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________________ तीसरा उद्देशक ४३९ ___ काल से अप्राप्त तथा क्षेत्र से प्राप्त या अप्राप्स ये वर्षावासयोग्य पटलक, पात्रबंध आदि का ग्रहण करते हैं- इससे प्रथम और चौथा भंग सूचित किया है। कालतः प्राप्त या अप्राप्त और क्षेत्रतः प्राप्त-ये डगलक आदि ग्रहण करते हैं। इससे दूसरा और तीसरा भंग सूचित किया है। ४२६३.डगल-ससरक्ख-कुडमुह मत्तगतिग-लेव-पादलेहणिया। संथार-पीढ-फलगा, णिज्जोगो चेव दुगुणो तु॥ डगलक, सरजस्क राख, कुटमुख-घटकंठक, मात्रक- त्रिक-खेलमात्रक, कायिकीमात्रक, संज्ञामात्रक, लेप, पाद- लेखनिका, संस्तारक, पीढ़, फलक, निर्योग-पात्र संबंधी तथा द्विगुण प्रत्यवतार-ये उस समय ग्रहण किए जाते हैं। ४२६४.चत्तारि समोसरणे, मासा किं कप्पती ण कप्पति वा। कारणिग पंच रत्ता, सव्वेसिं मल्लगादीणं॥ शिष्य ने पूछा-आर्यवर! आषाढ़ पूर्णिमा के पश्चात् प्रथम समवसरण के चार मास में पूर्व कथित द्रव्य लेने कल्पते हैं या नहीं? सूरी ने कहा-उत्सर्गतः नहीं कल्पते। किन्तु सभी मल्लक आदि उपकरणों के लिए कारणवश पांच-पांच दिन रात के प्रवर्धमानरूप से यावत् भाद्रवपद शुक्ला पंचमी को ग्रहण करके या न करके पर्युषण कल्प की नियमतः स्थापना कर देनी चाहिए। ४२६५.तेसिं तत्थ ठिताणं, पडिलेहुच्छुद्ध चारणादीसु। लेवाईण अगहणे, लहुगा पुब्बिं अगहिते वा॥ जो वर्षावास में स्थित हैं उनकी सामाचारी यह है-सभा, प्रपा आदि में पथिकों द्वारा उत्सुद्ध-परित्यक्त वस्त्र की प्रत्युपेक्षा करे। उसके अभाव में चारणों के यहां उसकी प्रत्युपेक्षा करे। वर्षाकाल में लेप आदि ग्रहण करने पर तथा पूर्व में यदि लेप आदि ग्रहण न किए हो तो दोनों में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। ४२६६.वासाण एस कप्पो, ठायंता चेव जाव उ सकोसं। परिभुत्त विप्पइण्णं, वाघातट्ठा निरिक्खंति॥ वर्षावास में रहने वालों की यह सामाचारी है-वहां रहने वालों के लिए चारों ओर सकोश एक योजन तक कार्पदिकों के द्वारा परिभुक्त या विप्रकीर्ण अन्नपान आदि का, व्याघात होने पर, निरीक्षण करते हैं। व्याघात हैं४२६७.अद्धाणणिग्गतादी, झामिय वूढे व सेह परिजुण्णे। आगंतु बाहि पुब्विं, दिटुं अस्सण्णि-सण्णीसु॥ अध्वनिर्गत आदि मुनि आ जाएं, स्वयं की उपधि जल जाए, अथवा वह प्रवाहित हो जाए, शैक्ष यदि प्रव्राजनीय हो, उपधि परिजीर्ण हो जाए-इन कारणों से आगंतुक तालचर आदि से पहले मार्गणा करनी चाहिए, फिर क्षेत्र के बाहर रहने वाले असंज्ञी से, संज्ञी से पूर्व दृष्ट वस्त्र की मार्गणा करनी चाहिए, ग्रहण करना चाहिए। ४२६८.तालायरे य धारे, वाणिय खंधार सेण संवट्टे । लाउलिग-वइग - सेवग - जामाउग - पंथिगादीसुं॥ पहले निम्न से मार्गणा करे-तालाचार-नट, नर्तक, धारदेवछत्रधारक, वणिक्, स्कंधावार, सेना, संवर्त-डाकुओं के भय से नायकाधिष्ठित अनेक ग्रामों की एकत्र संस्थिति, लाकुटिक, वजिक, सेवक, जामातृक, पथिक आदि से। ४२६९.आगंतुगेसु पुव्वं, गवेसती चारणादिसू बाहिं। पच्छा जे सग्गामं, तालायरमादिणो एंति।। सक्रोशयोजनान्तरगत बाह्य ग्रामों में जो आगंतुक चारण आदि हैं, उनमें पहले गवेषणा कर, पश्चात् चारणों के अभाव में, स्वग्राम में आगंतुक तालाचर आदि में गवेषणा करे। ४२७०.लद्धूण णवे इतरे, समणाणं देज्ज सेव-जामादी। चारण-धार-वणीणं, पडंति इयरे उ सहितगा। सेवक, जामातृक आदि नये वस्त्रों को प्राप्त कर इतर अर्थात् पुराने वस्त्र श्रमणों को देते हैं। चारण तथा देवच्छत्रधारकों को राजा नए वस्त्र देता है तब वे पुराने वस्त्र साधुओं को दे देते हैं। वणिक वर्ग के वस्त्र मार्ग में गिर जाते हैं, सफेद वस्त्र साधु ग्रहण कर लेते हैं। इतर अर्थात् पथिक श्रावक हो सकते हैं, वे साधुओं को वस्त्र देते हैं। ४२७१.बहि-अंत-ऽसण्णि-सण्णिसु, जं दि8 तेसु चेव जमदिट्ठ। केयि दुहओ वऽसण्णिसु, गहिते सण्णीसु दिट्टितरे।। बहिः अर्थात् क्षेत्राभ्यन्तर में प्रतिवृषभग्राम में असंज्ञी या संज्ञी से पूर्वदृष्ट वस्त्र की मार्गणा करे अथवा जो पूर्व में अदृष्ट वस्त्र है, उसकी मार्गणा करे। कुछ आचार्य कहते हैं-दोनों अर्थात् बाह्य और अन्तर् ग्राम में यथाक्रम दृष्ट और अदृष्ट की गवेषणा करे। पहले असंज्ञी से ग्रहण कर लेने पर पश्चात् संज्ञी से दृष्ट और अदृष्ट वस्त्र ग्रहण करे। ४२७२.कोई तत्थ भणेज्जा, बाहिं खेत्तस्स कप्पती गहणं। गंतुं ता पडिसिद्धं, कारण गमणे बहुगुणं तु॥ . इस कथन पर कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है-क्षेत्र के बाहर यदि प्रतिवृषभग्राम में वस्त्र का ग्रहण कल्पता है, क्या वह सदा के लिए कल्पेगा? वर्षा में वहां जाना भी प्रतिषिद्ध है तो फिर वस्त्र-ग्रहण की बात ही क्या? आचार्य कहते हैं कारण से वर्षाकाल में बाहर जाना बहुत गुणों के लिए होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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