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तीसरा उद्देशक प्राप्ति नहीं होती है तो अल्पपरिकर्मवाला पात्र लिया जा ४०५९.बितिय-ततिएसु नियमा, सकता है, उसके अभाव में बहुपरिकर्मवाला पात्र भी लिया
मुहकरणं होज्ज तस्सिमं माणं। जा सकता है। यही विधि ओघ उपधि और औपग्रहिक उपधि
तं चिय तिविहं पायं, के विषय में है। वह मुनि क्रम से प्रास पात्र का ग्रहण कर
करंडगं दीह वर्ल्ड च।। छेदन-भेदन करता है तो भी वह शुद्ध है, प्रायश्चित्तभाक् नहीं दूसरे और तीसरे अर्थात् अल्पपरिकर्मवाले तथा है। वह विधियुक्त कार्य करता है, इसलिए उसके विपुल सपरिकर्मवाले पात्र के नियमतः मुखकरण होता है। उस मुख निर्जरा होती है।
का यह मान होता है। वह मुख तीन प्रकार का होता है४०५४.चोयग! एताए च्चिय, असईय अहाकडस्स दो इयरे। करंडकाकार, दीर्घ और वृत्त ।
कप्पंति छेयणे पुण, उवओगं मा दुवे दोसा॥ ४०६०.अकरंडगम्मि भाणे, हत्थो उर्दु जहा न घट्टेति। हे शिष्य! पहले जो दो प्रकार की असत्ता प्ररूपित की है, एयं जहन्नगमुहं, वत्थु पप्पा विसालतरं॥ इसी यथाकृत असत्ता से दो दूसरे पात्र-अल्पपरिकर्म और ___ अकरंडकाकार भाजन में अर्थात् दीर्घ और वृत्त पात्र में सपरिकर्म वाले ग्रहण किए जा सकते हैं। परंतु उनके छेदन में हाथ डालने और निकलने में वह हाथ पात्र के ओष्ठ-कर्ण का महान् उपयोग-प्रयत्न करता है जिससे कि दो प्रकार का स्पर्श नहीं करता, वह जघन्य मुख प्रमाण है। इसके पश्चात् दोष-संयमविराधना और आत्मविराधना न हो।
वस्तु के आधार पर विशालतर मुख किया जाता है। ४०५५.अहवा वि कतो जेणं, उवओगो न वि य लब्भती पढम। ४०६१.दव्वे एगं पायं, भणिओ तरुणो य एगपाओ उ। हीणाहियं व लब्भति, सपमाणा तेण दो इयरे॥
अप्पोवही पसत्थो, चोएति न मत्ततो तम्हा॥ अथवा साधु ने प्रथम प्रकार का पात्र प्राप्त करने का तीर्थंकरों ने मुनि के लिए द्रव्य अवमौदरिका में एक ही प्रयत्न किया परंतु वह प्राप्त नहीं हुआ अथवा प्रमाण से हीन पात्र रखने की अनुज्ञा दी है। तरुण मुनि एक पात्र ही रखे। या अधिक प्राप्त होता है तो दो दूसरे-अल्पपरिकर्म वाले या मुनि के लिए अल्प उपधि प्रशस्त होती है। इसलिए उनको सपरिकर्म वाले पात्र क्रमशः ग्रहण करे।
मात्रक नहीं रखना चाहिए। यह शिष्य कहता है। ४०५६.जह सपरिकम्मलंभे, मग्गंते अहाकडं भवे विपुला। ४०६२.जिणकप्पे तं सुत्तं, सपडिग्गहकस्स तस्स तं एगं।
निज्जरमेवमलंभे, बितियस्सियरे भवे विउला। नियमा थेराण पुणो, बितिज्जओ मत्तो होइ।। जैसे सपरिकर्म पात्र का लाभ होने पर भी मुनि यथाकृत आचार्य कहते हैं-यह कथन जिनकल्प विषयक है। जो पात्र की मार्गणा करता है, उसके विपुल निर्जरा होती है। जिनकल्प सप्रतिग्रह है, उसके लिए एक पात्र का विधान है। यथाकृत पात्र की अप्राप्ति होने पर तथा बहुपरिकर्मवाले पात्र स्थविर मुनियों के लिए नियमतः दूसरा पात्र मात्रक होता है। का लाभ होने पर भी दूसरे अर्थात् अल्पपरिकर्मवाले पात्र की ४०६३.नणु दव्वोमोयरिया, तरुणाइविसेसओ य मत्तओ वि। मार्गणा में भी विपुल निर्जरा होती है।
अप्पोवही दुपत्तो, जेणं तिप्पभित्ति बहसदो॥ ४०५७.असिवे ओमोदरिए, रायद्दद्वे भए व गेलन्ने। द्रव्य अवमौदरिका में एक पात्र की अनुज्ञा है। तरुण आदि
सेहे चरित्त सावयभए य ततियं पि गिण्हिज्जा॥ के विशेषण के योग से मात्रक भी अनुज्ञात है। जो अल्पोपधि गांव में यथाकृत अथवा अल्पपरिकर्मवाला पात्र प्राप्त है, की बात कही गई है, वह दो पात्र होने पर भी अल्पोपधि ही परन्तु वहां अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट, भय (चोरों आदि होती है। तीन आदि के लिए बहु शब्द का प्रयोग होता है। का), ग्लानत्व या शैक्ष के विपरिणमन का भय है, श्वापद का ४०६४.अग्गहणे वारत्तग, पमाण हीणाऽधि सोहि अववाए। भय है-इनके होने पर मुनि अपने स्थान पर ही तीसरा अर्थात् परिभोग गहण-बितियपय-लक्खणाई मुहं जाव।। बहुपरिकर्मवाला पात्र भी ग्रहण कर सकता है।
मात्रक का ग्रहण न करने पर अनेक दोष होते हैं। यहां ४०५८.आगंतुगाणि ताणि य, चिरपरिकम्मे य सुत्तपरिहाणी।। वारत्तग का दृष्टांत वक्तव्य है। प्रमाण हीन-अधिक। शोधि।
एएण कारणेणं, अहाकडे होति गहणं तु॥ अपवाद। परिभोग, ग्रहण, द्वितीयपद, लक्षण आदि मुख यथाकृत पात्र में आगंतुकबीजों का भराव होता है, तथा । पर्यन्त। यह द्वार गाथा है। विस्तार आगे की गाथाओं में। चिरकाल परिकर्मवाले पात्र को ग्रहण करने से सूत्रार्थ की ४०६५.मत्तअगेण्हणे गुरुगा, मिच्छत्ते अप्प-परपरिच्चाओ। परिहानि होती है। अतः इन कारणों से यथाकृत पात्र का संसत्तगगहणम्मि, संजमदोसा सवित्थारा॥ ग्रहण करना चाहिए।
मात्रक का ग्रहण न करने पर चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है।
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