________________
तीसरा उद्देशकः
४६७ करते)-गच्छप्रतिबद्ध, यथालंदिक, आपन्नपरिहारी, प्रतिमा- अविनय हुआ है। सभी शिष्यों को मुक्त करवा दिया। प्रतिपन्न तथा साध्वियां।
इसका फलित यही है कि कारण में संयमश्रेणी से बाह्य को ४५३५.अंतो वि होइ भयणा, ओमे आवण्ण संजतीओ य। भी वंदना करनी चाहिए।
बाहिं पि होइ भयणा, अतिवालगवायगे सीसा॥ ४५३९.अहवा लिंग-विहाराओ पच्चुयं पणिवयत्तु सीसेणं। जो श्रेणी के अभ्यन्तर हैं, वे भी वंदना की अपेक्षा
भणति रहे पंजलिओ, उज्जम भंते! तव-गुणेहि। भजनीय हैं। जो अवमरात्निक है वह आलोचना आदि कार्य में अथवा लिंग से या संविग्नविहार से प्रच्युत अपने गुरु को वन्दनीय है, अन्यथा नहीं। आपन्नपारिहारिक का भी कृतिकर्म एकान्त में मस्तक से प्रणिपात कर हाथ जोड़ कर कहेनहीं किया जाता, वह आचार्य को वंदना करता है उत्सर्गतः भदन्त ! आप तपस्या में और मूलोत्तरगुणों में उद्यम करें। साध्वियों को वंदना (केवल हाथ जोड़ना) नहीं की जाती। ४५४०.उप्पन्न कारणम्मि, कितिकम्मं जो न कुज्ज दुविहं पि। अपवादपद में यदि महत्तरा बहुश्रुता हो, किसी अपूर्वश्रुत की पासत्थादीयाणं, उग्घाया तस्स चत्तारि।। धारक हो तो उसको फेटा वंदना से वंदना की जा सकती है। कारण उत्पन्न होने पर जो पार्श्वस्थ आदि का दोनों प्रकार जो श्रेणी से बाह्य हैं, उनके प्रति भी कृतिकर्म की भजना है। का कृतिकर्म-अभ्युत्थान और वंदना नहीं करता उसे चार कारण में उनके प्रति भी कृतिकर्म न करने पर 'अजापालक- उद्घात मास अर्थात् चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। वाचक' के शिष्यों की भांति दोषभाक् होना पड़ता है। ४५४१.दुविहे किइकम्मम्मि, चाउलिया मो णिरुद्धबुद्धीया। ४५३६.आलोयण-सुत्तट्ठा, खामण ओमे य संजतीसुं च।
आतिपडिसेहितम्मिं, उवरि आरोवणा गुविला॥ आवण्णो कज्जकज्जं, करेइ ण य वंदती अगुरूं॥ पहले पार्श्वस्थ आदि के प्रति दोनों प्रकार के कृतिकर्म आलोचना और सूत्रार्थ के निमित्त अवम अर्थात् पर्याय में का प्रतिषेध कर पश्चात् उसकी अनुज्ञा देने पर हम आकुलछोटा होने पर भी, उसको वन्दना करनी होती है। पाक्षिक व्याकुल हो गए। अतः हमारी बुद्धि निरुद्ध हो गई, संशय में आदि क्षमायाचना के समय छोटे को ही रत्नाधिक को पड़ गई। अब यह कहा जा रहा है कि पार्श्वस्थ आदि को वन्दना देनी होती है। साध्वियों को भी आलोचना और दोनों प्रकार की वंदना न करने पर चतुर्लघु की आरोपणा प्राप्त सूत्रार्थ के निमित्त वन्दना करनी होती है। जो होती हैं और वह भी गुपिल-गंभीर। यह समझ में नहीं आपन्नपारिहारिक है वह कार्यकार्य करता है। वह गुरु को । आता। छोड़कर और किसी को वन्दना नहीं करता। दूसरे साधु भी ४५४२.गच्छपरिरक्खणट्ठा, अणागतं आउवायकुसलेण। उसको वंदना नहीं करते।
एवं गणाधिवतिणा, सुहसीलगवेसणा कज्जा॥ ४५३७.पेसविया पच्चंतं, गीतासति खित्तपेहग अगीया। गच्छ के परिपालन के लिए तथा अनागत बाधाओं से
पेहियखित्ता पुच्छंति वायगं कत्थ रण्णे त्ति॥ निपटने के लिए आय और उपाय में कुशल गणाधिपति ४५३८.ओसक्वंते द8, संकच्छेती उ वातगो कुविओ। सुखशील-पार्श्वस्थ आदि की गवेषणा करते हैं।
पल्लिवति कहण संभण, गुरु आगम वंदणं सेहा॥ ४५४३.बाहिं आगमणपहे, उज्जाणे देउले सभाए वा। किसी आचार्य ने गीतार्थ साधुओं के अभाव में अगीतार्थ रच्छ उवस्सय बहिया, अंतो जयणा इमा होइ॥ साधुओं को प्रत्यंतपल्ली में क्षेत्र प्रत्युपेक्षक के रूप में उनकी गवेषणा इन स्थानों में करनी होती है-गांव के भेजा। क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा करने के पश्चात् उन्होंने गांववालों बाहर, भिक्षा के लिए जाने-आने के पथ में, उद्यान में, से पूछा कि वाचक कहां रहता है? लोगों ने कहा-अरण्य देवकुल में, सभा में, गली में, उपाश्रय से बाहर, उपाश्रय के में। वे मुनि अरण्य में गए और देखा कि वाचक बकरियों भीतर-गवेषणा करने की यह यतना है। की रक्षा में प्रवृत्त है। उसे चारित्रभ्रष्ट जानकर वे वहां ४५४४.मुक्कधुरा, संपागडअक्किच्चे चरण-करणपरिहीणे। से धीरे-धीरे चल दिए। उन साधुओं को लौटते हुए लिंगावसेसमित्ते, जं कीरइ तारिसं वोच्छं। देखकर शंकाच्छेदी वह वाचक कुपित हो गया। उसने जो संयमधुरा को छोड़ चुके हैं, जिनके अकृत्य संप्रकट पल्लीपति को कहकर सभी साधुओं को कारावास में हैं, प्रत्यक्ष हैं, जो चरण-करण से परिहीन हैं, जो केवल डलवा दिया। गुरु को ज्ञात हुआ। वे वहां आए और द्रव्यलिंगमात्र से युक्त हैं, उनको किस प्रकार का वंदनक वाचक को वंदना कर बोले-ये अगीतार्थ थे। इसलिए यह किया जाता है, वह मैं कहूंगा। १. यहां यतना का अर्थ है-पुरुष विशेष से संबंधित वन्दनविषयक यतना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org