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________________ तीसरा उद्देशक= आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्ती और संघाटक साधुओं को देता जानने वाला और जो यह नहीं जानता है वह है अजानकार। है। दिया जाने वाला निर्योग शुद्ध हो तो ग्रहण करे और अजानकार पुनः प्रव्रज्या ग्रहण कर कृत, कारित और क्रीत अशुद्ध हो तो गृहस्थशैक्ष को दे दे। अथवा उसका परिष्ठापन सभी कुछ ग्रहण कर लेता है और जो जानकार है वह कर दे। यथापरिगृहीत अर्थात् शुद्ध को ही ग्रहण करता है। ४२२५.सज्झाए पलिमंथो, पडिलेहणियाए सो हवइ सिग्गो। ४२३०.जह सो वीरणसढओ, णइतीररुहो जलस्स वेगेणं । एगं च देति तहितं, दोण्णि य से अप्पणो हुंति॥ थोवं थोवं खणता, छूढो सोयं ततो वूढो॥ तीन निर्योगों को अपने पास रखने से उसके स्वाध्याय कोई एक 'वीरण'-तृणविशेष का 'सढक'-स्तम्ब नदी के का पलिमंथु होता है। उनकी प्रत्युपेक्षणा से वह परिश्रान्त हो तीर पर उगा हुआ था। पानी का वेग उसकी जड़ों को धीरेजाता है। तब वह एक निर्योग आचार्य को दे देता है और तब धीरे खोदने लगा। कुछ ही समय के पश्चात् वह स्तम्ब नदी उसके पास दो निर्योग रह जाते हैं। में गिर गया और पानी में बहता हुआ समुद्र में जा गिरा। ४२२६.निग्गमणे बहुभंडो, कत्तो कतरो व वाणिओ एइ। ४२३१.ठिय-गमिय-दिट्ठ-ऽदिद्वेहि बितियं पि देति तहियं, मा भंते! दुल्लह होज्जा॥ साधुहिं अहरिहं समणुसट्ठो। जब वह वहां से निर्गमन करता है तब उसे बहुत उण्हेहुण्हतरेहि य, उपकरणों को लेकर विहार करना होता है। यह देखकर लोग चालिज्जति बद्धमूलो वि॥ कहते हैं-'यह कौन वणिक् (इतना भार लेकर) कहां से आया इसी प्रकार कोई पश्चाद्कृत गृहवास करता हुआ एक है?' यह उपहास-वचन सुनकर वह एक और निर्योग गुरु को गांव में स्थित था। उस गांव में साधुओं का आवागमन होता दे देता है और कहता है-'भंते! आपके उपकरण दुर्लभ न हों था। वे दृष्ट-अदृष्ट (पूर्व परिचित, अपरिचित) साधु उसे इसलिए आप इसे अपने पास रखें।' यथायोग्य उपदेश देते थे। वह उनके उष्ण-उष्णतर उपदेशों ४२२७.भारेण खंधं च कडी य बाहा, से प्रेरित होकर परिवार से बद्धमूल होने पर भी वह गृहवास पीलिज्जए णिस्ससए य उच्च।। से चलित होकर पुनः संयम को स्वीकार कर लेता है। तेणा य उवधीणमभिद्दवेज्जा, ४२३२.कप्पा-ऽकप्पविसेसे, ण इत्तिया इंति ममोवभोगं॥ अणधीए जो उ संजमा चलिओ। शिष्य ने गुरु से कहा-मैं दो निर्योगों के साथ विहार पुव्वगमो तस्स भवे, करता हूं तो इतने भार से मेरे कंधे, कटि और बाहू अत्यधिक जाणंते जाइं सुद्धाई॥ पीड़ित होते हैं और मैं निःश्वास से आकुल हो जाता हूं। चोर जो कल्प-अकल्प विशेष को न जानते हुए संयम से उपधि के कारण मुझे लूटेंगे, भयभीत करेंगे। इतने वस्त्र-पात्र चलित हुआ था, उसके लिए पूर्वोक्त गम-प्रकार होता है मेरे उपभोग में नहीं आयेंगे। अर्थात् शैक्षगृहस्थ का होता है। जो कल्प-अकल्प विधि को ४२२८.जं होहिति बहुगाणं, इमम्मि धम्मचरणं पवण्णाणं।। जानता है, उसके लिए शुद्ध ही ग्रहण करना कल्पता है। ___ तं होहिति अम्हं पी, तुम्हेहिं समं पवण्णाणं॥ निग्गंथीए णं तप्पढमयाए ये उपकरण भगवान् के शासन के धर्माचरण करने वाले आप जैसे अनेक मुनियों के उपभोग में आयेंगे तथा आपके संपव्वयमाणीए कप्पइ रयहरण-गोच्छगसाथ-साथ चारित्र की आराधना करने वाले हमारे भी काम पडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयेंगे। आयाए संपव्वइत्तए। सा य पुव्वोवट्ठिया ४२२९.सिद्धी वीरणसढए, अब्भुट्ठाणं पुणो अजाणते। सिया, एवं से नो कप्पइ रयहरणकत कारितं च कीतं, जाणते अधापरिग्गहिते॥ गोच्छग-पडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं शिष्य ने पूछा-जो प्रव्रज्या को छोड़कर गृहवास में चला वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए, कप्पइ से गया उसे पुनः प्रव्रज्या में अभ्युत्थान की सिद्धि कैसे होती है ? इस प्रसंग में 'वीरणसढक' का दृष्टांत वक्तव्य है। पुनः अहापरिग्गहियाइं वत्थाइं आयाए अभ्युत्थान दो प्रकार का होता है-जानने वाले मुमुक्षु का तथा संपव्वइत्तए॥ अजानकार मुमुक्षु का। जो कल्प-अकल्प को जानता है वह है (सूत्र १५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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