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________________ तीसरा उद्देशक = ४०१२.धुवणा-ऽधुवणे दोसा, वोसटुंते य काय आउसिणे। सुक्खे लग्गाऽजीरग, कोडिय सिहरे य उड्डाहो। उस खरड़े हुए भाजन को धोने और न धोने में भी दोष हैं। धोने से पानी का बहाव होता है और न धोने से रात्रीभोजनव्रत का भंग होता है। पात्र से गिरते हुए भक्त-पान से षट्काय की विराधना होती है। गिरते हुए उष्ण द्रव्य से स्वयं की विराधना होती है। शुष्क भोजन गले आदि में चिपक जाने पर अजीर्ण रोग होता है। गाढ़रूप में चिपक जाने पर अग्निमांद्य पैदा करता है। पात्र को शिखर तक भरने से उड्डाह होता है। ४०१३.तिन्नि विहत्थी चउरंगुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं। एत्तो हीण जहन्नं, अतिरेगयरं तु उक्कोसं॥ पात्र की परिधि डोरे से मापी जाए। यदि वह डोरी तीन वितस्ति और चार अंगुल की होती है तो वह भाजन का मध्यमप्रमाण है। मध्यमप्रमाण से हीन पात्र जघन्यप्रमाण वाला है और मध्यमप्रमाण से अतिरिक्ततर हो तो वह उत्कृष्ट प्रमाण वाला है। ४०१४.उक्कोसतिसामासे, दुगाउअद्धाणमागओ साहू। चउरंगुलवज्जं भत्त-पाण पज्जत्तियं हेट्ठा।। उत्कृष्ट तृषामास वह होता है जिसमें प्रबल प्यास लगती है। वे दो मास हैं-जेठ और आषाढ़। उस काल में दो कोश मार्ग पर चलकर आए हुए मुनि के लिए ऊपर से चार अंगुल वयं, नीचे से पूरा भक्त-पान से भरा हुआ पात्र पर्याप्त होता है। यह उसके पात्र का प्रमाण है। ४०१५.एयं चेव पमाणं, सविसेसयरं अणुग्गहपवत्तं। कंतारे दुब्भिक्खे, रोहगमाईसु भइयव्वं॥ जिसके भाजन का यही प्रमाण सविशेषतर होता है वह गच्छ के अनुग्रह के लिए प्रवर्तित होता है। कान्तार, दुर्भिक्ष, नगरावरोध आदि के समय ऐसे भाजन का उपयोग किया जाता है। ४०१६.अन्नाणे गारवे लुद्धे, असपत्ती य जाणए। लहुओ लहुया गुरुगा, चउत्थो सुद्धो उ जाणओ॥ अज्ञानवश हीनाधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करने पर लघु मास, गौरव के कारण धारण करने पर चतुर्लघु, लोभवश करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। पात्र की असंप्राप्ति के कारण हीनाधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करने वाला शुद्ध है। पात्र के लक्षणों का ज्ञायक यदि हीनाधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करता है तो वह भी शुद्ध है। ४०१७.हीणा-ऽदिरेगदोसे, अजाणओ सो धरिज्ज हीण-ऽहियं। पगईय थोवभोगी, सति लाभे वा करेतोमं ।। जो मुनि पात्र के हीन और अतिरिक्त विषयक दोषों को नहीं जानता वह हीन-अधिक प्रमाण वाला पात्र धारण करता है। जो मुनि स्वभावतः अल्पभोजी है और वह ऋद्धिगौरव के कारण भक्त-पान का प्रचुर लाभ होने पर भी 'यह मुनि अल्पाहारी है' यह दिखाने के लिए पात्र में स्वल्प लेता है। ४०१८.ईसरनिक्खंतो वा, आयरिओ वा वि एस डहरेणं । इति गारवेण ओम, अइप्पमाणं चिमेहिं तु॥ ४०१९.अणिगूहियबल-विरिओ, वेयावच्चं करेति अहो! समणो। मम तुल्लो न य कोयी, पसंसकामी महल्लेणं॥ शिष्य ने पूछा-उसका ऋद्धिगौरव क्या है? आचार्य कहते हैं-वह ईश्वरनिष्क्रान्त अर्थात् राजा आदि महर्द्धिक व्यक्ति प्रव्रजित हो, अथवा वह आचार्य हो-लोग देखकर कहते हैं-'इतने लघु भाजन से भिक्षा में पर्यटन कर रहे हैं। इस प्रकार की गौरव प्राप्ति के लिए अवम भाजन धारण करते हैं। अतिप्रमाण वाले पात्र को धारण करने का यह कारण हो सकता हैं-अहो! यह श्रमण अपने बल और वीर्य को छुपाने वाला नहीं है इसलिए यह बृहद् भाजन से समस्त गच्छ की वैयावृत्य करता है। मेरे सदृश कोई नहीं है इस प्रकार की प्रशंसा का कामी वह मुनि महत् प्रमाण वाला भाजन धारण करता है। ४०२०.अंतं न होइ देयं, थोवासी एस देह से सुद्धं । उक्कोसस्स व लंभे, कहि घेच्छ महल्ल लोभेणं॥ लघु भाजन वाले मुनि को देखकर गृहस्वामी कहता है-देखो! यह मुनि अल्पाहारी है। इसको अन्त-प्रान्त भोजन मत देना। इसको शुद्ध अर्थात् उत्कृष्ट द्रव्य देना। उत्कृष्ट द्रव्य का लाभ होने पर, वह मुनि सोचता है-ऐसा द्रव्य और कहां से लूंगा, यह सोचकर वह लोभवश महत्तर भाजन ग्रहण करता है। ४०२१.जुत्तपमाणस्सऽसती, हीण-ऽतिरित्तं चउत्थो धारेति। लक्खणजुय हीण-ऽहियं, नंदी गच्छट्ठ वा चरिमो॥ यथोक्तप्रमाण वाले पात्र की प्राप्ति होने पर हीन या अतिरिक्तप्रमाण वाला पात्र चौथे क्रम में धारण करता है। जो पात्र लक्षणयुक्त है, वह चाहे प्रमाण से हीन या अधिक हो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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