SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४६ = बृहत्कल्पभाष्यम् इन कारणों से कदाचित् अतिक्रान्त हो जाती है तो ५२९१.सक्खेत्ते जदा ण लभति, तत्तो दूरे वि कारणे जतति। आहार का परिष्ठापन कर परिज्ञा-दिवस का चरम गिहिणो वि चिंतणमणागतम्मि गच्छे किमंग पुण॥ प्रत्याख्यान कर दे। यदि संस्तरण न होता हो तो भी दूसरे ___ आचार्य आदि के प्रायोग्य द्रव्य की प्राप्ति यदि स्वक्षेत्र में अशन आदि का ग्रहण और भोजन करे। यदि अन्य अशन नहीं होती है तो कारणवश दूर भी जाना पड़ता है। गृहस्थ भी प्राप्त न हो तो उसी का परिभोग करे। अनागत अतिथियों के भक्तपान के लिए चिंता करते हैं तो ५२८६.बिइयपएण गिलाणस्स कारणा अधवुवातिणे ओमे। फिर अनागत गच्छ के मुनियों के लिए चिंता क्यों नहीं अद्धाण पविसमाणो, मज्झे अहवा वि उत्तिण्णो॥ करेंगे? द्वितीयपद (अपवाद) में ग्लान के कारण अथवा दुर्भिक्ष में ५२९२.संघाडेगो ठवणाकुलेसु सेसेसु बाल-वुड्डादी। पर्यटन करते हुए चौथा प्रहर प्राप्त हो जाए अथवा मार्ग में तरुणा बाहिरगामे, पुच्छा दिटुंतऽगारीए॥ प्रवेश करते हुए सार्थ के कारण चौथे प्रहर का अतिक्रमण हो आचार्य के प्रायोग्य लेने के लिए एक संघाटक स्थापना जाए, अथवा मार्ग के मध्य में या मार्ग को पार कर देने के कुलों में जाता है। शेष कुलों में बाल, वृद्ध मुनियों के पश्चात् अतिक्रमण करने या भोजन करने पर भी कोई दोष लिए अनेक संघाटक जाते हैं। तरुणमुनि गांव के बाहर नहीं है। घूमते हैं। शिष्य ने पूछा-क्या आदर से क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा ५२८७.परमद्धजोयणाओ, उज्जाण परेण चउगुरू होति।। कर उसकी रक्षा करते हैं? आचार्य ने कहा यहां अगारी आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए॥ का दृष्टांत है। .. अर्द्धयोजन से आगे अशन आदि ले जाता है तो चतुर्गुरु ५२९३.परिमियभत्तपदाणे, हादवहरति थोवथोवं तु। का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष भी होते हैं। पाहुण वियाल आगत, विसण्ण आसासणा दाणं॥ आत्मा और संयम की विराधना भी होती है। वणिक् परिमित भक्त आदि देता था। उसकी पत्नी घी, ५२८८.भारेण वेदणाए, ण पेहती खाणुमादि अभिघातो। तैल आदि से थोड़ा-थोड़ा बचा लेती थी। कालान्तर में इरिया पगलिय तेणग, भायणभेदो य छक्काया॥ प्रदोषकाल में वणिक् का मित्र अतिथि आ गया। वणिक भार से और वेदना से अभिभूत होकर वह मार्गगत विषण्ण हो गया। पत्नी ने उसे आश्वस्त किया और अतिथि स्थाणु, कांटे आदि नहीं देख पाता, अभिघात भी हो जाता को भोजन करा दिया।' है ईर्या समिति का सम्यक् शोधन नहीं होता, अत्यधिक ५२९४.एवं पीईवड्डी, विवरीयऽण्णेण होइ दिटुंतो। भार के कारण भक्तपान परिगलित होने पर पृथ्वीकाय आदि लोगुत्तरे विसेसा, असंचया जेण समणा तु॥ की विराधना होती है, स्तेन भोजन का अपहरण कर लेते इस प्रकार उस वणिक् की अपने मित्र के साथ प्रीति हैं, पात्र आदि टूट जाते हैं तथा षट्काय की विराधना भी बढ़ी। इसके विपरीत एक अन्य दृष्टांत भी है जिसमें विपरीत होती है। प्रवृत्तियों के कारण मित्र के साथ मैत्री और प्रीति का ह्रास ५२८९.उज्जाण आरएणं, तहियं किं ते ण जायते दोसा।। हुआ। श्रमण असंचयशील होते हैं अतः लोकोत्तरदृष्टि से वे परिहरिया ते होज्जा, जति वि तहिं खेत्तमावज्जे॥ विशेष हैं। उद्यान से पहले ग्राम से भक्तपान लाने पर क्या वे दोष ५२९५.जणलावो परगामे, हिंडित्ताऽऽणेति वसहि इह गामे। नहीं होते? वे दोष तीर्थंकर के वचन के प्रामाण्य से परिहृत देज्जह बालादीणं, कारणजाते य सुलभं तु॥ हो जाते हैं। अनुज्ञात क्षेत्र में वे दोष प्राप्त होते हैं। जनता में यह प्रवाद होने लगा कि ये मुनि परग्राम में ५२९०.एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो इमो तु जिणकप्पे। गोचरी के लिए घूमते हैं और सारी भिक्षा यहां ले आते हैं। गच्छम्मि अद्धजोयण, केसिंची कारणे तं पि॥ इस ग्राम में तो केवल रहते हैं, उनकी वसति यहां है। तब पुनः प्रश्न होता है-इस प्रकार सूत्र अफल हो जायेगा। उस ग्राम के लोग कहते हैं ये बालमुनि भी भिक्षा के लिए यह सूत्रार्थ निपात जिनकल्पी मुनियों के लिए है। गच्छवासी घूमते हैं, इन्हें भिक्षा दो। इस प्रकार के सोच से कारणमनियों के लिए आधायोजन का नियम है। एक मत के प्रयोजन होने पर भिक्षा सुलभ हो जाती है। अनुसार कारण में आचार्य, बाल, वृद्ध आदि के लिए वही ५२९६.पाहुणविसेसदाणे, णिज्जर कित्ती य इहर विवरीयं। आधा योजन निर्णीत है। पुव्विं चमढणसिग्गा, न देंति संतं पि कज्जेसु॥ १. पूरे कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. १३०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy