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________________ ७१२ बृहत्कल्पभाष्यम् यहीं रह जाऊंगी। तुम जाओ, शीघ्र जाओ। सिर ने कहा- मूर्खे ! तुम मेरे से आगे हो जाओ। अज्ञानी के साथ विरोध करने से क्या लाभ? अज्ञे! मेरे इस वंश का विनाश देखकर भी आगे जाती हो तो जाओ, तुम भी विनष्ट हो जाओगी। पूंछ ने कहा- जो शक्तिविहीन होते हैं, वे ही बुद्धि को बलशाली मानते हैं। बुद्धि शक्तिसंपन्न का क्या बिगाड़ सकती है? क्या तुमने यह कहावत नहीं सुनी- 'वीरभोग्या वसुंधरा ।' सिर के वचनों को अमान्य करती हुई पूंछ स्वच्छन्दता से अग्रगामिनी बन गई। मुहूर्त्तमात्र चली होगी कि नेत्रविहीन होने से गाड़ी से आक्रान्त होकर विनष्ट हो गई। ८४. नील वर्ण सियार , रात्रि के समय एक सियार एक घर में घुसा। घरवालों ने उसे देखा। वे उसे बाहर निकालने लगे। उसे देख कुत्ते भौंकने लगे। वह भयभीत होकर इधर-उधर भागते हुए एक नीले रंग के कुंड में गिर पड़ा। ज्यों-त्यों उससे वह निकला। नीले रंग के कारण वह नीलवर्ण वाला हो गया। उसको देखकर हाथी तरक्ष आदि पशुओं ने पूछा- तुम इस वर्णवाले कौन हो ? उसने कहा- सभी वन्य प्राणियों ने मुझे खसद्रुम नाम से मृगराज बना दिया है। अतः मैं यहां आकर देखता हूं कि मुझे कौन प्रणाम नहीं करता? उन पशुओं ने सोचा इसका वर्ण अपूर्व है। निश्चित ही देवता द्वारा अनुगृहीत है वे बोले-देव! हम सब आपके किंकर हैं। आप आज्ञा दें। हम आपके लिए क्या करे ? खसद्रुम बोला- मुझे हाथी की सवारी चाहिए। उन्होंने आज्ञा का पालन किया। अब वह खसद्रुम हाथी पर आरूढ़ होकर घूमने लगा। एक बार उसने एक सियार देखा, जो आकाश की ओर मुंह कर हूं हूं की आवाज कर रहा था। खसद्रुम भी अपने सियार स्वभाव के कारण वैसी ही आवाज करने लगा। जिस हाथी पर वह आरूद था, उसने जान लिया कि यह सियार है। उसने सूंड से उस खसद्रुम को धरती पर गिरा कर मार डाला । Jain Education International गा. ३२४६-३२५० वृ. पृ. ९०८ ८५. बया और वानर वर्षा ऋतु का समय था। ठंडी हवा चल रही थी । जंगल में एक वृक्ष पर बैठा वानर ठिठुर रहा था। उसी वृक्ष पर बया अपने सुन्दर घौसले में बैठी थी। उसने ठिठुरते हुए वानर को देखा और बोली- वानर ! तुम इतने ठिठुर रहे हो तो पहले अपना घर बना लेते। जिससे तुम्हारी यह हालत नहीं होती और आराम से रहते। उसने बया के शब्दों को सुना और क्रोधाविष्ट हो गया। वानर बोला- आई हो मुझे शिक्षा देने, अभी बताता हूं। इतना कहतेकहते एक छलांग लगाई। बया के घोसले के पास पहुंच गया। एक झटके में घोसले को तोड़ दिया। बया बेचारी रोती-बिलखती रह गई। इतने श्रम से बनाये सुन्दर घोसले को वानर ने बिखेर दिया। फिर वानर बोला हे बया! अब रह आराम से आई है मुझे उपदेश देने देख लिया ना दूसरों को उपदेश देने से तुम भी बेघर हो गई। बेचारी बया सोचने लगी- मैंने अनावश्यक ही सुझाव दिया है उपदेशो न दातव्यो यादृशे तादृशे जने । पश्य वानरमूर्खेण, सुगृही निगृही कृता ॥ For Private & Personal Use Only गा. ३२५१ वृ. पृ. ९०९ गा. ३२५२ वृ. पृ. ९०९ www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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