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४२७३. एवं नामं कप्पति, जं दूरे तेण बाहि गिण्हंतु।
एवं भणंति गुरुगा, गमणे गुरुगा व लहुगा वा॥ आचार्य शिष्य को कहते हैं कि यदि तुम यह कहते हो कि ग्राम से दूर अर्थात् ग्राम से बाहर यदि प्रारंभ से ही वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है जो सदा बाहर कल्पेगा? इस प्रकार कहने वाले को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। क्षेत्र से बाहर गमन करने पर गुरु या लघु प्रायश्चित्त आता है-नवप्रावृड़ में चतुर्गुरु और शेष वर्षावास में चतुर्लघु। ४२७४.संबद्ध-भाविएसू, कप्पति जा पंच जोयणे कज्जे।
जुण्णे व वासकप्पं, गेण्हति जं बहुगुणं चऽण्णं॥ जो साधर्मिक संबंध से संबद्ध क्षेत्र हैं, उनमें साधर्मिकों के समाचार वहन करते हुए वर्षाकाल में पांच योजन तक जाना कल्पता है और यदि उसका वर्षाकल्प परिजीर्ण हो गया हो तो नए वर्षाकल्प को बहुगुणवाला मानकर उसे ग्रहण कर लेता है। तथा कारणवश अन्य वस्त्र भी वह ग्रहण करता है। ४२७५.आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे य मीसजाए य।
ठवणा पाहुडियाए, पादोकर कीत पामिच्चे॥ ४२७६.परियट्टिए अभिहडे, उब्भिण्णे मालोहडे इ य।
__ अच्छिज्जे अणिसिद्वे, धोते रत्ते य घटे य॥ ग्रहण करने पर ये १६ दोष होते हैं। १. आधाकर्म ९. प्रामित्य २. औद्देशिक १०. परिवर्तित ३. पूतिकर्म ११. अभ्याहृत ४. मिश्रजात १२. उद्भिन्न ५. स्थापना १३. मालापहृत ६. प्राभृतिका १४. आच्छेद्य ७. प्रादुष्करण १५. अनिसृष्ट ८. क्रीत
१६. धौत, रक्त और घृष्ट। ४२७७.एते सव्वे दोसा, पढमोसरणे ण वज्जिता होति।
जिणदिवहिं अगहिते, जो गेण्हति तेहि सो पुट्ठो॥ ये सारे दोष प्रथम समवसरण में वस्त्र आदि के ग्रहण में वर्जित नहीं हैं। जो मुनि दर्पवश उपकरणों को पहले ग्रहण न कर प्रथम समवसरण में ग्रहण करता है वह तीर्थंकरों द्वारा दृष्ट कर्मबंध के दोषों से स्पष्ट होता है। ४२७८.पढमम्मि समोसरणे, जावतियं पत्त-चीवरं गहियं।
सव्वं वोसिरियव्वं, पायच्छित्तं च वोढव्वं॥ प्रथम समवसरण में दर्पवश जितने पात्र और वस्त्र ग्रहण किए हैं उन सबको व्युत्सृष्ट कर प्रायश्चित्त वहन करना चाहिए।
=बृहत्कल्पभाष्यम् ४२७९.सज्झायट्ठा दप्पेण वा वि जाणंतए वि पच्छित्तं।
कारण गहियं तु विदू, धरेतऽगीएसु उज्झंति॥ गीतार्थ भी यदि स्वाध्याय के लिए अथवा दर्पवश भी वस्त्र आदि लेता है तो उसे भी प्रायश्चित्त आता है। यदि सारे गीतार्थ हों और कारणवश लिया हो तो वे उसे धारण कर सकते हैं। यदि गच्छ गीतार्थ मिश्र हो तो दूसरे उपकरण मिलने पर, उसका परित्याग कर दे। ४२८०.आसाढपुण्णिमाए, वासावासासु होति अतिगमणं।
मग्गसिरबहुलदसमी, उ जाव एक्कम्मि खेत्तम्मि॥ आषाढ़ पूर्णिमा के दिन वर्षावास के क्षेत्र में अतिगमन अर्थात् प्रवेश करना चाहिए और (अपवाद में) मृगशिर कृष्णा दशमी तक एक ही क्षेत्र में रहा जा सकता है। उत्सर्ग में कार्तिक पूर्णिमा को वहां से निर्गमन कर देना चाहिए। ४२८१.बाहि ठिया वसभेहिं, खेत्तं गाहेत्तु वासपाउग्गं।
कप्पं कधेत्तु ठवणा, सावणबहुलस्स पंचाहे। वृषभ मुनि वर्षाप्रायोग्य क्षेत्र के निकट ठहरे हुए हैं। वे वर्षाक्षेत्र की सामाचारी को ग्रहण करते हैं अर्थात् तृण, डगलक आदि वर्षाप्रायोग्य वस्तुओं को ग्रहण करते हैं। मुनि आषाढ़पूर्णिमा को प्रवेश कर प्रतिपदा से पांच दिनों में पर्युषणाकल्प का कथन कर श्रावण कृष्णा पंचमी को वर्षाकाल की सामाचारी की स्थापना करते हैं। ४२८२.एत्थ य अणभिग्गहियं, वीसतिरायं सवीसगं मासं।
तेण परमभिग्गहियं, गिहिणायं कत्तिओ जाव॥ श्रावण कृष्णा पंचमी को पर्युषणा की स्थापना कर देने पर भी अनवधारित है, ऐसा गृहस्थों के सामने कहना चाहिए। शिष्य पूछता है, इस अनवधारित का इयत्ताकाल कितना है? आचार्य कहते हैं-अभिवर्धित संवत्सर में बीस दिन-रात और चान्द्रसंवत्सर में एक मास बीस दिन-यह अनवधारित का इयत्ताकाल है। उसके पश्चात् अभिगृहीत अर्थात् निश्चित कर देना चाहिए। गृहस्थों के पूछने पर ज्ञापना कर देनी चाहिए कि हम यहां वर्षाकाल के लिए स्थित हैं। हम यहां कार्तिक मास तक रहेंगे। ऐसा गृहिज्ञात करना चाहिए। ४२८३.असिवाइकारणेहि, अहवण वासं ण सुट्ठ आरद्धं ।
अभिवड्डियम्मि वीसा, इयरेसु सवीसती मासे॥ शिष्य ने पूछा-अनवधारित काल इतना क्यों? सूरी कहते हैं-कदाचित् उस क्षेत्र में अशिव आदि हो जाए, अथवा वर्षा का बरसना अभी ठीक से प्रारंभ नहीं हुआ है, अतः अपवादों से बचने के लिए अभिवर्धित संवत्सर में बीस दिन और चान्द्र संवत्सर में एकमास बीस दिन का अनवधारित काल है।
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