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प्राप्ति कराता है। यदि इतना भी अवकाश न हो तो जिस गच्छ में वह प्रव्रजित होना चाहता है, उस गच्छ के सभी सदस्यों को प्रतिलाभित करता है।
४१९९. तदसति पुव्वुत्ताणं, चउण्ह सीसति य तेसि वावारो । हाणी जा तिणि सयं, तदभावे गुरू उ सव्वं पि ॥ यदि गच्छ को प्रतिलाभित करने की शक्ति न हो तो पूर्वोक्त चार-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्ती तथा संघाटक साधुओं की पूजा करता है। उसके सामने इन चारों की प्रवृत्ति का कथन किया जाता है, जैसे आचार्य अर्थ का व्याख्यान करते हैं, उपाध्याय सूत्र की वाचना देते हैं, प्रवर्ती तप संयम आदि में प्रवृत्त करते हैं और संघाटक के साधु भिक्षा आदि में सहायक होते हैं इसलिए इनकी पूजा करो। यदि इतनी भी शक्ति न हो तो यथाक्रम हानि करते हुए प्रथम आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्ती की उसके अभाव में आचार्य, उपाध्याय की और इसके अभाव में आचार्य की पूजा करे। इतनी भी शक्ति न हो तो स्वयं के योग्य तीन प्रत्यवतार, उनके अभाव में दो और उसके अभाव में एक प्रत्यवतार लेकर प्रव्रजित होता है। यदि एक भी न हो तो गुरु सब कुछ देते हैं।
४२००. अप्पणी कीतकडं वा, आहाकम्मं व घेत्तु आगमणं । संजोए चेव तधा, अणिदिट्ठे मग्गणा होति ॥ वह मुमुक्षु अपने योग्य वस्त्र - पात्र आदि क्रीतकृत अथवा आधाकर्म लेकर गुरु के समक्ष आगमन करता है। इन दोषों के निर्दिष्ट अथवा अनिर्दिष्ट संयोग-भंगों की मार्गेणा करनी होती है। यह द्वारगाथा है। व्याख्या आगे । ४२०१. कीयम्मि अणिछिद्रे तेणोग्गहियम्मि सेसमा कप्पे ।
निट्ठिम्मि ण कप्पति, अहव विसेसो इमो तत्थ ॥ क्रीतकृत दो प्रकार का होता है निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट । जो अनिर्दिष्टरूप में क्रीत हैं, उनमें से स्वयं के लिए वस्त्र अवगृहीत करने के पश्चात् जो शेष रहता है, वह साधुओं को कल्पता है, निर्विष्टक्रीत में नहीं कल्पता अथवा निर्दिष्ट में यह विशेष है।
बृहत्कल्पभाष्यम्
अनुस्थापित है। यदि ऐसा शैक्ष न हो तो वस्त्रों का परिष्ठापन कर देते हैं तब कोई शैक्ष कहता है४२०३.एतं पि मा उज्झह देह मज्झं,
मज्झच्चगा गेहह एक्क दो वा । अत्तट्ठिए होति कदायि सव्वे,
सव्वे वि कप्पंति विसोधि एसा ॥ इन वस्त्रों का परिष्ठापन न करें। ये वस्त्र मुझे दे दें। आप मेरे प्रत्यवतार से एक या दो वस्त्र ले लें। यदि दाता ने अनेक प्रत्यवतार क्रीत किए हों तो क्या विधि है? दाता वस्त्रों के जितने प्रत्यवतारों को अपना बनाता है, वे लिए जा सकते हैं। कदाचिद् दाता सभी प्रत्यवतारों को अपना बना लेता है तो वे सभी लिए जा सकते हैं। वे सभी कल्पते हैं। यह विशोधि कोटिविषयक विधि है।
४२०४. उम्गमकोडीए वि हु, संछोभो तहेब होतऽनिहिडे ।
इयरम्मि वि संछोभो, जइ सो सेहो सयं भणइ ॥ उद्गमकोटि का अर्थ है-आधाकर्म आदि अविशोधिकोटि के दोष यदि इसमें भी अनिर्दिष्टकोटि का क्रीत हो और दाता कहे जिन वस्त्रों को ग्रहण करने के लिए आपको कहा है, वे यदि आप लेना न चाहें तो मेरे द्वारा परिगृहीत वस्त्र आप लें और मैं वे वस्त्र ले लूंगा जिनका आपने प्रतिषेध किया है। यदि इस संक्षोभ-प्रक्षेपक से वह वस्त्र देता है तो सारा कल्पता है। निर्दिष्टक्रीत में भी यदि यह संक्षोभ होता है तो वह कल्पता है। संक्षोभ यह है यदि गृहस्थ शैक्ष स्वयं ही इस प्रकार कहता है, दूसरों के कहने पर नहीं। ४२०५. उक्कोसगा य दुक्खं, वुवज्जिया केसितोऽहं मि विधेव । इति संछोभं तहियं वदंति निद्दिट्ठगेसुं पि॥ दाता कहता है - मैंने आपके लिए ये उत्कृष्ट - बहुमूल्य वस्त्र निर्मित करवाए हैं। आप इनका परित्याग क्यों करते हैं। अत्यंत प्रयास कर मैंने बुनकर से ये वस्त्र आपके लिए बनवाए हैं। इसमें मुझे बहुत क्लेश हुआ है। अब आप इनको ग्रहण नहीं करते। वृथा ही मैंने इतना कष्ट सहा। अच्छा, आप मेरे वस्त्र लें और मैं आपके ये वस्त्र ग्रहण कर लूंगा। इस प्रकार संयत के निमित्त निर्दिष्ट कर निर्मित वस्त्र का भी संक्षोभ अर्थात् कल्पनीयता का कारण बनता है । उनको भी ग्रहण करना कल्पता है।
४२०६. जा संजयणिहिला, संछोभम्मि वि न कप्पते केयी
तं तु ण जुज्जह जम्हा, दिज्जति सेहस्स अविसुद्धं ॥ कुछेक आचार्य कहते हैं कि वस्त्र संयतनिर्दिष्ट हैं वे संक्षोभ के पश्चात् भी नहीं कल्पते। यह मत उचित नहीं है।
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४२०२. मज्झतिगाणि गिण्हह अहगं तुज्झच्चए परिग्विच्छं । सेहे दिंति व वत्थं तदभावे वा विगिंचति ॥ अथवा वह शैक्ष कहता है-मैंने जो वस्त्र स्वयं के लिए खरीदें हैं, वे आप लें और मैं आप साधुओं के लिए खरीदे गए वस्त्र ग्रहण कर लूंगा। अथवा वह कहता है- मैंने जो आपके लिए वस्त्र क्रीत किए हैं, उनका आप जैसा चाहें वैसा उपयोग करें। तब वे वस्त्र शैक्ष को देते हैं जो अभी १. निर्दिष्ट-खरीदते समय यह मेरे लिए तथा ये अन्य साधुओं के लिए इस निर्देशपूर्वक खरीदना । उसके विपरीत अनिर्दिष्ट होता है।
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