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तीसरा उद्देशक
अंतरगिहंसि चिट्ठित्तए वा जाव हैं। वे विश्रम्भण वेश वाले अर्थात् संविग्नवेषधारी होते हैं। उन काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तए॥
पर शंका नहीं की जा सकती।
४५५९.अहवा ओसहहेउं, संखडि संघाडए व वासासु। (सूत्र २२)
वाघाए वा तत्थ उ, जयणाए कप्पती ठातुं॥ ४५५४.राइणिओ य अहिगतो, स चावि थेरो अणंतरे सुत्ते। अथवा औषध के लिए स्वामी की प्रतीक्षा करने वहां
तस्संतराणि कप्पंति चिट्ठणादीणि संबंधो॥ बैठते हैं, संखड़ी में जाने के लिए वेला की प्रतीक्षा करते हैं, रत्नाधिक का अधिकार चल रहा है। अनन्तरसूत्र में अपने संघाटक साधु की प्रतीक्षा करते हैं, वर्षा के कारण, स्थविर (साठ वर्ष की पर्याय वाला) को रत्नाधिक माना है। मार्ग में व्याघात होने के कारण इन सभी कारणों से मुनि को उसको स्थान आदि के लिए दो गृहों के अंतराल में कल्पता यतनापूर्वक गृहान्तर में बैठना कल्पता है। है। यह पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का संबंध है।
४५६०.पीसंति ओसहाई, ओसहदाता व तत्थ असहीणो। ४५५५.सब्भावमसब्भावे, दुण्ह गिहाणंतरं तु सब्भावे।
संखडि असतीकालो, उढिते वा पडिच्छंति॥ पास पुरोहड अंगण, मज्झम्मि य होतऽसब्भावं॥ औषधियों को पीसने के लिए, औषधदाता कहीं बाहर गृहान्तर दो प्रकार का है-सद्भाव और असद्भाव। दो गया हुआ हो तो उसकी प्रतीक्षा में, संखडी में गोचरी करने गृहों का जो अन्तर-मध्य है वह सद्भाव गृहान्तर है तथा गृह का वह असत्काल है अर्थात् अभी वहां गोचरी की वेला नहीं के पास में, पुरोहड में, आंगन में या गृहमध्य में जो अन्तर है हुई है, उस वेला की प्रतीक्षा में अथवा वहां गृहांगण में लोग वह है असद्भाव गृहान्तर। इन दोनों प्रकार के गृहान्तरों में भोजन करने बैठ गए हों तो उनके उठने की प्रतीक्षा में मुनि गोचरी के लिए गए हुए मुनि को स्थान-बैठना, खड़ा रहना गृहान्तर में बैठ सकता है। आदि नहीं कल्पता।
४५६१.एगयर उभयओ वा, अलंभे आहच्च वा उभयलंभो। ४५५६.कुडंतर भित्तीए, निवेसण गिहे तहेव रच्छाए। वसहिं जा णेएगो, ता इअरो चिट्ठई दूरे॥
ठायंतगाण लहुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ एकतर अर्थात् भक्त या पानक का अथवा दोनों की प्राप्ति दो भींतों के मध्य, भित्ति-शटित-पतित भीत के पास, दुर्लभ हो और कदाचित् दोनों की प्रचुर प्राप्ति हो गई हो तो निवेशन में, गृह के पार्श्व में, गली में-इन स्थानों में ठहरने संघाटक का एक साधु एक पात्र को लेकर वसति में चला वाले को चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि का दोष जाए और एक साधु गृहस्थों से दूर जाकर खड़ा रहे। प्राप्त होता है।
४५६२.वासासु व वासंते, अणुण्णवित्ताण तत्थऽणाबाहे। ४५५७.खरए खरिया सुण्हा, णद्वे वट्टक्खुरे व संकिज्जा। अंतरगिहे गिहे वा, जयणाए दो वि चिटुंति॥
खण्णे अगणिक्काए, दारे वति संकणा तिरिए॥ वर्षा यदि बरस रही हो तो गृहस्वामी की अनुज्ञा लेकर दास, दासी, पुत्रवधू, वृत्तखुर-घोड़ा आदि जिन घरों से वहां अनाबाध स्थान में, अन्तरगृह में या गृह में दोनों मुनि पलायन कर गए हों तो लोग उस साधु पर शंका करते हैं, यतनापूर्वक रहें। जो उस स्थान पर खड़ा या बैठा था। किसी ने उन घरों पर ४५६३.पडिणीय णिवे एंते, तस्स व अंतेउरे गते फिडिए। सेंध लगाई हो, अग्नि लगाई हो, घर में द्वार से प्रवेश कर, वुग्गह णिव्वहणाती, वाघातो एवमादीसु॥ वृति को छेद कर किसी ने सुवर्ण आदि का अपहरण कर कोई प्रत्यनीक आ रहा हो या राजा तथा उसका अन्तःपुर लिया हो, या तिर्यंचों-गो, भैंस आदि का हरण कर लिया हो आ रहा हो, हाथी आ रहा हो और वे सब जब तक वहां से तो साधु पर शंका की जा सकती है, प्रहनन, ग्रहण भी हो। निकल न जाएं तब तक वहीं रहे। कोई विग्रह करते हुए आ सकता है। इसलिए उन स्थानों में बैठना, ठहरना नहीं रहे हों, वर-वधू महान् आडंबर के साथ आ रहे हों, चाहिए।
गीतगायक मंडली आ रही हो-इन कारणों से व्याघात होने ४५५८.उच्छुद्धसरीरे वा, दुब्बल तवसोसिते व जो होज्जा। पर वहीं गृह में ठहर जाए। और इस यतना का पालन करे
थेरे जुण्ण-महल्ले, वीसंभणवेस हतसंके॥ ४५६४.आयाणगुत्ता विकहाविहीणा, उच्छुद्धशरीर अर्थात् रोगाघ्रात शरीर वाला, दुर्बल, तप
अच्छण्ण छण्णे व ठिया व विट्ठा। से शोषित शरीर वाला, जो स्थविर है, जो जीर्ण है, जो उस अच्छंति ते संतमुहा णिविटुं, गण में वृद्धतर है-ये विश्राम करने के लिए गृहान्तर में बैठते
भजति वा सेसपदे जहुत्ते॥
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