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________________ बृहत्कल्पभाष्यम् होते। मुख निर्गत उद्गार को जानकर जो उसे निगल जाता ससिक्थ द्रव मुंह से निकला है और वह उसे चबाता है है, उसके लिए सूत्र का निपात है। तो चतुर्लघु, मुखनिर्गतकवल एक हस्तपुट में भरा गया उसे ५८४९.भणति जति ऊणमेवं, तत्तकवल्ले य बिंदुणासणता। निगलता है तो षड्गुरु, अंजली भरने के पश्चात् नीचे भूमी बितिओ न संथरेवं, तं भुंजसुं सूरे जं जिज्जे॥ पर गिरा हुआ निगलता है तो छेद। यह सारा अदृष्ट का ५८५०.निग्गंधो उग्गालो, ततिए गंधो उ एति ण उ सित्थं। प्रायश्चित्त है, दृष्ट का प्रायश्चित्त इससे गुरु है। यह भिक्षु के अविजाणंत चउत्थे, पविसति गलगं तु जो पप्प॥ विषय का है। उपाध्याय के लिए मासगुरु से प्रारंभ कर एक कहता है कि थोड़ा खाना चाहिए जैसे तप्त तवे पर अनवस्थाप्य पर्यन्त और आचार्य के चतुर्लघु से चरमउदक बिन्दु गिरते ही नष्ट हो जाता है वैसे ही भोजन खाते पारांचिक पर्यन्त। इस प्रकार मास आदि से चरम पर्यन्त ही जीर्ण हो जाता है वैसा भोजन करें। दूसरा कहता है-ऐसा आरोपणा माननी चाहिए। करने से तृप्ति न हो तो वैसा भोजन करो जो सूर्यास्त तक ५८५६.दिय रातो लहु-गुरुगा, बितियं रयण सहितेण दिटुंतो। जीर्ण हो जाए। तीसरा कहता है वैसा खाओ जिससे अद्धाणसीसए वा, सत्थो व पहावितो तुरियं॥ अन्नगंधरहित उद्गार आए। एक कहता है उद्गार में गंध अथवा ससिक्थ या असिक्थ दृष्ट या अदृष्टरूप में दिन आए तो आए, उसके साथ सिक्थ न आए वैसा भोजन में निगलता है तो चतुर्लघु, रात्री में चतुर्गुरु। द्वितीयपद करो। ये दोनों तीसरा आदेश है। चौथा कहता है-ससिक्थ में-कारण में वान्त को पीने पर भी कोई प्रायश्चित्त नहीं है। उद्गार गले में प्रवेश कर जाता है तो खा ले। ये चारों यहां रत्नसहित वणिक् का दृष्टांत है। अध्वशीर्षक-मार्ग के अनादेश हैं। अंत में मनोज्ञ भोजन किया। उसका वमन हो गया। अन्यत्र ५८५१.पढम-बितिए दिया वी, उग्गालोणत्थि किं पुण निसाए। वह प्राप्त नहीं होता। सार्थ त्वरित गति से चला गया। तब गंधे य पडिगते या, ते पुण दो वी अणाएसा॥ उसी वान्त भोजन को सुगंधित कर खा लिया जाता है। पहले और दूसरे आदेश में दिन में भी उद्गार नहीं है तो ५८५७.जल-थलपहेसु रयणाणुवज्जणं तेण अडविपच्चंते। रात्री की तो बात ही क्या? ये आदेश हैं। गंध आती है तथा निक्खणण फुट्टपत्थर, मा मे रयणे हर पलावो॥ उद्गार गले में प्रवेश कर जाता है ये दोनों अनादेश हैं। ५८५८.घेत्तूण णिसि पलायण, अडवी मडदेहभावितं तिसितो। ५८५२.पडुपन्नऽणागते वा, संजमजोगाण जेण परिहाणी। पिबिउ रयणाण भागी, जातो सयणं समागम्म॥ __ण वि जायति तं जाणसु, साहुस्स पमाणमाहारे॥ एक रत्नवणिक् ने जल-स्थल पथ से गुजरते हुए रत्न वर्तमान और अनागत काल में जितने भोजन से संयम उपार्जित किए। घर लौटते समय म्लेच्छ देश की एक अटवी योगों की परिहानि नहीं होती, उतना मात्र भोजन करना, पार करनी थी। उसमें म्लेच्छ जाति के लोग रहते थे। वे उसको तुम साधु के आहार का प्रमाण जानो। चोरी कर आजीविका चलाते थे। उस रत्नवणिक ने चोरों के ५८५३.एवं पमाणजुत्तं, अतिरेगं वा वि भुंजमाणस्स। भय से एक स्थान पर उत्खनन कर रत्न उसमें गाड़ दिए और वायादीखोभेण व, एज्जाहि कहंचि उग्गालो। पत्थर के टुकड़ों को कपड़े में बांधकर चला। अटवी में वह इस प्रकार प्रमाणयुक्त आहार करता हुआ अथवा 'मेरे रत्नों का हरण मत करो'-यह प्रलाप करता हुआ जा कारणवश अतिरेक आहार लेता हुआ वायु आदि के क्षोभ से रहा था। चोरों ने पूछा-रत्न कहां हैं। उसने पत्थर के टुकड़े कथंचित् उद्गार आता है तो क्या करना चाहिए? दिखाए। चोरों ने उसे पागल समझ कर छोड़ दिया। रात्री में ५८५४.जो पुण सभोयणं तं, दवं व णाऊण णिग्गतं गिलति। वह गाड़े हुए रत्नों को लेकर पलायन कर गया। अटवी में तहियं सुत्तनिवाओ, तत्थाऽऽएसा इमे होति॥ प्यास से वह व्याकुल हो उठा। वहां मृत कलेवरों से भरे जो उस उद्गार को सभोजन या द्रवरूप में आया हुआ। पानी के कुंड से उसने दुर्गन्धित पानी पीया और रत्नों को जानकर मुख से आने पर भी उसे निगल जाता है, उसके सुरक्षित लेकर अपने स्वजनों से जा मिला। लिए प्रस्तुत सूत्र का निपात है। वहां ये आदेश होते हैं। ५८५९.वणियत्थाणी साह, रतणत्थाणी वता तु पंचेव। ५८५५.अच्छे ससित्थ चव्विय, उदयसरिसं च वंतं, तमादितुं रक्खते ताणि॥ मुहणिग्गतकवल भरियहत्थे य। वणिक् स्थानीय साधु, रत्नस्थानीय पांच महाव्रत, अंजलि पडिते दिडे, तस्करस्थानीय चोर, उदकसदृश वान्त, उसको कारणवश मासादारोवणा चरिमं॥ खाकर उन महाव्रतों की रक्षा करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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