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कथा परिशिष्ट =
प्रवेश कर जीवनलीला समाप्त कर दी। वे मरकर बालतप के कारण अपरिगृहीत वानव्यंतर देवियों के रूप में उत्पन्न हुईं। उन देवियों ने देवकुल की ५०० शालभंजिकाओं को परिगृहीत कर लिया। अल्पऋद्धिक देव भी उनको नहीं चाहते थे, तब वे धूर्तों के साथ संयुक्त हो गईं। 'यह तेरी नहीं हैं, यह मेरी है-इस प्रकार धूर्त परस्पर कलह करने लगे। देवियों से पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर धूर्त परस्पर कहने लगे। अरे! यह तो अमुक है। यह तुम्हारी माता है। यह उसकी बहिन है। अभी अमुक के साथ संप्रलग्न है। वे किसी एक के साथ प्रतिबंधित न होकर, जो मनोज्ञ लगता है, उसी के साथ रहती हैं। यह सुनकर उन देवियों के पूर्वभविक पुत्रों आदि ने 'हमारा अपयश होगा' यह सोचकर विद्या-प्रयोग से उन देवियों को कीलित कर डाला।
गा. २५०६,२५०७ वृ. पृ. ७०८
७५. मैथुनार्थी सिंहनी एक सिंहनी ऋतुकाल में मैथुनार्थी हो गई। उसे कोई सिंह न मिलने पर, वह किसी एक सार्थ से एक पुरुष को उठाकर अपने गुफा में ले आई और उसकी चाटुकारिता करने लगी। पुरुष ने सिंहनी के साथ मैथुन प्रतिसेवना की। दोनों में अनुराग हो गया। यह क्रम प्रतिदिन चलता रहा। सिंहनी मांस के द्वारा उस पुरुष का पोषण करने लगी। पुरुष को अब उसका भय नहीं रहा।
गा. २५४६ वृ. पृ. ७१७
७६. संयोजना दृष्टान्त एक बार एक आचार्य अपने शिष्यों को महिषों के उत्पादन का योग बता रहे थे। उस योग का पूरा विवरण आचार्य के भानजे ने सुन लिया। वह हिंसक वृत्ति का था। वह उस योग के अनुसार महिषों का उत्पादन करता और कसाई को बेच देता। आचार्य ने यह सुना। वे उसके पास गए और बोले-अरे! इससे क्या? मैं तुझे सोना उत्पादन का योग बताऊंगा। तुम अमुक-अमुक द्रव्य ले आओ। वह सारे द्रव्य ले आया। आचार्य ने उनकी संयोजना कर, एकान्त में स्थापित कर उससे कहा-इतना समय बीतने पर इसको उठाना। मैं जा रहा हूं। समय बीतने पर उसने उसे उठाया। उससे एक दृष्टिविष सर्प निकला। उसको डसा जिससे वह वहीं मर गया। अन्तर्मुहूर्त के बाद वह सर्प भी मर गया।
गा. २६८१३. पृ. ७५३
७७. उपेक्षा से महाविनाश
अरण्य के मध्य में एक अगाध जल वाला सुंदर सरोवर था। वह चारों ओर वृक्षों से मंडित था। वहां जलचर, स्थलचर तथा खेचर प्राणियों की बहुलता थी। एक बड़ा हस्तियूथ भी वहां रहता था। ग्रीष्मकाल में वह हस्तियूथ उस सरोवर में पानी पीता, जलक्रीड़ा करता और वृक्षों की छाया में सुखपूर्वक विश्राम करता था। सरोवर के निकट गिरगिटों का निवास था। एक बार दो गिरगिट लड़ने लगे। वन देवता ने यह देखा। उसे भविष्य का अनिष्ट स्पष्टरूप से दृग्गोचर होने लगा। उसने अपनी भाषा में सबको सावचेत करते हुए कहा हे हाथियो! जलवासी मच्छ-कच्छपो! बस-स्थावर प्राणियों! सब मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें-जहां सरोवर के निकट गिरगिट लड़ रहे हैं, वहां सर्वनाश हो सकता है। इसलिए इन लड़ने वाले गिरगिटों की उपेक्षा न करें। इनको निवारित करें।
जलचर आदि प्राणियों ने सोचा-लड़ने वाले ये छोटे से गिरगिट हमारा क्या बिगाड़ देंगे? इतने में एक गिरगिट भाग कर सरोवर के किनारे सोए हुए हाथी की सूंड को बिल समझकर उसमें चला गया। दूसरा गिरगिट
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