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=बृहत्कल्पभाष्यम् ५७४६.जं अज्जियं समीखल्लएहिं तव-नियम-बंभमइएहिं। तथा ऊर्ध्वगतिगमन में उनका स्वरूप क्या होता है, उसकी
तं दाई पच्छ नाहिसि, छड्डेतो सागपत्तेहिं॥ मीमांसा करनी चाहिए। बंधन का अर्थ है-संयोजना, ५७४७.जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए। निर्वर्तना, निक्षेपणा और निसर्जना। कषायों के उदय से
तं पि कसाइयमेत्तो, णासेइ णरो मुहुत्तेणं॥ अधोगतिमान होता है और उपशम और क्षय से ऊर्ध्वगति ५७४८.आयरिओ एग न भणे,अह एग णिवारे मासियं लहुगं। गमन होता है।
राग-द्दोसविमुक्को, सीतघरसमो उ आयरिओ॥ जो साधु जिस साधु को कुपित कर देता है, वह उस ५७४९.वारेति एस एतं, ममं न वारेति पक्खराएणं। क्रोध का उपशमन करे, उससे क्षमायाचना करे। जो उपेक्षा
बाहिरभावं गाढतरगं च मं पेक्खसी एक्वं॥ करता है, उसे लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। भावाधिकरण की उत्पत्ति के हेतु-सचित्त, अचित्त, मिश्र, जो उपेक्षा करता है उसे लघुमास का प्रायश्चित्त और जो वचोगत, परिहार, देशकथा-इन स्थानों में वर्तन न करने की उपहास करता है उसे गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा जो कलह प्रेरणा देने पर जो सम्यग् स्वीकार नहीं करता, इससे करने वाले को उत्तेजित करता है उसे चार लघुक तथा जो अधिकरण उत्पन्न होता है। (गाथा की विस्तृत व्याख्या आगे कलह में सहायक होता है, उसे कलह करने वाले की भांति की गाथाओं में)।
प्रायश्चित्त आता है अर्थात् चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त किसी आचार्य के पास शैक्ष-शैक्षिका प्रव्रज्या लेने आते होता है। हैं, वे उस आचार्य के आभाव्य होते हैं। उनको यदि कोई दो मुनि कलह कर रहे हैं। एक कुछ खिन्न हो रहा है। दूसरा आचार्य ग्रहण कर लेता है, या पूर्वगृहीत आभाव्य दूसरा मुनि कहता है इसका भी (जो खिन्न नहीं हो रहा है) की याचना करने पर वह आचार्य वितथप्रतिपत्तियों-झूठे दमन करना चाहिए। एक की अवमानना होने पर दूसरा तर्कों से उसे झुठला देता है तो कलह होता है। आभाव्य हंसता है, यह उपहास है। दोनों के बीच कोई कहता है-उत्तर सचित्त, अचित्त और मिश्र हो सकता है। (सचित्त-शैक्ष- देते रहना। अपने निश्चय से मत हटना। तुम उससे हार मत शैक्षिका। अचित्त-वस्त्र, पात्र आदि। मिश्र-सभांडोपकरण मान लेना। यह उसको उत्तेजना देना है। शैक्ष आदि।)
दो व्यक्ति कलह कर रहे हैं। एक पक्ष में होकर जो वाणी सूत्र विषयक व्यत्यामेडित (अन्यान्य सूत्रालयों को यत्र- से, हाथों से, पैरों से, दांतों से तथा लकड़ी आदि से उनका तत्र मिलाकर बोलना), अपनी-अपनी देशीभाषा बोलने पर, सहयोग करता है, वह भी कलहकारी व्यक्तियों की भांति ही प्रपंच-नाना प्रकार की चेष्टाएं करना, अन्य के बोलने के दोषी है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। समय अन्य का बोलना, हीनाक्षर, अत्याक्षर पद बोलना- परप्रत्ययिक क्रिया-कर्मबंध हमारे नहीं होता। इसलिए रोकने पर ये सब कलह के कारण होते हैं।
परार्थ को छोड़कर आत्मार्थ में प्रयत्नशील रहना चाहिए। परिहारिक कुल वे होते हैं जहां गुरु, ग्लान, बाल आदि इसीलिए उपेक्षा की बात कही गई है। आचार्य कहते हैंमुनियों के लिए प्रायोग्य भक्त-पान प्राप्त हो जाता है। यदि उपेक्षा गुण है परन्तु वह भी इस प्रकार दोष हो जाता है।' उनकी स्थापना न की जाए या स्थापित करने पर भी (उपेक्षा सर्वत्र गुणकारी नहीं होती।) निष्कारण उनमें प्रवेश किया जाए और यदि उसमें जाने से ___ यदि कोई मुनि पापिका प्रतिसेवना-अकुशलकर्मरूप रोका जाए तो कलह होता है। अथवा परिहारिककुल अर्थात् अधिकरण आदि की प्रतिसेवना करता है तो मेरा क्या! मौन कुत्सित कुल में मुनि जाता है तो रोकने पर यदि नहीं रुकता का आचरण करने वाले मेरे क्या कोई ज्ञान आदि के अर्थ की है तो कलह होता है।
परिहानि होती है? कुछ भी नहीं। अनेक मुनि देशकथा में संलग्न हैं। अलग-अलग मुनियों जो अधिकरण-कलह की उपेक्षा करते हैं, उससे क्या की भिन्न-भिन्न देश के प्रति रागभाव होता है। वह उसकी अनर्थ होता है वह निम्न निदर्शन से बताया गया हैप्रशंसा करता है, दूसरा उसका खंडन करता है। कोई कहता एक अरण्य के मध्य एक विशाल तालाब था। उसमें है देशकथा मत करो। कौन हो तुम मुझे कहने वाले, यह जलचर, स्थलचर और खेचर प्राणी थे। वहीं एक विशाल कहने पर कलह होता है।
हस्तीयूथ था। वह यूथ उस तालाब में पानी पीने, क्रीड़ा करने ___ कषायों का उदय भावाधिकरण है। अधोगति, तिर्यक्गति और वृक्षों की छाया में विश्राम करने आता-जाता था। एक १. असंयतों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा गुण है, संयतों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा महान् दोष है।
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