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बृहत्कल्पभाष्यम् जो मुनि जहां संखड़ी हो, वहीं जाना चाहते हों अथवा ५८४१.तिसु छल्लहुगा छग्गुरु, उस गांव के ऊपर से निकलना चाहते हों, अथवा पदभेद
तिसु छग्गुरुगा य अंतिमे छेदो। करते हैं, दिनों की प्रतीक्षा करते हैं पर अवेला में उद्वर्तन
छेदादी पारंची, करते हैं तब वे अयतना से प्राप्त कहे जाते हैं। क्योंकि वे
__ बारसगादीसु त चउक्कं ।। सूत्रार्थपौरुषी का भंग भी कर लेते हैं।
तीन स्थानों-प्रादोषिक स्वाध्याय तथा वैरात्रिक स्वाध्याय ५८३७.संखडिमभिधारेता, दुगाउया पत्तभूमिगा होति। न करने, उद्गार विवेचन करने–इनमें लघुमास, उद्गार
जोयणमाई अप्पत्तभूमिया बारस उ जाव॥ निगलने में गुरुमास, अन्यत्र जाने के इच्छुक प्राप्तभूमिक मुनि यदि संखड़ी का अभिधारण कर जो मुनि दो गव्यूती से । संखड़ी के लिए अर्द्धयोजन से आए हैं, उनके प्रादोषिक आते हैं तब वे प्रासभूमिक होते हैं और जो एक योजन से, दो स्वाध्याय आदि तीन स्थानों में मासगुरु, अन्त्यस्थान में योजन से यावत् बारह योजन से आते हैं वे सारे अप्राप्त- चतुर्लघु। जो अप्राप्तभूमिक हैं तथा जो संखड़ी के लिए एक भूमिक होते हैं।
योजन से आए हैं, उनके प्रादोषिक आदि तीन पदों में ५८३८.खेत्तंतो खेत्तबहिया, अप्पत्ता बाहि जोयण दुगे य।। चतुर्लघु, अन्त्यपद में चतुर्गुरु। जो दो योजन से आए हैं,
चत्तारि अट्ट बारसऽजग्ग सुव विगिंचणाऽऽदियणा॥ उनके तीनों पदों में चतुर्गुरु और अन्त्यपद में षड्लघु। जो जो संखड़ी की बात सुनकर क्षेत्र के अन्तर्गत डेढ़ कोश चार योजन से आए हैं उनके तीन पदों में षड्लघु और से आते हैं वे प्राप्तभूमिक हैं और जो क्षेत्र से बाहर एक, दो, अन्त्यपद में षड्गुरु। जो आठ योजन से आए हैं, उनके तीन चार, आठ और बारह योजन से आते हैं वे अप्राप्तभूमिक हैं। पदों में षड्गुरु और अन्त्यपद में छेद। जो बारह्योजन से ये सभी संखड़ी में अतिमात्रा में खाकर सो जाते हैं और आए हैं, उनके प्रादोषिक स्वाध्याय न करने पर छेद, प्रदोष वेला में भी नहीं जागते। वे वैरात्रिक वेला में भी सोते वैरात्रिक न करने पर मूल, उद्गार की विगिंचणा करने पर ही रहते हैं। उद्गार की विगिंचणा नहीं करते, उसी को अनवस्थाप्य और उसे निगलने पर पारांचिक। जो निगल जाते हैं। इन चार पदों में यह आरोपणा है
द्वादशयोजन आदि स्थान हैं, प्रत्येक के साथ प्रादोषिक आदि ५८३९.वत्थव्व जयणपत्ता, सुद्धा पणगं च भिण्णमासो य। चतुष्क मानना चाहिए। चारों स्थानों में तपोर्ह प्रायश्चित्त, तप
तव-कालेहिं विसिट्ठा, अजतणमादी विउ विसिट्ठा। और काल से विशेषित जानना चाहिए। संखड़ीप्रलोकी वास्तव्य मुनि तथा यतनापूर्वक आए हुए ५८४२.खेत्तंतो खेत्तबहिया, अप्पत्ता बाहि जोयण दुगे य। आगन्तुक मुनि वहां भोजन कर आचार्य को पूछकर सोते हैं
चत्तारि अट्ठ बारसजग्ग सुव विगिंचणाऽऽदियणा। तो वे शुद्ध हैं। वे यदि वैरात्रिक स्वाध्याय नहीं करते तब ५८४३.पणगं च भिण्णमासो, मासो लहुओ उ पढमतो सुद्धो। पांच रातदिन का तपोलघु और कालगुरु का प्रायश्चित्त
मासो तव-कालगुरू, दोहि वि लहुओ अ गुरुओ य॥ आता है। यदि वे उद्गार की विगिंचना कर देते हैं तो ५८४४.लहुओ गुरुओ मासो, भिन्नमास तपोगुरु और काललघु। उद्गार को निगल जाते
चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। हैं तो मासलघु तप और काल से गुरु। जो संखड़ी में
छम्मासा लहु-गुरुगा, अयतना से प्राप्त हैं तथा जो संखड़ीप्रलोकी वास्तव्य मुनि
छेदो मूलं तह दुगं च॥ हैं-ये दोनों यदि संखड़ी में खा-पीकर सो जाते हैं और ५८४५.जह भणिय चउत्थस्स य, प्रादोषिक स्वाध्याय नहीं करते उनको मासलघु तप और
तह इयरस्स पढमे मुणेयव्वं । काल से लघु। वे वैरात्रिक स्वाध्याय नहीं करते मासलघु
पत्ताण होइ भतणा, और कालगुरुक। उद्गार की विगिंचणा करने पर मासलघु
जे जतणा जं तु क्त्थव्वे॥ तपोगुरुक। उद्गार को निगलने पर मासगुरु और तप और पूर्वोक्त चार गाथाओं (गा. ५८३८-५८४१) में प्रज्ञप्त अर्थ काल से भी गुरु।
के सुखावबोध के लिए इन चार गाथाओं में प्रस्तार-रचना के ५८४०.तिसु लहुओ गुरु एगो,
प्रारूप का निर्देश दिया गया है। तीसु य गुरुओ उ चउलहू अंते। सर्वप्रथम ऊर्ध्व-अधः क्रम से आठ घरों की स्थापना करें तिसु चउलहुगा चउगुरु,
तथा उनमें क्रमशः वास्तव्य यतनाकारी वास्तव्य तिसु चउगुरु छल्लहू अंते॥ अयतनाकारी आदि आठ पुरुषों की स्थापना करें। तिर्यक्
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