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________________ ५९२ बृहत्कल्पभाष्यम् देवता या देवी स्त्रीरूप की विकुर्वणा कर निर्ग्रन्थ को आवश्यकी करने, नैषेधिकी करने, आसज्ज करने (?), ग्रहण कर लेते हैं। दोनों प्रतिसेवना में परिणत होने पर दुःप्रत्युपेक्षित करने, दुःप्रमार्जन आदि करने पर समर्थ व्यक्ति चतुर्गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। भी प्रमाद के कारण विवादग्रस्त होता है। साधुओं में कलह ५६८९.गच्छगय निग्गए वा, होने पर उसके उपशमन में समय लगता है। साधुओं की होज्ज तगं तत्थ निग्गमो दुविहो। संख्या अधिक होने के कारण चिरकाल से आलोचना होती उवएस अणुवएसे, है। ये सारे व्याघात होते हैं। सच्छदेणं इमं तत्थ॥ ५६९४.मेरं ठवंति थेरा, सीदंते आवि साहति पवत्ती। गच्छगत या गच्छनिर्गत निर्ग्रन्थ के यह वृत्तान्त होता है। थिरकरण सढहेउं, तवोकिलंते य पुच्छंति॥ गच्छ से निर्गम दो प्रकार से होता है-उपदेश से और स्थविर अर्थात् आचार्य मर्यादा स्थापित करते हैं, कोई अनुपदेश से। अनुपदेश या स्वच्छंद ये एकार्थक हैं। यह गच्छ मुनि सामाचारी के पालन में आलस्य करता है, उसकी बात से स्वच्छंदरूप से निर्गम कहा जाता है। आचार्य को निवेदित करनी होती है, अभिनव श्राद्ध को स्थिर ५६९०.सुत्तं अत्थो य बहु, गहियाइं नवरि मे झरेयव्वं। करने के लिए, जो तपस्या से क्लान्त हैं, उनकी सुखपुच्छा गच्छम्मि य वाघायं, नाऊण इमेहिं ठाणेहिं॥ करने के लिए इनमें समय लगाने पर स्वाध्याय का पलिमथु मैंने सूत्र और अर्थ बहुत ग्रहण कर लिया। अब मुझे होता है। पूर्वगृहीत का स्मरण करना है, उनको परिचित करना है। ५६९५.आवासिगा निसीहिगमकरेंते असारणे तमावज्जे। गच्छ में इन कारणों से व्याघात जानकर वह वहां से निर्गमन परलोइगं च न कयं, सहायगत्तं उवेहाए॥ करता है। जो आचार्य आवश्यिकी-नैधिकी सामाचारी का पालन न ५६९१.धम्मकह महिड्डीए, आवास निसीहिया य आलोए। करने वाले मुनि की सारणा नहीं करते तो उसका प्रायश्चित्त पडिपुच्छ वादि पाहुण, महाण गिलाणे दुलभभिक्खं॥ आचार्य को वहन करना होता है। इस प्रकार उनका वे व्याघात के स्थान या कारण ये हैं-धर्मकथा करना, पारलौकिक सहायता भी अकृत होती है। क्योंकि यह आचार्य महर्द्धिक व्यक्ति को धर्म सुनाना, गच्छ से आने-जाने वाले की उपेक्षा का परिणाम है। साधुओं की आवश्यिकी-नैषेधिकी करने पर निरीक्षण करना, ५६९६.सम्मोहो मा दोण्ह वि, वियडिज्जंतम्मि तेण न पढंति। साधुओं की आलोचना में परावर्तन से व्याघात होता है, पडिपुच्छे पलिमंथो, असंखडं नेव वच्छल्लं॥ प्रतिपृच्छा करने वालों को प्रत्युत्तर देना, वादी से वाद करना, कोई मुनि स्वाध्याय में संलग्न है और अन्यान्य मुनि महान् गण में अनेक प्राघूर्णकों की सेवा करना, ग्लान की आलोचना कर रहे हैं तो दोनों में व्यामोह न हो इसलिए अन्य वैयावृत्य करना, दुर्लभभिक्षा वाले क्षेत्र में लंबे समय तक मुनि जब आलोचना ले रहे हों तब नहीं पढ़ना चाहिए, यह घूमना-ये सारे व्याघात होते हैं। भी स्वाध्याय का व्याघात है। कई मुनि प्रश्न आदि पूछने के ५६९२.कामं जहेव कत्थति, पुन्ने तह चेव कत्थई तुच्छे।। लिए आते हैं, यह भी स्वाध्याय का पलिमंथु है। प्रत्युत्तर न वाउलणाय न गिण्हइ, तम्मि य रुढे बह दोसा॥ देने पर कलह हो सकता है और साधर्मिक वात्सल्य का भी यह अनुमत है कि जैसे पूर्ण अर्थात् महर्द्धिक को धर्म कहा पालन नहीं होता। जाता है, वैसे ही तुच्छ अमहर्द्धिक को भी धर्म कहना ५६९७.चिंतेइ वादसत्थे, वादिं पडियरति देति पडिवायं। चाहिए। संभव है वह महर्द्धिक अपनी व्याकुलता के ___महइ गणे पाहुणगा, वीसामण पज्जुवासणया। कारण धर्म को ग्रहण न कर सके, परंतु उसके रुष्ट होने ५६९८.आलोयणा सुणिज्जति, पर अनेक दोष हो सकते हैं। वह देश से साधुओं का जाव य दिज्जइ गिलाण-बालाणं। निष्काशन करा देता है अतः उसको विशेषरूप से धर्म हिंडंति चिरं अन्ने, कहना चाहिए। पाओगुभयस्स वा अट्ठा। ५६९३.आवासिगा-ऽऽसज्ज-दुपहियादी, ५६९९.पाउग्गोसह-उव्वत्तणादि अतरंति जं च वेज्जस्स। विसीयते चेव सवीरिओ वि। किमहिज्जउ खलुभिक्खे, केसवितो भिक्ख-हिंडीहिं॥ विओसणे वा वि असंखडाणं, वादी का आगमन सुनकर वादशास्त्रों का चिंतन करता आलोयणं वा वि चिरेण देती॥ है। वादी की परिचर्या करना तथा प्रतिवाद करना होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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