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व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरुक, लघुक, लघुस्वक। गुरुक के तीन प्रकार हैं-गुरुक, गुरुतरक, यथागुरुक। लघुक के तीन प्रकार हैं-लघु, लघुतर, यथालघु। लघुस्वक के तीन प्रकार हैं-लघुस्वक, लघुस्वतरक, यथालघुस्वक। इन व्यवहारों का यथानुपूर्वी से यथोक्तपरिपाटी से प्रायश्चित्त कहूंगा।
गुरुक व्यवहार मासपरिमाण वाला होता है। गुरुतरक चतुर्मासपरिणाम वाला और यथागुरुक छह मास परिमाण वाला होता है। गुरुक पक्ष में यह प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है।
लघुक व्यवहार तीस दिन परिमाण, लघुतरक पचीस दिन और यथालघुक बीस दिन परिमाण-यह लघुक पक्ष में प्रायश्चित्त की प्रतिपत्ति है। लघुस्वक व्यवहार पन्द्रह दिन, लघुस्वतरक दश दिन और यथालघुस्वक पांच दिन परिमाण का प्रायश्चित्त। अथवा यथालघुस्वक व्यवहार शुद्ध होता है, प्रायश्चित्त नहीं आता। ___ एकमासपरिमाण वाला गुरुक व्यवहार अष्टम से, चातुर्मास प्रमाण वाला गुरुकतरक व्यवहार दशम से और छहमास प्रमाण वाला यथागुरुक व्यवहार द्वादश से पूरा हो जाता है। यह गुरुक पक्ष में अर्थात् गुरुव्यवहार के पूर्तिविषयक तपःप्रतिपत्ति है।
तीस दिन प्रमाण वाला लघुक व्यवहार षष्ठ से दो दिन के उपवास से, पचीस दिन प्रमाण वाला लघुतरक व्यवहार उपवास से तथा बीस दिन प्रमाण वाला यथालघुक व्यवहार आचाम्ल से पूरा हो जाता है। यह तीन प्रकार के लघुक व्यवहार की तपःप्रतिपत्ति है। पन्द्रह दिन प्रमाण वाला लघुस्वकव्यवहार एकस्थान से, दस दिन प्रमाण वाला लघुस्वतरकव्यवहार पूर्वार्द्ध से, पांच दिन प्रमाण वाला यथालघुस्वकव्यवहार निर्विकृति से पूरा हो जाता है। कोई मुनि परिहारतपप्रायश्चित्त वहन कर रहा हो और उसके प्रति यदि यथालघुस्वक व्यवहार की प्रस्थापना करनी हो तो वह आलोचनामात्र से शुद्ध है क्योंकि उसने कारण में यतनापूर्वक प्रतिसेवना की है।
बृहत्कल्पभाष्यम् नियमतः जानना चाहिए। जो दीप्तचित्त होता है वह अनीप्सित बहुत प्रलाप करता है। ६२४२.इति एस असम्माणा, खित्ता सम्माणतो भवे दित्ता।
अग्गी व इंधणेणं, दिप्पति चित्तं इमेहिं तु॥ पूर्वसूत्र में क्षिप्तचित्त के विषय में कहा गया था। क्षिप्सचित्त होने का कारण है असम्मान और दीसचित्त होने का कारण है सम्मान। जैसे अग्नि इन्धन से दीप्त होती है वैसे ही इन कारणों से चित्त दीप्त होता है। ६२४३.लाभमएण व मत्तो, अहवा जेऊण दुज्जए सत्तू।
दित्तम्मि सायवाहणो, तमहं वोच्छं समासेण॥ लाभमद से मत्त अथवा दुर्जय शत्रुओं को जीतना-ये दोनों दीप्तचित्त के कारण हैं। इनमें सातवाहन का दृष्टांत है। मैं उसको संक्षेप में कहूंगा। ६२४४. महुराऽऽणत्ती दंडे, सहसा णिग्गम अपुच्छिउं कयरं।
तस्स य तिक्खा आणा, दुहा गता दो वि पाडेउं॥ ६२४५.सुतजम्म-महुरपाडण-निहिलंभनिवेदणा जुगव दित्तो।
सयणिज्ज खंभ कुड्डे, कुट्टेइ इमाई पलवंतो॥ सातवाहन राजा ने अपने दंडनायक को आज्ञापित करते हुए कहा-मथुरा को हस्तगत करो। तब दंडनायक ने कौनसी मथुरा (दक्षिण या उत्तर) यह बिना पूछे ही सहसा वहां से निष्क्रमण कर दिया। राजा की आज्ञा तीक्ष्ण थी। इसलिए दूसरी बार पूछने का अवकाश नहीं रहा। दंडनायक ने सेना को दो भागों में विभक्त कर दोनों ओर भेज दिया। सेना दोनों को हस्तगत कर लौट आई।
वर्धापक ने राजा को पुत्रजन्म की बधाई दी। इधर से दंडनायक ने आकर मथुरा-विजय की बात कही। तीसरे व्यक्ति ने निधि-प्राप्ति का संवाद सुनाया। इन सारी बधाइयों को एक साथ सुनकर राजा दीप्त हो गया। वह प्रलाप करता हुआ शयनीय स्तंभ और भीत को पीटने लगा। ६२४६.सच्चं भण गोदावरि!, पुव्वसमुद्देण साविया संती।
साताहणकुलसरिसं, जति ते कुले कुलं अत्थि॥ ६२४७.उत्तरतो हिमवंतो, दाहिणतो सालिवाहणो राया।
समभारभरक्वंता, तेण न पल्हत्थए पुहवी।। सातवाहन का प्रलाप हे गोदावरी! तुमको पूर्वसमुद्र की शपथ है, तुम सच बताओ-यदि तुम्हारे कूल पर कहीं भी सातवाहन के कुल के सदृश कोई कुल है?
उत्तर दिशा में हिमवान् पर्वत है, दक्षिण में सातवाहन राजा है, इसलिए समान भार से आक्रान्त यह पृथ्वी उलट नहीं रही है।
दित्तचित्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥
(सूत्र ११) ६२४१.एसेव गमो नियमा, दित्तादीणं पि होइ णायव्वो।
जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवति णिच्छियव्वाइं॥ यही विकल्प दीप्तचित्त आदि निर्ग्रन्थियों के विषय में १. पूरे कथानक के लिए देखें-कथा परिशिष्ट, नं. १४०।
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