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४६८ ४५४५.वायाए नमोकारो, हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च।
संपुच्छणऽच्छणं छोभवंदणं वंदणं वा वि॥ किसी को वाणी मात्र से नमस्कार, किसी को हाथ जोड़कर नमस्कार, किसी को हाथ जोड़कर सिर नमाकर नमस्कार, किसी को कुशलक्षेम पूछना, किसी की पर्युपासना करना, किसी को छोभवंदनक या संपूर्ण वंदना करना। ४५४६.जइ नाम सूइओ मि,
त्ति वज्जितो वा वि परिहरति कोयी। इति वि हु सुहसीलजणो,
परिहज्जो अणुमती मा य॥ किसी पार्श्वस्थ को वाणी मात्र से नमस्कार करने पर वह सोचता है-इसने मुझे सूचित-तिरस्कृत किया है। सर्वथा कृतिकर्म न करने पर सोचता है-इन्होंने मुझे वर्जित कर दिया, मेरा पराभव कर डाला, यह सोचकर कोई-कोई सुख- शीलविहारिता का परिहार कर देता है। इसलिए पार्श्वस्थ आदि कृतिकर्म में परिहार्य है। उसको कृतिकर्म देने पर उसकी सावधक्रिया का अनुमोदन होता है। वह न हो इसलिए उसको वंदनक नहीं देना चाहिए। ४५४७.लोए वेदे समए, दिट्ठो दंडो अकज्जकारीणं।
___ दम्मति दारुणा वि हु, दंडेण जहावराहेण॥
लोकाचार में, शास्त्रों में, समय राजनीतिशास्त्र में, अकार्य करने वालों को दंड का विधान देखा गया है। जो दारुण हैं-रौद्र हैं उनको अपराध के अनुरूप दंड दिया जाता है। ४५४८.वायाए कम्मुणा वा, तह चिट्ठति जह ण होति से मन्न। ___पस्सति जतो अवायं, तदभावे दूरतो वज्जे॥
यदि पार्श्वस्थ आदि का अपाय-संयमात्मविराधना देखे, ज्ञात हो तो मुनि उसको वाणी से अथवा कर्म से अर्थात् प्रणाम की क्रिया के द्वारा ऐसी चेष्टा करे जिससे उसके मन में तनिक भी मन्यु-अप्रीति न हो। यदि किसी भी प्रकार का अपाय न देखे तो उनका दूर से ही वर्जन करे। ४५४९.एताई अकुव्वंतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे।
___ण भवति पवयणभत्ती, अभत्तिमंतादिया दोसा॥ पार्श्वस्थों को उनके यथायोग्य वाङ्नमस्कार आदि न करने पर अर्हत् देशित मार्ग पर चलने वाले मुनि की प्रवचनभक्ति नहीं होती, अभक्तिमत्ता आदि दोष होते हैं। ४५५०.परिवार परिस पुरिसं, खित्तं कालं च आगमं नाउं।
कारणजाते जाते, जहारिहं जस्स कायव्वं ।। पार्श्वस्थ के परिवार, परिषद्, पुरुष, क्षेत्र, काल और आगम-ज्ञान को जानकर तथा कारण-कुल, गण संघ के
= बृहत्कल्पभाष्यम् प्रयोजन के प्रकारों को जानकर, उनके यथायोग्य वाचिककायिक वंदनक करना चाहिए। (व्याख्या आगे) ४५५१.परिवारो से सुविहितो, परिसगतो साहती व वेरग्गं।
माणी दारुणभावो, णिसंस पुरिसाधमो पुरिसो॥ ४५५२.लोगपगतो निवे वा,अहवण रायादिदिक्खितो होज्जा। ___ खित्तं विहमादि अभावियं व कालो यऽणाकालो।
उस पार्श्वस्थ का परिवार सुविहित-विहितानुष्ठानयुक्त है। जो परिषद् में वैराग्य का उपदेश देता है। कोई पार्श्वस्थ अहंकारी है, स्वभाव से दारुण है, नृशंस है और पुरुषों में अधमपुरुष है। कोई पार्श्वस्थ बहुलोकसम्मत, नृपबहुमत अथवा उसने राजा आदि को दीक्षित किया है-यहां ऐसा पुरुष गृहीत है।
क्षेत्र अर्थात् कान्तार या अभावित गांव आदि (जो संविग्न साधुओं से अभावित पर पार्श्वस्थ आदि से भावित) में रहना हो तो पार्श्वस्थ आदि का उपचार कर रहना चाहिए। काल अणाकाल अर्थात् दुष्काल हो तो पार्श्वस्थ पुरुष साधुओं का क्षेम करता है। इस प्रकार परिवार आदि कारणों को जानकर पार्श्वस्थ का कृतिकर्म करना चाहिए। ४५५३.दसण-नाण-चरितं, तव-विणयं जत्थ जत्तियं जाणे।
जिणपन्नत्तं भत्तीइ पूयए तं तहिं भावं॥ जिस पार्श्वस्थ में जितना ज्ञान, चारित्र, तप और नियम है, वहां जिनप्रज्ञसभाव को अपने मन में स्थापित कर उतनी ही भक्ति से उसका कृतिकर्म आदि करना चाहिए।
अंतरगिह-पदं
नो कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा निदाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारमाहारेत्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिद्ववेत्तए, सज्झायं वा करेत्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए।
(सूत्र २१) अह पुण एवं जाणेज्जा-वाहिए जराजुण्णे तवस्सी दुब्बले किलते मुच्छेज्ज वा पवडेज्ज वा, एवं से कप्पइ
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