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________________ बृहत्कल्पभाष्यम् वितस्ति और चार अंगुल। दूसरा प्रमाण यह है-अपने-अपने गणचिन्तक विशुद्ध आलंबन के प्रयोजन से औधिक या मुंह के प्रमाण से मुखवस्त्रिका हो। औपग्रहिक सारी उपधि दुगुनी, तीनगुनी या चारगुनी भी ३९८३.गोच्छक पडिलेहणिया, पायट्ठवणं च होइ तह चेव। अपने परिग्रह में रखते हैं, क्योंकि वह उपधि महाजन अर्थात् तिण्हं पि य प्पमाणं, विहत्थि चउरंगुलं चेव॥ गच्छ के लिए उपकारी होती है। गोच्छक, पात्रप्रत्युपेक्षणिका, पात्रस्थापनक का प्रमाण ३९९०.पेहा-ऽपेहादोसा, भारो अहिकरणमेव अतिरित्ते। भी निरूपणीय है। इन तीनों का प्रमाण है-एक वितस्ति और एए भवंति दोसा, कज्जविवत्ती य हीणम्मि॥ चार अंगुल। अतिरिक्त उपधि रखने से उसकी प्रत्युपेक्षा से सूत्रार्थ की ३९८४.जो वि तिवत्थ दुवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ। हानि होती है, प्रत्युपेक्षा न करने से भी दोष लगता है। न हु ते खिंसंति परं, सव्वेण वि तिन्नि घेत्तव्वा॥ उसका भार वहन करना होता है। अधिकरण भी हो सकता जो मुनि तीन वस्त्र, दो वस्त्र, एक वस्त्र या अचेलक रहते है। ये अतिरिक्त उपधि के दोष हैं। हीन उपधि से कार्य की हैं, वे अधिक वस्त्र रखने वालों की खिंसना न करें। स्थविर विपत्ति अर्थात् प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। अतः अतिरिक्त और कल्पी मुनि तीन कल्प अवश्य ग्रहण करे। हीन उपधि-दोनों में दोष हैं। ३९८५.अप्पा असंथरंतो, निवारिओ होइ तीहि वत्थेहिं। ३९९१.परिकम्मणि चउभंगो, गिण्हति गुरूविदिण्णे, पगासपडिलेहणे सत्त॥ कारणे विहि बितिओ कारणे अविही। यदि आत्मा-शरीर शीत आदि को सहन करने में निक्कारणम्मि उ विही, असमर्थ हो तो तीन वस्त्रों से उसका निवारण करे। यदि वे चउत्थो निक्कारणे अविही॥ जीर्ण हो जाए और शीत निवारण में सक्षम न हों तो गुरु परिकर्म की चतुर्भंगी इस प्रकार हैद्वारा वितीर्ण प्रकाशप्रत्युपेक्षणीय उत्कर्षतः सात वस्त्रों को १. कारण में विधिपूर्वक परिकर्म। ग्रहण करे। २. कारण में अविधि से परिकर्म। ३९८६.तिन्नि कसिणे जहन्ने, पंच य दढदुब्बलाइं गेण्हेज्जा। ३. निष्कारण विधि से परिकर्म। सत्त य परिजुन्नाइं, एयं उक्कोसगं गहणं॥ ४. निष्कारण अविधि से परिकर्म। जघन्यः तीन वस्त्र ऐसे ग्रहण करे जो कृत्स्न अर्थात् ३९९२.कारणे अणुन्न विहिणा, सुद्धो सेसेसु मासिका तिन्नि। सघन और कोमल हों तथा पांच वस्त्र ऐसे ग्रहण करे जो तव-कालेसु विसिट्ठा, अंते गुरुगा य दोहिं पि॥ दृढ़दुर्बल हों और सात वस्त्र परिजीर्ण ग्रहण करे। यह कारण में विधि से परिकर्म अनुज्ञात है। यह शुद्ध है। शेष उत्कृष्ट ग्रहण है। तीनों भंगों में तप और काल से विशेषित तीन मास का ३९८७.भिन्नं गणणाजुत्तं, पमाण इंगाल-धूमपरिसुद्धं। प्रायश्चित्त है। दूसरे भंग में कालगुरुक और तीसरे भंग में उवहिं धारए भिक्खु, जो गणचिंतं न चिंतेइ॥ तपोगुरुक तथा अन्त्य अर्थात् चौथे भंग में दोनों अर्थात् तप जो भिक्षु गणचिन्ता से मुक्त है अर्थात् जो सामान्य भिक्षु और काल से गुरुक। है वह जो वस्त्र भिन्न है अर्थात् किनारी रहित है, पूरा नहीं ३९९३.उदाहडा जे हरियाहडीए, है-टुकड़ा है, जो गणनायुक्त है, प्रमाणयुक्त है तथा जो परेहि धोयाइपया उ वत्थे। अंगारधूम से शुद्ध है अर्थात् राग-द्वेष परिणामों से शुद्ध भूसानिमित्तं खलु ते करिति, है-विरहित है वैसी उपधि धारण करे। __ उग्घातिमा वत्थे सवित्थरा उ॥ ३९८८.गणचिंतगस्स एत्तो, उक्कोसो मज्झिमो जहन्नो य। इसी सूत्र के प्रथम उद्देशक के हृताहतिका सूत्र (सू. सव्वो वि होइ उवही, उवग्गहकरो महाणस्स॥ ४५) में स्तेनों द्वारा कृत धौत आदि पद जो वस्त्रों के संबंध गणचिंतक-गणावच्छेदिक आदि की उत्कृष्ट, मध्यम ___में कथित हैं, उनको यदि कोई मुनि स्वयं की विभूषा के और जघन्य सारी उपधि महाजन के अर्थात् गच्छ के लिए निमित्त करता है तो सविस्तार चार उद्घातिम मास का उपग्रहकरी होती है। प्रायश्चित्त आता है। सविस्तार का अर्थ है-धौत आदि पद ३९८९.आलंबणे विसुद्धे, दुगुणो तिगुणो चउग्गुणो वा वि। करने वाला जो आत्मविराधना करता है, तन्निष्पन्न सव्वो वि होइ उवही, उव्वग्गहकरो महाणस्स॥ प्रायश्चित्त भी आता है। १.जीर्ण होने के कारण वैसे वस्त्र चोरों द्वारा अपहत नहीं होते, अतः वे बाहर प्रत्युपेक्षणीय होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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