________________
पांचवां उद्देशक
बड़े गण में प्राघूर्णक आते हैं, उनकी विश्रामणा और पर्युपासना करनी होती है ।
आने वालों की आलोचना सुननी होती है, बाल और ग्लान को आलोचना देनी होती है, प्राघूर्णकों के लिए प्रायोग्य दोनों भक्त और पान के लिए देर तक घूमना पड़ता है, दूसरे मुनि भिक्षा के लिए गए उस मुनि की प्रतीक्षा करते हैं। ग्लान के प्रायोग्य भक्त-पान तथा औषधि लानी होती है, उसको उद्वर्तन आदि कराना होता है, वैद्य के क्रियाकांड तक प्रतीक्षा करनी होती है, खुलक्षेत्र ( अन्य भिक्षाप्राप्ति के क्षेत्र) में भिक्षा के लिए घूमते-घूमते बहुत क्लेश होता है-ऐसी स्थिति में क्या अध्ययन हो सकता है ? ये सारे व्याघात हैं।
५७०० ते गंतुमणा बाहिं, आपुच्छंती तहिं तु आयरियं ।
भणिया भणति भंते!, ण ताव पज्जत्तगा तुब्भे ॥ गण में इन सारे व्याघातों के कारण वे मुनि दूसरे गण में अध्ययन के लिए जाते हैं तब वे आचार्य को पूछते हैं। तब आचार्य कहते हैं- तुम अभी तक उपसर्ग सहन करने और विहार करने में पर्याप्त नहीं हो। तब वे शिष्य कहते हैं-भंते! आपकी कृपा से हम पर्यास बन जायेंगे । ५७०१. उप्पण्णे उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य ।
हंदि ! असारं नाउं, माणुस्सं जीवलोगं च ॥ दिव्य, मानुष्य और तैरश्च - इन तीन प्रकार के उपसर्गों के उत्पन्न होने पर हम उनको सम्यग्रूप से सहन करेंगे। भंते! हम मानुष्य और जीवलोक को असार जानकर उपसर्गों को सहन क्यों नहीं करेंगे ?
५७०२. ते निग्गया गुरुकुला, अन्नं गामं कमेण संपत्ता ।
काऊण विद्दरिसणं, इत्थीरूवेणुवस्सग्गो ।। यह कहकर वे साधु गुरुकुल से निकल पड़े। वे क्रमशः एक गांव में आए। वहां एक देवता ने विशेष दर्शनीय स्त्रीरूप की विकुर्वणा कर उपसर्ग किया।
५७०३. पंता व णं छलिज्जा, नाणादिगुणा व होंतु सिं गच्छे।
न नियत्तिहिंतऽछलिया, भद्देयर भोग वीमंसा ॥ सम्यग्दृष्टि देवता सोचता है-ये साधु गुरु की आज्ञा के बिना आए हैं। कोई प्रान्त देवता इनको छल न ले। ज्ञान आदि गुण इनको गच्छ में निवास करते हुए अछलित अवस्था में ये गण में नहीं लौटेंगे, यह विचार कर एक भद्रिका का रूप बनाया और दूसरी ने प्रान्त देवता का रूप बनाकर भोगार्थिनी के रूप में परीक्षा करने के लिए
उद्यत हुई।
Jain Education International
५९३
५७०४. भिक्ख गय सत्थ चेडी,
विहवारूवविउव्वण,
किइकम्माऽऽलोयणा इणमो ॥
साधु भिक्षा के लिए चले गए। उस देवता ने तब एक सार्थ की विकुर्वणा कर स्वयं एक चेटी का रूप बनाकर मुनियों के पास आकर बोली- मेरी 'गुज्झक्खिणी' - स्वामिनी श्राविका है। उसको वंदना करने के लिए आने के लिए कहूंगी। वह चेटी रूप देवता वहां से निकल कर विधवा के रूप की विकुर्वणा कर आई और मुनियों का कृतिकर्म - वंदना कर बैठ गई। साधुओं के पूछने पर उसने यह आलोचना दी अर्थात् परिचय दिया ।
५७०५. पाडल
गुज्झक्खिणि अम्ह साविया कहणं ।
जम्मं,
साएतगसेट्ठिपुत्तभज्जत्तं । पइमरण चेइवंदणछोम्मेण गुरू विसज्जणया ॥ ५७०६. पव्वज्जाए असत्ता, उज्जेणिं भोगकंखिया जामिं । तत्थ किर बहू साधू, अवि होज्ज परीसहजिय त्था ॥ पाटलिपुत्र नगर में मेरा जन्म हुआ और साकेत नगर के एक श्रेष्ठीपुत्र की मैं भार्या बनी। पति की मृत्यु हो गई। मैं चैत्य - वंदन के मिष से गुरु अर्थात् श्वसुर के द्वारा विसर्जित करने पर - आज्ञा प्राप्तकर प्रस्थित हुई हूं। मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने में असमर्थ हूं। मैं भोगों की अभिलाषा से उज्जयिनी नगरी में जा रही हूं। मैंने सुना है कि वहां अनेक साधु परीषह से पराजित होकर वहां रह रहे हैं, इसलिए मैं वहां जा रही हूं। आपको देखकर मेरा मन आगे जाने में असमर्थ हो रहा है।
५७०७. दूरे मज्झ परिजणो, जोव्वणकंडं चऽतिच्छए एवं ।
पेच्छह विभवं मे इमं, न दाणि रूवं सलाहामि ॥ ५७०८. पडिरूववयत्थाया, किणा वि मज्झं मणिच्छिया तुब्भे । भुंजामु ताव भोए, दीहो कालो तव - गुणाणं ॥ मेरे परिजन दूर हैं। मेरा यौवनकांड - तारुण्य का अवसर ऐसे ही बीतता जा रहा है। आप भी युवा हैं। यह मेरा वैभव देखें। मैं अपने रूप की श्लाघा करना नहीं चाहती। आप मेरी अवस्था के प्रतिरूप हैं। किसी कारण से आप मेरे मन को बहुत भा गए हैं। हम भोग भोगें । तपोगुण का पालन करने के लिए दीर्घ काल सामने है।
For Private & Personal Use Only
५७०९. भणिओ आलिदो या, जंघा संफासणाय ऊरूयं ।
अवयासिओ विसन्नो, छट्ठो पुण निप्पकंपो उ ॥ वहां अनेक मुनि थे । एक कहने मात्र से स्खलित हो गया। दूसरा स्त्री के स्पर्श स, तीसरा जंघाओं का स्पर्श करने से
www.jainelibrary.org