SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३८ बृहत्कल्पभाष्यम् ४२५३.रयहरणेणोल्लेणं, पमज्जणे फरुससाल पुढवीए। दिए जाएं तो उपधिनिष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। वे यदि वस्त्र गामंतरित गलणे, पुढवी उदगं च दुविहं तु॥ के अभाव में अनेषणीय उपकरण या अग्नि का सेवन करते हैं वर्षाऋतु में मुनिवर्ग फरुसशाला-कुंभकारशाला में स्थित तो उसका प्रायश्चित्त वस्त्र न देने वाले मुनियों को प्राप्त होता हैं। वे आर्द्र रजोहरण से प्रमार्जन करते हैं। उससे पृथ्वीकाय है। यदि वे मुनि अपने स्वयं के वस्त्र देते हैं और स्वयं तृण की विराधना होती है। भिक्षाचर्या के लिए ग्रामान्तर में जाते- आदि का उपभोग करते हैं तो तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। आते वर्षा में रजोहरण आर्द्र हो गया हो, उससे पानी झर रहा ४२५८.अत्तट्ट परट्ठा वा, ओसरणे गेण्हमाणे पण्णरस। हो तो पृथ्वी तथा दो प्रकार के उदक भौम और अंतरिक्ष की दाउ परिभोग छप्पति, डउरं उल्ले य गेलण्णं ।। विराधना होती है। प्रथमसमवसरण में स्वयं के लिए या दूसरों के लिए ४२५४.अहवा अंबीभूए, उदगं पणओ य तावणे अगणी। उपधि ग्रहण करने पर पन्द्रह उद्गम दोष प्राप्त होते हैं। उल्लंडगबंध तसा, ठाणाइसु केण व पमज्जे॥ अपनी उपधि दूसरों को देकर स्वयं एक ही प्रत्यवतार का भीगे हुए रजोहरण से पानी सूखता नहीं, इसलिए वह प्रतिदिन भोग करता है तो उसमें जूं आदि सम्मूर्च्छित हो अम्लीभूत हो जाता है। उससे प्रमार्जन करने पर पानी की जाती हैं। भक्त-पान में उनके गिर जाने पर, उसका परिभोग विराधना होती है। रजोहरण में पनक-फूलन आ जाती है। इस करने पर जलोदर रोग हो सकता है तथा आर्द्र वस्त्रों को दोष को मिटाने के लिए यदि अग्नि से उसको तपाया जाता है धारण करने से अजीर्ण रोग हो जाता है। तो अग्निकाय की विराधना होती है। उदकार्द्र रजोहरण से ४२५९.तम्हा उ गेण्हियव्वं, बितियपदम्मिं जहा ण गेण्हेज्जा। प्रमार्जन करने पर उल्लंडक-मिट्टी के गोलक रजोहरण की अद्धाणे गेलन्ने, अहवा वि भवेज्ज असतीए। फलियों से लग जाते हैं। उससे प्रमार्जन करने पर त्रसकाय की इसलिए अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण किए जा सकते हैं। अपवादपद विराधना होती है। तो प्रश्न होता है कि स्थान, निषीदन आदि में अर्थात् अध्वनिर्गत, ग्लानावस्था या असत्ता में अतिरिक्त वस्त्र में किससे प्रमार्जन किया जाए? ग्रहण नहीं किया जा सकता है। (व्याख्या आगे) ४२५५.एमेव सेसगम्मि, संजमदोसा उ भिक्खणिज्जोए। ४२६०.कालेणेवदिएणं, पाविस्सामंतरेण वाघातो। चोल-निसिज्जा उल्ले, अजीर गेलण्णमायाए॥ गेलण्णे वाऽऽत-परे, दुविधा पुण होति असती उ॥ इसी प्रकार शेष उपकरण तथा भिक्षानिर्योग (पटलक, मार्गगत मुनियों ने सोचा कि इतने समय में हम वर्षाक्षेत्र पात्रकबंध आदि) ग्रहण करने पर भी संयमदोष होते हैं। वर्षा से में पहुंच जायेंगे। परंतु मध्य में ही कोई व्याघात हो गया। चोलपट्ट और निषद्या के भीग जाने पर, प्रतिदिन उनका इसलिए काल के अतिक्रान्त होने पर वर्षाक्षेत्र में पहुंचे। फिर परिभोग करने पर, अजीर्ण रोग उत्पन्न हो जाता है और उससे भी अतिरिक्त उपधि ग्रहण न करे। अथवा स्वयं के या दूसरे ग्लानत्व होता है। इससे आत्मविराधना होती है। के ग्लान हो जाने पर भी अतिरिक्त उपधि ग्रहण न करे। ४२५६.अद्धाणणिग्गतादी, परिता वा अहव णट्ठ गहणम्मि। असत्ता दो प्रकार की होती है-सअसत्ता और असद् जं च समोसरणम्मिं, अगेण्हणे जं च परिभोगो॥ असत्ता। इन कारणों से अतिरक्त वस्त्र ग्रहण न करने पर भी अध्वनिर्गत मुनियों के पास परीत-परिमित वस्त्र होते हैं। मुनि शुद्ध है। अथवा नष्ट-अपहृत उपकरण वाले या प्रत्यनीक के द्वारा ४२६१.गहिए व अगहिए वा, अप्पत्ताणं तु होति अतिगमणं। गृहीत उपकरण वाले होते हैं। उनका यदि वस्त्र से अनुग्रह न उवही-संथारग-पादपुंछणादीण गहणट्ठा॥ किया जाए तो दोष लगता है। यदि प्रथमसमवसरण में वस्त्र वर्षावास के प्रायोग्य उपधि को ग्रहण कर लेने या ग्रहण ग्रहण किया जाए तो दोष जाल प्राप्त होता है। यदि उपकरण न करने पर भी वर्षावास काल के अप्राप्त होने पर भी पांच ग्रहण नहीं करते और तृण आदि का परिभोग करते हैं तो दिन पहले वहां प्रवेश किया जा सकता है। उसका प्रयोजन अनेक दूषण प्राप्त होते हैं। है-वर्षाकल्प आदि उपधि, संस्तारक, पादपोंछन-रजोहरण ४२५७.अद्धाणणिग्गयादीणमदेंते होति उवधिनिप्फन्नं। आदि तथा तृण, डगलक आदि को ग्रहण करने के लिए। जं ते अणेसणऽग्गिं, सेवे देंतऽप्पणा जं च॥ ४२६२.कालेण अपत्ताणं, पत्ता-ऽपत्ताण खेत्तओ गहणं। अध्वनिर्गत मुनियों के आने पर यदि उनको वस्त्र नहीं वासाजोगोवधिणो, खेत्तम्मि तु डगलमादीणि॥ १. सद् असत्ता-वस्त्र अनेषणीय प्राप्त हो रहा है। अथवा सभी मुनि अतः सभी के योग्य अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण करना शक्य नहीं है। वस्त्र-ग्रहण करने के लिए कल्पिक नहीं हैं, केवल एक कल्पिक है, असद् असत्ता-मार्गणा करने पर भी वस्त्र नहीं मिलता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy