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बृहत्कल्पभाष्यम्
पितरों को भी तर्पित करना होता है। आपको वस्त्र देने में हमें धर्म होगा और आपकी प्रियता बढ़ेगी। इसलिए हम आपको दूसरा वस्त्र देंगे। ४१८८.वेवहु चला य दिट्ठी,
अण्णोण्णणिरिक्खियं खलति वाया। देण्णं मुहवेवण्णं,
ण याणुरागो उ कारीणं॥ जो मैथुन सेवन के लिए वस्त्रदान करते हैं, उनको कैसे जाना जाए? उनके सामान्यतः ये लक्षण होते हैं-उनका शरीर प्रकंपित होता है, दृष्टि चल होती है। वह एक दूसरे को देखती है और उसकी वाणी स्खलित होती है। मुख पर दीनता और वैवर्ण्य परिलक्षित होता है तथा उनका अनुराग हृष्टपुष्ट लक्षण वाला नहीं होता।
होने पर, गृही की निश्रा में रहने वाली साध्वियां स्वयं भी ग्रहण कर सकती हैं। ४१८२.असती पवत्तिणीए, अभिसेगादी विवज्जए णीसा।
गेण्हति थेरिया पुण, दुगमादी दोण्ह वी असती॥ प्रवर्तिनी के अभाव में तथा अभिषेका और गणावच्छेदिनी भी नहीं हैं तो परस्पर निश्रा से स्थविरा आर्यिका ग्रहण करे। वे दो-तीन आदि की संख्या में पर्यटन करती हैं। यदि दो भी न हों तो वक्ष्यमाण विधि से ग्रहण करना चाहिए। ४१८३.दुब्भूइमाईसु उ कारणेसुं,
गिहत्थणीसा वइणी वसंती। जे नालबद्धा तह भाविया वा,
निहोस सन्नी व तहिं वसेज्जा॥ दुर्भूति-अशिव तथा अवमौदर्य आदि कारण में अकेली आर्या गृहस्थ की निश्रा में रहती है। जो नालबद्ध या भावित या जो निर्दोष-हास्य, कन्दर्प आदि से रहित हैं या संज्ञी हैं, उनके घर में रहे। ४१८४.सेज्जायरो व सण्णी, व जाणति वत्थलक्खणं अम्हं।
तेण परिच्छियमेतं, तदणुण्णातं परिग्धेच्छं। यदि उस आर्या को कोई वस्त्र-ग्रहण के लिए निमंत्रित करे तो उसे कहना चाहिए कि शय्यातर अथवा संज्ञी-श्रावक हमारे प्रायोग्य वस्त्रों के लक्षणों को जानते हैं। अतः उनके द्वारा परीक्षित तथा अनुज्ञात होने पर ही मैं वह वस्त्र-ग्रहण करूंगी। ४१८५.पंतो दट्ठण तगं, संकाए अवणयं करेज्जाहि।
अण्णासिं वा दिण्णं, वइतं णीयं व हसिता व॥ जब वह आर्या शय्यातर या श्रावक को लाती है तो उनको देखकर वह प्रान्त गृहस्थ वस्त्र का अपनयन कर देता है और कहता है वह वस्त्र दूसरों को दे दिया अथवा वजिका में ले गया अथवा वह हंसने लग जाता है। ४१८६.तुब्भे वि कहं विमुहे, काहामो तेण देमो से अण्णं।
इति पंते वज्जणता, भद्देसु तधेव गेण्हती॥ वह प्रान्त गृहस्थ तब कहता है-मैं आपको कैसे विमुख कर सकता हूं? इन्कार कर सकता हूं? उस दूसरी साध्वी को हम दूसरा वस्त्र दे देंगे। यह आप ले लें। जो प्रान्त गृहस्थ इस प्रकार कहता है उसकी वर्जना करनी चाहिए। उसका वस्त्र नहीं लेना चाहिए। भद्र गृहस्थ से पूर्वोक्त प्रकार से ग्रहण कर लेना चाहिए। ४१८७.अंबा वि होति सित्ता, पियरो वि य तप्पिया वदे भद्दो।
धम्मो य णे भविस्सति, तुब्भं च पियं अतो अण्णं॥ भद्रक कहता है-सिंचाई करने पर ही आम फलते हैं और
निग्गंथस्स तप्पढमयाए संपव्वयमाणस्स कप्पइ रयहरण-गोच्छगपडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहि आयाए संपव्वइत्तए। से य पुव्वोवट्ठिए सिया, एवं से नो कप्पइ रयहरण-गोच्छयपडिग्गहमायाए तिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्तए, कप्पइ से अहापरिग्गहियाइं वत्थाई गहाय आयाए संपव्वइत्तए॥
(सूत्र १४)
४१८९.णिग्गथिचेलगहण, भणिय समणाणिदाणि वोच्छामि।
निक्खंते वा वुत्तं, निक्खममाणे इमं सुत्तं॥ आर्याओं के वस्त्र-ग्रहण की विधि कह दी गई है। अब श्रमणों के वस्त्र-ग्रहण की विधि कहूंगा। अथवा दीक्षित के वस्त्र-ग्रहण के विषय में कहा जा चुका है। अब दीक्षा ग्रहण करने के लिए तत्पर मुमुक्षु के वस्त्र-ग्रहण विषयक प्रस्तुत सूत्र है। ४१९०.दव्वम्मि य भावम्मि य, पव्वइए एत्थ होति चउभंगो।
दव्वेण लिंगसहितो, ओहावति जो उ णीसंको॥ ४१९१.पवज्जाए अभिमुहो, परलिंगे कारणेण वा बितिओ।
ततितो उ उभयसहितो, उभओविजढे चरिम भंगो।। द्रव्यतः और भावतः प्रव्रजित की चतुर्भंगी होती है१. द्रव्यतः निर्ग्रन्थ, न भावतः। २. भावतः निर्ग्रन्थ, न द्रव्यतः।
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