________________
४१६
सकता है और न परिष्ठापित किया जा सकता है, क्योंकि वह श्रुतप्रामाण्य से गृहीत है। किन्तु एकांत में उन दृष्ट बीजों का परिष्ठापन कर - पात्र काम में लिया जा सकता है।) ४०४३. च्छित्त पण जहण्णं, तेण उ तव्वुड्डिए य जयणाए ।
जहन्ना व सासवादी, तेहिं उ जयणेयर कलादी । जघन्य प्रायश्चित्त है पंचक। यह जघन्य यतना है । उस पंचक की वृद्धि से पात्र की असत्ता में प्रयत्न करते हैं। अथवा सर्षप आदि बीज जघन्य हैं, उनसे युक्त पात्र को षड्भागकर - वृद्धि की यतना से ग्रहण करें | इतर अर्थात् चने आदि बादर बीजत (इनकी यतना आगे) ४०४४.छब्भागकए हत्थे, सुहुमेसू पढमपव्व
पणगं तू । दस बितिए राइदिणा, अंगुलिमूलेसु पन्नरस ॥ ४०४५. वीसं तु आउलेहा, अंगुट्टंतो य होइ पणुवीसा । पसयम्मि होइ मासो, चाउम्मासा भवे चउसु ॥ हाथ के छह भाग किए जाएं
• प्रथम पर्वों तक पहला भाग ।
• दूसरे पर्वों तक दूसर भाग ।
• अंगुली के मूल तक तीसरा भाग ।
● आयुष्य की रेखा तक चौथा ।
• अंगुष्ठ बुध्न (जड़) तक पांचवां
अंगुष्ठ के बाद का सारा भाग छठा ।
प्रथम पर्व मात्र के सूक्ष्म बीजों के लिए पंचक अर्थात् पांच रात-दिन का प्रायश्चित, दूसरे पर्वमात्र के लिए दस रातदिन, अंगुलीमूल के लिए पन्द्रह रात-दिन, आयुरेखामात्र के लिए बीस रात-दिन, अंगुष्ठबुध्नमात्र के लिए पचीस रातदिन, प्रसूति प्रमाण तक मासलघु, चार प्रसूति प्रमाण तक लघु चार मास ।
४०४६. एसेव कमो नियमा, थूलेसु वि बीयपव्वमारहो।
अंजलि चउक्क लहुगा, ते च्चिय गुरुगा अणंतेसु ॥ नियमतः यही क्रम स्थूल बीजों के विषय में है। यह दूसरे पर्वों से प्रारंभ होता है। चार अंजलि प्रमाण में चतुर्लघु । वह सारा प्रत्येक बीज विषयक प्रायश्चित्त है। सूक्ष्म या स्थूल अनन्त बीज विषयक ये ही प्रायश्चित्त क्रमशः गुरुक हो जाते हैं।
४०४७. निक्कारणम्मि एए, पच्छित्ता वन्निया उ बीएसु ।
नायव्वा अणुपुब्वी, एसेव उ कारणे जयणा ॥ ये सारे प्रायश्चित्त निष्कारण बीजयुक्त पात्र को ग्रहण करने पर प्राप्त होते हैं। कारण में क्रमशः यही यतना जाननी चाहिए अर्थात् पंचक आदि की यतना जाननी चाहिए।
Jain Education International
बृहत्कल्पभाष्यम्
४०४८. वोस पि हु कप्पर, बीयाईणं अधाकडं पायं । न य अप्प सपरिकम्मा, तहेव अप्पं सपरिकम्मा ॥ यथाकृत पात्र बीजों से आकंठ भरा होने पर भी वह कल्पता है, परन्तु अल्पपरिकर्म तथा सपरिकर्मवाला शुद्ध होने पर भी नहीं कल्पता इसी प्रकार अल्पपरिकर्म वाला पात्र भरा होने पर भी कल्पता है, सपरिकर्म पात्र नहीं कल्पता ।
४०४९. थूला वा सुहुमा वा, अवहंते वा असंथरंतम्मि । आगंतुअ संकामिय, संकामिय, अप्पबहु असंथरंतम्मि ॥
बीज स्थूल हों या सूक्ष्म यदि मुनि का पात्र तत्काल रंगा हुआ होने के कारण उनको वहन नहीं कर सकता अथवा उस पात्र से संस्तरण नहीं होता हो अथवा उसके पास दूसरा पात्र है ही नहीं तो अल्प- बहुत्व गुण के आधार पर विचार कर यथाकृत पात्र जो आगंतुक बीजों से भरा हुआ हो, उसके बीजों का अन्यत्र संक्रमण कर वह पात्र लिया जा सकता है। ४०५०. थूल - सुहुमेसु वुत्तं, पच्छित्तं तेसु चेव भरिओ वि ।
3
जं कप्पइ त्ति भणिअं ण जुज्जई पुव्वमवरेणं ॥ स्थूल तथा सूक्ष्म बीजों के विषय में प्रायश्चित्त कहा गया है। उन बीजों से भृत पात्र भी, जो यथाकृत हो, वह लिया जा सकता है, यह जो कहा है वह पहले से भरा लिया जा सकता है, दूसरा नहीं ।
४०५१. चोयग ! दुविहा असई, संताऽसंता य संत असिवादी ।
इयरा उशामिवाई, संते भणिया उ सा सोही ॥ हे शिष्य ! असत् दो प्रकार का होता है-सद् असत्ता, और असत् असत्ता । जिस गांव या नगर में पात्र हैं, परन्तु वहां अशिव है, वह सद्-असत्ता है इतरा अर्थात् असत्असत्ता यह है - पात्र अग्नि में जल गया है अथवा चोरों ने उसका अपहरण कर लिया है। इन दोनों प्रकार के असत् में यथाकृतपात्र आगंतुक बीजों से भूत हो तो भी वह कल्पता है, न कि शुद्ध अपरिकर्म पात्र जो शोधि- प्रायश्चित्त कहा गया है वह दोनों प्रकार के असत् के अभाव में जो पात्र गृहीत होता है, उस विषयक है।
४०५२. जो उ गुणो दोसकरो, न सो गुणो दोसमेव तं जाणे ।
अगुणो वि होति उ गुणो, विणिच्छयो सुंदरी जस्स ॥ जो गुण दोष करने वाला होता है, वह वास्तव में गुण नहीं होता, उसको दोष ही जानना चाहिए। वह अगुण भी गुण है। जिसका विनिश्चय परिणाम सुन्दर होता है।
४०५३. असइ तिगे पुण जुत्ते, जोगे ओहोवही उवग्गहिए ।
छेयण-भेयणकरणे, सुद्धो जं निज्जरा बिउला ।। यदि तीन बार प्रयत्न करने पर भी यथाकृत पात्र की
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.