बाद शशक-मशक साधुओं को यह घटना ज्ञात हुई। वे दोनों अपनी संसारपक्षीया बहिन को दर्शन देने वनवासी नगरी में आए। भाई साधुओं को देखते ही उसका मन वैराग्य से भर गया। सुकुमारिका के मन को विरक्त जानकर उसे दीक्षित कर दिया। तीनों तुरमिणी नगरी आ गए। वहां महत्तरिका के पास साध्वी सुकुमारिका को छोड़कर वे आचार्य के पास चले गये। साध्वी सुकुमारिका अत्यधिक रूपवती थी। वह भिक्षा के लिए जब भी उपाश्रय में बाहर जाती तो अनेक युवक उसके पीछे हो जाते, उपाश्रय में आकर बैठ जाते। अन्य साध्वियों को प्रतिलेखना आदि कार्य करने में कठिनाई होती। साध्वी सुकुमारिका भी तंग हो जाती। उसके रूप और लावण्य के कारण उपाश्रय युवकों से खाली नहीं होता। सभी साध्वियों ने प्रधान साध्वी को निवेदन किया। उसने गुरु से यथास्थिति ज्ञात की। गुरु ने शशक-मशक साधुओं को निर्देश दिया-तुम दोनों अब साध्वी सुकुमारिका की रक्षा का दायित्व संभालो। वे गुरु के निर्देशानुसार अन्य उपाश्रय में रहने लगे। दोनों सहस्रयोधी थे। एक भिक्षा के लिए गांव में जाता तो दूसरा उसकी रक्षा के लिए उपाश्रय में रहता। अनेक युवक साध्वी सुकुमारिका को देखने के लिए उपाश्रय में जाना चाहते पर वे उन्हें हत-प्रहत कर देते। जिस घर के युवकों के साथ मार-पीट होती, उस घर से उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं होती। ऐसा करते-करते एक दिन ऐसा आ गया कि तीनों के लिए पर्याप्त आहार नहीं मिलता। जब दूसरा भिक्षा के लिए जाता जब तक काल का अतिक्रमण हो जाता अतः उसे भिक्षा प्राप्त नहीं होती। दोनों चिन्तित हो गए। सुकुमारिका को पता चला कि भिक्षा पर्यास नहीं मिलती। वह अपने भाई साधुओं से बोली-आप चिन्ता न करें, मैं भक्त-प्रत्याख्यान करना चाहती हूं। उसने अनशन कर लिया। उसके मारणान्तिक समुद्घात हुआ। दोनों ने उसका शरीर ठंडा जानकर सोचा यह कालगत हो गई। परिष्ठापन हेतु एक ने उपकरण उठाये तथा दूसरे ने उसका पार्थिव शरीर उठाया और जंगल की ओर चल पड़े। मार्ग में शीतल हवा लगी वह थोड़ी-थोड़ी सचेत होने लगी। भाई के स्पर्श से उसके मन में विकार पैदा हो गया। दोनों भाईयों ने जंगल में उसका शरीर परिष्ठापन कर दिया और दोनों नगर में आ गए। रात्री में शीतल पवन के स्पर्श से वह पूर्ण सचेत हो गई। उठकर वह इधर-उधर घूमने लगी। प्रभात होते ही उसने एक सार्थवाह पुत्र को देखा। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और एक दूसरे से Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =७२७ आकृष्ट हो गए। दोनों की परस्पर स्वीकृति हुई और विवाह हो गया। सुकुमारिका उसके साथ रहने लगी। एक दिन शशक-मशक दोनों घूमते-घूमते उसके घर पहुंचे। उसने भाई साधु को पहचान लिया। वह उनके चरणों में गिर पड़ी। पुनः दीक्षा ग्रहण कर अपनी आत्मा का कल्याण किया। गा. ५२५५-५२५९ वृ. पृ. १३९७ १२९. भगिनी युगल एक नगर में एक संपन्न कुल से दो सगी बहिनों ने प्रव्रज्या ग्रहण की। कालान्तर में पूरा कुल प्रक्षीण हो गया। केवल उनका भाई जीवित बचा। दोनों आर्यिकाओं ने अपने भाई का दर्शन देने तथा उसे संसार से विरक्त करने के लिए अपने गांव आई। भाई को संसार की असारता समझा प्रव्रजित करने के लिए गुरु के समक्ष लाई। प्रवजित होकर भाई संयम साधना में लग गया। किशोर वय से योवनावस्था में प्रवेश होते ही उसका रूप आकर्षक हो गया। वह जहां भी जाता गांव की तरुण युवतियां उसके रूपाकर्षण में बंध जाती। उपाश्रय में भी काल विकाल में युवतियां आती रहती। इससे साधुओं की चर्या में विघ्न पड़ने लगा। साधुओं ने गुरु से निवेदन किया। गुरु ने मुनि को भगिनीद्वय के पास संरक्षण के लिए भेज दिया। दोनों साध्वियां तरुणियों को समझाती किन्तु वे उसका मोह छोड़ने के लिए तैयार नहीं होती। अपने कारण दोनों बहिनों को कष्ट उठाते देख मुनि ने भक्त प्रत्याख्यान कर लिया। मारणान्तिक समुद्घात हुआ। साध्वियों ने देखा कि भाई का स्वर्गवास हो गया है। दोनों ने उसे उठाया और जंगल में छोड़ आई। स्त्री स्पर्श से उस मुनि के मन में विकार उत्पन्न हो गया। जंगल की शीतल वायु से वह पूर्ण चैतन्य हुआ। इधर-उधर घूमने लगा। श्रेष्ठी पुत्री ने उसे देखा। दोनों का मन मिला और वह वहीं रहने लगा। कालान्तर में साध्वियों ने भाई को देखा और उसे पहचान लिया। सारी स्थिति स्पष्ट कर पुनः धर्मकथा की। भाई पुनः प्रतिबुद्ध हुआ। आत्म साधना कर अपनी आत्मा का कल्याण किया। गा. ५२६१-५२६२ वृ. पृ. १३९९ १३०. जागरूक गृहस्वामिनी एक वणिक् बहुत कृपण था। उसे अपनी पत्नी पर भी विश्वास नहीं था। इसलिए भोजन के लिए जितनी जरूरत होती उतना ही चावल, घी, लवण आदि खाद्य सामग्री देता। पत्नी बहुत समझदार थी उसने सोचा-पति तो इतनी अल्पमात्रा में खाद्य-सामग्री लाकर देता है। यदि विकाल में कोई स्वजन या मित्र घर पर आ जायेगा तो मैं उनको क्या खिलाऊंगी? ऐसा सोचकर वह उस सामग्री में से ही थोड़ा-थोड़ा बचा कर रख लेती। बहुत समय व्यतीत हो गया। उसके पास काफी खाद्य-सामग्री एकत्रित हो गई। एक बार रात्री में पति का मित्र आ गया। वणिक् को चिंता सताने लगी। आरक्षकों के भय से दुकान पर भी जाना संभव नहीं है-घर पर भी कुछ नहीं होगा। मित्र को भोजन कैसे कराऊंगा? पत्नी ने पति के भावों को जान लिया। वह बोली आप चिन्ता न करे। सारी व्यवस्था हो जायेगी। मित्र ने स्नान किया तब तक खाना तैयार हो गया। अच्छी तरह भोजन किया फिर सो गया। प्रातः जल्दी नाश्ता कर उसने अपने नगर की ओर प्रस्थान कर दिया। मित्र के जाने के बाद उसने पत्नी से पूछा-मैं तुम्हें परिमित अन्न आदि देता हूं फिर भी तुमने मेरे मित्र का अच्छा आतिथ्य कैसे कर दिया? उसने सारी बात बता दी। पति बहुत खुश हुआ। घर की सारी जिम्मेदारी पत्नी को सौंप दी। गा. ५२९३ वृ. पृ. १४०६ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८E बृहत्कल्पभाष्यम् १३१. मुरुण्ड राजा पाटलीपुत्र नगर में राजा मुरुंड का शासन था। एक दिन राजा नौका में बैठकर गंगा नदी का आनन्द ले रहा था। अचानक उसकी दृष्टि साधुओं पर टिकी। उसने नाविक को उस ओर जाने का निर्देश दिया। कुछ ही देर बाद राजा साधुओं के निकट पहुंच गया। साधुओं को दूसरे तट पर जाना था। राजा ने साधुओं से कहा-आप नौका में बैठे और जब तक तट न आए तब तक आप कथा कहें। साधुओं ने कथा प्रारंभ की। कथा में आनन्द आने लगा। नाविक नौका को धीरे-धीरे खेने लगा। थोड़ी देर बाद अन्यतट पर पहुंच गए। राजा अन्तःपुर में चला गया। साधु अपने उपाश्रय में पहुंच गया। राजा कथा सुनकर बहुत प्रभावित हुआ। उसने रानियों के सामने साधु की प्रशंसा की। उनके मन में कथा सुनने का आकर्षण पैदा कर दिया। साधु नौका विहार का प्रायश्चित्त कर शुद्ध होकर साधना में लीन हो गए। रानियों का मन कथा सुनने के लिए आकुल-व्याकुल होने लगा। वे बार-बार राजा को कहती। राजा ने साधु की खोज करवाकर अन्तःपुर में कथा सुनाने का निवेदन किया। वह प्रतिदिन अन्तःपुर में कथा वाचन करने लगा। वह साधु कथावाचन के कारण सूत्र और अर्थ का परिमंथु बन गया। गा. ५६२५ वृ. पृ. १४८८ १३२. चार पत्नियां एक व्यक्ति के चार पत्नियां थी। एक दिन चारों पत्नियों ने कोई अपराध कर लिया। उसने चारों को घर से निकलने का आदेश दिया। पहली पत्नी अन्य के घर चली गई। दूसरी पत्नी पीहर चली गई। तीसरी पत्नी उसके मित्र के घर चली गई और चौथी पत्नी घर से बाहर नहीं गई, वह बोली-मारो-पीटो, कुछ भी करो मैं घर छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। चौथी पत्नी के व्यवहार से प्रसन्न उसने उसको घर की स्वामिनी बना दिया। तीसरी पत्नी जो मित्र के घर गई, उसे रोष रहित तिरस्कार किया और घर ले आया। दूसरी पत्नी जो पीहर गई, उसे पिता के बल पर गर्व था। उससे रुष्ट हो गया। उसके पारिवारिक लोगों के कहने पर उसने उसका सरोषपूर्वक तिरस्कार किया, दंडित किया फिर घर लाया। पहली पत्नी जो पर घर गई थी उसकी उसने चिंता नहीं की। परस्थानीय-अवसन्न साधु, कुलस्थानीय-अन्य संभोजिक, मित्र घर-समान संभोजिक और स्वघर के समान-सगच्छ साधु होते हैं। गा. ५७६१ वृ. पृ. १५१८ १३३. कुमार दृष्टान्त एक राजा के तीन पुत्रों ने परस्पर मिलकर मंत्रणा की हम पिता को मारकर राज्य को तीन भागों में बांट लेते हैं। यह बात राजा को ज्ञात हुई। उसने अपने बड़े पुत्र को बुलाया और क्रोधित होते हुए कहा-तुम मेरे बड़े पुत्र हो, युवराज हो, प्रमाणभूत (प्रधान) हो। फिर तुमने ऐसा अकार्य करने की योजना कैसे की और राजा ने उस ज्येष्ठ पुत्र का भोगहरण किया, बंधन, ताड़न, तिरस्कार आदि सब प्रकारों से प्रताड़ित और दण्डित किया। मध्यमपुत्र भ्रमित किया हुआ है, अप्रधान है-यह सोचकर राजा ने उसका भोगहरण नहीं किया, केवल बंधन, ताड़न-खिंसना आदि उपायों को काम में लिया। कनिष्ठ पुत्र अव्यक्त है, ठगा गया है, यह सोचकर केवल उसके कान पर एक चपेटा दिया और खिंसना की। लोक-लोकोत्तर में सर्वत्र वस्तु सदृश दंड दिया जाता है। प्रधान प्रमाण पुरुष के अपराध करने पर अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। गा. ५७८० वृ. पृ. १५२२ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट = ==७२९ १३४. अमात्य-बटुक दृष्टान्त एक दिन रंक बटुक जीमनवार में गया। वहां दूध, घी आदि से बना गरिष्ठ भोजन अतिमात्रा में कर लिया फिर राजमार्ग से जाने लगा। उसके पेट में दर्द होने लगा। धीरे-धीरे जी मचलने लगा और वमन शुरू हो गया। रंक बटुक को वमन करते हुए अमात्य ने देख लिया। उसने जैसा खाया वैसा ही निकल गया। रंक बटुक ने पुनः उसे खा लिया। यह देखकर अमात्य को वमन होने लगा। अब अमात्य जब-जब भोजन करता उसे वमन हो जाता। पाचन अस्वस्थ होने से एक दिन मृत्यु की गोद में सो गया। गा. ५८३१७. पृ. १५३८ १३५. रत्न वणिक् एक वणिक् रत्न प्राप्त करने की इच्छा से घर से निकला। जलपथ, थलपथ की क्लेशपूर्ण यात्रा करते हुए अति कठिनाई से पांच रत्नों को प्राप्त किया। फिर वह स्वदेश के लिए रवाना हुआ। रास्ते में एक भयंकर अटवी आ गई। अटवी भील, डाकू आदि से आकीर्ण थी। उसने सोचा-इस अटवी को निर्विघ्न कैसे पार किया जा सकता है। उसने रत्नों को एक स्थान पर सुरक्षित छुपा दिया। कुछ चमकीले पत्थर लेकर चलते-चलते अटवी में रोने लगा। रोता हुआ बोलना शुरू किया कि मेरे रत्न हरण हो गए, मैं लूटा गया। उसकी आवाज सुन-चोर, भील सभी एकत्रित हो गए। और बोले-कहां है तुम्हारे रत्न? कौन ले गया? कैसे थे तुम्हारे रत्न? उसने पत्थरों की ओर इशारा किया। उन्होंने उसे पागल जानकर वहीं छोड़कर चले गए। कुछ दिन वणिक् ऐसे ही करता रहा। धीरे-धीरे अपने देश का रास्ता परिचित कर लिया। एक रात में वह रत्न लेकर उसी प्रकार बोलते-बोलते अटवी को पार कर गया। रास्ते में भयंकर प्यास सताने लगी। कहीं पानी नहीं दिखा। उसने सोचा क्या करूं? थोड़ी दूरी तय करने पर दुर्गन्धयुक्त पानी देखा। 'इसे पी प्यास शान्त करता हूं नहीं तो मैं मर जाऊंगा। ये रत्न क्या काम आयेंगे?' ऐसा सोचकर उसने पानी पी प्यास शान्त की। फिर अपने घर गया और स्वजनों के साथ आराम से रहने लगा। गा. ५८५७,५८५८ वृ. पृ. १५४५ १३६. असार संसार एक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी बहुत बीमार हो गई। इलाज कराने पर भी स्वास्थ्य लाभ नहीं हुआ। एक दिन उसकी मृत्यु हो गइ। पुत्र मां की अस्थियां लेकर गंगा नदी गया। पैदल जाने से बहुत समय बीत गया। पीछे थ पुत्रवधु का परस्पर संबंध हो गए। हास्य-क्रीड़ा आदि करने लगे। निर्लज्ज होकर दोनों भोग भोगते। पुत्र अचानक घर आया, उसने पिता और पत्नी का व्यवहार देखा और संसार से विरक्त हो साधु बन गया। गा. ५९४२ वृ. पृ. १५६७ १३७. मोक चिकित्सा महाविषधर सर्प ने राजा को डस लिया। विष फैलने लगा। वैद्य को बुलाया गया। वैद्य ने आते ही राजा की स्थिति देखी और कहा-किसी का मूत्र औषध रूप में राजा को दिया जाए जो राजा स्वस्थ हो सकता है। एक रानी का मूत्र औषधी रूप में राजा को दिया गया, धीरे-धीरे विष उतर गया और राजा स्वस्थ हो गया। राजा ने पूछा-कौनसी औषध दी जिससे मेरा विष उतर गया। अमात्य ने बता दिया कि अमुक रानी का मूत्र। राजा उस Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० बृहत्कल्पभाष्यम् रानी के प्रति अतिआसक्त हो गया। उसके साथ निरंतर प्रतिसेवना करने लगा। अत्यधिक काम सेवन से राजा का प्रचुर मात्रा में वीर्य क्षय होने लगा। राजा मरणासन्न हो गया। वैद्य आया, उसने राजा के रोग को समझा फिर चिंतन कर कहा--यदि वीर्य को दूध के साथ राजा को दिया जाए तो राजा स्वस्थ हो सकता है। वैसा ही किया गया। राजा स्वस्थ हो गया। गा. ५९८७-५९८८ वृ. पृ. १५८१ १३८. खिंसना दोष . एक साधु के पास जो उपसंपदा ग्रहण करता वह पहले उसके जाति, कुल, देश और कर्म व्यवसाय के विषय में पूछता। आगंतुक शिष्य पढ़ने लगते। यदि कहीं वे स्खलित हो जाते तो शिक्षक साधु उनकी जाति आदि से खिंसना करता। तब वे प्रतीच्छक सोचते-हम यहां सूत्रार्थ ग्रहण करने के आशय से आए थे किन्तु हमारी खिंसना होती है। यह बात सब जगह प्रसारित हो गई। अब उसके पास सूत्रार्थ ग्रहण करने के लिए कोई भी साधु हिचकिचाते। इससे श्रुतहानि होने लगी। __एक साधु ने सोचा। मैं उस मुनि के पास जाकर सूत्र और अर्थ ग्रहण करूंगा और उस मुनि को भी खींसना दोष से मुक्त करूंगा। उसने आचार्य से उस मुनि के पास उपसंपदा ग्रहण करने की अनुमति मांगी। आचार्य ने कहा-वह मुनि अभी गोबरग्राम में मिलेगा। यह सुन वह वहां से प्रस्थित हो गोबरग्राम पहुंचा। ग्राम में पहुंच उसने लोगों से मुनि की जाति-कुल आदि के विषय में जानकारी ली। उसे ज्ञात हुआ मुनि की माता धन्निका नाम की दासी थी। वह खल्वाट कोलिक के साथ रहती थी। वह जानकारी ले वह साधु उपसंपदा ग्रहण करने उस मुनि के पास पहुंचा। उपसंपदा ग्रहण करवा कर मुनि ने आगंतुक साधु से उसकी जाति, कुल आदि के विषय में पूछा। तब वह मौन रहा। मौन देख मुनि ने सोचा निश्चिन्त ही यह हीन कुल का है। अतः आदतानुसार उसने आग्रह पूर्वक पूछा। तब उस साधु ने कहा-आपके पास उपसंपदा ग्रहण कर ली है। आपने क्या छूपाना। किसी दूसरे के समक्ष ऐसी कष्टपूर्ण बात कैसे कहूंगा? बइदिस नगर के निकट गोबरग्राम में एक धूर्त्त कोलिक खल्वाट स्थविर था। उसके नापित की दासी धन्निका नाम की पत्नि थी। मैं उनका पुत्र हूं। यह बात मैं केवल आपको बता रहा हूं। इसे आप गुप्त रखना। मैं जब गर्भ में था तब मेरा बड़ा भाई प्रव्रजित हो गया। मैंने जब यह सुना तब भाई के अनुराग से मैं भी प्रव्रजित हो गया। यद्यपि मेरे भाई का ऐसा आकार नहीं हैं-आकार का विसंवाद है फिर भी जाति आदि के चिह्नों से संवादिता है। ___ यह सुन खिंसना दोष करने वाला मुनि सोचने लगा-मैं इस साधु द्वारा निपुण उपाय से छला गया हूं। अब यदि इसकी खिंसना करूंगा तो मेरी खिंसना होगी। यह मेरा छोटा भाई बन गया है। फिर उस साधु से प्रतिबुद्ध हुआ। 'मिच्छामि दुक्कडं' ले उसने उससे क्षमायाचना की और उसे सूत्रार्थ की वाचना भी दी। इस प्रकार उसका खिंसना दोष भी धीरे-धीरे मिट गया और श्रुतहानि को भी रोक लिया। गा, ६०९४-६०९८ १. पृ. १६११ १३९. चंडरुद्र आचार्य आचार्य चंडरुद्र अत्यन्त क्रोधी थे। एक बार वे अपने शिष्यों के साथ उज्जैनी पधारे। वे एकान्त में स्वाध्यायरत थे। इतने में ही एक नव विवाहित युवक मित्रों के साथ आया। साधुओं से वंदना कर बोला-भंते ! मुझे धर्म बताएं। साधुओं ने आचार्य के पास भेज दिया। आचार्य उसके उपहास को समझ गए। वह बोला-भंते! मुझे दीक्षा दें। आचार्य ने राख मंगवाई और उसका लोच कर लिया। मित्रों ने कहा-तुम भाग जाओ। वह भावों में मुनि बन गया। मित्र भाग गए। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =७३१ दूसरे दिन उसने आचार्य से निवेदन किया-भंते ! यहां से अन्यत्र चलें क्योंकि मेरे परिवार वाले मुझे घर चलने के लिए बाध्य करेंगे। रात्री में आचार्य ने अपने नवदीक्षित के साथ प्रस्थान किया। शिष्य आगे चल रहा था। चलते-चलते अंधकार की सघनता के कारण आचार्य के ठोकर लगी और गिर पड़े। उन्होंने क्रोध के वशीभूत होकर दंडे से शिष्य पर प्रहार किया, सिर फूट गया पर शिष्य ने उस पीड़ा को समभाव से सहा। उसने सोचा, मैं कितना अधम हूं कि अपने शिष्यों के साथ सुखपूर्वक रहने वाले आचार्य को मैंने इस विपत्ति में डाला। वह पवित्र अध्यवसायों की श्रेणी में आगे बढ़ा और केवली बन गया। रात बीती। आचार्य ने रुधिर से अवलिप्त शिष्य के शरीर को देखा। मन ही मन अपने कृत्य के प्रति ग्लानि हुई। शुभ अध्यवसाय के आलोक में स्वयं के कृत्य की निन्दा की और स्वयं भी केवली बन गए। गा. ६१०३ वृ. पृ. १६१२ १४०. रोहा परिवाजिका एक परिवाजिका अरण्य में रहती थी। एक अजा बालक बकरियों को चराने वहीं आता था। एक दिन वह परिवाजिका को देखकर जामुन के वृक्ष पर चढ़ गया और उसने पूछा-शीतल फल दूं या उष्ण? परिव्राजिका ने कहा-उष्ण फल। उसने फल तोड़े और रेत में फेंके। परिवाजिका ने रेत से फल उठाये और फूंक से रेत को साफकर खाने लगी। परिवाजिका ने कहा-उष्ण फल कहां? वह बोला-फल उष्ण नहीं तो फूंक क्यों दे रही हो? फूंक देने से ऐसा ही प्रतीत होता है कि फल उष्ण है। थोड़ी देर बाद पुनः परिव्राजिका कपटपूर्वक बोली-मेरे मातृस्थान पर कांटा लग गया, मेरे बहुत वेदना हो रही है। तुम निकाल सकते हो। वह निकालने के लिए तत्पर हुआ, ध्यान से देखा पर उसे कांटा नजर नहीं आया। वह मन ही मन हंसने लगी। धीरे-धीरे संयोग बढ़ा और ब्रह्मचर्यव्रत खंडित हो गया। गा. ६१६९ वृ. पृ. १६३० १४१.शातवाहन गोदावरी नदी तट पर प्रतिष्ठान नाम का नगर था। वहां शातवाहन नाम का राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम था खरडक। एक बार राजा ने अपने दंडनायक को बुलाया और कहा-जाओ, मथुरा नगरी को हस्तगत कर शीघ्र लौट आओ। वह शीघ्रता के कारण और कुछ जानकारी किए बिना ही अपने सैनिकों के साथ चल पड़ा। रास्ते में उसने सोचा, मथुरा नाम के दो नगर हैं। एक है दक्षिण मथुरा और दूसरा है उत्तर मथुरा। किस नगर को हस्तगत करना है ? उस राजा की आज्ञा बहुत ही कठोर होती थी। उससे पुनः पूछना संभव नहीं था। तब उस दंडनायक ने अपनी सेना को दो भागों में बांट दिया। दोनों नगरों पर सैनिकों का अधिकार हो गया। सैनिकों ने दंडनायक के पास शुभ सामाचार प्रेषित किया। दंडनायक स्वयं राजा के पास आकर बोला-देव! हमने दोनों नगरों पर अधिकार कर लिया है। इतने में ही अन्तःपुर से एक दूती ने आकर राजा को वर्धापित करते हुए कहा-राजन् ! पट्टदेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। एक अन्य सदस्य ने आकर कहा-देव! अमुक प्रदेश में विपुल निधियां प्राप्त हुई हैं। इस प्रकार एक के बाद एक शुभ संवादों से राजा का हृदय हर्षातिरेक से आप्लावित हो गया। वह परवश हो गया। उस हर्षातिरेक को धारण करने में असमर्थ राजा अपनी शय्या को पीटने लगा, खंभों को आहत करने लगा। भींत को तोड़ने लगा तथा अनेक असमंजसपूर्ण प्रलाप करले लगा। तब अमात्य खरडक राजा को उपचारित व प्रतिबोधित करने के लिए स्वयं ही खंभों को, भींत को फोड़ने लगा। राजा ने पूछा-ये सारी चीजें किसने नष्ट की है? अमात्य बोला-आपने। राजा ने कहा-तुम मेरे समक्ष झूठ बोल रहे हो। ऐसा कहकर कुपित राजा ने अमात्य को पैरों से ताड़ित किया। अमात्य मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। इतने में ही उसके द्वारा पूर्व निर्दिष्ट पुरुष दौड़े-दौड़े वहां आए और अमात्य को उठाकर ले गए। उसे अज्ञात स्थान पर रख दिया। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ = बृहत्कल्पभाष्यम् एक बार विशेष प्रसंग पर राजा ने अपने व्यक्तियों से पूछा-अमात्य कहां है ? पुरुषों ने कहा-देव! आपने उसे अविनीत मानकर मरवा डाला है। यह सुनते ही राजा शोक-विह्वल होकर विलाप करने लगा। कि अरे! मैंने अकार्य कर डाला। लोगों ने कुछ नहीं बताया। जब राजा स्वस्थ हुआ तब उन लोगों ने कहा-देव! हम खोज करते हैं कि जिन चंडालों को आपने अमात्य को मार डालने का आदेश दिया था, कहीं उन्होंने उसे छिपाकर तो नहीं रखा है? उन लोगों ने कुछ दिन गवेषणा का बहाना करते हुए, एक दिन अमात्य को राजा के समक्ष उपस्थित कर दिया। अमात्य को देखकर राजा संतुष्ट हुआ। अमात्य ने तब सारा वृत्तांत सुनाया। प्रसन्न होकर राजा ने उसे विपुल धन दिया। गा. ६२४४,६२४५ वृ. पृ. १६४७ १४२. सपत्नी दृष्टान्त एक सेठ के दो पत्नियां थी। एक प्रिय थी, दूसरी अप्रिय। अप्रिय पत्नी अकाममरण से मरकर व्यंतरी बनी। श्रेष्ठी भी स्थविरों के पास धर्म-श्रवण कर प्रव्रजित हो गया। प्रिय पत्नि भी प्रवर्जित हो गई। वह व्यंतरी पूर्वभव के वैर के कारण साध्वी (पूर्व सपत्नि) के छिद्र देखने लगी। एक बार साध्वी प्रमत्त थी। व्यंतरी ने उन्हें ठग लिया। उसे क्षिप्त कर दिया। गा. ६२५९ वृ. पृ. १६५१ १४३. कर्मकर दृष्टान्त एक कौटुंबिक की पत्नी रूपवती थी। कर्मकर उस पर मोहित हो गया। कर्मकर ने उससे भोग की प्रार्थना की। उसने प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया। उस कर्मकर का उसके प्रति अत्यधिक आसक्ति हो गयी। वह अकामनिर्जरा से मर कर व्यन्तर देव बना। इधर वह संसार से विरक्त होकर प्रव्रजित हो गई। देव ने साध्वी के प्रमाद को जानकर ठग लिया। उसे क्षिप्त कर दिया। गा. ६२६० वृ. पृ. १६५२ १४४. भ्राता दृष्टान्त एक गांव में दो भाई साथ-साथ रहते थे। ज्येष्ठ भाई छोटे भाई की पत्नी में अनुरक्त हो गया। उसने उससे भोग की प्रार्थना की। उसने प्रार्थना को अस्वीकार कर लिया। ज्येष्ठ भाई ने सोचा जब तक छोटा भाई जीवित रहेगा तब तक मेरी इच्छा पूर्ण नहीं होगी। जैसे-तैसे छोटे भाई को मार देना चाहिए। ऐसा सोच ज्येष्ठ भाई मारने का अवसर देखने लगा। एक दिन मौका देखकर खाद्य वस्तु में विष मिलाकर छोटे भाई को खाने के लिये दिया। खाते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। भाई का कार्य सम्पन्न कर उसकी पत्नी के पास गया और भोग की इच्छा व्यक्त की। उसने सोचा भोग के निमित्त से जेठ ने भाई को मार डाला। धिक्कार है ऐसे भोगों को। वह विरक्त होकर प्रव्रजित हो गई। ज्येष्ठ भाई दुःख से संतप्त होकर अकाम-निर्जरा से मृत्यु को प्राप्त होकर व्यन्तर देव बना। उसने विभंग-अज्ञान से पूर्वभव के वैर को जानकर साध्वी के प्रमाद को देख उसे छल लिया। उसे यक्षाविष्ट कर क्षिप्त कर दिया। गा. ६२६१ वृ. पृ. १६५२ Jain Education international Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा परिशिष्ट =७३३ १४५. साधु (राजपुत्र) दृष्टान्त मथुरा नगरी में एक देव निर्मित स्तूप था। उसकी पूजा के निमित्त श्राविका साध्वियों के साथ बाहर गई। एक साधु (पूर्व राजकुमार) वहां आतापना ले रहा था। चोर श्राविकाओं का अपहरण कर ले जाने लगे। उन्होंने जोर से आक्रन्दन किया। राजपुत्र ने आक्रन्दन सुना। वह निकट आया, चोरों से युद्ध कर उन्हें मुक्त करा लिया। गा. ६२७५ वृ. पृ. १६५६ १४६. पुत्री-विमुक्ति मथुरा नगरी में एक वणिक् अपनी भार्या के साथ प्रव्रजित हुआ। उसने अपनी एक छोटी लड़की को अपने मित्र को सौंपा। काल बीतते बीतते मित्र कालगत हो गया। दुर्भिक्ष के कारण मित्र का परिवार छिन्न-भिन्न हो गया। वह लड़की भी भटकती-भटकती दासत्व को प्राप्त हो गई। विहरण करते हुए उसके पिता मुनि उस ग्राम में आए। उसने पिता को पहचान लिया। पिता से दासत्व से मुक्त कराने के लिए निवेदन किया। पिता का सुप्स मोह जाग गया। पिता उसके स्वामी से मिला और उससे कहा-यह ऋषिकन्या है। तुम्हारे घर से दुर्भिक्ष आदि मिट गया है। इस अब मुक्त कर दे। इतना कहने पर भी वह यदि नहीं मानता है तो मुनि सरोष स्वर में कहता है। 'मैं तुम्हें शाप दूंगा, जिससे तुम नष्ट हो जाओगे।' ऐसे अथवा अन्य किसी प्रकार से डरा-धमका कर पिता ने अपनी संसारपक्षीया पुत्री को मुक्त करा दिया। गाथा. ६२९३-६२९५ वृ. पृ. १६६१ १४७. श्रेष्ठी दृष्टान्त एक बार राजदरबार में किसी व्यक्ति ने हास्यकारी वचन बोले। उसके वचनों को सुनते ही सारे लोग हंसने लगे। दरबार में एक श्रेष्ठी भी आया हुआ था। वह भी हंसा। सबकी हंसी थोड़ी देर बाद रुक गई पर उसकी हंसी नहीं रुकी। वह इतना तेज हंसा कि उसका मुंह खुला ही रह गया। अनेक प्रयत्नों के बाद भी उसका मुख बंद नहीं हुआ। अनेक वैद्यों ने प्रयत्न किये पर सफलता नहीं मिली। एक आगन्तुक वैद्य भी वहीं था। वह वैद्य बोला-मैं इसकी चिकित्सा कर सकता हूं। उसने लोहे के फलक को तपाया-जब वह अग्निवत् बन गई। तब उस फलक को श्रेष्ठी के मुख में डालने लगा। उस भय से उसका मुख बंद हो गया। गा. ६३२५ वृ. पृ. १६७० १४८. मृत दृष्टान्त एक बार एक साधु भिक्षा के लिए जा रहा था। उस समय रानी गवाक्ष में बैठी नगर को निहार रही थी। रानी ने देखा-एक साधु भिक्षा के लिए जा रहा है और हंस भी रहा है। हंसते हुए उस साधु को देखकर रानी ने राजा से कहा-देखो-देखो मृत हंस रहा है। राजा ने पूछा-कहां है? उसने साधु की ओर ईशारा किया। राजा ने कहा-यह साधु है, मृत कैसे? रानी बोली इस भव में इसने समस्त सांसारिक सुखों को त्याग दिया। किन्तु साधुचर्या में जागरुक नहीं है अतः यह जीता हुआ भी मरा हुआ है। गा. ६३२६ वृ. पृ. १६७० Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ बृहत्कल्पभाष्यम् १४९. लेखक दृष्टान्त | एक बार राजा ने अपने सभासदों से पूछा-कौन व्यक्ति शीघ्र कार्य करने में समर्थ है और कौन कम समय में अधिक दूरी तय कर सकता है? लेखक ने कहा-अमुक व्यक्ति पवन वेग से जा सकता है और कार्य अतिशीघ्र पूर्ण कर सकता है। राजा ने उस व्यक्ति को बुलाया और किसी कार्य के लिए नियोजित किया। वह अतिशीघ्र कार्य पूर्ण कर राजा के पास पहुंच गया। राजा ने प्रसन्न होकर उसकी धाविक रूप में नियुक्ति की। लेकिन उसके मन के प्रतिकूल नियुक्ति होने के कारण वह रुष्ट हो गया। अनेक व्यक्तियों से पूछताछ की कि राजा को मेरा नाम किसने बताया? तब किसी ने कहा-अमुक लेखक ने। नाम सुनते ही आवेश में आकर उसने लेखक को मार डाला। गा. ६३२८ वृ. पृ. १६७१ १५०. औषिध एक राजा के एक पुत्र था। वह राजा की इकलौती संतान थी। राजकुमार के प्रति सबका स्नेह था। एक बार राजा ने सोचा-मैं अपने पुत्र को कुछ ऐसे रसायनों का सेवन करवाऊं जिससे वह कभी रोग-ग्रस्त न हो। सदा स्वस्थ रहे। राजा ने सुप्रसिद्ध तीन वैद्यों को बुलवाया। वे आये। राजा ने उनसे कहा-मेरे पुत्र की ऐसी चिकित्सा करो जिससे वह सदा निरामय रहे। पहले वैद्य ने कहा-मेरी औषधि से यदि कोई रोगी है तो वह स्वस्थ हो जायेगा और रोग नहीं है तो यह मर जायेगा। दूसरे वैद्य ने कहा मेरी औषधि के द्वारा यदि कोई रोगी है तो वह स्वस्थ हो जायेगा और यदि रोगी नहीं है तो उसके कुछ असर नहीं होगा। तीसरे वैद्य ने कहा-राजन्! मेरी औषधि ऐसी है यदि रोग है तो ठीक हो जायेगा और रोग नहीं है तब लावण्य युक्त, रूप सम्पन्न और अन्यगुणों से युक्त हो जायेगा। राजा ने तीसरे वैद्य को राजकुमार की चिकित्सा के लिए नियुक्त किया। वैसे ही प्रतिक्रमण से अतिचार की विशुद्धि हो जाती है। यदि अतिचार नहीं लगा हो तो चारित्र विशुद्ध होता है और नये कर्मों का आगमन नहीं होता। गा. ६४२८-६४३० वृ. पृ. १६९३ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्त और सुभाषित गुणसुट्ठियस्स वयणं, घयपरिसित्तु व्व पावओ भाइ । गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो ॥ (बृभा - २४५) - गुणों में सुस्थित मुनि का वचन घृत से सिंचित अग्नि की भांति देदीप्यमान होती है। गुणहीन मुनि का वचन शोभित नहीं होता, जैसे-तैलविहीन दीपक । को कल्लाणं निच्छइ ! (बृभा - २४७) -कल्लाण कौन नहीं चाहता! जो उत्तमेहिं पहओ मग्गो, सो दुग्गमो न सेसाणं । (बृभा - २४९) - जो मार्ग उत्तम पुरुषों द्वारा क्षुण्ण है, वह शेष व्यक्तियों के लिए दुर्गम नहीं होता । जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुंति अववाया । जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ॥ (बृभा- ३२२) - जितने उत्सर्ग के नियम हैं, उतने ही हैं अपवाद के नियम । जितने अपवाद के नियम हैं, उतने ही हैं उत्सर्ग के नियम | अंबत्तणेण जीहाइ कूइया होइ खीरमुदगम्मि । हंसो मोत्तूण जलं, आपियइ पयं तह सुसीसो ॥ (बृभा-३४७) -हंस की जिह्वा अम्ल होती है। ज्यों ही दूध में हंस चोंच डालता है, जिह्वा की अम्लता के कारण दूध की कूचिका - गुच्छे बन जाते हैं। हंस उन्हें खा लेता है और पानी को छोड़ देता है। इसी प्रकार सुशिष्य गुणों को ग्रहण कर लेता है, दोषों को छोड़ देता है। For Private परिशिष्ट २ मसगो व्व तुदं जच्चाइएहिं निच्छुब्भई कुसीसो वि । (बृभा- ३५०) - जो कुशिष्य जातिमद आदि से दूसरों को पीड़ित करता है वह मच्छर की भांति निष्काशित कर दिया जाता उड़ा दिया जाता है। खीरमिव रायहंसा, जे घोट्टंति उ गुणे गुणसमिद्धा । दोसे वि य छडुंती, ते वसभा धीरपुरिस त्ति ।। (बृभा- ३६६) - जैसे गुणसमृद्ध शिष्य गुणों का आस्वादन करता है, और दोषों का परित्याग कर देता है, वह केवल दूध को ग्रहण करने वाले राजहंस की भांति शोभित होता है। वही वृषभ है, धीरपुरुष है। अद्दागसमो साहू। - साधु दर्पण की भांति होता है। पावाणं जदकरणं, तदेव खलु मंगलं परमं । (बृभा-८१२) Personal Use Only (बृभा- ८१४) - पाप न करना ही परम मंगल है। एगेण कयमकज्जं, करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो । सायाबहुल परंपर, वोच्छेदो संजम तवाणं ॥ (बृभा- ९२८) - एक मुनि यदि अकार्य करता है तो उसके आधार पर दूसरे मुनि भी अकार्य में प्रवृत्त होते हैं। सातबहुल प्राणियों की इस परंपरा से संयम और तप का व्यवच्छेद हो जाता है। दंसण - चरणा मूढस्स नत्थि समया वा नत्थि सम्मं तु । (बृभा- ९३२) - दर्शन और चारित्र से मूढ़ व्यक्ति में न समता होती है और न सम्यक्त्व | Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हा ७३६ बृहत्कल्पभाष्यम् रज्जं विलुत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो। जह जह सुयमोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं । (बृभा-९३७) तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ। -जैसे राजा द्वारा अराक्षित राज्य साररहित हो जाता (बृभा-११६७) है, वैसे ही सारणा-वारणा रहित गच्छ भी निस्सार हो -मुनि जैसे-जैसे विशेष रस से संयुक्त उस अपूर्व श्रुत जाता है। का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे मुनि नए-नए संवेग की संपत्ती य विपत्ती य, होज्ज कज्जेसु कारगं पप्प। श्रद्धा से प्रह्लादित होता है, आनन्दित होता है। अणवायतो विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं॥ न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्म। (बृभा-९४९) (बृभा-११६९) -कर्ता के आधार पर कार्य में संपत्ति सफलता और --स्वाध्याय के समान दूसरों कोई तपःकर्म न है और न विपत्ति-असफलता मिलती है। अनुपाय से किए हुए कार्य में होगा। विपत्ति और काल तथा उपाय से किए हुए कार्य में संपत्ति जच्चंघस्स व चंदो, फुडो वि संतो प्राप्त होती है। (बृभा-१२२४) जह ण्हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे। -जन्मान्ध व्यक्ति स्पष्टरूप से दृश्य चन्द्रमा का भी सुट्ट वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ॥ विश्वास नहीं करता। (बृभा-११४७) कत्थ व न जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होइ। -जैसे हाथी स्नान कर लेने के पश्चात् अपने शरीर कत्थ वरलक्खणधरा, न पायडा होति सप्परिसा॥ पर प्रचुर धूली डाल देता है वैसे ही अज्ञानी शिष्य संयम में (बृभा-१२४५) प्रचुर उद्यम करके भी, असंयमरूपी कर्ममल का उपचय -अग्नि कहां नहीं जलती? चन्द्रमा कहां प्रकट नहीं कर देता हैं। होता? उत्तम लक्षणों से युक्त सत्पुरुष कहां प्रकट नहीं होते? आयहियमजाणतो, मुज्झति मूढो समादिअति कम्मं। उदए न जलइ अग्गी, अब्भच्छन्नो न दीसई चंदो। कम्मेण तेण जंतू, परीति भवसागरमणंतं॥ मुक्खेसु महाभागा, विज्जापरिसा न भायंति॥ (बृभा-११६३) (बृभा-१२४६) -आत्महित को न जानता हुआ मूढ़ व्यक्ति मोहग्रस्त -पानी में अग्नि नहीं जलती। मेघाच्छन्न आकाश में होकर कर्मों का बंध करता है। वह उन कर्मों के कारण चन्द्रमा दृष्ट नहीं होता। मूर्यों में महाभाग विद्यापुरुष भवसागर में अनन्त बार परिभ्रमण करता है। शोभित नहीं होते। आयहियं जाणंतो, अहियनिवित्तीए हियपवित्तीए। सुक्किंधणम्मि दिप्पइ, अग्गी मेहरहिओ ससी भाइ। हवइ जतो सो तम्हा, आयहियं आगमेयव्वं ॥ तविहजणे य निउणे, विज्जापरिसा वि भायंति॥ (बृभा-११६४) __ (बृभा-१२४७) -जो आत्महित को जानता है वह अहित की निवृत्ति -सूखे इंधन से अग्नि प्रज्वलित होती है। मेघरहित और हित की प्रवृत्ति में प्रयत्न करता है। इसलिए आत्महित आकाश में चन्द्रमा शोभित होता है तथा निपुण लोगों के का ज्ञान करना चाहिए। बीच विद्यापुरुष शोभित होते हैं। सज्झायं जाणंतो, पंचिदियसंवुडो तिगुत्तो य। होइ य एक्वग्गमणो, विणएण समाहिओ साह ।। को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए। (बृभा-११६५) दुद्वे वि उ जो आसे, दमेइ तं आसियं बिंति॥ -स्वाध्याय अर्थात् श्रुत को जानने वाला मुनि पांचों (बृभा-१२७५) इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से गुप्त, एकाग्रमनवाला और -भद्र अश्वों का दमन करने में कौन सा सारथित्व विनय (आचार) से समाहित होता है। है? दुष्ट अश्वों का दमन करने वाला अश्वंदम कहलाता है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ सूक्त और सुभाषित माई अवन्नवाई, किब्विसियं भावणं कुणइ। (बृभा-१३०२) -जो साधुओं का अवर्णवाद बोलता है वह मायावी किल्विषिक भावना करता है, दुर्गति का बंध करता है। काउंच नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ। (बृभा-१३१९) -जो अकार्य करके अनुताप नहीं करता, वह निष्कृपदयाविहीन होता है। खामिंतस्स गुणा खलु, निस्सल्लय विणय दीवणा मग्गे। लाघवियं एगत्तं, अप्पडिबंधो अ॥ (बृभा-१३७०) -क्षमायाचना से निष्पन्न गुण-निःशल्यता, विनय, संयममार्ग की दीपना, हल्कापन, एकत्व की अनुभूति, अप्रतिबद्धता का विकास। धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्धंठें अधेणूतो। (बृभा-१९४४) -दूध पाने का अत्यंत आकांक्षी पुरुष भी अधेनु से दूध प्राप्त नहीं कर सकता। जो उ परं कंपंतं, दट्टण न कंपए कढिणभावो। एसो उ निरणुकंपो। (बृभा-१३२०) -जो दूसरे को प्रकंपित देखकर भी स्वयं प्रकंपित नहीं होता, वह कठोरभाव वाला व्यक्ति दयाविहीन होता है। दीवा अन्नो दीवो, पइप्पई सो य दिप्पइ तहेव। सीसो च्चिय सिक्खंतो, आयरिओ होइ नऽन्नत्तो॥ (बृभा-२११२) -एक दीपक से दूसरा दीपक जलाया जाता है और पूर्व दीपक प्रद्योतित रहता है। इसी प्रकार शीक्षमाण शिष्य ही आचार्य बनता है, दूसरा नहीं। अप्पाहारस्स न इंदियाइं विसएस संपवत्तंति। नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए यावि॥ (बृभा-१३३१) -अल्पाहार करने वाले व्यक्ति की इन्द्रियां विषयों में प्रवृत्त नहीं होती। वह तपस्या से क्लान्त नहीं होता। वह स्निग्ध भोजन में आसक्त नहीं होता। सुयभावणाए नाणं, दंसण तवसंजमं च परिणमइ। (बृभा-१३४४) -श्रुतभावना से ज्ञान, दर्शन, तप और संयम की सम्यक् परिणति होती है। तं तु न विज्जइ सज्झं, जंधिइमंतो न साहेइ। (बृभा-१३५७) -ऐसा कोई साध्य नहीं है, जिसे धृतिमान् पुरुष सिद्ध न कर सके। जइ किंचि पमाएणं, न सुट्ठ भे वट्टियं मए पुब्विं। तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥ (बृभा-१३६८) सीहं पालेइ गुहा, अविहाडं तेण सा महिड्डीया। तस्स पुण जोव्वणम्मिं, पओअणं किं गिरिगुहाए। (बृभा-२११४) -सिंहशिशु का रक्षण गुफा करती है, इसलिए गुफा महर्द्धिक है। जब वह युवा हो जाता है तब गुफा का क्या प्रयोजन? सिंह स्वयं महर्द्धिक हो जाता है। न यसो भावो विज्जइ, अदोसवं जो अनिययस्स। (बृभा-२१३८) -जगत् में ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो अनुद्यमी व्यक्ति के लिए दोषवान् न हो। वालेण य न छलिज्जइ, ओसहहत्थो वि किं गाहो? (बृभा-२१६०) -क्या औषधियुक्त हाथ वाला गारुडिक भी दुष्ट सर्प से नहीं छला जाता? उदगघडे वि करगए, किमोगमादीवतं न उज्जलइ। अइइन्द्रो वि न सक्कइ, विनिव्ववेउं कुडजलेणं॥ (बृभा-२१६१) -हाथ में पानी से भरा एक घड़ा है, फिर भी क्या अग्नि से प्रज्वलित घर नहीं जलेगा? अतिदीप्त अग्नि एक घड़े पानी से नहीं बुझाई जा सकती। -यदि मैंने अतीत काल में प्रमादवश उचित वर्ताव न किया हो तो मैं शल्यरहित और कषायरहित होकर क्षमायाचना करता हूं। For private & Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =बृहत्कल्पभाष्यम् राग-होसविमुक्को, सीयघरसमो उ आयरिओ॥ (बृभा-२७१६) आचार्य शीतगृह के समान होते हैं। रागद्वेष से विप्रमुक्त होते हैं। जो पुण जतणारहितो, गुणो वि दोसायते तस्स। (बृभा-३१८१) जो यतनारहित होता है, उसके गुण भी दोष हो जाते हैं। कलं विणासेइ सयं पयाता, नदीव कुलं कुलडा उ नारी। (बृभा-३२५१) स्वच्छंदरूप से चलने वाली कुलटा नारी दोनों कुलों-पितृकुल और श्वसुरकुल का विनाश कर देती है जैसे महाप्रवाह से नदी अपने दोनों कुलों-तटों का विनाश कर देती है। अंधो कहिं कत्थ य देसियत्तं। (बृभा-३२५३) अंधा व्यक्ति मार्गदर्शक नहीं हो सकता। ७३८ चूयफलदोसदरिसी, चूयच्छायं पि वज्जेइ। (बृभा-२१६६) -आम्रभक्षण में दोष देखने वाला, आम्रवृक्ष की छाया का भी वर्जन करता है। कम्म चिणंति सवसा, तस्सदयम्मि उ परव्वसा होति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो॥ (बृभा-२६८९) -जीव कर्मों को बांधने में स्वतंत्र होता है, परन्तु कर्मों के उदय में वह परवश होता है। मनुष्य वृक्ष पर चढ़ने में स्ववश होता है, परंतु उससे विगलित होने में वह परवश है। कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माइं। कत्थइ धणियो बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ (बृभा-२६९०) संसारी जीव कर्म के वशीभूत होते हैं। कहीं-कहीं कर्म जीव के वशीभूत होते हैं। कहीं-कहीं धनिक (ऋण देने वाला) बलवान् होता है। कहीं-कहीं धारणिक (ऋण लेने वाला) बलवान होता है। जइ परो पडिसेविज्जा, पावियं पडिसेवणं। मज्झ मोणं चरतस्स, के अद्वे परिहायई। (बृभा-२७०२) यदि कोई पापकारी प्रवृत्ति करता है तो मेरा क्या? मौन का आचरण करने वाले मेरे क्या कोई ज्ञान के अर्थ की परिहानि होती है? कुछ भी नहीं। (गच्छ में यह उपेक्षा उचित नहीं होती। अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी। (बृभा-२७११) साधर्मिक अवात्सल्य से दर्शन की हानि होती है। अकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ। (बृभा-२७१२) निश्चय नय के अनुसार अकषाय ही चारित्र है। कषायसहित कोई संयत नहीं होता। जं अज्जियं चरितं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए। तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहत्तेण॥ (बृभा-२७१५) जो चारित्र देशोनपूर्वकोटि वर्षों में अर्जित होता है, उसको कषायित चित्त वाला व्यक्ति एक मुहूर्त मात्र में नष्ट कर देता है। बुद्धीबलं हीणबला वयंति, किं सत्तजुत्तस्स करेइ बुद्धी। वसुंधरेयं जह वीरभोज्जा। (बृभा-३२५४) निःसत्त्व व्यक्ति ही बुद्धिबल को बड़ा कहते हैं। जो सत्त्वयुक्त हैं उनका बुद्धि क्या करेगी? पृथ्वी शूरवीरों द्वारा भोग्य होती है। जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी। जो सुवति ण सो धण्णो, जो जग्गति सो सया धण्णो। (बृभा-३३८२) मनुष्यो! जागो, प्रतिदिन जागरूक रहो। जो जागता है उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है वह धन्य नहीं होता। जो जागता है वह धन्य होता है। सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था। तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्म।। (बृभा-३३८३) सोने वाले पुरुषों के ज्ञान आदि सारभूत अर्थ नष्ट हो जाते हैं। इसलिए पुरुषो! जागते रहो और बंधे हुए कर्मों को तोड़ डालो। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७३९ देहबलं खलु विरियं, बलसरिसो चेव होति परिणामो। (बृभा-३९४८) देह की शक्ति वीर्य कहलाती है। इस शक्ति के सदृश होता है परिणाम। सूक्त और सुभाषित सुवति सुवंतस्स सुतं, संकित खलियं भवे पमत्तस्स। जागरमाणस्स सुतं, थिर-परिचितमप्पमत्तस्स॥ (बृभा-३३८४) जो सोता है उसका श्रुत भी सो जाता है। जो प्रमत्त होता है उसका श्रुत शंकित तथा स्खलित हो जाता है। जो जागता है और अप्रमत्त रहता है उसका श्रुत स्थिर और परिचित रहता है। नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया। न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया॥ (बृभा-३३८५) जहां आलस्य है वहां सुख नहीं, जहां निद्रा है वहां विद्या नहीं, जहां ममत्व है वहां वैराग्य नहीं और जहां हिंसा है वहां दयालुता नहीं है। ण सुत्तमत्थं अतिरिच्च जाती। (बृभा-३६२७) सूत्र अर्थ का अतिरेक नहीं करता। संजमहेऊ जोगो, पउज्जमाणो अदोसवं होइ। जह आरोग्गणिमित्तं, गंडच्छेदो व विज्जस्स। (बृभा-३९५१) संयम के लिए जो प्रवृत्ति होती है वह दोषवान् नहीं होती। जैसे वैद्य रोगी के आरोग्य के लिए व्रण आदि का छेदन करता है, वह अदोषवान् है। ___ण भूसणं भूसयते सरीरं, विभूसणं सील हिरी य इत्थिए। (बृभा-४११८) स्त्रियों के शरीर को कोई आभूषण भूषित नहीं करता। उनका आभूषण है-शील और लज्जा। गिरा हि संखारजुया वि संसती, अपेसला होइ असाहुवादिणी। (बृभा-४११८) संस्कारयुक्त वाणी भी यदि असाधुवादिनी है तो वह सभा में शोभित नहीं होती। बाला य वुड्डा य अजंगमा य, लोगे वि एते अणुकंपणिज्जा। (बृभा-४३४२) लोक में ये सारे व्यक्ति अनुकंपनीय माने जाते हैं बाल, वृद्ध और अजंगम नर-नारी। न य मूलविभिन्नए घडे, जलमादीणि धलेइ कण्हुई। (बृभा-४३६३) मूल में फूटा हुआ घट पानी को धारण करने में समर्थ नहीं होता। जस्सेव पभावुम्मिल्लिताइं तं चेव हयकतग्घाई। कुमुदाइं अप्पसंभावियाई चंदं उवहसंति॥ (बृभा-३६४२) जिस चन्द्रमा के प्रभाव से कुमुद खिलते हैं, वे 'हम ही शोभायमान हैं'-इस आत्मश्लाघा से चन्द्रमा का उपहास करते हैं। यह कृतघ्नता है। नहु होइ सोइयव्वो, जो कालगओ दढो चरित्तम्मि। सो होइ सोतियव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे॥ (बृभा-३७३९) उसके विषय में कोई शोक नहीं करना चाहिए जो चारित्र में दृढ़ रहकर कालगत हुआ है। वही शोचनीय होता है जो संयम में दुर्बल रहकर जीता जहा तवस्सी धुणते तवेणं, कम्मं तहा जाण तवोऽणुमंता। (बृभा-४४०१) जैसे तपस्वी अपने तप के द्वारा कर्मों को नष्ट करता है वैसे ही उस तप का अनुमोदन करने वाला भी कर्मों का क्षय करता है। लद्भूण माणुसत्तं, संजमसारं च दुल्लभं जीवा। (बृभा-३७४०) मनुष्य जीवन को पाकर भी जीवों के लिए संयमसार की प्राप्ति दुर्लभ होती है। जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो। (बृभा-३९२६) जीव का जैसे-जैसे अल्पतर योग-चेष्टा होती है, वैसेवैसे कर्मों का बंध भी अल्पतर होता है। एक्कम्मि खंभम्मि न मत्तहत्थी, बज्झंति वग्घा न य पंजरे दो॥ (बृभा-४४१०) एक ही आलानस्तंभ पर दो मत्त हाथियों का नहीं बांधा जाता और न एक ही पिंजरे में दो व्याघ्र रखे जाते हैं। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० धम्मस्स मूलं विणयं वयंति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए। (बृभा-४४४१) धर्म का मूल है-विनय और सद्गति का मूल है-धर्म। बृहत्कल्पभाष्यम् सव्वभूतऽप्पभूतस्स, सम्मं भूताई पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई। (बृभा-४५८६) जो समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य मानता है, जिसने आस्रवों का द्वार बंद कर दिया है, जो दान्त है-इनके पापकर्म का बंध नहीं होता। अवस्सकिरियाजोगे, वढ्तो साहु पुज्जया। (बृभा-४४४७) जो आवश्यक क्रियायोग में प्रवृत्त है, वह पूज्य है। मणो य वाया काओ अ, तिविहो जोगसंगहो। ते अजुत्तस्स दोसाय, जुत्तस्स उ गुणावहा॥ (बृभा-४४४९) योग अर्थात् प्रवृत्ति के तीन साधन हैं-मन, वचन और काया। जो अनुपयुक्त होता हैं, उनके ये तीनों योग दोष के लिए होते हैं-कर्मबंधन के निमित्त होते हैं और जो उपयुक्त होता हैं, उसके ये तीनों योग गुणकारी होते हैं, निर्जरा के लिए होते हैं। जं कल्ले कायव्वं, णरेण अज्जेव तं वरं काउं। मच्चू अकलुणहिअओ, न हु दीसइ आवयंतो वि॥ (बृभा-४६७४) जो कल करना है उसे आज ही करना अच्छा है। मृत्यु करुणाहीन होती है। वह कब-कैसे आ जाती है, किसी को दिखाई नहीं देती। जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि। सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्वो॥ (बृभा-४४६४) जिस गच्छ में सारणा, वारणा और प्रेरणा नहीं है, वह गच्छ अगच्छ है, संयमकांक्षी मुनि ऐसे गण में न रहे। तूरह धम्म काउंमा हु पमायं खणं पि कुब्वित्था। बहुविग्यो हु मुहुत्तो, मा अवरण्हं पडिच्छाहि॥ (बृभा-४६७५) भव्यप्राणियो! धर्म करने में शीघ्रता करो। क्षणभर भी प्रमाद मत करो। समय विघ्नबहुल होता है। इसलिए अपराह्म की भी प्रतीक्षा मत करो। ववहारो वि हु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरिहा। (बृभा-४५०७) व्यवहार बहुत बलवान् होता है। केवली भी छद्मस्थ मुनि को वंदना करते हैं। तुल्लम्मि वि अवराधे, परिणामवसेण होति णाणत्तं। (बृभा-४९७४) अपराध की तुल्यता में भी परिणामों के आधार पर उसमें नानात्व आ जाता है। कामं परपरितावो, असायहेतू। (बृभा-५१०८) निस्संदेह दूसरों को परिताप देना असाता का हेतु है। जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणयं॥ (बृभा-४५८४) जो तुम अपनी आत्मा के लिए चाहते हो और जो नहीं चाहते वही दूसरी आत्मा के लिए चाहो। इतना ही जिनशासन है। विणयाहीया विज्जा, देंति फलं इह परे य लोगम्मि। न फलंति विणयहीया, सस्साणि व तोयहीणाई। (बृभा-५२०३) विनय से अधीत विद्या इहलोक और परलोक-दोनों में फल देने वाली होती है। सव्वारंभ परिग्गहणिक्खेवो सव्वभूतसमया य। एक्कग्गमणसमाहाणया य अह एत्तिओ मोक्खो॥ (बृभा-४५८५) समस्त हिंसा और परिग्रह का त्याग, समस्त प्राणियों के प्रति समता तथा एकाग्रमनःसमाधानता यही मोक्ष है, यही मोक्ष का उपाय है। वुग्गाहितो न जाणति, हितएहिं हितं पि भण्णंतो। (बृभा-५२२८) वह व्युद्ग्राहित मूढ़ है जो हितकारी व्यक्तियों के हितयुक्त वचनों को भी नहीं मानता। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्त और सुभाषित अविसज्झं साधेतो, किलिस्सति ण तं च साधेति।। (बृभा-५२७९) जो असाध्य कार्य को सिद्ध करने का प्रयत्न करता है वह क्लेश को प्राप्त होता है और कार्य भी सिद्ध नहीं होता। नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। धन्ना गुरुकुलवासं, आवकहाए न मुंचंति॥ (बृभा-५७१३) जो गुरुकुलवास को आजीवन नहीं छोड़ता वह ज्ञान को प्राप्त करता है, दर्शन और चारित्र में स्थिरतर होता है। धन्य हैं वे जो यावज्जीवन गुरुकुलवास को नहीं छोड़ते। ७४१ जह कोति अमयरुक्खो, विसकंटगवल्लिवेढितो संतो। ण चइज्जइ अल्लीतुं॥ (बृभा-६०९२) अमृतवृक्ष भी यदि विषकंटकवल्ली से परिवेष्टित है तो उसका आश्रय नहीं लिया जा सकता। रागहोसाणुगया, जीवा कम्मस्स बंधगा होति। (बृभा-६२२८) राग-द्वेष से युक्त जीव कर्मों का बंधन करते हैं। विसस्स विसमेवेह, ओसहं अग्गिमग्गिणो। मंतस्स पडिमंतो उ, दुज्जणस्स विवज्जणं॥ (बृभा-६२७३) विष की औषधी है विष, अग्नि की औषधी है अग्नि, मंत्र का प्रतिमंत्र और दुर्जन की औषधी है उसका विवर्जन। उज्जतो व तवे निच्चं, न होहिसि न होहिसि॥ (बृभा-५७१५) यदि तुम तपस्या में सदा उद्यत नहीं रहोगे तो तुम अव्याबाध सुख को प्राप्त नहीं कर सकोगे। तुच्छत्तणेण गव्वो, जायति ण य संकते परिभवेणं। (बृभा-६४००) तुच्छत्व अहंकार को उत्पन्न करता है। अहंकारी व्यक्ति परिभव से नहीं डरता। निम्विकप्पसुहं सुहं। (बृभा-५७१७) निर्विकल्प सुख ही सुख है। उस्सुत्तं ववहरंतो, कम्मं बंधति चिक्कणं। संसारं च पवढेति, मोहणिज्जं च कुव्वती।। (बृभा-६४२३) जो सूत्र के विपरीत व्यवहार करता है, उसके चिकने कर्म बंधते हैं, संसार में आवागमन बढ़ता है। वह मोहनीय कर्म का अर्जन करता है। वहए सो वि संजत्तो, गोरिवाबिधुरं धुरं॥ (बृभा-५७१८) बैल दूसरे बैल के साथ संयुक्त होकर ही शकटभार को वहन कर सकता है। परं मोहेण रंजिंतो. महामोहं पकुव्वती॥ (बृभा-६४२४) जो दूसरे को मोह में रंजित करता है वह महामोह कर्म का बंध करता है। एगागिस्स हि चित्ताइं, विचित्ताई खणे खणे। उप्पज्जति वियते य, वसेवं सज्जणे जणे॥ (बृभा-५७१९) अकेले व्यक्ति का चित्त क्षण-क्षण में विचित्र अध्यवसायों से भर जाता है। वे उत्पन्न होते हैं और विलीन हो जाते हैं। इसलिए साथ में रहना श्रेयस्कर है। धितिबलिया तवसूरा। (बृभा-६४८४) जो धृति से बलवान् होते हैं वे तपःशूर होते हैं। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ आयुर्वेद एवं आरोग्य रोग की परीक्षा शीतलकूर तथा अम्लद्रव आदि से पारणा करता है, वह सही उपाय के अभाव में रोगमुक्त नहीं हो सकता, स्वस्थ नहीं हो सकता। सहसज्झो जत्तेणं, जत्तासज्झो असज्झवाही उ। जह रोगे पारिच्छा। (बृभा-२१९) यथा रोगे वैधेन परीक्षा क्रियते, यथा-एष सुखसाध्यः, एष यत्नेन साध्यः, एष चासाध्यव्याधिः यत्नेनाप्यसाध्यः। (बृभा वृ. पृ. ६९) सबसे पहले वैद्य रोग की परीक्षा करता है कि यह रोग सुखसाध्य है अथवा यत्नसाध्य ? यह व्याधि असाध्य है और प्रयत्न से भी असाध्य ही रहेगी। धातुक्षोभ से होने वाली अवस्था धन्वन्तरिकृत वैद्यक शास्त्र जागीव जहा महावेज्जो॥ (बृभा-९५९) योगी-धन्वन्तरिः, तेन च विभंगज्ञानबलेनाऽऽगामिनि काले प्राचुर्येण रोगसंभवं दृष्ट्वा अष्टाङ्गायुर्वेदरूपं वैद्यकशास्त्रं चक्रे, तच्च यथाम्नायं येनाधीतं स महावैद्य उच्यते। स च आयुर्वेदप्रामाण्येन क्रियां कुर्वाणो योगीव धन्वन्तरिरिव न दूषणभाग् भवति, यथोक्तक्रिया कारिणश्च तस्य तत् चिकित्साकर्म सिध्यति। (बृभा वृ. पृ. ३०२) योगी धन्वन्तरि ने अपने विभंगज्ञान से यह जाना कि आगामी काल में प्रचुर रोगों की उत्पत्ति होगी अतः उन्होंने अष्टांग वैद्यकशास्त्र का निरूपण किया। गुरु-परम्परा से उस शास्त्र का अध्ययन करने वाला महावैद्य कहलाता है। आयुर्वेद के प्रामाण्य के आधार पर क्रिया करता हुआ वह महावैद्य धन्वन्तरि की भांति निर्दोष होता है। शास्त्र के अनुसार क्रिया करने से उसका चिकित्सा कार्य सफल होता है। पित्तोदये मधुराभिलाषः...श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषः... पित्तश्लेष्मोदये मज्जिकाभिलाषः। (बृभा वृ. पृ. २६५) • पित्तोदय होने पर मधुर द्रव्यों को खाने की इच्छा होती है। • कफ की उग्रता होने पर अम्ल वस्तु की इच्छा जागृत होती है। पित्त और कफ दोनों के उदित होने पर 'मंजिका' की अभिलाषा होती है। पडिसिद्ध त्ति तिगिच्छा, जो उन कारेइ अभिनवे रोगे। किरियं सो उ न मुच्चइ, पच्छा जत्तेण वि करेंतो॥ सहसुप्पइअम्मि जरे, अट्ठम काऊण जो वि पारेइ। सीयल-अंबदवाणी, न ह पउणइ सो वि अणुवाया॥ (बृभा-९४७,९४८) कोई मुनि अभिनव रोग में यह सोचकर तत्काल चिकित्सा नहीं कराता कि मुनि के लिए चिकित्सा कराना प्रतिषिद्ध है, तब वह रोग के बढ़ने पर प्रयत्नपूर्वक चिकित्सा कराने पर भी रोग से युक्त नहीं हो सकता। तथा सहसा उत्पन्न ज्वर में तेले की तपस्या कर रोग और व्याधि के प्रकार गंडी-कोढ-खयाई, रोगो कासाइगो उ आयंको। दीहरुया वा रोगो, आतंको आसुघाती उ॥ (बृभा-१०२४) गण्डी-गण्डमालादिकः, कुष्ठं-पाण्डुरोगो गलत्कोष्ठं वा, क्षयः-राजयक्ष्मा, आदिशब्दात् श्लीपद-श्वयथु-गुल्मादिकः सर्वोऽपि रोग इति व्यपदिश्यते। कासादिकस्तु आतंकः, आदिग्रहणेन श्वास-शूल-हिक्का-ज्वराऽतीसारादिपरिग्रहः। (बृभा वृ. पृ. ३२२) Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ७४३ आयुर्वेद एवं आरोग्य गंडमाल, कुष्ठ-पांडुरोग अथवा स्यन्दमान कोढ, राज- यक्ष्मा, श्लीपद, श्वयथु, गुल्म आदि रोग कहलाते हैं। कास, श्वास, हिक्का, ज्वर, अतिसार आदि को आतंक कहा जाता है। अथवा दीर्घकालभावी रोग और आशुघाती आतंक कहलाते हैं। त्रिदोष की चिकित्सा पउमुप्पले माउलिंगे, एरंडे चेव निंबपत्ते य। पित्तुदय सन्निवाए, वायकोवे य सिंभे य॥ (बृभा-१०२९) पित्त प्रकोप में उत्पल पद्म, सन्निपात में बिजौरा, वात प्रकोप में एरंडपत्र तथा कफ प्रकोप में नीम के पत्तों का प्रयोग करना चाहिए। 'ओमि' त्ति त्रिभाग उष्णोदकस्य द्वौ भागौ मधुरोल्लणस्य, सप्तमे सप्तके दिने वा 'जुत्तं' ति 'युक्तं' किञ्चिन्मात्रमुष्णोदकं शेषं तु सर्वमपि मधुरोल्लणमित्येवं दीयते। तदनन्तरं द्वितीयाङ्गैरपि सहापथ्यान्यवगाहिमादीनि परिहरन् समुद्दिशति यावत् पुरातनमाहारं परिणमयितुं समर्थः सम्पन्न इति। एषा उष्णोदकादिका वृद्धिर्द्रष्टव्या। (वृ. पृ.५५७) जाव न मुक्को ता अणसणं तु मुक्के वि ऊ अभत्तट्ठो। असहुस्स अट्ठ छटुं, नाऊण रुयं व जं जोगं। एवं पि कीरमाणे, विज्जं पुच्छे अठायमाणम्मि।। (बृभा-१९०९,१९१०) जब तक वह मुनि ज्वर या चक्षुरोग आदि से मुक्त नहीं होता तब तक अनशन-अभक्तार्थ करे। रोग-मुक्त होने पर भी एक दिन अभक्तार्थ करे। यदि वह लंबे समय तक अभक्तार्थ करने में समर्थ न हो तो तेला या बेला करे। रोग को जानकर उसके उपशमन के लिए जो योग्य उपाय हो वह करे। इस प्रकार करने पर भी यदि रोग उपशांत नहीं होता है तो वैद्य को पूछे। श्लीपद रोग जं सिलीपई निदायति। (बृभा-११४८) श्लीपदनाम्ना रोगेण यस्य पादौ शूनौ-शिलावद् महाप्रमाणौ भवतः स एवंविधःश्लीपदी। (बृभा वृ. पृ. ३५८) श्लीपद नामक रोग में पैर शिला की भांति स्थूल और भारी हो जाते हैं। उससे आक्रान्त रोगी श्लीपदी कहलाता है। वैद्य के पास जाने की विधि एक्कग दुगं चउक्वं, दंडो दूया तहेव नीहारी। (बृभा-१९२१) वैद्य के पास एक व्यक्ति के जाने से वह उसे यमदण्ड की दृष्टि से देखता है, दो व्यक्तियों को यमदूत मानता है, चार व्यक्तियों के साथ जाने पर वह कहता है-'शव को कंधा देने वाले आए हैं', अतः तीन मुनि जाते थे। वैद्य के पास ध्यातव्य बातें किह उप्पन्नो गिलाणो, अट्ठम उण्होदगाइया वुड्डी। किंचि बहु भागमद्धे, ओमे जुत्तं परिहरंतो॥ (बृभा-१९०८) 'कथं' केन हेतुना ग्लान उत्पन्नः? इति। सूरिराह-भूयांसः खलु रोगातङ्का यदशाद् ग्लानत्वमुपजायते। तत्र-'शुष्यतस्त्रीणि शुष्यन्ति, चक्षुरोगो ज्वरो व्रणः।' इति वचनाद्-यदि ज्वरादिको विशोषण-साध्यो रोगः ततो जघन्येनाप्यष्टमं कारयितव्यः। यच्च यस्य रोगस्य पथ्यं तत् तस्य कार्यम्, यथा-वातरोगिणो घृतादिपानं पित्तरोगिणः शर्कराधुपयोजनं श्लेष्मरोगिणो नागरादिग्रहणमिति। 'उण्होदगाइया बुढि' त्ति उपवासं कर्तुमसहिष्णुर्यदि रोगेणामुक्तः पारयति तत एष क्रमः-उष्णोदके प्रक्षिप्य कूरसिक्थानि अमलितानि ईषन्मलितानि वा सप्त दिनानि एकं वा दिनं दीयन्ते। ततः 'किंचि' त्ति उष्णोदके मधुरोल्लणं स्तोकं प्रक्षिप्य तेन सह ओदनं द्वितीये सप्तके दिने वा दीयते। एवं तृतीये 'बहु' त्ति बहुतरं मधुरोल्लणं उष्णोदके प्रक्षिप्य दीयते। 'भागि' त्ति चतुर्थे सप्तके दिने वा त्रिभागो मधुरोल्लणस्य द्वौ भागावष्णोदकस्य. 'अद्धे त्ति पञ्चमे सप्तके दिने वा अन्दै मधुरोल्लणस्यार्द्धमष्णोदकस्य षष्ठे साड-ऽब्भंगण-उव्वलण-लोय छारु-कुरुडे य छिंद-भिंतो। सुहआसण रोगविहिं, उवएसो वा वि आगमणं॥ (बृभा-१९२५) एकशाटकपरिधानो यदा वैद्यो भवति तदा न प्रष्टव्यः। एवं तैलादिना अभ्यङ्गनं कल्कलोघ्रादिना वा उद्धर्त्तनं लोचकर्म वाकूर्चमुण्डनादिलक्षणं कारयन्, क्षारस्य-भस्मन उत्कुरुटकस्यकचवरपुञ्जकस्य उपलक्षणत्वाद् बुसादीनां वा समीपे स्थितः, कोष्ठादिक वा रप्फकादिना वा दूषितं कस्याप्यङ्गं छिन्दानः, घटम Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ -बृहत्कल्पभाष्यम् अलाबुकं वा भिन्दानः, शिराया वा भेदं कुर्वाणो न प्रच्छनीयः, अथ ग्लानस्यापि किञ्चित् छेत्तव्यं भेत्तव्यं ततश्छेदन-भेदनयोरपि प्रष्टव्यः। अथासौ शुभासने उपविष्टः 'रोगविधिं' वैद्यशास्त्रपुस्तकं प्रसन्नमुखः प्रलोकयति, अथवा रोगविधिः-चिकित्सा तां कस्यापि प्रयुञ्जान आस्ते ततो धर्मलाभयित्वा प्रष्टव्यः। स च वैद्यः पृष्टः सन्नुपदेशं वा दद्याद् ग्लानसमीपे वा आगमनं कुर्यात्॥ (बृभा वृ. पृ. ५६१) घर में यदि वैद्य एक शाटक पहने हुए हो, तैल आदि से अभ्यंगन करा रहा हो, उद्वर्तन कर रहा हो, शिरो मुंडन आदि करा रहा हो, राख या उकरडी के पास बैठा हो, कुछ छेदन, भेदन कर रहा हो उस समय उसे कुछ भी नहीं पूछना चाहिए। जब वैद्य सुखासन में बैठा हो, वैद्यशास्त्र पढ़ रहा हो अथवा किसी की चिकित्सा कर रहा हो अथवा वैद्य के पूछने पर बताए या वैद्य को ग्लान के समीप ले जाए। वाहि नियाण विकारं, देसं कालं वयं च धातुं च। आहार अग्गि-धिइबल, समुइं च कहिंति जा जस्स॥ (बृभा-१९२७) " परिचारक वैद्य के पास जाकर रोग और रोगी की पूर्ण जानकारी देकर उन्हें ये बातें बताता है व्याधि-जो व्याधि हो, उसका नामोल्लेख। निदान-रोगोत्पत्ति का कारण। विकार-प्रवर्धमान रोग की स्थिति। देश-रोगोत्पत्ति का कारण प्रवात अथवा निवात प्रदेश। काल-रोगवृद्धि का समय पूर्वाह्न आदि। वय-रोगी की उम्र। धातु-वात-पित्तप्रकोप है या कफप्रकोप? आहार-आहार आदि की मात्रा न्यून या अधिक? अग्निबल-जठराग्नि मंद है या प्रबल? धृतिबल-धृतिबल मजबूत है या कमजोर ? समुइ-रोगी की प्रकृति कैसी है? उडम्मि वातम्मि धणुग्गहे वा, अरिसासु सूले व विमोइते वा। एगंग-सव्वंगगए व वाते, अब्भंगिता चिट्ठति चम्मऽलोमे॥ (बृभा-३८१६) यस्याः संयत्याः प्राचुर्येणोर्द्धवात उच्छलति, 'धनुर्ग्रहोऽपि' वातविशेषो यः शरीरं कुब्जीकरोति स वा यस्या अजनिष्ट, अशाँसि वा सजातानि, शूलं वा अभीक्ष्णमुद्धावति, पाणिपादाद्यङ्गं वा 'विमोचितं' स्वस्थानात् चलितम्, एकाङ्गगतो वा सर्वाङ्गगतो वा कस्याश्चिद् वातः समुत्पन्नः सा निर्लोमचर्मणि अभ्यङ्गिता तिष्ठति। (बृभा वृ. पृ. १०५३) तरच्छचम्म अणिलामइस्स, कडिं व वेढेंति जहिं व वातो। एरंड-ऽणेरंडसुणेण डक्वं, वेढेंति सोविंति व दीविचम्मे॥ . (बृभा-३८१७) _ 'अनिलामयी' वातरोगिणी तस्याः कटी तरक्षचर्मणा वेष्टयन्ति। 'यत्र वा' हस्तादौ वातो भवति तं वेष्टयन्ति। एरण्डेन वा-हडक्कितेन अनेरण्डेन वा शुना या दष्टा तां वा चर्मणा वेष्टयन्ति, द्वीपिचर्मणि वा तां खापयन्ति॥ (बृभा वृ. पृ. १०५३) पुया व घस्संति अणत्थुयम्मि, पासा व घस्संति व थेरियाए। लोहारमादीदिवसोवभुत्ते, लोमाणि काउं अह संपिहंति॥ (बृभा-३८१८) - स्थविरायाः संयत्या अनास्तृते प्रदेशे उपविशन्त्याः पुतौ घृष्येते, सुप्ताया वा पाश्वौँ घृष्येते, ततः सलोम चर्मापि यद् दिवसतो लोहारादिभिरुपविशद्भिपभुक्तं तत् प्रातिहारिकं दिने दिने मार्गयित्वा लोमान्यधः कृत्वा 'सम्पिदधति' परिभुञ्जते इत्यर्थः। (बृभा वृ. पृ. १०५३) वेग निरोध के परिणाम मुत्तनिरोहे चक्खं, वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ। उड्ढनिरोहे कोठें, गेलन्नं वा भवे तिसु वा॥ (बृभा-४३८०) मूत्रस्य निरोध विधीयमाने चक्षुरुपहन्यते। वर्चः-पुरीषं तस्य निरोधेन जीवितं परित्यजति, अचिरादेव मरणं भवतीत्यर्थः । व्रण-चिकित्सा वणभेसज्जे य सप्पि-महु पट्टे। (बृभा-३०९५) व्रण पर घी या मधु से मिश्रित औषध लगाकर पट्टा बांधा जाता था। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुर्वेद एवं आरोग्य उर्ध्वं वमनं तस्य निरोधे कुष्ठं भवति । 'ग्लान्यं वा' सामान्यतो मान्द्यं 'त्रिष्वपि ' मूत्र - पुरीष-वमनेषु निरुध्यमानेषु भवेत् ॥ (बृभा वृ. पृ. १९८४) मूत्र का निरोध करने पर चक्षु का उपघात होता है, मल का निरोध करने पर जीवन का नाश, वमन-निरोध करने पर कुष्ठ रोग होता है तथा तीनों वेगों का निरोध करने पर सामान्य रूप से रोग का अर्थात् मान्द्य का आविर्भाव होता है। पैदल चलने के लाभ वायाई सद्वाणं, वयंति कुविया उ सन्निरोहेणं । लाघवमग्गिपडुत्तं, परिस्समजतो उ चंकमतो ॥ (बृभा - ४४५६) अनुयोगदानादिनिमित्तं यश्चिरमेकस्थानोपवेशनलक्षणः सन्निरोधेस्तेन 'कुपिताः' स्वस्थानात् चलिता ये वातादयो धातवस्ते चंक्रमतो भूयः स्वस्थानं व्रजन्ति । 'लाघवं' शरीरे लघुभाव उपजायते । 'अग्निपटुत्वं' जाठरानलपाटवं च भवति । यश्च व्याख्यानादिजनितः परिश्रमस्तस्य जयः कृतो भवति । एते चक्रमतो गुणा भवन्ति । (बृभा वृ. पृ. १२०३ ) चंक्रमण के चार लाभ हैं• लम्बे समय तक बैठने से जो वायु आदि धातु प्रकुपित हो जाती है, वह चंक्रमण से पुनः अपने स्थान पर स्थित हो जाती है। शरीर में लाघव का अनुभव होता है। • · जाठराग्नि प्रदीप्त होती है। • परिश्रम से होने वाली थकान दूर होती है। दोसोदए य समणं, ण होइ न निदाणतुल्लं वा ॥ (बृभा-५२०२) रोगाणामुदये.... औषधं न दीयते, यतश्च निदानादुत्थितो व्याधिः तत्तुल्यं - तत्सदृशमपि वस्तु रोगवृद्धिभयान्न दीयते; यद्वा दोषोदये दीयमानं शमनं न ननिदानतुल्यं भवति, किन्तु भवत्येव, ततो न दातव्यम् । (बृभा वृ पृ. १३८३) रोग का उदय होने पर वह वस्तु औषध के रूप में नहीं दी जाती, जिस वस्तु के कारण रोग उत्पन्न होता है। उसके सदृश वस्तु को भी रोग वृद्धि के भय से नहीं दिया जाता। अथवा दोष का उदय होने पर वह रोग का निदान करने वाली होती है। उन्माद की चिकित्सा उम्मातो अहव पित्तमुच्छाए । पित्तम्मि य सक्करादीणि ॥ ७४५ (बृभा- ६२६४) 'पित्तमूर्च्छया' पित्तोद्रेकेण उपलक्षणत्वाद् वातोद्रेकवशतो वा स्यादुन्मादः या तु वातेनोन्मादं प्राप्ता सा निवाते स्थापनीया । उपलक्षणमिदम्, तेन तैलादिना शरीरस्याभ्यङ्गो घृतपायनं च तस्याः क्रियते। ‘पित्ते' पित्तवशादुन्मत्तीभूतायाः शर्करा-क्षीरादीनि दातव्यानि । (बृभा वृ. पृ. १६५३) पित्तप्रकोप अथवा वायुप्रकोप से उन्माद होता है। वात से उन्मत्त होने वाली आर्या को वायु रहित स्थान पर रखना चाहिए तथा उसके शरीर का अभ्यङ्गन एवं उसे घृतपान कराना चाहिए। पित्त के कारण उन्मत्त होने पर दूध में शर्करा मिलाकर पिलाना चाहिए। विसस्स विसमेवेह, ओसहं अग्गिमग्गिणो । (बृभा-६२७३) विष की औषध विष तथा अग्नि की औषध अग्नि है। वेग - विसर्जन में दिशा का महत्त्व उभे मूत्र - पुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । रात्रौ दक्षिणतश्चैव तथा चाऽऽयुर्न हीयते ॥ (बृभा वृ. पृ. १३२) दिन में उच्चार और प्रस्रवण उत्तरदिशा की ओर मुख करके करना चाहिए तथा रात्रि में दक्षिण दिशा में मुंह करके करना चाहिए जिससे आयु क्षीण न हो। पथ्य का महत्त्व भेषजेन विना व्याधिः, पथ्यादेव न तु पथ्यविहीनस्य, भेषजानां निवर्त्तते । शतैरपि ॥ (बृभा वृ. पृ. ५७५) भेषज के बिना भी पथ्य के द्वारा रोग की निवृत्ति हो सकती है लेकिन पथ्य के बिना सैकड़ों भेषज से भी रोग निवृत्ति नहीं होती । दंत, आंख आदि के सामान्य प्रयोग दन्तानामञ्जनं श्रेष्ठं, कर्णानां दन्तधावनम् । शिरोऽभ्यङ्गश्च पादानां, पादाभ्यङ्गश्च चक्षुषोः ॥ (बृभा वृ. पृ. १०६३) Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ दांतों के लिए आंखों में अञ्जन श्रेष्ठ है, कान के लिए दंतधावन, पैर के लिए शिर मालिश तथा आंखों के लिए पैरों में मालिश श्रेष्ठ है। घृत-दुग्धादिकं 'वा-बुद्धिहेतुं व' त्ति वाग्हेतोबुद्धि-हेतोश्च भुक्तं भवेत्, 'घृतेन् वर्धते मेघा' इत्यादि-वचनात्। 'वातिकं नाम' विकटं तद्वा मतिहेतोः सत्त्वहेतोर्वा सेवितं भवेत्। (बृभा वृ. पृ. १५९३) बुद्धि के लिए तथा वाणी के लिए दूध का प्रयोग उत्तम है। घृत से बुद्धि बढ़ती है। बुद्धि तथा सत्त्व के लिए वातिक-मद्य का प्रयोग होता है। ==बृहत्कल्पभाष्यम् यथा ग्लानोऽप्यधुनोत्थितः क्रमेणाभिवर्द्धमानमाहारं गृह्णाति, एकवारमतिप्रभूतग्रहणे विनाशप्रसङ्गात्। (बृभा वृ. पृ. १९२७) ग्लान यदि अभी ठीक ही हुआ है तो उसकी आहार- . वृद्धि क्रमशः करनी चाहिए। एक साथ अधिक आहार करने से विनाश का प्रसंग आ सकता है। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ गाथानुक्रम गाथा गाथासं. अ . गाथासं. ३२५० २७१० ५७४३ ४९७८ ४३ २९० ५३७३ ५०६६ ४२ ५५६२ २६४६ २९३५ ४५६६ २७०९ ४३७० ४४५८ २५३५ २४४१ ६४६० ३७६१ ११२९ ४५२२ अइगमणंएगेणं अइगमणमणाभोगे अगमणे अविहीए अइप्पसत्तो खलु एस अत्थो अइभणिय अभणिए वा अइभारेण य इरियं अइमुद्धमिदं वुच्चइ अइय अमिला जहन्ना अइया कुलपुत्तगभोइया अइरोग्गयम्मि सूरे अइ सिंजणम्मि वन्नो अउणत्तीसं चंदो अंगाऽणंगपविट्ठ अंगारखड्डपडियं अंगुट्ट-पएसिणिमज्झिमाअंगुलिकोसे पणगं अंचु गतिपूयणम्मिय अंजणखंजणकद्दमलित्ते अंजलिमउलिकयाओ अंतं न होइ देयं अंतद्धाणा असई अंतम्मि व मज्झम्मिव अंतर पडिवसभेवा अंतरपल्लीगहितं अंतरमणंतरेवा अंतरितो तमसेवा अंतिमकोडाकोडीए अंतो अलब्भमाणे अंतो आवणमाईअंतो घरस्सेव जतं करेती गाथा अंतोजले वि एवं अंतोनियंसणी पुण अंतो नूण न कप्पइ अंतो बहिं च गुरुगा अंतो बहिं न लब्भइ अंतो बहिं न लब्भइ अंतो बहिं न लब्भइ अंतो बहिं निवेसण अंतो बहि कच्छउडियादि अंतो-बहिसंजोअण अंतो भयणा बाहिं अंतोमुहस्स असई अंतो वियार असई अंतो वियार असई अंतो वि होइ भयणा अंतोहवंति तरुणी अंधकारोपदीवेण अंधलगभत्त पत्थिव अंबंबाडकविद्वे अंबगचिब्भिडमाई अंबट्ठा य कलंदा अंबत्तणेण जीहाइ अंबा वि होंति सित्ता अंसो ति व भागो ति व अकयमुहे दुप्पस्सा अकरंडगम्मि भाणे अकसायं खुचरित्तं अकसायं निव्वाणं अकसिणचम्मग्गहणे अकसिण भिण्णमभिण्णं अकसिणमट्ठारसगं अकारणा नत्थिह कज्जसिद्धी अकार-नकार-मकारा गाथासं.| गाथा अकोविए! होहि पुरस्सरा मे ४०८७ अक्कुट्ट तालिए वा ३५८५ अक्कुट्ट तालिए वा ७८९ अक्कोस-तज्जणादिसु १८९५ अक्खरतिगरूवणया १८९७ अक्खरपयाइएहिं १८९८ अक्खर-वंजणसुद्धं अक्खर सण्णी सम्म ३५७२ अक्खाइयाउ अक्खा७६५ अक्खाण चंदणे वा अक्खा संथारो या २३२१ अक्खित्ते वसधीए २१९४ अक्खुन्नेसु पहेसुं २२७९ अक्खेवो सुत्तदोसा ४५३५ अगडे पलाय मग्गण २३५२ अगणिं पिभणाति गणिं १००७ अगणि गिलाणुच्चारे ५२२६ अगणी सरीरतेणे १७१२ अगमकरणादगारं ८४३ अगम्मगामी किलिबोऽहवाऽयं ३२६४ अगविट्ठो मित्ति अहं ३४७ अगिलाणो खलु सेसो ४१८७ अगीयत्था खलु साहू ३६४५ अगीयत्थेसु विगिंचे ६६२ अग्गहणं जेण णिसिं ४०६० अग्गहणे कप्पस्सउ २७१२ अग्गहणे वारत्तग २७२९ अग्गिकुमारुववातो ३८७२ अग्गी बाल गिलाणे ३९१८ अग्गीयस्स न कप्पइ ३८७३ अचियत्तकुलपवेसे ४४४० अच्चंतमणुवलद्धा ८०६ अच्चंता सामन्ना १६६८ ५११ ३८५३ ४९७१ ૨૮૩૨ ५६७६ ४०२० ३७६६ ४८१६ ૨૦૨૦ ५३१२ ११७३ ४४९० ९३ ४८२८ ८७१ ४११० २५६४ ४९०९ ४०९९ ४६९० २७३७ ३२८ ६२१७ ६१२४ ५२६५ ४३५२ ३५२२ ३५९५ ४७२१ ६०२३ ३३३४ २९९८ ३५३७ ३०९२ ४०६४ ३२७४ २२४ ३३३२ ५५६७ ३३ ४६ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ =बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. गाथासं. ३४१८ ६३३९ ५८८६ ६०१७ २०१२ ४३५३ ४६८ ४१८ ४६९ ९८४ ५९८३ १८२५ ५९३२ १६७६ ६००४ ६०१० ४४७१ ६४१७ ४४३ २०६३ २३४ ४०१९ ४६९१ २५० ५११४ ५६२२ ४७९१ ४७९० ५७८६ ३२८५ ३५२७ ५०४५ १२७७ ५९८१ गाथा अच्चाउरं वा वि समिक्खिऊणं अच्चाउरकज्जेवा अच्चाउर सम्मूढो अच्चाउरे उ कज्जे अच्चागाढे व सिया अच्चित्तस्स उगहणं अच्चित्तेणं मीसं अच्चित्तेण अचित्तं अच्चित्तेण सचित्तं अच्चित्ते वि विडसणा अच्चुक्कडे व दुक्खे अच्चुसिण चिक्कणे वा अच्छंती वेगागी अच्छंतु ताव समणा अच्छउमहाणुभागो अच्छिरुयालु नरिंदो अच्छे ससित्थ चव्विय अजंतिया तेणसुणा उवेंति अजहन्नमणुक्कोसो अजियम्मि साहसम्मी अजुयलिया अतुरिया अज्जंजक्खाइ8 अज्ज अहं संदिह्रो अज्जक्कालिय लेवं अज्जसुहत्थाऽऽगमणं अज्जसुहत्थि ममत्ते अज्जस्स हीलणा लज्जणा अज्जाणं पडिकुटुं अज्जाण तेयजणणं अज्जियमादी भगिणी अज्जो तुमं चेव करेहि भागे अज्झयणं वोच्छिज्जति अज्झाविओ मि एतेहिं अझुसिर झुसिरे लहुओ अझुसिरऽणंतर लहुओ अट्टगहेउंलेवाहिगं अटुं वा हेउवा अट्ठ उगोयरभूमी अट्ठग चउक्क दुग एक्कगं अट्ठट्ठ अद्धमासा अट्ठण्हं तु पदाणं गाथा अट्ठविहरायपिंडे अट्ठ सुय थेर अंधल्लअट्ठाइ जाव एक्वं अट्ठाण सह आलिंअट्ठारस छत्तीसा अट्ठारस पुरिसेसुं अट्ठारसविहऽबंभं अट्ठारस वीसा या अट्ठारस वीसा या अट्ठारस वीसा या अट्ठारससु पुण्णेसु अट्ठारसहिं मासेहि अट्ठारसेव पुरिसे अट्ठारसेहिं पुण्णेहिं अट्ठावयम्मि सेले अढेि व दारुगादी अट्ठिगिमणट्ठिगी वा अह्रिसरक्खा वि जिया अट्ठी विज्जा कुच्छित अद्वेण जीए कज्जं अडयालीसं एते अडवीमज्झम्मिणदी अड्डाइज्जा मासा अड्डोरुगा दीहणियासणादी अड्डोरुगो वि ते दो अड्डोरुतमित्तातो अणट्ठादंडो विकहा अणणुण्णाए निक्कारणे अणत्थंगयसंकप्पे अण दंस नपुंसित्थीअणप्पज्झ अगणि आऊ अणब्भुट्ठाणे गुरुगा अणभिगयमाइआणं अणभोगेण भएण व अण मिच्छ मीस सम्म अणराए जुवराए अणरायं निवमरणे अणवटुंते तह विउ अणवढे वहमाणो अणवट्ठिया तहिं होति अणवत्थाए पसंगो ५८५५ ३५०१ ६७७ ५९३६ ४४१ ३७३२ ५०८६ ४७२ ३२७७ ३२८२ ७२५ ३७२४ ३७५८ २६१८ ४३२६ ५४०२ ५१८४ ४९०२ ४९०३ ५२० ६२८२ १६४९ ८७४ ५७५२ ५६०० गाथासं. | गाथा ६३८५ अणवायमसंलोए ११५३ अणहारो मोय छल्ली २०३१ अणहारो वि न कप्पइ ५९२८ अणाढियं च थद्धं च ५०५६ अणाभोएण मिच्छत्तं ४३६५ अणावायमसंलोए ર૪૬૬ अणावायमसंलोगा ३८९३ अणिउत्तो अणिउत्ता ३८९५ अणिगृहियबलविरिओ ३८९७ अणिदिट्ठ सण्णऽसण्णी ६४६५ अणुओगम्मिय पुच्छा ६४७८ अणुकंपणा णिमित्ते ६४४३ अणुकंपा पडिणीया ६४८० अणुकुडं उवकुटुं ४७८३ अणुकुड्डे भित्तीसुं ३५०३ अणुग्गय मणसंकप्पे २६४८ अणुजाणे अणुजाती अणुणविय उग्गहंगण २८२४ अणुणा जोगो अणुजोगो ६२८६ अणुण्णवण अजतणाए ४३६६ अणुदितमणसंकप्पे ४८७४ अणुदिय उदिओ किं न हु ५७५७ अणुदियमणसंकप्पे ४११४ अणुन्नाए वि सव्वम्मी ४०८६ अणुपरिहारिगा चेव ५६४९ अणुपालिओ य दीहो २४९२ अणुपुव्वी परिवाडी १५६० अणुबद्धविग्गहो चिय ५७९७ अणु बायरे य उंडिय ८३४ अणुभूआ मज्जरसा ३७२३ अणुभूता धण्णरसा १९३५ अणुभूया उदगरसा अणुभूया पिंडरसा २८४८ अणुयत्तणा उ एसा ८३५ अणुयत्तणा गिलाणे २७६३ अणुयोगो य नियोगो २७६४ अणुरंगाई जाणे अणुसट्टाई तत्थ वि अणुसट्ठी धम्मकहा ४७७८ अणुसासण कह ठवणं २४९१ | अणुसासियम्मि अठिए ३३३८ ५७९१ ५८१६ ५७९० ६७९ ६४७५ १२८१ २०८ १३१५ ७३९ ३४०७ ३३९७ ३४२१ ३४८० १९७२ १९०० १८७ ३०७१ ३०३५ २८९८ ६२९३ ६२७२ ५२४ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम गाथा अणुसिट्ठिमणुवरंतं अणुहूया धण्णरसा अपणं व एवमादी अण्णगणं वच्चंतो अण्णमणे भिक्खुस्सा अण्णगहणं तु दुविहं अण्णत्तो चिव कुंटसि अण्णाइसरीरे अण्णा सरीरे अण्णाणे गारवे लुदे अण्णेण णे ण कज्जं अण्णे दो आयरिया अपणे पाणे वत्थे अण्णे वि होंति दोसा अण्णोणे अंकम्मी अतड-पवातो सो चेव अतरंत बाल- बुड्ढे अतरंतस्स उ जोगाअतवो न होति जोगो अतसीवंसीमादी अतिचारस्स उ असती अतिभणित अमणिते वा अतिभुत्ते उम्गालो अतिरेगमहणमुम्मा अतिसेसदेवतणिमित्त अतेणाहडाण नयणे अत्तटुकडं बाउं अत्तट्ठ परट्ठा वा अत्तट्ठियतंतूहिं अत्तणिव परे चैवं अत्तागमप्पमाणेन अत्ताण चोर मेया अत्ताणमाइएसं अत्ताणमाइएसं अत्ताणमाझ्याणं अत्ताभिप्यायकया अत्यंग विसिव्वसि अत्यंगयसंकल्ये अत्थंगयसंकप्पे अत्थंडिलम्मि काया अत्थं दो व अदाउं गाथासं. ६२९१ ३३४२ गाथा अत्थं भासइ अरिहा अत्थवसा हवइ पयं अत्थस्स उग्गहम्मि वि अत्थस्स कप्पितो खलु अत्थस्स दरिसणम्मि वि अत्थस्स वि उवलंभे अत्थानंतरचारिं अत्यादाणो ततिओ अत्थाभिवंजगं वंजण ४९७७ ५७८४ ५७५६ ८६४ ६१६७ ५५२५ - ५५४६ ४०७४ ४१७५ ५७७४ ३५३४ ६३९३ ५१२ २३९० १६७२ १६२० ५२०६ ३६६३ ६४२७ अद्दागदोससंकी ५७४२ अदागसमोसाहू ५८४७ अहारगं अनगरं ४३९ असिड कहणं ४७९८ अधिस्स उ गहणं २०४४ अद्वाओ दि ५९७ अट्टमास पक्खे ४२५८ अद्धद्धं अहिवइणो १७६६ अद्राण- ओमादि उवग्गहम्मिं १२५८ अदाणं पविसंतो ५३ अचापि यदुविहं अदाणणिम्गतादी २७६६ २७६७ अाणणिमतादी अणणिवादी २७६८ २७६९ १२ अदाणणिग्गयादी अद्धाणनिग्गतादी ४९९१ अाणनिम्वाई ५७८७ अाणनिगवाई ५७९५ अयाणनिग्गयाई ५५०४ अदाणनिग्गयाई २०१८ अखाणनिम्गवाई अत्थित्ते संबद्धा अत्थि मे घरे वि वत्था अत्थिय मे पुव्वदिट्ठा अत्थि व से योगवाही अत्थि हु बसभग्गामा अत्रणा एवं अत्थेसु दोसु तीसु व अदुवा चियत्तकिच्चे अदुवा चियतकिणे अदोसवं ते जति एस सहो अहास्य ने वयणं गाथासं. १९३ ३२९ ४८ ४०८ ४७ ४९ ४० ५१२८ ५५ ६१ ६३६ ३१५१ १८८० ४८५१ ५५११ २८६ ६४११ ६४१३ ३९२८ २६३९ २६६० ८१२ २५७ ६२५५ ३५९८ २४८४ ५७५९ १२१४ २२७२ २४३३ गाथा अद्धानि ग्याई अाणनिग्गयाई अद्धाणनिम्नयाई अद्वाणनिग्गयाई अदाणनिम्बाई अाणनिग्गयादी अदाणनिग्गयादी अद्धाणनिग्गयादी अखाणनिम्गयादी अन्द्राणनिग्गयादी अदाणनिग्गयादी अाणनिगवादी अदाणनिग्गवादी अदाणनिम्गवादी अदाणनियादी अद्वाण पविसमाणा अाण पविसमाणो अद्धाणमणाने अद्धाणमाईसु उ कारणेसुं अयाणमेव पगतं अद्वाणम्मि महंते अद्धाणम्मि व होज्जा अद्धाणविवित्ता वा अाणसीसए वा अद्राणाई अनिद अद्धाणातो निलयं ५२१० १०२१ अदाणे उव्वाता ३०४१ अदाणे ओमे वा अद्वाणे जयणाए ४२५६ ४२६७ अद्बाणे वत्थव्वा ३६१२ अदाणे संथरणे ४२५७ अद्धे समत्त खल्लग ३३६३ अधवण देवछवीणं १५१५ अनियताओ वसहीओ १८३८ अनियाणं निव्वाणं २२०७ अद्धाणासंघडिए अद्धाणासंघरणे अाणाऽसिव ओमे अन्नउवस्सयममणे अन्नं अभिधारेतुं अनं इदं ति पुट्टा ७४९ गाथासं. २६५८ २९८९ ३४४२ ३४४३ ३४६७ १८१४ २३२० २३५० २४२३ २४४३ २५४८ २५५० २५८९ ३२०२ ३५०४ ३००५ ३०९६ ३००२ ३६७२ ५६१८ ३१०५ २८७७ ३४५७ ४८५४ ३४५६ ५६६५ ५८२२ २९११ ५३३८ २७५५ ५८९० १०२३ ५८३४ २९१३ ३८५४ ४१९३ १४११ ६३३३ २०३६ ५३७८ ४१७२ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ३९८५ १३३१ ५६८ २७५३ ६९९ १०८ २१४४ ३९३२ ५२०७ १५४० ४९२० ३९७८ २८५ ७८५ गाथा अन्नं च देइ उवहिं अन्नं पिताव तेन्नं अन्नकुलगोत्तकहणं अन्नठवण? जुन्ना अन्नतरझाणऽतीतो अन्नतरणेसणिज्जं अन्नतरस्स निओगा अन्नत्तोव कवाडं अन्नत्थ अप्पसत्था अन्नत्थ एरिसं दुल्लभं अन्नत्थ-तत्थगहणे अन्नत्थ मोय गुरुओ अन्नत्थ व चंकमती अन्नत्थ व सेऊणं अन्नत्थ वा वि ठाउं अन्नत्थ वि जत्थ भवे अन्नन्न दवोभासण अन्नम्मि वि कालम्मि अन्नस्सव असतीए अन्नस्स व दाहामी अन्नस्सव पल्लीए अन्नस्स वि संदेह अन्नाए आभोगं अन्नाए तुसिणीया अन्नाए परलिंगं अन्नाणमती मिच्छे अन्नाणे गारखे लुद्धे अन्नेण घातिए दहुअन्ने वि विहवेहिइ अन्ने वि होति दोसा अन्नेसिंगच्छाणं अन्नो चमढण दोसो अन्नो दुज्झिहि कल्लं अन्नोन्नं णीसाए अन्नोन्नकारेण विनिज्जरा जा अन्नोन्न समणुरत्ता अन्नो वि अ आएसो अन्नो वि नूणमभिपडइ अन्नो वि य आएसो अपडिच्छणेतरेसिं अपडिहणंता सोउं गाथासं. गाथा ३०३१ अपमज्जणा अपडिलेहणा ४६२५ अपरपरिग्गहितं पुण ५७७ अपरायत्तं नाणं ૨૮૨૬ अपरिग्गहा उ नारी १६४३ अपरिग्गहिय अभुत्ते ५३१७ अपरिग्गहिय पलंबे अपरिग्गहियागणिया२३५१ अपरिमिए आरेण वि ૩૭૨૭ अपरिस्साई मसिणो ६३९० अपरिहरंतस्सेते ८६३ अपुव्वपुंसे अवि पेहमाणी ३७१७ अप्पक्खरमसंदिद्धं २३९६ अप्पग्गंथ महत्थं ३५३० अप्पच्चओ अकित्ती ४८६८ अप्पच्चय णिब्भयया १०४७ अप्पच्चय णिब्भयया १७५० अप्पच्चय वीसत्थ५७६५ अप्पच्छित्ते य पच्छित्तं ५०८२ अप्पडिचरपडिचरणे १८५३ अप्पडिलेहिय कंटा ३०३३ अप्पडिलेहियदोसा ४३५० अप्पणो आउगंसेसं ३७५१ अप्पणो कीतकडं वा ३४७३ अप्पण्डया य गोणी ४८२५ अप्पत्ताण उदितेण १२६ अप्पत्ताण निमित्तं ४०१६ अप्पत्ते अकहित्ता ६१३६ अप्पत्ते अकहित्ता २९५६ अप्पत्ते अकहित्ता २३३० अप्पत्ते अकहित्ता अप्पत्ते अकहित्ता १५८७ अप्पत्ते जो उगमो ३५३ अप्पत्ते वि अलंभो ४८६३ अप्पपरपत्तिएणं ४४०१ अप्पपरपरिच्चाओ ६१०० अप्पबिति अप्पतितिया ३७४९ अप्पभुणा उ विदिण्णे २३४६ अप्पभु लहुओ दिय णिसि ३९६७ अप्पमभिन्नं वच्चं ४७१४ अप्परिणामगमरणं १९३० | अप्पस्सुया जे अविकोविता वा गाथासं. | गाथा ४५४ अप्पा असंथरतो ४७७२ अप्पाहारस्स न इंदियाई २९ अप्पुव्वमतिहिकरणे ५०९९ अप्पुव्व विवित्त बहु३१७४ अप्पुव्वस्स अगहणं ९२१ अप्पुव्वेण तिपुंज ૬૨૮૧ अप्पेव सिद्धंतमजाणमाणो १६१३ अप्पे वि पारमाणिं २३६४ अप्पोदगा य मग्गा ४२९८ अप्पो य गच्छो महती य साला ३२३१ अप्पोल्लं मिदुपम्हं च अप्फासुएण देसे २७७ अबहुस्सुअस्स देइ व अबहुस्सुए अगीयत्थे ५०३४ अबहुस्सुताऽविसुद्धं ५१३४ अब्भत्थितो व रण्णा ५७८१ अब्भरहियस्स हरणे ६४२२ अब्भ-हिम-वास-महिया४७५३ अब्भासे व वसेज्जा ४३७८ अभिंतरं च बज्झं १४५३ अभिंतरं व बाहिं ६४५६ अभिंतरमज्झबहि ४२०० अभिंतरमालेवो अब्भुज्जयं विहारं ૭૨૪ अब्भुट्ठाणे आसण २८९५ अब्भुट्ठाणे गुरुगा ४११ अब्भुट्ठाणे लहुगा अब्भे नदी तलाए ४७१ अब्भोवगमा ओवक्कमा अभणितो कोइ न इच्छइ ६४९ अभतट्ठीणं दाउं अभिओगपरज्झस्स हु १५९५ अभिकंखंतेण सुभा४४८१ अभिगए पडिबद्धे ४०१० अभिगय थिर संविग्गे ३७४४ अभिग्गहे द8 करणं अभिधारंत वयंतो ३५५९ अभिधारितो वच्चति १३९० अभिधारेंतोपासत्थ३०५९ अभिनवधम्मो सि अभा३६३१ | अभिनवनगरनिवेसे ७०४ ७०३ ४७३५ ५०५४ २७९० ५८११ ३७८१ ३६७४ ३६६६ ११७८ ६०१४ ४९८१ १९३३ १९३४ ४४१६ १२३९ १३८८ १८८३ ५१३ ५३२४ २३६ ४५०२ ८०४ ७३३ ७३७ १४०१ ५०७८ ४७०३ ५३८१ ५३२८ ३३१ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ७५१ गाथासं. २५१२ ६४०१ २७६५ २७९२ १३०६ २५५१ ३६५४ १५३५ २६२६ ७५ ७८८ ४६५९ ४७६८ ४६८३ ५९१७ ३६४६ ४०७८ ६३० ५५७७ गाथा अभिनिदुवार(ऽभि)निक्खमणअभिन्ने महव्वयपुच्छा अभिभवमाणो समणिं अभिभूतो सम्मुज्झति अभिलावसुद्ध पुच्छा अभिवति इक्कतीसा अभिहाण हेउकुसलो अभुज्जमाणी उ सभा पवा वा अमणुण्णकुलविरेगे अमणुण्णेयरगमणे अमणुन्नेतर गिहिसंजईसु अममत्त अपरिकम्मा अमिलाई उभयसुहा अमुइच्चगंन धारे अमुगं कालमणागए अमुगत्थ अमुगो वच्चति । अमुगत्थ गमिस्सामो अमुगदिणे मुक्ख रहो अमुगिच्चगं न भुंजे अम्हं एत्थ पिसादी अम्हं ताव न जातो अम्हच्चयं छूढमिणं किमट्ठा अम्हट्टसमारद्धे अम्ह वि होहिइ कज्जं अम्हे दाणि विसहिमो अम्हे मो निज्जरट्ठी अम्हेहि अभणिओ अप्पणो अम्हेहिं तहिं गएहिं अयमपरोउ विकप्पो अयसो य अकित्तीया अरहंतपइट्टाए अरहस्सधारए पारए अरिसिल्लस्सव अरिसा अरे हरे बंभण पुत्ता अलंभऽहाडस्स उ अप्पकम्म अलब्भमाणे जतिणं पवेसे अलभंता पवियारं अलऽम्ह पिंडेण इमेण अज्जो! अलसंघसिरं सुविरं अलायं घट्टियं ज्झाई अलियमुवघायजणयं गाथासं. गाथा २२३२ अवणाविंतिध्वणिति व १०४५ अवताणगादि णिल्लोम ૬૭૭ अवधीरिया व पतिणा ५२१८ अवयक्खंतो व भया ५३७२ अवरज्जुगस्स य ततो ११३० अवरण्हे गिम्ह करणे ५०४६ अवराह तुलेऊणं ३५१२ अवराहे लहुगतरो ४३१२ अवराहे लहुगयरो .४३० अवरो फरुसग मुंडो २९८३ अवरो विधाडिओ मत्त१३९१ अवरो सुच्चिय सामी २५४५ अववायाववादोवा ६५७ अवस्सकिरिया जोगे अवस्सगमणं दिसासु ५३७१ अवहारे चउभंगो २२०९ अवहीरिया व गुरुणा २२७० अवाउडं जंतु चउहिसिं पि ६१२ अवि ओसियम्मि लहुगा ६२१३ अवि केवलमुप्पाडे ३०२७ / अविकोविया उ पुट्ठा ३६११ अविगीयविमिस्साणं १८४५ अवि गीयसुयहराणं १७५२ अवि गोपयम्मि वि पिबे ४९२५ अविजाणंतो पविट्ठो १८९० अविणीयमादियाणं २९४६ | अवितहकरणे सुद्धो १८८९ अविदिण्णमंतरगिहे ४४६५ अविदिण्णोवधि पाणा ५१६२ अविदिय जण गब्भम्मिय १७७६ अविधिपरिठ्ठवणाए ६४९० अविभत्ताण छिज्जंति ३८६४ अविभागपलिच्छेदो ६११६ अविभागपलिच्छेया ३६७१ अविभूसिओ तवस्सी अवि य अणंतरसुत्ते ६३९२ अवि यंबखुज्जपादेण ३५९४ अवि य तिरिओवसग्गा १५९२ अवि य हु असहू थेरो अवि य हु इमेहिं पंचहिं २७८ | अवि यहु कम्मद्दण्णा गाथासं. | गाथा २६६१ अवि यहु कम्मद्दण्णो ३८३९ अवि य हुपुरिसपणीतो ४९६३ अवि य हु सव्व पलंबा ६३४१ अविरुद्धा वाणियगा ५५५४ अविरुद्ध भिक्खगतं १६८८ अविसहणाऽतुरियगई २२३१ अविसिटुं सागरियं ९२४ अविसेसिओ व पिंडो २४८८ अविहीपुच्छणे लहुओ ५०२० अवि होज्ज विरागकरो ५०२१ अव्वत्तमक्खरं पुण ४७६७ अव्वत्ते अ अपत्ते ३९०९ अव्वाघाए पुणो दाई ४४४७ अव्वावडे कुटुंबी ६०६७ अव्वाहए पुणो दातिं २६५७ अव्बुक्कंते जति चाउ६२०५ अव्वोगडा उ तुझं ३५०० अव्वोगडो उ भणितो अव्वोच्छित्तिनयट्ठा ५०२४ अव्वोच्छित्ती मण पंच३७८९ अव्वोच्छिन्ने भावे २९४५ असइ गिहि णालियाए १२६४ असइ तिगे पुण जुत्ते ३४९ असइ वसहीए वीसुं २६६५ असइ वसहीय वीसुं ५२०० असइ समणाण चोयग असई य कवाडस्सा ४५९८ असई य गम्ममाणे ३८११ असईय णंतगस्स उ ४१४० असईय निग्गया खुड्ड५५४९ असई य पईवस्सा ३९०८ असई य मत्तगस्सा ४५११ असईय माउवग्गे ४५०९ असई य रुक्खमूले २१७१ असईय लिंगकरणं ३२९२ असई य लिंगकरणं ३८६० असंपाइ अहालंदे ५६८३ असंफुरगिलाणट्ठा ४३४४ असंविग्गभाविएसुं ४१३८ असंसयं तं अमुणाण मग्गं २५३२ / असढस्सऽप्पडिकारे १२८० ४७५८ ५६६२ ४०५३ १६१८ ३५३१ २८२१ २३३२ २९०६ ७८० २९८७ २९४२ २६०६ ५२४८ ३५१५ २९९५ ३१३४ २४०३ ३९०७ २९९१ ३२५५ ३१८२ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. १०४२ २१९१ २१८९ ४७४९ गाथासं. ४४९९ १६१२ ६३८४ ४९०८ १६२१ ४१८१ ४१८२ ४६३६ २३७६ ५७६ ५३८४ ३५६५ ४७४० ५०४० १००६ ५१०१ ५५५३ गाथा असढेण समाइण्णं असणाइदव्वमाणे असणाईआ चउरो असती अधाकडाणं असतीए व दवस्सव असती पवत्तिणीए असती पवत्तिणीए असतीय भेसणं वा असतोण्णि खोमिरज्जू असरीरतेणभंगे असहातो परिसिल्लअसहीणे पभुपिंडं असहीणेसु वि साहम्मिअसहू सुत्तं दातुं असिद्धी जइ नाएणं असिवं ओम विहं वा असिवम्मिणत्थि खमणं असिवाइकारणेहिं असिवाइकारणेहिं असिवाई बहिया कारणेहिं असिवाईसुंकत्थाणिएसु असिवाईहिंगता पुण असिवादिएहिं तु तहिं असिवादिकारणेहि असिवादि मीससत्थे असिवादी संसत्ते असिवे अगम्ममाणे असिवे ओमोदरिए असिवे ओमोदरिए असिवे ओमोयरिए असिवे ओमोयरिए असिवे ओमोयरिए असिवे ओमोयरिए असिवे ओमोयरिए असिवे ओमोयरिए असिवे ओमोयरिए असिवे पुरोवरोधे असुभेण अहाभावेण अस्संजयलिंगीहिं उ अस्सन्नी उवसमितो अस्सायमाझ्याओ જર૮૩ ५५४५ गाथा अह अंतरावणो पुण अह अत्थि पदवियारो अहतिरियउड्डकरणे अहतिरियउड्डकरणे अह ते सबालवुड्ढो अहभावविप्परिणए अहभावेण पसरिया अह माणसिगी गरहा अहमेगकुलंगच्छं अह रन्ना तूरते अहव अबंभं जत्तो अहव जइ अस्थि थेरा अहवण उच्चावेडं अहवण कत्ता सत्था अवहण किं सिटेणं अहवण थेरा पत्ता अहवण पुट्ठा पुव्वेण अहवण वारिज्जंतो अहवण वारिज्जंतो अहवण वारिज्जंतो अहवण सचित्तदव्वं अहवण सद्धाविभवे अहवण समतलपादो अहवण सुत्ते सुत्ते अहव न दोसीणं चिय अहवा अंबीभूए अहवा अखामियम्मि अहवा अच्छुरणट्ठा अहवा अणिग्गयस्सा अहवा अणिच्छमाणमवि अहवा अणुवज्झाओ अहवा अद्धाणविही अहवा अभिक्खसेवी अहवा अविसिट्ठ चिय अहवा आणाइविराअहवा आयाराइसु अहवा आयावाओ अहवा आहारादी अहवा उहिस्स कता अहवा एगग्गहणे अहवा ओसहहेडं गाथासं. | गाथा २३०१ अहवा गुरुगा गुरुगा ४२८७ अहवा चउगुरुग च्चिय २६८२ अहवा चरिमे लहुओ ५७३२ अहवा छुभेज्ज कोयी १३७१ अहवा ज एस कप्पो ३६३२ अहवा जं भुक्खत्तो १०० अहवा जंवा तं वा ४७३७ अहवा जिणप्पमाणा ६०८६ अहवा ततिए दोसो ५९८८ अहवा तत्थ अवाया २४६६ अहवा तेसिं ततियं ५४८२ अहवा निग्गंथीओ २२५२ अहवा पंचण्हं संजईण ९६० अहवा पढमे सुत्तम्मि २१३९ अहवा पालयतीति २२०५ अहवा पिंडो भणिओ ૨૮૦૭ अहवा बायरबोंदी ३४०५ अहवा बालादीयं ३४३२ अहवा भय-सोगजुया ३४६० अहवा भिक्खुस्सेयं ५३१६ अहवा भिक्खुस्सेयं १६१० अहवा महापदाणिं २२५१ अहवा मुच्छित मत्ते ३२४३ अहवा रागसहगतो १४८३ अहवा लिंगविहाराओ ४२५४ अहवालोइयतेण्णं २७३३ अहवा वि अगीयत्थो ३८४५ अहवा वि असिट्ठम्मी ५७२० अहवा विकतोणेणं २३८ अहवा वि गुरुसमीवं ५१२५ अहवा वि चक्कवाले ५६६६ अहवा वि दुग्ग विसमे ५१२७ अहवा वि मालकारस्स ४४२५ अहवा वि विभूसाए २४८५ अहवा वि सउवधीओ १६८ अहवा वि सो भणेज्जा ५६८४ अहवा संजमजीविय ५२७८ अहवा समणाऽसंजय४२३९ अहवा सव्वो एसो ८५५ अहाऽऽगतो सो उसयम्मि देसे ४५५९ | अहिकरणं पुव्वुत्तं ६००२ ४४२६ २३५७ ५१७० ३०३९ ૬૮૨૭ २१२६ २४०६ ३२९१ ३७०६ २८३७ २६८७ ३९४९ ६२५७ २४०५ २४७६ ५९४२ ૮૨ ३८९९ ४५३९ २७९३ ९४१ २०४० ४०५५ १२५२ १३८१ ५४४२ ५८६८ ४९२१ ५९३४ ५८९३ ३०६४ ३०६२ ४०५७ १०१९ १६६५ २००२ २७३८ २७४१ ५१७२ ६३७४ ५११२ २२६५ ८८७ ४७०० १२०० ६१८७ ३६५१ ४९० ४२३६ २००४ ५४९८ ८८९ ६३१२ ३२६० ३९४२ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम%= ७५३ ४९२६ गाथा अहिकारोवारणम्मि अहिगरणं काऊण व अहिगरणं तेहि समं अहिगरणं मा होहिति अहिगरण गिहत्थेहिं अहिगरणमंतराए अहिगरण मारणाऽणीअहिगरणम्मि कयम्मि अहिगारो असंसत्ते अहिगो जोगो निजोगो अहिच्छसे जंति न ते उदूरं अहिणा विसूइका वा अहियस्स इमे दोसा अहिरण्णगत्थ भगवं अहिराया तित्थयरो अहिविच्चुगविसकंडगअहिसावयपच्चत्थिसु अहीणक्खरं अणहियम गाथासं. ५०७९ ३२७१ ५५७० १०३७ ३०५४ ७२७ १०६१ १८१२ १०८८ ३६९१ ३०७९ ६०८९ ७६३ गाथासं. | गाथा आगंतुगाणि ताणि य २७३२ आगंतुगारत्थिजणो जहिं तु २६३८ आगंतुगेसु पुव्वं ५५५२ आगंतु तदुब्भूया ५५६९ आगंतु पउण जायण २३८७ आगंतुमहागडयं ५५२ आगंतुयदव्वविभूसियं દર૭૨ आगंतु वाहिखोभो ५८६६ आगंतुसाहुभावम्मि १९४ आगमओ सुयनाणी ३९२३ आगमगिहादिएसुं ३७५५ आगमणगिहे अज्जा ४०७२ आगमणे वियडगिहे १९४४ आगमिय परिहरंता ४४३३ आगर नई कुडंगे ३८३३ आगर पल्लीमाई २३६० आगरमादी असती ૨૮૮ आगाढकारणेहिं आगाढमणागाढं आगाढमिच्छदिट्ठी आगाढम्मि उ कज्जे ६३९४ आगाढे अणागाढं १४६५ आगाढे अण्णलिंग ८१५ आगाढे अहिगरणे ३९१३ आगाढे अहिगरणे ६३१३ आगारविसंवइयं २५४ आगारिंगियकुसलं २४१५ आचंडाला पढमा २६१७ आचेलक्कुइसिय २५६० आचेलक्कुइसिय २५८७ आचेलक्को धम्मो २४१८ आढणमन्भुट्ठाणं ५८९२ आणंदअंसुपायं ५८९१ आणयणे जा भयणा १७१५ आणाइणो य दोसा ९२ आणाइणो य दोसा ર૭૪૨ आणाइणो य दोसा ३६१८ आणाइणो य दोसा ४७५४ आणाइस्सरियसुहं ५६०५ आणाए जिणिंदाणं ४३२१ | आणाऽणवत्थ मिच्छा आ गाथासं. गाथा ४०५८ आणादऽणंतसंसा३४८६ आणादिणो य दोसा ४२६९ आणादिणो य दोसा ३८१२ आणादि रसपसंगा १९६५ आणा न कप्पइ त्तिय ५४६१ आणा विकोवणा बुज्झणा २१७० आणुग जंगल देसे ३५९ आतुरचिण्णाइं एयाई १२३७ आदिपदं निइसे १७६ आदिभयणाण तिण्हं ३४८५ आदियणे भोत्तूणं ३४८७ आदिल्लेसुंचउसु वि ३४८४ आदीअदिट्ठभावे ९२७ आदेसो सेलपुरे ४०३४ आधत्ते विक्कीए ४०३५ आधाकम्माऽसतिं घातो ५८८३ आधारिय सुत्तत्थो ११५२ आधारो आधेयं १०२६ आधावसी पधावसी ५९२ आपुच्छण आवासिय ८७६ आपुच्छमणापुच्छा ६०२२ आपुच्छिऊण अरहते ३१३६ | आपुच्छित आरक्खित २७१३ आपुच्छिय आरक्खिय५७४५ आपुच्छिय उग्गाहिय ६०९८ आबाहे व भये वा २६४ आभरणपिए जाणसु ३१८५ आभव्वमदेमाणे ६३६२ आभव्वमदेमाणे ६३६४ आभिणिबोहमवायं ६३६९ आभीराणंगामो ર૭૨૮ आभोएउं खेत्तं १३६९ आभोगिणीय पसिणेण ४६०६ आभोगेण मिच्छत्तं १७७१ आमंति अब्भुवगए ४७९७ आमंति अब्भुवगते ६०५१ आमफलाणि न कप्पंति ६३२० आयंकविप्पमुक्का २११६ आयं कारण गाढं ५३७७ आयंबिलं न गिण्हइ आयंबिल बारसमं ३०३० ३१०१ ८०५ १७० ११५७ २५९० ३६८२ ४८२९ २७८६ ३५३६ २७३९ २५६३ २६९४ ५७२८ ८९ आइण्णे रतणादी आइतिए चउगुरुगा आइनकारे गंथे आइन्नता ण चोरादी आइम्मि दोन्नि छक्का आइल्लाणं दुण्ह वि आउक्काए लहुगा आउज्जोवणमादी आउज्जोवण वणिए आउज्जोवण वणिए आउट्ट जणे मरुगाण आउट्टि गमण संसत्त आउट्टिय संसत्ते आउत्तो सो भगवं आउयवज्जा उ ठिई आऊ तेऊ वाऊ आएसट्ठ विसेसे आगंतारठियाणं आगंतु एयरोवा आगंतुगमादीणं २९९९ १३७७ ४६३३ ६४१८ ३४११ ३३६७ ३७९७ १३९८ ६४७३ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ बृहत्कल्पभाष्यम् शाय | गाथा गाथासं. १२० ३९८९ ४५१० ५१३७ ५५९८ २५२६ ५९२३ ४९१७ ४४९२ ६०१६ ४४२ ar २९६३ गाथा आयढे उवउत्ता आय पर तदुभए वा आयपरसमुत्तारो आयपरसमुत्तारो आयपरे उवगिण्हइ आयपरोभयतुलणा आयपरोभयदोसा आयपरोभयदोसा आयरकरणं आढा आयरतरेण हदि आयरिए अभिसेए आयरिए अभिसेगे आयरिए अभिसेगे आयरिए अभिसेगे आयरिए अभिसेगे आयरिए असधीणे आयरिए उवज्झाए आयरिए कालगते आयरिए गच्छम्मिय आयरिएणाऽऽलत्तो आयरिए य गिलाणे आयरिए य परिन्ना आयरिए सुत्तम्मिय आयरिओ एग न भणे आयरिओगणिणीए आयरिओ गीतो वा आयरिओपवत्तिणीए आयरिओवहि बालाआयरि-गिलाण गुरुगा आयरियअणुट्ठाणे आयरियअवाहरणे आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झाए आयरियउवज्झायं आयरिय उवज्झाया आयरिय एगुन भणे आयरिय गणी इड्डी आयरियगमणे गुरुगा आयरियगिलाणे गुरुगा आयरिय चउरो मासे आयरियत्तअभविए गाथासं. २७०३ आयरियत्तणतुरितो ४३२ आयरिय दोण्णि आगत १९७१ आयरियवण्णवाई १७९५ आयरियवयण दोसा ४३४५ आयरिय-वसभ-अभिसेग१२५३ आयरिय विणयगाहण १७२४ आयरिय साहु वंदण २५९५ आयरियस्सायरियं ४४७६ आयरियाइचउण्हं ४४८४ आयरियाई वत्थु ६३७७ आयरियादभिसेगो ४३३६ आयसमणीण नाउं ४४२१ आयसमुत्था तिरिए ५३५९ आयसरीरे आयरिय६०६५ आयहियं जाणतो ४१७८ आयहिय परिण्णा भाव आयहियमजाणतो ५४०६ आयाणगुत्ता विकहाविहीणा आयाणनिरुद्धाओ ६१०७ आया पवयण संजम ४३१८ आया पवयण संजम १६६४ आयाम अंबकंजिय ३३७] आयामुसंसट्ठसिणोदगं वा ५७४८ आयारदिट्ठिवायत्थ४१५२ आयारपकप्पधरा ५५१६ आयारवत्थुतइयं १०४३ आयावण तह चेव उ. १५५३ आयावण साहुस्सा ५०८७ आयावणाय तिविहा १५७० आयाविति तवस्सी १४६० आयाहिण पुव्वमुहो ४४९६ आयुहे दुन्निसट्ठम्मि ५४७४। आरंभनियत्ताणं आरंभमिट्ठो जति आसवाय आरक्खितो विसज्जइ २७१६ आरक्खियपुरिसाणं ६९२ आराम मोल्लकीए ३१४५ आराहितो रज्ज सपट्टबंध ४७११ आरुहणे ओरुहणे ५७६९/ आरोवणा उ तस्सा १२२५ | आरोहपरिणाहा गाथासं. | गाथा ३७३ आलंबणमलहंती ५३९२ आलंबणे विसुद्धे ७३८ आलाव गणण विरहिय४३७१ आलावण पडिपुच्छण १०७० आलावण पडिपुच्छण ५१०६ आलिंगते हत्थाइ२७५२ आलिंगणादिगा वा ४४२२ आलिंगणादी पडिसेवणं वा ४४६८ आलिट्ठमणालिटे ९५५ आलेवणेण पउणइ ६११० आलोइऊणय दिसा २२७७ आलोएंतो वच्चति आलोगं पि य तिविहं २१२१ आलोयणं पउंजइ आलोयणं पउंजइ ११६२ आलोयणं पउंजइ १९६३ आलोयणं पउंजइ ४५६४ आलोयण कप्पठिते २३११ आलोयणसुत्तट्ठा ४४६ आलोयणा य कहणा ४७३ आलोयणा सुणिज्जति ५९०३ आवडइ खंभकुड्डे ५८८४ आवडणमाइएसुं ७३२ आवणगिह रच्छाए आवण रच्छगिहे वा १३८५ | आवरितो कम्मेहि २४१६ आवलियाए जतिद्वं २४१९ आवसि निसीहि मिच्छा ५९४५ आवस्सिगानिसीहिंग१७९४ आवाय चिलिमिणीए १९८३ आवायदोस तइए ००९ आवासगं करित्ता २८०९ आवासगं तत्थ करेंति दोसा ३९२७ आवासगकयनियमा २७८७ आवासगमाईया ६१७२ आवासगमादी या (जा) ९०६ आवासग सज्झाए ४४३१ आवासग सज्झाए ९७५ आवास बाहि असई २८५३ आवाससोहि अखलंत २०५१ | आवासिगा निसीहिंग ६३३० ४६० ३९२ ३९४ ३९५ ३९७ ६४७० ४५३६ ६३२९ ५६९८ ६३२१ १९२४ ૨૨૬૭ २३०२ ४९२७ ४३२३ १३७९ ३४३८ ४३८४ ४३७ २३३५ ३१६४ १५४१ arary ५४७९ २७८० ৩৩৫ ३८४ २६३५ ३१६३ ३४५४ ६१९ ५६९५ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम= गाथासं. १३७८ ३७११ ४७७० ४९८० ६२४२ २५८३ ३२४० २२०२ ३६३४ १४२८ ५०३३ ५१३३ १४८ २०३२ ४९९७ ५१५९ ४५३ ४६७ गाथा आवासिगाऽऽसज्जदुपहियादी आवासियं निसीहियं आसंकितो व वासो आसंदग कट्ठमओ आसगता हत्थिगतो आसगपोसगसेवी आसज्ज खेत्तकप्पं आसज्ज निसीही वा आसन्नगेहे दियदिट्ठभोम्मे आसन्नपतीभत्तं आसन्न मज्झ दूरे आसन्नो य छणूसवो आसरहाई ओलोआसाढपुण्णिमाए आसाढपुण्णिमाए आसादेउं व गुलं आसायण पडिसेवी आसायण पडिसेवी आसायणा जहण्णे आसायणा जहण्णे आसासो वीसासो आसित्तो ऊसित्तो आसुक्कार गिलाणे आसे रहे गोरहगे य चित्ते आहच्च हिंसा समितस्स जा तू आहच्चुवाइणाविय आहडिया उ अभिघरा आहणणादी दित्ते आहरति भत्तपाणं आहा अधे य कम्मे आहा अहे य कम्मे आहाकम्मियमादी आहाकम्मिय सघर आहाकम्मुद्देसिय आहारउवहिपूयासु आहारउवहिसयणाआहार उवहि सिज्जा आहार-उवहि-सज्जा आहार एव पगतो आहारणीहारविहीसु जोगो आहारविही वुत्तो गाथासं. | गाथा ५६९३ आहारस्स उ काले १३८० आहाराइ अनियओ २६५१ आहाराई दव्वे ३७४५ आहारा नीहारो ३८५७ आहारिया असारा ५०२६ आहारे उवकरणे ६३७१ आहारे उवहिम्मिय २५८८ आहारे नीहारे ३२२० आहारे पिट्ठाती ३८६ आहारो उवही वा ५५०७ आहारो त्ति य ठाणं ३३५५ आहारोवहि दुविहो १२५९ ४२४८ इ ४२८० १२८ | इइ ओअण सत्तुविही ४९७२ इइ चोयगदिद्रुतं ५०५९ इइ संकाए गुरुगा ५०३२ इइ सपरिहास निबंध५१३२ इओ गया इओ गया ३७७१ इंतं महल्लसत्थं ५१५१ इंतं महिड्डियं पणिवयंति ५५१४ इंदक्खीलमणोग्गहो ३१७१ इंदमहादी व समा३९३३ इंदियकसायजोगा इंदियपमाददोसा ३६१७ इंदियमुंडे मा किंचि ४३३ इदेण बंभवज्झा ५०३८ इंधण धूमे गंधे ६३७५ इंधणसाला गुरुगा ५३४२ इक्वं वा अत्थपयं ३१५९ इक्कडकढिणे मासो १७५३ इक्कडकढिणे मासो ४२७५ इक्कडकढिणे मासो १३१७ इक्विक्वं तं चउहा १११९ इक्खागा दसभागं ६२२२ इच्चेवमाइलोइय६४४४ इच्छागहणं गुरुणो ५३१५ इच्छाणुलोम भावे इच्छा न जिणादेसो ५८९७ / इच्छा मिच्छा तहक्कारे गाथासं. | गाथा ४४८६ इच्छा-मिच्छा-तहक्कारो १२५६ इट्ठकलत्तविओगे १२५४ इड्डित्तणे आसि घरं महल्लं ३२०७ इडिरससातगुरुगा ६०५० इति एस असम्माणा ७४७ इति ओहविभागेणं १३६२ इति काले पडिसेहो इति ते गोणीहिं समं ५०९७ इति भावम्मि णियत्ते ४७४१ इत्तरियाणुवसग्गा ६३५० इत्तिरियं णिक्खेवं ३५३३ इत्तिरिय निक्खेवं इत्थं पुण अहिगारो इत्थं पुण संजोगा इत्थ पुण अधीकारो ५८८१ इत्थ वि मेराहाणी ४६४४ इत्थिकहाउ कहित्ता २१७७ इत्थिनपुंसावाए २१४० इत्थिनपुंसावाते ११५८ इत्थी जूयं मज्जं ४८७३ इत्थीणं परिवाडी १९८९ इत्थी नपुंसओ वा ४८५३ इत्थी पुरिस नपुंसग २७४५ इत्थी विउव्वियाओ १२८६ इत्थी वि ताव देंति ५०२८ इत्थी सागरिए उव३१६० इमाउ त्ति सुत्तउत्ता १८५८ इय अविणीयविवेगो ८४१ इय एसाऽणुण्णवणा ३४४७ इय दोसगुणे नाउं इय दोसा उ अगीए ६८७ इय पोग्गलकायम्मी १४९८ इय रयणसरिच्छेसुं ४७८८ इय संदसण-संभास २७२ इय संदसणसंभासणेहिं ५२५७ इय सत्तरी जहण्णा ५२३३ इरियावहियाऽवण्णो १५२५ इहपरलोगनिमित्तं १९२९ इहपरलोगे य फलं २६७९ इहरह वि ताव अम्हं इहरह वि ताव मेहा ९४० २१६७ २९३३ ६३७ १७८५ ४१५४ २५५२ ५६१९ १२७८ ३५६२ ૭૨૮ ९५० ६७ २१२४ २१५२ ३७१३ ४२८५ ४५८७ ६३३४ ९५७ ३४०१ ४१६८ १९२ १६२३ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा इहरा कहासु सुणिमो इहरा कहासु सुणिमो इहरा कहासु सुणिमो इहरा परिठ्ठवणिया इहरा वि ता न कप्पइ इहरा वि ताव अम्हं इहरा वि ताव थब्भति इहरा वि ताव सहे इहरा वि मरति एसो इहरा विमरिउमिच्छं इह वि गिही अविसहणा गाथासं.| गाथा ३३९८ उग्गम-उप्पायण-एसणाहिं ३४०८ उग्गमकोडीए वि हु ३४२३ उग्गमदोसाईया २८१२ उग्गमविसोधिकोडी ३०४० उग्णयमणसंकप्पे ३३४७ उग्गयमणुग्गतेवा ५२०१ उग्गयवित्ती मुत्ती ३७९१ उग्गह एव उ पगतो ३११४ उग्गहणंतग पट्टो ३०१९ उग्गहण धारणाए ५५७८ उग्गहणमादिएहिं उम्गहधारणकुसले उग्गहमादीहि विणा उग्गा भोगा राइण्ण ४०१८ उग्गिण्णम्मि य गुरुगो ६३८६ उग्घाइया परित्ते ६३८७ उग्घातमणुग्घाते २५१० उग्घातमणुग्घाते २५३० उग्घायमणुग्घाया उच्चं सरोस भणियं उच्चसरेणं वंदइ उच्चारं पासवणं ५९५ उच्चार-चेइगातिसु ३३० उच्चार-पासवण-खेल३१३१ उच्चारविहारादी ४०८३ उच्चारे पासवणे १३६४ उच्चारे पासवणे ४०९३ उच्चारे पासवणे २९१२ उच्चारे पासवणे ४२०५ उच्चासणम्मि सुण्हा ४०१४ उच्चे नीए व ठिआ २५१७ उच्छंगे अणिच्छाए ५०७२ उच्छुकरणोव कोढुग४०९५ उच्छुद्धसरीरे वा ४०९४ उच्छुय-घय-गुल-गोरस२०२६ उच्छू वोलिंति वई उज्जयसग्गुस्सग्गो उज्जलवेसे खुड्डे १६५२ उज्जाण आरएणं १९७८ उज्जाणतोपरेणं ४५९४ || उज्जाणाऽऽयुध णूमण ईसरणिक्खंतो वा ईसरतलवरमाडंबिईसर भोइयमाई ईसरियत्ता रज्जा ईसरियत्ता रज्जा गाथासं. | गाथा ६०१ उज्जालितो पदीवो ४२०४ उज्जु कहए परिणतं उज्जुत्तणं से आलो. ४२११ उज्जुत्तणं से आलो५७९३ उज्जुसुयस्स निओओ ५८२३ उज्जेंत णायसंडे ५७८८ उज्जेणी ओसण्णं ४६५० उज्जेणी रायगिह ४०८२ उज्जोविय आयरिओ ७५९ उज्झसुचीरे सा यावि ४१२० उज्झाइए अवण्णो उट्ट-सणा कुच्छंती ४११२ उट्ठाणसेज्जाऽऽसणमाइएहिं ३२६५ उठाणाई दोसा ५१०४ उद्विंत णिवेसंतो ८६२ उद्वेइ इत्थिं जह एस एंतिं ४८९० उठेत निवेसिंते ६१३१ उद्वेज्ज निसीएज्जा ४८९१ उडुबद्धम्मि अईत ५७५१ उडुबद्धम्मि अतीए ४४९४ उड्डाहं व करिज्जा ३७५३ उड्डाहं व करेज्जा उड्डाहो वोसिरणे ५५५१ उड्वमहे तिरियं पिय १६७३ उडम्मि वातम्मि धणुग्गहे वा १३८९ उड्डादीणि उ विरसम्मि १५०० उत्तण ससावयाणि य १५७५ उत्तरगुणनिप्फन्ना ইওওও उत्तरणम्मि परुविते ५९४१ उत्तरतो हिमवंतो. २२४५ उत्तर पुव्वा पुज्जा ३६१९ उत्तर मूले सुद्धे ७२१ उत्तरिए जह दुमाई ४५५८ उत्तरियपच्चयट्ठा રાજર उत्ताणग ओमंथिय १५३९ उदए कप्पूराई उदए चिक्खल्ल परित्त१८११ उदएण वादियस्सा ५२८९ उदए न जलइ अग्गी ५३०२ उदगंतेण चिलिमिणी ३२७३ || उदगघडे वि करगए गाथासं. ३२४५ ४७०४ ५३५६ ५३५७ ११०१ ३१९२ ५११५ ४२१९ २९५२ ४१२५ ५५१३ ३६७८ ४४३५ ५५३८ ४४८० ४४१७ २४४७ ५६०८ ३४८३ ३३९६ ३४१० ३३४५ २३६८ ४८४१ ३८१६ ४७७ २७४७ ४६५६ उउ-वासा समतीता उंडिय भूमी पेढिय उंबर कोट्टिबेसुव उक्कच्छिय वेकच्छिय उक्छुडुयासणसमुई उक्कोसओ जिणाणं उक्कोसं विगईओ उक्कोसगा वि दुक्खं उक्कोसतिसामासे उक्कोस माउ-भज्जा उक्कोस सनिज्जोगो उक्कोसो अट्ठविहो उक्कोसो थेराणं उक्कोसोवहि-फलए उक्खित्त भिन्नरासी उक्खित्तमाइएK उक्खित्तमाइचरगा उक्खिप्पऊ गिलाणो उक्खिवितो सो हत्था ५६३५ ६२४७ ४५७ २९९४ ३०७ ६०४७ ११०३ ६००१ ५६४१ ५१६५ १२४६ २४२२ २१६१ ३३०२ ३३०५ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम = ७५७ गाथासं. ३०५७ ३०६५ ५५३७ ३४३४ ३४६२ ४४७९ १८७६ ४८८० ५१९३ ४३५८ गाथा उदगाऽगणितेणोमे उदगा-ऽगणि-वायाइसु उदगाणंतरमग्गी उदयं पत्तो वेदो उदाहडा जे हरियाहडीए उदिओऽयमणाहारो उदिण्णजोहाउलसिद्धसेणो उदितो खलु उक्कोसो उद्दहरे वमित्ता उद्दहरे सुभिक्खे उहहरे सुभिक्खे उहहरे सुभिक्खे उद्दहरे सुभिक्खे उद्दहरे सुभिक्खे उद्दवणे निव्विसए उदाण परिठ्ठविया उद्दावण निव्विसए उद्दावण निव्विसए उद्दावण निव्विसए उहिट्ठ तिगेगयरं उद्दिट्ट तिगेगयरं उहिसइ व अन्नदिसं उद्दिसिय पेह अंतर उद्दिसिय पेह संगय उहूढसेस बाहिं उहूढे व तदुभए उद्देसग्गहणेण व उद्धंसिया य तेणं उहाणं ठाणायतं उद्धप्फालाणि करेंति उन्नयमविक्ख निन्नस्स उन्निक्खंता केई उन्नियं उट्टियं चेव उप्पण्णे अहिगरणे उप्पण्णे उवसग्गे उप्पण्णेणाणवरे उप्पत्तिकारणाणं उप्पत्तियं वा वि धुवं व भोज्जं उप्पन्न कारणम्मि उप्पन्न कारणाऽऽगंतु उप्पन्ने अहिगरणे गाथासं. गाथा ४३३५ उप्पन्ने अहिंगरणे २७४४ उप्पन्ने अहिगरणे ३४३० उप्परिवाडी गुरुगा २१५० उप्पलपउमाइं पुण ३९९३ उप्पायग उप्पण्णे ५९९७ उप्पिं तु मुक्कमउडे ३२८९ उब्भामगऽणुब्भामग३६७३ उब्भामग वडसालेण ५८३० उम्भावियंपवयणं १०१८ उभए वि संकियाई २८७८ उभओ पडिबद्धाए २९७२ उभओ पडिबद्धाए ३००३ उभओ पासिं छिज्जउ ३०५३ उभओसहकज्जे वा ९०५ उभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं २६०९ उभयं वा दुदुवारे २५०१ उभयगणी पेहेङ २७७७ उभयट्ठाइनिविट्ठ ५०९४ उभयट्ठाय विणिग्गए उभयम्मि वि अविसिटुं उभयविसुद्धा इयरी ५४७७ उभयस्सऽकारगम्मी ६०९ उभयेगयरट्ठाए उम्मग्गदेसणाए य . २९१६ उम्मग्गदेसणा मग्गदूसणा २९८२ उम्मग्गेण वि गंतुं उम्मत्तगा तत्थ विचित्तवेसा ३८०० उम्मत्तवायसरिसं ५९५३ उम्मातो खलु दुविधो ३९५५ उय-वइकारो हत्तिय ३२१ उल्लत्तिया भो! मम किं करेसि २४६३ उल्लेऊण न सक्का ३९७९ उल्लोम लहू दिय णिसि ૬૨૭૮ उल्लोमाऽणुण्णवणा ५७०१ उवएसेण सयं वा ३२६७ उवएसो संघाडग २१५९ उवएसो संघाडग ३५८७ उवएसो सारणा चेव ४५४० उवओगं हेट्टवरिं ४३०३ उवगरणं चिय पगयं २२२३ | उवगरणं वामगऊरु गाथासं. | गाथा २२२८ उवगरणगेण्हणे भार३७३० उवगरण पुव्वभणियं ३०६८ उवगरणमहाजाते ९७८ उवगरणे पडिलेहा ६११९ उवगरणे पडिलेहा ५६८० उवगरणे हत्थम्मि व १८३९ उवचरइ कोणऽतिन्नो ५०२२ उवचियमंसा वतिया६०४६ उवट्ठाविओ सियत्ती १२३३ उवठावियस्स गहणं २६१४ उवदेस अणुवदेसा २६१५ उवमाइ अलंकारो ३९५३ उवमा-रूवगदोसो २३८० उवयंति डहरगाम ५०३९ उवयार अनिट्टरया २९८४ उवयोगं च अभिक्खं १०६४ उवयोगसरपयत्ता २०७१ उवरिं आयरियाणं २६४७ उवरिं कहेसि हिट्ठा ४१०० उवरिंतु अंगुलीओ २३३७ उवरिं पंचमपुण्णे २२१४ उवरोहभया कीरइ २२३६ उवलक्खिया य धण्णा ६४२४ उवलजलेण तु पुव्वं १३२१ उवलद्धी अगुरुलहू उववाएणव सायं ३१७० उवसंतोऽणुवसंतं ३३२९ उवसंतो वि समाणो ६२६३ उवसंतो सेणावइ ૨૮૭ उवसंपज्ज गिलाणे ३२५२ उवसंपज्ज गिलाणे उवसंपज्ज गिलाणो ३५७८ उवसंपज्ज थिरत्तं ३५७७ उवसग पडिसग सेज्जा उवसमणट्ठ पदुढे २९९२ उवसमसम्मा पडमाण२९९३ उवसमियं सासायण १२६६ उवसामगसेढिगयस्स २३६१ उवसामिओणरिंदो ३६५९ उवसामितो गिहत्थो ४५९ उवस्सए उवहि ठवेतुं ૨૮૪ ૨૮૨ ५६१२ ३१६ ५२२ १४१ ५५३४ ४३६१ ३८५० ४३०० ४७९५ ३३७० ५६४७ ७१ ४२३८ १२४ २७१८ ५०१३ ३०२५ ४३१५ ४३९९ ४३१७ १२४१ ३२९५ ३५५४ १२७ ३३५ ११८ ३९०३ ५५८० ५०९१ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ बृहत्कल्पभाष्यम् ८४० १२२ १९८४ १८८६ गाथा उवस्सए एरिसए ठियाणं उवस्सए य संथारे उवस्सग गणियविभाइय उवस्सय कुले निवेसण उवस्सय निवेसण साही उवस्सय निवेसण साही उवहय उवकरणम्मि उवहयभावं दव्वं उवयमइविन्नाणे उवहाण तूलि आलिंउवहिम्मि पडगसाडग उवहि सरीरमलाघव उवहिस्स आसिआवण उवहीलोभ भया वा उवेहडप्पत्तिय परितावण उवेहोभासण करणे उवेहोभासण ठवणे उवेहोभासण परितावण उब्वत्तखेलसंथारउव्वत्तण परियत्तण उव्वत्तणमप्पत्ते उव्वत्तेति गिलाणं उव्वरए कोणे वा उव्वरए वलभीइव उव्वरगस्स उ असती उव्वरगस्स उ असती उव्वाया वेला वा उव्वेल्लिए गुज्झमपस्सतो से उसिणे संसद्वे वा उस्सग्गओ नेव सुतं पमाणं उस्सगं एगस्स वि उस्सग्ग गोयरम्मी उस्सग्गट्ठिई सुद्धं उस्सग्गलक्खणं खलु उस्सग्गसुतं किंची उस्सग्गाई वितह उस्सग्गेणं भणियाणि उस्सग्गेण निसिद्धाई उस्सन्नं सव्वसुयं उस्सासाओ पाणू उस्सुत्तं ववहरंतो गाथासं. गाथा ३४८८ उस्सेइम पिट्ठाई ३७२२ ५३५१ ५०१२ १९९६ ऊणाइरित्त वासो ५५४२ ऊणाणुट्ठमदिन्ने ५१५४ ऊणाधिय मन्नतो ५२३६ ऊणेण न पूरिस्सं ७८७ ऊसरदेसं दड्डल्लयं ३८२४ ऊसवछणेसु संभारियं १९६७ ऊससियं नीससियं ३५४६ ५०६४] ए ५६० एअगुणविप्पमुक्के १९८७ एआओ भावणाओ १९८६ एईए जिता मि अहं १९८५ | एए अण्णे य बहू एए अ तस्स दोसा ३७८२ एए उ अघिप्पते ५३७० एए उ दवावेंती एए चेव दुवालस ५७० एए चेव य ठाणा २६४५ एए चेव य दोसा १९०५ एए चेव य दोसा ६२१५ एए चेव य दोसा २२०८ एए चेव य दोसा ४११५ एए चेव य दोसा १९५१ एए चेव य दोसा ३६३० एएण सुत्त न गतं ५२०५ एएण सुत्त न गतं एए न होंति दोसा ३३१८ एएसामन्नयरं ५१४८ एएसिं असईए ३३१६ एएसिं असईए एएसिं असतीए ३३२६ एएसिं असतीए ३३२७ एएसिं तिण्हं पी . २६९ एएसि परूवणया १३४१ एएहिं कारणेहिं ६४२३ | एएहिं कारणेहि गाथासं. | गाथा एएहिं कारणेहिं एएहिं कारणेहि एएहिं कारणेहिं एएहिं कारणेहिं १२५७ एएहिं कारणेहिं १५९८ एएहिं कारणेहिं ५२१७ एएहि य अण्णेहि य ४००६ एक्कं भेरमि भाणं एक्कग दुगं चउक्वं ३४२६ एक्कतरे पुव्वगते एक्क-दुग-तिण्णि मासा एक्कम्मि दोसुतीसुव एक्कवीस जहण्णेणं एक्कस्स ऊ अभावे १९२० एक्कस्स मुसावादो १३२७ एक्कस्स व एक्कस्स व ६२०८ एक्काइ वि वसहीए ५७१२ एक्काए वसहीए ४२४० एक्का मुक्का एक्का य ६२९ एक्का य तस्स भगिणी ४६३० एक्का वि ता महल्ली ३९६४ एक्विक्वम्मि उ ठाणे ६४०७ एकिक्कम्मि य ठाणे एक्विक्वम्मि य भंगे ३२१२ एक्किक्को सो दुविहो ३४९९ एक्कक्कं अतिणे ४४१९ एक्कक्कं तं दुविहं ६१६९ एक्कक्कं ताव तवं ६१७३ एक्केक्कं सत्त दिणे ५८४६ एक्कक्कपडिग्गहगा ५९०९ एक्केक्कमक्खरस्स उ २७५० एक्कक्कम्मि उ ठाणे ४७३९ एक्कक्कम्मि उ ठाणे २३२४ एक्कक्कम्मि उ ठाणे २९६० एक्वेक्वम्मि उ ठाणे ४१४१ एक्कक्कम्मि य ठाणे ६३०६ एक्केक्काउ पयाओ २५६५ एक्केक्का ते तिविहा ४३१६ एक्केक्का ते तिविहा १०२० एकेक्कातो पदातो १८०१ एक्केक्का सा दुविहा गाथासं. २००३ २०५५ २७५७ ३०६३ ३७७२ ५१७५ ४८०० २८९० १९२१ २६५४ ५८१८ २२६३ ४८५२ ૨૮૮૨ ६१४१ ૨૮૬ २०३३ १४१२ ४१२९ ६१९९ ४५६८ १७४७ २४५४ २१८६ ३०७६ ४९६४ ४९०० १३३० ७०६ १४४२ ६० १५१० २३५९ २५५८ ५५५९ २८९३ २२५५ २५६६ २५७१ ४९०७ ३१४३ २३१९ arn ३३१९ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमः गाथासं. ७३ ४७३८ ५४३८ ५५६० २२८७ ५६४ गाथा एक्केक्कीए दिसाए एक्केक्को जियदेसो एक्केको पुण उवचय एक्केको सो दुविहो एक्केणं एक्कदलं एक्कोन्नि सोत्ति दोण्णी एक्को य जहन्नेणं एक्को य दोन्नि दोन्नि य एक्को वा सवियारो एगं कप्पट्ठियं कुज्जा एगंगिय चल थिर पारिएगं ठवे णिव्विसए एगंणायं उदगं एगंतरमायंबिल एगंतरमुप्पाए एगं तासिं खेत्तं एगं नायं उदगं एगं व दो व तिन्नि व एगखुर-दुखुर-गंडी एगग्गया सुमह निज्जरा एगग्गामे अतिच्छंते एगत्तभावणाए एगत्थ कहमकप्पं एगत्थरंधणे भुंजणे एगत्थ वसंताणं एगत्थ सीयमुसिणं एगत्थ होइ भत्तं एगत्थे उवलद्धे एग-दु-ती-चउ-पंचगएगपए दु-तिगाई एगपएसोगाढादि एग पणगऽद्धमासं एगपुड सकलकसिणं एगमणेगे छेदो एगमरणं तु लोए एगम्मि अणेगेसुव एगम्मि दोसु तीसु व एगम्मि दोसु तीसु व एगयर उभयओवा एगयरनिग्गओवा एगवगडं पडुच्चा गाथासं. | गाथा ११८८ | एगवगडेगदारा एगवगडेगदारे एगविहारी अ अजाय४९१४ एगस्स अणेगाणव १९७ एगस्स पुरेकम्म ३६६५ एगस्स बीयगहणे ५२३ एगा उ कारण ठिया ५०५५ एगागित्तमणट्ठा २०२२ एगागिस्स हि चित्ताई ६४६३ एगागी मा गच्छसु ५६४२ एगागी वच्चंती ३५८२ एगाणियस्स दोसा ४५९७ एगाणियाए दोसा ७४६ एगापन्नं च सता १३०४ एगालयट्ठियाणं २२३० एगा व होज्ज साही ४५७६ एगाह पणग पक्खे ४८४२ एगाहि अणेगाहिं २१६८ एगाहि अणेगाहि व १३४३ एगे अपरिणए या ४६६१ । एगे अपरिणए या १३५२ एगे अपरिणते या २६७६ एगेण कयमकज्जं ३५६६ एगेण विसइबीएण ४८१४ एगेण समारद्धे २०९७ एगेण समारद्धे ५३०९ एगे तू वच्चंते एगे महाणसम्मी ४४५ एगो एगदिवसियं एगो करेति परसुं २७२२ एगोखओवसमिए १५३० एगो गिलाणपासे ३८४७ एगोऽत्थ नवरि दोसो ३३६० एगो व होज्ज गच्छो २४९० एतं चेव पमाणं एतं तु पाउसम्मी २२७१ एतं तुब्भं अम्हं २४६४ एतं पि मा उज्झह देह मज्झं एतहोसविमुक्कं ६०८ एतविहिआगतं तू २१३२ | एताइं अकुव्वंतो गाथासं. | गाथा २१२९ एताणि य अण्णाणि य २१३३ एतारिसं विओसज्ज ६९४ एतेण सुत्त न गतं ३१४७ एते तिन्नि वि भंगा १८३६ एते पदे न रक्खति १८४२ एते सव्वे दोसा ३२३० एतेसिं अग्गहणे एतेसिं असईए ५७१९ एतेसिं तु पयाणं ५७२६ एतेसिं तु पयाणं ५९३० एतेसिं तु पयाणं १७०२ एतेहिं कारणेहिं ५९३३ एत्थ उ पणगं पणगं ३१३८ एत्थं पुण अधिकारो ४८५७ एत्थं पुण अहिगारो २२३४ एत्थ किर सण्णि सावग ५४७६ एत्थ य अणभिग्गहियं ३१५४ एमाइ अणागयदोस३२३५ एमेव अजीवस्स वि ५४३७ एमेव अणत्ताए ५४४६ एमेव अधाउं उज्झिऊण ५३९९ एमेव अप्पलेवं एमेव अमुंडिस्स वि एमेव असंता विउ १८४३ एमेव असिहसण्णी १८४६ एमेव अहाछंदे ५३९१ एमेव उग्गमादी ३५६३ एमेव उत्तिमढे ३१४२ एमेव उवहि सेज्जा ३९४३ एमेव ओवसमिए ३९४० एमेव कइयवा ते ३२१६ एमेव गणाऽऽयरिए २१३८ एमेव गणाऽऽयरिए १६१५ एमेव गणावच्छे १२०८ एमेव गणावच्छे २७४० एमेव गिलाणाए एमेव गिलाणे वी ४२०३ एमेव गोणि भेरी ५०९ एमेव चारण भडे ५४३६ एमेव जइ परोक्खं ४५४९ एमेव तइयभंगो ४२७७ ५५१२ ३१९३. ३०८२ '३०८४ ३६८९ ४६०८ ४२८४ ४९६८ ५०१५ ૩૨૭૦ ૪૨૮૨ २८९४ १५५ ६३०७ २१८ १७४२ ४६६८ ९२८ ३४४ ४६९६ ५४६६ ५३५३ २८७६ ७६६ ३९४१ १९८ ५५६ ५७७५ ५८०४ ५४५० ५४७० ५२४४ ३६३ ५५० २९५० २८७४ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० = बृहत्कल्पभाष्यम् ३११६ गाथा एमेव ततो णिते एमेव तेल्लिगोलियएमेव तोसलीए एमेव पउत्थे भोएमेव पउलियाऽपउलिए एमेव बितियसुत्ते एमेव भावतो विय एमेवऽभिक्खगहणे एमेव मज्जणाई एमेव मामगस्स वि एमेव मासकप्पे एमेव मीसए वि एमेव य अच्चित्ते एमेव य अच्छिम्मि एमेव य इत्थीए. एमेव य उदिउ त्तिय एमेव य एक्कतरे एमेव य किंचि पदं एमेव य खंधाण वि एमेव य गेलन्ने एमेव य जसकित्तिं एमेव यण्हाणाइसु एमेव य नगरादी एमेव य निज्जीवे एमेव य परिभुत्ते एमेव य पिहियम्मी एमेव य पुरिसाण वि एमेव य भयणा वी एमेव य भूमितिए एमेव यवसिमम्मि वि एमेव यवीयारे एमेव य संजोगा एमेव य संसटुं एमेव य सच्चित्ते एमेव य सन्नीण वि एमेव य हीलाए एमेव य होइ गणी एमेव लेवगहणं एमेव संजईणं एमेव संजईण वि एमेव संजईण वि गाथासं. | गाथा २९८५ एमेव सघरपासंड३२८१ एमेव समणवग्गे ४२२३ | एमेव सेसएसु वि २८०० एमेव सेसएसु वि १०८० एमेव सेसएसु वि ५८९९ एमेव सेसएसुवि १०४० एमेव सेसएहि वि ५८०६ एमेव सेसगम्मि ६४७ एमेव सेसियासु वि ६२८ एमेव होइ उवरिं ४८६९ एमेव होइ उवरिं ४३४७ एमेव होति इत्थी ४६८८ एमेव होति दुविहा ६१८१ एमेव होति तेण्णं ५०८० एमेव होति वगडा ५८०९ एमेवोगाहिमगं २२४४ एयं चरित्तसेटिं ६४१६ एयं चेव पमाणं २७२१ एयं जायणवत्थं ५८२१ एयं दुवालसविहं ४६८७ एयं पिताव जाणह १६७९ एयं पिसघरमीसेण ११२० एयगुणसंपउत्तो एयगुणसंपजुत्तो १८६७ एयहोसविमुक्कं एयहोसविमुक्कं एयहोसविमुक्के १०७१ एयविहिमागतंतू २९४३ एयविहिमागयं तू २९९९ एयस्स णत्थि दोसो एयस्स नत्थि दोसो ५६५१ एयस्स नाम दाहिह ६६३ एयाणि गारवट्ठा ९०७ एयाणि मक्खणट्ठा १७९२ एयाणि य अन्नाणि य ६०८८ एयारिसए मोत्तुं ५७५४ एयारिसं विओसज्ज ७४९ एयारिसं विओसज्ज एयारिसखेत्तेसुं १०३८ | एयारिस गेहम्मी १०८५, एयारिसम्मि रुवे गाथासं. | गाथा १७८५ | एयारिसम्मि वासो ५३४७ | एयारिसे विहारो १६३२ एयारिसो उ पुरिसो ४९०४ एयासिं असतीए ५२६७ एयासिं असतीए ५६४८ एयासि णवण्हं पी २७७८ एरंडइए साणे ४२५५ एरवइ कुणालाए ५५०९ एरवइ जत्थ चक्किय २९१९ एरवइ जम्हि चक्किय एरिसए खेत्तम्मी २५७६ एरिसओ उवभोगो २५७० एरिसदोसविमुक्कम्मि ५०९६ एरिससेवी सव्वे ३२९६ एवइयाणं गहणे १४०८ एवं अप्परिवडिए ४५१३ एवं अवातदंसी ४०१५ एवं उग्गमदोसा २७९५ एवं एक्कक्क तिगं एवं एक्कक्क तिगं ३०२० एवं एक्वेक्कदिणे ४२०९ एवं एसा जयणा ५१३१ एवं खओवसमिए ५०३१ एवं खलु अच्छिन्ने १६०१ एवं खलु संविग्गे एवं खु थूलबुद्धी ૨૨૮૮ एवं खु भावगामो ५३९८ एवं खुलोइयाणं ५४४५ एवं गहवइसागारिए ५५७२ | एवं गिलाणलक्खेण २५०२ एवं च पुणो ठविए १९३९ एवं च भणितमित्तम्मि १३१४ एवं च भणियमेत्ते ६०३२ | एवं चिय निरविक्खा ६२४८ एवं चिय मे रत्तिं २३१० एवं ठियम्मि मेरं ५४०० एवं तत्थ वसंती५४४७ एवं ता अदुगुंच्छिए २२९५ एवं ता अहिडे २६१९ एवं ता असहाए | एवं ता गिहवासे गाथासं. ३३१४ २७८२ ५११८ ३७९४ ५२४६ ५९५० २९२६ ५६३९ ५६५३ ५६३८ ३२९० २४५७ २४३४ ५१६३ ३८७६ १०७ ઉર૭૬ ५३०१ २५६९ २५७७ ५७७१ १०६८ ४७२२ ५४६३ ૨૨૬ ર૮૦૮ ६३९ ૨૨૮૪ ६८३ १८९१ १५९१ ३३६९ २००८ २२०४ २८४६ ६४३७ २०८२ ८६७ ५०६७ ८८५ १९४७ १०७३ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम गाथा एवं ता गेण्हते एवं ता जिणकप्पे एवं तातिविह जणे एवं ता दप्पेणं एवं ता पंचम्मि एवं तापमुहम्मी एवं ताव दिवसतो एवं ता सविकारे एवं तु अगीतत्वे एवं तु अणतेहिं एवं तु अन्नसंभो एवं तु असदभावो एवं तु इंविएहिं एवं तु केइ पुरिसा एवं तु गविसं एवं तु चिट्टणादिसु एवं तु ठाविए कप्पे एवं तु दिया महणं एवं तु सो अवधितो एवं तेसि ठियाणं एवं दब्बतो हं एवं दिवसे दिवसे एवं दुग्गतपहिता एवं नामं कप्पति एवं पडिणिं एवं पमाणजुत्तं एवं पि अठायंते एवं पि अलब्भंते एवं पि कीरमाणे एवं पि कीरमाणे एवं पि परिच्यत्ता एवं पि भाणभेदो एवं पहु उवघातो एवं पीईवडी एवं पुच्छासुद्धे एवं फासूमफा एवं बारस मासे एवं भवसिद्धीया एवं मणविसणं एवं लेवग्गणं एवं वासावासे गायासं. गाथा २८०२ एवं वितिगिच्छो वी ५२७० एवं विसुद्धनिगमस्स ४२१७ एवं संसारीणं २२०६ ५६१६ २६४३ ५८३२ २५५९ ५७६७ ७० १६१७ ५६१० ५९२६ ५१५६ ६४८ २४१२ ६४६६ २९८४ ५०८१ १०७४ ९१४ ५७६६ ६३६८ ४२७३ १२७९ एवं सडकुलाई एवं समाजिए कप्पे ५७७० ११३७ ८४ ५१६ ४६८९ एवं सुत्तं अफलं एवं सुतं अफलं एवं सुत्तं अफलं एवं सुत्तविरोधो एवं सुनीहरो मे एवमुवज्झाए एवमुवस्सय पुरिमे एव य कालगम्ि एस उ पलंबहारी एसणदोसे व कर एस दोसे सीयइ एसणपेल्लण जोगाण एस तवं पडिवज्जति एसा अविही भणिया एसा विही उ निम्गए एसा बिडी तु विद्वे एसा विही विसज्जिए एसुस्सग्गठियप्पा एसेव कमो नियमा एसेव कमो नियमा ५८५३ एसेब कमो नियमा ५४८१ एसेव कमो नियमा ६१७ एसेव कमो नियमा १९१० एसेव कमी नियमा ५२५३ एसेव कमो नियमा ५३०७ एसेव कमो नियमा ४८४ एसेव कमो नियमा ४८७ एसेव कमो नियमा ५२९४ एसेव कमो नियमा ६४३ एसेव कमो नियमा १८१८ एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा गाथासं ५८१५ १०९९ १०४ १५८६ ६४७९ २५६१ ५२९० ६१७४ ४२४१ ६३४४ ६१०९ ५३४९ ५५१५ ९२३ १६०३ ४५२० ५५०८ ५५९७ १८४१ ५७६० ५८७५ ५४३४ २४८ १४२५ १६७७ २०३४ २०४७ २१०६ २३२५ २५४७ २५७८ २६१६ २६६८ ४०४६ ४९४० ३८०३ ४२३३ ५५८७ १००० १०३३ २०४५ गाथा एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेब गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेव गमो नियमा एसेव गिलाणम्मि वि एसेब गुरु निविट्टे एसेव य णवगकमो एसेव य दिट्ठतो एसेव य दिट्ठतो एसेव य नूण कमो एसो वि तत्थ वच्चइ एसो वि ताव दमयतु एसो वि ताव दम्मउ एसो विही उ अंतो एहिंति पुणो दाई एहि भणिओ उ वच्चइ ओ ओअत्तंतम्मि वहो ओगाहमाहविगई ओदरिपत्थयणाऽसइ ओदरियमओ वारेसु ओभामिओ उ मरुओ ओभामिओ हि सवासमझे ओभावणा कुलघरे ओभावणा कुलघरे ओभावणा पवयणे ओभासह खीराई ओभासणा व पुच्छा ओभासणा य पुच्छा ओभासिय नं त गिलाणमडा ओभासिय ध्रुव लंभो ओमंथ पाणमाई ओमंथ पाणमाई ओमंथिए वि एवं ओमम्मि तोसलीए ७६१ गाथासं. ३५१० ३७९६ ४६०९ ५२६० ५४५१ ५७२१ ६०५९ ६२४१ १९६३ २२४८ ४६७० ८९ १००८ १९४१ २१९६ ५७३५ २७०४ २९५७ ४६७३ ७७४ १७२८ २०७७ ३११२ ३२७९ १७१६ ३५९१ २३१३ ३४९६ ४४१८ १५९९ ६६० ४०३९ ३१९६ १५२४ ६६५ ४०४० ११०५ १०६० Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ६२०६ ६०८५ ४१६४ २२६६ ५५७ क ६३५८ ३३२१ १२४५ ३६२५ ३०५० ३१९० १८२४ ४६०२ गाथा ओमाणपेल्लितो वेलओमाणस्स व दोसा ओमादिकारणेहि य ओमा-ऽसिव-दुढेसुं ओमा-ऽसिव-दुट्टेसू ओमा-ऽसिवमाईहि व ओमे एसणसोहिं ओमो चोदिज्जंतो ओमोदरियागमणे ओमोदरिया य जहिं ओमो पुण आयरिओ ओमो समराइणिओ ओयण-मीसे-निम्मीओयब्भूतो खित्ते ओयारण उत्तारण ओरोहधरिसणाए ओलिंपिऊण जहि अक्खरा ओली निवेसणे वा ओलोयणंगवेसण ओलोयण निग्गमणे ओवग्गहियं चीरं ओवासे तणफलए ओवासे तणफलए ओवासे संथारे ओवुज्झंती व भया ओसक्ते दटुं ओसक्कण अहिसक्कण ओसण्णे दट्टणं ओसन्नेण असन्नीण ओसप्पिणीइ दोसुं ओसरणे सवयंसो ओसह भेसज्जाणिय ओसह विज्जे देमो ओहविभागुइसे ओहाडियचिलिमिलिए ओहाडियदाराओ ओहाणाभिमुहीणं ओहार-मगरादीया ओहाविय ओसन्ने ओहाविय कालगते ओहि मणपज्जवे या गाथासं.| गाथा ५८८७ ओहे उवग्गहम्मिय ३७०८ ओहेण दसविहं पिय ५४१९ ओहे सव्वनिसेहो २०२९ ओहो उवग्गहो विय ३९१६ ५१२३ ३११८ ६१३५ कंकडुए को दोसो ३११९ कंजिय-उदगविलेवी ९३८ कंजिय-चाउलउदए ४४१२ कंजुसिण-चाउलोदे १३७३ कंटग-कणुए उद्धर १०७५ कंटग तेणा वाला ९५९ कंटगमादीसु जहा ६१९० कंटऽट्टि खाणु विज्जल ३१२० कंटाट्ठिमाइएहिं ३३९५ कंटाई देहतो २२१६ कंटाहि-सीयरक्खठ्ठता ५०३६ कंदप्प देवकिव्विस २४२४ कंदप्पे कुक्कुइए ५८९४ कंदाइ अभुंजते १३८३ कंपइवाएणलया १६२५ कक्खंतरुक्खवेगच्छि२०२५ कज्जविवत्तिं दटुं ६१९४ कट्टेण व सुत्तेण व ४५३८ कट्ठे पुत्थे चित्ते १६५३ कट्ठे पुत्थे चित्ते ६०७६ कढे पुत्थे चित्ते कडओ व चिलिमिणी वा १४१६ कडओ व चिलिमिली वा ६१०३ | कडओ व चिलिमिली वा १४८६ कडं कुणंतेऽसति मंडवस्सा ६२२१ कडकरणं दव्वे सा ५३४ कडजोगि एक्कओ वा २३६२ कडजोगि सीहपरिसा २३३६ कडपल्लाणं सण्णा ३७२६ कडमकड त्ति य मेरा ५६३३ कडिपट्टए य छिहली ५४९० कडिपट्टओ अभिनवे ५४८९ कडिवेयणमवतंसे कणएण विणा वइरं गाथासं. | गाथा ४३५४ | कण्णम्मि एस सीहो कतरिं दिसं गमिस्ससि २५५५ कतरो भेणत्थुवधी ४८४८ कतरो सो जेण निसिं कतिएण सभावेण व कतिठाण ठितो कप्पो कत्थइ देसम्गहणं २२१ कत्थ व न जलइ अग्गी १७०७ कन्नतेपुर ओलोय१९५८ कप्पइ अपरिग्गहिया १७०६ कप्पइ गिलाणगट्ठा ६१६८ कप्पइ गिलाणगट्ठा १४७५ कप्पइ समेसु तह सत्त५५९६ कप्पट्ठ खेल्लण तुअट्टणे ८८१ कप्पट्ठिय परिहारी ८८३ कप्पठिइपरूवणता ३८५८ कप्पम्मि अकप्पम्मिय ३८६३ कप्पा आयपमाणा १२९३ कप्पा-कप्पविसेसे १२९५ कप्पातो व अकप्पं ३११३ कप्पासियस्स असती २४३७ कप्पेऊणं पाए १०६७ कप्पे सुत्त-ऽत्थविसार७५४ कप्पो च्चिय सेहाणं १०५६ २४६९ कब्बट्ठदिढे लहुओ कमजोगं न वि जाणइ २५०४ ४९१५ कमभिन्न वयणभिन्नं ३४५१ कम्मं असंकिलिटुं २२७४ कम्मं चिणंति सवसा २६६६ कम्म घरे पासंडे ३५१६ कम्मम्मि अदिज्जते कम्मवसा खलु जीवा २९९७ कम्मार-णंत-दारग२८९६ कम्मे आदेसदुगं ३२९८ कम्मेहिं मोहियाणं २२११ कम्मोदय गेलन्ने कयउस्सग्गाऽऽमंतण ५१७८ कयकरणा थिरसत्ता ६३३६ कयकिइकम्मो छदेण ५६८७ कयमकए गिहिकज्जे ५३४० १००५ ३९६९ ४२३२ ५३६२ ३६६८ ४४० १३९९ ५३२९ ८६५ ७२० २७९ ५४ ४९११ २६८९ १७५४ ४२२१ १८४ २६९० २९२९ १०८४ २३४५ ५३२० १५८२ २४४५ ४९३ ७०२ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम गाथा कयरी दिसा पसत्था कयलीखंभो व जहा करगोफणधणुपादाकरणं तु अण्णमण्णे करणाणुपालयाणं करणे अधिकरणम्मि व करपायंगुट्टे दोरेण करपायदंडमाइसु करमिव मन्नइ दिंतो कलमोदणी व स्त्रीरं कलुस दवे असतीय व कलुसफलेण न जुज्जइ कल्लं से दाहामी कवादी लंबे कसा विकहा विगडे कसिणस्स उ वत्थस्सा कसिणा परीसहचम् कसिणाऽविहिभिन्नम्मि य कस्सइ विवित्तवासे करस त्ति पुरेकम्म कस्सेते तणफलगा कस्सेयं पच्छित्तं कहकहकहस्स हसणं कहणाऽऽउट्टण आगम कहयति अभासियाण वि कहिओ य तेसि धम्मो काइय पडिलेह सज्झाए काई सुहवीसत्था काउं णिसीहियं अट्ठ काउं सरत्ताणं काउस्सम्गं तु लिए काउस्सग्गे सज्झा काऊण अकाऊण व काऊण नमोक्कारं काऊणमसागरिए काऊण मासकप्पं काऊण मासकप्पं काऊण य प्पणामं कारण उवचिया खलु कारसु अप्पणा वा कासु उ संसत्ते गाथासं. १४६३ ४१२८ ६३२३ ५०२५ ४२९९ ६३१५ ५५२४ ९०० ४४९१ १९२८ ४३५ ८३७ १४०७ १९६९ ५०१६ गाथा काएहऽविसुद्धपहा काणच्छिमाढपहि ५४३० २३३४ १६६३ ५८९ का भयणा जइ कारणि कामं अखीणवेदाण कामं अहिगरणादी कामं आसवदारेसु कामं कम्मं तु सो कप्पो कामं खलु अणुगुरुणो कामं खलु पुरसो कामं खलु सम्ब कामं जहेव कत्थति कामं तवस्सिणीओ कामं तु एअमाणो कामं तु सरीरबलं कामं परपरितावो कामं पुरिसादीया कामं विपक्खसिद्धी कामं विभूसा खलु लोभदोसो कामं सकामकिच्यो ३८८० १३५५ १०५२ २१६५ १८२१ कामं सव्वपदेसु वि २०३८ कायं परिच्चयंतो ९३६ कायादि तिहिि १२९६ काया वया य ते च्चिय ५०५२ काया वया य ते च्चिय १२३० कारगकओ चडत्ये ३२८४ ३४८९ ३६९५ ६२९९ ५१८ ५६७९ ५५०२ ५५८९ १ कारगकरेंतगाणं कारणगमणे वि तहिं कारणगहिउव्वरियं कारणजाय अवहितो कारणतो अविधीए कारणनिसेवि लहुसन कारणमकारणम्मि व कारणियदिविखतं तीर कारणे अणले दिक्खा कारणे अणुन विहिणा ४७५६ १६८७ कारणे गंधपुलागं ४२८६ कारणे गमणे वि तर्हि कारणे पाहुड ठिया कारावणमण्णेहिं कालगयं सोऊणं काल- जइ च्छविदोसो गाथासं. ३१८८ २४९५ १८६१ २१५८ २६२० ६२२६ ३१०० ९९६ १८१९ ९६३ ५६९२ २१०१ ४४४८ १३५४ ५१०८ ५२३७ ५२३४ ३९९५ ४४०० ४९४४ ९३१ १६४२ १३०३ ४९७९ ३२७ ३९४५ ६०५८ २८५१ ५०८४ ३७२० ३७७ ५९६४ ६१२२ ५७८३ ३९९२ ६०६० ५९२४ ५६९ गाथा कालतवे आसज्ज व कालमकाले सन्ना कालम्मि ओममाई कालम्मि पहु कालम्मि बिइयपोरिसि कालम्मि संतर णिरंतरं कालसरीरावेक्खं कालस्स समयरूवण कालाइकमदाणे कालाइकमवाणे कालातिकंतोषद्वाणकालातीते लगो कालिय पुव्वगए वा कालियसुआणुओगम्मि कालुट्ठाई कालनिवेसी कालुङ्गाईमादिसु काले अपच्यते काले अभिग्गहो पुण काले उ अणुण्णाए कालेण अपत्ताणं काण असंखेण वि कालेवक्रमेण व कालेवदिएणं कालेणेसणसोधि कालो सिं अश्वत्त कावालिए य भिक्खू कावालिए सरक्खे काहीयातरुणीसं काहीयातरुणीसुं काहीयातरुणेसुं काहीयातरुणेसु वि किइकम्मं तीए कयं किकम्मं पि यदुविहं किइकम्म भिक्खगहणे किं आगओ सि नाहं ३६०८ किं आगय त्थ ते बिंति ५३८५ किं उपघातो धोए २८० किं उघात से कास तपुच्छियम्मी कासाइमाइ जं पुव्व काहिइ अव्वोच्छित्तिं ७६३ गाथासं, ३०१ ४३८ १२५५ ४७५१ १६४ ४८९२ ५३६१ १६३ ३६९९ ४५७४ ५९३ ५९४ ५४२५ ७४४ ३०८३ ३१०२ ४८०५ १६५० ५२८२ ४२६२ १२०२ ११० ४२६० ४९५६ ८०० २८२२ ५१८७ ६२३ ६१३ १२४२ २५७४ २५७९ २५६७ २५८० २१८० ४४१५ १५०४ ६१३९ २७८१ १८६५ १८६३ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ १८८५ ३६९ ६०८३ ४५३० २६ ४९८ गाथा किं कारणं चमढणा किं काहामि वराओ किं काहिइ मे विज्जो किं काहिंति ममेते किं गीयत्थो केवलि किंचिम्मत्तग्गाही किं छागलेण जंपह किं छागलेण जंपह किं जाणंति वरागा किं तं न होति अम्हं किं तुज्झ इक्कियाए किं ते पित्तपलावो किं दमओ हं भंते! किं देमि त्ति नरवई किं नागओ सि समणेहिं किं नागय त्थ तइया किं नीसि वासमाणे किं परिहरंतिणणु खाणुकिं पिच्छह सारिक्खं किं पित्ति अन्नपुट्ठो किं मण्णे निसि गमणं किं लक्खणेण अम्हं किं व न कप्पइ तुभं किं वा मए न नायं किच्चिरकालं वसिहिह किच्चिर कालं वसिहिह किच्छाहि जीवितो हं किड्ड तुअट्टण बाले किण्हं पि गेण्हमाणो कितिकम्मं पि य दुविहं किन्नु विहारेणऽब्भुज्जकिमियं सिम्मि गुरू किरियातीतं णाउं किह उप्पन्नो गिलाणो किह भूयाणुवघातो कीयम्मि अणिहिटे कीवस्स गोन्न नाम कीस न नाहिह तुन्भे कुओ एयं पल्लीओ कुंकुम अगुरुं पत्तं कुंथु-पणगाइ संजमे गाथासं.| गाथा १५८४ कुंभी करहीए तहा कुच्छण आय दयट्ठा १९७५ कुट्टिमतलसंकासो ३७६४ कुट्ठिस्स सक्करादीहि कुडमुह डगलेसु व काउ कुडंतर भित्तीए ६०७९ कुटुंतरस्स असती | कुड्डाइलिंपणट्ठा ४५७५ कुणइ वयं धणहेडं ३६३७ | कुणमाणा वि य चेट्ठा ૨૩૨૮ कुणमाणो वि य कडणं ७९९ कुत्ति पुढवीय सण्णा कुत्तीयपरूवणया कुत्तीय सिद्धनिण्हग२६५६ कुप्पवयण-ओसन्नेहि १४१० कुमुओयररसमुद्धा ६०७० कुम्भार-लोहकारेहि ६०७८ कुलं विणासेइ सयं पयाता ३७१२ कुलडा वि ताव णेच्छति ७२३ कुलपुत्त सत्तमंतो ३०४४ कुलमाइकज्ज दंडिय ३९५७ कुलमादीकज्जाइं ४६७१ कुलवंसम्मि पहीणे ४३६४ कुलवंसम्मि पहीणे १३९३ कुवणय पत्थर ले १६३१ कुवणयमादी भेदो ५३२५ कुवियं नु पसादेती ४६१२ कुविया तोसेयव्वा ३८६८ कुव्वंताणेयाणि उ ६३९८ कुसपडिमाइ णियत्तण १२८२ कुसमुट्ठिएण एक्कणं ५५६४ कूरो नासेइ छुहं ३७७८ केइत्थ भुत्तभोगी १९०८ केइ पुण साहियव्वं ३८६१ केइ सरीरावयवा ४२०१ केइ सुरूव दुरूवा केई भणंति पुट्विं ६२४ केई सव्वविमुक्का २९०० केण कयं कीस कयं ३०७४ केण हवेज्ज विरोहो ३८०९ / केणाऽऽणीतं पिसियं बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. | गाथा गाथासं. ३४८२ केणावि अभिप्पारण ३६३६ ५९७२ केणेस गणि त्ति कतो ६१२३ १७१४ केरिसगु त्ति व राया ६३८१ ३८६५ केवइयं कालसंजोगं ६४४९ २३४२ केवतिय आस हत्थी ४८३३ ४५५६ केवलगहणा कसिणं ६४१५ ३७५० केवलविन्नेयत्थे २६४२ केवलिणा वा कहिए ४५०८ केवलिणो तिउण जिणं १९८६ ६२२९ केसवअद्धबलं पण्ण ५०२३ ४५२६ केसिंचि अभिग्गहिया १६०६ ४२१४ केसिंचि इंदियाई ४२१३ कोई तत्थ भणिज्जा २१५७ ४०३३ कोई तत्थ भणेज्जा ૪ર૭૨ ३४१ कोई मज्जणगविहिं १९३८ कोउअ भूई पसिणे १३०८ १२४८ को कल्लाणं निच्छइ ३८३८ ३२५१ कोकुइओ संजमस्स उ को गच्छेज्जा तुरियं ६३२८ ५९३७ को गेण्हति गीयत्थो ४०२९ २०६२ को जाणइ को किरिसो २४५५ ३८६६ कोट्टगमाई रन्ने ८७२ १८०० कोट्टग सभा व पुव्वं ४३८५ ४९४८ कोट्ठाइबुद्धिणो अत्थि ११७५ ५२५४ कोट्ठाउत्ता य जहिं ३३९३ कोढ खए कच्छु जरे ५२४२ ४९०५ को तुब्भं आयरितो ३०१५ २९७६ कोतूहल आगमणं ४३७३ कोतूहलं च गमणं ४९१८ को दोसो एरंडे ५५०१ को दोसो को दोसो ૨૮૭૨ ५५३२ को दोसो दोहिं भिन्ने ५९९९ कोदवपलालमाई ८४२ को नाम सारहीणं १२७५ ५३२७ को नियमो उ तलेणं ४५८१ को पोरुसी य कालो ४००० ६१५९ कोप्पर पट्टगगहणं ४३५७ १४६२ कोमुइया (तह) संगामिया य ३५६ ८३३ कोयव पावारग दाढि ३८२३ ५५६६ कोलालियावणो खलु ३४४५ कोल्लुपरंपर संकलि ५७५ ६१०१ | को वोच्छिइ गेलन्ने १९६४ ३८३ ५६०१ २१६ २४५६ • Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम गाथा कोसंबाऽऽहारकते कोसग नहरक्खट्ठा कोसाऽहि सल्ल- कंटग कोहाई अपसत्थो कोहो माणो माया ख खंडम्मि मणियम्मी खंडे पत्ते तह दब्भ- चीवरे खंताइसिऽदिते खते व भूणए वा खंधकरणी उ चउहत्थ - स्वधारभया नासति खंधारादी नाउं खंधेऽतपसे खंधे दुवार जति खज्जूरमुद्दियादा खणणं कोण ठवर्ण खमरण आणियाणं खमए लडूण अंबले खमओ व देवयाए स्वमगस्साऽऽयरियस्सा खमणं निमंतिते ऊ खमणं मोहतिगिच्छा खमणे य असज्झाए खर अयसिकुसुंभ सरिसव खरए खरिया सुहा खरओ त्ति कहं जाणसि खरंटण वेंटिय भायण खरफरुसनिङ्कुराई खरसज्झं मउयवइं खरिया महिडिगणिया खलिए पत्थरसीया खलिय मिलिय वाहढं व खाणू कंटग विसमे खार्मितस्स गुणा खलु खामित बोसविताई खामिय वितोसिय विणाखामिय-वोसवियाई गाथासं. ३२७५ २८८५ २८८९ ४२४५ ८३१ ४७९ २९८६ ४६२९. ४६२६ ४०९१ ५५९ ५७९ ७९ ६३७३ १७१३ ३३२ ४३३२ ४३३० २९६८ ५५५७ ५७३ २८५० गाथा खिसाए होंति गुरुगा खिसावयणविहाणा खिंसिज्जइ हम्मइ वा वित्तं वत्थं सेतुं खित्तबहिया व आणे खित्तम्मि उ अनुयोगो खित्तम्मि उ जावइए खित्तम्मि जम्मि खित्ते खित्तस्स उ पहिलेा खित्ताइ मारणं वा खित्ताऽऽरक्खिणिवेयण खित्ते काल चरिते खित्तेण य कालेण य खित्ते भरहेरवए खित्तेहि बहू दीवे खित्तोग्गहप्पमाणं खिवणे व अपावंतो खीणकसाओ अरिहा स्त्रीणम्मि उदिनम्मी खीणेहि उ निव्वाणं खीरं वच्छुच्छि खीरदहीमादीण य खीरमिउपोग्गलेहिं वीरमिव राजहंसा खुडं व खुड्डियं वा खुड्डग ! जणणी ते मता खुड्डी थेराणऽप्पे ५५५० ५२९ ४५५७ खुड्डो धावण झुसिरे ६१५७ खुद्दो जणो णत्थि ण यावि दूरे २९५४ खुर- अग्नि-मोवगोच्चार ५७५० खुलए एगो बंधो ६१२६ खुहिया पिपासिया वा २५२८ खेत्तं चलमचलं वा खेतं लिहा करिता खेत्तंतो खेत्तबहिया खेत्तंतो खेत्तबहिया खेत्तं वत्युं धण धन्न खेतं सेउं के २९७ २९९ ४३७९ ४००७ १३७० ६१९८ खेत्तवहि अजोअण २६७८ खेत्तम्मि खेत्तियस्सा ६१२८ खेत्तम्मिय वसहीय य गावासं ४९४६ ६१२५ १२६० ४७६४ १९०४ १६२ ३४ ४२४४ २०५२ ५७२४ ५४३२ १६३४ ४२४६ १४० १६१ ४६५३ ९१६ १७८१ १२९ २६८४ १७४५ ६०७५ २९८८ ४५५ ३२३९ गाथा खेत्तस्संतो दूरे खेत्तावकोविओ वा खेत्ते काल चरित्ते खेत्ते काल चरित्ते खेत्ते जंबालादी खेत्ते निवेसणाई खेत्ते भरहेरवसु खेत्तोयं कालोयं खेत्तोवसंपयाए खेयविणोओ साहस यविणोओ सीसगुण खोल्ल तयाई ओ ५३०० २२८ ३६६ |गंतुं दुचक्कमूलं ५०९५ ३८७० ४५९३ ४८४४ १४८२ ५८३८ ५८४२ ८२५ ८२६ १८९४ ५३९४ ४६५४ ग गइ ठाण भास भावे गइ भास वत्थ हत्थे एहिं छहिं मासेहिं गएहिं छहिं मासेहिं गंडी कच्छति मुट्ठी गंडी - कोढ - खयाई गंतव्वदेसरानी गंतुमणा अन्नदिसिं गंतूण गुरुसगासं गंतूण पडिनियत्तो गंतूण पुच्छिऊण व गंतूण य पन्नवणा गंधड अपरिभुत्ते ५८ | गंभीरमहुरफुडविसय गच्छवियारभूमाह गच्छगय निग्गए वा गच्छगहणेण गच्छो गच्छपरिरक्खणद्वा गच्छम्मि उ एस विही गच्छम्म उपद्रविए गच्छम्मि एस कप्पो गच्छम्मि नियमकज्जं गच्छम्मि पिता पुत्ता गच्छम्मिय णिम्माया गच्छसि ण ताव गच्छं ७६५ गाथासं. ४८४६ २७३१ १४१३ १४२९ ३०७५ ८६८ १४३१ ९५८ ५४०८ १२८९ १२१५ ९१२ ७५९ ५९४६ ६४७६ ६४७७ ३८२२ १०२४ ३०६७ ३१५३ ४९७ १५२२ १८५० ४३०२ २९४८ ४१६७ २६०१ १२६५ ५६८९ २८६५ ४५४२ १६५६ ५७८२ १५८३ ४५३४ ५२५१ ६४८३ ६०८४ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ १४४ गाथा गच्छा अणिग्गयस्सा गच्छे जिणकप्पम्मिय गच्छे सबालवुड्ढे गच्छो अ अलद्धीओ गच्छो य दोन्नि मासे गड्डा कुडंग गहणे गणओ तिन्नेव गणा गणगोट्ठिमादि भोज्जा गणचिंतगस्स एत्तो गणणाए पमाणेण य. गणधर एव महिड्डी गणनिक्खेवित्तरिओ गणमाणओजहन्ना गणहर आहार अणुत्तरा गणहरथेरकयं वा गणि आयरिए सपदं गणि आयरिए सपदं गणि गणहरं ठवित्ता गणिगा मरुगीऽमच्चे गणिणिअकहणे गुरुगा गणिणिसरिसो उथेरो गणि-वसभ-गीत-परिणामगणि वायए बहुस्सुए गणि! वायग! जिट्ठज्ज! गणोवहिपमाणाई गती भवे पच्चवलोइयं च गमणं जो जुत्तगती गमणाऽऽगमण वियारे गमणाऽऽगमणे गहणे गमणाऽऽगमणे गहणे गमणे दूरे संकिय गम्मइ कारणजाए गव्वो अवाउडत्तं गव्वो णिम्महवता गहणं च गोम्मिएहिं गहणं तु अहागडए गहणंत संजयस्सा गहणे चिट्ठ णिसीयण गहवइणो आहारो गहिए भिक्खे भोत्तुं गहिए व अगहिए वा गाथासं. गाथा ५७६२ गहिओ असो वराओ २१०९ गहियं च अहाघोसं ४२९३ गहियं च णेहिंधण्णं ७४० गहियं च तेहिं उदगं ५७६८ गहियमणाभोएणं २१९७ गहियम्मि वि जा जयणा १४३५ गहियाऽऽउह-प्पहरणा ३६४९ गहियाऽगहियविसेसो ३९८८ गाउअ दुगुणादुगुणं ४००२ गाउय दुगुणादुगुणं ४९८२ गाम-नगराइएK ૨૨૮૫ गामऽब्भासे बदरी १४४३ गामाइयाण तेसिं गामाणुगामियं वा | गामेणाऽऽरणेण व २१४३ | गामेय कुच्छियाऽकुच्छिया ५८३१ गारविए काहीए १३६७ गावो तणाति सीमा २६२ गावो वयंति दूरं २०८४ गाहा अधीकारग २४११ गाहिस्सामि व नीए गिण्हइ णामं एगस्स ६०९० गिण्हतगाहगाणं ४४८९ गिण्हंति वारएणं ६४५८ गिण्हंति सिज्झियाओ ५१४५ गिण्हणे गुरुगा छम्मास ३०७८ गिण्हामि अप्पणो ता ६४२६ गिम्हासु तिन्नि पडला ४७५ गिम्हासु पंच पडला ५८६९ गिम्हासु होति चउरो ३६८४ गिरिजन्नगमाईसुव ३७२१] गिरि-नइ-तलागमाई ५९६६ गिरिनदि पुण्णा वाला३८५६ गिरिसरियपत्थरेहि ३९०१ गिलाणतो तत्थति जणेण २३७० गिहवासे अत्थसत्थेहिं ५१५७ गिहवासे वि वरागा ३८०८ गिहि अण्णतित्थि पुरिसा ६७६ गिहिउग्गहसामिजढे १६७१ गिहिएसुपच्छकम्म ४२६१ गिहिगम्मि अणिच्छते -बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. | गाथा गाथासं. २२८१ | गिहि जोइं मग्गंतो २९४९ ६०९१ गिहिणं भणंति पुरओ २९४७ ३३५६ गिहिणिस्सा एगागी ५९२७ ३४२७ गिहियाणं संगारो ४७१७ ६०५७ गिहिलिंग अन्नलिंग ७५८ ३४१३ गिहिलिंगस्स उ दोण्णि वि ५१२२ ३३९१ गिहिसंति भाण पेहिय १७२९ ४५९० गीएण होइ गीई ३४४० गीतऽज्जाणं असती ६२८३ ३४६६ गीयं मुणितेगहूँ ૨૬૨૬ गीयत्थग्गहणेणं १८२७ ५२९८ गीयत्थग्गहणेणं १८६६ ४८४० गीयत्थग्गहणेणं २९०८ ३१५२ गीयस्थपरिम्नहिते गीयत्थे आणयणं १९३६ २३९१ गीयत्थे ण मेलिज्जा ५४६२ १७०३ गीयत्थेण सयं वा १०२२ १०९६ गीयत्थे पव्वावण ५१४० १०९७ गीयत्थेसु वि एवं ३३६१ ४५६९ गीयत्थेसु वि भयणा १८४७ २७५४ गीयत्थो जतणाए ४९४६ ५५४७ गीयत्थो य विहारो २३३ गीयमगीतो गीते ५४५९ ३५८४ गीयमगीया अविगीय ३०१२ १७२५ गीयाण विमिस्साण व ५४६० २५०० गीयाणि य पढियाणिय २६०० गीया पुरा गंतु समिक्खियम्मि ३३०९ ३९७४ गुज्झंगम्मि उ वियर्ड ६२६७ ३९७६ गुज्झंग-वदण-कक्खोरु ३७७६ ३९७५ गुण-दोसविसेसन्नू ३६५ २८५५ गुणसुट्ठियस्स वयणं २४५ २९६१ गुत्ता गुत्तदुवारा २०५८ ५६४६ गुत्ते गुत्तदुवारे ३२२५ गुत्ते गुत्तदुवारे ३२३६ ३१६७ गुम्मेहि आरामघरम्मि गुत्ते ३५१३ गुरुओ गुरुअतराओ ६०३९ ५०९० गुरुओ चउलहु चउगुरु ५०७७ ६१७७ गुरुगं च अट्ठमं खलु ६०४३ ४७६३ गुरुगं च अट्ठमं खलु ६२३९ ५२४३ गुरुगा अचेलिगाणं ५९३८ २९५१ | गुरुगा अहे य चरमतिग ५३३ ६८८ १५९६ ३८८ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम गाथा गुरुगा आणालोवे गुरुगा पुण कोडुंबे गुरुगा बंभावाए गुरुगा व गुरुमिलाणे गुरुगाय पगासम्म उ गुरुगो गुरुगतरागो गुरुगो य होइ मासो गुरुणो (i) भुत्व्वरियं गुरुणो व अप्पणो वा गुरुतो य होइ मासो गुरु पाहुण खम दुब्बल गुरुभत्तिमं जो हिवयाणुकूलो गुरुमादीण व जोगं गुरु लहु मीसं गुरुसन्झिलओ सन्संतिओ गुरुसारक्खण गुरुस्स आणाए गवेसिकणं गूढधिरागं पत्तं गूढसिहं उल्लं गृहइ आमसभावं गेहंतीणं गुरुगा गण्डंतु पूया गुरवो जविडं गेस य दोस वि गेण्हण महिए आलोयण गेहण गुरुगा छम्मास गेहणे गुरुगा छम्मास गेहणे गुरुगा छम्मास गेलण्णमाईसु उ कारणेस् मेलणेण व पुढा गेलण्णेण व पुट्टो गेलनं पि यदुविहं गेलन तेणग नदी गेलनद्वाणोमे गेलन रोगि असिवे गोउल विरुवसंखदि गोच्छक पडिलेहणिया गोनूहस्स पडागा गोडीणं पिट्ठीणं गोणाइहरणगहिओ गोणादीवाघाते गोणे य तेणमादी गाथासं. ३१२२ ८९४ ५९० ४००९ ३४६४ ६२३५ गोयर साहू हसणं ६०४१ गोरसभाविय पोत्ते ५००२ गोवाइऊण वसहिं ५१७४ गोवाल- वच्छवाला ६२३७ ४००८ ५००० ५८७४ २६८५ ५४२१ गाथा गोणे य सामाई गोणे व साणमादी गोणे साणे व्व वते गो-मंडल धन्नाई गोम्मिय भेसण समणा घ घट्टिज्जंतं वुच्छं घट्टेउं सच्चित्तं घट्ठाइ इयरखड्डे घडस घ ड Sकारा - घडिएयरं खलु धणं घडिमत्तंतो लित्तं घणं मूले बिरं मझे ३००६ ४१६६ ९६७ ६००९ १३०७ १०४४ ४३२० ३३७८ ५८०२ ९०४ ५०९३ २७७६ ३६५२ घेत्तुं जहक्कमेणं ४९६७ घेत्तूण णिसि पलायण घेप्यंति चसहेणं घणकुड्डा सकवाडा घण मसिणं णिरुवयं धम्मम्मि पवायट्ठा घयविद्ध-विस्सगंधा घयघट्टो पुण विगई घरकोइलिया सप्पे घुन गई स घेत्तव्वगं मित्रमहिच्छितं ते ५०४१ १०२५ घोडेहि व धुत्तेहि व ४७२७ १०५८ घोसो त्ति गोउलं ति य च ४७९९ १७२० ३९८३ चउकण्णं होज्ज रह ५२०२ चउगुरुका छग्गुरुका ३४१२ चउगुरुग छ च्च लहु गुरु १२७० चउगुरुग छच्च लहु गुरु चउठाणठिओ कप्पो ४८०८ २८४२ चउण्हं उवरि वसंती गाथासं. ३४४१ ३३५२ ५९४० ९४३ ४३८६ ६३२६ २८९२ ३५२३ ४३०१ १२७१ ५३८० १७८८ ६३ ८२८ २३६३ ३९७७ २०५९ ३८८२ २२४२ ५९९६ १७१० २३५४ ६०५३ ३९३० ४३६७ ५८५८ २६७७ ३७३५ ४८७८ २०८८ २५२१ २४७८ ३८९८ ६३५९ २१०७ गाथा चउत्थपदं तु विविन्नं चउथो पुण जसकित्तिं चउदसपुव्वी मणुओ चउदसविहो पुण भवे चउधा खलु संवासो चउपादा तेगिच्छा चउपाया तेगिच्छा चभंगो अणुण्णाए चउभंगो गहण पक्खे चउमरुग विदेसं साह मूल पंचमूलं चउरंगवग्गुरापरिचरंगुलं विहत्थी चउरो ओदइअम्मी चउरो गुरुगा लहुगा चउरो चउगुरु अहवा चउरो उत्ते चउरो य अणुग्धाया चउरो य दिव्विया भागा चउरो व हंति भंगा चउरो लहुगा गुरुगा चउरो लहुगा गुरुगा चउरो लहुमा गुरुगा चउरो लहुगा गुरुगा पडरो लडुमा गुरुमा उरो लहुगा गुरुगा चउरो विसेसिया वा चउलहुगा चउगुरुगा चउवग्गो वि हु अच्छउ चउडालंकारविउब्विए चहिंठिता उहिं अठिता चंक्रमणं निल्लेवण चकमणाई सत्तो चंक्रमणे पासवणे चकमणे पुण भइयं चकम्मियं ठियं मोडियं चंगोड णउलदायण चंदगुत्तपपुत्तो य चंदगुत्तपपुत्तो य चंदुज्जोवे को दोसो चंपा अणंगसेणो ७६७ गाथासं. २५८६ ४६५७ १३८ १११२ ४१९२ १९३७ १९७४ ७९९ ९८१ १०१३ ३४२९ ३८२८ ३९८२ ६८४ ३६८३ २७०० ५३६० ३६८६ २८३३ ६२२४ ५०२ १९९१ १९९३ १९९५ १९९७ २५३८ ३४७९ ५३८ १०७२ २३०५ ६३६० २३९५ १३१९ ४४४३ ४४५७ २५९८ ५११६ २९४ ३२७६ २८६१ ५२२५ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा गाथा गाथासं. ४८३ १४८७ ५४५५ ३३५० गाथासं. ९६८ १९५९ ४०३१ २४७७ ३८९४ ४६६३ २५६ ३९६६ २४७३ २४७१ २५३६ ४२६४ ३८४४ ३०५८ ४०९८ ३८०७ ૨૮૮૨ ७०० ५४६५ ५१५८ २८५६ २७७० ८७९ २७७१ २७३६ २९२५ ३०५६ ३६९८ ४१०७ ६०५४ ७९८ चक्कागं भज्जमाणस्स चड्डग सराव कंसिय चत्तारि अहाकडए चत्तारि छ च्च लहु गुरु चत्तारि छच्च लहु गुरु चत्तारि णवग जाणंतचत्तारि दुवाराई चत्तारि य उक्कोसा चत्तारि य उग्घाता चत्तारि य उग्घाया चत्तारि य उग्घाया चत्तारि समोसरणे चम्मं चेवाहिकयं चम्मकरग सत्थादी चम्मतिगं पट्टदुगं चम्मम्मि सलोमम्मि चम्माइलोहगहणं चरगाई वुग्गाहण चरणकरणप्पहीणे चरणकरणसंपन्ना चरणोदासीणे पुण चरमे पढमे बिइए चरमे विगिंचियव्वं चरमे वि होइ जयणा चरित्तट्ट देसे दुविहा चरिमे परिताविय पेज्ज चरिमो बहिं न कीरइ चलचित्तो भावचलो चल-जुत्त-वच्छ-महियाचाउम्मासुक्कोसे चाउम्मासुक्कोसे चाउम्मासुक्कोसे चाउम्मासुक्कोसे चाउल उण्होदग तुयरे चाउस्सालघरेसु व चारभड घोड मिंठा चारिय चोराऽभिमरा चारियसमुदाणट्ठा चारो त्ति अइपसंगा चिंतंतो वइगादी चिंताइ दट्टमिच्छइ गाथा चिंता य दटुमिच्छइ चिंतेइ वादसत्थे चिंधट्ठा उवगरणं चिंधेहिं आगमउं चिक्खल्लवासअसिवाचिट्ठण निसीयणे या चिट्ठित्त णिसीइत्ता चिरपव्वइओ तिविहो चिरपाहुणतो भगिणिं चीयत्त कक्कडी कोउ चुण्णाइ-विंटलकए चेइघरुवस्सए वा चेइदुम पेढ छंदग चेइय आहाकम्म चेश्य कडमेगढ़ चेइयपूया रायाचेयणमचित्त मीसग चेयणमचेयणं वा चेयणमचेयण भाविय चेयण्णस्स उ जीवा चेलद्वे पुव्व भणिते चेलेहि विणा दोसं चोअग जिणकालम्भि चोएइ अजीवत्ते चोएइ धरिज्जते चोएइ रागदोसा चोएइ रागदोसे चोएई वणकाए चोदगवयणं अप्पाचोदणकुविय सहम्मिणि चोइसग पण्णवीसो चोइस दस य अभिन्ने चोयग! एताए च्चिय चोयग! कन्नसुहेहिं चोयग! गुरुपडिसिद्धे चोयग! तं चेव दिणं चोयग! दुविहा असई चोयग! नियतं चिय चोयग पुच्छा उस्साचोयगपुच्छा गमणे चोयगपुच्छा दोसा गाथासं. ૨૨૬૮ चोयगवयणं गंतूण ५६९७ चोयगवयणं दीहं ५५३६ चोयावेइ य गुरुणा ५६३ चोरु त्ति कडुय दुब्बो४२९१ २३९९ ३६८८ ४०३ छंदिय गहिय गुरूणं ४५७९ छंदिय सयंगयाण व १०५१ छक्काय गहणकड्डण २२१९ छक्काय चउसु लहुगा ५५४८ छक्काय चउसु लहुगा १९८० छक्काय चउसु लहुगा १७७३ छक्कायाण विराहण ३६५६ छक्कायाण विराहण १७९० छक्कायाण विराहण ६८१ छक्कायाण विराहण ६२३१ छक्कायाण विराहण छक्कायाण विराहण छक्कायाण विराहण ४१५१ छक्कायाण विराहण ४१४९ छगणादी ओलित्ता १७६८ छच्चेव अवत्तव्वा छ च्चेव य पत्थारा ५२७५ छटुंच चउत्थं वा २११ छटुंच चउत्थं वा ५७६१ छट्ठाणविरहियं वा छट्ठाणा जा नियगो छट्टो य सत्तमो या ४७४७ छड्डणि काउड्डाहो ४०७९ छड्डाविय-कयदंडे १३२ छड्डेउं भूमीए ४०५४ छड्डेउं व जइ गया ८५४ छण्हं जीवनिकायाणं २८१३ छण्हं जीवनिकायाणं १४०९ छत्तंतियाए पगयं ४०५१ छन्न-वहणट्ठ मरणे ९८३ छन्नालयम्मि काऊण ७१५ छप्पइय-पणगरक्खा छ प्पुरिसा मज्झ पुरे ४३६९ | छब्भागकए हत्थे ४४६२ २१८७ ५९११ ९८६ ५४४० १४८५ ४४१३ ওও ६३३१ ३३९४ ६०६३ ६१३३ ६०४४ ६२४० ५४८७ ५४८८ ४९३५ ५५१ ९७६ ५३०६ ५०८ ३५१ ५५३ ६०६ १८३० ३८८८ ६४३३ ४०३७ ३२९९ २०६६ ६३९५ ४६९३ २७५९ ५३६४ ३४९७ ६४१९ ६४२० ३९९ २३८१ ३७४ ३६६७ ९२६ ४०४४ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम : ७६९ गाथासं. २४६ ८३८ गाथा छम्मास अपूरित्ता छम्मासे आयरिओ छम्मासे आयरिओ छम्मासे पडियरि छल्लहुए ठाइ थेरी छल्लहुगा उणियत्ते छविहकप्पस्स ठिति छविह सत्तविहे वा छव्वीहीओगामं छहिं निप्फज्जइ सो ऊ छादेति अणुक्कुयिते छायाए नालियाइव छाया जहा छायवतो णिबद्धा छारेण लंछिताई छिंडीइ पच्चवातो छिंडीए अवंगुयाए छिंदंतस्स अणुमई छिक्कस्स व खइयस्सव छिज्जंते वि न पावेज्ज छिण्णावात किलंते छिन्नमछिन्ना काले छिन्नममत्तो कप्पति छिन्नम्मि माउगते छिन्नाइबाहिराणं छिन्त्रण अछिन्नेण व छिहलिं तु अणिच्छंते छुभणं जले थलातो छुभमाण पंचकिरिए छेओ न होइ कम्हा छेदणे भेयणेचेव छेदो छम्गुरु छल्लहु छेदो मूलं च तहा छेदो मूलं च तहा छेलिय मुहवाइत्ते छोदणऽणाहमडयं छोढूण दवं पिज्जइ ५५४० ४४०७ १४८८ १५२९ ४७३० १०६३ ५३४६ ४८४९ २४८३ દ૨૭૪ ५२७२ १२२० ४३४३ २५१५ ६०१३ ४१६३ ४०७३ ५७१५ ८५३ गाथासं. | गाथा ७६८ जइ अगणिणा उ वसही १९९८ जइ अभिंतरमुक्का २००१ जइ इच्छसि सासेरा ६२१८ जइ उस्सग्गे न कुणइ २४१० जइ एगत्थुवलद्धं ६०७७ जइ एगस्स वि दोसा ६४८८ जइ एयविप्पहूणा ૨૭૪ जइ एवं संसट्ठ १४०० जइ एव सुत्तसोवीर९७७ जइ ओदणो अधोए ४०८८ जइ कप्पादणुयोगो २६१ जइ कालगया गणिणी ३६२८ जइ किंचि पमाएणं ३३१२ जइ कुट्टणीउ गायंति २६५३ जइ कुसलकप्पिताओ २६५५ जइ कूवाई पासम्मि १७८९ जइ जं पुरतो कीरइ १३३७ जइ जग्गंति सुविहिया ७११ जइणेउं एतुमणा ५६११ जइ तत्थ दिसामूढो १६८३ जइ ता अचेतणम्मि ३६४३ जइ ता दंडत्थाणं ३९५६ जइ ता दिया न कप्पइ जइ ताव तेसि मोहो ३०५२ जइ ताव दलंतगालिणो ५१७९ जइ ताव पलंबाणं ५६२३ जइ ताव पिहुगमाई । ९१० जइ ता सणप्फईसुं ४९७० जइ तिन्नि सव्वगमणं ४८९९ जइ तेसिं जीवाणं २९१४ जइ दिद्रुता सिद्धी २५२२ जइ देंतजाइया जा२५३९ जइधम्मं अकहेत्ता ६३२४ जइ नत्थि कओ नाम ५२२१ जइ नाणयंति जोई ३४१९ जइ नाम सूइओ मि जइ निल्लेवमगंधं जइ नीयमणापुच्छा जइ पंच तिन्नि चत्तारि २०६८ जइ पज्जणं तु कम्म ३८७४ | जइ परो पडिसेविज्जा गाथासं. गाथा ३७३३ जइपवयणस्स सारो जइ पुण अणीणिओ वा ६२३० जइ पुण अत्थिज्जंता ३४३७ जइ पुण खद्धपणीए ४५८२ जइ पुण जुन्ना थेरा १८४० जइ पुण तेण ण दिट्ठा ५३०४ जइ पुण पव्वावेती ५३०८ जइ पुण पुरिमं संघ ३०५ जइ पुण संथरमाणा १७३५ जइ पुण सव्वो वि ठितो २५१ जइ पुण होज्ज गिलाणी ३७३१ जइ पोरिसित्तया तं १३६८ जइ बारस वासाई २६६३ जइ बुद्धी चिरजीवी १०११ जइभागगया मत्ता ११०६ जइ भुत्तुं पडिसिद्धो १८१७ जइ भे रोयति गिण्हध ३५२९ जइ भोयणमावहती ५३८९ जइमं साहुसंसग्गिं ३१०८ जइ मूल-ऽग्गपलंबा ३८१४ जइ रज्जाओ भट्ठो ४४२९ जइ रन्नो भज्जाए २८४० जइ वा कुडी-पडालिसु २१५६ जइ वा सव्वनिसेहो ४३२५ जइ वा हत्थुवघाओ १०५३ जइ वि अणंतर खेत्तं १०८२ जइ वि निबंधो सुत्ते २५४६ जइ वि पगासोऽहिगओ १५१४ जइ वि य उप्पज्जंते ३८३० जइ वि य न प्पडिसिद्धं १००४ जइ वि य पिपीलियाई २९७६ जइ वि य पुल्वममत्तं ११३९ जइ वि य फासुगदव्वं जइ वि य भूयावादे २९४१ जइ वि य महव्वयाई ४५४६ जइ वि य वत्यू हीणा १७४० | जइ वि य सनाममिव परि५५६३ जइ वि य होज्ज वियारो १५१८ जइ वि हु सम्मुप्पाओ १७६७ जइ संजमो जइ तवो २७०२ | जइ स च्चेव य इत्थी ६३५ ६३४ ४८६७ ८१३ ४८५ १५२० १००१ १२२३ १३८७ ૨૮૩૬ २८६४ १३४५ २८६३ १४५ २१०३ ७२९ २०६ १३४० ૨૨૮૬ १११८ २०११ २५५३ जइ अंतो वाघाओ जइ अकसिणस्स गहणं Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ६२८४ ५३४५ ४९४७ ३८५५ ३८३१ ५५३१ २०६५ १५३८ ५६५० ११७७ १८३ गाथा जइ समगं दो वइगा जइ सव्वं वि य नाम जइ सव्वे गीयत्था जइ सीसम्मिण पुंछति जह से हवेज्ज सत्ती जं अज्जियं चरित्तं जं अज्जियं चरित्तं जं अज्जियं समीखजं अज्जियं समीखजं अन्नाणी कम्म जं अब्भुविच्च कीरइ जं आवणमज्झम्मी जं आहडं होइ परस्स हत्थे जंइच्छसि अप्पणतो जं इत्थं तुह रोयइ जं एत्थ अम्हे सव्वं जंकट्ठकम्ममाइसु जंकल्ले कायव्वं जं किंचि होइ वत्थं जं केणई इच्छइ पज्जवेण जंगमजायं जंगिय जंगहियं तं गहियं जंगालयते पावं जंघद्धा संघट्टो जंचउदसपुव्वधरा जं चिज्जए उ कम्म जं चिय पए णिसिद्धं जं जंतु अणुन्नायं जं जं सुयमत्थो वा जं जस्स नत्थि वत्थं जं जह सुत्ते भणितं जंजीवजुयं भरणं जं जो उ समावन्नो जंतं दुसत्तगविहं जंतु न लब्भइ छेत्तुं जंतु निरंतरदाणं जंते रसो गुलो वा जं तेहिं अभिग्गहियं जंदव्वं घणमसिणं जं दिसि विगडितो खलु जं देउलादी उणिवेसणस्सा गाथासं.| गाथा ૪૮દર जंपि न वच्चंति दिसिं ७३० जंपि य दारुं जोग्गं २९३७ | जं पुण खुहापसमणे ६१७५ जंपुण तेण अदिढे १६६७ जं पुण तेसिं चिय भायणेसु २७१५ जं पुण दुहतो उसिणं ५७४७ जंपुण पढमं वत्थं २७१४ जं पुण संभावेमो ५७४६ जं पुण सच्चित्ताती १९७० जंबुद्दीवपमाणं जं मंडलिं भंजइ तत्थ मासो २२९८ जंवंसिमूलऽण्णमुहं च तेणं ३६२६ जं वत्थ जम्मि कालम्मि ४५८४ जं वत्थ जम्मि देसम्मि ६०४५ जं वा असहीणं तं १९४० जंवा पढमं काउं २४५२ जं वा भुक्खत्तस्स उ ४६७४ जं वेलं कालगतो २८३५ जं सिलिपई निदायति ३६२९ जं होइ पगासमुहं ३६६१ जं होहिति बहुगाणं जक्खो च्चिय होइ तरो ८०९ जच्चाईहिं अवन्नं ५६३६ जच्चेव य जिणकप्पे जड्डत्तणेण हंदिं १६४६ जड्डादी तेरिच्छे ३३२८ जड्डे खग्गे महिसे १४९७ जड्डे महिसे चारी ७५५ जड्डो जंवा तं वा जणरहिए वुज्जाणे ३३१५ जणलावो परगामे १७६३ जति एयविप्पहूणा ६४२१ जति ताव लोइय गुरुस्स १७७/ जति दिवसे संचिक्खति ५९७० जति दोणि तो णिवेदित्तु ३०० जति दोसो तं छिंदति ३६४८ जति नेवं तो पुणरवि ५२३१ जति परो पडिसेविज्जा ५५०३ जति पुण सो वि वरिज्जेज्ज ५५५५ जति मं जाणह सामि ३५०५ जति रिक्को तो दवमत्त गाथासं. | गाथा जति वाण णिव्वहेज्जा २१७ जति सव्वं उहिसिउं ६००० जति सव्वसो अभावो ३६०२ जति सिं कज्जसमत्ती ३६०१ जत्तियमित्ता वारा ५९१३ जत्तियमेत्ता वारा २८३० जत्तो दिसाए गामो ४३५१ जत्तो दुस्सीला खलु ५३८२ जत्तो पाए खेत्तं जत्थ अचित्ता पुढवी ३१६५ जत्थ अपुव्वोसरणं ३५१४ जत्थ अपुव्वोसरणं ३८८५ जत्थ उ जणेण णातं ३८८४ जत्थ उ देसग्गहणं ३५५२ जत्थऽप्पतरा दोसा ११०० जत्थऽप्पयरा दोसा ६००३ जत्थ मई ओगाइ ५५१८ जत्थऽम्हे पासामो १९४८ जत्थ य नत्थि तिणाई ६६४ जत्थ वि य गंतुकामा કર૨૮ जत्थ विसेसं जाणंति ४७७६ जत्थाहिवई सूरो १३०५ जत्थुप्पज्जति दोसो १४३९ जमिदं नाणं इंदो ६४०४ जम्मणनिक्खमणेसुय ६२०४ जम्मण-निक्खमणेसुय २९२३ जम्मण-संतीभावेसु १५८९ जम्हा उ मोयगे अभि१५९० जम्हा खलु पडिसेहं २५९१ जम्हा तु हत्थमत्तेहि ५२९५ जम्हा धारइ सिज्जं ५२८० जम्हा पढमे मूलं ५३०५ जम्हा पढमे मूलं ५५५६ जम्हा पढमे मूलं ३२९३ जम्हा य एवमादी ६४३० जय गमणं तु गतिमतो जयवि य तिट्ठाण कयं ५७३८ जलजा उ असंपाती ७४ जल-थलपहेसु रयणा३२८६ जलपट्टणं च थलपट्टणं ५३१० जल्ल-मलपंकियाण वि ४१३५ ३३२५ २२७६ ૨૩૨૨ २३२ ४३४ ५५३५ २७८८ २९१० २०५६ ५०११ १२२७ ३२६६ १४१५ ८२२ १८६४ ३५२४ २४८१ २५२३ २५४० ४१५८ ६३५३ २२ २४०२ ५८५७ १०९० २५९९ ४८६ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम गाथा जवमज्झ मुरियवंसे जव राय दीहपट्टो जस्स मूलस्स कट्ठातो जस्स मूलस्स कट्ठातो जस्स मूलस्स भग्गस्स जस्स मूलस्स भग्गस्स जस्सेव पभावुम्मि जह अत्तट्ठा कम्मं जह अप्पगं तहा ते जह अम्हे तह अत्रे जह अरणीनिम्मविओ जह इंदो त्ति य एत्थं जह उकडं चरिमाणं जह एस एत्थ वुड्डी जह कारणम्मि पुणे जह कारणे अणहारो जह कारणे तद्दिवसं जह कारणे निल्लोमं जह कारणे पुरिसेसुं जह कोति अमयरुक्खो जह गुत्तस्सिरियाई जह चेव अगारीणं जह चैव अन्नगहणे जह चेव य इत्थीसुं जह चैव य पडिबंधो जह चैव य पहिरो जह चेव य पुरिसे जह जह करेसि नेहं जह जह सुयमोगाहइ जह जाइरुवधातुं जह वर्णिदो युव जह ण्हाउत्तिण गओ ते अहिंता जह पदमपाउसम्मि जह पारगो तह गणी जह फुंफुमा हसहसेह जह भणिय चउत्थस्स य जह भमर-महुवरिगणा जह मयणकोदवा ऊ जह वा णिसेगमादी जहवा तिण्णि मणूसा गाथासं. ३२७८ ११५५ ९७१ ९७२ ९६९ ९७० ३६४२ ४२०७ ५४९५ १५१७ २२५ ११ ४२१० १७०१ ५६५५ ६०११ गाथा जह वा सहीणरयणे जह सपरिकम्मलंभे जह सव्वजणवसुं जह सूरस्स पभावं जह सेज्जाऽणाहारो जह सो वीरणसढओ जह हास- खेड आगार जह हेमो उ कुमारो जहा जहा अप्पतरो से जोगो जहिं अप्पतरा दोसा २२६९ ११६७ ५६८६ १९ १९४७ ४४३४ ५१५५ १०१७ २०९९ ५८४५ १८७३ १०९ ५१९६ १०२ जहिं एरिसो आहारो जहिं गुरुगा तर्हि लहुगा जहिं नत्थि सारणा वारणा जहिं लक्ष्ना तहिं गुरुगा हितं पुणते दोसा जहियं एसणदोसा जहियं च अगारिजणो जहियं तु अणाययणा जहियं दुस्सीलजो ६०३० ३८४१ २५७३ ६०९२ जहुत्तवोसेहिं विवज्जिया ने ४४५० २२९४ ८९० २५७५ २६२९ ६१६४ २५७२ जाइकुलरूवधणबल जाओ (जो आ) वणे वी य बहिं जा खलु जहुत्तदोसे जा गंठी ता पत्रमं जागरणद्वार तहिं जागरह नरा! णिच्चं जागरिया धम्मीण जाह य पिहुजणो वि हु जाणं करेति एक्को जाणंत जाणता जाणतमजाणते जाणता माहप्पं जाणता वि य इत्थं जाणंति जिणा कज्जं जाणंति तव्विह कुले जाणंतिया अजातिया जाणं तु आसमाई जाणह जेण हडो सो जाणामि दूमियं भे जाणाविए कहं कप्पो जा णिति इंति ता अच्छओ गाथासं. २१५१ ४०५६ २०५ १९३६ २९६९ ४२३० २५४३ ५१५३ ३९२६ २५४९ ६०५६ ३८२५ ४४६४ ८८० ३२१७ ५४४१ २०७२ ५९२१ २०५७ ३५१८ १७९७ ३५०२ ५९९ ९५ गाथा जा ताव ठवेमि वए जातेयगं सरीरं जा दहिसरम्मि गालिय जादुचरिमो त्ति ता होइ जा फुसति भाणमेगो भुंजता वेला जा मंगल त्ति ठवणा जायंते उ अपत्थं जायण निमंतणुवस्सव जायति सिणेहो एवं जा यावि चिट्ठा इरिवाइआओ जारिसएणऽभिसत्तो जारिसग आयरक्खा जारिस दव्वे इच्छह जारिसयं गेलनं जावई काले वसहिं जावइयं वा लब्भइ जावइया उस्सग्गा जावइया रसिणीओ जावतिगाए लडुगा जावंतिया उ सेज्जा जावंतिया पगणिया जाव गुरूण य तुब्भ य जाव न मंडलिबेला जाव न मुक्को ता अण जा वि य ठियस्स चेट्ठा जा संजयणिट्ठा जा सम्मभावियाओ जा साबणसेवा जाहे वि य कालगया जिणकप्पिअभिग्गहिए ५५२३ ३३८२ ३३८६ ३६ ३९३८ ४६५५ ४६८४ ५०४४ २२८२ २३५६ २०९२ ३६४ ८३० ४६३५ २२२५ ४६६० ६३८८ जितणिडुवायकुसला जिणकप्पिएण पायं जिणकम्पिओ गीयत्थो जिणकप्पियपडिरूवी जिणकप्पियपडिरूवी जिणकप्पे तं सुतं जिणलिंगमप्पsिहयं जिण सुद्ध अहालदे जिण सुद्ध अहालंदे जिणा बारसरुवाई ७७१ गाथासं, ५७८ २६८६ ३४७७ ४४९७ ६१४६ १७३० ७ १९०१ ४३५५ ५९९५ ३९२५ ६१३२ ५०४९ १९८० १९३२ ५८७८ १०७७ ३२२ १७५६ ३१८६ ५९६ ३१८४ १५०१ १६८२ १९०९ ४४५५ ४२०६ १११६ ६३४३ ३७४३ १६९२ ११७२ ६९१ १३५८ ५०३५ ४०६२ ४८०९ ११३१ १२८३ ३९६५ ५५२२ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ बृहत्कल्पभाष्यम् १२३ गाथासं. ૨૨૮૭ २१०८ ५९१५ १३० ४३५६ ५५८ ३४२ ५०६ ७१८ ૮ર ४८९६ २६९८ ५७३३ ૨૨૩ ६२०३ २९५ ५५३९ १३२९ १७९८ ५४९१ ६१९३ ८५ २६३ गाथा जिम्हीभवंति उदया जियपरिसो जियनिहो जियसत्तुनरवरिंदस्स जियसत्तू य णरवती जीवं उहिस्स कडं जीवा अन्भुष्टुिंता जीवाऽजीवसमुदओ जीवाऽजीवाभिगमो जीवाऽजीवे न मुणइ जीवा पुग्गल समया जीवो अक्खो तं पड़ जीवो उ भावहत्थो जीवोपमायबहुलो जीहादोसनियत्ता जुगलं गिलाणगं वा जुत्तं सयं न दाउं जुत्तपमाणस्सऽसती जुत्त विरयस्स सययं जुत्ती उ पत्थरायी जुन्नमएहिं विहूणं जुन्नेहिं खंडिएहि य जुवाणगा जे सविगारगा य जे उ अलक्खणजुत्ता जे खलु अभाविया कुजे खेत्तिया मो त्ति ण देति ठागं जे चित्तभित्तिविहिया जे चेव कारणा सिक्कजे चेव दोन्नि पगता जे जम्मि उउम्मि कया जे जम्मि जुगे पवरा जे जह असोयवादी जे जे दोसाययणा जेट्ठज्जेण अकज्जं जेट्ठो कट्ठभज्जाए जेट्ठो मज्झ य भाया जेण असुद्धा रसिणी जेण उ आयाणेहि जेण उ सिद्धं अत्थं जेण खवणं करिस्सति जेणऽधियं ऊणं वा जेण विसिस्सइ रूवं गाथासं.1 गाथा जेणोग्गहिओ सत्थो ર૪ર जेणोग्गहिता वइगा ५२५५ जे ते देवेहिं कया ६१९८ जे पुण अभाविया ते १७७८ जे पुण उज्जयचरणा ११४० जे पुव्विं उवकरणा १०९५ जे मज्झदेसे खलु देसगामा ४१२ जे य दंसादओ पाणा जे य पारंचिया वुत्ता ર૭ર૬ जे रायसत्थकुसला ___ २५ जे लोगवेयसमएहिं जे वि अन सव्वगंथेहि १६५५ जे वि य पुब्बिं निसि नि३१५६ जेसिं एसुवएसो जेसिंचाऽयं गणेवासो १९४१ जेसि पवित्ति-निवित्ती ૨૦૨૨ जे सुत्तगुणा खलु लक्ख११४६ जे सुत्तगुणा भणिया ५२६ जेसु विहरंति तातो १४५९ जेहिं कया उ उवस्सय ६३६७ जेहिं कया उ उवस्सय ३५०६ जेहिं कया पाहुडिया २२२ जेहिं कया पाहुडिया ३६८ जे होति पगयमुद्धा ४८५० जोअणसयं तु गंता ૨૮૮૭ जोइंति पक्वं न उ पक्कलेणं ४७८९ जो इत्थं भूतत्थो ४४८ जो उ उदिन्ने खीणे २०१ जो उ उवेहं कुज्जा जो उ उवेहं कुज्जा १८६० जो उगुणो दोसकरो ६१५० जो उज्जिओ आसि पभू व पुव्वं ६२६१ जो उत्तमेहिं पहओ ६०९७ जो उ परं कंपंतं १७५९ जो उ महाजणपिंडेण ૨૨૮૮ जो एतं न वि जाणइ १७९ जो कप्पठितिं एवं ४८९३ जो खलु सतंतसिद्धो ५५९१ जो गणहरो न याणति २५९ | जोगमकाउमहागडे गाथासं. | गाथा ४८७१ जोगिदिएहिं न तहा ४८६० जोग्गवसहीइ असई १९८४ जो चंदणे कडुरसो जो चरमपोग्गले पुण ४४६१ जो चेव गमो हेट्ठा ३०९८ जो चेव बलीए गमो ३२५७ जो चेव य हरिएसुं ५९५८ जो जस्स उ उवसमई ६४१२ जो जस्स उ उवसमती जो जह कहेइ सुमिणं जो जह व तह व लद्धं ३८१ ८३६ जो जहा वट्टए कालो जो जहियं सो तत्तो १३३३ जो जेण अणब्भत्थो १८३७ जो जेणगुणेणऽहिओ ५७१७ जो जेण जम्मि ठाणम्मि जोजेण पगारेणं ૨૨૨૨ जो जेण विणा अत्थो ५१८६ जो णाते कतो धम्मो ५०१४ जोणीखुब्भण पेल्लण १४९० जोण्हा-मणी-पदीवा १४९१ जो तं जगप्पदीवेहि १४९२ जोतिस-णिमित्तमादी १४९३ जो दव्वखेत्तकयकाल३६७ जो दव्वखेत्तकयकाल९७३ जो दव्वखेत्तकयकाल४४१० जो पुण उभयअवत्तो ५२२८ जो पुण कायवतीओ १२९ जो पुण जहत्थजुत्तो जो पुण तमेव मग्गं जो पुण मोहेइ परं ४०५२ जो पुण सभोयणंतं ३६१५ जो पेल्लिओ परेणं २४९ जो मागहओ पत्थो १३२० जोय अणुवायछिन्नो ३६०० जोरयणमणग्धेयं ३२४४ जो वा दुब्बलदेहो ६४४० जो वि तिवत्थ दुवत्थो १८१ जो वि दधिणो हुज्जा ३२४६ जो वि पगासो बहुसो जो वि य तेसिं उवही ६३०८ ५९५५ २८५८ ३६४१ ३३३७ ७९३ ७९४ ७९५ ५४८४ ४४५२ १९८३ ५०३७ ४८२० १३२४ १३२६ ५८५४ ६२३३ ४०६७ ९४६ ६३४५ ३०१७ ३९८४ ५९६२ १२२४ ३०१३ ६०७ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम = ७७३ गाथा जो वि य होतऽकंतो जो संजओ वि एआसु जो सो उवगरणगणो जो होइ पेल्लतो तं जोहो मुरुंडजड्डो गाथासं. | गाथा ५६४५ डज्झंतं तिंबरुदारुयं १२९४ डहरस्सेमे दोसा २९०५ डहरो अकुलीणो त्तिय ३०८८ डोंबेहिं च धरिसणा ४१२१ गाथासं. | गाथा ७६४ पहाणाइ समोसरणे ४०७० पहाणा-ऽणुजाणमाइसु ७७२ पहाणादिसमोसरणे ४१२४ गाथासं. १२५१ १७६९ ४७२६ ३१३२ १०१५ १८३४ झाणं नियमा चिंता झाणट्ठया भायणधोवणाई झाणेण होइ लेसा झिझिरि-सुरभिपलंबे ५५२० टिट्टित्ति नंदगोवस्स ठ ३७६५ २१३० ८६० ६४८१ १८३२ ५१२० १३९७ ५७९२ ૨૮૬૭ ६४१० ५२७३ १७८४ ९३० ठवणकुलाइं ठवेडं ठवणकुले व न साहइ ठवणाकप्पो दुविहो ठवणाघरम्मि लहुगो ठवियग-संछोभादी ठाइमठाई ओसरण ठाणंगमणाऽऽगमणं ठाणं वा ठायंती ठाणट्ठिइणाणत्तं ठाणपडिसेवणाए ठाणस्स होति गमणं ठाणस्स होति गमणं ठाणासई य बाहिं ठाणे नियमा रूवं ठाणे सरीर भासा ठायंते अणुण्णवणा ठितो जया खेत्तबहिं सगारो ठियकप्पम्मि दसविधे ठियगमियदिढदिवेठियमट्ठियम्मि कप्पे ढिंकुण-पिसुगादि तहिं १६४१ ६८० १६४० ण उण्णिय पाउरते तु एवं णंतक असती राया णंतग-घत-गुल-गोरस ण गोयरोणेव यगोणिपाणं णणु सो चेव विसेसो ण तेसिं जायती विग्धं ३७२८ ण भूसणं भूसयते सरीरं १४६६ ण वि किंचि अणुण्णायं ६४४२ ण वि जोइसंण गणियं ५०८५ णाऊण यवोच्छेदं णागा! जलवासीया! १७८३ णाणं तु अक्खरं जेण १६०५ णाणाणत्तीए पुणो ३३७३ णाभोगपमादेण व ६३५४ णासेति मुत्तिमग्गं २४७० णिग्गंथिचेलगहणं ६३५१ णिच्छंति व मरुगादी ६३५२ णिच्छयतो सव्वगुरूं २९४४ णिज्जुत्ति-मासकप्पेसु २५९४ णिभये गारत्थीणं णिरुवइवं च खेमंच ४७४३ णीणेति पवेसेति व ३५७० णेगंतियं अणच्चंतियं ६४४१ णेगा उहिस्स गतो ४२३१ णेगेसु एगगहणं १४२१ णेगेसु पियापुत्ता णेगेहिं आणियाणं ४२६३ णेच्छंतमगीतं एतिणेव २२६० | णोतरणे अभत्तट्ठी तइए वि होति जतणा ५३७६ तइओ एयमकिच्चं तइओ जावज्जीवं तइओ त्ति कधं जाणसि तइओ संजमअट्ठी ३६६९ तइयं पडुच्च भंगं तइयं भावतो भिन्नं ४१९८ तइयचउत्था कप्पा ४८६१ तइयस्स जावजीवं ६२३२ तइयस्स दोन्नि मोत्तुं ६४६४ तइयाइ भिक्खचरिया ४११८ तइयाए दो असुद्धा ३३३० तइयादेसे भोत्तूण ३३६५ तओ पारंचिया वुत्ता ५४०४ तं काउ कोइ न तरह ५७३९ तं काय परिच्चयई ७२ | तं चेव अभिहणेज्जा ११६८ | तं चेव णिट्ठवेती ४१३२ तं चेव निट्ठवेई ६३१८ तं चेव पुव्वभणितं ४१८९ तं छिंदओ होज्ज सतिं तु दोसो ३६०७ तं जाणगं होहि अजाणिगा हं तं तु न जुज्जइ जम्हा ६४८२ तं तेण छूढं तहिगं च पत्ता ५६६० तं नत्थि गामनगरं ४९६२ तं पासिउं भावमुदिण्णकम्मा ५६०९ तं पि य चउब्विहं राइतं पुण गम्मिज्ज दिवा तं पुण चेइयनासे ३३१७ तं पुण जहत्थनियतं तं पुण रच्छमुहं वा ४३१९ तं पुण रूवं तिविहं ३६४० तं पुण सुण्णारण्णे ५७६४ तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं ९३५ ५५८३ २४९९ ४८२९ ३९२९ ३२४९ १३६५ ३६०६ २२९० ४१०९ . २८४९ ३०४२ १० ३५५६ २२९९ २४६७ ६१७८ ५०४८ डगल-ससरक्ख-कुडमुहडज्झइ पंचमवेगे Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ गाथा तं मणपज्जवनाणं तंमूल उपरिगहणं तं वयणं सोऊणं तं वयणं सोऊणं तं वयणं हि मधुरं तं वा अणक्रमतो तं वेल सारविंती तं सच्चित्तं दुविहं तं सिब्बणीहि नाउं तं सोच्चा सो भगवं तच्चित्ता तल्लेसा तज्जायजुत्तिलेवो तज्जायमतज्जायं तद्वाणं वा वृत्तं तण-कट्ठ- नेह धण्णे तणगहण अग्गिसेवण तणगहणाऽऽरण्णतणा तणगहणे झुसिरेतर तणडगलछारमल्लग तणडगलछारमल्लग तणपणम्मि वि दोसा तण विणण संजया तणुकयम्मि पुव्वं तणुनिद्दा पडिहारी तण्हाइओ गिलाणो तत पाइयं वियं पिय ततियलताए गवेसी ततिया गवेसणाए तत्तत्थमिते गंधे तत्तो अणूणए कप्पे तत्तो इत्थिनपुंसा तत्तो य ऊणए कप्पे तत्तो य वग्गणाओ तत्थ अकारण गमणं तत्थ उ हिरण्णमाई तत्यग्गहणं दुविहं तत्थ चउरंतमादी तत्थऽन्नतमो मुक्को तत्थऽन्नत्थ व दिवसं तत्थ पवेसे लहुग तत्थ पुण होइ दव्वे गाथासं गाथा तत्थ भवे जति एवं तत्थ य अतिंत णेंतो तत्थ वि पढमं जं मीसु तत्थ वि य होंति दोसा तत्थाऽऽवायं दुविहं तत्थेगो उ नियत्तो तत्थेव अणुवर्तते तत्थेव अन्नगामे ३५ ९९९ ४७८९ ४७८५ २०१० १६६९ १६९० ९०८ ३०३२ ३७९९ २४५९ ५२५ ३८७८ ६१६५ ५११७ ९२० ५६६७ ९०३ ३५३५ तदुभयकप्पिय जुत्तो ४८४७ तदुभय सुत्तं पडिलेहणा ३८३२ ६२५ १३४७ २३४१ ३४२५ १७६५ ५७९४ तत्थेव आणवावेइ तत्थेव गंतुकामा तत्थेव भायणम्मी तत्थेव य निडवणं तत्थेव य निम्माए तत्थेव य पटिबंधो तत्येव य परिबंधो तत्थेव य भोक्खामो तदभावे न दुमुत्तिय तवसति पुज्बुत्ताणं तद्दव्वस्स दुर्गुछण तदिवस पडिलेडा तद्दिवसं बिइए वा तद्दिवसमक्खणम्मिं तदिवसमक्खणेण उ तप्पुव्विया अरहया तम्भावियं तं तु कुलं अदूरे तब्भावियट्ठा व गिलाणए वा ५७९६ ५८४८ | तमतिमिरपडलभूतो ६४६८ तम्मि असाहीणे जे - ४६६ तम्मिय अतिगतमित्ते ६४६७ तम्मि वि सो चैव गमो ६६ तम्हा अपरायते ३६८१ तम्हा उ अगंतो २६५२ तम्हा उ गेण्हियव्वं ८९१ तम्हा उ जहिं गहितं २३०७ तम्हा उ निक्खिविस्सं २१६९ तम्हा मिंदिय ३७५४ तम्हा उ विहरियव्वं ५३७५ तम्हा खलु अब्बाले २१४६ सम्हा खलु दव्यो गायासं ४५२८ ३१६२ १०७८ २१३१ ४२० १०३ २२२२ १९०२ ३०३४ ५८३६ ५९०१ ९१७ ५४१८ २५०३ ४११६ ४९६६ ३०८ ४१९९ ४०९ १५४३ ६२५२ ५१९ १२६९ ६०२६ ६०२८ १९९४ ३२२१ ३४१७ ५५८१ ३५६४ ३६९७ ३९९९ ६३१० ४५८३ ४२५९ ५२६९ २५३ ३९२१ २७५१ गाथा तम्हा खलु पट्टवणं तम्हा गुम्बरपुटुं तम्हा ण सव्वजीवा तम्हा तु ण गंतव्वं तम्हा दुचक्कपतिणा तम्हा न कहेयव्वं तन्हा पडिलेहिय साहि तम्हा पुव्विं पडिलेहिऊण तम्हा विविंचितव्वं तरच्छचम्मं अणिलामइस्स तरु गिरिनदी समुद्दो तरुणाइत्रे निच्वं तरुणाची तरुणा बाहिरभावं तरुणा-वेसित्थि विवाह तरुणीउ पिंडियाओ तरुणीण अभिवणे तरुणीण य पक्खेवो तरुणीण य पव्वज्जा तरुणी निप्पन्न परिवारा तरुणे निप्पन्न परिवारे तरुणे मज्झिम धेरे तरुणे वेसित्थि विवाह तरुणे वेसित्थीओ तलगहणाउ तलस्सा तल नालिएर लउए तलिय पुडग वज्झे या तलियाउ रत्तिगमणे तबगेलनऽद्धाणे तव छेदो लहु गुरूगो तवभावणणाणतं तवभावणाइ पंचिं तवसोसिय उव्वाया तवेण सत्तेण सुतेण तवो सो उ अणुण्णाओ तसउदगवणे घट्टण तसपाणविराहणया तस बीयम्मि वि दिने बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं, ५५७३ १७३६ ३९५० ५३०३ ४९९ ७९० १५६४ १४५४ तसबीयरक्खणट्ठा ५६६ तस बीयाइ व दि ५८७२ तस्स जई किकम्म ५८७७ ३८१७ २४२९ ५२५६ २३१८ १४५८ ३४९५ १८४८ २०८३ ४९५० ४१६० ४३४१ ४३३८ ४६८१ २३०४ २३२९ ८५६ ८५२ २८८३ २८८४ ५८१७ २४७९ १४२६ १३३२ १५५६ १३२८ ५९५७ ५६३२ ३८१० ४०४२ १६६६ ६६७ २०२१ www.jairelibrary.arg Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम =७७५ गाथासं. गाथा तस्स य भूततिगिच्छा तस्संबंधि सुही वा तस्सऽसइ उड्ढवियडे तस्सेव उ गामस्सा तस्सेव य मग्गेणं तह अन्नतित्थिगा वि य तह चेव अन्नहा वा तह वि अठियस्स दाउं तह वि य अठायमाणे तह वि य अठायमाणे तह वि य अठायमाणे तह समणसुविहिताणं तह से कहिंति जइ होइ तहिं वच्चंते गुरुगा तहिं सिक्कएहिं हिंडति तहियं पुव्वं गंतुं ता अच्छइ जा फिडिओ ताई तणफलगाई ताई विरूवरूवाई ताणि वि उवस्सयम्मि ताबेंति अम्ह पुण्णो तारेह ताव भंते! तालं तलो पलंब तालायरे य धारे तावसखउरकढिणयं तावोदगंतु उसिणं तावो भेदो अयसो तावो भेदो अयसो तासिं कक्खंतर-गुज्झतासिं कुचोरु-जघणाइ तासेऊण अवहिए ताहे उवगरणाणिं तितिणिए चलचित्ते तितिणिए पुव्व भणिते तितिणिया वि तदट्ठा तिक्खछुहाए पीडा तिक्खुत्तो सक्खित्ते तिक्खुत्तो सक्खेत्ते तिक्खुत्तो सक्खेत्ते तिगमाईया गच्छा तिगमादसंकणिज्जा गाथासं. | गाथा ६२६२ तिगसंवच्छर तिग दुग ५५७४ ति च्चिय संचयदोसा ३५०८ तिट्ठाणे अवकमणं ११०२ तिण्णि य अत्तद्रुती २९५३ तिण्णेव य पच्छाया ४२५२ तिण्ह एक्केण समं २२३३ तिण्ह वि कतरो गुरुतो ४३२७ तिण्ह वि कयरो गुरुओ २०८५ तिण्हाऽऽरेण समाणं ४८८१ तिण्हेगयरे गमणे ६२०९ तित्त-कडुओसहाई ४९३० तित्थंकरपडिकुट्ठो १९५० तित्थंकरपडिकुट्ठो ५५८६ | तित्थकर पवयण सुते २८८६ तित्थगरा जिण चउदस ३१९४ तित्थपणामं काउं १५९४ तित्थयरनाम-गोयस्स २०३७ तित्थयरपढमसिस्सं ३६६० तित्थयर पवयण सुते तित्थयरस्स समीवे २२१२ | तित्थविवड्डी य पभावणा २००७ तित्थाऽइसेससंजय ८५० तित्थाणुसज्जणाए ४२६८ तिन्नि कसिणे जहन्ने ३४५ तिन्नि विहत्थी चउरंगुलं ५९०८ तिन्नेव गच्छवासी २७०८ तिन्नेव य चउगुरुगा ५७४१ तिन्नेव य पच्छागा २२५७ तिपयं जह ओवम्मे २६५० तिपरिरयमणागाढे ३३८८ तिप्पभिइ अडंतीओ ३३९० तिरिएसु वि एवं चिय ७६२ तिरियनिवारण अभिहणण ६३३२ तिरिय-मणुइत्थियातो ६३४० तिरिय-मणुय-देवीणं १६९४ तिरिया-ऽमर-नरइत्थी ६३९७ तिलतुसतिभागमित्तो ३५५५ तिलतुसतिभागमेत्तो ६३८० तिविहं च अहालंद १६३० तिविहं च भवे वत्थु २०९० | तिविहं च होइ करणं गाथासं. | गाथा १९५४ तिविहं च होइ गहणं ६०२० | तिविहं च होइ पायं ५३६३ तिविहं च होति दुग्गं ४२२४ तिविहं च होति विसमं ४०८१ तिविहं होइ निमित्तं तिविहं होइ पुलागं २५०९ तिविह निमित्तं एक्कक्क २५२९ तिविह परिग्गह दिव्वे ७८१ तिविहम्मि कालछेए ३१२५ तिविहाऽऽमयभेसज्जे ૨૮૨ तिविहा होइ निवण्णा ३५४० तिविहित्थि तत्थ थेरि ६३७८ तिविहे परूवियम्मि ४९७५ तिविहे य उवस्सग्गे १११४ तिविहोन्निय असतीए ११९३ तिविहो बहुस्सुओ खलु १७८० तिव्वकसायपरिणतो ४९८४ तिव्वकसायपरिणतो ५०६० तिव्वकसायसमुदया १२१८ तिव्वाभिग्गहसंजुत्ता ५३३७ | तिव्वे मंदे णातमणाए ११८५ तिव्वेहि होति तिव्वो ११४२ तिसमय तद्वितिगंवा ३९८६ तिसु छल्लहुगा छग्गुरु ४०१३ | तिसु लहुओ गुरु एगो १४७२ | तिसु लहुओ तिसु लहुया १७६० तिहिं कारणेहिं अन्नं ३९६३ तिहिं थेरेहिं कयं जं ३०४ तिहिकरणम्मि पसत्थे ३५५१ तीस दिणे आयरिए २०९३ तीसा य पण्णवीसा ४२८ तीसाय पण्णवीसा ३३५४ तीसु वि दीवियकज्जा ५९१ तुच्छत्तणेण गव्वो २४३० तुच्छमवलंबमाणो तुच्छा गारवबहुला ५०३० तुच्छेण वि लोभिज्जइ ५१३० तुभ च्चिय णीसाए ३३०३ तुब्भट्ठाए कयमिणं तुभ वि पुण्णो कप्पो तुब्भे गिण्हह भिक्खं ૪૦૨૭ ६१८३ ६१८५ १३१३ ६०४८ १३१८ ८९२ ३९७३ ३०९५ ५९४६ ६३८ ૨૦૨૮ ६२६९ ३६७७ ४०२ ४९९३ ५००५ २६८३ ५९६० ३९३६ ३९३७ ४८८९ ५८४१ ५८४० १५९३ ५४९७ २८६० १५४५ ওওওও ६२३८ ६०४२ ५४९२ ६४०० ४५३१ १११३ २०५४ ४६८५ ४०३६ २१३७ २२१५ ८२७ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ | गाथा | थ ७०७ ३३८१ गाथा तुब्भे वि कहं विमुहे तुब्भे वि ताव मग्गह तुमए किर दडुरओ तुमए समगं आमं तुम्ह य अम्ह य अट्ठा तुरियं नाहिज्जते तुरियगिलाणाहरणे तुल्ल जहन्ना ठाणा तुल्लम्मि अदत्तम्मी तुल्लम्मि वि अवराधे तुल्लम्मि वि अवराहे तुल्लहिकरणा संखा तुल्ला चेव उठाणा तुल्ले छेयणभावे तुल्ले मेहुणभावे तुल्ले मेहुणभावे तुल्ले वि समारंभ तुवरे फले अपत्ते तुवरे फले य पत्ते तुस-धन्नाई जहियं तुसिणीए चउगुरुगा तुसिणीए हुंकारे तूरपइ दिति मा ते तूरंतो व न पेहे तूरह धम्म काउं तेइच्छियस्स इच्छातेऊ-वाउविहूणा ते कित्तिया पएसा ते खिंसणापरद्धा ते गंतुमणा बाहिं तेगिच्छ मते पुच्छा ते गुरुलहुपज्जाया ते चेव तत्थ दोसा ते चेव तत्थ दोसा ते चेव दारुदंडे तेचेव विवहुंता तेचेव सवेंटम्मि तेणट्ठम्मि पसज्जण तेण परं आवायं तेण परं चउगुरुगा तेण परं निच्छुभणा गाथासं. ४१८६ तेण परं पुरिसाणं ४६४५ तेण परं पुरिसाणं ६१४० तेणभय सावयभया ५१८९/ तेण भयोदककज्जे २९५५ तेणाऽऽरक्खिय-सावय७१९ तेणाऽऽलोग णिसिज्जा ६३३८ तेणा सावय मसगा १४३२ तेणा सावय मसगा २९१७ तेणिच्छिए तस्स जहिं अगम्मा ४९७४ तेणियं पडिणियं चेव ५१२६ तेणियरंव सगारो ६१२९ तेणे देवमणुस्से तेणेव साइया मो ८३ तेणे सावय ओसह २५१४ तेणेसु णिसटेसुं २५३३ तेणेहि अगणिणा वा १८२९ ते तत्थ सण्णिविट्ठा २९२२ ते तत्थ सन्निविट्ठा ३११७ ते तत्थ सन्निविट्ठा ३३६४ ते तत्थ सन्निविट्ठा ५९९२ ते तिण्णि दोण्णी अह विक्कतो उ ६१०५ ते दोऽवुवालभित्ता ६४१ ते नक्खिवालिमुहवासि१४६९ ते निग्गया गुरुकुला ४६७५ ते पत्त गुरुसगासं १९६१ ते पुण आणिज्जते ५६५२ ते पुण होंति दुगादी ४५१२ तेरिच्छं पि य तिविहं ६०९३ तेलोक्कदेवमहिता ५७०० तेलोक्कदेवमहिया तेल्लगुडखंडमच्छंडियाण तेल्लुव्वदृण ण्हावण २५२५| ते वि असंखा लोगा २५४२ ते वि य पुरिसा दुविहा ५९७५ तेसामभावा अहवा वि संका રરર तेसिं तत्थ ठिताणं ५९७३ तेसिं पच्चयहेउं २७७९ तेसि अवारणे लहुगा ४६५ ते सीदितुमारद्धा ४१४४ तेसु अगिण्हतेसुय १२७२ तेसु ठिएसु पउत्थो बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. | गाथा गाथासं. ४६४ । तेसु सपरिग्गहेसुं १०८७ ४८२३ तो कुज्जा उवओगं ५८८८ ४३०५ | तो पच्छिमम्मि काले १३६० ३०६० तोसलिए वग्घरणा ३४४६ ३२०९ ३९०४ १४५५ २४४८ थंडिलवाघाएणं ५५२८ ३२३३ थंडिल्लस्स अलंभे ५९१८ ४४७३ थंडिल्लाण अनियमा १७४१ २३४७ थद्धा निरोवयारा १५७१ ૮૮૨ थद्धे गारव तेणिय ४४९५ १९८२ थलकरणे वेमाणितो ५५५८ ७५६ थल देउलिया ठाणं ३५४९ थलसंकमणे जयणा ५६५८ ३७४७ थलि गोणि सयं मुय भक्ख- ९९३ ३३४१ थाइणि वलवा वरिसं ३९५९ ३३७२ थाणं च कालं च तहेव वत्थु ४५६५ ३४४९ थाणम्मि पुच्छियम्मि ६०९५ ३४६८ थी पंडे तिरिगीसु व ३२१० ३२१९ थीपडिबद्धे उवस्सए २०७३ ५३७९ थी-पुरिसअणायारे २३९४ २३०९ । थी पुरिस णालऽणाले ५२४९ ५७०२ थीपुरिसा जह उदयं ५१६९ १५२१ थीपुरिसाण उ फासे १७८६ ५८६३ थीपुरिसा पत्तेयं ५१७१ ४१०४ | थी पुरिसो अ नपुंसो २०९८ २५३४ थुइमंगलमामंतण १४६१ ६२०० थुइमंगलम्मि गणिणा ४५०१ ३७३७ थूभमह सविसमणी ६२७५ ३४८१ थूलसुहुमेसु वुत्तं ४०५० १९५२ थूला वा सुहुमा वा ४०४९ १४३३ थेराइएसु अहवा २५६२ थेराणं नाणत्तं १४४१ ३२०१ थेराण सत्तरी खलु ६४३४ ४२६५ थेरा परिच्छंति कधेमु तेसिं ४१६१ ६०३८ । थेरा पुण जाणंती ६०३६ ३३५३ थेरी कोट्ठगदारे २०९१ २४६२ थेरी मज्झिम तरुणी २६१० ३५८९ | थेरे व गिलाणे वा ५९६७ ३३३९ / थोवं जति आवण्णे ५५९० ২৩ ६८ २५८१ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम= गाथासं. १४२ गाथा थोवं पि धरेमाणी थोवं बहुम्मि पडियं थोवम्मि अभावम्मिय थोवा वि हणंति खुहं थोवे घणे गंधजुते अभावे ११२७ ३५४४ ५०३ २७२६ गाथासं. गाथा ६३०१ दप्पेण जो उ दिक्खेति ५९१२ दमए दूभगे भट्ठे ५६७० दमए पमाणपुरिसे ३०९४ दरहिंडिएव भाणं ३१६६ दवियट्ठऽसंखडे वा दव्वं तु उण्हसीतं दव्वं तु जाणियव्वं दव्वक्खएण पंतो २९७७ दव्व दिसि खेत्त काले २०४३ दव्वप्पमाण अतिरेग ३०७२ दव्वप्पमाणअतिरेग९३२ दव्वप्पमाण गणणा ४५५३ दव्वम्मि उ अहिगरणं २११० दव्वम्मिऊ उवस्सओ २७८४ दव्वम्मि मंथितो खलु ५४३५ दव्वम्मि य भावम्मिय १३३ दव्ववती दव्वाई दव्वसुयं पत्तग-पुत्थएसु ६४१४ दव्वस्स उ अणुओगो ३१८९ दव्वाइ उज्झियं दव्वओ १२२६ दव्वाइ कमो चउहा दव्वाइचउक्कं वा २३८४ दव्वाइतिविहकसिणे ५६६१ दव्वाइ दव्व हीणा दव्वाइसन्निकरिसा ३४२८ दव्वाई अणुकूले २३९७ दव्वाई एक्केको ५७२ दव्वाणं अणुयोगो २३०६ दव्वाण दव्वभूओ ५०६९ दव्वादिकसिणविसयं १०५ दव्वावइमाईसुं ४९५१ दव्वासन्नं भवणा६२६५ दव्वे एगं पायं २०७९ दव्वे छिण्णमछिण्णं १४०२ दव्वेणं उद्देसो ३७६२ दव्वेण य भावेणय २४१४ दव्वेणिक्वं दव्वं ३३४४ दव्वे तणडगलाई २३८८ दव्वे तिविहं एगिदि४०२६ दव्वे तिविहं एगिदि६१३४ | दव्वे तिविहं मादुक गाथासं. गाथा ६३११ दव्वे नाणापुरिसे ६३२ दव्वे नियमा भावो १८२२ दव्वे पुण तल्लद्धी ५३१३ दव्वे भवितो निव्वत्तिओ ४७५० दव्वे भावऽविमुत्ती ५९०२ दव्वे भावे य चलं ३७७९ दव्वे सचित्तमादी १५८८ दव्वे सच्चित्तादी ५२१४ दव्वोवक्खरणेहा३९६१ दस एयस्स य मज्झय ३९९९ दसठाणठितो कप्पो दससु वि मूलाऽऽयरिए २६८१ दहिअवयवो उमंथू ३२९४ दहितेल्लाई उभयं ६३१६ दाइय-गण-गोट्ठीणं ४१९० दाउं व उडुरुस्से १८५ दाउंहिट्ठा छारं १७५ दाऊणं वा गच्छह १५३ दाऊण अन्नदव्वं दाऊण वंदणं मत्थ. ર૭ર૪ | दाणे अभिगम सड्ढे १३६ दाणे अभिगम सड्ढे दाणे अभिगम सड्ढे दाणे अभिगम सड्ढे २१४७ दारं न होइ एत्तो १३६६ दारदुयस्स तु असती ६७१ दारमसुन्नं काउं १५७ दारस्स वा वि गहणं दारूंधाउं वाही दारे अवंगुयम्मी २११५ दारे अवंगुयम्मी ४५० दावविओ गइचंचलो ४०६१ दाहामोणं कस्सइ ३६५३ दाहामो त्ति य गुरुगा ४२४३ दाहिणकरेण कोणं १८५४ दाहिणकरेण कोणं १५४ दितग-पडिच्छगाणं १४९९ दिति पणीयाहारं ६०४ | दिज्जंते वि तयाऽणि दिज्जंतो वि न गहिओ ४८८४ | दिळं अदिट्ठव्व महंजणेणं दंडपडिहारवज्जं दंतपुरे आहरणं दंतिक्क-गोर-तिल्ल-गुलदसणचरणा मूढस्स दसणनाणचरितं दसण-नाण-चरित्ते दंसण नाणे माता दसणनिते पक्खो दंसणमोग्गह ईहा दंसणमोहे खीणे दसणम्मि य वंतम्मि दंसणवादे लहुगा दसणसोही थिरकरण देस दंसिय छंदिय गुरु सेसए दगतीर चिट्ठणादी दगतीरे ता चिट्ठे दगदोद्धिगाइ जंपुव्वदगभाणूणे दर्दु दगमेहुणसंकाए द8 पिणे न लब्भामो दहूँ विउब्वियाओ दढ़ निमंतण लुद्धोदतॄण जिणवराणं दतॄण तं विससणं दतॄण नडं काई द₹ण निहुयवासं दह्णय अणगारं दट्ठण य राइडिं दट्ठण य सइकरणं द₹ण वा गिलाणो दतॄण वा नियत्तण दड्ढे पुप्फगभिन्ने ददुर सुणए सप्पे ५१० ૨૮૮૭ ४२५० ६०७३ ६३६३ ५१६८ १७०९ २०९५ ४७६५ દરર ४५१७ १८८१ १८२६ ४४९३ १४८९ १५७९ १५८० १५८१ ३३७५ ४८१५ २६६७ २१२८ २१५ २३२७ २३२८ ७५२ ૨૮૨૭ १९४२ ६६६ ४०४१ ३८८९ १८६ ___३८ ७५० ४६०१ ४६४२ ४१०८ ६५१ । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ४९८६ ४३९६ ६०९९ ४८९८ ३८८६ २७९४ ३८८१ १६२९ ५८० ३५३२ ५३६ २३६६ ३१३५ ३१४४ १२९१ ४१३४ ५८१९ ४८८ ३१३९ 999 गाथा दिद्वं अन्नत्थ मए दिटुं च परामुटुं दिद्रुत पडिहणेत्ता दिद्रुतो गुहासीहे दिÉतो घडगारो दिद्रुतो दुवक्खरए दिटुंतो पुरिसपुरे दि8 वत्थग्गहणं दिटुं वत्थग्गहणं दिट्ठमदिटुं च तहा दिट्ठमदिट्ठ विदेसत्थ दिट्ठमदिढे दि8 दिट्ठमुवस्सयगहणं दिट्ठ सलोमे दोसा दिट्ठा अवाउडा हं दिविनिवायाऽऽलावे दिट्ठीसंबंधो वा दिद्वे संका भोइयदिद्वे संका भोइय दिद्वे संका भोइय दिट्ठोभास पडिस्सुय दिणे दिणे दाहिसि थोव थोवं दित्तमदित्ता तिरिया दिन्नो भवविहेणेव दियदिन्ने वि सचित्ते दिय राओ पच्चवाए दिय-राओ लहु-गुरुगा दियरातो अण्ण गिण्हति दिय रातो लहुगुरुगा दिवसओ सपक्खे लहुगा दिवसं पिता ण कप्पा दिवसट्ठिया वि रत्तिं दिवसेण पोरिसीए दिवसे दिवसे गहणं दिवसे दिवसे व दुल्लभे दिव्वेसु उत्तमो लाभो दिव्वेहिं छंदिओहं दिस अवरदक्खिणा दक्खिणा दिस अवरदक्खिणा दक्खिदिसि-पवण-गाम-सूरियदिसिमूढो पुव्वाऽवर गाथासं.] गाथा २४३२ दीणकलुणेहि जायति ३७९८ दीवा अन्नो दीवो ४६४० दीसति य पाडिरूवं २११३ दीहाइमाईसु उ विज्जबंधं ३०६ दीहाइयणे गमणं ४४३० दीहे ओसहभावित २२९१ दुओणयं अहाजायं ४२३५ दुक्खं च भुंजंति सति द्वितेसु ४३०८ दुक्खं ठिओ व निज्जइ ४४७४ दुक्खं विसुयावेउं ४७२९ दुक्खेहि भत्थिताणं ६६१ दुगमादीसामण्णे २२९६ दुगसत्तगकिइकम्मस्स ३८३४ दुगुणो चतुग्गुणो वा २२५६ दुग्गट्ठिए वीरअहिट्ठिए वा १३४६ दुग्गूढाणं छन्नंग• २२५३ दुग्घासे खीरवती ८६६ दुचरिमसुत्ते वुत्तं २१७५ दुज्जणवज्जा साला ६१७१ दुढे मूढे वुग्गाहिए २१९२ दुण्हं अणाणुपुव्वी ३१९७ दुण्ह जओ एगस्सा ४२४ दुण्हट्ठाए दुण्ह वि ४६२३ दुण्ह वि तेसिं गहणं ३०४६ दुन्नि तिहत्थायामा १४७६ दुन्नि वि विसीयमाणे दुपुडादि अद्धखल्ला ५८६० दुप्पडिलेहियदूसे ५८५६ दुप्पडिलेहियमादिसु ५९८० दुप्पभिइ पिया-पुत्ता ५९७८ दुप्पभिई उ अगम्मा २९३१ दुब्बलपुच्छेगयरे ६२५१ दुब्भूइमाईसु उ कारणेसुं ६०२१ दुरतिक्कम खु विधियं ३८१९ दुरहियविज्जो पच्चंत२८३४ दुरुहंत ओरुभंते ६०६२ दुल्लभदव्वं व सिया दुल्लभदव्वे देसे ५५०५ दुल्लभवत्थे व सिया ४५६ दुविकप्पं पज्जाए ५२१६ दुविधो उ परिच्चाओ गाथासं. | गाथा ६१४३ दुविधो य होइ दुट्ठो २११२ दुवियड्डबुद्धिमलणं ६१५४ दुविहं च फरुसवयणं ५६८१ दुविहं च भावकम्म ५९९० दुविहं च भावकसिणं ५९८७ दुविहं च होइ वत्थं ४४७० दुविहं तु दव्वकसिणं ३४९२ दुविहं पि वेयणं ते ४३९२ | दुविहकरणोवघाया २०७४ दुविह चउब्विह छविह ६४०६ दुविह निमित्ते लोभे ४३११ दुविहपमाणतिरेगे ४४६९ दुविहम्मि भेरवम्मि ३९८१ दुविहाए वि चउगुरू ४८६४ दुविहाओ भावणाओ २५९६ । दुावहाणाम दुविहाणायमणाया ४३४६ दुविहा य होइ वुड्डी ६०६१ दुविहा य होति पाता २६७५ दुविहाऽवाता उ विहे ५२१३ | दुविहा सामायारी २६६ दुविहा हवंति सेज्जा ४२४९ दुविहे किइकम्मम्मि ५४९३ दुविहे गेलण्णम्मि ३९६० दुविहे गेलण्णम्मी ४०९० दुविहे गेलन्नम्मी ५४५६ दुविहे गेलन्नम्मी ३८४९ दुविहो अ होइ छेदो ३८४३ दुविहो उ पंडओ खलु ५७६३ दुविहो जाणमजाणी ३५५८ दुविहो यमासकप्पो ३२११ दुविहो य होइ अग्गी २२३८ दुविहो य होइ जोई ४१८३ दुविहो य होइ दीवो ४१३६ दुविहो य होइ पंथो ३७२ दुविहो लिंग विहारे २६४४ दुविहो वसहीदोसो ३५५३ दुविहो होति अचेलो ६२५३ दुब्बियड-दुण्णिसण्णा ४१६९ दुस्संचर बहुपाणादि ४८८५ दुस्सन्नप्पो तिविहो ५२०८ | दुहतो थोवं एक्वेक्कएण ४५४१ ६३७९ ८७८ ३५५० ३६३८ ७१० ५१४९ ५१७६ ६४३१ २१४५ ३४३३ ३४६१ ३०५१ ७५७ ४९१३ ६३६५ ४१३९ २७४८ ५२१२ ५९१० १५०६ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम = =७७९ गाथासं. ४५९६ ३०२१ ५१८२ २२६४ ४४४१ १४२२ १२०१ २३६७ २३७२ ३४२२ ३२० २७४६ १३५६ ३७८३ १३५७ ४४९८ ९५६ गाथा दूइज्जंता दुविधा दूमिय धूविय वासिय दूरम्मि दिट्ठि लहुओ दूरम्मि दिढे लहुओ दूरागयमुटेर्ड दूरेण संजईओ दूरे तस्स तिगिच्छी दूरे मज्झ परिजणो दूरे व अन्नगामो दूसियवेओ दूसिय देउलियअणुण्णवणा देवाणुवित्ति भत्ती देवा हुणे पसन्ना देविंदरायउम्गह देविंदरायगहवइदेवे य इत्थिरूवं देवेहिं भेसिओ विय देसकडा मज्झपदा देसकहापरिकहणे देसकहापरिकहणे देस-कुल-जाइ-रूवी देसग्गहणे बीएहि देसिय राइय पक्खिय देसिय वाणिय लोभा देसिल्लगं वन्नजुयं मणुन्नं देसी गिलाण जावो. देसी गिलाण जावोदेसीभासाइ कयं देसीभासाए कयं देसीभासाय कयं देसो वसोवसग्गो देसो व सोवसग्गो देहबलं खलु विरियं देहस्स तु दोबल्लं देहऽहिओगणणेक्को देहे अभिवईते देहेण वा विरूवो देहोवहीण डाहो देहोवहीतेणग-सावतेहिं दोच्चं वि उग्गहो त्तिय दोच्चेण आगतो खंदएण गाथासं. | गाथा ५८२४ दो जोयणाई गंतुं ५८४ दोण्णि य दिवड्डखेत्ते २१७४ दोण्णि वि वयंति पंथं २१९८ दोण्हं उवरिं वसती ४४३८ दोण्हं उवरि वसंती २१६३ दोण्हं पि अ जुयलाणं ११५१ दोण्ह वि कतरो गुरुओ ५७०७ दोण्ह वि चियत्त गमणं २९२८ दोण्हेगयरं नटुं ५१५० दो थेरि तरुणि थेरी १४९६ दो दक्खिणावहा तू १२१० दोन्नि अणुन्नायाओ १९८१ दोन्नि उपमज्जणाओ ર૭૮૪ दोन्नि वि अनालबद्धा उ दोन्नि वि दाउंगमणं ५६८८ दोन्नि वि समागया स१३३९ दोन्नि वि ससंजईया १७६२ दोन्नि वि सहू भवंती २६९७ दो मासे एसणाए ५७३१ दोरेहि व वज्झेहि व २४१ दोसं हतूण गुणं ३३२२ दोसा खलु अलियाई ४४६७ दो सागरा उ पढमो ર૮ર૬ दोसा जेण निरुभंति ३९९८ दोसाणं परिहारो ३९१० दोसा तु जे होति तवस्सिणीणं दो साभरगा दीविच्चगा ३४०४ | दोसा वा के तस्सा ३४३१ दोसाऽसति मज्झिमगा ३४५९ दोसु वि अलद्धि कण्णे ९३७ दोसु वि अव्वोच्छिण्णे ९४२ दोसु वि परिणमइ मई ३९४८ दोसे चेव विमग्गह ५६०४ दोसेहिं एत्तिएहिं २३७७ दोहिं वि अरहिय रहिए २२७ दोहि वि गुरुगा एते ६१५८ दोहि वि पक्खेहिं सुसं३४७४ दोहि वि रहिय सकामं ३२५८ ध २८११ धणियसरिसं तु कम्म गाथासं. | गाथा ५६५७ धम्मं कहेइ जस्स उ ५५२७ धम्मकह महिड्डीए ५२५२ धम्मकहा चुण्णेहि व २०४६ धम्मकहा पाढिज्जति २१०५ धम्मकहासुणणाए . ६४० धम्मस्स मूलं विणयं वयंति ५८०१ धम्मेण उ पडिवज्जइ ३०८६ धम्मोदएण रूवं ४६१५ धारणया उ अभोगो २०८७ धारणया उ अभोगो ३८९२ धारोदए महासलिल१६९७ धावंतो उव्वाओ धिइधणियबद्धकच्छो ५२४७ धिइबलजुत्तो वि मुणी २०१७ धिइ-बलपुरस्सराओ ३०८७ धिइसंघयणादीणं २२१८ धिइ सारीरा सत्ती ३७६८ धितिबलिया तवसूरा ५४४३ धिद्धिक्कतो य हाहक्कतो ३८६९ धिय-संघयणे तुल्ला ६४२९ धी मुंडितो दुरप्पा धीरपुरिसपन्नत्तो ६८२ धुवणाऽधुवणे दोसा ३३३१ धुवणाऽधुवणे दोसा धूमनिमित्तं नाणं ३८२० धूमादी बाहिरतो ३८९१ ३५२० धोयस्स व रत्तस्सव ६४३५ २६१३ ३५६८ नइपूरेण व वसही ३१७६ नउई-सयाउगो वा ३१७३ नंदति जेण तवसंजमेसु २२५४ नंदी चतुक्क दव्वे ४४२४ नंदीतूरं पुण्णस्स २४३८ नंदीतूरं पुण्णस्स २२४९ नंदीतूरं पुण्णस्स नंदी मंगलहेडं नंदी य मंगलट्ठा २६९१ | न करिति आगमं ते ६४८४ ४१२६ २०३ ८९८ १४४८ ४०१२ ६०२७ २८३ ५२१५ २९७८ ७९७ ३७३४ રદ્દ २९२० २४ १५४९ १५६७ १९२३ wc ३२७२ १४२० Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ४४८३ ९५४ ६९८ १३२३ १०९३ १२२९ ३४५३ ९८८ ३९८ २३ ४७३३ ५४७२ ५८१४ ८०१ ८४९ ८३९ ४५२९ ४८९७ १०९४ ८१९ गाथा न केवलं जा उ विहम्मिआ सती नक्खत्तो खलु मासो नक्खेणावि हु छिज्जइ नगराइ निरुद्ध घरे न चित्तकम्मस्स विसेसमंधो नच्चा नरवइणो सत्तनज्जइ अणेण अत्थो नज्जंतमणज्जते नट्ट होइ अगीयं न ठविज्जई वएसुं नडपेच्छंदट्टणं नडमाई पिच्छंतो नणु दव्वोमोयरिया न तरिज्जा जति तिण्णि उ न तस्स वत्थाइसु कोइ संगो नत्थि अगीतत्थो वा नत्थि अनिदाणओ होइ नत्थि कहालद्धी मे नत्थि खलु अपच्छित्ती नत्थि घरे जिणदत्तो नत्थि पवत्तणदोसो नत्थि य मामागाई नत्थेत्थ करो नगरं नदिकोप्पर वरणेण व नदि पह जर वत्थ जले न पारदोच्चा गरिहा व लोए नमणं पुव्वब्भासा न मिलंति लिंगिकज्जे न य अप्पगासगत्तं न य कत्थइ निम्मातो नयणे दिढे गहिए नयणे दिद्वे सिद्वे नयणे पूरे दिद्वे न य बंधहेउविगलत्तणेण न लभइ खरेहिं निरं नवओ इत्थ पमाणं नवदसचउदसओहीनवधम्मस्स हि पाएण नवधम्माण थिरत्तं नव पहातो अदिद्वे नवभागकए वत्थे गाथासं. | गाथा ४११७ | नवमे न याणइ किंची ११२८ न वि इंदियाई उवलद्धि९४५ न वि एयं तं वत्थं ६७८ | न वि कुप्पसि न पसीयसि ३२५३ न वि को वि कंचि पुच्छति ११२५ न वि खाइयं न वि वई ४५७७ न वि छम्महव्वया नेव ५१४२ न वि जाणामो निमित्तं २४५३ न वि ते कहंति अमुगो ५१३८ न वि य समत्थो सव्वो ५३५२ नविय हु होयऽणवत्था १६०० न वि लब्भई पवेसो ४०६३ न वि वच्छएसुसज्जंति ५१४ न विवित्ता जत्थ मुणी ३९९६ नह-दंतादि अणंतर ३३१३ न हि जो घडं वियाणइ १०४९ नहु ते संजमहेउं ५७१ नहु होइ सोइयव्वो २४८६ नहु होति सोतियव्वो नाउमगीयं बलिणं ३१८० नाऊण किंचि अन्नस्स २०९६ नाऊण तस्स भावं १०८९ नाऊण तस्स भावं ५६४३ नाऊण य अइगमणं नाऊण य माणुस्सं ३९०५ नाऊण य वोच्छेदं २०१६ नाऊण य वोच्छेदं १८१३ नाऊण य वोच्छेदं १२४९ नाऊण यवोच्छेयं ३७१ नाऊण या परीत्तं २०४१ नाओ मि त्ति पणास २०३९ नागरगो संवट्टो २३८५ नागा! जलवासीया! દરર૭. नागाढं पउणिस्सइ ३९१५ नाणट्ठ दसणट्ठा २१०० नाणट्ठदंसणट्ठा ६०३७ नाणट्ठ दंसणट्ठा ५७१८ नाणदंसणसंपन्ना १७९३ नाणम्मि तिण्णि पक्खा ५८८२ नाणस्स केवलीणं नाणस्स होइ भागी गाथासं. | गाथा २२६१ । नाणाइ अदूसिंतो नाणाइतिगं मुत्तुं ४१७४ नाणाइतिगस्सऽट्ठा ४४८७ नाणाई तिट्ठाणा ४८२६ नाणादि तिहा मग्गं नाणादिसागयाणं १०४६ नाणादेसीकुसलो २८०५ | नाणुज्जोया साहू ५९९४ नाणेण दंसणेण य ३७८७ नाणेण सव्वभावा नाणे दंसण चरणे ३१९८ नाणे महकप्पसुतं २१२० नातिक्कमती आणं २९८० नाभिप्पायं गिण्हसि ४९०१ नामं ठवण पलंब नाम ठवणा आम नामं ठवणाकम्म ३७३९ नामंठवणागामो ૬૨૦૨ नाम ठवणा दविए २९६२ नामं ठवणा दविए ३७० नामंठवणा दविए ४७८२ नाम ठवणा दविए ५३३१ नामं ठवणा दविए ૨૮૦૨ नामंठवणा दविए ३७६३ नाम ठवणा दविए ५०८३ नाम ठवणा दविए ५१०२ नामंठवणा दविए ५४०३ नामं ठवणा दविए ५३८३ नामं ठवणा दविए ४१६५ नाम ठवणा दविए ५१४३ नाम ठवणा दविए ४८७६ नाम ठवणा दविए २७०६ नामं ठवणा पक्कं ४७१३ नाम ठवणा भिन्नं २८७९ नामंठवणा वत्थं २९७३ नामं ठवणाहत्थो ३००४ नाम निवाउवसग्गं ३९६ नामसुयं ठवणसुयं ५३९७ नामिज्जइ थोवेणं १३०२ नामे छब्विह कप्पो ५७१३ ] नायगमणायगा पुण ६५० .८४७ ११२१ ११२६ ર૭૮૪ २६८० २७१९ ૨૭૬૨ ३२६३ ३२९३ ૪૮૮૩ ४८८६ १०३४ ८५८ ६०३ ४८९५ રૂર २५५ २८३१ | २७३ ४७०९ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमः = ७८१ गाथा २६० गाथासं. ५९९१ १७३४ ६२१६ ६००७ ६०१९ २०७० १४२४ १४४७ ૮૦૨ १३६३ ६०४९ ३६३९ २१७२ ४७६९ २३० २४० ६४४ नायज्झयणाहरणा नालस्सेण समं सुक्खं नाव थल लेवहेट्ठा नावनिभो उग्गहणंतओ नावाए उवक्कमणं नावित-साधुपदोसो नासन्ने नातिदूरे नाहं विदेसयाऽऽहरणनिइयाई सुरलोए निउणे निउणं अत्थं निउणो खलु सुत्तत्थो निउत्ता अनिउत्ताणं निउत्तो उभउकालं निंता न पमज्जंती नितेहिं तिन्नि सीहा निक्कारणगमणम्मि निक्कारणगमणम्मि निक्कारणपडिसेवी निक्कारणमविहीए निक्कारणम्मि एए निक्कारणम्मि एवं निक्कारणम्मि गुरुगा निक्कारणम्मि दोसा निक्कारणम्मि नाम निक्कारणिगाऽणुवदेसिगा निक्कारणिगिंचमढण निक्कारणे विधीय वि निक्कारणे विधीय वि निक्खमण पिंडियाणं निक्खमणे य पवेसे निक्खम-पवेसवज्जण निक्खेवा य निरुत्ताणि निक्खेवेगट्ठ निरुत्त निक्खेवो नासो त्ति य निक्खेवो होइ तिहा निगम नेगमवग्गो निग्गमगाइ बहि ठिए निग्गमणं च अमच्चे निग्गमणं तह चेवा निग्गमणम्मि उ पुच्छा निग्गमणे चउभंगो ४०४७ गाथासं. | गाथा २०४ निग्गमणे बहुभंडो ३३८५ निग्गंथदारपिहणे ५६५६ निग्गय पुणो वि गिण्हे ४०८४ निग्गंथाणं पढमं निग्गंथाण सलोमं ५६२४ निग्गंथिवत्थगहणे २०६० निग्गंथीण अगिण्हणे ६३०२ निग्गंथीणं गणहर१७७७ निग्गंधीणं भिन्नं निग्गंथी थी गुरुगा ३३३३ निग्गंथोग्गहधरणे २३५ निग्गंथो निग्गंथिं | निग्गंध न वि वायइ ३४५२ निग्गंधो उग्गालो २९६६ निग्रोलियं च पल्लं ૨૭૬૮ निच्चं पि दव्वकरणं ३६८७ निच्चं वुग्गहसीलो ६०३३ निच्चनियंसण मज्जण ३६९० निच्चनियंसणियं तिय निच्चेल सचेले वा ३३६६ निच्छयओ दुन्नेयं ३६९२ निच्छिण्णा तुज्झ घरे ३३६२ निच्छियमुत्त निरुत्तं ७३१ निच्छुभई सत्थाओ ५८२६ निज्जंतं मोत्तूणं ३७८६ | निज्जंताऽऽणिज्जंता ३७१८ | निज्जूढ पदुट्ठा सा ३७१९ निज्जूढो मिनरीसर ३२२८ निट्टिय कडं च उक्कोसकं १२३६ निण्हयसंसग्गीए ३३७१ निण्हवणे निण्हवणे निदरिसणं अघडोऽयं निईन विंदामिह उव्वरेणं १५० निहापमायमाइसु निहाविगहापरिवज्जि१०९१ । निहिट्टमणिहिटुं निट्टि सन्नि अब्भुवगतेतरे २२९३ निद्दिढे अस्सण्णी ४९२८ निहोसं सारवंतं च १४५० निद्दोस सदोसे वा १८८२ | निहोसा आदिण्णा गाथासं. | गाथा ४२२६ । निद्धं भुत्ता उववासिया २३५३ निद्धमनिद्धं निद्धं १८५९ निद्ध महुरं च भत्तं ४३१ निद्धे दवे पणीए ३८२१ निद्धे दवे पणीए ૨૮૨૬ निप्पच्चवाय संबंधि ४१०५ निप्पडिकम्मसरीरा २०४८ निप्फत्तिं कुणमाणा १०५९ निप्फाव-कोहवाईणि ५२४० निप्फाव-चणकमाई ४१०१ निप्फावाई धन्ना ५२३९ निब्बंधनिमंतेते २२२६ निब्भयया य सिणेहो ५८५० निम्मवणं पासाए ३३९९ निम्मा घर वइ थूभिय २४६१ नियएहिं ओसहेहिं १३१६ नियणाइलुणणमहण नियताऽनियता भिक्खायरिया ६४५ नियमा सचेल इत्थी १३७६ नियमा सुयं तु जीवो ४५०६ नियमा होइ सतित्थे ६२९४ निययं व अणिययं वा १८८ निरवयवो न हु सक्को ५९८२ निरवेक्खो तइयाए ३५८० निरुतस्स विकडुभोगो ४६२१ निरुवयजोणिथीणं ४१३३ निरुवय लिंगभेदे ५०५१ निल्लोमसलोमऽजिणे ३६५७ | निववल्लह बहुपक्खम्मि ५४३३ निवसरिसो आयरितो ६०६९ निवेसण वाडग साही ८१७ निव्वत्तणा य संजोयणा ४४०९ निव्विसउत्ति य पढमो १२६७ निव्वीइय एवइया ८०३ निव्वेद पुच्छितम्मि ४६९५ निसि पढमपोरिसुब्भव४६९७ निसिभोयणं तु पगतं ४६९२ निस्संकमणुदितोऽति૨૮૨ निस्संकियं च काहिइ ર૪ર૮ निस्संचया उ समणा ३१८३ | निस्सकडमनिस्से वा १९३१ २१५५ १६३३ ४१४८ १३९ १४१९ २१३ १६७० ४९५३ ६३७२ १०४८ ५१८८ ४५१९ २०२ १४९ २७१ ३९४७ ૩૬૨૬ २०७८ ६११३ ४९३२ ५८२९ ५८०८ १७९६ ५२६६ १८०४ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ४६५२ गाथा निस्सकडे ठाइ गुरू निस्सत्तस्स उ लोए निस्स त्ति अइपसंगण निस्साणपदं पीहइ निस्साधारण खेत्ते नीउच्चा उच्चतरी नीएहिं उ अविदिन्नं नीयं दद्रुण बहिं नीयं पिमेण घेच्छति नीयल्लएहि तेण व नीयल्लगाण तस्स व नीया व केई तु विरूवरूवं नीरोगेण सिवेण य नीलकंबलमादी तु नीसट्ठमसंसट्ठो नीसढेसु उवेहं नीहडसागरिपिंडस्स नीहम्मियम्मि पूरति नूणं न तं वट्टइ जं पुरा भे नूणं से जाणंति कुलं व गोत्तं नेच्छंति भवं समणा नेच्छंतेण व अन्ने नेमालि तामलित्तीय नेरुत्तियाइं तस्स उ नेवाऽऽसी न भविस्सइ नेहामु त्ति य दोसा नेहि जितो मि त्ति अहं नो कप्पइ जागरिया नो कप्पति व अभिन्नं नोकारो खलु देसं नोल्लेऊण ण सक्का नोवयणामं दुविहं नोसप्पिणिउस्सप्पे गाथासं. | गाथा १८०५ पउरण्ण-पाणगमणे ५६७१ पउरन्न-पाण पढमा २४४९ पंकपणएसु नियमा पंकसलिले पसाओ ४३१० पंको खलु चिक्खल्लो २६६२ पंच उ मासा पक्खे ५०९८ पंचंगुल पत्तेयं ३०१० पंचण्हं एगयरे ३६३३ पंचण्हं एगयरे ६२९६ पंचण्हं गहणेणं ६२९५ पंचण्हं वण्णाणं ५३३३ पंचण्हं वत्थाणं पंच परूवेऊणं ३९१४ पंच परूवेतूणं ३५९७ पंचमगम्मि वि एवं ३३७९ पंचम छ स्सत्तमिया ३६१६ पंचमहव्वयतुंगं ३८० पंचमहव्वयभेदो २२२१ पंचमियाए असंखड ३५९० पंचमे अणेसणादी ६३४८ पंचविहं पुण दव्वे ४७७५ पंचविहम्मि परूविए ३९१२ पंचविहम्मिपरूविते पंचविहम्मि विकसिणे पंचविहे आयारे १५६१ पंचविहे ववहारे ३५८ पंचसयदाण-गहणे ર૪૨૭ पंच सय भोइ अगणी पंचहिं अग्गहो भत्ते ८०७ पंचायामो धम्मो ३७०१ पंचूण तिभागद्धे ८४५ पंचूणे दो मासे पंचेगतरे गीए पंडए वाइए कीवे पंडादी पडिकुट्ठा पंता उ असंपत्ती २८७३ पंता व णं छलिज्जा १९७१ पंतो दट्टण तगं २२७८ पंतोवहिम्मि लुद्धो ४०२५ पंथं च मास वासं १०२९ पंथम्मि अपंथम्मि व गाथासं. | गाथा ४८२७ । पंथम्मि य आलोए १५०७ पंथ सहाय समत्थो ६१८९ | पंथुच्चारे उदए पंथे धम्मकहिस्सा ६१८८ पक्कणकुले वसंतो ५७५८ पक्के भिन्नाभिन्ने ३८७५ पक्खीव पत्तसहिओ ५४५२ पगई पेलवसत्ता ५४६७ पगयं उवस्सएहिं ५६२० पगयम्मि पण्णवेत्ता ३८८७ पगरणओ पुण सुत्तं ३६७० पच्चंत तावसीओ ३६६४ पच्चंतमिलक्खेसुं ५६२१ पच्चक्ख परोक्खं वा २४७४ पच्चक्खेण परोक्खं ५८०० पच्चोनियत्तपुट्ठा ४५९१ पच्चोरुहणट्ठा खाणुआतो ७७० पच्छण्ण पुव्वभणियं १५०८ पच्छन्न असति निण्हग ३०४७ | पच्छन्नासति बहिया १७८ पच्छाकडाइ जयणा ६८६ पच्छाकडे य सन्नी ४७८७ पच्छित्तं इत्तिरिओ ३८६७ पच्छित्तं खु वहिज्जह २४३ पच्छित्त पण जहण्णं ६४५५ पच्छित्तपरूवणता पच्छित्तमणंतरियं २५०७ पच्छित्तमेव पगतं ६४५९ पज्जव पुवुद्दिट्ठा ६४०२ पज्जायजाईसुततो य वुड्डा ५८०५ पज्जोए णरसीहे ४२९५ पज्जोसवणाकप्पो ५४६८ पट्टऽहोरुय चलणी ५१६६ पट्ट सुवन्ने मलए ५१९७ पट्टो वि होइ एक्को २४९७ पट्टीवंसो दो धारणाउ ५७०३ पडणं अवंगुतम्मि ४१८५ पडिकंते पुण मूलं ३०१४ पडिकुट्ठ देस कारण १४७० पडिगमणमन्नतित्थिग ५२५० पडिगमणमन्नतित्थिग ४५२ ५३९३ १४७३ ४७२४ ४५२३ १०३६ १३७४ २८१८ ३४०२ દ્રષદ ३९८ १४५६ २००५ __३९ १७७० ४७५९ १०१ ४८२४ ४८१८ ४८०४ १९४५ १९२६ ૬૨૮૩ १०१६ ४०४३ ५२६८ ५०५८ ५५९४ २६८ ४४३६ ८२१ ३३२० ४२२० ६४३२ १४१७ पइदिणमलब्भमाणे पउणम्मि य पच्छित्तं पउमसर वियरगोवा पउमुप्पले अकुसलं पउमुप्पले माउलिंगे ३६६२ ४०८५ ५८२ ४०७१ ५७७२ ૨૮૮૬ १०५४ २६०३ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम = ७८३ गाथासं. ५८५१ ४९८३ ५०६१ ४६९८ गाथा पडिचरिहामि गिलाणं पडिजग्गंति गिलाणं पडिजग्गिया य खिप्पं पडिणीय णिवे एते पडिणीय तेण सावय पडिणीय मेच्छ मालव पडिपहनियत्तमाणम्मि पडिपुच्छं वायणं चेव पडिपुण्णा पडुकारा पडिबद्धा इअरे विय पडिबद्धे को दोसो पडिमाए झामियाए पडिमाए पाउता वा पडिमाझामण ओरुभण पडियं पम्हुटुं वा पडियरिउं सीहेणं पडिरूववयत्थाया पडिलंबणा पलंब पडिलाभणऽट्ठमम्मि पडिलाभणा उ सड्डी पडिलाभणा बहुविहा पडिलेहंत च्चिय वेंपडिलेहण निक्खमणे पडिलेहण संथारग पडिलेहणा उ काले पडिलेहणा दिसा णंतए पडिलेह दियतुअट्टण पडिलेह पोरुसीओ पडिलेहा पलिमंथो पडिलेहियं च खेत्तं पडिलेहियं च खेत्तं पडिलेहियं च खेत्तं पडिलेहियं च खेत्तं पडिलेहोभयमंडलि पडिवक्खेणं जोगो पडिवज्जमाणगा वा पडिवज्जमाण भइया पडिवज्जमाण भइया पडिवत्तिकुसल अज्जा पडिवन्ना जिणिंदस्स पडिवेसिग-एक्कघरे गाथासं. | गाथा १८७८ पडिसइगस्स सरिसं ४३०४ पडिसामियं तु अच्छइ ३७८५ पडिसिद्धं खलु कसिणं ४५६३ पडिसिद्ध त्ति तिगिच्छा २३५८ पडिसिद्धविवक्खेसुं ३७५६ पडिसिद्धा खलु लीला २३८९ पडिसेधे पडिसेधो ६४७१ पडिसेवंतस्स तहिं ४१९६ पडिसेवणअणवट्ठो १४४० पडिसेवणपारंची २०१४ पडिसेवणाए एवं ३४६५ पडिसेवणाए एवं ६३७० पडिसेवणाए एवं ३४६९ पडिसेह अजयणाए ३७२५ पडिसेह अलंभेवा ७२२ पडिसेहगस्स लहुगा ५७०८ पडिसेहण णिच्छुभणं .८०८ पडिसेहणा खरंटण ४९३४ पडिसेहम्मि उ छक्वं ४९३७ पडिसेहियवच्चंते ५२७१ पडिसेहेण व लद्धो १५४४ पडिसेहो उ अकारो १६५८ पडिसेहो जम्मि पदे १५७४ पडिहाररूवी! भण रायरूविं १६६० पडिहारिए पवेसो ५५०० पडुपन्नऽणागतेवा ५४५४ पढमं तु भंडसाला १९०३ पढमं राइ ठविते पढम विगिंचणट्ठा २०६९ पढमग भंगे वज्जो १५०५ पढमचउत्थवयाणं १५११ पढम-चउत्था पिंडो ३१७८ पढम-चरिमाउ सिसिरे २३७९ पढम-तइयमुक्काणं ३८०२ पढमदिणे सग्गामे १४४४ पढमदिणे समणुण्णा १४३७ पढमदिवसम्मि कम्म पढमबिइएसु पडिवज्ज३२३७ पढमबिइयाउरस्सा ६४५३ पढमबिइयाए तम्हा पढम-बिइयातुरोवा गाथासं. | गाथा १९६ पढम-बितिए दिया वी ४३५९ पढम-बितिएसु चरिमं ३८७९ पढम-बितिएसुणवमं ९४७ पढमबितिततियपंचम२३२६ पढमम्मि य चउलहुगा ९८२ पढमम्मि य चउलहुया ५५६८ पढमम्मि समोसरणे ४९५८ पढमम्मि समोसरणे ५०६२ पढमस्स तइयठाणे ४९८५ पढमस्स होइ मूलं २४८२ पढमा उवस्सयम्मी २५२४ पढमाए गिण्हितूणं २५४१ पढमाए नत्थि पढमा १९४३ पढमाए पोरिसीए २८९९ पढमाए बितियाए ५३६७ पढमासइ अमणुण्णेतराण ३०८९ पढमासति वाघाए पढमिल्लुग-ततियाणं ८१४ पढमिल्लुगम्मि ठाणे ४६६२ पढमिल्लुगम्मि ठाणे ४६२२ पढमिल्लुगम्मि ठाणे पढमिल्लुगम्मि ठाणे २१७९ पढमिल्लुगम्मि तवरिह ५०४७ | पढमिल्लुगसंघयणा ३७७३ पढमिल्लुगस्स असती ५८५२ पढमे गिलाणकारण ३४४८ पढमेत्थ पडहछेदं १८९६ पढमे बितिए ततिए ६१२१ पढमे भंगे गहणं ६३८३ पढमे भंगे चरिमं २४२६ पढमे वा बीये वा ३६३५ पढमे सोयइ वेगे ५२१ पढमो एत्थ उ सुद्धो २७७४ पढमो जावज्जीवं ४६६७ पढिए य कहिय अहिगय १५५७ पढिए य कहिय अहिगय १४०५ पढिते य कहिय अहिगय १६३७ | पढिय सुय गुणिय धारिय २८७५ | पढिय सुय गुणियमगुणिय ४३८१ पढिय सुय गुणियमगुणिय २१८१ | पढिय सुय गुणियमगुणिय ५४३ ४२३७ ४२७८ २५१९ ५७१० १३३५ ५२८३ १५२३ ४९३१ ५७९९ ૨૮૨૨ ४६३ ५९१९ २४७५ २५१८ २५३७ ३६१० ૨૨૦ १३८६ ४६२ २४२० ११०९ ३५२८ १८६९ ५००७ १४१८ २२५९ ३८७७ ८७५ १८३३ ४१४ ५३२ ४१६ ७०८ ५३० ६०२ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ५७४ गाथा पणगं खलु पडिवाए पणगं च भिण्णमासो पणगं च भिन्नमासो पणगं च भिन्नमासो पणगं लहुओ लहुगा पणगं लहुओ लहुया पणगाइ असंपाइम पणगाइ मासपत्तो पणतो पागतियाणं पण दस पनरस वीसा पणपन्नगस्स हाणी पणयाल दिणा गणिणो पणयालीसं दिवसे पणिए य भंडसाला पण्णवितो उ दुरूवो पण्हो उ होइ पसिणं पतिट्ठा ठावणा ठाणं पत्तं पत्ताबंधो पत्तं पत्ताबंधो पत्तमपत्ते रिक्खं पत्ताणं पुप्फाणं पत्ताबंधपमाणं पत्ते अइच्छिए वा पत्तेग वडगासति पत्तेयं पत्तेयं पत्ते य अणुण्णाते पत्तेयबुद्ध जिणकप्पिया पत्तेय समण दिक्खिय पत्तो जसो य विउलो पत्तो वि न निक्खिप्पड़ पत्थारदोसकारी पत्थारदोसकारी पत्थारो अंतो बहि पत्थारो अंतो बहि पत्थारो उ विरचणा पत्थिंतो वि य संकइ पदूमिता मि घरासे पन्नत्ति जंबुदीवे पन्नरसकम्मभूमिसु पन्नरस दस य पंच व पन्नवणिज्जा भावा ५३६५ ४४४४ ५८४३ ३४६३ ३४३५ २४०९ १०७९ ४२१५ २४०८ १५२८ ५७७६ ४०३२ ३४४४ ६२६६ १३११ ६३५६ ३९६२ ४०८० १४५१ . ९८० ३९७१ १४५२ ४८०६ १६४५ ४०१ ४५३३ ४८१७ गाथा पप्पं खु परिहरामो पभु अणुपभु (णो व) निवेयणं पमाणं कप्पद्वितो तत्थ पमाणातिरेगधरणे पमाणे काले आवस्सए पयडीणं अन्नासवि पयपायमक्खरेहि पयला उल्ले मरुए पयला निह तुअट्टे पयला निद तुअट्टे पयलासि किं दिवाण परउत्थियउवगरणं परखित्ते वसमाणो परतित्थियपूयातो परदेसगते णाउं परधम्मिया वि दुविहा परपक्खं दूसित्ता परपक्ख पुरिस गिहिणी परपक्खम्मि अजयणा परपक्खम्मि वि दारं परपक्खे य सपक्खे परपक्खे वि यदुविह परपत्तियाण किरिया परपत्तिया न किरिया परमद्धजोयणाओ परमद्धजोयणातो परमाणुपुग्गलो खलु परमाणुमादियं खलु परवयणाऽऽउट्टेउं परवावारविमुक्का परसीमं पिवयंति हु परिकम्मणि चउभंगो परिणमइ अंतरा अंतरा परिणमइ जहत्थेणं परिणयवय गीयत्था परिणाम अपरिणामे परिणामओऽत्थ एगो परिणाम-जोगसोही परिणामो खलु दुविहो परितावणाइ पोरिसि परिताव महादुक्खे गाथासं. | गाथा ४५७८ परिताविज्जइ खमओ परिनिट्ठिय जीवजढं ६४६९ परिपिंडिए व वंदइ ४००१ परिभुज्जमाण असई १६९६ परिमाणे नाणत्तं परिमियभत्तपदाणे ११७४ परियट्टिए अभिहडे ६०६६ परियारसहजयणा ३७१४ परिवार परिस पुरिसं ३७१५ परिवार-पूयहेडं ६०६८ परिवारो से सुविहितो २८९१ परिवासियआहारस्स ४७०१ परिसाइ अपरिसाई ५३३० परिसाडिमपरिसाडी ४३०६ परिसिल्ले चउलहुगा ५०८८ परिहरणा अणुजाणे २७० परिहरणा वि य दुविहा ६१७९ परिहारकप्पं पवक्खामि परिहारिओ य गच्छे ३३७६ परिहारिओ वि छम्मासे ४४३९ परिहारियमठविते ४२२ परिहारियमठवेंते ५७३७ परिहीणं तं दव्वं २७०१ पलंबादी जाव ठिती ५२८७ पलिमंथविप्पमुक्कस्स ५३१४ पलिमंथे णिक्खेवो २७२० पलियंक अद्ध उक्कुडुग ૨૮૮૮ पवज्जाए अभिमुहो ४६४१ पवत्तिणि अभिसेगपत्ता २११७ पवयणघातिं व सिया १०९८ पवयणघाया अन्ने ३९९१ पवयणवोच्छेए वट्ट४७०५ पविट्ठकामा व विहं महतं पविद्धमणुवयारं ४३८२ पविसंते आयरिए ७९२ पविसंते जा सोही १०१४ पविसण मग्गण ठाणे पव्वइओऽहं समणो ५९०५ पव्वइयस्स य सिक्खा ९०२ पव्वइहं ति य भणिते १८९९ | पव्वज्ज अठ्ठवासस्स गाथासं. १५९७ २९२१ ४४७८ २९४० ५८९८ ५२९३ ४२७६ २६०८ ४५५० ५३९६ ४५५१ ५९९८ ७६० २०२४ ५३६६ १६५९ १८३१ ६४४७ ६०३४ ६४७४ ५७३० २६९६ १९७७ ६४८७ ६३४९ २०१३ ५९४८ ४१९१ ४३३९ ५८७१ ४७८ ७२६ २७५ २५११ २५३१ २३३१ ३२२६ ६१३० २४३९ ३७०९ ७९६ ३२०३ ४४७७ १५६९ २१९३ ४३७५ ११४४ ११४३ ४६६५ ६४५१ १५९ १६३६ ४२९६ ९६४ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम गाथा पव्वज्जए पक्खिय पव्वज्ज सावओ वा पव्वज्जाए असत्ता पव्वज्जाए मुहुत्तो पव्वज्जाए सुएण य पव्वज्जा य नरिंद पव्वज्जा सिक्खापय पव्वज्जा सिक्खापय पव्वयणं च नरिंदे पव्वयसि आम कस्स पव्वावण मुंडावण पव्वावण मुंडावण पव्वावण मुंडावण पव्वावण मुंडावण पव्वावणिज्ज बाहि पव्वाविओ सिय त्ति उ परिणापसिणं सुमिणे पसंतो वि य का परसामि ताव छिदं पहरणजाणसमग्गो पाउं थोवं थोवं पाउगमवियं पाउग्गोसह उव्वत्त पाउयमपाउया घट्ट पाए अच्छि विलगे पारण बीयभोई पाएण होंति विजणा पाणिद्धा एंति महाणेण समं तू पाए वि उक्विंती पाए चेटवे पागय कोटुंबिय दंडिए पाडलऽसोग कुणाले पाडलिपुत्ते जम्म पाडलि मुरुडदू पाडच्छग सेहाणं पाणगजाइणियाए पाणम्हणेण तसा पाणट्टा व पविट्ठो पाणदय सीयमत्थुय पाणवह पाणगहणे पाणवहम्मि गुरुव्विणि गाथासं, ५४२० १५४२ ५७०६ १६३८ ५४२२ १३५१ १९३२ १४४६ ११५६ ४७३४ ४१३ १४१४ १४३० १६३५ ५०७३ ५१९० १३१२ ६२३४ २२३७ २१६० ३५२ ४७६२ ५६९९ ५३७४ ६९६६ ९३३ ५६८२ ४४४६ ४१२७ २६७२ ४२७ २९२ गाथा पाणसमा तुज्झ मया पाणाइवायमादी पाणाइ संजमम्मिं पाणी पडिग्गहेण व पादेहिं अघोडि वि पायं अवाउदाओ पायं गता अकप्पा पायं तवस्सिणीओ पार्थ सकजन्गहणालसेयं पायं सायं मज्झं पायम्हणम्मि उ देखिय पायच्छिते दिण्णे पायच्छिते पुच्छा पायठिओ दोहिं नयणेहि पायस्स जं पमाणं पायावच्चपरिग्गहे पायावच्चपरिग्गहे पाया व दंता व सिया उ धोया पायासइ तेणहिए पारंचीणं दण्ड वि पारणगपडिया आणियं पालइत्ता सयं ऊणं पालंक- लट्टसागा पालीहिं जत्थ दीसह पावं अमंगलं ति य पावंते पत्तम्मि य पावाणं पावयरो पावाणं समगुण्णा पासंडकारणा खलु पासंडिणित्थि पंडे पासंडीपुरिसाणं पासंडे व सहाए ५७०५ पासते बद्धेसु २२९२ पासट्ठिए पडाली ४८९ १७४९ ५८६२ पासत्थाईमुंडिए १६२२ | पासत्थाईमुंडिए ४३६० पासवण ठाण रूवा २८४३ पासवण ठाण रूवे ४५९२ पासवण मत्तणं पासत्थ संकिलिङ्कं पासत्य संकिलि गाथा.. २६७० ३६९३ ५८७० १३६१ ४५८० २३९३ ६१६३ ४४२० ३२३२ ४७४५ ४८१ ६२८० ९८५ गाथा पासाणिग-महिय पासामि णाम एतं पासुत्तसमं सुत्तं पासुत्ताण तुय पासेण गंतु पासे पासे तणाण सोहण पाहिज्जे नाणत्तं पाहुडियं अणुमण्णति पाहुडिय त्ति य एगो पाहुडिय दीवओ वा पाहुडिया वि य दुविहा ५४६९ २६२१ २५८५ २६१९ पाहुणएणऽण्णेण व पाहुणगट्ठा व गं २२५० ३८४८ २४७२ | पाहुणविसेसदाणे २४८० पाहुन्नं ताण कयं पिंडाईआइने ६०३५ ५९४३ पिंडो जं संपन्नं ५०५७ पिलं को वि य सेहो पिट्ठेण सुरा होती पितपुत्त धेरए वा पिप्पलओ विकरणट्ठा पाहुणगा वा बाहि पाहुणयं च पउत्थे ३७०० ६४५२ २०९४ ५९५१ पियधम्मऽवज्जभीरू ८११ पियधम्मे दधम्मे ९११ पियधम्मे दढधम्मे ५००९ पियधम्मो ददधम्मो ८९० पियमप्पियं से भावं ५९८ पियविप्पयोगदुहिया पिसियासि पुव्व महिसं ८८८ ४८१९ पिडगोअर उच्चारा ६३०५ पिहवारकरण अभिमुह ३९०६ पिह सोयाई लोए ११०७ पीईसुण्णण पिसुणो ६४३८ पीढग णिसिज्ज दंडग पीयं जया होज्जऽविगोविएणं ६४३९ १२६२ पीलाकरं वताणं पीसंति ओसहाई पुंजा उ जहिं देसे पुंजे वा पासे वा पुंजो य होति वट्टो ७८५ गाथासं. ११२३ ३७९० ३१२ १३३४ २६७४ ३४५० १९४८ ४९७६ १९१५ १३९५ १६७४ २८०४ ५००४ ३५९९ ३५६० ५२९६ २२२९ ३४७८ ३४७५ ५९८५ ३४०६ ३५५७ २८८८ १२३१ २०५० ४८३२ ३७७४ ४६६४ ६२८८ ५०१८ २२८९ २२७५ १७३९ ७७५ ४०९६ ३४१४ ४७८० ४५६० ५६६८ ४६१३ ३३११ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ गाथा पुच्छंत मणक्खाए पुच्छ सहुभीयपरिसे पुच्छाहीणं गहियं पुच्छिय रुइयं खेत्तं पुट्ठा व अपुट्ठा वा पुढवि बग अगणि हरियम पुढवी आउक्काए पुढवी आउक्काए पुढबीह तरुगिरिया पुढवी ओस सजोती पुणरवि दव्वे तिविहं पुणरावत्ति निवारण पुणरुत्तदोसो एवं पुण्णम्मि निम्नयाणं पुण्णम्मि मासकप्पे पुण्णे अनिग्गमे लहुगा पुणे जिणकप्पं वा पुण्णेहिं पि दिहिं पुत्तादीणं किरिव पुत्तो पिया व भाया पुत्तो वा भाया वा पुष्कपणिएण आरामिमाण पुप्फपुर पुप्फकेऊ पुया व घरसंति अणत्युयम्मि पुरकम्मम्मि कयम्मी पुरकम्मम्मि कवम्मी पुरकम्मम्मि कयम्मी पुरकम्मम्मिय पुच्छा पुरतो दुरुहणमेगतो पुरतो पसंगपंता पुरतो य पासतो पितो पुरतो यमग्गतो या पुरतो वच्चति मिगा पुरतो व मग्गतो वा पुरतो वि हुजं घोषं पुरपच्छिमवज्जेहिं पुराणमाईसु व णीणवेंति पुराण सागं व महत्तरं वा पुराण सावग सम्महिडि पुराणादि पण्णवे पुरिमाणं एकस्स वि गाथासं. ४९८९ १०६२ २८०३ १५१२ ६२९७ ५८८ ३०२८ ४६३९ गाथा पुरिमाण दुब्बिसोझो पुरिमेहिं जह विहीणा पुरिसज्जाओ अमुगो पुरिसम्म दुब्बिणीए पुरिससागारिए उवस्सयम्मि पुरिसा य मुत्तभोगी पुरिसावायं तिविहं पुरिसित्विगाण एते पुरिसुत्तरिओ धम्मो ३२ ४९२४ पुरिसेस भीरु महिलासु ६०५ पुरिसेहिंतो वत्थं ५९३९ पुव्यं चरितसेढ़ी ३९२० पुव्वं चिंतेयव्वं ४२८८ पुव्यं तु होइ कहओ २०३५ पुव्वं पच्छा जेहिं २७४९ पुव्वं पच्छुद्दि १४२७ पुव्वं पच्छुद्दि ४७२५ ६२२० पुव्वं पच्छुि पुव्वं पच्छुि ३७४१ पुव्वं पच्छुद्दि ३७३६ ३६५० १३४९ ३८१८ पुव्वं सुत्तं पच्छा १८४९ १८५१ १८५६ १८१६ ३५४१ ३२०० ३६१३ पुव्वं पि अणुवल पुव्वं भणिया जयणा पुव्वं व उवक्खडियं पुव्वगता मे पडिह पुव्वघरं दाऊण व पुव्यट्टिएव रत्तिं पुव्यट्ठियऽणुण्णवियं ५६६४ पुण्डे अपट्टएि २६२४ पुव्यण्डे अवरण्डे २९०२ पुष्यण्हे लेपगहणं २०८९ पुव्वण्हे लेवगमं २९.०१ २१११ १८२८ पुव्वद्दिद्वेविच्छइ पुब्वण्हे लेववाणं पुव्वतरं सामइयं पुत्रगण वि पुव्यपविहिं समं पुष्वपवित्तं विणयं ३०८० पुव्वब्भासा भासेज्ज ३१३० पुव्वभणिए य ठाणे ५३४८ पुव्वभणियं तु पुणरवि गाथासं. गाथा ६४०३ पुव्यभविगा उ देवा २०७ पुब्वभवियबेरेणं पुव्वभवे वि अहीयं १६८६ ७८२ पुव्वमभिन्ना भिन्ना २५५६ पुव्वविराहियसचिवे पुव्वसयसहस्साइं २६०२ ४२३ ४६८२ २२८५ ५१४७ २८१६ ४५०५ ५३६९ १९३८ ३८७ ५४१० ५४११ ५४१३ ५४१५ ५४१६ ५२ ३०९१ ३१२८ १९९ ४१७९ १६७८ २९३२ ४७७९ १६८९ १६८५ ४९२ ४९१ ४०७७ ६४०८ १५०२ १४४५ १८०८ पुव्वाउत्ते अवचुल्लि पुव्वावरसंजुत्तं पुव्वावरायया खलु पुव्विं अदया भूएसु पुव्विं छिन्नममत्तो ५११९ २२१७ २५५४ पुष्पिं ता सक्खे पुव्विं दव्वोलोयण पुव्विं दुच्चिण्णाणं पुव्विं पि वीरसुणिया पुव्विं मलिया उस्सार पुव्विं वसा दुवि पुव्विं वुग्गाहिया पुव्वुद्दि तस्सा पुव्वुद्दिट्ठे तस्सा पुव्वुद्दिट्ठे तस्सा पुव्वुद्दिट्ठो य विही पुव्वुप्पन्नगिलाणे पुव्वोगहिए खेत्ते. पुव्वोदितं दोसगणं च तं तू पूति पूइयं इत्थियाउ पूयलसिगा उवस्सए पूयलियलग्ग अगणी पूयाईणि वि मग्गइ पूयाभत्ते चेतिए पूरंतिया महाणो पूरंती छत्तंतिय पूरिंति समोसरणं पूवलियं खायंतो पूवलिय- सत्तु-ओदण पूवो उ उल्लखज्जं पेच्छ उ अणायारं १३७२ पेच्छाह गरहियवासा पेसवियम्मि अ पेसविया पच्चंतं पेसेइ उवज्झायं बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ४२१८ ६२५८ ४१० १००३ ११६१ ६४५० १९५६ ५१८५ ६७२ ३८५९ १३४८ ३१९१ ५४९९ ५१५२ १५८५ ७९७ ४७४४ ५२२४ ५४१२ ५४०९ ५४१४ ६२२३ ४७१० १०६९ ३२०६ ४४४५ ४१०३ ४८० १९६० ३६५८ ३७९ ३७८ १८०७ २६२४ ४८०३ ३४७६ २८७० २३१६ २७९१ ४५३७ ५०४३ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ७८७ गाथासं. ३५७१ ४८३९ ३५७९ ફ૨૮૧ ३५८१ ५५४ २०८१ ३५४३ ३१२९ ५०२७ ४३८३ ५५४४ २९७१ १५२६ १४०६ २७५६ ५२८६ ५१०० २०० ६३३५ गाथा गाथासं. | गाथा पेह पमज्जण वासग अग्गी ३४३६ बंभवयपालणट्ठा पेहाऽपेहादोसा ३९९० बंभवयरक्खणट्ठा पेहिंति उड्डाह पवंच तेणा ३४९१ बंभवयस्स अगुत्ती पेहिय पमज्जिया णं ३३७७ बंभव्वयस्स गुत्ती पेहुणतंदुल पच्चय ४६३८ बंभी य सुंदरी या पोग्गल असुभसमुदयो ६२५६ बंभी य सुंदरी या पोग्गल मोयग फरुसग ५०१७ बत्तीसाई जा एक्क पोतविवत्ती आवण्ण ५२२३ बलसमुदयेण महया पोत्थग जिण दिवतो ૩૮૨૭ बलि धम्मकहा किड्डा पोत्थगपच्चयपढियं ४५७१ बलि धम्मकहा किड्डा पोरिसिनासण परिताव ८८४ बलिपविसणसमकालं बहि-अंत-ऽसण्णि-सण्णिसु बहिया उ असंसटे बहिया य रुक्खमूले फड्डगपइए पंते ३०३६ बहिया व निग्गयाणं फड्डगपइपेसविया २१३५ बहिया वि गमेतूणं फरुसम्मि चंडरुद्दो ६१०२ बहिया वियारभूमी फलगिक्को गाहाहिं बहिया वियारभूमी फल्लो अचित्तो अह आविओवा ५९६८ बहि वुड्डि अद्धजोयण फासुग गोयरभूमी ४८७० बहुजणसमागमो तेसु फासुग जोणिपरित्ते २९१८ बहु जाणिया ण सक्का फासुग जोणिपरित्ते ३११५ बहुदेवसिया भत्ता फासुगमफासुगेण व १९०६ बहुदोसे वऽतिरित्तं फासुगमफासुगे वा १८९२ बहुसुय चिरपव्वइओ फासुगमफासुगे वा ६०२४ बहुसो उवट्टियस्सा फिडियं धण्णटुं वा ३३७४ | बहुसो पुच्छिज्जंता फिडियऽन्नोन्नाऽऽगारण ४३७७ बहुस्सुए चिरपव्वइए फुडरुक्खे अचियत्तं १२६८ बारस दसऽट्ठ दस अट्ट फेडित वीही तेहिं १४०४ बारसविहम्मि वि तवे फेडिय मुद्दा तेणं ३३४६ बाल-ऽसहु-वुड्व-अतरंत बालस्स अच्छिरोगे बालाई परिचत्ता बालाईया उवहिं बंधद्वितीपमाणं बाला य वुड्डा य अजंगमा य बंध वहं च घोरं २७८३ बाले वुड्ढे सेहे बंधाणुलोमया खलु १७३ बाले वुड्ढे सेहे बंधित्तु पीए जयणा ठवेंति ३४१५ बाले वुड्ढे सेहे बंधुजणविप्पओगे २००६ बावीस लभति एए बंधो त्ति णियाणं ति य ६३४७ बाहाइ अंगुलीइव बंभवयपालणट्ठा ३८०५ बाहिं आगमणपहे बंभवयपालणट्ठा ५९६५ | बाहिं काऊण मिए गाथासं. | गाथा ५९७६ बाहिं ठिय पठियस्स उ ५९२९ बाहिं तु वसिउकामं २५९७ बाहिं दोहणवाडग २३८२ बाहि ठिया वसभेहिं ३७३८ बाहिरखेत्ते छिण्णे ६२०१ बाहिरगामे वुच्छा १०७६ बाहिरमलपरिछुद्धा २३०८ बाहुल्ला गच्छस्स उ बिइए वि होइ जयणा ४६१९ बिइओ उवस्सयाई १२१३ बिइयं ताहे पत्ता ४२७१ बिइयं वसहिमतिते ३५९६ बिइयं विहे विवित्ता ३१६८ बिइयं सुत्तग्गाही २८१४ | बिइयदिवसम्मि कम्म ४८३१ बिइयपए असिवाई ३२१८ बिइयपएण गिलाणस्स ३२२३ बिइयपदं आहारे ३१८७ बिइयपदं गेलण्णे ४८५५ बिइयपदं तत्थेवा ४१७३ बिइयपद अपेक्खणं तू १७०० बिझ्यपद गिलाणाए २०२८ बिइयपदमणाभोगे ४०४ बिइयपदमसंविग्गे ४६७६ बिइयपदमसंविग्गे १८८४ बिइयपदमसंविग्गे बिझ्यपदे कालगए ६४७२ बिइयपदे कालगए ११६९ बिइयपदे तेगिंछं ४२९४ बिइयपयं गेलन्ने ५२२० बिझ्यपय कारणम्मि १६०४ बिइयपय कारणम्मि १५५२ बिइयपय कारणम्मि ४३४२ बिझ्यपय कारणम्मी १४८१ बिइयपय गम्ममाणे १६९३ बिझ्यपय झामिते वा ४०७५ बिइयपय तेण सावय ४७०८ बिझ्यपयमणप्पज्झे ३७४६ बिइयपयमणाभोगे ४५४३ | बिइयपय मोय गुरुगा २९३९ | बिइयम्मि रयणदेवय ४०० ५३११ ५८८५ ३२२९ ४३०७ ५४०१ ५४३९ ५४४८ १९६८ १९७० ४९६० २८७२ ३३०८ ३८१५ ५६१४ રરર ३०६१ ४६०७ ५६६३ ३८०१ ६१६२ १७३१ २५०८ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ६२६० ४८६५ ६४४८ १७३३ गाथा बिइयम्मि समोसरणे बिइयम्मि होति तिरिया बिइयादेसे भिक्खू बितिएणोलोयंती बितियं अच्छित्तिकरो बितियं अपहुच्चंते बितियं उप्पाएउं बितियं पभुनिव्विसए बितियणिसाए पुच्छा बितिय-ततिएसु नियमा बितिय-दवुज्झण जतणा बितियपदे उ गिलाणस्स बितियमहसंथडे वा बितियम्मि वि दिवसम्मि बितियाउ पढम पुव्विं बिय-मट्टियासु लहुगा बिले न ढक्वंति न खज्जमाणिं बिले मूलं गुरुगा वा बीए वि नत्थि खीरं बीएहिं उ संसत्तो बीएहि कंदमादी बीभेत एव खुड्डे बीभेज्ज बाहिं ठवितो उ खुड्डो बीयमबीयं नाउं बीयाईआइण्णे बुद्धीबलं हीणबला वयंति बेइंदियमाईणं बोरीइ य दिटुंतो बोलं पभायकाले बोलेण झायकरणं बोलेण झायकरणं बोहिकतेणभयादिसु बोहियमिच्छादिभए १२३४ १२१२ ४००४ ४८०७ १७०५ ५२५९ ૪૨૨૭ ५२८८ ४३७४ ४००३ ३८१३ ३९०० ३९०२ ५०४ ४६१४ ८७० गाथासं.| गाथा ४२९७ | भग्गऽम्ह कडी अब्भुट्ठ११९० भग्गविभग्गा गाहा २८६६ भट्टित्ति अमुगभट्टि ९९२ भडमाइभया णढे ५७२५ भणइ जइ एस दोसो ५३९० भणइ जइ एस दोसो ५५९२ भणइ जहा रोगत्तो ४६४९ भणइ य दिट्ठ नियत्ते ४१९४ भणति जति ऊणमेवं ४०५९ भणमाणे भणाविते ४९१० भणिओ आलिद्धो या ३२१५ भण्णइन अण्णगंधा भण्णइ न सो सयं चिय ४९३३ भण्णति उवेच्च गमणे ५२६४ भण्णति सज्झमसज्झं ५६७२ भत्तं वा पाणं वा १३९२ भत्तट्ठणमालोए ૨૮૬૨ भत्तट्टण सज्झाए २३७ भत्तट्ठणाए य विहि ३६८० भत्तट्ठिय बाहाडा ३३२४ भत्तट्ठिया व खमंगा ४४०२ भत्तट्ठिया व खमगा ४४०३ भत्तपरिण्ण गिलाणे भत्तमदाणमडते ३३०४ भत्तस्स व पाणस्सव ३२५४ भत्तादिसंकिलेसो २९०९ भत्ति-विभवाणुरूवं ५२९७ भत्तेण मेण कज्जं ४७५२ भत्तेण व पाणेण व २३२३ भत्ते पण्णवण निगृहणा २६५९ भत्ते पाणे विस्सामणे ५१११ भगवयणेगमणं ३१३७ भइ तिरी पासंडे भद्दमभई अहिवं भहेतर सुर-मणुया भद्दो तन्नीसाए १६३९ भद्दो पुण अग्गहणं १४३ भन्नइ दुहतो छिन्ने २३४९ भमरेहिं महुयरीहिंय ३१११ भयओ सोमिलबडुओ ४१०२| भयति भयस्सति व मम गाथासं. | गाथा ४४६० भयतो कुटुंबिणीए ४५७० भयसा उद्वेतुमणा ६१२७ भरहेरवएसुवासेसु ४७६० भवणवई जोइसिया १७२२ भवियाइरिओ देसाण भाइयपुणाणियाणं ११४९ भाणऽप्पमाणगहणे ६०८० भाणस्स कप्पकरणं ५८४९ भाणस्स कप्पकरणे ५४५७ भायऽणुकंप परिण्णा ५७०९ भारेण खंधं च कडी य बाहा १७३७ भारेण वेदणाए ११५० भारेण वेयणाए ३१७७ भारेण वेयणा वा ५२७९ भारो भय परितावण ५६०७ भारो भय परियावण ४८३५ भावकसिणम्मि दोसा ४३७२ भावचल गंतुकामं २०४९ भावऽढुवार सपदं ४८३७ भावम्मि उ पडिबद्धे १५६२ भावम्मि उ पडिबद्धे १५७६ भावम्मि उ संबंधो भावम्मि ठायमाणा २४८९ भावम्मि होइ वेदो ४०६९ | भावम्मि होति जीवा ૨૮૮૮ भावस्स उ अतियारो भावस्सेगतरस्स उ ५३२२ भावामं पि य दुविहं २९०७ भावितकुलेसुधोवित्तु ५०७६ भाविय इयरे य कुडा २९०४ भाविय करणो तरुणो ३०९० भावियकुलेसु गहणं ४२९ भावे उक्कोस-पणीय३०२३ | भावे उवक्कम वा भावेण यदव्वेण य ३५८८ भावेण संगहाई४६४३ | भावो उ अभिस्संगो ३९५४ भावो उणिग्गतेहि १२४४ भावोग्गहो अहव दुहा ६१९६ भावो जाव न छिज्जइ ४४८२ | भावो देहावत्था ૨૮૪૨ २५९२ २५९३ ३६८५ २६०५ २१४९ ८४८ ५२६३ २२० १२०९ | ८४४ १७२७ ३३९ २४२५ १०३२ ३५४५ २६५ ८९५ ८५९ भइया उ दव्वलिंगे भंगगणियादि गमियं भंजंतुवस्सयं णे भंडी-बहिलग-भरवाहिगेसु भगंदलं जस्सरिसा व णिच्चं १३५३ ४२९२ ६८५ ३६२३ ५६०३ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम ७८९ गाथासं. રૂદ્ર ૨૮૨૮ ४७०२ २१२ ६३२५ ४४७२ २४१७ ५६२५ १९४९ ७७९ २३९८ २६४९ १५७३ ४२०२ १४८४ ૨૨૨૭ ४४३७ ५०७५ ४४०८ १३३६ गाथा भावोवहयमईओ भासइ दुयं दुयं गच्छए भासाचपलो चउहा भिंगारेण ण दिण्णा भिंदेज्ज भाणं दवियं व उज्झे भिक्खं चिय हिंडता भिक्खं पि य परिहायति भिक्खं वा वि अडतो भिक्ख गय सत्थ चेडी भिक्खयरस्सऽन्नस्सव भिक्खस्स व वसहीय व भिक्खाइ गयाए निग्गयं भिक्खादि-वियारगते भिक्खा पयरणगहणं भिक्खायरियाईया भिक्खायरिया पाणग भिक्खायरिया पाणग भिक्खुणो अतिक्कमंते भिक्खु विह तण्ह वद्दल भिक्खुसरिसी तु गणिणी भिक्खुस्स ततियगहणे भिक्खुस्स दोहि लहुगा भिक्खूगा जहिं देसे भिक्खूण संखडीए भिक्खू वसभाऽऽयरिए भिक्खू साहइ सोउं भिज्जिज्ज लिप्पमाणं भिण्णं पि मासकप्पं भिण्णरहस्से वणरे भिन्नं गणणाजुत्तं भिन्नम्मि माउगंतम्मि भिन्नस्स परूवणया भिन्नाणि देह भित्तूण भिन्नासति वेलातिक्कमे भीएण खंभकरणं भीतावासो रई धम्मे भीरू पकिच्चेवऽबला चला य भुंजसु पच्चक्खातं भुत्तस्स सतीकरणं भुत्ता-ऽभुत्तविभासा भुत्तियरदोस कुच्छिय गाथासं. गाथा १३२५ भुत्ते भुंजतम्मिय १२९९ भुम-नयण-वयण-दसण ७५३ भूईए मट्टियाए व ३१६१ भूणगगहिए खंतं ३६०५ भूतिं आणय आणीते ६१६ भूमिघर देउले वा ४९५७ भूमीए असंपत्तं ७४३ भूमीए संथारे ५७०४ भूयाइपरिग्गहिते १८५२ भूसण-भासासहे ४८१३ भेदो य परूवणया ४१०६ भेदो य मासकप्पे ५२७७ भेया सोहि अवाया ३५४८ भोअण-पेसणमादीसु १४२३ भोइय उत्तरउत्तर १३८४ भोइयकुले व गुत्ते १६२६ भोइय-महतरगाई ૨૮૬૮ भोइय-महतरगादी ७४२ भोइयमादीणऽसती भोगजढे गंभीरे ५८२० भोगत्थी विगए कोउ५५८८ भोत्तव्वदेसकाले ५४२६ भोत्तूण य आगमणं ५०८९ भोयणमासणमिट्ठ २८६९ २१४१ | म ५२८ ६४३६ मइल कुचेले अभं६४८९ मइल कुचेले अब्भं३९८७ मइल कुचेले अभं३९५२ मइल दरसुद्ध सुद्धं १०५५ मंगल-सद्धाजणणं १०६५ मंडलिठाणस्सऽसती १०६६ मंडलितकी खमए ૪૨૨૨ मंडलियाए विसेसो ५७१४ मंत णिमितं पुण राय३२२४ मंदक्खेण ण इच्छति ६०७१ मंदट्टिगा ते तहियं च पत्तो ३८३५ मंसाइपेसिसरिसी ५९२२ मक्खेऊणं लिप्पइ २३९२ | मगदंतियपुप्फाई गाथासं. | गाथा १७४८ मगहा कोसंबी या १२९७ मग्गंतिथेरियाओ १३१० मगंतो अन्नखित्ते ४६२७ मच्छरया अविमुत्ती ६१०४ मच्छिगमाइपवेसो ર૬૬૮ मच्छुव्वत्तं मणसा ६१८६ मज्जंति व सिंचंति व ४९२२ मज्जणगतो मुरुंडो ४७७३ मज्जणगादिच्छंते २६०७ मज्जण निसिज्ज अक्खा २३७३ मज्जणवहणट्ठाणेसु ५४६ मज्जणविहिमज्जंतं ४१७ मज्जाया-ठवणाणं ર૭રરૂ मज्झंतिगाणि गिण्हह ४६२८ मज्झण्हे पउर भिक्खं ३५०७ मज्झत्थं अच्छंतं २४४४ मज्झत्थ पोरिसीए २०६१ मज्झमिणमण्ण-पाणं ४६३७ मज्झम्मि ठाओ मम एस जातो मज्झुक्कोसा दुहओ २४९८ मज्झे गामस्सगडो २६४१ मज्झे जग्गंति सया २८५९ मज्झेण तेसि गंतुं ३५७६ मज्झेव देउलाई मज्झे व देउलाई मज्झे वा उवरिंवा मण एसणाए सुद्धा १५४७ मणि-रयण-हेमया विय १५६५ मणुए चउमन्नयरं १९२२ मणुय-तिरिएसुलहुगा मणुय-तिरियपुंसेसुं ४४४२ मणो य वाया काओ अ २०७६ मतिविसयं मतिनाणं १७२१ मत्तअगेण्हणे गुरुगा ४३२४ मत्तग मोयाऽऽयमणं ४६२४ मत्तासईए अपवत्तणे वा ५३३५ मद्दवकरणं नाणं ४७२३ मन्नंतो संसट्ठ २१०४ मयं व जंहोइ रयावसाणे ६०१५ मयण च्छेव विसोमे ९७९ | मरण-गिलाणाईया ११०४ २६६४ २६३० २९३० ३४७२ ४५१४ ५७९८ १९७९ ११९२ ४२५ ४२६ ४४४९ ४१ ४०६५ ५९८४ ३२३४ ७८३ १७४३ ६११४ ५६१५ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा मरणभएणऽभिभूते मरिसिज्जइ अप्पो वा मरुएहि य दिर्सेतो मलेण घत्थं बहुणा उ वत्थं मसगो व्व तुदं जच्चामहजणजाणणया पुण महज्झयण भत्त खीरे महतर अणुमहतरए महद्धणे अप्पधणे व वत्थे महिड्डिए उट्ठ निवेसणे य महिमाउस्सुयभूए महिलाजणो य दुहितो महिलासहावो सर-वन्नभेओ महुणो मयणमविगई महुराऽऽणत्ती दंडे माइल्ले बारसगं माइस्स होति गुरुगो माउम्माया य पिया मा एवमसग्गाह मा काहिसि पडिसिद्धो माणाहियं दसाधिय माणुस्सं पिय तिविहं माणे हुज्ज अवन्नो माता पिया य भगिणी माता भगिणी धूता मा निण्हव इय दाउं मा निसि मोकं एज्जसु मा पडिगच्छति दिण्णं मा पयल गिण्ह संथारगं मा मं कोई दच्छिइ मा मरिहिइ त्ति गाढं मा य अवण्णं काहिह माया पिया व भाया माया भगिणी धूया मालवतेणा पडिया माला लंबति हत्थं माले सभावओ वा मा वच्चह दाहामि मा सव्वमेयं मम देहमन्नं मासस्सुवरिं वसती मासादी जा गुरुगा ५५६१ | मूल गाथासं.| गाथा ५११३ मा सीदेज्ज पडिच्छा १२६१| मासे पक्खे दसरायए १०१२ मासे मासे वसही ३९९४ मासो लहुओ गुरुओ ३५० मासोलहुओ गुरुओ ९२२ मासो लहुओ गुरुओ ६२५० मासो लहुओ गुरुओ ३५७४ मासो लहुओ गुरुओ ३९९७ मासो लहुओ गुरुओ ६२१२ मासो लहुओ गुरुओ १७७२ मासो लहुओ गुरुओ २२०० मासो लहुओ गुरुओ ५१४४ मासो लहुओ गुरुओ १७११ मासो लहुओ गुरुओ ६२४४ मासो विसेसिओवा ४६७९ मा होज्ज अंतो इति दोसजालं ४६०४ मिउबंधेहिं तहाणं ४७०७ मिच्छत्तंगच्छेज्जा ११५४ मिच्छत्तदिन्नदाणं १७५१ मिच्छत्त पवडियाए ३९१७ मिच्छत्त बडुग चारण २५१६ मिच्छत्त-बडुग-चारण ३५४ मिच्छत्तभावियाणं २८२३ मिच्छत्तम्मि अखीणे ५२४५ मिच्छत्तम्मी भिक्खू ३६१ मिच्छत्त सोच्च संका २८४५ मिच्छत्ताओ अहवा ५३२१ मिच्छत्ताओमीसे ४३९७ मिच्छत्ता संकंती २३८३ मिच्छत्ता-ऽसंचइए २९६७ मिच्छत्ते उड्डाहो ४१३७ मिच्छत्ते उड्डाहो ४७०६ | मिच्छत्ते उड्डाहो ६१७६ | मिच्छत्ते उड्डाहो ५६१ मिच्छत्ते संकाई ५६७८| मिच्छत्ते संकादी २२४६ मिच्छत्ते सतिकरणं ४८३० मीसगगहणं तत्थ उ ५३९८ मुइए मुद्धभिसित्ते २०२३ मुक्कं तया अगहिए ५९३१ | मुक्कधुरा संपागड गाथासं. | गाथा ४९५४ मुक्का मो दंडरुइणो १६८४ मुच्छाए निवडिताए २०३० मुंडाविओ सियत्ती १५५९ मुत्तनिरोहे चक्खं ३४९८ मुत्तूण गेहं तु सपुत्तदारो ६०८१ मुत्तूण पढम-बीए ६१०६ मुई अविद्दवंतीहिं ६१३८ मुरियाण अप्पडिया ६१४५ मुरियादी आणाए ६१४८ मुल्लजुयं पि य तिविहं ६१५२ मुसिय त्ति पुच्छमाणं ६१५६ मुहकरणं मूलगुणा मुहणंतगस्स गहणे ૨૨૬૨ मुहमूलम्मि उ चारी २१९० मुहरिस्स गोण्णणाम मूगा विसंति निति व ६२१४ मूयं च ढड्डरं चेव २७९९ मूयं हुंकारंवा मूलं वा जाव थणा मूलं सएज्झएसुं ५४४ मूलं सएज्झएसुं ४६१८ | मूलगुण उत्तरगुणे ६४०५ मूलगुण उत्तरगुणे ११७ मूलग्गामे तिन्नि उ. मूलतिगिच्छंन कुणह २७९७ मूलभरणं तु बीया ११३ मूलातो कंदादी ११२ मूलुत्तरचउभंगो ११४ मूलुत्तरसेवासुं ६००५ मूलेण विणा हु केलिसे ३०४३ मेरं ठवंति थेरा ३१५५ | मेहाईछन्नेसु वि ५२४१ मेहुणसंकमसंके ६१७० मेहुण्णं पिय तिविहं ९२९ मेहुण्णे गब्भे आहिते ४१५३ मोएण अण्णमण्णस्स ६१८४ मोक्खपसाहणहेतू ४३४८ मोत्तुं जिणकप्पठिई मोत्तूण गच्छनिग्गते ३६० मोत्तूण वेदमूद ४५४४ | मोयं ति देइ गणिणी गाथासं. १२७४ ५९५२ ५१९१ ४३८० ३५७३ २९८ ४५१८ २९३ २४८७ ३८९० ३०२४ ६६८ ४९९० १४९५ ६३२७ ३४५५ ४४७५ २१० ४१४२ ३३४९ ३३५९ ७६९ ४५२१ २७४३ २२३९ १७५७ ५१९५ २८४१ ४९४२ ४३६३ ५६९४ १३४२ २८०१ ४९४१ ४१४५ ५९७७ ५२८१ ६४८६ ६९५ ५२३० ५९९३ ६३८२ | मोत्तणमा Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमः ७९१ गाथासं. २७६ गाथा मोयं तु अन्नमन्नस्स मोयगभत्तमलद्धं मोयस्स वायस्स य सण्णिरोहे मोल्लंणत्थऽहिरण्णा मोसम्मि संखडीए मोहग्गिआहुइनिभाहि मोहतिगिच्छा खमणं मोहब्भवो उ बलिए मोहेण पित्ततो वा मोहोदएण जइ ता ३९३५ रंधंतीओ बोटिंति रक्खण गहणे तु तहा रक्खिज्जइ वा पंथो रज्जे देसे गामे रत्तपड चरग तावस रत्तपड चरग तावस रतिं न चेव कप्पइ रत्तिं वियारभूमी रन्ने वि तिरिक्खीतो रन्नो जुवरन्नो वा रन्नो निवेइयम्मि रन्नो य इत्थियाए रमणिज्जभिक्ख गामो रयणायरोउगच्छो रयणेसुबहुविहेसुं रयताणस्स पमाणं रयहरणपंचगस्सा रयहरणेण विमज्झो रयहरणेणोल्लेणं रविउ त्ति ठिओ मेहो रसगंधा तहिं तुल्ला रसगिद्धो व थलीए रसता पणतो व सिया रसलोलुताइ कोई रहपडण उत्तमंगादिरह-हत्थि-जाण-तुरएराइणिओ य अहिगतो राईण दोण्ह भंडण गाथासं. | गाथा गाथासं. गाथा ५९८६ राओ दिया वा वि हुणेच्छुभेज्जा ३५९२ लक्खणओ खलु सिद्धी ५०१९ राओवणीय सीहासणो १२१६ लक्खणहीणो उवही ३४९० राओ व दिवसतोवा ३१४१ लग्गे व अणहियासम्मि ४६४६ रागहोसविमुक्को ३०६६ लज्जं बंभं च तित्थं च ६१४२ राग-होसाणुगया ४९४३ लत्तगपहे य खुलए २२४० रागहोसाणुगया ૬૨૨૮ लभ्रूण अन्नपाए ३७०७ रागम्मि रायखुड्डी ६१९७ लभ्रूण अन्न वत्थे १५२७ रागेण वा भएणव ६१९५ लभ्रूण णवे इतरे ६२६८ रागो य दोसो य तहेव मोहो लढूण माणुसत्तं २६२८ रातिणितवाइतेणं ६१४९ लद्धे तीरियकज्जा रातो य भोयणम्मि ४९६१ लहुओ उ उवेहाए रातो वत्थग्गहणे २९७० लहुओ उ उवेहाए रातो व दिवसतो वा ५८३३ लहुओ उ होति मासो १७४६ रातो व वियाले वा २८३८ लहुओ गुरुओ मासो ५४२ रातो सिज्जा-संथारग्गहणे २९२४ लहुओ य लहुसगम्मि २७७५ रायकुमारो वणितो ५२२९ लहुओ लहुगा गुरुगा ५५७१ रायणिओ आयरिओ ४४११ लहुओ लहुगा दुपुडादिएसु १५४८ रायणिओ उस्सारे ६२० लहुओ लहुया गुरुगा १५६६ रायडुट्ठ-भएसुं ५१७३ लहुगा अणुग्गहम्मि १५५४ रायवधादिपरिणतो ४९९४ लहुगा अणुग्गहम्मि ३२०८ राया-मच्चे सेट्ठी ३७५७ लहुगा अणुग्गहम्मी २१६४ राया य खंतियाए ५२१९ लहुगा अणुग्गहम्मी ४९९६ राया व रायमच्चो १२११ लहुगाई वावारिते ६२१९ रासी ऊणे दटुं ३३५७ लहुगा तीसु परित्ते २५१३ रासीकडा य पुंजे ३३१० लहुगादी छग्गुरुगा ३३३५ रिक्खस्स वा वि दोसो ३७१० लहुगा य दोसु दोसु य २१२२ रिण वाहिं मोक्खेउं ૪૭૨૦ लहुगा य निरालंबे २१२३ रीढासंपत्ती वि हु २१६२ लहुगा लहुगो पणगं ३९७२ रीयादऽसोहि रत्तिं ३०४८ लहु गुरु चउण्ह मासो ३६७६ रुक्खासणेण भग्गो २२६७ लहुगो लहुगा गुरुगा ४१९५ रुद्धे वोच्छिन्ने वा ४८३८ लहुतो लहुगा गुरुगा ४२५३ रूवं आभरणविहीं २५५७ लहुया य दोसु गुरुओ ३३६ रूवं आभरणविही २४५१ लहुसो लहुसतराओ १०५० रूवंगंदणं ६२६४ लहुसो लहुसतरागो ५४२८ रूवं वन्नो सुकुमारया २१०२ लाउय असइ सिणेहो ५८६४ रूवे जहोवलद्धी ८० लाउय दारुय मट्टिय ५२०४ रोहेउ अट्ठ मासे ४८१२ लाउयपमाणदंडे ४७४ लाभमएण व मत्तो १९१६ लिंगट्ठ भिक्ख सीए ४५५४ लिंगत्थमाइयाणं २७८९ / लंदो उ होइ कालो लिंगत्थस्स उ वज्जो ३९५८ ४३९४ ५९६१ ५६४४ ६५९ ६१४ ४२७० ३७४० ४६४८ २६९९ ५७३४ ४९५५ ५८४४ ६११२ ६१२० ३८५२ २०४२ ३३५८ ५०७० ९०१ ३३४८ ६१०८ १०४१ ४५७२ ८६१ ८७७ १६६२ २४३१ ३८९६ ४९१९ १७०४ ६०४० ६२३६ ६५२ ५९७४ ६२४३ २९८१ १९१७ | ल ३५३९ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ गाथा लिंगत्थेसु अकप्पं लिंग विहारेऽवडिओ लिंगेण निग्गतो जो लिंगेण लिंगिणीए लित्ते छाणिय छारो लित्यारियाणि जाणि उ लुक्खमरसुण्हमनिकामलुस्सऽतरतो लूया कोलिगजालग लेवकडे कायव्यं लेवकडे वोसट्टे लेवडमलेवडं वा लेवाड विगह गोरस लोइय-वेश्य सामाइएस लोउत्तरं च मेर लोएण वारितो वा लोए वि अ परिवादो लोए वेदे समए लोगच्छेरयभूतं लोगपगतो निवे वा लोगविरुद्धं दुष्परिचओ लोभेअ आभिओगे लोभे एसणघाते लोभेण मोरगाणं लोलंती छग मुत्ते लोलुग सिणेहतो वा व वइअंतरियाणं खलु वइगा अद्धाणे वा वइगाए उट्ठियाए बड़गा सत्यो सेणा वणि त्ति वरि नेम्मं वणी पुव्वविट्ठा बडदिस गोब्बरगामे वइयासु व पल्लीसुव वंका उण साहंती वंतादियणं रत्तिं वंदामि उप्पलज्जं बंदेण इति निंति व गाथासं. ६२७ ७३६ ४५१६ ५००८ ५१७ ५१५ २१५४ १८९३ १७८७ १७१९ ४०११ १६४८ १७१७ ३८५ ३६०९ ४१३१ ५४२७ ४५४७ ३२६८ ४५५२ १९६२ २८१७ ६३८९ ५२२७ ३७७० ५३३४ २२३५ १७३२ ४८६६ ४८५९ गाथा वंदेण दंडहत्था वंसग कडणोक्कंचण वक्कइअ विक्कएण व वक्कंतजोणितिच्छड वसंतजोणि थंडिल वगडा उ परिक्खेवो वगडा रच्छा दगतीरगं वच्चइ भाइ आलोय वच्चइ भाइ आलोय बच्चंतकरण अच्छंत बच्वंतरस व दोसा वच्चते जो उ कमो वच्चतेण य दिसं वच्चतेहि य दिट्ठो वच्चतो वि यदुविहो वच्चक मुंजं कत्तंति वच्चति भणाति आलोय वच्चति भणाति आलोय बच्चति भणाति आलोय वच्चति भणाति आलोय बच्चसि नाहं बच्चे बच्चड एवं दवं वच्चामि यच्चमाणे वच्छग-गोणीसण वच्छनियोगे खीरं वच्छो भएण नासति ट्ट समुसो बट्टे समचउरंसं बट्टागारठिएहिं वडपादव उम्मूलण वद्धति हायति उभयं वणसंड सरे जल-थल वणसंड सरे जल-थल वणिओ पराजितो मारिओ ५२३८ २१८३ ६०९६ ४८०२ वडवण्णकसिणं ५३५८ वण्ण-रस-गंध-फासा ५८६१ २६३७ वण्ण-रस-गंध-फासा वण्ण-रस-गंध-फासेसु वतिणी वतिणि वतिणी १८०९ वणियत्याणी साहू वणियाण संचरंती गाथासं. गाथा ५९२५ ५८३ १५१६ १९५५ ९९८ २१२७ ३२४२ ६९४४ ६९४७ १५१९ ८७३ ५५४३ ४९६ १५५५ ५३८६ ३६७५ ६१३७ ६१५१ ६१५५ ६१६० ६०७२ ६०८७ ५५८२ २२०३ १९५ ५०५ ६०७४ ४०२२ ११०८ ४९२९ ६२२५ २७०७ ५७४० ४१२२ ५८५९ ४२५१ ३८५१ १६४४ ५९१४ २७२७ २२२४ बति मित्ति कडकु वतिसामिणो वतीतो वत्तकलहो उ ण पढति वत्तकलहो वि न पढइ बत्तम्मि जो गमो खल वत्तवओ उ अगीओ . वत्तव्वा उ अपाणा वत्तस्स वि दायव्वा वत्ता वयणिज्जो या वत्तीए अक्खेण व वत्ते खलु गीयत्थे वत्थं व पत्तं व तर्हि सलंभं बत्यम्मि नीणियम्मिं वत्थव्व जतणपत्ता वत्थव्व जयणपत्ता वत्थव्व पउण जायण वत्थव्वे वायाहड वत्थाणाऽऽभरणाणि य बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ४७९२ ४७९३ ५७४४ २७११ वत्थाणि एवमादीणि वत्था व पत्ता व घरे वि हुज्जा वत्थेण व पाएण व वत्थेहिं आणितेहिं वत्थेहि वच्चमाणी वत्स (च्छ) ग गोणी खुज्जा वम्मा य अवम्मा वि य वम्मिय कवइय वलवा वयमहिमारे पगए ar गठवणनिभा वयणं न वि गव्वभालियं वयणेणाऽऽयरियाई वयसमितो च्चिय जायइ वलया कोट्ठागारा ववहार णत्थवत्ती ववहारनयं पप्प उ ववहारो वि हु बलवं वसभाण होंति लहुगा वसभा सीहेसु मिगेसु वसभे य उवज्झाए बसहिं अणुष्णवितो वसहि निवेसण साही वसहिफलं धम्मकहा ५४९४ ५४८३ ५६६९ ५३८८ ६०६४ १५८ ५४७५ ३२०४ २७९८ ५८३५ ५८३९ १९६६ ४६७८ ६३०९ ३६७९ ४२१२ २९८५ ४३१३ ४१५६ १७१ ३४० २२८३ २८३६ ३३३ ४३६२ १६५ ४४५४ ३२९७ ५२३५ २६८८ ४५०७ ४४५९ २९०३ २१८८ १३९६ ५५४१ १५७२ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमः ७९३ गाथा वसहीए असज्झाए वसहीए जे दोसा वसहीए दोसेणं वसहीए दोसेणं वसहीए वि गरहिया वसहीए वोच्छेदो वसहीरक्खणवग्गा वसिज्जा बंभचेरंसी वसिमे वि विवित्ताणं वाइगसमिई बिइया वाइज्जति अपत्ता वाघायम्मि ठवेडं वाडगदेउलियाए वाणंतरिय जहन्नं वाताऽऽतवपरितावण वातादीणं खोभे वाताहडे वि णवगा वातेण अणवंते वानर छगला हरिणा वामइति इय सो जाव वाय खलु वाय कंडग वायण-वावारण-धम्मवायपरायण कुवितो वायपरायणकुविया वायम्मि वायमाणे वायाई सट्ठाणं वायाए कम्मुणा वा वायाए नमोक्कारो वायाए हत्थेहि व वायाए हत्थेहि व वायाकोक्कुइओ पुण वायाहडोतु पुट्ठो वायाहडो वि एवं वारत्तग पव्वज्जा वारत्तगस्स पुत्तो वारिखलाणं बारस वारेइ एस एयं वारेति अणिच्छुभणं वारेति एस एतं वाले तेणे तह सावए वाले तेणे तह सावते गाथासं. गाथा ३७२९ वावार मट्टिया-असु३१५८ वावारिय आणेहा ४९१२ वावारिय सच्छंदाण ४९५९ वासत्ताणे पणगं ६०५२ वासस्स य आगमणं १५३४ वासस्स य आगमणं ३३३६ वासाखित्त पुरोखड ५९५९ वासाण एस कप्पो ३०३७ वासारत्ते अइपाणियं ४४५३ वासावज्जविहारी ५२०९ वासावासविहारे ५५२९ वासावासातीए ३५८६ वासावासो दुविहो २४६८ वासाविहारखेत्तं १९१८ वासासु व वासंते ५३२६ वासासु वि गिण्हती ४६७७ वासेण नदीपूरेण ५५२१ वासोदगस्स व जहा ५९२० वाहि नियाण विकारं ४५७३ वाही असव्वछिन्नो ३०५५ | वाहीण व अभिभूतो ४४२७ विउलं व भत्तपाणं ५०४२ विउलकुले पव्वइते ५४२९ विउसग्ग जोग संघाडएण ५०७ विकडुभमग्गणे दीहं ४४५६ विकिंतगंजधा पप्प ४५४८ विगइ अविणीए लहुगा ४५४५ विगई विगइअवयवा २७०५ विगयम्मि कोउयम्मी ५७३६ विगयम्मि कोउहल्ले १२९८ विगयम्मि कोउहल्ले ४६८६ विगुरुविऊण रूवं ४६५८ विगुरुब्वियबोंदीणं ४०६६ विग्धोवसमो सद्धा १७७५ विच्चामेलण अन्नुन्नसत्थ १७३८ विच्चामेलण सुत्ते २७१७ विच्चामेलण सुत्ते ५५६५ विच्छिण्ण कोट्टिमतले ५७४९ विच्छिन्ने दूरमोगाढे ३०४९ विच्छिन्नो य पुरोहडो ३१५७ / विज्जंन चेव पुच्छह गाथासं. | गाथा ३६२० | विज्ज-दवियट्ठयाए ५०६८ विज्जस्सव दव्वस्सव १४७४ विज्जाए मंतेण व ४०९७ | विज्जा-ओरस्सबली १५४६ विज्जादऽभिओगो पुण २२८० विज्जाद-ऽसई भोयादि ૪ર૪૭. विज्जादीहि गवेसण ४२६६ विज्जा-मंत-निमित्ते ११२४ | विज्जाहर रायगिहे १२४३ विज्जे पुच्छण जयणा २७३५ | विणयस्स उगाहणया १४४९ विणयाहीया विज्जा २७३४ | विणा उ ओभासित-संथवेहिं ३१७९ | विण्हवण-होम-सिरपरि४५६२ वितहं ववहरमाणं ४२८९ वितिगिच्छ अब्भसंथड ३०७३ | वितिगिट्ठ तेण सावय १२०४ वित्तासेज्ज रसेज्ज व १९२७ वित्ती उ सुवन्नस्सा वित्थाराऽऽयामेणं . ३०१८ वित्थाराऽऽयामेणं ५६०२ विदुक्खमा जे य मणाणुकूला ५२६१ विदु जाणए विणीए २७९६ विदवितं केणं तिव विद्धंसण छायण लेवणे ४२१६ विन्नाय आरंभमिणं सदोसं ५१९९ विप्परिणमइ सयं वा १७०८ | विप्परिणया वि जति ते ३४२४ विप्परिणामियभावो ३३४३ विप्परिणामो अप्पच्चओ ३४०९ विभंगी उ परिणम ५७२२ वियडण पच्चक्खाणे २२०१ वियरग समीवाराम विरइसभावं चरणं विरतो पुण जो जाणं २६९५ विरहम्मि दिसाभिग्गह ५७२९ विरिच्चमाणे अहवा विरिक्के ४३९८ विलओलए व जायइ ४४४ विवरीयवेसधारी २२१३ विसम पलोट्टणि आया १९०७ विसमा जति होज्ज तणा गाथासं. २४२१ १९७३ ६२७० ५५९३ ६२७१ ४६३४ ४६३२ ५४७३ २९१ १०२७ ५१०७ ५२०३ ३१९५ १३०९ ३९० ५८२८ २९३४ ५५२६ १२०७ ३८८३ ५५१० ४३१४ ७६१ ६२४९ १६७५ ३९२४ ४७१८ ४६७२ ४७२८ २९३८ १२५ ४५०० २८१९ ९३४ ३९३९ ३९३ ४३२२ २९१५ ९९४ २० ५५३३ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ बृहत्कल्पभाष्यम् ३३८ गाथासं. ४४०६ ६२७३ ३५१७ २१७८ ३५०९ ३८६२ २६०४ ४१२३ १०३९ ४१३० १०५७ ४९०६ २४९४ २४९६ ५१८० १४८० २१७३ ३४९३ गाथा विसमो मे संथारो विसस्स विसमेवेह विसोहिकोडिं हवइत्तु गामे विस्ससइ भोइ-मित्ताविहं पवन्ना घणरुक्खहेतु विह अतराऽसहु संभम विहनिग्गया उ जाउं विहवससा उमुरुंडं विहि-अविहीभिन्नम्मिय विहिणिग्गता उ एक्का विहिभिन्नं पिन कप्पइ विहुवण-गंत-कुसादी वीमंसा पडिणीयट्ठया वीमंसा पडिणीया वीयार-गोयरे थेरवीयार भिक्खचरिया वीयार-भिक्खचरियावीयारभोमे बहि दोसजालं वीयार-साहु-संजइवीयाराभिमुहीओ वीयारे बहि गुरुगा वीरल्लसउणवित्तासियं वीरवरस्स भगवतो वीरासणं तु सीहासणे वीरासण गोदोही वीसं तु अपव्वज्जा वीसं तु आउलेहा वीसंभट्ठाणमिणं वीसज्जियम्मि एवं वीसज्जिया य तेणं वीसज्जिया व तेणं वीसत्थमप्पिणते वीसत्थया सरिसए वीसत्थऽवाउडऽन्नोन्नवीसत्था य गिलाणा वीसुंउवस्सए वा वीसुंघेप्पइ अतरंतगस्स वीसुंभणसुत्ते वा वीसुंभिओय राया वीसुंवोमे घेत्तुं वुच्छिण्णम्मि मडंबे गाथा वुढे वि दोणमेहे वुड्ढोऽणुकंपणिज्जो वुत्तं हि उत्तमद्वे वुत्ता तवारिहा खलु वुत्तुं पिता गरहितं वुत्तो अचेलधम्मो वुत्तो खलु आहारो वुब्भण सिंचण बोलण बूढे पायच्छित्ते वेउव्वऽवाउडाणं वेगच्छिया उ पट्टो वेज्जट्ठग एगदुगादिवेज्जस्स एगस्स अहेसि पुत्तो वेयावच्चगरं बाल वेयावच्चे चोयण-वारण वेरं जत्थ उ रज्जे वेरग्गकरं जंवा वेरग्गकहा विसयायाण वेलइवाते दूरम्मि वेलाए दिवसेहिं व वेवहु चला य दिट्ठी वेसइ लहुमुट्टेइ य वेसत्थीआगमणे वेस-वयणेहिं हासं वेस्सा अकामतो णिज्जराए वेहाणस ओहाणे वोच्चत्थे चउलहुआ वोच्चत्थे चउलहुगा वोच्छिज्जई ममत्तं वोच्छेदे लहु-गुरुगा वोसटुं पिहु कप्पइ वोसट्ठकाय पेल्लण ४४६६ २१९५ २०६४ ३६९६ ५६२८ ५९५४ ५९५६ ५१३९ ४०४५ ४४८८ ५३९५ ३२८७ ३०२२ ३०११ ५७२३ २२४३ ३६९४ ५५७६ ५८८९ ५५९५ ३७६० ५३३६ गाथासं. | गाथा | संकप्पे पयभिंदण १४६८ संकम जूवे अचले ૨૮૬ संकम थले य णोथल ४९६९ संकलदीवे वत्तिं ५९७९ संका चारिग चोरे ५९३५ संकापदं तह भयं १०८६ संकिन्नवराहपदे ५६२७ संकियमसंकियं वा ७१२ संकुचिय तरुण आयप्पमाण ५६७५ संखंडिज्जति जहिं ४०८९ संखडिए वा अट्ठा १०२८ संखडिगमणे बीओ ३२५९ संखडिमभिधारेता १४६४ संखडि सण्णाया वा २११८ संखाईए वि भवे २७६० संखा य परूवणया २६१२ संखुन्ना जेणंता ५१८१ संगं अणिच्छमाणो ५६१३ संगहियमसंगहिओ ३१४८ संघट्टणाऽऽयसिंचण ४१८८ संघट्टणाय सिंचण ४४२८ संघस अपडिलेहा ४९२३ संघं समुद्दिसित्ता १३०० संघयण-रूव-संठाण६२५९ संघयण-विरिय-आगम१९८८ संघयण-विरिय-आगम६५३ संघस्स पुरिम-पच्छिम१९१३ संघस्सोह विभाए ४७५७ संघाडएण एक्कतो ४६०३ संघाडएण एगो ४०४८ संघाडए पविद्वे ५९४४ संघाडग एगेणं संघाडगाओ जाव उ संघाडगादिकहणे संघाडेगो ठवणाकुलेसु २३४० संघाडो मग्गेणं ३७०२ संघातिमेतरो वा १६९८ संघो न लभइ कज्ज ५७७८ संचइयमसंचइयं ३६२१ संचयपसंगदोसा ३६२२ संचारोवतिगादि गाथासं. ५८६७ २४१३ ५६४० ३४७० ६३९१ २३४४ ४५२४ २३४८ ३९७० ३१४० ४७१५ २८५४ ५८३७ ४७१९ १२१७ १२९२ १६९९ ६३४६ १११० ५६३१ ५६३७ ३८२६ ५३४४ ११९८ ५०२९ ५१२९ ५३४३ ६३७६ ४३०९ १७२६ २८१० ४६६६ ५५९९ ४९३६ પુર૨૨ २०१९ ४०९२ ५०५३ १६०९ १७१८ ક્રૂરર स सइकरण कोउहल्ला सइकालफेडणे एसणादि सइमेव उ निग्गमणं संकतो अण्णगणं संकप्पियं व दव्वं संकप्पियंवा अहवेगपासे ६०१२ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम= २१३६ ७९५ गाथासं. १०९२ १९९२ १६०७ ५४८५ १६१६ ४२१ गाथा संजइगमणे गुरुगा संजइभावियखेत्ते संजइ संजय तह संपऽसंप संजओ दिट्ठो तह संजई संजतगणे गिहिगणे संजति कप्पट्टीए संजमअभिमुहस्स वि संजम-आयविराहण संजमकरणुज्जोवा संजम-चरित्तजोगा संजमजीवितहेर्ड संजममहातलागस्स संजमविराहणाए संजमविराहणा खलु संजमहेउं अजतत्तणं संजमहेउं लेवो संजमहेऊ जोगो संजयकडे य देसे संजयगणो तदधिवो संजय-गिहित-दुभयभद्दया संजयजणो य सव्वो संजयपंता य तहा संजयभगमुक्के संजयभहा गिहिभइगा संजुत्ताऽसंजुत्तं संजोगदिट्ठपाढी संजोग सइंगाले संजोगे समवाए संजोयणा पलंबातिगाण संजोययते कूडं संठाणमगाराई संठियम्मि भवे लाभो संडासछिड्डेण हिमादि एति संतऽन्ने वऽवराधा संतर निरंतरंवा संतविभवा जइ तवं संति पमाणातिं पमेयसंति लंभम्मि संथडमसंथडे या संथडिओ संथरेंतो संथरओ सट्ठाणं संथरणम्मि असुद्धं गाथासं. | गाथा २०५३ संथरमाणे पच्छा संथवमादी दोसा २४०७ संथारएहि य तहिं २१८२ संथारं दुरुहंतो ५५८४ संथार कुसंघाडी ५००६ संथारगअहिगारो ३७०५ संथारगं जो इतरं व मत्तं ४८४३ संथारगभूमितिगं ६४८५ संथारग्गहणीए १०३५ संथारग्गहणीए ४९४५ संथारट्ठ गिलाणे ३७०४ संथारभूमिलुद्धो ३०४५ संथारविप्पणासो २३१२ संथारुत्तरपट्टा ४५२७ संथारेगंतरिया ५२७ संथारेगमणेगे ३९५१ संथारो नासिहिती १७६१ संदसणेण पीई ५५८५ संदसणेण बहुसो २७७२ संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा ३१०६ संपत्तीइ वि असती ३००८ संपत्ती य विपत्ती २७७३ संपाइमे असंपाइमे २९७५ संपाइमे वि एवं ६४. १८७९ संबंधी सामि गुरू संबद्ध-भाविएसू संभिच्चेण व अच्छह ६३४२ संभुंजिओ सियत्ती ३९४६ संभोगो विहु तिहिं कारणेहिं ४४ संमज्जण आवरिसण ४०२३ संलवमाणी वि अहं ३९६८ संलिहियं पिय तिविहं ३१८१ संलेह पण तिभाए રર૪૭ संवच्छरंगणो वी ३७५९ संवच्छरंच रुटुं संवच्छराइं तिन्नि उ ५६७ संवच्छराणि तिन्निय ५७८५ संवट्टणिग्गयाणं ५८०७ संवट्टमेह-पुप्फा ३२४ संवम्मितु जयणा १६०८ संवासे इत्थिदोसा गाथासं. | गाथा ४७१२ संवाहो संवोढुं संविग्ग-नीयवासी ३३४० संविग्गभावियाणं ४४१४ संविग्गमगीयत्थं ३७६७ संविग्गमणुन्नाए ४६१० संविग्गमसंविग्गा ४४०४ संविग्गमसंविग्गे ४३८७ संविग्गविहाराओ ४३८९ संविग्ग संजईओ ४३९१ संविग्गा गीयत्था३८३७ संविग्गाऽसंविग्गा ४३९३ संविग्गा सिज्जातर ४६२० संविग्गेतरभाविय ३९८० संविग्गेतर लिंगी ३२२७ संविग्गेहि य कहणा ४६०५ संविग्गो दव्व मिओ ४६१६ संविग्गो मद्दविओ २२६८ संवेगं संविग्गाण १७२३ संसज्जिमम्मि देसे ३९३४ संसज्जिमेसु छुन्भइ १८५७ संसट्ठमसंसढे ९४९ संसट्ठस्स उ करणे २४०१ संसट्ठस्स उगहणे २४०४ संसत्त गोरसस्सा ३६५५ | संसत्तम्गहणी पुण ४२७४ संसत्ताइ न सुज्झइ संसत्ताऽऽसव पिसियं ५१९४ संसारदुक्खमहणो ५४५३ संसारमणवयम्गं १६८१ संसाहगस्स सोउं ३७९२ संहियकडणमादिक्खणं ३७४२ संहिया य पयं चेव ५८०३ सकवाडम्मि उ पुब्विं २००० सकुडुबो मधुराए ५७७३ सक्कपसंसा गुणगाहि ५४१७ सक्कमहादी दिवसो १९९९ सक्कय-पाययभासा४८१० सक्कयपाययवयणाण १७७९ सक्कर-घत-गुलमीसा ४८०१ सक्कारो सम्माणो २०२७ | सक्खेत्ते जदा ण लभति ५४५८ १९९० १९८९ ८८६ १९९४ २९९० १९१२ १८०६ ७३५ ५११० ૨૨૨૮ ५८७३ ५२७४ १८६८ ३६०३ ३५९३ ५८९५ ४५८ २८५७ ४७४२ ११३५ ५०१० ५३६८ ४५६७ ३०२ २९५९ ६२९२ ३५७ ५६०६ ५४० ८१८ ५४८ १८० ३०९३ १५०३ ५२९१ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९६ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. १५७८ १७९१ १२२१ ६०२९ ३१५ ૨૮દ્ર ५६२ ४९३८ ૨૮૮૦ ६४२ ५३५ ३०३ ५१८३ ૨૬૮૨ ४९९५ २५६८ ६४२५ २२४१ ३१२७ २६३१ गाथा सक्खेत्ते परखेत्ते वा सखेदणीसट्ठविमुक्कगत्तो सगड-इह-समभोमे सगणम्मि पंचराइंदियाई सगणम्मि पंचराइंदियाई सगल प्पमाण वण्णे सगलाऽसगलाइन्ने सगुरु कुल सदेसे वा सग्गाम परग्गामे सग्गामभिहडि गंठी सग्गामे सउवसए सच्चं तवो य सीलं सच्चं भण गोदावरि! सच्चित्तं पुण दुविहं सच्चित्तचित्त मीसे सच्चित्तदवियकप्पं सच्चित्ताई तिविहो सच्चित्तादि हरंती सच्चित्तादी दव्वे सच्चित्ते अच्चित्ते सच्चित्ते खुड्डादी सच्छंदओ य एवं सच्छंदवत्तिया जेहिं सच्छदेण उगमणं सच्छदेणय गमणं सजियपयट्ठिए लहुगो सज्जग्गहणा तीयं सज्झाइयं नत्थि उवस्सएऽम्हं सज्झाएणणु खिण्णो सज्झाए पलिमंथो सज्झाए वाघातो सज्झायं जाणंतो सज्झाय काल काइय सज्झायट्ठा दप्पेण सज्झायमसज्झाए सज्झायमाइएहिं सज्झाय-लेव-सिव्वणसज्झाय-संजमहिए सट्ठाण परट्ठाणे सट्ठाणे अणुकंपा सट्ठाणे पडिवत्ती गाथासं. ३२३ ४७६६ ४८५६ ३५८३ ५०७४ ५३५४ ६३०० ३८०६ १६१४ ર૪૬૮ ६४२८ ५००१ ५६५४ ७०९ ९३९ १७५५ २८२० २८२९ ५८७६ ७०५ १५५८ २५८ गाथासं. | गाथा ४२९० सट्ठाणे सट्ठाणे सडिय-पडियंण कीरइ ९९७ सड्ढा दलंता उवहिं निसिद्धा ५७५३ सड्ढेहि वा वि भणिया ५७५५ सण्णातिगतो अद्धाणितो ३८४६ सण्णायगा वि उज्जुत्तणेण १०८१ सण्णी व सावतो वा सतिकरणादी दोसा सतिकालद्धं नाउं सति-कोउगेण दुण्णि वि १८७० सति दोसे होअगतो २०८० सति लंभम्मि वि गिण्हति ६२४६ सत्त उ वासासु भवे ४३३४ सत्तऽ8 नवग दसगं ५७२७ सत्तण्हं वसणाणं १६५४ सत्त त्ति नवरि नेम्म सत्त दिवसे ठवेत्ता ५४८० सत्त दिवसे ठवेत्ता ११२२ सत्त पदा गम्मते २६९३ सत्तरत्तं तवो होइ ५०९२ सत्तरत्तं तवो होइ ३१२६ सत्तरत्तं तवो होइ ५७१६ सत्तरत्तं तवो होती ३१२४ सत्तावीस जहण्णणं ३१२३ सत्तावीस जहन्ना ९०९ सत्तेव य मूलगुणे सत्थं च सत्थवाह ३२३८ सत्थऽग्गी थंभेतुं ३७१६ सत्थपणए य सुद्धे ४२२५ सत्थपरिणादुक्कमे ३७०३ सत्थाह अट्ठगुणिया १९६५ सत्थि त्ति पंच भेया ४८५८ सत्थे अहप्पधाणा ४२७९ सत्थेणऽन्नेण गया ७४५ सत्थे विविच्चमाणे ५७७९ सत्थे विविच्चमाणे ५२८४ सत्थो बहू विवित्तो १२४० सइंच हेतुसत्थं ४४२३ सहम्मि हत्थ-वत्थादि२९७९ सहूलपोइयाओ सद्दो तहिं मुच्छति छेदणा वा गाथा सद्धाभंगोऽणुग्गाहियम्मि सद्धावुड्डी रन्नो सन्नाइसुत्त ससमय सन्नाईकयकज्जो सन्नाणेणं सण्णी सन्ना य कारगे पकरणे सन्नायग आगमणे सन्नायगेहि नीते सन्नायपल्लि णेहिं (णं) सन्निकरिसो परो होइ सन्नि खरकम्मिओवा सन्नी-अस्सन्नीणं सन्नी व असन्नी वा, सन्नीसु पढमवग्गे सपडिक्कमणो धम्मो सपडिदुवारे उवस्सए सबिइज्जए व मुंचति सब्भावमसब्भावं सब्भावमसब्भावे सम्भावमसम्भावे सब्भाविक इयरे विय सभए सरभेदादी सभयाऽसति मत्तस्स उ समणं संजय दंतं समणं संजयं दंतं समणगुणविदुऽत्थ जणो समणभडभाविएसुं समणाण उ ते दोसा समणाणं पडिरूवी समणा समणि सपक्खो समणीणंणाणत्तं समणी समण पविढे समणुन्नमसमणुन्ने समणुन्नापरिसंकी समणुन्नाऽसइ अन्ने समणे घर पासंडे समणेण कहेयव्वा समणे समणी सावग समणेहिं अभणंतो समयाइ ठिति असंखा समवाए खरसिंग ५४८६ २७६१ ४६८० ६४६१ १४३६ ५८१ ३०६९ ६२०७ ३०८१ ३३२३ ३०८५ ३०७० ४८७२ ३०१६ २९७४ ३००९ ३०२६ ५४३१ ३७९५ २११९ ३९२२ | ४५५५ १८०३ ३०९७ ३२१४ १५५० १५६८ ३२६९ રૂ૨૮૮ ५९७१ ५०५० ३०७७ ४२३४ ३७५२ १२६३ १८६२ १८१५ १७६४ ४५८९ ६२६ १८४४ १५६ ८२० १४३४ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम गाथा सम-विसमाई न पासइ सम-विसमा थेराणं समाही य भक्त्त पाणे समाही य भत्त-पाणे समि- सत्तुग- गोरस समि- चिंचिणिमादीणं समितीसु भावणासु य समितो नियमागुत्तो समुदाणं पंचो वा समुदाणि ओवणो मत्तओ समोसरणे उद्देसे समोसरणे केवइया सम्मं विवित्ता समुवद्वियं तु सम्मत्तपोग्गलाणं सम्मत्तम्मि अभिगओ सम्मत्तम्मि उल सम्मत्ते वि अजोग्गा सम्मद्दिट्ठी देवा सम्मिस्सियं वा वि अमिस्सियं वा सम्मेतर सम्म दुहा सम्मोहो मा दोह वि सयकरणे चउलडुगा सयगहणं पडिसेहति सयग्गसो य उक्कोसा सयपाग सहस्सं वा सयमवि न पियइ महिसो सयमेव आउकाल सयमेव उकरणम्मी सयमेव कोइ लुद्ध सयमेव कोइ लुद्धो सयमेव कोति साहति सयमेव दिपाठी सयमेव य देहि अंबले सरगोयरो अ तिरियं सरभेद वण्णमेवं सरभेद वण्णभेदं सरवेह आस- हत्थी सरिकप्पे सरिछंदे सरिकप्पे सरिछंदे सरिसावराधे दंडो सरिसाहिकारियं वा गाथासं ४३९० ४४०५ १५०९ ५५०६ ४७५५ ५८१० १९४५ ४४५१ ५६५९ १९५३ ४२४२ ११७६ ४३२९ १९६ ७३४ १०६ ५२११ ३१०९ ३६१४ ८९३ ५६९६ ३८७१ ४१५० ६४६२ ६०३१ ३४८ १२८४ ३६०४ २८४७ ४५९५ ५१४१ ३७८० ४३३१ गाथा सल्लुदर णक्खेण व सल्लुद्धरणे समणस्स सवणपमाणा वसही सवणपमाणा वसही सविसाणे उड्डाहो सविसेसतरा बाहि सव्वंगिओ पतावो सव्वंगियं तु महणं सव्वं नेयं चउहा सव्वं पिय संस सव्वं व देसविरइं सव्वचरितं भस्मति सव्वजईण निसिद्धा सव्वजगज्जीवहियं सव्वज्झयणा नामे सव्वत्थ अविसमत्तं सव्वत्य पुच्छणिज्जो सव्वत्थ वि आयरिओ सव्वत्थामेण ततो सव्वन्नुपमाणाओ सव्वन्नुप्पामन्ना सव्वपयत्तेण आहे सव्वभूतऽप्यभूतस्स सव्वम्मि उचउलहुया सव्वम्मि पीए अहवा बहुम्मि सव्वसुरा जइ रूवं सव्वस्सं हाऊणं सव्वस्स छड्डण विगिंचणा सव्वस्स वि कायव्वं सब्वाउअं पि सोया सव्वाणि पंचमो तद्दिणं सव्वारंभ- परिग्गह- शिक्रखेवो सव्वा वि तारणिन्जा ६७५ सव्वासु पविद्वासुं ६२९० सव्वाहिं संजतीहिं ६३०४ सब्वेगत्था मूलं १२९० सव्वे चरितमंतो व ६४४५ सव्वे दट्ठे उम्गाहिएण ६४४६ सव्वे वा गीयत्था ५७८० ५६८५ सव्वे वा गीयत्था सव्वे वितत्य संगति गाथासं, ६१८० ३९९ ५६७३ ५६७४ ५९६९ १३३८ गाथा सव्वे वि तारणिज्जा सच्चे वि पडिगए ६१८ २९३६ ४६४७ सव्वे वि मरणधम्मा सव्वे समणा समणी सव्वेसि गमणे गुरुमा सव्वेसि तेसि आणा सब्बे वि चउगुरुगा सव्वेसु वि संघयणेसु सव्वेहिं पगारेहिं सव्वेहिवि गहियम्मी ५९४९ ६१९२ ९६२ १७४४ ११९१ ४९७३ ५३५५ २००९ २६७ १२०३ ३५७५ ४३४९ ३१०७ ३१७ ३४६ १४०३ ४५८६ १६८० ३४१६ ११९६ ४४३२ ५८१३ ५४२४ १२०६ १८३५ सागारऽकडे लहुगो ४५८५ ४३४० २३३९ ६३९९ ६०८२ ६४५४ १५७७ सव्वेहि वि घेत्तव्वं सव्वो लिंगी असिहो ससकरे कंटइले य गग्गे ससमय परसमयविऊ ससरक्खे ससिणिद्धे ससहाय अवत्तेणं ससिणेहो असिणेहो ससिपाया विससंका सस्सगिहादीणि दहे सहजायगाइ मित्ता सहणोऽसहणो कालं सहवड्डियाऽणुरागो सहसाणुवादिणाण सहसा व उम्गाहिएण सहसुप्पइअम्मि जरे सहिरन्नगो सगंथो सहु असहुस्स वि तेण वि साऊ पिडि साएयम्मि पुरवरे सागरिय- संजयाणं सागारिअणापुच्छण सागारिअपुच्छगमणम्मि सागारिउ ति को पुण सागारिए असंते सागारिए परम्मुह सागारिगी उग्गहमग्गणेयं सागारिपच्चट्ठा सागारि पुत्त-भाउग सागारिव आपुच्छण सागारिय उन्ह ठिए ७९७ गाथासं. ४३३७ १२३८ ५५१७ ५३५० ३१४६ ३५४२ २३०३ १६२८ ५७११ ४९९९ ४९९८ ४६९९ ३२४८ २४४ ५३७ ५४०५ ६०२५ २३१४ ६२११ ८२९ २६९२ १३५० ४२०८ १५३६ ९४८ ८२४ ५४९६ ९८७ ३२६१ ५४९ ४१६२ १५३२ १५३३ ३५१९ २०८६ २०७५ ४७७७ २३७१ ३५४७ १५३१ ५८८० Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ बृहत्कल्पभाष्यम् २४३६ गाथासं. ५६३० ५१९८ ५१९२ ५२९९ ६३६१ ८३२ ५९९६ गाथा सागारियं अनिस्सा सागारियं अनीसा सागारियं निरिक्खति सागारियनिक्खेवो सागारियमप्पाहण सागारियसंकाए सागारिय संदिद्वे सागारिय सज्झाए सागारिय सव्वत्तो सागारियस्स अंसिय सागारियस्स णामा सागारिसंति विकरण सागारिसहिय नियमा सा जेसि उवट्ठवणा साडऽब्भंगण-उव्वलणसाणुप्पगभिक्खट्ठा साधारण आवलिया साधारणे वि एवं साभाविय तन्नीसाए साभाविया व परिणामिया सा मंदबुद्धी अह सीसकस्स सा मग्गइ साधम्मि सामत्थण परिवच्छे सामत्थ णिव अपुत्ते सामन्न विसेसेण य सामन्नाजोगाणं सामाइए य छेदे सामाइयस्स अत्थं सामायारिकडा खलु सामायारिमगीए सामायारी पुणरवि सामित्तकरणअहिगरणतो सामिद्धिसंदसणवावडेण सामी अणुण्णविज्जइ सारक्खह गोणाई सारिक्खएण जंपसि सारिक्ख-विवक्खेहि य सारुवि गिहत्थ (मिच्छे) सालाए कम्मकरा सालाए कम्मकरा सालाए पच्चवाया गाथासं.] गाथा साला य मज्झ छिंडी २४३५ सालि-जव अच्छि सालुग ५१६० साली घय गुल गोरस २४५० सालीणं वीहीणं २३९ सालीहिं व वीहीहिंव ४६६९ सालीहिं वीहीहिं ३५२६ सालुच्छूहि व कीरति २३७८ सावगभज्जा सत्तवइए सावग-सण्णिट्ठाणे ३६४४ सावज्जेण विमुक्का ३५२१ सावय अण्णटुकड़े ४६११ सावय-तेणपरद्धे सावय-तेणपरद्धे ६४०९ सावय तेणा दुविहा १९२५ सावय तेणे उभयं १९७६ सावयभय आणिंति व ६७३ साविक्खेतरणद्वे १०८३ सासवणाले छंदण .५५५ सासवणाले मुहणंतए ५९०६ साहति य पियधम्मा ३२५६ साहम्मि अण्णधम्मिय ३८०४ साहम्मिओ न सत्था २१४२ साहम्मि तेण्ण उवधी ४९४९ साहम्मिय-उन्नधम्मिय ४५ साहम्मियाण अट्ठा ७०१ साहम्मि-वायगाणं ६३५७ साहारणं तु पढमे साहारण ओसरणे २२१० साहारणम्मि गुरुगा १४७१ साहारणाऽसवत्ते १६५७ साहू गिण्हइ लहुगा साहू जया तत्थ न होज्ज कोई ३१७२ साहूणं पि य गरिहा ४७७४ साहूणं वसहीए १३९४ साहूण देह एवं ६३०३ साहू निस्समनिस्सा सिंगक्खोडे कलहो ४९३९ सिंगाररसुत्तुइया २६३४ सिंगारवज्ज बोले २६६९ सिंघाडगं तियं खलु २६३३ सिंचण-वीई-पुट्ठा गाथासं. | गाथा २६३२ सिंचति ते उवहिं वा ३३०७ सिक्खावणं च मोत्तुं ५३४१ सिक्खाविओ सियत्ती ३३६८ सिक्खियव्वं मणूसेणं ३३०१ सिग्यतरं ते आता ३३०० सिज्जायरपिंडे या ३४०३ सिज्जायरेऽणुसासइ १७२ सिज्जा संथारो या ४८३६ सिट्ठम्मि न संगिण्हति सिद्धत्थए वि गिण्हइ ३१०३ सिद्धत्थगजालेण व ३१०४ सिद्धत्थग पुप्फे वा सिद्धी वीरणसढए ४३७६ सिप्पंणेउणियट्ठा ५६३४ सिय कारणे पिहिज्जा ३४५८ सिहरिणिलंभाऽऽलोयण ४७६१ सी-उण्ह-वासे य तमंधकारे ४९८८ सीतंति सुवंताणं ४९८७ सीतजलभावियं अविगते १६०२ सीताइ जन्नो पहुगादिगा वा ४७४६ सीतोदे उसिणोदे १७८२ सीया वि होंति उसिणा सीलेह मंखफलए ५१२४ सीसं इतो य पादा १७७४ सीसगता वि ण दुक्खं १७९९ सीसा पडिच्छगाणं ५४०७ सीसा वि य तूरंती १९८१ सीसावेढियपुत्तं ३३०६ सीसे जइ आमते १२०५ सीसोकंपण गरिहा २३६५ सीसोकंपण हत्थे ४१८० सीहं पालेइ गुहा २३१७ सीहगुहं वग्घगुहं ३३८० सीहम्मि व मंदरकंदराओ ३२८० सुअवत्तो वतऽवत्तो २४४६ सुंकादीपरिसुद्धे १४९४ सुकुमालग! भइलया! ४५८८ सुक्किंधणम्मि दिप्पइ રર૭૩ सुक्खिधण-वाउबला२३०० सुक्खोदणो समितिमा २३८६ | सुक्खोल्लओदणस्सा ५०६३ ४५९९ ५५७९ २३१ ३८२९ २८९७ ४२२९ ५१०९ २३५५ ४९९२ ३२४७ ३३८३ ४०३८ ३६४७ ३४२० ५९०७ १८१० ४३८८ ५६२९ ३५५ ३७५ ६३६६ १४५७ ४७३२ ४७३६ २११४ ५४६४ १३७५ ५४७८ ९५२ ११५९ १२४७ २१५३ ३०९९ ४०६८ १५२ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रम: ७९९ गाथासं. ५७८९ ५४४९ ३७४८ ५४४४ ३५२५ ३३९२ ४१८४ ४३६८ २९९६ ६७४ गाथा सुचिरेण वि गीयत्थो सुटु कयं आभरणं सुट्ठ कया अह पडिमा सुणतीति सुयं तेणं सुणमाणा वि न सुणिमो सुण सावग! जंवत्तं सुण्णघरादीणऽसती सुतअव्वत्तो अगीतो सुतजम्म-महुरपाडणसुत्तं अत्थो य बहू सुत्तं कुणति परिजितं सुत्तं णिरत्थगं खलु सुत्तं तु सुत्तमेव उ सुत्तं तू कारणियं सुत्तं निरत्थगं कारणियं सुत्तं पडुच्च गहिते सुत्तं पमाणं जति इच्छितं ते सुत्तं पयं पयत्थो सुत्तणिवातो थेरी सुत्त-ऽत्थतदुभयविऊ सुत्त-ऽत्थ-तदुभयविसारए सुत्त-ऽत्थ-तदुभयविसारयम्मि सुत्त-उत्थ-तदुभयाई सुत्त-ऽत्थथिरीकरणं सुत्तत्थपोरिसीओ सुत्तत्थ सावसेसे सुत्त-ऽत्थाणं गहणं सुत्तत्थाणि करिते सुत्तत्थे अइसेसा सुत्तत्थे अकरिता सुत्त-ऽत्थे कहयंतो सुत्त-ऽत्थे पलिमंथो सुत्तत्थो खलु पढमो सुत्तनिवाओ पासेण सुत्तनिवाओ पोराण सुत्तनिवाओ वुड्ढे सुत्तभणियं तु निद्धं सुत्तमई रज्जुमई सुत्तम्मि कड्डियम्मि सुत्तम्मि कड्डियम्मि सुत्तम्मि कड्डियम्मी गाथासं. | गाथा १६९५ सुत्तम्मि य गहियम्मी २४६० सुत्तम्मि होइ भयणा २४९३ सुत्तस्स कप्पितो खलु १४७ सुत्ताइ अंबकंजिय४८३४ सुत्ताइरज्जुबंधो ३३८९ सुत्ते अत्थे तदुभय ५८७९ सुत्तेणेव उ जोगो ५३८७ सुत्तेणेव य जोगो દ્રક सुत्तेणेवऽववाओ ५६९० सुत्ते सुत्तं बज्झति ४०७ सुद्धम्मि य गहियम्मी ४१५९ सुद्धुल्लसिते भीए ३१० सुद्धुल्लसिते भीए १००२ सुद्धे सही इच्छकारे २९२७ सुन्नं द8 बडुगा ५८१२ सुन्ना पसुसंघाया ३६२७ सुन्नो चउत्थ भंगो ३०९ सुयखंधो अज्झयणा ४१७९ सुयभावणाए नाणं ५५३० सुय संघयणुवसग्गे ४६५१ सुय संघयणुवसग्गे २७८५ सुय सुत्त गंथ सिद्धंत सुय सुह-दुक्खे खेत्ते १२३२ सुरजालमाइएहिं १४७८ सुवइ य अयगरभूओ २०१५ सुवति सुवंतस्स सुतं ६०९४ सुव्वत्त झामिओवधि १४७७ सुहपडिबोहो निहा १२३५ सुहमेगो निच्छुब्भइ १४७९ सुहविण्णप्पा सुहमोइगा य २१४ सुहविन्नप्पा सुहमोइगा ५६२६ सुहविन्नवणा सुहमोयगा सुहसज्झो जत्तेणं २६७३ सुहसाहगं पि कज्ज ३५११ सुहिया मो त्ति य भणती ३८३६ सूइज्जइ सुत्तेणं ६००८ सूईसुपि विसेसो २३७४ सूरत्थमणम्मि उणिग्गयाण ५८६५ सूरमणी जलकंतो ६०१८ सूरुग्गए जिणाणं ५४७१ सूरुदय पच्छिमाए गाथासं. | गाथा १२१९ सूरे अणुग्गतम्मि सेज्जायरकप्पट्ठी ४०६ सेज्जायराण धम्म ५९०४ सेज्जायरिमाइ सएज्झए २३३३ सेज्जायरोपभूवा ४०५ सेज्जायरो य भणती ५३३९ सेज्जायरोव सण्णी ३००१ सेज्जासंथारो या ५९८९ सेडुय रूए पिंजिय ४८७७ सेढीइ दाहिणेणं ५९०० सेढीठाणठियाणं ४९५२ सेढीठाणठियाणं ४९६५ सेढीठाणठियाणं १८७४ सेढीठाणे सीमा ५४७ सेणाए जत्थ राया २४४० सेणाणुमाणेण परं जणोऽयं १८५५ सेणादी गम्मिहिई २५२ सेणावतिस्स सरिसो १३४४ सेयं व सिंधवण्णं १३८२ सेल-कुडछिद्द-चालिणि १६२४ सेलघण कुडग चालिणि १७४ सेलपुरे इसितलागम्मि ५४२३ सेले य छिद्द चालिणि १३०१ सेवगभज्जा ओमे ३३८७ सेविज्जंते अणुमए ३३८४ सेसाणं संसट्ठ ५०७१ सेसे वि पुच्छिऊणं २४०० सेसे सकोस मंडल १२७३ सेसेसु उ सब्भावं २५४४ सेसेसु फासुएणं २५२७ सेहं विदित्ता अतितिव्वभावं २५०५ | सेह गिहिणा व दिद्वे २१९ सेहस्स व संबंधी ९४४ सेहस्स विसीयणया १८८७ सेहाई वंदंतो सेहो त्ति अगीयत्थो ३९४४ सो अहिगरणो जहियं ३५३८ सोउं अणभिगताणं ३१४ सोउं तुट्ठो भरहो १६६१ सोऊण अट्ठजायं १९८२ | सोऊण आहसम सोऊण अहिसमेच्च व ४५०३ ४५०४ ४५१५ ४५३२ ४८७५ २२२० ४७९६ પુર૨૨ ४१७० ३६२ ३३४ ३१५० ३४३ દ૨૮૭ ४१४३ ५००३ ४९४ ४८४५ ४७३१ ५८६ ३२०५ ६००६ २०९ ३४३९ ५१३५ ५०६५ १८२ ७८४ ४७८६ ६२९८ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०० =बृहत्कल्पभाष्यम् गाथासं. ९७४ ३०३८ ३०२९ ४४८५ ४७४८ ४८११ ९२५ ७४१ ४१५७ ७४८ ६०५५ ४५२५ ६०० ५५१९ गाथा सोऊण ऊ गिलाणं सोऊण ऊ गिलाणं सोऊण ऊ गिलाणं सोऊण ऊ गिलाणं सोऊण ऊ गिलाणं सोऊण कोइ धम्म सोऊण दोन्नि जामे सोऊणभरहराया सोऊण य घोसणयं सोऊण य पन्नवणं सोऊण य पासित्ता सोऊण य समुदाणं सोगंधिए य आसित्ते सो चरणसुट्ठियप्पा सो चेव य पडियरणे सो चेव य संबंधो सोच्चा उ होइ धम्म सोच्चा गत त्ति लहुगा सोच्चा पत्तिमपत्तिय सोच्चाऽभिसमेच्चा वा सोच्चा व अभिसमेच्च व सोणिय-पूयालित्ते सो तं ताए अन्नाए सो तत्थ तीए अन्नाहि सो निच्छुब्भति साहू सो निज्जई गिलाणो सो निज्जराए वट्टति सो परिणामविहिण्णू सोपारयम्मि नगरे सो पुण आलेवो वा सो पुण इंधणमासज्ज सो पुण दुग्गे लग्गेज्ज सो भणइ कओ लद्धो सो भविय सुलभबोही गाथासं. गाथा १८७१] सो मग्गति साहम्मि १८७२ सोय-सुय-घोररणमुह१८७५ सो रायाऽवंतिवती १८७७ सो वट्टइ ओदइए ३७६९ सो वि य कुटुंतरितो ४१९७ सो वि य गंथो दुविहो २३४३ सो वि य नत्तं पत्तो ४७७९ सो वि य सीसो दुविहो सो समणसुविहितेसुं २९६४ ३७८८ २१३४ ५१६७ हंत म्मि पुरा सीह १२५० हंतुं सवित्तिणिसुयं ५२६२ हणु ताव असंदेहं રૂરરર हत-महित-विप्परद्धे ११३४ हत्थं वा मत्तं वा ४६०० हत्थं हत्थं मोत्तुं ५४५ हत्थद्धमत्त दारुग ११३३ हत्थपणगं तु दीहा १३४ हत्थाईअक्कमणं ३८४० हत्थाताले हत्थालंबे १८२३ हत्थातालो ततिओ २६७१ हत्थायामं चउरस हत्थेण व पादेण व १९७९ हत्थे य कम्म मेहुण ३७८४ हत्थो लंबइ हत्थं ३७७५ हत्थोवघाय गंतूण २५०६ हयनायगा न काहिंति १०३१ हरंति भाणाइ सुणादिया य २१४८ हरिए बीए चले जुत्ते ६१८२ हरिए बीए चले जुत्ते ३४०० हरिए बीए पतिट्ठिय ७१४] हरियच्छेअण छप्पइ गाथासं. | गाथा ३७९३ हरियाल मणोसिल पिप्पली ५२३२ हरियाहडियट्ठाए ३२८३ हरियाहडिया सुविहिय! २७३० हाउं परस्स चक्खु २६२५ हाउं व जरेउं वा ८२३ हाणी जावेकट्ठा ३००० हायंते परिणाम ७७३ हिंडउ गीयसहाओ ५१६१ हिंडामो सच्छंदा हिंडाविति न वाणं हिज्जो अह सक्खीवा हिट्ठट्ठाणठितो वी २९६५ | हिट्ठिल्ला उवरिल्लाहि २८४४ हिम-तेण-सावयभया ५३२३ हियसेसगाण असती ५२५८ हिरन्न-दारं पसु-पेसवग्गं १८२० हीणप्पमाणधरणे ४७९४ हीणाऽदिरेगदोसे १९५७ हीरेज्ज व खेलेज्ज व २३७५ हुंडादि एकबंधे २६४० हुण्डे चरित्तभेओ ५१०३ हेट्ठउवासणहेडं ५१२१ हेट्ठाऽणंतरसुत्ते ४४९ हेट्ठा तणाण सोहण ५१०५ हेट्ठा वि य पडिसेहो ४८९४ हेट्ठिल्ला उवरिल्लेहि ५६७७ | होइ असीला नारी होइ पयत्थो चउहा ३००७ होति बिले दो दोसा ३४९४ होति हुपमाय-खलिया ५०० होज्ज न वा वि पभुत्तं ४०७६ होहिइ व नियंसणियं होहिंति णवग्गाई १५३७ होहिंति न वा दोसा ४३२८ ४००५ ४०१७ १४६७ ४०३० ४०२४ २०६७ ४८७९ ३४७१ ३२४१ ६७० ५५७५ ૨૮૨ ३२६ ४५१ १२७६ २१६६ ६४६ ४७१६ ३१७५ ५०१ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परंपरा में मुख्यरूप से चार भाष्य प्रचलित हैं-दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ। इनका नि!हण पूणे से हुआ, इसलिए इनका बहुत महत्त्व है। इनके निर्वृहणकर्ता भद्रबाहु 'प्रथम' माने जाते हैं। 'बृहत्कल्पभाष्य के प्रणयिता संघदास-गणी हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के टीकाकार आचार्य मलयगिरि और आचार्य क्षेमकीर्ति हैं। मलयगिरि ने प्रारंभिक ६०६ गाथाओं की टीका लिखी। तत्पश्चात् क्षेमकीर्ति ने उसे आगे बढ़ाकर टीका संपन्न की। शिष्य ने प्रश्न किया कि मूल आगमों के होते हुए छेदसूत्रों का क्या महत्त्व है? आचार्य कहते हैं-अंग, उपांग आदि मूलसूत्र हैं। वे मार्गदर्शक और प्रेरक हैं। परन्तु यदि साधु संयम में स्खलना करता है और वह अपनी स्खलना की शुद्धि करना चाहता है तो वे मूल आगम उसको दिशा-निर्देश नहीं दे सकते। दिशा-निर्देश और स्खलना की विशुद्धि छेदसूत्रों द्वारा ही हो सकती है। वे प्रायश्चित्तसूत्र हैं और प्रत्येक स्खलना की विशोधि के लिए साधक को प्रायश्चित्त देकर स्खलना का परिमार्जन और विशोधि कर साधक को शुद्ध कर देते हैं, इसीलिए उनका महत्त्व है। भाष्यों की वाचना के विषय में कहा जाता है कि हर किसी को, हर किसी वेला में इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए। ये रहस्य सूत्र हैं। सामान्य आगमों से इनकी विषयवस्तु भिन्न है। इनमें उत्सर्ग और अपवाद-विषयक अनेक स्थल हैं। हर कोई उन स्थलों को पढ़कर या सुनकर पचा नहीं सकता और तब वह निर्ग्रन्थ प्रवचन से विमुख होकर स्वयं भ्रांत होकर, अनेक व्यक्तियों को भ्रांत कर देता है, इसीलिए इनकी वाचना के विषय में पात्र-अपात्र का निर्णय करना बहुत आवश्यक हो जाता है। गृहस्थों को तो इनकी वाचना देनी ही नहीं है, साधुओं में सभी साधु इनकी वाचना देने योग्य नहीं होते। सम्पादकीय से.. Jain Education international For Private & Personal use only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित आगम साहित्य वाचना प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक - विवेचक : आचार्य महाप्रज्ञ 500 ठाणं 500 नंदी 400 500 Goo (मूल पाठ पाठान्तर शब्द सूची सहित) ग्रंथ का नाम मूल्य * अंगसुत्ताणि भाग-१ (दूसरा संस्करण) 700 (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ) अंगसुत्ताणि भाग-२ (दूसरा संस्करण) 700 (भगवई-विआहपण्णत्ती) अंगसुत्ताणि भाग-३ (दूसरा संस्करण) 500 (नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्णावागरणाई, विवागसुयं) उवंगसुत्ताणि खंड-१ 500 (ओवाइयं, रायपसेणइयं, जीवाजीवाभिगम) उवंगसुत्ताणि खंड-२ 600 (पण्णवणा, जंबूद्दीवपण्णत्ती, चंदपण्णत्ती, कप्पवडिं सियाओ, निरयावलियाओ, पुफ्फियाओ, पुफ्फचूलियाओ, वण्हिदसाओ) नवसुत्ताणि (द्वितीय संस्करण) 665 (आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, नंदी, अणुओगदाराई) कोश आगम शब्दकोष 300 (अंगसुत्ताणि तीनों भागों की समग्र शब्द सूची) श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-१ 500 * श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-२ 500 देशी शब्दकोश 100 निरुक्त कोश 60 एकार्थक कोश जैनागम वनस्पति कोश (सचित्र) जैनागम प्राणी कोश (सचित्र) जैनागम वाद्य कोश (सचित्र) 250 अन्य भाषा में आगम साहित्य भगवती जोड़ खंड-१ से 7 श्रीमज्जयाचार्य सेट का मूल्य 2600 आयारो (अंग्रेजी) 250 आचारांगभाष्यम् (अंग्रेजी) 400 भगवई खंड-१ (अंग्रेजी) 500 उत्तरज्झयणाणि भाग-१, 2 (गुजराती)१००० * सूयगडो (गुजराती) (मल, छाया, अनुवाद, टिप्पण, परिशिष्ट-सहित) ग्रंथ का नाम मूल्य आयारो 200 आचारांगभाष्यम् सूयगडो (तीसरा संस्करण) 600 700 समवाओ (दूसरा संस्करण) प्रेस में भगवई (खंड-१) भगवई (खंड-२) 665 भगवई (खंड-३) भगवई (खंड-४) 500 भगवई (खंड-५) प्रेस में 300 अणुओगदाराई दसवेआलियं (तीसरा संस्करण) उत्तरज्झयणाणि (चौथा संस्करण) 600 नायाधम्मकहाओ दसवेआलियं (गुटका) उत्तरज्झयणाणि (गुटका) 25 अन्य आगम साहित्य * नियुक्तिपंचक (मूल, पाठान्तर) 500 सानुवाद व्यवहार भाष्य 500 व्यवहार भाष्य (मूल, पाठान्तर, भूमिका, परिशिष्ट) बृहत्कल्पभाष्यम् खण्ड-१ (सानुवाद) 500 बृहत्कल्पभाष्यम् खण्ड-२ (सानुवाद) 500 गाथा (आगमों के आधार पर भगवान महावीर का जीवन दर्शन रोचक शैली में) आत्मा का दर्शन 500 (जैन धर्म : तत्त्व और आचार) प्राप्ति स्थान : जैन विश्व भारती लाडनूं - 341306 (राज.) ISBN - 81-7195-133-3 700 70 300 250 350