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________________ पांचवां उद्देशक करता है और साध्वियों से कहता है- मेरे साथ चलो, भोग भोगो, फिर जिनचैत्यों, आर्यिकाओं और साधुओं की भक्ति करेंगे। वह भी आर्यिकाओं की पूर्ववत् परीक्षा करता है। ५७२३. वीसत्थया सरिसए, सारूप्पं तेण होइ पढमं तु । पुरिसुत्तरिओ धम्मो, निग्गंथो तेण पढमं तु ॥ सदृश में विश्वस्तता होती है, इसलिए पहले दोनों पक्षों का सारूप्यसूत्र बताया गया है। 'पुरुषोत्तर धर्म' के अनुसार पहले निर्ग्रन्थों के दो सूत्र कहे गए हैं। ५७२४. खित्ताइ मारणं चा, धम्माओ भंसणं करे पंता । भद्दाए पडिबंधो, पडिगमणादी व निंतीए ॥ प्रान्तदेवता साधु को प्रतिसेवना में रत देखकर क्षिप्तचित्त कर देती है या मरण-धर्म से भ्रष्ट कर देती है। यदि साधु भद्रा देवी में प्रतिबंध करता है, वह जब चली जाती है तब वह मुनि प्रतिगमन कर देता है। ५७२५. बितियं अच्छित्तिकरो, बहुवक्खेवे गणम्मि पुच्छित्ता । सुत्त - ऽत्थझरणहेतुं, गीतेहिं समं स निग्गच्छे॥ यह द्वितीयपद है। जो मुनि अव्यवच्छित्तिकर होता है वह गच्छ में बहुत व्याक्षेप जानकर गुरु को पूछकर, गीतार्थ साधुओं के साथ सूत्रार्थ के स्मरण के लिए गच्छ से निर्गमन करता है। अहिगरण-पदं भिक्खू य अहिगरणं कट्टु तं अहिगरणं अविओसवेत्ता इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पर तस्स पंच राइंदियं छेयं कट्टु - परिणिव्ववियपरिणिव्वविय दोच्चं पि तमेव गणं पडिनिज्जाएयव्वे सिया, जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया ॥ (सूत्र ५) ५७२६. एगागी मा गच्छसु, चोइज्जते असंखडं होज्जा । ऊणाहिगमारुवणे, अहिगरणं कुज्ज संबंधो ॥ 'अकेले मत जाओ' - इस प्रकार कहने पर भी जो नहीं मानता तब कलह होता है। अथवा वह मुनि जब गण में पुनः प्रवेश करता है तब उसे न्यूनाधिक आरोपणा दी जाती है तब वह कलह करता है। Jain Education International ५९५ ५७२७.सच्चित्तऽचित्त मीसे, वओगत परिहारिए य देसकहा। सम्ममणाउ अधिकरण ततो समुप्पज्जे ॥ ५७२८.आभव्वमदेमाणे, गिण्हंते तमेव मग्गमाणे वा । सच्चित्तेयरमीसे, वितहापडिवत्तितो कलहो ॥ ५७२९. विच्चामेलण सुत्ते, देसीभासा पवंचणे चेव । अण्णम्मि य वत्तव्वे, हीणाहिय अक्खरे चेव ॥ ५७३०.परिहारियमठविते, ठविते अणट्ठाइ णिव्विसंते वा । कुच्छितकुले व पविसति, चोदितऽणाउट्टणे कलहो ॥ ५७३१. देसकहापरिकहणे, एक्के एक्के व देसरागम्मि | माकर देसकहं वा, को सि तुमं मम त्ति अधिकरणं ॥ ५७३२.अह- तिरिय उड्डकरणे, बंधणणिव्वत्तणा य णिक्खिवणं । उवसम-खएण उड्लं, उदएण भवे अकरणं ॥ ५७३३. जो जस्स उ उवसमती, विज्झवणं तस्स तेण कायव्वं । जो उ उवेहं कुज्जा, आवज्जति मासियं लहुगं ॥ ५७३४.लहुओ उ उवेहाए, गुरुओ सो चेव उवहसंतस्स । उत्तुयमाणे लहुगा, सहायगत्ते सरिसदोसो ॥ ५७३५. एसो वि ताव दमयतु, हसति व तस्सोमताइ ओहसणा । उत्तरदाणं मा ओसराहि अह होइ उत्तुयणा ॥ ५७३६. वायाए हत्थेहि व, पाएहि व दंत-लउडमादीहिं । पडिसेवणं । परिहायई ॥ सरडा जो कुणति सहायत्तं, समाणदोसं तगं बेंति ॥ ५७३७. परपत्तिया ण किरिया, मोत्तु परद्वं च जयसु आयट्टे । अवि य उहा वुत्ता, गुणो वि दोसायते एवं ॥ ५७३८. जति परों पडिसेविज्जा, पावियं मज्झ मोणं करेंतस्स के अट्ठे ५७३९. णागा ! जलवासिया !, सुह तस - थावरा ! | जत्थ भंडति, अभावो परियत्तई ॥ ५७४०. वणसंड सरे जल-थल - खहचर वीसमण देवता कहणं । वारेह सरडुवेक्खण, धाडण गयणास त्तूरणता ॥ ५७४१. तावो भेदो अयसो, हाणी दंसण- चरित्त नाणाणं । साहु संसारवड्ढणो साहिकरणस्स ॥ ५७४२. अतिभणित अभणिते वा, तावो भेदो य जीव चरणे वा । रूवसरिसं ण सीलं, जिम्हं व मणे अयसो एवं ॥ ५७४३. अक्कुट्ठ तालिए वा, पक्खापक्खि कलहम्मि गणभेदो । एगतर सूयएहिं व, रायादीसिठ्ठे गहणादी ॥ ५७४४. वत्तकलहो उ ण पढति, अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी । जह कोहादिविवड्डी, तह हाणी होइ चरणे वि ॥ ५७४५.आगाढे अहिगरणे, उवसम अवकढणा य गुरुवयणं । उवसमह कुणह झायं, छड्डुणया सागपत्तेहिं ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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