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= बृहत्कल्पभाष्यम्
से विद्ध हो जाता है, विषम स्थान में स्खलित हो जाता है, अभिहनन आदि दोषों को नहीं देखता-यह आत्मविराधना है। ईर्या का शोधन नहीं करता, भाजन से भक्त-पान झरता है, यह देखकर चोर उसका हरण कर सकते हैं, भाजनभेद हो सकता है, षट्कायविराधना होती हैं-यह संयमविराधना है। ४००८.गुरु पाहुण खम दुब्बल, बाले वुड्ढे गिलाण सेहे य।
लाभाऽऽलाभऽद्धाणे, अणुकंपा लाभवोच्छेदो।। गुरु, प्राघुणक, क्षपक, दुर्बल, बाल, वृद्ध, ग्लान और शैक्ष-प्रमाणहीन भाजन रखने से इनका उपष्टंभ नहीं होता। लाभ-अलाभ की परीक्षा कैसे? अध्वा में कोई अनुकंपा से देना चाहे तो लघु भाजन में लाभ का व्यवच्छेद होता है।
प्रमाणातिरिक्त पात्र को धारण करने पर चार उद्घातिक मास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष और आत्मविराधना तथा संयमविराधना होती है। ४००२.गणणाए पमाणेण य,गणणाए समत्तओ पडिग्गहओ।
पलिमंथ भरुटुंडुग, अतिप्पमाणे इमे दोसा॥ पात्र का प्रमाण गणना और प्रमाण से होता है। गणना में मात्रकसहित पात्र मानना चाहिए। इससे अधिक रखने पर परिमंथ, भार तथा उडुण्डुक जनोपहास होता है। अतिप्रमाण में रखने पर ये दोष होते हैं। ४००३.भारेण वेयणा वा, अभिहणमाई ण पेहए दोसा।
रीयाइ संजमम्मि य, छक्काया भाणभेओ य॥ भार से वेदना, अभिहनन आदि, प्रेक्षा संबंधी दोष-ये आत्मविराधना संबंधी दोष हैं। संयमविराधना संबंधी ये दोष होते हैं-ईर्या आदि का शोधन नहीं करता, षट्काय की विराधना होती है, भाजन टूट सकता है। ४००४.भाणऽप्पमाणगहणे, भुंजणे गेलन्नऽभुंज उज्झिमिगा।
एसणपेल्लण भेओ, हाणि अडते दुविह दोसा॥ अप्रमाणयुक्त भाजन के ग्रहण से ये दोष होते हैं-बृहत्तर भाजन के कारण अतिमात्र भोजन से ग्लानत्व हो सकता है। न खाने से परिष्ठापनिका करनी होती है। उस भाजन से एषणा में पीड़ा होती है। पात्र टूट सकता है। पात्र के बिना कार्यहानि होती है। बृहदाकार भाजन से दोनों दोष-आत्मविराधना और संयमविराधना-होते हैं। आत्मविराधनाअतिभार से कटि-स्कंध आदि में पीड़ा तथा संयमविराधनाईर्या आदि अशोधन, षट्काय की विराधना। ४००५.हीणप्पमाणधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया।
आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए॥ हीनप्रमाण वाले पात्र के धारण पर चार उद्घातिम मास का प्रायश्चित्त आता है। तथा आज्ञाभंग आदि दोष और आत्मविराधना और संयमविराधना-दोनों होती हैं। ४००६.ऊणेण न पूरिस्सं, आकंठा तेण गिण्हती उभयं। __मा लेवकडं ति पुणो, तत्थुवओगो न भूमीए॥
ऊन अर्थात् अभरित पात्र से मेरी पूर्ति नहीं होगी, यह सोचकर वह भाजन को आकंठ तक ओदन और कुसण-दोनों से भर देता है। अतः पात्रबंध लेपकृत न हो इसलिए वह पात्र से निकलने वाले कुसण आदि का पात्रबंध को खरंटित करने में उपयोग करता है, भूमी पर नहीं गिराता। ४००७.खाणू कंटग विसमे, अभिहणमाई ण पेहए दोसे।
रीया पगलिय तेणग, भायणभेए य छक्काया॥ जो ईर्या में अनुपयुक्त होता है, वह स्थाणु, कंटक आदि
४००९.गुरुगा य गुरु-गिलाणे,
पाहुण-खमए य चउलहू होति। सेहस्स होइ गुरुओ,
दुब्बल जुयले य मासलहू॥ गुरु और ग्लान का उपष्टंभ न करने पर चार गुरुमास, प्राघुणक और क्षपक का उपष्टंभ न करने पर चार लघुमास, शैक्ष का न करने पर मासगुरु और दुर्बल, बाल और वृद्ध का उपष्टंभ न करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४०१०.अप्प-परपरिच्चाओ, गुरुमाईणं अदेंत-देंतस्स।
अपरिच्छिए य दोसा, वोच्छेओ निज्जराऽलाभे॥ लघुतर भाजन में गृहीत यदि गुरु आदि को देता है तो आत्मपरित्याग अर्थात् स्वयं के लिए कुछ नहीं बचता और यदि नहीं देता है तो गुरु आदि उपष्टंभ नहीं होता। क्षेत्रप्रत्युपेक्षण के लिए गया हुआ मुनि लघुपात्र के कारण लाभअलाभ की परीक्षा कैसे कर सकता है? ये दोष होते हैं। लघुपात्र के कारण भक्तपान के लाभ का तथा निर्जरा का व्यवच्छेद होता है। इसके अन्य दोष भी हैं, जैसे४०११.लेवकडे वोसटे, सुक्खे लग्गे य कोडिते सिहरे।
एए हवंति दोसा, डहरे भाणे य उड्डाहो॥ उस लघु भाजन से तरल पदार्थ व्युत्सृष्ट-बाहर निकल कर पात्र को लिप्त कर देते हैं, अतः वह उस भाजन में शुष्क भक्त ही लेता है। उसको खाने पर वह कंठ या उदर में लग जाता है, चिपक जाता है। उससे अजीर्ण होता है। कोडित-गाढ़रूप से चिपक जाने पर जठराग्नि मंद हो जाती है। वह मुनि उस लघु भाजन में शुष्क आहार को शिखर तक भर लेता है। लोग उसका उड्डाह करते हैं। लघु भाजन के ये दोष होते हैं।
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