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________________ तीसरा उद्देशक = ४११ ३९९४.मलेण घत्थं बहुणा उ वत्थं, उज्झाइगो हं चिमिणा भवामि। हं तस्स धोव्वम्मि करेति तत्तिं, . वरं न जोगो मलिणाण जोगो॥ मेरा वस्त्र मैल से अत्यधिक मैला हो गया है, इससे मैं 'उज्झाइय' विरूप लग रहा हूं। इससे मैं 'चिमिण'-रोमांचित हो जाता हूं। उसको धोने में मुझे तप्ति होती है, कष्ट होता है। अच्छा है मलिनवस्त्रों के साथ मेरा योग न हो, मलिन वस्त्रों को पहनने से, न पहनना अच्छा है। कारण में वस्त्रों को धोना शुद्ध है। ३९९५.कामं विभूसा खलु लोभदोसो, तहा वि तं पाउणओ न दोसो। मा हीलणिज्जो इमिणा भविस्सं, पुविड्ढिमाई इय संजई वि॥ यह अनुमत है कि विभूषा लोभ के दोष से होती है। फिर भी धोए हुए वस्त्रों को पहनना दोषयुक्त नहीं है। मुनि सोचता हैं-मैं मलिनवस्त्रों से हीलणीय न हो जाऊं इसलिए वह शुचीभूत वस्त्र धारण करता है। श्रमणियां भी ऋद्धियुक्त परिवारों से प्रवजित हुई हैं अतः वे भी सफेद वस्त्रों को धारण कर रहती हैं, घूमती हैं। ३९९६.न तस्स वत्थाइसु कोइ संगो, रज्जं तणं चेव जढं तु तेणं। जो सो उ उज्झाइय वत्थजोगो, तं गारवा सो न चएति मोत्तुं॥ जो व्यक्ति ऋद्धियुक्त घरों से प्रव्रजित हुआ है, उसका वस्त्र आदि के प्रति कोई रागभाव नहीं होता, क्योंकि उसने राज्य को (समृद्धि को) तृण की तरह छोड़ दिया है। मैं इन मलिन वस्त्रों के योग से 'उज्झाइय'-विरूप न लगू, इस अभिप्राय से वह उस धौत वस्त्रों को पहनने की वृत्ति को ऋद्धिगौरव के कारण छोड़ नहीं सकता। ३९९७.महद्धणे अप्पधणे व वत्थे, मुच्छिज्जती जो अविवित्तभावो। सतं पि नो भुंजति मा हु झिज्झे, वारेति चऽन्नं कसिणा दुगा दो॥ जो मुनि महामूल्य वाले या अल्पमूल्य वाले वस्त्रों के प्रति अविविक्तभाव-विवेक विकलभाव से मूर्छित होता है, वह स्वयं भी उन वस्त्रों का उपभोग नहीं करता, यह सोचता है कि उनका उपभोग करने से वे जीर्ण हो जायेंगे, तथा वह दूसरों को भी उनके परिभोग से वर्जना करता है। उसका प्रायश्चित्त है संपूर्ण चार मास। ३९९८.देसिल्लगं वन्नजुयं मणुन्नं, चिरादणं दाइं सिणेहओ वा। लब्भं च अन्नं पि इमप्पभावा, मुच्छिज्जई ईय भिसं कुसत्तो। जो मुनि यह सोचकर कि यह वस्त्र अमुकदेश में निर्मित है, वर्ण वाला है, मनोज्ञ है, चिरन्तन-आचार्य की परंपरा से प्राप्त है, इस वस्त्र के प्रभाव से मुझे अन्यान्य वस्त्रों की उपलब्धि भी सहज हो जाती है अथवा उस वस्त्र के प्रदाता के प्रति मुनि का स्नेह उभर आता है तब वह मुनि उक्त कारणों से उस वस्त्र के प्रति अत्यन्त मूर्छित हो जाता है और उसका परिभोग नहीं करता। ३९९९.दव्वप्पमाणअतिरेगहीणदोसा तहेव अववाए। लक्खणमलक्खणं तिविह उवहि वोच्चत्थ आणादी॥ ४०००.को पोरुसी य कालो, आगर चाउल जहन्न जयणाए। चोदग असती असिव, प्पमाण उवओग छेयण मुहे य॥ अब पात्र विषयक विवेचन१. पात्र का प्रमाण, प्रमाण से अतिरिक्त या हीन पात्र के दोष। २. अपवाद। ३. पात्र के लक्षण, अलक्षण। ४. तीन प्रकार की उपधि। ५. विपर्यय में प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। ६. पात्र कौन ग्रहण करता है? ७. पौरुषी? ८. काल का प्रमाण। ९. आकार। १०. चाउल-तन्दुलघावन। ११. जघन्य यतना। १२. शिष्य का प्रश्न। १३. पात्र के अभाव में या अशिव आदि में। १४. प्रमाण, उपयोग तथा छेदन। १५. मुखकरण। -ये सारे पात्र की विचारणा के द्वार हैं। विस्तार आगे की गाथाओं में। ४००१.पमाणातिरेगधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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