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४२३३. एसेव गमो णियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। ___ जाणंतीणं कप्पति, घेत्तुं जे अधापरिग्गहिते॥
यही विकल्प नियमतः आर्याओं के लिए जानना चाहिए। उनमें जो कल्प-अकल्प की विधि को जानती हैं उनके लिए जो यथापरिगृहीत अर्थात् शुद्ध है, उसी का ग्रहण कल्पता है। ४२३४.समणीणं णाणत्तं, णिज्जोगा तासि अप्पणो चउरो।
चउरो पंच व सेसा, आयरिगादीण अट्ठाए॥ आर्याओं के निर्योग विषयक नानात्व है। प्रवजित होने वाली आर्या को चार निर्योग अपने लिए तथा शेष चार या पांच निर्योग आचार्य आदि के लिए होते हैं। यदि चार हों तो-आचार्य, प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी और संघाटक की साध्वी के लिए। यदि पांच हों तो चार उपरोक्त तथा पांचवां उपाध्याय के लिए।
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पढमसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए॥
(सूत्र १६) कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दोच्चसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिग्गाहित्तए॥
(सूत्र १७)
=बृहत्कल्पभाष्यम् आधाकर्म आदि पन्द्रह उद्गमदोषदुष्ट वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है? ४२३८.उद्देसग्गहणेण व, उग्गमदोसा उ सव्वे जति गहिता।
उप्पादणादि सेसा, तम्हा कप्पंति किं दोसा॥ यदि औद्देशिक के ग्रहण से सभी उद्गमदोष गृहीत हो जाते हैं तो उत्पादन आदि शेष दोष कैसे कल्प सकते हैं? ४२३९.अहवा उद्दिस्स कता, एसणदोसा वि होति गहिता तु।
आदीअंतग्गहणे गहिया उप्पादणा वि तहिं॥ अथवा उद्दिष्टकृत एषणादोष भी यहां गृहीत हो जाते हैं। इसी प्रकार आदि-अन्त के ग्रहण से यहां उत्पादना दोष भी गृहीत जानने चाहिए। आद्य है-औद्देशिकदोष और अन्त्य है-एषणादोष। इन दो के ग्रहण से मध्यस्थित उत्पादना दोष भी गृहीत हो जाते हैं। ४२४०.एए अ तस्स दोसा, उडुबद्धे जं च कप्पते पित्तुं।
कोई भणिज्ज दोसु वि, ण कप्पति सुतं तु सूएति॥ द्वितीय समवसरण अर्थात् ऋतुबद्धकाल में ये सारे दोष उस साधु को कल्पते हैं-ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैंदोनों समवसरणों में नहीं कल्पता। तब कोई कहता है-सूत्र में इसकी अनुज्ञा की सूचना है। ४२४१.एवं सुत्तविरोधो, दोच्चम्मिं कप्पति त्ति जं भणितं।
सुत्तणिवातो जम्मि त, तं सुण वोच्छं समासेणं॥ सूत्र में कहा गया है कि दूसरे समवसरण में कल्पता है, अतः आपका कथन सूत्र से विरुद्ध है। आचार्य कहते हैं-'जिस अर्थ में सूत्र का निपात है-अवतरण है, उसे मैं संक्षेप में कहूंगा, तुम सुनो।' ४२४२.समोसरणे उद्देसे, छविधे पत्ताण दोण्ह पडिसेधो।
अप्पत्ताण उ गहणं, उवधिस्सा सातिरेगस्स। प्रथम समवसरण, ज्येष्ठावग्रह और वर्षावास-ये तीनों एकार्थक हैं। द्वितीय समवसरण और ऋतुबद्ध-ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। समवसरण में जो उद्देश है, उसके छह निक्षेप होते हैं-नामोद्देश, स्थापनोद्देश, द्रव्योद्देश, क्षेत्रोद्देश, कालोद्देश और भावोद्देश। इनमें से दो उद्देशों-क्षेत्रोद्देश और कालोद्देश में वस्त्र आदि के ग्रहण का प्रतिषेध है। इन उद्देशों में अप्राप्त स्थिति में सातिरेक उपधि का ग्रहण होता है। (इसका विस्तार आगे)। ४२४३. दव्वेणं उद्देसो, उहिस्सति जो व जेण दव्वेणं ।
दव्वं वा उद्दिसते, दव्वब्भूओ तदट्ठी वा॥ द्रव्य से अर्थात् रजोहरण आदि से जो उद्देश किया जाता है, वह है द्रव्योद्देश अथवा जो जिस सचित्त आदि द्रव्य से उद्दिष्ट होता है वह है द्रव्योद्देश। अथवा व्याधि के उपशमन
४२३५.दि8 वत्थग्गहणं, न य वुत्तो तस्स गहणकालो उ।
__ ओसरणम्मि अगेज्झं, तेण समोसरणसुत्तं तु॥
पूर्वसूत्र में वस्त्रग्रहण का कथन हुआ है। वहां वस्त्र के ग्रहणकाल का निर्देश नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में यह निर्देश है कि प्रथम समवसरण (वर्षाकाल) में वस्त्र का ग्रहण नहीं करना चाहिए। वह द्वितीय समवसरण (ऋतुबद्धकाल) में ग्राह्य है, अतः समवसरण सूत्र का प्रारंभ किया गया है। ४२३६.अहवा वि सउवधीओ, सेहो दव्वं तु एयमक्खायं।
तं काले खित्तम्मि य, गज्झं कहियं अगज्झं वा॥ अथवा पूर्वसूत्र में सोपधिकशैक्षलक्षण द्रव्य का आख्यान है वह द्रव्य किस काल में और किस क्षेत्र में ग्राह्य है और कहां अग्राह्य है-यह प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट है। ४२३७. पढमम्मि समोसरणे, उद्देसकडं न कप्पती जस्स।
तस्स उ किं कप्पंती, उग्गमदोसा उ अवसेसा॥ __ शिष्य कहता है यदि प्रथम समवसरण में उद्देशकृत वस्त्र जिस मुनि को लेना नहीं कल्पता, क्या उसको अवशिष्ट
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