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तीसरा उद्देशक
स्थविरकल्पी मुनियों का कल्प आत्मप्रमाण - साढ़े तीन हाथ प्रमाण लंबा और ढाई हाथ चौड़ा होता है। यह मध्यम प्रमाण है । उत्कर्षतः चार हाथ लंबा होता है।
३९००, संकुचिय तरुण आयप्पमाण सुवणे न सीवसंफासो ।
दुहओ पेल्लण थेरे, अणुचिय पाणाइरक्खाऽऽया ॥ जो भिक्षु तरुण होता है, वह पैरों को संकुचित कर सो सकता है। इस स्थिति में उसे शीतस्पर्श का कष्ट नहीं होता। इसलिए उसके आत्मप्रमाण कल्पों का निर्देश है। स्थविर मुनि पैरों को संकुचित कर नहीं सो सकता। अतः इसके लिए शिर और पादान्त- दोनों पार्श्व तक जो वस्त्र का वेष्टन हो जाता है, उससे शीतस्पर्श का कष्ट नहीं होता । अनुचित अर्थात् अभावित शैक्ष के लिए भी कल्प का यही प्रमाण है। इस प्रकार प्राणियों तथा स्वयं की रक्षा हो जाती है।
कायव्वं । उ ॥
३९७१.पत्ताबंधपमाणं, भाणपमाणेण होइ चउरंगुलं कमंता, पत्ताबंघस्स पत्ताबंधस्स कोणा पात्रकबंधप्रमाण माजनप्रमाण से करना चाहिए पात्र यदि जघन्य या मध्यम हो तो पात्रकबंध भी उसीके अनुसार होगा। यदि गांठ देने पर पात्रकबंध के कोण चार अंगुल का अतिक्रमण भी करते हैं तो भी वही प्रमाण है। ३९७२. रयताणस्स पमाणं, भाणपमाणेण होति कायव्वं । पायाहिणं करितं मज्झे चउरंगुलं कमति ॥ रजस्त्राण का प्रमाण भी भाजनप्रमाण के अनुसार करना चाहिए । पात्र का प्रादक्षिण्य से वेष्टन करने पर चार अंगुल तक रजस्त्राण का अतिक्रमण करता है, वह है रजस्त्राण का
॥
प्रमाण ।
३९७३. तिविहम्मि कालछेए, तिविहा पडला उ होंति पायस्स ।
निम्ह सिसिर वासासं, उल्कोसा मज्झिम जहन्ना ॥ कालच्छेद अर्थात् कालविभाग तीन प्रकार का है। इसलिए तीन प्रकार के पटलक होते हैं-ग्रीष्म में उत्कृष्ट, शिशिर में मध्यम और वर्षा में जघन्य । अत्यन्त दृढ-उत्कृष्ट, दृढ-दुर्बल- मध्यम, दुर्बल जघन्य । ३९७४. गिम्हासु तिन्नि पडला, चउरो हेमंते पंच वासासु । उक्कोसगा उ एए, एत्तो वोच्छामि मज्झिमए ॥ ग्रीष्म के चार महीनों में तीन पटल, हेमन्त में चार और वर्षा में पांच पटलक होते हैं। ये उत्कृष्ट पटलक हैं। आगे मैं मध्यम पटलक की बात कहूंगा।
३९७५. गिम्हासु होंति चउरो, पंच य हेमंते छच्च वासासु । मज्झिमगा खलु एए, एत्तो उ जहन्नए वोच्छं ।। ग्रीष्म में चार, हेमन्त में पांच, वर्षा में छह । ये सारे
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४०९ मध्यम पटलक हैं। आगे जघन्य पटलक के विषय में कहूंगा।
३९७६. गिम्हासु पंच पडला, हेमंते छच्च सत्त वावासु । तिविहम्मि कालछेए, तिविहा पडला उ पायस्स ॥ ग्रीष्म में पांच, हेमंत में छह और वर्षा में सात ये जघन्य पटलक हैं। इस प्रकार तीन प्रकार के कालविभाग में तीन प्रकार के पटलक पात्र के होते हैं। ३९७७ घणं मूले थिरं मज्झे, अग्गे
मद्दवनुत्तया । तिपासियं ॥
एमंगियं अझुसरं पोरायामं
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रजोहरण का प्रमाण - मूल में घन - निबिडवेष्टित, मध्य में स्थिर दृढ और अग्र में मार्दवयुक्तता - मृदुस्पर्शवाली दशिकाएं हों वह एकांगिक, अशुषिर, पर्व आयाम बाला तथा तिपासिय-तीन डोरों से वेष्टित-बद्ध हो ।
३९७८. अप्पोल्लं मिदुपम्हं च, पडिपुन्नं हत्थपूरिमं । तिपरियल्लमणीस, रयहरणं धारए मुणी ॥ वह अप्पोल्ल - अशुषिर दंडवाला, मृदुपक्ष्मवाला - कोमल दशिका से युक्त, प्रतिपूर्ण निषद्याद्वय से युक्त, हस्तपुरिमहस्त के प्रमाण वाला, त्रिपरिवर्त तीन वेष्टनयुक्त, अनिसृष्टहस्तप्रमाण का अतिक्रम न करने वाला रजोहरण मुनि को धारण करना चाहिए।
३९७९. उन्नियं उट्टिय चेव, कंबलं पायपुंछणं । रयणीपमाणमित्तं, कुज्जा पोरपरिम्महं ॥ और्णिक अथवा औष्ट्रिक उष्टरोममय जो कंबल हो उसका पादप्रोंछन अर्थात् रजोहरण करना चाहिए। वह रत्निप्रमाणमात्र हस्तप्रमाण आयाम दंड वाला, तथा पर्वपरिग्रहवाला रजोहरण करना चाहिए । ३९८०.संथारुत्तरपट्टा, अड्डाइज्जा उ आयया हत्थे ।
तेसिं विक्खंभो पुण हत्थं चतुरंगुलं चेव ॥ संस्तारक के दोनों उत्तरपट्ट ढ़ाई हाथ लंबे होते हैं और उनकी चौड़ाई एक हाथ चार अंगुल होती है। ३९८१. दुगुणो चतुग्गुणो वा, हत्यो चतुरंसो चोलपट्टो उ। एगगुणा उ निसेज्जा, हत्थपमाणा सपच्छाया ।। दुगुना या चतुर्गुना करने पर एक हाथ प्रमाण का चतुरस्र होता है, वैसा चोलपट्टक करना चाहिए। द्विगुणा स्थविरों के लिए तथा चतुर्गुना तरुणों के लिए। निषद्या एक गुना, हस्तप्रमाण वाली तथा सौत्रिक प्रच्छादन निषद्या से युक्त होनी चाहिए।
३९८२. चउरंगुलं विहत्थी, एयं मुहणंतगस्स उ पमाणं । वितियं पि य प्यमाणं, मुहप्पमाणेण कायव्यं ॥ मुखान्तक अर्थात् मुखवस्त्रिका का प्रमाण यह है एक
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