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तीसरा उद्देशक =
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३८४५.अहवा अच्छुरणट्ठा, तं वुत्तमिदं तु पादरक्खट्ठा। ३८५२.लहुओ लहुगा दुपुडादिएसु गुरुगा य खल्लगादीसु। तस्स वि य वण्णमादी, पडिसेहेती इहं सुत्ते॥
आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽदाए। अथवा पूर्वसूत्र में चर्म का ग्रहण आस्तरण के लिए कहा सकलकृत्स्न लेने पर लघुमास, द्विपुट आदि में चतुर्लघु, गया था, प्रस्तुत सूत्र में उसका ग्रहण पादरक्षार्थ कहा गया खल्लक आदि में चतुर्गुरु तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा है। उस चर्म के वर्ण आदि जो गुण, इस सूत्र में कहे हैं, संयम और आत्मविराधना होती है। उनका प्रतिषेध है।
३८५३.अंगुलिकोसे पणगं, सगले सुक्के य खल्लगे लहओ। ३८४६.सगल प्पमाण वण्णे, बंधणकसिणे य होइ णायव्वे। बंधण वण्ण पमाणे, लहुगा तह पूरपुण्णे य॥
अकसिणमट्ठारसगं, दोसु वि पासेसु खंडाई॥ अंगुलीकोश में पंचक, सकलकृत्स्न तथा शुष्क खल्लक कृत्स्न चार प्रकार का है-सकलकृत्स्न, प्रमाणकृत्स्न, में लघुमास तथा बंधनकृत्स्न, वर्णकृत्स्न, प्रमाणकृत्स्न तथा वर्णकृत्स्न और बंधनकृत्स्न। ये चारों प्रकार के चर्म का पूरपूर्ण खल्लक में चतुर्लघु। ग्रहण नहीं कल्पता। जो अकृत्स्न चर्म है, उसके अठारह ३८५४.अद्धे समत्त खल्लग, वग्गुरि खपुसा य अद्धजंघा य। खंड करने चाहिए। उन खंडों को दोनों पार्श्व में पहनना
गुरुगा दोहि विसिट्ठा, वग्गुरिए अण्णतरएणं॥ चाहिए।
अर्द्धखल्लक में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त जो तप और काल से ३८४७.एगपुड सकलकसिणं, दुपुडादीयं पमाणतो कसिणं। लघु होता है, समस्तखल्लक में कालगुरु, वागुरिका में तप ___ खल्लग खउसा वग्गुरि, कोसग जंघऽड्डजंघा य॥ और काल में गुरु, खपुसा में तप गुरु, अर्द्धजंघा या
एकतल वाला चर्म सकलकृत्स्न कहलाता है। दो, तीन समस्तजंघा में तप और काल से गुरु। आदि पुट वाला चर्म प्रमाणकृत्स्न कहलाता है। खल्लक, ३८५५.जत्तियमित्ता वारा, तु बंधते मुंचते व जति वारा। खपुसा, वागुरा, कोशक, जंघा तथा अर्धजंघा ये सब सट्ठाणं तति वारे, होति विवड्डी य पच्छित्ते॥ प्रमाणकृत्स्न हैं। इनकी व्याख्या आगे की गाथाओं में।
जितनी मात्रा में तथा जितनी बार अंगुलीकोश आदि ३८४८.पायस्स जं पमाणं, तेण पमाणेण जा भवे कमणी। बांधता है या खोलता है उसका उतनी बार स्वस्थान
मज्झम्मि तु अक्खंडा, अण्णत्थ व सकलकसिणं तु॥ प्रायश्चित्त (जिसका जो प्रायश्चित्त हो वह) आता है तथा पैरों के प्रमाण से युक्त जो क्रमणिका मध्य में तथा अन्यत्र आज्ञाभंग आदि होने पर प्रायश्चित्त में वृद्धि होती है। भी अखंड होती है वह सकलकृत्स्न कहलाती है।
३८५६.गव्वो णिम्मदवता, णिरवेक्खो निद्दतो णिरंतरता। ३८४९.दुपुडादि अद्धखल्ला, समत्तखल्ला य वग्गुरी खपुसा। भूताणं उवघाओ, कसिणे चम्मम्मि छहोसा॥ ___ अद्धजंघ समत्ता य, पमाणकसिणं मुणेयव्वं॥ उपानत से गर्व और निर्मार्दवता होती है, जीवों से
दो पुटवाले उपानत अथवा अर्द्धखल्ल अथवा समस्त- निरपेक्ष और निर्दयता होती है, निरंतर भूमी का स्पर्श करने खल्ल अथवा वागुरा, खपुसा, अर्द्धजंघा अथवा समस्त- के कारण प्राणियों का घात होता है तथा कृत्स्न चर्म में छह जंघा इन सबको प्रमाणकृत्स्न जानना चाहिए।
दोष होते हैं। ३८५०.उवरिं तु अंगुलीओ, जा छाए सा तु वग्गुरी होति। ३८५७.आसगता हत्थिगतो, खपुसा य खलुगमेत्तं, अद्धं सव्वं च दो इयरे॥
गव्विज्जइ भूमितो य कमणिल्लो। जो पैर और अंगुलियों को तथा ऊपरी भाग को पादो उ समाउक्को, आच्छादित करता है, वह वागुरा है। जो धुंटक मात्र तक
कमणीउ खरा अवि य भारो॥ आच्छादित करता है वह है जंघा और जो अर्धजंघा को जैसे अश्वारूढ़ और हाथी पर आरूढ़ व्यक्ति गर्वित हो आच्छादित करता है, वह है अर्धजंघा।
जाता है, उसी प्रकार भूमीगत व्यक्ति जो पैरों में क्रमणिका ३८५१.वण्णड्ड वण्णकसिणं, तं पंचविहं तु होइ नायव्वं । पहने हुए हो वह भी गर्वित होता है। पैर स्वभावतः मृदु होते
बहुबंधणकसिणं पुण, परेण जं तिण्ह बंधाणं॥ हैं, उनसे जीवोपघात नहीं होता। क्रमणिका पहन लेने पर पैरों जो चर्म वर्ण से आढ्य-उज्ज्वल होता है वह वर्णकृत्स्न का स्पर्श कर्कश हो जाता है, उनसे जीवोपघात होता है। है। वह कृष्ण वर्ण आदि के भेद से पांच प्रकार का है। जो ३८५८.कंटाई देहतो, जीवे वि हु सो तहेव देहिज्जा। तीन बंधनों से अधिक बहुत बंधनों से बद्ध है वह बंधनकृत्स्न अत्थि महं ति य कमणी, णावेक्खइ कंटएण जिए॥ होता है।
बिना जूते पहने चलने वाला व्यक्ति जैसे कांटों आदि को
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