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पांचवां उद्देशक
दिशा में चार घर बनाए उनमें क्रमशः प्रदोष में न जागना, वैरात्रिक स्वाध्याय काल में सो जाना, आई हुई उद्गार का विवेचन (परित्याग) तथा उद्गार का पुनः निगलना-इन चार पदों की स्थापना करें। इस प्रकार ये बत्तीस घर बन जाते हैं।
प्रथम पंक्ति में द्वितीय घर से क्रमः पनक, भिन्नमास और लघुमास-इन प्रायश्चित्तस्थानों की स्थापना करें। प्रथम पंक्ति का प्रथम घर शुद्ध है। चतुर्थ घर में स्थापित लघुमास तप
और काल दोनों से गुरु है। इसी प्रकार प्रथम पद में कथित प्रायश्चित्त दोनों से लघु तथा मध्यम पद का प्रायश्चित्त क्रमशः तप और काल से गुरु होता है। द्रष्टव्य चार्ट
द्वितीय पंक्ति में तीन घरों में लघुमास तथा चौथे में गुरुमास, तृतीय पंक्ति में प्रथम तीन घरों में गुरुमास तथा चौथे में चतुर्लघु, इस क्रम से सातवीं पंक्ति के चौथे घर में छेद प्रायश्चित्त की स्थापना करें। आठवीं पंक्ति के चार घरों में क्रमशः छेद, मूल, तथा द्विक-अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त की स्थापना करें।
इस प्रकार पूर्व पंक्ति के चतुर्थ स्थान में जो प्रायश्चित्त कहा गया है वही अग्रिम पंक्ति के प्रथम तीन घरों में जानना चाहिए। इसी प्रकार वास्तव्य अयतनाकारी भंग के आधार पर प्राप्तभूमिक (तृतीय पंक्ति) की भजना-भंग रचना करनी चाहिए। ५८४६.एएण सुत्त न गतं, सुत्तनिवाते इमे तु आदेसा। . लोही अ ओम पुण्णा, केइ पमाणं इमं बेति॥
यह सारा प्रसंगतः कहा गया है। इससे सूत्र समाप्त नहीं हुआ है। सूत्रनिपात में ये आदेश हैं। आचार्य कहते हैं- गुणकारी होने से थोड़ा खाना चाहिए। कुछेक आचार्य इसका चार्ट
६०९ प्रमाण यह कहते हैं। यहां 'लोही कवल्ली ' का दृष्टांत है। ५८४७.अतिभुत्ते उम्गालो, तेणोमं भुंज जण्ण उग्गिलसि॥
छड्डिज्जति अतिपुण्णा, तत्ता लोही ण पुण ओमा॥ अति भोजन करने पर उद्गार आता है। इसलिए थोड़ा खाए, जिससे उद्गार नहीं आएगा। कवल्ली (कड़ाही) को यदि अतिमात्रा में भर देंगे तो अग्नि पर तप्त होकर वह सारा निकल जाएगा। जो कवल्ली कुछ खाली रहेगी तो वैसा नहीं होगा। (यदि कवल्ली (हांडी) में कुछ न्यून डालते हैं तो अग्नि पर गर्म करने पर भी हांडी से बाहर नहीं निकलता। यदि वह कंठ तक भरी है तो उसमें डाला हुआ उबलने पर बाहर निकलेगा ही। इसी प्रकार कम खाने से शरीरांत वायु सुखपूर्वक विचरण कर सकेगी। वह यदि सुखपूर्वक विचरण करती है तो उद्गार नहीं आयेगा। यदि अतिमात्रा में खाते हैं तो अन्तर्वायु के वेग से प्रेरित होकर उद्गार बाहर निकलता है।) ५८४८.तत्तऽत्थमिते गंधे, गलग पडिगते तहा अणाभोए।
एते ण होंति दोण्णि वि, मुहणिग्गत णातुमोगिलणा। तप्त तवे पर पड़ा जलबिन्दु तत्काल नष्ट को जाता है, इसी प्रकार उतना ही खाना चाहिए जो तत्काल जीर्ण हो जाए। इसी प्रकार दूसरा कहता है-रवि के अस्तमित होने पर जीर्ण हो जाए गंध रहित या सहित उद्गार आता है, वैसा खाना चाहिए। एक कहता है-गले तक उद्गार आकर बिना ज्ञात हुए ही चला जाता है, ऐसा भोजन करना चाहिए। गुरु ने कहा ये दोनों प्रकार नहीं होते। अर्थात् जो दिन में प्रथम
और द्वितीय उद्गार का प्रतिषेध करते हैं और जो रात्री में तीसरे-चौथे उद्गार को मान्य करते हैं ये दोनों घटित नहीं
प्रदोषे अजागरण १. वास्तव्य यतनाकारी
शुद्ध २. वास्तव्य अयतनाकारी
लघुमास
(त.का.ल.) ३. प्राप्तभूमिक
गुरुमास ४. अप्राप्तभूमिक एक योजन से आगत | चतुर्लघु ५. दो योजन से आगत
चतुर्गुरु ६. चार योजन से आगत
षड्लघु ७. आठ योजन से आगत षड्गुरु ८. बारह योजन से आगत छेद
वैरा. स्वपन पंचक लघुमास (त.गु. का.ल.) गुरुमास चतुर्लघु चतुर्गुरु षड्लघु षड्गुरु
भिन्नमास लघुमास (त.ल. का.गु.) गुरुमास चतुर्लघु चतुर्गुरु षड्लघु षड्गुरु अनवस्थाप्य
उद्गार प्रत्यवगिलन मासलघु (त.का.गु.) गुरुमास (त.का.गु.) चतुर्लघु चतुर्गुरु
षड्गुरु
षड्गुरु छेद पारांचिक
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