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तीसरा उद्देशक
३८७ के इशारे से या लकड़ी के माध्यम से न पूछे और न दिखाये। ऐसा पूछने या दिखाने पर अनेक दोष होते हैं। ३७४७.तेणेहि अगणिणा वा, जीवियववरोवणं व पडिणीए।
खरए खरिया सुण्हा, नट्टे वट्टक्खुरे संका।। चोरों ने उस घर में चोरी की हो, अग्नि से उसे जला दिया हो या किसी शत्रु ने उस घर में किसी की हत्या कर दी हो, किसी ने दास या दासी का अपहरण कर दिया हो, पुत्रवधू किसी के साथ भाग गई हो, वृत्तक्षुर-प्रधान घोड़े का किसी ने अपहरण कर लिया हो तो मुनियों के प्रति यह शंका हो सकती है कि इन्होंने ही अपहरण किया है, जलाया है
आदि।
हो तो गणधर उसे साथ ले आर्यिका के प्रतिश्रय में जा सकता है। ३७४२.संलिहियं पि य तिविहं, वोसिरियव्वं च तिविह वोसटुं।
कालगय त्ति य सोच्चा, सरीरमहिमाइ गच्छेज्जा। संलेखित तथा संलेख्यमान वस्तु तीन प्रकार की है- आहार, शरीर और उपधि। इसी प्रकार व्युत्स्रष्टव्य तथा व्युत्स्रष्ट भी तीन प्रकार का है-आहार, शरीर और उपधि। इन तीनों में आर्यिका को स्थिर करने के लिए वहां जाया जा सकता है। आर्यिका कालगत हो गई है यह सुनकर उसके शरीर-महिमा के लिए आचार्य स्वयं वहां जाएं। ३७४३.जाहे विय कालगया, ताहे वि य दुन्नि तिन्नि वा दिवसे।
गच्छेज्ज संजईणं, अणुस४ि गणहरो दाउं।। जब भी कोई विशिष्ट साध्वी (प्रवर्तिनी आदि) कालगत हो तो आचार्य दो-तीन दिन तक आर्यिकाओं को अनुशिष्टि देने के लिए वहां जाएं। ३७४४.अप्पबिति अप्पतितिया,पाहुणया आगया सउवचारा।
सिज्जायर मामाए, पडिकुट्ठद्देसिए पुच्छा। प्राघुणक मुनि आए। वे दो-तीन आदि हैं। वे आर्यिका के स्थान में जाना चाहे तो सोपचार वहां जाएं। उपचार यह है-तीन स्थानों में वे नैषधिकी शब्द करें। अथवा वे मुनि जब आर्यिका के उपाश्रय में जाते हैं तब आर्यिकाओं द्वारा जो उपचार करना होता है वह यह है-प्रवर्तिनी यदि स्थविरा होती है तो वह एक साध्वी को साथ ले मुनि के सामने बैठे, यदि तरुणी हो तो दो साध्वियों के साथ बाहर जाए। जो स्थविरा हो वह मुनियों के सामने बैठे। तब मुनि उनको शय्यातरकुल, मामाककुल तथा प्रतिक्रुष्टकुल तथा जिन कुलों में औद्देशिक बनाया जाता है, उनके विषय में प्रवर्तिनी को पूछते हैं। ३७४५.आसंदग कट्ठमओ, भिसिया वा पीढगं व कट्ठमयं।
तक्खणलंभे असई, पडिहारिग पेहऽभोगऽण्णे॥ मुनियों के आने पर काष्ठमय आसन्दक अथवा काष्ठमय वृषिका या पीढग तत्काल मिले तो वह ग्रहण करे। तत्काल प्राप्त न होने की स्थिति में प्रातिहारिक लेकर स्थापित करे। उनकी प्रतिलेखना करे परन्तु अन्य उनका उपभोग न करे। ३७४६.बाहाइ अंगुलीइ व, लट्ठीइ व उज्जु ठिओ संतो।
न पुच्छेज्ज न दाएज्जा, पच्चावाया भवे तत्थ॥ मुनि शय्यातरकुल आदि के विषय में किस विधि से पूछे और साध्वियां किस विधि से उन्हें दिखाएं/कहें ?
शय्यातरकुल के विषय में पूछते हुए या दिखाते हुए उस घर के सम्मुख स्थित होकर न बाहु को फैलाकर, या अंगुली
३७४८.सेज्जायराण धम्म, कहिंति अज्जाण देति अणुसडिं।
धम्मम्मि य कहियम्मि य, सव्वे संवेगमावन्ना। ____ मुनि वहां शय्यातरों को धर्मदेशना देते हैं और आर्यिकाओं को, जो विषादग्रस्त या संयम में अस्थिर हों, अनुशिष्टि देते हैं। धर्मदेशना करने पर श्रावक और साध्वियां सभी संवेग को प्राप्त हो जाते हैं। ३७४९.अन्नो वि अ आएसो, पाहुणग अभासिया उ तेणभए।
चिलिमिणिअंतरिया खलु, चाउस्साले वसेज्जा थे। इस विषय में एक अन्य आदेश-मत भी है। यदि प्राघुणक मुनि अभाषिक-तत्रस्थ भाषा को जानने वाले न हों, द्रविड़ आदि देशों से आए हुए हों तो साध्वियां उनके लिए उपाश्रय की गवेषणा करती हैं। न मिलने पर, बाहर स्तेनभय होने पर, मुनि आर्यिकाओं की वसति में चतुःशाला हो तो उसमें चिलिमिलिका से अंतरित होकर, उसे बांधकर वहां रह सकते हैं। ३७५०.कुटुंतरस्स असती, कडओ पुत्ती व अंतरे थेरा।
तेसंतरिया खुड्डा, समणीण वि मग्गणा एवं ।। वसति के अभाव में साधु-साध्वी एक ही वसति में रहते हुए कुड्यान्तरित होकर रहें। इसके अभाव में दोनों की स्थायिका के मध्य कटक या वस्त्र का परदा (चिलिमिलिका) बांधे। पहले स्थविर, पश्चात् क्षुल्लक, मध्यम और उनके पश्चात् तरुण स्थायिका करें। इसी प्रकार श्रमणीवर्ग की भी मार्गणा करें--स्थविर साधुओं के आसन्न क्षुल्लिका, फिर स्थविरा, फिर मध्यमा और फिर तरुण साध्वियां। ३७५१.अन्नाए आभोगं, नाए ससदं करेंति सज्झायं।
अच्चुव्वाया व सुवे, अच्छंति व अन्नहिं दिवसं। ___ यदि जनता से अज्ञात वे वहां स्थित हों तो रात्री में आभोग-उपयोग करते हैं अर्थात् मौन रहते हैं। यदि ज्ञात हो गए हों तो जोर-जोर से स्वाध्याय करते हैं। यदि वे अत्यन्त
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