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बृहत्कल्पभाष्यम्
५९४ विषण्ण, चौथा ऊरु के संस्पर्श से, पांचवां जबरन आलिंगन करने पर और छठा मुनि निष्प्रकंप रहा। ५७१०.पढमस्स होइ मूलं, बितिए छेओ य छग्गुरुगमेव।
छल्लहुगा चउगुरुगा, पंचमए छट्ठ सुद्धो उ॥ प्रथम को मूल, दूसरे को छेद, तीसरे को षड्गुरु, चौथे को षडलघु, पांचवे के चतुर्गुरु-यह प्रायश्चित्त है। छठा शुद्ध है। ५७११.सव्वेहिं पगारेहिं, छंदणमाईहिं छट्ठओ सुद्धो।
तस्स वि न होइ गमणं, असमत्तसुए अदिन्ने य॥ सभी प्रकार के छंदना आदि से अप्रकंप रहने के कारण छठा मुनि शुद्ध होने पर भी असमाप्तश्रुत होने के कारण उसे भी गुरु की अनुज्ञा के बिना गण से निर्गमन करना नहीं कल्पता। ५७१२.एए अण्णे य बहू, दोसा अविदिण्णनिग्गमे भणिया।
मुच्चइ गणममुयंतो, तेहिं लभते गुणा चेमे॥ गुरु की अनुज्ञा के बिना गण से निर्गमन करने पर ये तथा अन्य अनेक दोष होते हैं। जो गण को नहीं छोड़ता वह इन सारे दोषों से मुक्त हो जाता और वह इन गुणों को प्राप्त कर लेता है। ५७१३.नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। ___ धन्ना गुरुकुलवासं, आवकहाए न मुंचंति॥
जो गुरुकुलवास को यावज्जीवन नहीं छोड़ता वह ज्ञान का आभागी होता है, दर्शन और चारित्र में स्थिरतर होता है। ऐसे शिष्यों को धन्य हैं जो गुरुकुलवास को नहीं छोड़ते। ५७१४.भीतावासो रई धम्मे, अणाययणवज्जणा।
निग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं॥ गुरुकुल में भीतावास होता है, आचार्य आदि से डरकर रहना होता है। वहां रहने पर धर्म में रति होती है। अनायतन का वर्जन होता है, कषायों का निग्रह होता है। यही धीर अर्थात् तीर्थंकरों का शासन है। ५७१५.जइमं साहुसंसग्गिं, न विमोक्खसि मोक्खसि।
उज्जतो व तवे निच्चं, न होहिसि न होहिसि॥ यदि तुम इस साधु संसर्ग को नहीं छोड़ोगे तो मुक्त हो जाओगे। यदि तुम प्रतिदिन तपस्या में उद्यत नहीं रहोगे तो अव्याबाध सुखी नहीं हो सकोगे। ५७१६.सच्छंदवत्तिया जेहिं, सग्गुणेहिं जढा जढा।
___ अप्पणो ते परेसिं च, निच्चं सुविहिया हिया॥
जिन साधुओं ने स्वच्छंदवर्तिता छोड़ दी है और जो सद्ज्ञान से रहित हैं, वे भी मुनि स्वयं के लिए तथा पर के लिए भी सदा सुविहित और हितकारी होते हैं।
५७१७.जेसिं चाऽयं गणे वासो, सज्जणाणुमओ मओ।
दुहाऽवाऽऽराहियं तेहिं, निव्विकप्पसुहं सुहं॥ जिन साधुओं को इस गण में वास करना मत है-मान्य है वे इस सज्जनानुमत तीर्थंकरों द्वारा अनुमत गण में रह रहे हैं। वे मुनि निर्विकल्प सुख का अनुभव करते हैं। वे दोनों सुखों-श्रमणसुख और निर्वाणसुख की आराधना करते हैं। ५७१८.नवधम्मस्स हि पाएण, धम्मे न रमती मती।
वहए सो वि संजुत्तो, गोरिवाविधुरं धुरं॥ नये प्रव्रजित मुनि का धर्म-श्रुत-चारित्र में मति नहीं होती। वह भी अन्यान्य साधुओं के साथ संयुक्त होकर संयम धुरा को वहन करने में समर्थ हो जाता है। जैसे बैल दूसरे बैल के साथ संयुक्त होकर धुरा शकटभार को वहन करने में समर्थ हो जाता है। ५७१९.एगागिस्स हि चित्ताई, विचित्ताई खणे खणे।
उप्पज्जति वियंते य, वसेवं सज्जणे जणे॥ अकेले मुनि का चित्त क्षण-क्षण में विचित्र अध्यवसायों में परिणत होता रहता है। वे उत्पन्न होते हैं और विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए साधु सुसाधुओं के मध्य में रहे। ५७२०.अहवा अणिग्गयस्सा,
भिक्ख वियारे य वसहि गामे य। जहिं ठाणे साइज्जति,
चउगुरु बितियम्मि एरिसगो। अथवा जो गच्छ से अनिर्गत हैं वे मुनि भिक्षाचर्या तथा विचारभूमी में जाते हैं या वसति में रहते हैं या गांव के बाहर गमन करते हैं, जहां देवता स्त्रीरूप में निर्ग्रन्थ को ग्रहण कर लेता है और यदि निर्ग्रन्थ उसमें आसक्त होकर प्रतिसेवना करता है तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रथम सूत्र की व्याख्या है। द्वितीय सूत्र में भी यही गम है, विकल्प है। ५७२१.एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो।
नवरं पुण णाणत्तं, पुव्वं इत्थी ततो पुरिसो॥ यही विकल्प आर्याओं के लिए भी जानना चाहिए। यहां नानात्व यह है कि पहले देवी पुरुषरूप की विकुर्वणा कर आर्या से समागम करती है और दूसरा पुरुष सूत्र है उसमें उसमें देव पुरुषरूप की विकुर्वणा करता है। ५७२२.विगुरुब्विऊण रूवं, आगमणं डंबरेण महयाए।
जिण-अज्ज-साहुभत्ती, अज्जपरिच्छा वि य तहेव।। सम्यग्दृष्टि देवता पुरुषरूप की विकुर्वणा कर आता है और महान् आडंबर से तीर्थ की विकुर्वणा करता है। जहां साध्वियां हैं वहां श्रावक का रूप बनाकर वंदना
। हा
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