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________________ चौथा उद्देशक प्राघूर्णक को आदरपूर्वक भक्तपान देने से निर्जरा तथा कीर्ति होती है, अन्यथा ये नहीं होते। यह जानते हुए भी लोग दान नहीं देते, क्योंकि प्रतिदिन साधुओं के भिक्षा के लिए आगमन से वे कुल परिश्रान्त हुए रहते हैं अतः प्रयोजन होने पर भी तथा विद्यमान द्रव्यों को भी वे साधुओं को नहीं देते। ५२९७. बोरीह य दितो, मच्छे वायामो तहिं च पतिरिक्कं । केइ पुण तत्थ भुंजण, आणेमाणे भणिय दोसा ॥ बहिग्रम में भिक्षाटन करने पर प्रचुर प्रायोग्य द्रव्य प्राप्त हो सकते हैं, यहां बदरी का दृष्टांत है । गच्छ की यह सामाचारी है कि तरुण मुनि को भिक्षाचर्या के लिए बहिग्रम में जाना चाहिए उससे व्यायाम होता है, एकान्त प्राप्त होता है। कुछेक आचार्यों का यह अभिमत है कि बहिर्ग्राम में ही भोजन कर लेना चाहिए। गोचरी को ठिकाने पर लाने में जो दोष बताए गए हैं, वहां भोजन करने पर परिहृत हो जाते हैं। ५२९८. गामभासे बदरी, नीसंदकडुप्फला व खुज्जा य पक्काऽऽमाऽलस चेडा, खायंतियरे गता दूरं ॥ ५२९९. सिग्यतरं ते आता, तेसिऽण्णेसिं च दिंति सयमेव । खायंति एवं इहई, आय परसुहावहा तरुणा ॥ किसी गांव के निकट बदरी का वृक्ष था । वह वृक्ष गांव के निस्यंदपानी से संवर्धित होने के कारण कड़वे फल वाला हो गया। वह वृक्ष कुब्ज था। उस पर कोई भी सहजतया चढ़उतर सकता था। उस पर कुछेक फल पके हुए और कुछेक कच्चे थे। कुछ बालक निकटवर्ती उस बदरीवृक्ष के फलों को खाते और कुछ बालक दूरवर्ती मीठे फलवाले बदरी के फल खाते। वे शीघ्र ही वहां से गठरियों में बदरी फल बांध कर ले आते। वे स्वयं उन फलों को खाते और दूसरों को भी खिलाते थे। इसी प्रकार तरुण मुनि स्वयं के लिए तथा दूसरों के लिए सुखावह होते हैं। ५३००, खीर दहीमादीण य, लंभो सिग्घतर पढम पहरिके । उग्गमदोसा विजढा, भवंति अणुकंपिया चितरे ॥ वे तरुण मुनि बहिर्ग्राम में भिक्षाचर्या कर प्रचुर भक्त पान लेकर शीघ्र ही आ जाते हैं और सबको प्रथमालिका कराकर स्वयं भी खा लेते हैं। इससे उद्गम आदि दोष परिहृत हो जाते हैं और दूसरे भी अनुकंपित होते हैं। ५३०१. एवं उग्गमदोसा, विजढा पइरिक्कया अणोमाणं । मोहतिगिच्छा य कता, विरियायारो य अणुचिण्णो ॥ इस प्रकार बहिर्ग्राम में भिक्षाचर्या के लिए जाने पर - Jain Education International ५४७ उद्गमदोष परित्यक्त हो जाते हैं। 'पइरिक्कय' प्रचुर भक्तपान का लाभ होता है। अपमान नहीं होता। मोह चिकित्सा कर ली जाती है। वीर्याचार का परिपालन होता है। ५३०२. उज्जाणतो परेणं, उवातिणंतम्मि पुव्व जे भणिता । भारादीया दोसा ते च्चेव इहं तु सविसेसा ॥ उद्यान से आगे जाकर भिक्षा लाने में पूर्वोक्त भार आदि दोष कहे गए हैं वे यहां विशेषरूप से होते हैं। ५३०३. तम्हा तु ण गंतव्वं, तहिं भोत्तव्वं ण वा वि भोत्तव्वं । इइरा भे ते दोसा, इति उदिते चोदमं भणति । इसलिए भक्तपान लेकर नहीं जाना चाहिए, वहीं भोजन कर लेना चाहिए। मतान्तर से कहा जाता है-बहिग्रम में भक्तपान नहीं करना चाहिए। तो वे ही भार, वेदना आदि दोष प्राप्त होते हैं। ऐसा कहने पर आचार्य उसे कहते हैं-यदि वहां भोजन कर लेते हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। इससे आचार्य आदि परित्यक्त हो जाते हैं। उन्हें प्रायोग्य आहार प्राप्त नहीं होता । ५३०४. जइ एयविप्पहूणा, तव-नियमगुणा भवे णिरवसेसा । आहारमाइयाणं, को नाम कहं पि कुव्वेज्जा ॥ यदि आचार्य के बिना भी तप-नियमगुण निरवशेषरूप से होते हों तो प्रायोग्य आहार आदि की अन्वेषणा की बात ही कौन करेगा? कोई नहीं। ५३०५. जति ताव लोइय गुरुस्स लहुओ सागारिओ पुढविमादी । आणयणे परिहरिया, पढमा आपुच्छ जतणाए । लोक में जो गुरु अर्थात् पिता, ज्येष्ठ भाई, कुटुंब के धारक हैं, उनके भोजन किए बिना कोई कुटुम्बी भोजन नहीं करता तो लोकोत्तर गुरु के भोजन किए बिना कौन शिष्य खाना चाहेगा? यदि खाता है तो मासलघु का प्रायश्चित्त है। वसति के अभाव में बहिर्गाम में भोजन करने पर, यदि गृहस्थ देखता है तो चतुर्लघु, अस्थंडिल में जाने पर पृथिवी आदि की विराधना होती है। भिक्षा को गुरु के समक्ष लाने पर ये सभी दोष परित्यक्त हो जाते हैं। अपवादपद में प्रथमालिका का गुरु की आज्ञा से यतनापूर्वक की जा सकती है। ५३०६. चोदगवयणं अप्पाऽणुकंपिओ ते य भे परिच्चत्ता । आयरिए अणुकंपा, परलोए इह पसंसणया । प्रेरक कहता है-अहिग्राम से गोचरी कर आचार्य के पास लानी चाहिए, इस प्रस्थापना से आपने अपनी आत्मा की अनुकंपा की है। गोचरी लाने वाले साधु परित्यक्त हो जाते हैं। गुरु ने कहा- वे आचार्य की वैयावृत्य में नियुक्त हैं। यह उनकी पारलौकिक अनुकंपा है, इहलोक में भी उनकी प्रशंसा होती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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