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न बढ़ता है
छठा उद्देशक
जिज्ञासु ने पूछा-वह साध्वी अप्रायश्चित्ती कैसे? आचार्य अचेतन है इसलिए उसके कर्मोपचय नहीं होता, किन्तु परिषद् के मध्य उस साध्वी के प्रायश्चित्त-लघुस्वक की क्षिसचित्त साध्वी का शरीर जीवपरिगृहीत है, सचेतन है, प्रस्थापना करते हैं।
इसलिए कर्मोपचय संभव है। जो 'सासेरा' दृष्टांत से समता ६२२५.वड्वति हायति उभयं, अवट्ठियं च चरणं भवे चउहा। बताई है, उसमें असमंजसता है, यह युक्त नहीं है।
खइयं तहोवसमियं, मिस्समहक्खाय खेत्तं च॥ ६२३१.चेयणमचेयणं वा, परतंतत्तेण णणु हु तुल्लाई। चारित्र विषयक चार भंग ये हैं
___ण तया विसेसितं एत्थ किंचि भणती सुण विसेसं॥ १. चारित्र बढ़ता है
आचार्य ने कहा-चेतन हो या अचेतन पारतंत्र्य से २. चारित्र का हास होता है
दोनों तुल्य होते हैं। तब जिज्ञासु ने कहा-भंते! आपने ३. चारित्र बढ़ता भी है, ह्रास भी होता है
कर्मोपचय के संबंध में चेतन-अचेतन में किंचिद् भी ४. चारित्र अवस्थित रहता है-न बढ़ता है, न ह्रास होता विशेष नहीं बताया। आचार्य ने तब कहा-मैं विशेष बता रहा
हूं, तुम सुनो। क्षपकश्रेणी वाले का क्षायिक चारित्र बढ़ता है। ६२३२.णणु सो चेव विसेसो, जं एक्कमचेतणं सचित्तेगं। उपशमश्रेणी वाले का ह्रास होता है। क्षायोपशमिक चरित्र
जह चेयणे विसेसो, तह भणसु इमं णिसामेह॥ घटता, बढ़ता है। यथाख्यातचारित्र अवस्थित रहता है। यही विशेष है कि एक अचेतन है और एक सचेतन है। क्षिप्तचित्त का चारित्र भी अवस्थित होता है, अतः वह इसलिए जो सचेतन है, उसमें जो विशेष है, वह बताओ। प्रायश्चित्तभाक् नहीं है। .
आचार्य कहते हैं यह तुम सुनो। ६२२६.कामं आसवदारेसु वट्टियं पलवितं बहुविधं च। ६२३३.जो पेल्लिओ परेणं, हेऊ वसणस्स होइ कायाणं।
लोगविरुद्धा य पदा, लोउत्तरिया य आइण्णा॥ तत्थ न दोसं इच्छसि, लोगेण समं तहा तं च। ६२२७.न य बंधहेउविगलत्तणेण कम्मस्स उवचयो होति। दूसरों के द्वारा प्रेरित होकर जो षट्जीवनिकायों के
लोगो वि एत्थ सक्खी, जह एस परव्वसा कासी॥ व्यसन-संघट्टन, परितापन आदि का हेतु बनता है, उसमें तुम यह अनुमत है कि यह क्षिप्तचित्त साध्वी बहुत समय तक दोष नहीं मानते, क्योंकि लोकव्यवहार में यही सम्मत है। आश्रवद्वारों में प्रवर्तित हुई, बहुविध प्रलाप किया, लोक- वैसे ही तुम उस क्षिप्लचित्त साध्वी को निर्दोष मानो। विरुद्ध तथा लोकोत्तर विरुद्ध पदों का आचरण किया। ६२३४.पस्संतो वि य काए, अपच्चलो अप्पगं विधारेउ। फिर भी उस साध्वी के कर्मबंध का कोई हेतु न होने के
जह पेल्लितो अदोसो, एमेव इमं पि पासामो॥ कारण उसके कर्मों का उपचय नहीं होता। लोक भी इस परायत्त व्यक्ति स्वयं द्वारा होने वाली छह काय की विषय में साक्षी हैं कि इसने जो कुछ किया वह सारा । विराधना को देखते हुए भी स्वयं को संस्थापित करने में परवशता में किया।
असमर्थ होता है, वह अदोष होता है, इसी प्रकार क्षिप्तचित्त ६२२८.राग-दोसाणुगया, जीवा कम्मस्स बंधगा होति।। साध्वी को भी हम अदोष देखते हैं।
रागादिविसेसेण य, बंधविसेसो वि अविगीओ॥ ६२३५.गुरुगो गुरुगतरागो, अहागुरूगो य होइ ववहारो। राग-द्वेष में अनुगत जीव कर्म के बंधक होते हैं। रागद्वेष लहुओ लहुयतरागो, अहालहूगो य ववहारो॥ के तारतम्य से कर्मबंध का तारतम्य कहा गया है।
६२३६.लहुसो लहुसतरागो, अहालहूसो य होइ ववहारो। ६२२९.कुणमाणा वि य चेट्ठा, परतंता णट्टिया बहुविहातो। एतेसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए।
किरियाफलेण जुज्जति, ण जहा एमेव एतं पि॥ ६२३७.गुरुतो य होइ मासो, गुरुगतरागो य होइ चउमासो। जैसे यंत्रमयी नर्तकी परतंत्र होने के कारण अनेक प्रकार अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ की चेष्टाएं करती हुई भी क्रिया के फल से युक्त नहीं होती, ६२३८.तीसा य पण्णवीसा, वीसा पन्नरसेव य। वैसे ही यह क्षिप्तचित्त साध्वी भी विरुद्ध क्रियाएं करती हुई दस पंच य दिवसाइं, लहसगपक्खम्मि पडिवत्ती॥ भी क्रिया के फल से संबद्ध नहीं होती।
६२३९.गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होइ दसमं तु। ६२३०.जइ इच्छसि सासेरा, अचेतणा तेण से चओ णत्थि। आहागुरुग दुवालस, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती।।
जीवपरिग्गहिया पुण, बोंदी असमंजसं समता॥ ६२४०.छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल-एगठाण-पुरिमड्डा। __यदि तुम यह मानते हो, यथा-'सासेरा'-यंत्रमयी नर्तकी निव्वियगं दायव्वं, अहलहुसगगम्मि सुद्धो वा।
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