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________________ % 3D ५४४ बृहत्कल्पभाष्यम् ५२६३.भावस्स उ अतियारो, मा होज्ज इती तु पत्थुते सुत्ते। ५२६९.तम्हा उ जहिं गहितं, तहिं भुंजणे वज्जिया भवे दोसा। कालस्स य खेत्तस्स य, दुवे उ सुत्ता अणतियारे॥ एवं सोधि ण विज्जति, गहणे वि य पावती बितियं । भाव अर्थात् ब्रह्मव्रत के परिणाम का अतिचार-अतिक्रम इन संचय आदि की प्रायश्चित्त प्ररूपणा करनी चाहिए। न हो-यह अनन्तर दो सूत्रों में प्रतिपादित है। काल और क्षेत्र भक्तपान को स्थापित करने के दोष, भक्तपान ग्रहण करने के का अतिक्रम न हो, इसके लिए प्रस्तुत दो सूत्र हैं। पश्चात् कार्य करते समय होने वाले दोष तथा परिष्ठापन के ५२६४.बितियाउ पढम पुब्विं, उवातिणे चउगुरुं च आणादी। दोष होते हैं उनका कथन करना चाहिए। जब इतने दोष दोसा संचय संसत्त दीह साणे य गोणे य॥ होते हैं तो जिस पौरुषी में भक्तपान ग्रहण किया है, उसी ५२६५.अगणि गिलाणुच्चारे, अब्भुट्ठाणे य पाहुण णिरोधे। प्रहर में उसका उपयोग कर लेना चाहिए। ऐसा करने पर सज्झाय विणय काइय, पयलंत पलोट्टणे पाणा॥ पूर्वोक्त दोष नहीं होते। शिष्य ने कहा-इस प्रकार शोधि नहीं द्वितीय पौरुषी से प्रथम पौरुषी पूर्व है, प्रथमा से द्वितीया होती, क्योंकि भिक्षा ग्रहण करते-करते दूसरा प्रहर आ पाश्चात्य है। तृतीया से द्वितीया पूर्वा है, द्वितीया से तृतीया जाता है। पाश्चात्य है। चतुर्थी से तृतीया पूर्वा है, तृतीया से चतुर्थी ५२७०.एवं ता जिणकप्पे, गच्छम्मि चउत्थियाए जे दोसा। पाश्चात्य है। प्रथम पौरुषी से द्वितीय पौरुषी में अशन आदि इतरासि किण्ण होती, दव्वे सेसम्मि जतणाए। का अतिक्रमण करने पर चतुर्गुरुक और आज्ञाभंग आदि दोष आचार्य बोले-ऐसा तो जिनकल्पी मुनियों के लिए कहा है होते हैं तथा संचय, प्राणियों से संसक्त, दीर्घजातीय-सांप कि जिस प्रहर में भक्तपान लिया उसी प्रहर में उसे खा लेना आदि तथा कुत्ता तथा गाय आदि उसको खा सकते हैं। अग्नि चाहिए। गच्छवासी मुनियों के लिए तो यह विधान है कि यदि प्रज्वलित हो जाने पर उस भारी पात्र को निकाला नहीं जा वे पहले प्रहर में ग्रहण कर चौथे प्रहर में उपभोग करते हैं तो सकता, वह जल जाता है। ग्लान का वैयावृत्य नहीं होता। उन पूर्वोक्त सभी दोषों को प्राप्त होते हैं। पुनः प्रश्न हुआ कि उच्चार आदि की बाधा होने से उसका विसर्जन नहीं होता क्या दूसरे-तीसरे प्रहर में खाने पर वे दोष नहीं होते ? उससे अनेक रोग होते हैं। गुरु या प्राघूर्णक आने पर आचार्य ने कहा-बचे हुए भक्तपान को यतनापूर्वक धारण अभ्युत्थान नहीं होता। भृतभाजन के धारण करने से करने से दोष नहीं होते। गात्रनिरोध होता है। स्वाध्याय, विनय आदि की प्रस्थापना ५२७१.पडिलाभणा बहुविहा, नहीं होती। कायिकी का व्युत्सर्जन नहीं होता। नींद आने पर पढमाए कदाचि णासिमविणासी। पात्र लुढ़क जाता है। उससे प्लावित पानक आदि से प्राणियों तत्थ विणासिं भुंजेऽजिण्णे का व्यापादन होता है। परिणे य इतरं पि॥ ५२६६.निस्संचया उ समणा, संचयि तु गिहीव होति धारेता। शिष्य ने पूछा-आहार आदि शेष क्यों रह जाता है? संसत्ते अणुवभोगो, दुक्खं च विगिंचिउं होति॥ आचार्य बोले कभी-कभी भक्ष्य-भोज्य द्रव्यों की प्रतिश्रमण निःसंचय होते हैं। इसलिए वे भी यदि प्राप्त कर लाभना बहुत हो जाती है। क्वचिद् प्रथम प्रहर में विनाशी गृहस्थ की भांति धारण करते हैं तो वे भी संचय करने वाले और अविनाशी भोज्य द्रव्य आ जाते हैं। विनाशी द्रव्य दूध हैं। चिरकाल तक संचित रहने से वह भोजन प्राणियों से आदि साधु खा जाते हैं। अजीर्ण आदि होने के कारण तथा संसक्त हो जाता है। उसका उपभोग कल्प्य नहीं होता। प्रत्याख्यात द्रव्य के कारण अथवा अन्य कारण से भी द्रव्य उसकी विगिंचना-परिष्ठापना कष्टकर होती है। शेष रह जाता है। ५२६७.एमेव सेसएसु वि, एगतर विराहणा उभयतो वि। ५२७२.जइ पोरिसित्तया तं, गति तो सेसगाण ण विसज्जे। असमाधि विणयहाणी, तप्पच्चयनिज्जराए य॥ अगमेंताऽजिण्णे वा, धरति तं मत्तगादीसु॥ इसी प्रकार शेष द्वारों की भी यतना जाननी चाहिए। पौरुषियों का प्रत्याख्यान करने वाले मुनि पौरुषी व्यतीत एगतर विराधना भाजन की होती है। उभय अर्थात् आत्मा हो जाने पर सारे द्रव्य का आहार कर लेते हैं तो उस द्रव्य और संयम की विराधना होती है। असमाधि, विनय की हानि को अन्य मुनियों को न दे। यदि वे सारा समाप्त न कर सकें तथा उससे होने वाली निर्जरा की भी हानि होती है। तो अन्य प्रत्याख्यानियों को भी दिया जा सकता है। अजीर्ण ५२६८.पच्छित्तपरूवणता, एतेसि ठवेंतए य जे दोसा। आदि हो जाने पर उस बचे हुए अशन आदि को मात्रक में गहितकरणे य दोसा, दोसा य परिट्ठवेंतस्स॥ स्थापित कर रखा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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