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________________ कथा परिशिष्ट =७११ पट्ट घर द्वार को पीटने लगा। आवाज सुन उसका पति जाग गया। वह उठा, द्वार पर जाकर देखा कि पुष्पसहित पट्ट दरवाजा पीट रहा है। उसने अपनी औरत से पूछा-ये पुष्प कहां से लाई? औरत ने सारी बात बता दी। तब उसने गांव के लोगों को एकत्रित किया और सारी जानकारी दी। लोगों ने संन्यासी को गांव से निकाल दिया। गा. २८१९ वृ. पृ. ७९७ ८०. भिक्षुक दृष्टान्त कालोदायी नामक एक भिक्षुक. रात्री के समय एक ब्राह्मण के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुआ। ब्राह्मणी भिक्षा लाने के लिए घर के भीतर गई। अंधकार के कारण एक कील से वह टकराई और नीचे गिर पड़ी। उस कील से उसका पेट फट गया। वह गर्भवती थी। पेट के फटते ही बच्चा भूमी पर आ गिरा और मर गया। वह ब्राह्मणी भी मर गई। यह देख कर लोगों ने प्रवचन का उड्डाह करते हुए कहा-निर्गंथ धर्म अदृष्टधर्मा है। गा. २८४१,२८४२ वृ. पृ. ८०३ ८२. कृतकरण मुनि सभी मुनि सो रहे थे। एक कृतकरण मुनि हाथ में गदा लेकर जाग रहा था। इतने में एक सिंह आ गया। मुनि ने उस पर प्रहार किया। वह वहां से कुछ दूरी पर गिरा और मर गया। दूसरा सिंह आया। मुनि ने सोचा, वही सिंह पुनः आ गया है। उस पर तीव्रता से प्रहार किया। वह भी कुछ दूर जाकर मर गया। तीसरा सिंह आया। मुनि ने तीव्रतम प्रहार किया और वह भी मर गया। रात्री सुखपूर्वक बीत गई। प्रातः वह गुरु के पास जाकर बोला-भंते! पहले मेरा शरीर शक्तिसंपन्न था। मैंने खुड्डका (हाथ के चपेटा) मात्रा से सिंह को मार डाला था। अब मेरे शरीर की शक्ति मंद हो गई है। रात्री में एक सिंह तीन बार आया। मैंने उस पर तीन बार प्रहार किया, वह मरा नहीं, भाग गया। गुरु ने उसे मिच्छामि दुक्कडं का दंड दिया, क्योंकि उसका परिणाम शुद्ध था। प्रभात में बाहर जाते समय आचार्य ने तीन सिंहों को मरे हुए देखा। उन तीनों की जिह्वा बाहर निकली हुई थी। एक सिंह निकट ही मरा पड़ा था, दूसरा कुछ दूरी पर और तीसरी उससे आगे मरा पड़ा था। आचार्य ने उस मुनि से पूछा-ये तीन सिंह कैसे मरे ? वह बोला भंते! जब पहला सिंह आया, मैंने सोचा-यह मर न जाए इसलिए उस पर गाढ़ प्रहार नहीं किया, हल्का प्रहार किया। वह बहुत दूर जाकर मर गया। दूसरी बार सिंह आया। मैंने सोचा वही पुनः आ गया है, इसलिए उस पर गाद प्रहार किया वह भी कुछ दूर जाकर मर गया। तीसरी बार सिंह के आने पर मैंने गाढ़तर प्रहार किया, वह निकट भूमी पर ही मर गया। मैं नहीं जान पाया कि ये पृथग्-पृथग तीन सिंह थे। गा. २९६४-२९६८ वृ. पृ. ८३८ ८३. सर्प की पूंछ एक बार पूंछ ने सर्प के सिर से कहा हे सिर! सर्दी, गर्मी और वर्षा में सघन अंधकार वाले प्रदेश में जहांकहीं तुम मुझे ले जाते हो, वहीं मैं सदा तुम्हारे पीछे-पीछे चली जाती हूं किन्तु अब कुछ समय के लिए मार्ग में मैं भी तुमसे आगे चलूंगी। ___ सिर ने कहा-पुच्छिके ! मैं कंकरीले, कंटीले मार्ग से मयूर और नकुल आदि से बचने के लिए जाता हूं। मैं दुष्ट-अदुष्ट बिलों को जानता हूं, जिन्हें तुम नहीं जानती। अतः तुम खेद का अनुभव मत करो। पूंछ ने कहा-तुम तो ज्ञानी हो, मैं तो अज्ञानी ही रह जाऊंगी। आज तो मुझे अग्रगामी बना लो, नहीं तो मैं इस हल से लिपटकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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