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________________ पांचवां उद्देशक मेहुणपडिसेवणा-पदं देवे य इत्थिरूवं विउव्वित्ता निग्गंथं पडिगाहेज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं॥ (सूत्र १) देवी य इत्थिरूवं विउव्वित्ता निग्गंथं पडिगाहेज्जा, तं च निग्गंथे साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्तेआवज्जइचाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र २) देवी य पुरिसरूवं विउव्वित्ता निग्गंथिं पडिगाहेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र ३) देवे य पुरिसरूवं विउव्वित्ता निम्गंथिं पडिगाहेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं॥ (सूत्र ४) ५६८३.अवि य तिरिओवसग्गा, तत्थुदिया आयवेयणिज्जा य। इमिगा उ होति दिव्वा, ते पडिलोमा इमे इयरे॥ __'अपि च' यह संबंध का प्रकारान्तर द्योतक है। पूर्वसूत्र में तिर्यंच के उपसर्ग तथा आत्मसंवेदनीय उपसर्गों का वर्णन था। प्रस्तुत में दिव्य उपसर्गों का वर्णन है। उपसर्ग दो प्रकार के होते हैं-प्रतिलोम-प्रतिकूल और अनुकूल। ५६८४.अहवा आयावाओ, चउत्थचरिमम्मि पवयणे चेव। इमओ बंभावाओ, तस्स उ भंगम्मि किं सेसं॥ अथवा चौथे उद्देशक के चरमसूत्र में आत्मापाय और प्रवचनापाय के विषय में कहा गया था। प्रस्तुत सूत्र में ब्रह्मव्रतापाय कहा जा रहा है। उसके भग्न होने पर शेष अभग्न क्या रह जाता है? ५६८५.सरिसाहिकारियं वा, इमं चउत्थस्स पढमसुत्तेणं। अन्नहिगारम्मि वि पत्थुतम्मि अन्नं पि इच्छंति॥ चौथे उद्देशक के प्रथम सूत्र से प्रस्तुत सूत्र का सदृशाधिकारिक है। अन्य अधिकार प्रस्तुत होने पर भी आचार्य अन्य अधिकार चाहते है। यहां यह दृष्टांत है५६८६.जह जाइरूवधातुं, खणमाणो लभिज्ज उत्तमं वयरं। __ तं गिण्हइ न य दोसं, वयंति तहियं इमं पेवं॥ जैसे जातरूप-सुवर्ण धातु का खनन करते हुए उत्तम वज्र की भी प्राप्ति होती है। वह उसे ग्रहण करता है, यह दोष नहीं है। इस प्रकार प्रस्तुत अपर अधिकार के ग्रहण में कोई दोष नहीं है। ५६८७.कणएण विणा वइरं, न भायए नेव संगहमुवेइ। न य तेण विणा कणगं, तेण र अन्नोन्न पाहन्नं ।। कनक के बिना वज्र शोभित नहीं होता। आश्रय के अभाव में वह संबंध को भी प्राप्त नहीं होता। वज्र के बिना कनक भी शोभित नहीं होता। इस कारण से दोनों की अन्योन्य प्रधानता है। ५६८८.देवे य इत्थिरूवं, काउं गिण्हे तहेव देवी य। दोसु वि य परिणयाणं, चाउम्मासा भवे गुरुगा॥ ५६८२.पाएण होति विजणा, गुज्झगसंसेविया य तणपुंजा। होज्ज मिह संपयोगो, तेस य अह पंचमे जोगो॥ प्रायः तृणपुंज विजन-जनसंपातरहित होते हैं। वे गुह्यकव्यंतर देवों से अधिष्ठित होते हैं। मुनियों का वहां रहने पर परस्पर संप्रयोग होता है। यह पांचवें उद्देशक के आद्यसूत्रचतुष्टय से संबंध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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