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________________ बृहत्कल्पभाष्यम् कवल पंचमास, पचीस कवल छह मास-ये सारे प्रायश्चित्त ५८२४.दूइज्जंता दुविधा, णिक्कारणिगा तहेव कारणिगा। लघुक हैं क्योंकि ये एकोत्तरवृद्धि से बढ़े हुए हैं। असिवादी कारणिता, चक्के थूभाइता इतरे। ५८१९.दुविहा य होइ वुड्डी, सट्ठाणे चेव होइ परठाणे। ५८२५.उवदेस अणुवदेसा, दुविहा आहिंडगा मुणेयव्वा। सट्ठाणम्मि उ गुरुगा, परठाणे लहुग गुरुगा वा॥ विहरंता वि य दुविधा, गच्छगता निग्गता चेव।। वृद्धि दो प्रकार की होती है-स्वस्थानवृद्धि और परस्थान- दूइज्जंत (द्रवन्) दो प्रकार के होते हैं-निष्कारणिक और वृद्धि। स्वस्थान में गुरुक होते हैं और परस्थान में लघुक और कारणिक। जो अशिव आदि कारणों से तथा अन्यान्य गुरुक-दोनों होते हैं। प्रयोजन से गमन करते हैं वे कारणिक हैं। जो उत्तरापथ में ५८२०.भिक्खुस्स ततियगहणे, सट्ठाणं होइ दव्वनिप्फन्न। धर्मचक्र, मथुरा में देवनिर्मित स्तूप, कोशला में जीवन्तस्वामी भावम्मि उ पडिलोम, गणि-आयरिए वि एमेव॥ प्रतिमा आदि को देखने के लिए जाते हैं वे निष्कारणिक हैं। भिक्षु के दूसरी बार ग्रहण करने पर द्विमासिक से प्रारंभ आहिंडक के दो प्रकार हैं-उपदेश आहिंडक और अनुपदेश कर छेद पर्यन्त, तीसरी बार ग्रहण करने पर त्रैमासिक से आहिंडक। गुरु के उपदेश से विभिन्न देशों के आचार, भाषा स्वस्थान-मूल पर्यन्त यह द्रव्यनिष्पन्न प्रायश्चित्त है। भाव- आदि को जानने के लिए घूमने वाले उपदेश आहिंडक निष्पन्न यही प्रतिलोमरूप में होता है। गणी और आचार्य के कहलाते हैं। कौतुकवश घूमते हैं वे अनुपदेश आहिंडक भी द्रव्य और भावसूत्र दोनों यही प्रायश्चित्त है। कहलाते हैं। विहार करने वाले दो प्रकार के हैं गच्छगत और ५८२१.एमेव य गेलन्ने, पट्ठवणा णवरि तत्थ भिण्णेणं। गच्छनिर्गत। गच्छगत ऋतुबद्धकाल में मास-मास में विहार चउहि गहणेहिं सपदं, कास अगीतत्थ सुत्तं तु॥ करते हैं। गच्छनिर्गत दो प्रकार के हैं-विधिनिर्गत और ग्लान असंस्तृत के भी प्रायश्चित्त विधान है। किन्तु इसमें अविधिनिर्गत। विधि निर्गत चार प्रकार के हैं जिनकल्पिक, भिन्नमास से प्रस्थापना करनी चाहिए। प्रथम बार पांच प्रतिमाप्रतिपन्न, यथालंदिक और शुद्ध पारिहारिक। अविधिलघुमास, द्वितीय बार छह लघुमास, तृतीय बार छेद, चतुर्थ निर्गत जो सारणा आदि से त्यक्त हैं, जो एकाकीभूत हैं। बार मूल। चार बार में भिक्षु को स्वपद प्रायश्चित्त मूल प्राप्त ५८२६. निक्कारणिगाऽणुवदेसिगा य लग्गंतऽणुदिय अत्थमिते। होता है। उपाध्याय के लघुमास से चार बार में अनवस्थाप्य गच्छा विणिग्गता वि हु, लग्गे जति ते करेज्जेवं ।। और आचार्य के दो लघुमास से चार बार में पारांचिक। निष्कारणिक, अनुपदेश आहिंडक तथा गच्छ से अविधिशिष्य ने पूछा-यह किसके लिए प्रायश्चित्त है? आचार्य ने निर्गत-ये अनुदित या अस्तमित सूर्य के होने पर ग्रहण करते कहा-यह सारा अगीतार्थ का सूत्र है। प्रस्तुत सूत्रोक्त हैं या खाते हैं तो पूर्वोक्त प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। यदि प्रायश्चित्त है। गच्छनिर्गत जिनकल्पिक आदि ऐसा करते हैं तो वे भी ५८२२.अद्धाणासंथडिए, पवेस मज्झे तहेव उत्तिण्णे। प्रायश्चित्त से संलग्न होते हैं। परन्तु वे नियमतः वैसा नहीं मज्झम्मि दसगवुड्डी, पवेस उत्तिण्णि पणएणं॥ करते क्योंकि वे त्रिकालविषयक ज्ञान से संपन्न होते हैं। अध्वा असंस्तृत के तीन प्रकार हैं-मार्ग के प्रवेश, मध्य ५८२७.अहवा तेसिं ततियं, अप्पत्तो अणुदितो भवे सूरो। और उत्तार में। भिक्षु के संलेक्षना आदि छह स्थानों में दस पत्तो तु पच्छिमं पोरिसिं च अत्थंगतो होति॥ रात-दिन से प्रायश्चित्त वृद्धि करनी चाहिए। यह मध्य अध्वा अथवा उन जिनकल्पिक आदि के तीसरा प्रहर न आने के विषय में है। प्रवेश और उत्तीर्ण अध्वा में पांच रात-दिन से तक सूर्य अनुदित माना जाता है। पश्चिम पौरुषी में प्राप्त सूर्य प्रायश्चित्त वृद्धि होती है। अस्तंगत माना जाता है। इसलिए उनके भक्त और पंथा ५८२३.उग्गयमणुग्गते वा, गीतत्थो कारणे णतिक्कमति। तीसरे प्रहर में ही होता है। दूताऽऽहिंड विहारी, ते वि य होती सपडिवक्खा॥ ५८२८.वितिगिच्छ अब्भसंथड, गीतार्थ अध्वप्रवेश आदि में कारण उत्पन्न होने पर सूर्य सत्थो उ पहावितो भवे तुरियं। उद्गत या अनुद्गत होने पर भी यतनापूर्वक भोजन करता अणुकंपयाए कोई, हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। वे अध्वप्रतिपन्न तीन भत्तेण निमंतणं कुज्जा॥ प्रकार के हैं-द्रवन, आहिंडक, विहारी। ग्रामानुग्राम जाने वाला अभ्रसंस्तृत अर्थात् हिमपात आदि के कारण सूर्य न द्रवन्, सतत भ्रमणशील-आहिंडक, एक मास से विहार करने दिखाई देने के कारण विचिकित्सा होती है। जिस सार्थ के वाला विहारी। ये प्रत्येक सप्रतिपक्ष होते हैं। साथ साधु आए हैं, वह सार्थ वहां से शीघ्र चला जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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