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________________ पांचवां उद्देशक = एक दूसरा सार्थ आया है। वह अनुकंपावश साधुओं को अनवस्थाप्य पर्यन्त और आचार्य के षड्लघु से स्वपद भक्तपान के लिए निमंत्रण देता है। वे सूर्य उदित हुआ या नहीं अर्थात् पारांचिक पर्यन्त जानना चाहिए। रात्री में यदि एक इस शंका से भक्तपान ग्रहण करते हैं। यहां भी तीन प्रकार से __सिक्थ भी खाता है तो चतुर्गुरु और आज्ञाभंग आदि दोष असंस्तत होने पर वे ही आठ लताएं होती हैं। असंस्तृत होते हैं। दूसरों में मिथ्यात्व पैदा होता है। उस वान्ताशी की अवस्था में निर्विचिकित्सा में उभयगुरुक तपःप्रायश्चित्त प्राप्त अथवा दूसरे मुनियों की विराधना होती है। यहां होता है। असंस्तृत विचिकित्सा में उभयलघु, शेष सारा । अमात्यबटुक का दृष्टांत है। प्राग्वत्। ५८३२.एवं ताव दिवसतो, रातो सित्थे वि चउगुरू होति। उद्ददरगहणा पुण, अववाते कप्पए ओमे। उग्गाल-पदं कवलपंचक आदि की बात दिवस संबंधी है। रात्री में एक सिक्थ भी खाने से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। ऊर्ध्वदर इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा का ग्रहण इस बात का सूचक है कि अपवादपद में दुर्भिक्ष में राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उद्गार को निगलना भी कल्पता है। उग्गाले आगच्छेज्जा, तं विगिंचमाणे वा ५८३३.रातो व दिवसतो वा, उग्गाले कत्थ संभवो होज्जा। विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ। तं गिरिजण्णसंखडीए, अट्ठाहिय तोसलीए वा। रात में या दिन में उद्गार कहां संभव हो सकता उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राईभोयण है? सूरी कहते हैं-गिरियज्ञ संखड़ियों में अथवा तोसली पडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं देश में अष्टाह्निक उत्सवों में प्रमाणातिरिक्त खाने से उद्गार परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥ होता है। (सूत्र १०) ५८३४.अद्धाणे वत्थव्वा, पत्तमपत्ता य जोअण दुगे य। पत्ता य संखडिं जे, जतणमजतणाए ते दुविहा॥ ५८२९.निसिभोयणं तु पगतं, असंथरंतो बहुं च भोत्तूणं। संखड़ीभोजी साधु दो प्रकार के होते हैं-अध्वप्रतिपन्न उग्गालमुग्गिलिज्जा, कालपमाणा व दव्वं तु॥ और वास्तव्य। वास्तव्य दो प्रकार के हैं-संखड़ीप्रेक्षी और पूर्वसूत्र में निशिभोजन का अधिकार था। यहां भी वही संखड़ीअप्रेक्षी। अध्वप्रतिपन्न दो प्रकार के हैं वहीं जाने वाले कहा जा रहा है। अथवा भूख को सहन न कर सकने के अथवा अन्यत्र जाने वाले। अन्यत्र जाने वाले दो प्रकार के कारण अत्यधिक खाकर रात्री में आने वाले उद्गार को हैं-प्रासभूमिक और अप्राप्तभूमिक। प्राप्तभूमिक वे मुनि हैं जो निगल जाता है। उसके प्रतिषेध के लिए प्रस्तुत सूत्र है। आधे योजन से संखड़ी में पहुंच जाते हैं। अप्राप्तभूमिक वे हैं पूर्वसूत्र में कालप्रमाण बताया गया था। प्रस्तुत में द्रव्यप्रमाण जो एक योजन से, दो योजन से या बारह योजन से भी बताया है। संखड़ी में पहुंच जाते हैं। संखड़ी ग्राम को प्राप्त मुनि दो ५८३०.उद्दद्दरे वमित्ता, आतिअणे पणगवुड्डि जा तीसा। प्रकार के हैं-यतनाप्राप्त और अयतनाप्राप्त। जो सूत्रार्थपौरुषी चत्तारि छ च्च लहु-गुरु, छेदो मूलं च भिक्खुस्स॥ करते हुए आते हैं वे यतनाप्राप्त हैं और जो सूत्रार्थ का परिहार ऊर्ध्वदर-सुभिक्ष में पर्याप्त भोजन कर, उसका वमन कर करते हुए अत्यंत उत्सुकता से आते हैं वे अयतनापास हैं। पुनः एक कवल से पांच कवल तक खाता है उसे चतुर्लघु, ५८३५.वत्थव्व जतणपत्ता, एगगमा दो वि होति णेयव्वा। यह पंचकवृद्धि तीस पर्यन्त करनी चाहिए। जैसे-छह कवल अजयण वत्थव्वा वि य, संखडिपेही उ एक्कगमा।। से दस कवल तक चतुर्गुरु, ग्यारह से पन्द्रह तक षड्लघु, जो वास्तव्य संखड़ीप्रलोकी नहीं हैं और यतनाप्राप्त मुनि सोलह से बीस तक षड्गुरु, इक्कीस से पचीस तक छेद, हैं-ये दोनों प्रायश्चित्त चारणिका में एकगम वाले होते हैं। जो छबीस से तीस तक मूल। यह भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त है। वास्तव्य संखड़ीप्रलोकी हैं और जो मुनि अयतनाप्राप्स हैं ये ५८३१.गणि आयरिए सपदं, एगग्गहणे वि गुरुग आणादी। दोनों प्रायश्चित्त चारणिका में एकगम वाले होते हैं। मिच्छत्तऽमच्चबडुए, विराहणा तस्स वऽण्णस्स॥ ५८३६.तत्थेव गंतुकामा, वोलेउमणा व तं उवरिएणं। गणी-उपाध्याय के चतुर्गुरु से स्वपद अर्थात् पदभेद अजयणाए, पडिच्छ उव्वत्त सुतभंगे। १. देखें-कथा परिशिष्ट, नं. १३४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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