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= बृहत्कल्पभाष्यम् आदि उत्कृष्ट पुरुषों की उपधि का मूल्य है शतसहस्र अर्थात् ४२२२.भीएण खंभकरणं, एत्थुस्सर जा ण देमि वावारं। लाख रुपया।
णिज्जित भूततलागं, आसेण ण पेहसी जाव।। ४२१६.विक्किंतगं तधा पप्प होइ रयणस्स तम्विहं मुल्लं। जब उज्जयिनी में महाराज नरसिंह चंडप्रद्योत का राज्य
कायगमासज्ज तहा, कुत्तियमुल्लस्स णिक्कं ति॥ था, तब वहां नौ कुत्रिकापण थे। भृगुकच्छ का एक व जैसे रत्न का विक्रेता (क्रेता?) होगा वैसा ही रत्न का कुत्रिकापण की बात पर विश्वास नहीं करता था। वह मूल्य होगा जैसे क्रेता ग्रामीण व्यक्ति है तो रत्न का मूल्य उज्जयिनी के एक कुत्रिकापण में गया और भूत खरीदने की कम होगा और यदि क्रेता प्रबुद्ध होगा तो उसका मूल्य इच्छा व्यक्त की। वहां के मालिक ने तेले की तपस्या कर . अधिक होगा। इसी प्रकार कुत्रिकापण में क्रायक-ग्राहक के । उसे एक लाख रुपयों में भूत दे दिया। उसने उस वणिक् से आधार पर वस्तु के मूल्य का निष्क-परिमाण होता है। कहा-यह भूत ऐसा है कि इसको कोई काम न देने पर यह प्रतिनियत कुछ भी नहीं है।
रुष्ट होकर अपने स्वामी को मार डालता है। वह वणिक् भूत ४२१७.एवं ता तिविह जणे, मोल्लं इच्छाए दिज्ज बहुयं पि। को लेकर भृगुकच्छ में आया और भूत को कार्य में व्याप्त
सिद्धमिदं लोगम्मि वि, समणस्स वि पंचगं भंडं॥ कर दिया। वह भूत प्रत्येक कार्य को शीघ्र संपन्न कर देता इस प्रकार वहां तीनों प्रकार के पुरुषों के लिए पंचक था। सभी कार्यों की परिसमाप्ति हो जाने पर वणिक् भयभीत आदि रुपयों का परिमाण जघन्यतः है। फिर वे चाहें अधिक हो गया। उसने तब भूत से एक स्तंभ का निर्माण करा कर भी दे सकते हैं। लोक में यह सिद्ध है, प्रतीत है। श्रमण के कहा-जब तक मैं दूसरा काम न दूं तब तक तुम इस स्तंभ लिए भांड का मूल्य है पांच रुपया। (जिस देश में जो पर उतरते-चढ़ते रहो। तब भूत बोला-'तुमने मुझे जीत सिक्का चलता है उसके प्रमाण से रुपया का मान जानना लिया है। मैं अपनी पराजय के चिह्मस्वरूप, तुम्हें एक वस्तु चाहिए।)
देना चाहता हूं। तुम अश्व पर बैठकर जाते समय जितनी दूरी ४२१८.पुव्वभविगा उ देवा, मणुयाण करिति पाडिहेराई। तक पीछे नहीं देखोगे उतना लंबा-चौड़ा मैं एक तालाब
लोगच्छेरयभूया, जह चक्कीणं महाणिहयो॥ निर्मित कर दूंगा।' वह वणिक् अश्व पर आरूढ़ होकर चला कुत्रिकापण की उत्पत्ति कैसे?
और बारह योजन जाने के पश्चात् मुड़ कर पीछे देखा। भूत पूर्वभव के मित्र देव पुण्यवान् व्यक्तियों के प्रतिहार्य अर्थात् ने वहां एक तालाब निर्मित कर डाला। उसका नाम 'भूतयथाभिलषित द्रव्य उपस्थित करते हैं। जैसे लोक में तालाब' रखा गया। आश्चर्यभूत नौ महानिधियों का चक्रवर्तियों के समक्ष देवता ४२२३.एमेव तोसलीए, इसिवालो वाणमंतरो तत्थ। प्रातिहार्य करते हैं, प्रस्तुत करते हैं।
णिज्जित इसीतलागे, रायगिहे सालिभहस्स। ४२१९.उज्जेणी रायगिहं, तोसलिनगरे इसी य इसिवालो। इसी प्रकार तोसलिनगर के एक वणिक् ने उज्जयिनी
दिक्खा य सालिभद्दे, उवकरणं सयसहस्सेहिं॥ नगर के एक कुत्रिकापण से ऋषिपाल नामक वानव्यन्तर प्राचीनकाल में उज्जयिनी और राजगृह नगर में खरीदा। वणिक् के द्वारा पराजित होने पर उसी प्रकार कुत्रिकापण थे। एक बार तोसलिनगर के एक वणिक् ने ऋषितडाक नामक तालाब निर्मित किया। राजगृह के उज्जयिनी के कुत्रिकापण से ऋषिपाल नाम का वानव्यन्तर कुत्रिकापण से शालिभद्र की दीक्षा के समय रजोहरण तथा खरीदा था। राजगृह नगर में शालिभद्र की दीक्षा के समय । पात्र-प्रत्येक को एक-एक लाख रुपयों में खरीदा था। उपकरण शतसहस्र में खरीदे गए थे। इससे यह स्पष्ट होता ४२२४.तिण्णि य अत्तद्वेती, चत्तारि य पूयणारिहे देति। है कि राजगृह में कुत्रिकापण था।
दितस्स य पित्तव्वो, सेहस्स विविंचणं वा वि॥ ४२२०.पज्जोए णरसीहे, णव उज्जेणीय कुत्तिया आसी। गाथा ४२१३ में सात निर्योगों का कथन हुआ है। प्रव्रज्या
भरुयच्छवणियऽसद्दह, भूयऽट्ठम सयसहस्सेणं॥ ग्रहण करने वाला मुमुक्षु सात निर्योगों को ग्रहण कर प्रव्रजित ४२२१.कम्मम्मि अदिज्जंते, रुट्ठो मारेइ सो य तं घेत्तुं। हो। सात निर्योगों में से वह शैक्ष तीन निर्योगों को अपने लिए
भरुयच्छाऽऽगम, वावारदाण खिप्पं च सो कुणति॥ रखता है और शेष चार निर्योग पूजनार्ह व्यक्तियों अर्थात् १. वृत्तिकार का कथन है कि यह सारा जघन्य मूल्य मानना चाहिए। उत्कृष्टतः तीनों प्रकार के पुरुषों के लिए मूल्य अनियत है। यहां जो मूल्यमान दिया
गया है पांच रुपया जघन्य, सहस्र रुपया है मध्यम और शतसहस्र है उत्कृष्ट। यह अनियत है। २. वृत्ति में कुछ और तालाबों का निदर्शन हैं। देखें कथा परिशिष्ट, नं. ९४।
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