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________________ तीसरा उद्देशक क्योंकि अनुपस्थापित शैक्ष को अविशुद्ध - अनेषणीय वस्त्र, पात्र दिया जाता है। अतः संक्षोभ के पश्चात् वस्त्र आदि भी कल्पता है। ४२०७. जह अत्तट्टा कम्मं परिभुत्तं कप्पते उ इतरेसिं । इय तेण परिग्गहियं, कप्पइ इयरं पि इयरेसिं ॥ जैसे गृहस्थ ने अपने लिए आधाकर्म किया, उसका इतर अर्थात् संयतों द्वारा परिभोग करना कल्पता है। इसी प्रकार गृहस्थ शैक्ष द्वारा परिगृहीत वस्त्र आदि दूसरे संयतों को भी ग्रहण करना कल्पता है। ४२०८. सहसाणुवादिणातेण केइ णिदिट्ठके ण इच्छंति । अणिदिट्ठे पुण छोभं वदंति परिफग्गुमेतं पि ॥ कई आचार्य सहस्रानुपाती विष के उदाहरण से साधु निमित्त निर्दिष्ट को संक्षोभ के पश्चात् भी ग्रहण करना नहीं चाहते और अनिर्दिष्ट को क्षोभ के पश्चात् कल्पनीय कहते हैं। यह भी निस्सार कथन है। पडिवण्णपंचजामे, कप्पति तेसिं तहऽण्णेसिं ॥ जैसे चरमतीर्थंकर के मुनियों के लिए किया हुआ सारा प्रतिषिद्ध है, वही मध्यम तीर्थंकरों के मुनियों के लिए ग्रहणीय है। जिन चतुर्यामिक मुनियों ने पंचयाम धर्म को स्वीकार कर लिया तो चतुर्यामिक मुनियों के लिए निर्मित वस्त्र आदि उनको तथा अन्य पंचयामिक मुनियों को लेने कल्पते हैं। इसी प्रकार प्रस्तुत प्रसंग में भी साधुओं के लिए निर्मित वस्त्र आदि का परिग्रहण मुनि नहीं करते किन्तु शैक्षगृहस्थ उनको आत्मीय बनाकर यदि साधुओं को देता है तो वह कल्पता है। णिज्जुत्तभंड व रयोहरादी, कोई किणे कुत्तियआवणातो ॥ प्रायः वस्त्र और पात्र गृहस्थों के घरों में भी मिलते हैं। निर्युक्तभांड अर्थात् पात्रनियोग आदि उपकरण तथा रजोहरण आदि सर्वत्र प्राप्त नहीं होते। कोई बुद्धिमान् निपुण गृहस्थ उनको मुनियों के पास देखकर स्वयं बना लेता है अथवा कोई कुत्रिकापण से उन्हें खरीद लेता है। ४२१३.कुत्तीयपरूवणया, उक्कोस - जहन्नमज्झिमट्ठाणा । कुत्तिय भंडक्किणणा, उक्कोसं हुति सत्तेव ॥ यहां कुत्रिकापण की प्ररूपणा करनी चाहिए। वहां उन आचार्यों का यह कथन स्वगृहपतिमिश्र के सदृश है। उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम - तीनों प्रकार के मूल्य होते हैं। अतः हम इसको व्यर्थ मानते हैं। गृहस्थ शैक्ष दोनों प्रकार के - निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट वस्त्र आदि क्षोभ करने के पश्चात् परिगृहीत करने पर वे साधुओं को लेने कल्पते हैं। यहां रत्नाकर - मेरु का दृष्टांत ज्ञातव्य है । (जैसे वहां प्रक्षिप्त तृण आदि भी स्वर्णमय बन जाता है, वैसे ही शैक्ष गृहस्थ द्वारा परिगृहीत सारा द्रव्य कल्पनीय हो जाता है ।) ४२०९. एवं पि सघरमीसेण सरिसगं तेण फग्गुमिच्छामो । दुविधं पि ततो गहियं, कप्पति रतणुच्चओ नातं ॥ कुत्रिकापण में भांड और उपकरणों का क्रय होता है । उत्कृष्ट रूप से समस्त श्रमण संघ के योग्य वस्त्र - पात्र प्राप्त होते हैं। सात निर्योग वहां से ग्रहीतव्य होते हैं। (यह चूर्णि का अभिप्राय है । विशेषचूर्णि के अनुसार मुमुक्ष स्वयं के लिए एक निर्योग ग्रहण करे। उत्कर्षतः सात निर्योग ग्रहण किए जा सकते हैं - तीन निर्योग स्वयं के लिए और चार निर्योग आचार्य आदि चार पूजनीय व्यक्तियों के लिए ।) ४२१४. कुत्ति पुढवीय सण्णा, जं विज्जति तत्थ चेदणमचेयं । ४२१०. जह उ कडं चरिमाणं, पडिसिद्धं तं हि मज्झिमोग्गहियं । ४२११. उग्गम-विसोधिकोडी, दुगादिसंजोगओ बहू एत्थं । पत्तेग-मीसिगासु य, णिद्दिट्ठ तथा अणिद्दिट्ठा ॥ उद्गमकोटि के भेद तथा विशोधिकोटि के भेद द्विक आदि के भेदों के आधार पर बहुत भंग होते हैं। वे प्रत्येकभंग ४३३ कहलाते हैं। इसी प्रकार उद्गमकोटि के भेदों का और विशोधिकोटि के भेदों का परस्पर द्विक आदि संयोग से निष्पन्न अनेक भंग होते हैं। वे मिश्रभंगक कहलाते हैं। इन सब प्रत्येक और मिश्र भंगों में कल्प्य और अकल्प्य प्रागुक्त प्रकार से जानने चाहिए। ४२१२. वत्था व पत्ता व घरे व हुज्जा, Jain Education International पिज्जा णिउ सयं पि । गणुवभोगे य खमं, न तं तहिं आवणे णत्थि ॥ 'कु' पृथ्वी की संज्ञा है । उसका त्रिक अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य और पाताल । उसका 'आपण' अर्थात् हाट कुत्रिकापण । उन तीनों पृथ्वीयों में जो कुछ ग्रहण और उपभोग के योग्य चेतन और अचेतन पदार्थ है, वह जहां प्राप्त होता है वह है। कुत्रिकापण | एक भी चेतन या अचेतन पदार्थ ऐसा नहीं है जो वहां प्राप्त न होता हो । ४२१५. पणतो पागतियाणं, साहस्सो होति इब्भमादीणं । उक्कोस सतसहस्सं, उत्तमपुरिसाण उवधी उ॥ प्रव्रजित होने वाले सामान्य व्यक्तियों के लिए उपधि आदि का कुत्रिकापण में मूल्य है पांच रुपया, ईभ्य-श्रेष्ठीसार्थवाह आदि मध्यमवर्गीय पुरुषों के लिए उसी का मूल्य है। सहस्र रुपया तथा उत्तमपुरुषों - चक्रवर्ती, मांडलिक राजा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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