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तीसरा उद्देशक =
४३७ के लिए जो द्रव्य औषध उद्दिष्ट किया जाता है वह है ४२४८.आसाढपुण्णिमाए, ठिया उ दोहिं पि होति पत्ता उ। द्रव्योद्देश तथा द्रव्यभूत-अनुपयुक्त ज्ञाता जो अंग-श्रुतस्कंध
तत्थेव य पडिसिज्झइ, गहणं ण उ सेसभंगेसु॥ आदि को उद्दिष्ट करता है वह द्रव्योद्देश है तथा द्रव्यार्थी वर्षाक्षेत्र में आषाढ़पूर्णिमा को स्थित हो जाने पर क्षेत्रअर्थात् द्रव्य के निमित्त धनुर्वेदादिक को उद्दिष्ट करता है वह काल दोनों से प्राप्त होते हैं। यह तीसरा भंग है। जो मुनि द्रव्योद्देश है।
आषाढ़ी पूर्णिमा से पूर्व अपान्तराल क्षेत्र में स्थित हैं, यह ४२४४.खित्तम्मि जम्मि खित्ते, उहिस्सति जो व जेण खेत्तेण। चतुर्थ भंग है। तीसरे भंग में ही वस्त्र आदि का ग्रहण
एमेव य कालस्स वि, भावो उ पसत्थमपसत्थो॥ प्रतिषिद्ध है। शेष भंगों में उसका प्रतिषेध नहीं है। क्षेत्र विषयक उद्देश-जिस क्षेत्र में अंग-श्रुतस्कंध आदि ४२४९.दुण्ह जओ एगस्सा, णिप्फज्जति जं च होति वासासु। का उद्देश किया जाता है-वर्णन किया जाता है अथवा जो
अग्गहणम्मि वि लहुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा।। जिस क्षेत्र से उद्दिष्ट होता है, जैसे-भरत में उद्दिष्ट होने दो मुनियों के जितने उपकरण होते हैं, उतने उपकरण वाला भारत, सुराष्ट में होने वाला सौराष्ट्र आदि वह सारा एक मुनि के वर्षाकाल में होने पर एक परिपूर्ण प्रत्यवतार क्षेत्रोद्देश है। जिस काल में अंग आदि का उद्देश किया जाता निष्पन्न होता है। क्योंकि वर्षाऋतु में वर्षाकल्प आदि की है या जिस काल से उद्दिष्ट होता है, जैसे सुषमाकाल में होने आवश्यकता होती है, अतः उपकरण दुगुने हो जाते हैं। जो वाला सौषम, शरद् काल में होने वाला शारद आदि-यह इतने वस्त्र ग्रहण नहीं करता उसके चतुर्लघु का प्रायश्चित्त सारा कालोद्देश है। भावोद्देश दो प्रकार का है-प्रशस्त और तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अप्रशस्त।
४२५०.दव्वोवक्खर-णेहादियाण तह खार-कडुय-भंडाणं। ४२४५.कोहाई अपसत्थो, णाणामादी य होइ उ पसत्थो। वासारत्त कुटुंबी, अतिरेगं संचयं कुणइ।।
उदओ वि खलु पसत्थो, तित्थकरा-ऽऽहारउदयादी॥ कुटुम्बी जन भी वर्षारात्र में इन सबका अतिरिक्त संचय क्रोध आदि अप्रशस्त भावोद्देश है और ज्ञान-दर्शन आदि करते हैं-द्रव्य-हिरण्य आदि, उपस्कर, स्नेह-घृत, तैल प्रशस्त भावोद्देश है। तीर्थंकर के आहारक-यश-कीर्ति आदि आदि, खार-लवण आदि, कटुक-शुण्ठी, पिप्पली आदि, नामकर्म का उदय भी प्रशस्त भावोद्देश है।
भांड-घट, पिठर आदि। ४२४६.खित्तेण य कालेण य, पत्ता-ऽपत्ताण होति चउभंगो। ४२५१.वणिया ण संचरंती, हट्टा ण वहंति कम्मपरिहाणी। ___ दोहि वि पत्तो ततिओ, पढमो बितिओ य एक्केणं॥ गेलण्णाऽऽएसेसु व, किं काहिति अगहिते पुव्विं ।।
क्षेत्र और काल से प्राप्त और अप्राप्त की चतुर्भंगी होती वर्षाकाल में वणिक् क्रय-विक्रय के लिए गांवों में घूमते हैं, है-१. क्षेत्र से प्राप्त काल से नहीं।
वर्षाऋतु में हाट नहीं लगते अतः यदि कुटुम्बीजन संचय न २. काल से प्राप्त क्षेत्र से नहीं।
करें तो उनके कर्म अर्थात् हलकर्षण आदि की हानि होती है। ३. क्षेत्र और काल दोनों से प्राप्त।
ग्लानत्व हो जाने पर, प्राघूर्णक के आ जाने पर वे कुटुंबी क्या ४. क्षेत्र और काल दोनों से प्राप्त नहीं।
कर सकते हैं, यदि संचित किया हुआ न हो तो। इसमें तीसरा विकल्प दोनों से प्राप्त है। चौथा विकल्प ४२५२.तह अन्नतित्थिगा वि य, दोनों से प्राप्त नहीं है। पहला और दूसरा विकल्प एक-एक से
जो जारिसो तस्स संचयं कणति। प्राप्त है।
इह पुण छण्ह विराहण, ४२४७.वासाखित्त पुरोखड, उडुबद्ध ठियाण खेत्तओ पत्तो।
पढमम्मि य जे भणिय दोसा।। अद्धाणमादिएहिं, दुल्लभखित्ते व बीओ उ॥ तथा अन्यतीर्थिक' भी अपने-अपने प्रयोजन के अनुसार वर्षाक्षेत्र को पुरस्कृत कर पहले से ही ऋतुबद्धकाल में उसका अतिरिक्त संचय करते हैं। जैनशासन में यदि यतिवर्ग स्थित मुनियों के लिए 'क्षेत्र से प्राप्त' यह प्रथम भंग होता है। वर्षाऋतु के लिए अतिरिक्त उपकरण ग्रहण नहीं करते तो छह अध्व-प्रतिपन्न आदि कारणों से अथवा वर्षावास क्षेत्र की जीवनिकायों की विराधना होती है और प्रथमसमवसरण दुर्लभता के कारण, अपान्तराल क्षेत्रों में आषाढ़पूर्णिमा आ (वर्षाकाल) में उपकरण-ग्रहण के जो दोष कहे गए हैं वे दोष गई-यह दूसरा विकल्प है।
भी प्राप्त होते हैं। १. सरजस्क-राख का, दकसौकरिक-मिट्टी का, बोटिक-छगण और लवण का। (वृ. पृ. ११५३)
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