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________________ २० बृहत्कल्पभाष्यम् मल गाथा संख्या विषय अपवाद आदि। अविधि में अदत्तादि दोष और प्रायश्चित्त। ४३०१-४३०७ अविधि और विधि भेद से पृच्छा के दो प्रकार। वस्त्र गवेषणा के लिए विधि पृच्छा। आपवादिक कारण। - सूत्र १८ ४३०८ यथारात्निक वस्त्रों के विभाजन की सार्थकता। अविनय आदि दोषों की निःशेषता। ४३०९-४३१४ एकाचार्य प्रतिबद्ध, साम्भोगिक-असाम्भोगिक तथा अनेकाचार्यप्रतिबद्ध क्षेत्र में निर्ग्रन्थ संघाटक के वस्त्र लाने की विधि। वृषभ मुनियों द्वारा वस्त्रों का यथारानिकों को क्रम से देने का विधान तथा गुरु के योग्य वस्त्र। ४३१५-४३१८ रत्नाधिक कौन? उनका स्वरूप। किसको कब और कैसे वस्त्र देने का विधान। ४३१९-४३२४ अनेक साधुओं द्वारा आनीत वस्त्र के विभाजन की विधि। वस्त्र लाने वाले निर्ग्रन्थों द्वारा संक्षोभ अथवा कलह करने पर वस्त्रों के विभाग का अलग अलग प्रकार। ४३२५-४३२८ असंतुष्ट साधुओं द्वारा विभाजन की पद्धति मान्य न होने पर उनको समझाने की पद्धति। समझाने पर भी शांत न होने पर उनको मनोनुकूल वस्त्र देकर संबंध विच्छेद का निर्देश। अपनी गलती को स्वीकार करने पर खरंटना और भर्त्सना की पद्धति। पाशे फेंकना आदि शेष विधियों का परामर्श देने वालों को भी प्रायश्चित्त का विधान। ४३२९ वस्त्रों के समविभाग करने का स्वरूप और उनको देने की पद्धति। ४३३०,४३३१ क्षपक द्वारा लाए गए वस्त्रों के विभाजन की विधि। ४३३२-४३३४ क्षपक द्वारा आनीत तथा उसी के द्वारा दीयमान वस्त्रों को देखकर मुनि द्वारा निषेध किए जाने पर क्षपक द्वारा सचित्त-अचित्त तथा मिश्र ग्रहण की विधि का प्रतिपादन। ४३३५-४३३८ सचित्त ग्रहण का स्वरूप-आचार्य, अभिषेक, भिक्षु, क्षुल्लक और स्थविर-इन पांच निर्ग्रन्थों के पानी, अग्नि, चोर, दुर्भिक्ष आदि में फंस जाने अथवा घिर जाने पर उनमें किसको किस क्रम से बचाया जाए, तद्विषयक विधि। गाथा संख्या विषय ४३३९-४३४१ प्रवर्तिनी, अभिषेका, स्थविरा, भिक्षुणी और क्षुल्लिका-इन पांच निर्ग्रन्थियों के पानी आदि में फंस जाने पर उनको क्रम से बचाने की विधि। ४३४२-४३४६ बाल, वृद्ध अजंगम भी अनुकंपनीय हैं फिर आचार्य आदि का ही निस्तारण क्यों ? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। ४३४७-४३५२ मिश्र ग्रहण का स्वरूप आचार्य, उपाध्याय आदि निर्ग्रन्थ तथा प्रवर्तिनी उपाध्याया आदि निन्थियों-इन उभय पक्षों के एक साथ पानी आदि उपद्रव में फंसने पर उनको क्रम से पार उतारने की विधि। ४३५३-४३५९ अचित्त ग्रहण के दो प्रकार अभिनव-ग्रहण और पुराण ग्रहण। इनका स्वरूप और इनके नाना भेद। ४३६० यथायोग्य औधिक और औपग्रहिक उपकरणों के परिभोग की तालिका। ४३६१ पूर्व कथनीय को पश्चात् कहने पर प्रायश्चित्त । ४३६२ अहंकारयुक्त वचन कहने का निषेध। ४३६३ मूल के बिना वृक्ष की शोभा नहीं। ४३६४-४३६६ दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों का निरूपण। सूत्र १९ ४३६७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को यथारात्निक के क्रम से शय्या और संस्तारक लेने की कल्पनीयता। ४३६८ शय्या-संस्तारक का अर्थ। शय्या-संस्तारक के ग्रहण का काल। अग्रहण में प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। ४३६९ विकाल में वसति ग्रहण के दोष तथा तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त। ४३७०-४३७२ पूर्वाह्न में वसति ग्रहण करें या नहीं? शिष्य का प्रश्न आचार्य द्वारा समाधान। ४३७३,४३७४ मंडलीबंध में भोजन करने से लगने वाले दोष। ४३७५ विकालवेला में वसति में याचना करने पर तथा वेश्यापाटक आदि जुगुप्सित स्थान में निवास करे तो प्रायश्चित्त। ४३७६,४३७७ विकालवेला में श्वापद, चोर आदि का भय। स्तेन के दो प्रकार। पृथक्-पृथक् रूप में वसति में रहने की परवशता। उनसे होने वाले दोष। ४३७८,४३७९ अप्रत्युपेक्षित वसति में रहने से होने वाली विराधना और दोष। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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