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तीसरा उद्देशक प्रतिमाओं को संपन्न कर आए हुए उपासक के पास यथाकृत पात्र मिल सकता है। कुत्रिकापण को छोड़कर सिद्धपुत्र आदि के पास द्वितीय अर्थात् अल्प परिकर्म वाला पात्र प्राप्त हो सकता है। आकर आदि में दोनों अर्थात् अल्पपरिकर्म वाला या सपरिकर्मवाला पात्र प्राप्त होता है। ४०३४.आगर नई कुडंगे, वाहे तेणे य भिक्ख जंत विही।
कय कारियं व कीतं, जइ कप्पइ घेप्पतू अज्जो!" आकर अर्थात् भिल्लपल्ली आदि, नदी, कुडंग, व्याध-पल्ली, स्तेनपल्ली, भिक्षाचर, यंत्रशाला, आदि में विधि-पूर्वक पात्र ग्रहण करे। यदि वे कहे-कृत, कारित
और क्रीत पात्र यदि आपको ग्रहण करना कल्पता है तो आर्य! आप उसे ग्रहण करें। (विस्तार आगे की गाथाओं में) ४०३५.आगर पल्लीमाई, निच्चुदग नदी कुडंगमुस्सरणं।
वाहे तेणे भिक्खे, जंते परिभोगऽसंसत्तं। ४०३६.तुब्भऽट्ठाए कयमिणं, अन्नेसट्टाए अहवण सअट्ठा।
जो घेच्छति व तदट्ठा, एमेव य कीय-पामिच्चे ।। आकर का अर्थ है-भिल्लपल्ली अथवा भिल्लकोट्ट-इनमें अलाबू प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। अगाध जलवाली महानदियों को तैरने में अलाबू का प्रयोग होता है? वहां उसके पात्र मिल सकते हैं। कुडंग-सघन वृक्षवाले स्थान में तुंबिकाओं का उत्सरण-वपन किया जाता है। व्याधपल्ली तथा स्तेनपल्ली में तुम्बों में कांजी आदि रखे जाते हैं क्योंकि वहां मिट्टी के बर्तन नहीं होते। भिक्षाचरों के पास तुम्बे मिलते हैं। यंत्रशाला में गुड़ के उत्सेचन के लिए तुम्बे रखे जाते हैं। आकर आदि में तुम्बों का प्रतिदिन परिभोग होता है। वह जंतुओं से असंसक्त रहता है।
ये किसके लिए किए हैं-ऐसा पूछने पर यदि दाता कहे कि यह आपके लिए किए हैं या दूसरे साधुओं के लिए करवाए हैं अथवा स्वयं के लिए किए हैं अथवा जो इनको ग्रहण करेगा, उसके लिए किए हैं। इसी प्रकार क्रीत और प्रामित्य के लिए भी कहना चाहिए। जो आत्मार्थकृत हो, वह कल्पता है, आधाकर्मिकादि नहीं कल्पता। ४०३७. चाउल उण्होदग तुयरे कुसणे तहेव तक्के य।
जं होइ भावियं तं, कप्पति भइयव्वगं सेसं॥ चाउल-तन्दुलधावन, उष्णोदक, तुवर--कुसुंभोदक, कुसण-मूंग आदि का पानी, तक्र-इनसे जो पात्र भावित होता है वह कल्पता है। शेष पानी आदि से भावित हो तो वह विकल्पनीय है। १.तीन स्थान ये है-मणिबंध, हस्ततल और भूमि । (वृ. पृ. १९८)
४०३८.सीतजलभावियं अविगते तु सीतोदए ण गिण्हति।
मज्ज-वस-तेल्ल-सप्पी-महुमादीभावियं भयितं॥ शीतजल से भावित पात्र में जो शीतोदक है, वह अविगत अपरिणत हो तो उसे नहीं लेना चाहिए। मद्य, वसा, तैल, सर्पि तथा मधु से भावित हो तो विकल्पित है। ४०३९.ओभासणा य पुच्छा, दिटे रिक्के मुहं वहंते य।
संसटे निक्खित्ते, सुक्खे य पगास दट्टणं॥ पात्र के उत्पादन (प्राप्ति) विषयक अवभाषण करना चाहिए। ये आठ पृच्छाएं करनी चाहिए
(१) यह दृष्ट-प्रशस्य है अथवा अदृष्ट ? (२) यह रिक्त है अथवा अरिक्त? (३) इसका मुख किया हुआ है या नहीं? (४) यह वहमानक है अथवा अवहमानक ? (५) यह संसृष्ट है या असंसृष्ट ? (६) यह निक्षिप्त है या नहीं? (७) यह शुष्क है अथवा आर्द्र ? (८) यह प्रकाशमुखवाला है या अप्रकाशमुखवाला ?
पात्र यदि देखने पर निर्दोष लगे तो उसे ग्रहण करे। ४०४०.ओमंथ पाणमाई, पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य।
तिट्ठाणे तिक्खुत्तो, सुद्धो ससिणिद्धमादीसु॥ पात्र को ओंधा कर तीन स्थानों में, तीन बार प्रस्फोटित करे। शिष्य ने पूछा-पात्र विषयक मूलगुण और उत्तरगुण क्या हैं? जिस पात्र में पहले अप्काय था, वह आज सस्निग्ध हो सकता है। तीन बार उसको प्रस्फोटन करके ले, वह पात्र शुद्ध है। ४०४१.दाहिणकरेण कोणं, घेत्तुत्ताणेण वाममणिबंधे।
घट्टेइ तिन्नि वारे, तिन्नि तले तिन्नि भूमीय।। दक्षिण हाथ से पात्र का कर्ण पकड़ कर, पात्र को ओंधा कर वाम हाथ के मणिबंध पर तीन बार उस पात्र का प्रस्फोटन करे, फिर तीन बार हाथ के तल पर और फिर भूमी पर तीन बार उसका प्रस्फोटन करे। ४०४२.तस बीयम्मि वि दिवे, न गेण्हती गेण्हती तु अघिटे।
गहणम्मि उ परिसुद्धे, कप्पति दिढेहि वि बहूहिं।। यदि इस प्रकार नौ बार प्रस्फोटन करने पर त्रस जीव अथवा बीज आदि न दीख पड़े तो उसे ग्रहण करे, दीख पड़े तो ग्रहण न करे। परिशुद्ध-निर्दोष जानकर ग्रहण किए हुए पात्र को लेकर उपाश्रय में आ जाने पर यदि उसमें अनेक बीज आदि दृग्गोचर हों तो भी वह पात्र कल्पनीय है। (उस पात्र को अप्रासुक समझकर न गृहस्थ को पुनः लौटाया जा २. देखें-गाथा ६६८।
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