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बृहत्कल्पभाष्यम्
उसको लक्षणवेत्ता मुनि ग्रहण करता है। चरमद्वारवर्ती अर्थात् ज्ञायक गच्छ के उपग्रह के लिए नंदी भाजन को धारण करता है। ४०२२.वढें समचउरंसं, होइ थिरं थावरं च वन्नडं।
हुंडं वायाइद्धं, भिन्नं च आधारणिज्जाइं॥ जो पात्र वर्तुल होने पर भी समचतुरस्र हो, स्थिर अर्थात् दृढ़ हो, स्थावर-अप्रातिहारिक हो तथा स्निग्ध वर्ण से उपेत हो-वह लक्षणयुक्त पात्र माना जाता है। जो पात्र हुंड- विषमसंस्थित हो, वाताविद्ध-झुर्रियों वाला हो, सच्छिद्र या राजियुक्त हो, वह पात्र अलाक्षणिक होता है, अधारणीय होता है। ४०२३.संठियम्मि भवे लाभो, पतिट्ठा सुपतिट्ठिए।
निव्वणे कित्तिमारोग्गं, वन्नड्ढे नाणसंपया॥ ४०२४.हुण्डे चरित्तभेओ, सबलम्मि य चित्तविब्भमं जाणे।
दुप्पुते खीलसंठाणे, नत्थि हाणं ति निदिसे॥ ४०२५.पउमुप्पले अकुसलं, सव्वणे वणमाइसे।
अंतो बहिं व दड्ढे, मरणं तत्थ निद्दिसे॥ संस्थित (वृत्त-समचतुरस्र) पात्र को धारण करने से भक्त-पान का लाभ होता है। सुप्रतिष्ठित (स्थिर) पात्र से गण आदि में स्थिरता होती है। निव्रण पात्र से कीर्ति और आरोग्य प्राप्त होता है। वर्णाढ्य (स्निग्धवर्ण) पात्र से ज्ञानसंपदा बढ़ती है। हुंड पात्र से चारित्र का भेद होता है। शबल-विचित्र-वर्णवाले पात्र से चित्तविभ्रम होता है। जो पात्र दुप्पुय (दुष्पुत)-पुष्पकमूल में प्रतिष्ठित नहीं है, जो कीलकसंस्थान वाला है-इनको धारण करने से गण और चारित्र में स्थान नहीं रहता-ऐसा निर्देश देता है। पद्मोत्पल के आकार वाले पात्र से अकुशल, सव्रण वाले पात्र से पात्रधारक के व्रण होते हैं। अन्दर से अथवा बाहर से दग्ध पात्र को धारण करने पर मरण का निर्देश करे। ४०२६.दड्ढे पुप्फगभिन्ने, पउमुप्पल सव्वणे य चउगुरुगा।
सेसगभिन्ने लहुगा, हुंडादीएसु मासलहू॥ दग्ध, पुष्पकभिन्न-नाभि से भिन्न, पदमोत्पल के आकारवाला, सव्रण-इन पांचों को धारण करने पर चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कुक्षि आदि स्थानों से भिन्न पात्र के चतुर्लघुक और हुंड आदि पात्रों को धारण करने से मासलघु का प्रायश्चित्त है। ४०२७.तिविहं च होइ पायं, अहाकडं अप्प-सपरिकम्मं च।
पुव्वमहाकडगहणं, तस्सऽसति कमेण दोण्णियरे॥ पात्र तीन प्रकार के होते हैं-अलाबुमय, दारुमय और मृत्तिकामय। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-यथाकृत,
अल्पपरिकर्म, सपरिकर्म। पूर्व यथाकृत का ग्रहण। उसके अभाव में क्रमशः दोनों दूसरे। ४०२८.तिविहे परूवियम्मि, वोच्चत्थे गहणे लहुग आणादी।
छेदण-भेदणकरणे, जा जहिं आरोवणा भणिता॥ तीन प्रकार के पात्रों की प्ररूपणा कर देने पर जो मुनि उनके ग्रहण में विपर्यास करता है, उसे चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं। छेदन, भेदन करने पर गाथा (६६८) में कथित आरोपणा यहां भी वक्तव्य है। ४०२९.को गेण्हति गीयत्थो, असतीए पायकप्पिओ जो उ।
उस्सग्ग-ऽववाएहिं, कहिज्जती पायगहणं से॥ पात्र कौन ग्रहण करता है-लाता है? आचार्य ने कहागीतार्थ। उसके अभाव में जो पात्रकल्पिक होता है वह लाता है। उसके अभाव में जो मुनि पात्रग्रहण के उत्सर्ग, अपवाद को जानता है, वह पात्र ग्रहण करता है। ४०३०.हुंडादि एकबंधे, सुत्तत्थे करेंते मग्गणं कुज्जा।
दुग-तिगबंधे सुत्तं, तिण्हुवरि दो वि वज्जेज्जा॥ जो मुनि हुंड आदि पात्रों की तथा एकबंध वाले पात्र का परिभोग करता है तथा सूत्र और अर्थपौरुषी-दोनों करता है, वह यथाकृत आदि पात्र की गवेषण करे। जो द्विबंध, त्रिबंध वाले पात्र का परिभोग करता है वह सूत्रपौरुषी करके, अर्थपौरुषी बिना किए, पात्र की गवेषणा करे। जो तीन बंधों से अतिरिक्त बंधों वाले पात्र का परिभोग करता है, वह दोनों पौरुषियों की वर्जना कर पात्र की गवेषणा करे। ४०३१.चत्तारि अहाकडए, दो मासा होति अप्पपरिकम्मे।
तेण पर मग्गियम्मि य, असति ग्गहणं सपरिकम्मे॥ हुंड आदि पात्र को धारण करने वाला चार मास तक यथाकत की मार्गणा करे। यदि उस अवधि में पात्र न मिले तो दो मास तक अल्पपरिकर्म वाले पात्र की मार्गणा करे। उसकी प्राप्ति न होने पर सपरिकर्म पात्र का ग्रहण करे। ४०३२.पणयालीसं दिवसे, मग्गित्ता जा न लब्भए ततियं।
तेण परेण न गिण्हइ, मा पक्खेणं न रज्जेज्जा। यदि पैंतालीस दिन तक मार्गणा करने पर भी वह तृतीय अर्थात् सपरिकर्म वाला पात्र प्राप्त नहीं होता है तो उस अवधि के बाद बहुपरिकर्म वाला पात्र ग्रहण न करे, क्योंकि उतनी अवधि में उसको नहीं रंगा जा सकता। ४०३३.कुत्तीय सिद्ध-निण्हग-पवंच-पडिमाउवासगाईसु।
कुत्तियवज्जं बितियं, आगारमाईसु वा दो वि॥ यथाकृत पात्र की मार्गणा कुत्रिकापण में करनी चाहिए। सिद्धपुत्र, निह्नवण, प्रपंचश्रमण (?) तथा उपासक की ग्यारह
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