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थके हुए हों तो सो जाते हैं यदि वे दो-तीन दिन वहीं रहना चाहें तो दिन में अन्यत्र रहकर रात्री में पुनः वहीं लौट आते हैं।
३७५२. समणी समण पविट्ठे, निसंत उल्लावऽकारणे गुरुगा।
पयला निद्द तुवट्टे, अच्छीमलणे गिही मूलं ॥ श्रमण तथा श्रमणी कायिकी से निवृत्त होकर उपाश्रय में प्रविष्ट होकर यदि उस निशांत बेला में बिना किसी कारणवश परस्पर उल्लाप करते हैं तो उसका प्रायश्चित्त है चतुर्गुरुक। अथवा मुनि वहीं रहकर दिन में झपकी लेता है, बैठे-बैठे नींद लेता है, बिछौना बिछाकर सोता है या आंखों को मसलता है तो गृही के मन में शंका होती है। उसका प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु और निःशंक होने पर मूल का प्रायश्चित्त आता है।
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३७५३. उच्चारं पासवणं, व अन्नहिं मत्तसु व जयंति । अधि पविट्ठा वा अदि णितेधरा भयिता ॥ वहां स्थित मुनि उच्चार, प्रस्रवण आर्यिकाओं की कायिकी भूमी को छोड़कर अन्यत्र करते हैं अथवा मात्रक में कर यतनापूर्वक परिष्ठापन करते हैं। उस समय यदि गृहस्थों द्वारा अदृष्ट प्रविष्ट हों तो अदृष्ट ही बाहर जाएं। यदि दृष्टप्रविष्ट हो तो उसमें भजना है अर्थात् दृष्ट या अदृष्ट बाहर जाएं।
३७५४. तत्थऽन्नत्थ व दिवस, अच्छंता परिहरंति निद्दाई |
जयणाए व सुविंती, उभयं पि य मग्गए वसहिं ॥ रात्री में आर्या की वसति में रहकर, दिन में वहीं अथवा उद्यान आदि में रहते हुए निद्रा आदि का परिहार करते हैं अथवा यतनापूर्वक सोते हैं। अधिक दिनों तक वहां रहने की स्थिति में दोनों अर्थात् श्रमण और श्रमणी अन्य वसति की मार्गणा करे। प्राप्त हो जाने पर साधु वहां रहें। ३७५५. अहिणा विसूइका वा, सहसा डाहो व होज्ज सासो वा ।
जति आगाढं अज्जाण होइ गमणं गणहरस्स ॥ यदि आर्या को सांप ने डस लिया, विसूचिका हो गई, सहसा दाह ज्वर हो गया, श्वास का प्रकोप हो गया-यदि इस प्रकार का आगाद कारण हो जाए तो गणधर रात या दिन में आर्यिका के प्रतिश्रय में जा सकते हैं।
३७५६. पडिणीय मेच्छ मालव, गय गोणा महिस तेणगाई वा ।
आसन्ने उवसग्गे, कप्पइ गमणं गणहरस्स ॥ प्रत्यनीक, म्लेच्छ, मालवस्तेन, हाथी, गाय, महिष, स्टेन- ये संयतियों को उपसर्ग दे रहे हैं अथवा निकट समय में उनका उपसर्ग होने वाला है, तो गणधर को उनके प्रतिश्रय में जाना कल्पता है।
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बृहत्कल्पभाष्यम् ३७५७.रायाऽमच्चे सेट्ठी, पुरोहिए सत्थवाह पुत्ते य । गामउडे रउडे, जे य य गणहरे महिड्डीए ॥ राजा, अमात्य, श्रेष्ठी पुरोहित, सार्थवाह तथा राजपुत्र, अमात्यपुत्र, श्रेष्ठीपुत्र, पुरोहितपुत्र और सार्थवाहपुत्र, ग्रामकूट — ग्राममहत्तर, राष्ट्रकूट -राष्ट्रमहत्तर- ये सब महर्द्धिक माने जाते हैं (टीकाकार का अभिमत है कि ये सब प्रब्रजित अवस्था के गृहीत हैं।) गणधर भी महर्द्धिक माने जाते हैं। ३७५८. अज्जाण तेयजणणं,
दुज्जण सचमक्कारया य गोरवया ।
तम्हा समणुण्णायं,
गणहर गमणं महिडीए ॥ न महर्द्धिक व्यक्तियों के आर्थिका के उपाश्रय में जाने पर आर्याओं का माहात्म्य बढ़ता है दुर्जन व्यक्तियों के मन में चमत्कार होता है, वे दुर्जनता नहीं करते। लोगों में आर्याओं के प्रति गौरव बढ़ता है। इसलिए गणधर तथा प्रव्रजित महर्द्धिक व्यक्तियों का आर्यिका के प्रतिश्रय में जाना अनुज्ञात है।
३७५९. संतविभवा जइ तवं, करेंति अवइज्झिऊण इड्डीओ |
सीयंतथिरीकरणं, तित्थविबडी य वण्णो य ॥ श्रमणियां उन महर्द्धिक व्यक्तियों को देखकर सोचती हैंइन व्यक्तियों ने अपनी प्राप्त ऋद्धि को छोड़कर तप करना प्रारंभ किया है तो हम प्रमाद क्यों कर रही हैं ? इस प्रकार संयम में अस्थिर श्रमणियां संयम में स्थिर हो जाती हैं। इससे तीर्थ की विशेष वृद्धि होती है और उससे यश बढ़ता है।
३७६०. वीसुंभिओ य राया, लक्खणजुत्तो न विज्जती कुमरो ।
पडिणीएहि व कहिए, आहावंती दवदवस्स ॥ एक राजा के तीनों पुत्र प्रब्रजित हो गए। राजा भी कालगत हो गया। अमात्य ने लक्षणयुक्त किसी राजपुत्र की अन्वेषणा की। ऐसा राजपुत्र नहीं मिला। कुछ प्रत्यनीक व्यक्तियों ने अमात्य से कहा प्रब्रजित तीनों राजपुत्र यहां उद्यान में आए हुए हैं। तब अमात्य आदि राजपुरुष अत्यंत शीघ्रता से उद्यान में आए।
३७६१. अइ सिं जणम्मि वन्नो, य आयति इहिमतपूया य
रायसुयदिक्खिणं, तित्थविवह्नी व लद्धी य॥ प्रत्यनीकों ने यह बात क्यों कही ? इस राजपुत्र के दीक्षित होने पर लोगों में अतीव यश हो रहा है। इससे इन श्रमणों की आयति-संतति अव्यवच्छिन्न होगी। ऋद्धिमान् पुरुष इनकी पूजा इसीलिए करते हैं। राजपुत्र दीक्षित हुआ है इससे तीर्थ की वृद्धि होती है। इसीसे आहार, वस्त्र आदि की
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