SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बृहत्कल्पभाष्यम् भी उसके पीछे-पीछे भागता हुआ सूंड में घुस गया। वे हाथी के कपाल में लड़ने लगे। हाथी अत्यंत पीड़ित हुआ। महान् वेदना से पराभूत होकर हाथी उठा और वनखण्ड का विनाश करने लगा। अनेक प्राणी मारे गये। वह सरोवर में घुसा। वहां अनेक जलचरों को मारा। सरोवर की पाल तोड़ डाली, सभी प्राणी नष्ट हो गये। गा. २७०६,२७०७ वृ. पृ. ७६२ ७८. द्रमक दृष्टान्त एक परिव्राजक ने द्रमक को देखा और पूछा-तुम चिंतित क्यों हो? द्रमक ने कहा-मैं दरिद्रता से अभिभूत हूं। जक ने कहा-जैसा मैं कहूं, वैसा करोगे तो धनवान बन जाओगे यह कहते हुए वह उसे एक पर्वतनिकुंज में ले गया और कहा-'यह कनकरस है। इसे प्राप्त करने के लिए तुम ठंडी-गर्म हवाओं को सहन करो, भूख-प्यास को सहन करो-ब्रह्मचर्य का पालन करो, अचित्त कंद-मूल-पत्र-पुष्प-फलों का आहार करो और फिर पवित्र भावधारा से शमीपत्रपुटक में इसे ग्रहण करो' यह स्वर्ण-रस प्राप्ति की उपचारविधि है। द्रमक ने उपचारपूर्वक कनकरस को शमीपत्रकपुटक में भर लिया। घर लौटते समय परिव्राजक ने कहा-रोष उत्पन्न होने पर भी तुम इस शाकपत्र से तुम्बिका में एकत्रित स्वर्णरस को मत फेंकना। उसने आगे कहा-'देखो! तुम मेरे प्रभाव से धनी हो जाओगे।' पुनः पुनः इन शब्दों को सुना तो द्रमक क्रोध भरे शब्दों में बोला-तुम्हारे प्रसाद से मैं धनी होऊं तो इससे मुझे प्रयोजन नहीं है-यह कहते हुए उसने स्वर्णरस फेंक दिया। सारी मेहनत निष्फल हो गई। गा. २७१३,२७१४ वृ. पृ. ७६४ ७९. भाव वैर दृष्टान्त एक गांव में चोरों ने गायों को चुरा लिया। महत्तर (गांव का मुखिया) खोजी को साथ लेकर गया। गायें हमारी हैं-यह कहकर चोरों का अधिपति महत्तर के साथ झगड़ने लगा। वे रौद्रध्यान में लीन होकर एक-दूसरे का वध करते हुए मर गये और प्रथम नरक में नारक के रूप में उत्पन्न हुए। वहां से उवृत्त होकर दोनों महिष रूप में उत्पन्न हुए। एक-दूसरे को देखकर तमतमा उठे, झगड़ने लगे। मरकर दूसरी नरक में उत्पन्न हुए वहां से उद्वृत्त हो, वृषभ बने। उसी वैर परम्परा में आबद्ध होने के कारण एकदूसरे को मारकर पुनः दूसरी नरक में गये। वहां आयुष्य पूर्णकर दोनों ही बाघ रूप में जन्मे। वहां भी परस्पर वध कर मरकर तीसरी नरक में पैदा हुए। वहां से निकलकर सिंह रूप में पैदा हुए, फिर परस्पर लड़कर मरकर चौथी नरक में उत्पन्न हुए। वहां से आयुष्यपूर्णकर दोनों मनुष्य योनि में जन्में, जिनशासन में दीक्षित हुए और सदा के लिए मुक्त हो गए। गा. २७६२ वृ. पृ. ७७९ ८०. पट्टक दृष्टान्त गांव के पास एक कूप था। गांव की औरतें वहां पानी लेने आती थी। उस कूप के पास सुन्दर उद्यान था। उद्यान में एक संन्यासी रहता था। एक दिन उसने कूप पर पानी भरती हुई सुन्दर औरत को देखा। संन्यासी ने औरत को मंत्रित पुष्प दिया। उसने पुष्प लिया और घर जाकर एक पट्ट पर रख दिया। अर्ध रात्री में पुष्पसहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy