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________________ तीसरा उद्देशक ४२८४. एत्थ उ पणगं पणगं, कारणिगं जा सवीसती मासो । सुद्धदसमीठियाण व, आसाढीपुण्णिमोसरणं ॥ अत्र अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा में स्थित साधु-साध्वी श्रावण कृष्णा पंचमी को पर्युषणा करते हैं। यदि आषाढ़ी पूर्णिमा को वर्षावास के क्षेत्र को प्राप्त न हुए हों तो पांच दिन रात तक वर्षावासप्रायोग्य उपधि को ग्रहण कर, दसमी को पर्युषणा करते हैं। इस प्रकार कारणवश पांच-पांच रात दिन बढ़ाते हुए तब तक यह बढ़ाते रहें, जब तक कि एकमास और बीस दिन-रात न बीत जाएं। अथवा जो आषाढ़ शुक्ला दसमी को वर्षाक्षेत्र में स्थित हो गए हों तो वे आषाढ़ी पूर्णिमा को समवसरण अर्थात् पर्युषणा करते हैं। यह उत्सर्ग विधि है । अपवाद में भी आषाढ़ी पूर्णिमा से आगे एक मास और बीस रात का अतिक्रमण करना ही नहीं चाहिए अर्थात् भाद्रपद शुक्ला पंचमी को तो पर्युषणा कर ही लेना चाहिए । ४२८५. इय सत्तरी जहण्णा, असिती णउई दसुत्तर सयं च । जति वासति मग्गसिरे, दस राया तिण्णि उक्कोसा ॥ जो आषाढ़ी पूर्णिमा से आगे एक मास और बीस दिनरात को पर्युषणा करते हैं उनके ७० दिन का जघन्य वर्षावास होता है तथा भाद्र शुक्ला पंचमी से कार्तिक पूर्णिमा तक भी ७० दिन ही रहते हैं। जो भाद्रव कृष्णा दशमी को पर्युषणा करते हैं, उनके ८० दिन का मध्यम वर्षावास होता है। जो श्रावणी पूर्णिमा को पर्युषणा करते हैं उनके कार्तिक पूर्णिमा तक ९० दिन का, श्रावण शुक्ला पंचमी को पर्युषणा करने वाले के १०० दिन का और श्रावण कृष्णा को पर्युषणा करने पर ११० दिन का वर्षावास होता है। यदि मृगसर मास में वर्षा होती है तो उत्कृष्टतः तीन दस रात्रियों तक (अर्थात् पूरे मृगसर मास तक ) वहां रहा जा सकता है। फिर पौष की प्रतिपदा को अवश्य विहार कर देना चाहिए। यह पंचमासिक उत्कृष्ट वर्षावास है। ४२८६. काऊण मासकप्पं, तत्थेव ठिताणऽतीते मग्गसिरे । सालंबणाण छम्मासिओ उ जेट्टोग्गहो होति ॥ जिस क्षेत्र में आषाढमासकल्प किया है और वहीं वर्षावास किया है और वर्षा आदि के कारण मृगसर मास में भी वहीं रहना पड़ता है तो ऐसे सालंबन मुनियों के छह मास का ज्येष्ठावग्रह - उत्कृष्ट वर्षावास होता है। ४२८७.अह अत्थि पदवियारो, चउपाडिवयम्मि होति निग्गमणं । अहवा वि अणिताणं, आरोवण पुव्वनिद्दिट्ठा ॥ यदि पाद विहार योग्य मार्ग हों तो चातुर्मास के बाद आने Jain Education International ४४१ वाली प्रतिपदा को निर्गमन कर देना चाहिए। यदि निर्गमन नहीं करते तो पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा प्रायश्चित्त (चतुर्लघु) आता है। ४२८८. पुण्णम्मि णिग्गयाणं, साहम्मियखेत्तवज्जिते गहणं । संविग्गाण सकोसं, इयरे गहियम्मि गेण्हंति ॥ वर्षावास पूर्ण होने पर निर्गत निर्ग्रन्थ साधर्मिकों द्वारा किए गए वर्षावास क्षेत्र को छोड़कर अन्य ग्राम-नगरों में उपकरण ग्रहण कर सकते हैं। सांभोगिक मुनियों का जो वर्षाक्षेत्र हो, उसका सक्रोशयोजन तक के क्षेत्र को छोड़कर उपकरण ग्रहण कर सकते हैं। इतर अर्थात् पार्श्वस्थ आदि का जो वर्षावासक्षेत्र हो वहां उनके द्वारा उपकरण ग्रहण कर लेने के पश्चात् मुनि वहां उपकरण ग्रहण कर सकते हैं। ४२८९. वासासु वि गिण्हंती, णेव य णियमेण इतरे विहरती । तहि सुद्धमसुद्धे, गहिए गिण्हंति जं सेसं ॥ पार्श्वस्थ आदि वर्षाऋतु में भी वस्त्र लेते हैं। वे नियमतः चतुर्मास के पश्चात् विहार नहीं करते। अतः शुद्ध या अशुद्ध रूप से गृहीत उपकरणों के पश्चात् शेष वस्त्र आदि मासद्वय के मध्य में लिए जा सकते हैं। ४२९०. सक्खेत्ते परखेत्ते वा, दो मासा परिहरेत्तु गेण्हति । जं कारणं ण णिग्गय, तं पि बहिंझोसियं जाणे ॥ वह क्षेत्र जहां स्वयं ने वर्षावास किया था अथवा परक्षेत्र अर्थात् जहां संविग्न मुनियों ने वर्षावास किया हो, उन क्षेत्रों में दो मास का वर्जन कर तीसरे मास में वस्त्र आदि लिए जा सकते हैं। चतुर्मास के अनन्तर कारणवश जितने समय तक विहार न किया हो, उस काल को भी बहिर्निर्गत काल की भांति मानना चाहिए। ४२९१.चिक्खल-वास-असिवादिसु दिंते पडिसेधेत्ता, जहिं कारणेसु उ णणिति । हंति उ दोसु पुण्णेसु ॥ मार्ग चिक्खलयुक्त हो गए हों, वर्षा अभी तक न रुकी हो, अशिव, दुर्भिक्ष आदि हों इन कारणों से चतुर्मास के बाद विहार न हुआ हो और यदि वहां कोई वस्त्र आदि ग्रहण करने के लिए निमंत्रण दे तो उसका प्रतिषेध करे। दो मास पूर्ण हो जाने पर वस्त्र आदि ग्रहण किए जा सकते हैं। ४२९२.भावो उ णिग्गतेहिं, वोच्छिज्जइ देंति ताई अण्णस्स । अत्तट्ठेति व ताई, एमेव य कारणमणिते ॥ वर्षावास में स्थित मुनियों के विहार कर जाने पर श्रद्धालुओं के वस्त्रदान के जो भाव थे वे व्यवच्छिन्न हो जाते हैं। वे फिर उन वस्त्रों को दूसरों को देते हैं अथवा उनका www.jainelibrary.org. For Private & Personal Use Only
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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