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तीसरा उद्देशक = ३. द्रव्यतः और भावतः-दोनों से निर्ग्रन्थ।
निवास योग्य स्थान पाकर उसके घर के द्वारमूल में सो गया। ४. न द्रव्यतः और न भावतः निर्ग्रन्थ।
वह तरुणी कुशील थी। वहां प्रतिदिन एक यक्ष आता और द्रव्यतः निर्ग्रन्थ वह होता है जो लिंगधारी है परन्तु रात्रीवास तरुणी के साथ बिता कर प्रभात में अपने स्थान पर निःशंक होकर उत्प्रवजित हो जाता है। जो प्रव्रज्याभिमुख है, चला जाता। उस दिन यक्ष नहीं आया। दूसरे दिन उसी परंतु कारणवश परलिंग में है, वह दूसरे भंग में आता है। जो तरुणी के घर के द्वारमूल पर एक लिंगधारी आकर सो गया। उभयसहित है वह तीसरे भंग में और जो उभय अर्थात् द्रव्य उस दिन यक्ष आया। उस तरुणी ने पूछा-कल क्यों नहीं और भाव से रहित है, वह चरम भंग में आता है।
आए? यक्ष बोला-कल यहां द्वार पर एक यति सो रहा था। ४१९२.चउधा खलु संवासो, देवाऽसुर रक्खसे मणुस्से य। यति का उल्लंघन कर मैं आ नहीं सकता। तरुणी ने
अण्णोण्णकामणेण य, संजोगा सोलस्स हवंति॥ कहा-झूठ क्यों कह रहे हो? यति तो आज यहां सो रहा है। संवास चार प्रकार का है-देवसंवास, असुरसंवास, कल तो एक तरुण सोया था। यक्ष बोला-आज यहां राक्षससंवास और मनुष्यसंवास। एक-दूसरे की कामना से सोनेवाला यति नहीं है। वह चारित्र से भ्रष्ट है, केवल इनके सोलह भंग होते हैं
वेशधारी है। यह आज यहां चोरी करने के लिए आया हुआ १. देव देवी के साथ, ९. राक्षस देवी के साथ है। अतः इसे यतिवेष में चोर मानना चाहिए। इस दृष्टांत से २. देव असुरी के साथ १०. राक्षस असुरी के साथ यह प्रमाणित होता है कि प्रव्रज्याभिमुख व्यक्ति भी प्रव्रजित ३. देव राक्षसी के साथ ११. राक्षस राक्षसी के साथ ही माना जाता है। . ४. देव मनुष्यणी के साथ १२. राक्षस मनुष्यणी के साथ ४१९५.रयहरणेण विमज्झो, गुच्छगगहणे जहण्णगहणं तु। ५. असुर देवी के साथ १३. मनुष्य देवी के साथ
भवति पडिग्गहगहणे, गहणं उक्कोसउवधिस्स। ६. असुर असुरी के साथ १४. मनुष्य असुरी के साथ रजोहरण विमध्य उपधि है। गोच्छग का ग्रहण जघन्य ७. असुर राक्षसी के साथ १५. मनुष्य राक्षसी के साथ उपधि का ग्रहण है। प्रतिग्रह का ग्रहण उत्कृष्ट उपधि का ८. असुर मनुष्यणी के साथ १६. मनुष्य मनुष्यणी के साथ। ग्रहण है।
(देव शब्द से वैमानिक अथवा ज्योतिष्क देव, असुरशब्द ४१९६.पडिपुण्णा पडुकारा, कसिणग्गहणेण अप्पणो तिण्णि। से भवनवासी, राक्षस शब्द से व्यंतर।)
पुव्विं उवहितो पुण, जो पुव्वं दिक्खितो आसी॥ ४१९३.अधवण देव-छवीणं, संवासे एत्थ होति चउभंगो। कृत्स्नवस्त्र के ग्रहण का तात्पर्य यह है कि प्रव्रजित होते
पव्वज्जाभिमुहंतर, गुज्झग उम्भामिया वासो॥ समय अपने योग्य तीन प्रत्यवतार' प्रतिपूर्ण ग्रहण करने ४१९४.बितियणिसाए पुच्छा,
चाहिए। पूर्व उपस्थित वह होता है जो पूर्व में दीक्षित था। एत्थ जती आसि तेण मि न आतो। ४१९७.सोऊण कोइ धम्म, उवसंतो परिणओ य पव्वज्ज। जतिवेसोऽयं चोरो,
पुच्छति पूयं आयरिय उवज्झाए, पवत्ति संघाडए चेव ।। जो अज्ज तुहं वसति दारे। कोई मुमुक्षु धर्म को सुनकर उपशांत-प्रतिबुद्ध होकर 'अहवण'-यह प्रकारान्तर द्योतक अव्यय है। प्रकारान्तर प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए परिणत हुआ। वह आचार्य को से उपरोक्त सोलह भंग चार भंगों में अंतर्भूत हो जाते हैं। वे पूछता है-आर्य! मुझे अनुज्ञा दें, मैं क्या करूं? आचार्य कहते चार भंग है।
हैं आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्ती तथा संघाटक के मुनियों की १. देव देवी के साथ
वस्त्र आदि से पूजा करो। २. देव छविमति अर्थात् मनुष्यणी के साथ
४१९८.णंतग-घत-गुल-गोरस, ३. छविमान् अर्थात् मनुष्य देवी के साथ
फासुग पडिलाभणं समणसंघे। ४. छविमान् छविमती के साथ।
असति गणि-वायगाणं, (देव शब्द सामान्यतः चतुर्विध देवनिकाय के लिए और
तदसति सव्वस्स गच्छस्स। छविमान् मनुष्य के लिए है। अतः सोलह भंग इन चार भंगों वह दीक्षित होने के इच्छुक व्यक्ति समस्त श्रमणसंघ को में समाविष्ट हो जाते हैं।) एक तरुण प्रव्रज्या लेने के लिए प्रासुक वस्त्र, घृत, गुड़, दूध आदि की उपलब्धि कराता है। गुरु के पास जा रहा था। रास्ते में एक तरुणी के घर में यदि इतना अवकाश न हो तो आचार्य, वाचक आदि के लिए १. प्रत्यवतार-वर्षाकाल में होने वाले संपूर्ण वस्त्रों का एक प्रत्यवतार होता है।
कोई
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