SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवां उद्देशक ५८६०. दियरातो अण्ण गिण्हति, असति तुरंते व सत्थे तं चेव । णिसि लिंगेणऽण्णं वा, तं चैव सुगंधदव्वं वा ॥ मनोज्ञ आहार खाया परंतु वमन हो गया तो दिन या रात में दूसरा ग्रहण करता है । न मिलने पर अथवा सार्थ का त्वरित गति से चले जाने पर रात्री में अन्यलिंग के वेश में दूसरा ग्रहण कर लेता है। वह भी प्राप्त न होने पर उसी वमन को सुगंधित द्रव्यों से वासित कर खा लेने में कोई दोष नहीं है। आहारविहि-पदं निग्मंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स अंतोपडिग्गहंसि पाणे वा बीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, तं च संचाएइ विगिंचित्तए वा विसोहेत्तए वा तं पुव्वामेव लाइया विसोहिया विसोहिया ततो संजयामेव भुंजेज्ज वा पिबेज्ज वा । तं चनो संचाएइ विगिंचित्तए वा विसोहेत्तए वा तं नो अप्पणा भुंज्जेज्जा नो अण्णेसिं दावए, एगंते बहुफासुए पएसे पडिलेहित्ता पमज्जेत्ता परिवेयव्वे सिया ॥ (सूत्र ११) ५८६१. वंतादियणं रत्तिं, णिवारितं दिवसतो वि अत्थेणं । वंतमणेसियगहणं, सिया उ पडिवक्खओ सुत्तं ॥ रात्री में वान्त का आपान करना निवारित है तथा दिन में भी अर्थतः निवारित है। अनेषणीय भक्त-पान भी साधुओं द्वारा वान्त ही है, अतः वह प्रस्तुत सूत्र में प्रतिषिद्ध है। प्रस्तुत सूत्र स्याद् प्रतिपक्षतः अथवा अप्रतिपक्षतः । प्रतिपक्षतः जैसेपूर्वसूत्र में रात्री में वान्तापान निवारित है, प्रस्तुत सूत्र में दिन में अनेषणीय वान्त का ग्रहण निषिद्ध है। अप्रतिपक्षतः जैसे - पूर्वसूत्र में वान्त का प्रत्यापान अयुक्त है, प्रस्तुत सूत्र में भी वान्त अनेषणीय का ग्रहण अयुक्त माना गया है। ५८६२. पाणग्गहणेण तसा, गहिया बीएहि सव्व वणकाओ । रतगहणा होति मही, तेऊ व ण सो चिरट्ठाई ॥ यहां प्राणग्रहण से स गृहीत हैं। बीजग्रहण से सम्पूर्ण वनस्पतिकाय सूचित है। रजोग्रहण से पृथ्वीकाय गृहीत है Jain Education International ६११ तथा तेजःकाय चिरस्थायी नहीं होता अतः उसका विवेचन आदि नहीं होता । ५८६३.ते पुण आणिज्जंते, पडेज्ज पुब्विं व संसिया दव्वे । आगंतु तुब्भवा वा, आगंतूहिं तिमं सुत्तं ॥ वेस आदि जीव लाये जाने वाले भक्तपान में गिर जाते हैं, अथवा पहले ही ये जीव भक्तपान में स्थित होते हैं। वे दो प्रकार के हैं - आगंतुक और उससे उद्भूत । प्रस्तुत सूत्र आगंतुक त्रस आदि विषयक है। ५८६४. रसता पणतो व सिया, एमेव य आगंतू, पणगविवज्जा भवे दुविहा ॥ रसज और पनक आदि-ये अनागंतुक अर्थात् तद् उद्भव होते हैं, शेष पृथ्वीकायिक आदि जीव नहीं । इसी प्रकार पनक विवर्जित दो प्रकार के जीव त्रस और स्थावर - ये सारे आगंतुक होते हैं। ५८६५. सुत्तम्मि कड्डियम्मिं, जयणा गहणं तु पडितो दट्ठव्वो । लहुओ अपेक्खणम्मिं, आणादि विराहणा दुविहा ॥ ‘सुत्तम्मि कड्डियम्मि’—– सूत्र का आकर्षण अर्थात् सूत्र का उच्चारण कर, पदच्छेद कर यह सूत्रार्थ है ऐसा कहना । तत्पश्चात् साधु यतना से भक्तपान का ग्रहण करे। यतना यह है - गृहस्थ के हाथ में जो पिंड है उसका निरीक्षण करे। शुद्ध हो तो ग्रहण करे। फिर पात्र में गिरे हुए उस पिंड को देखे । यदि प्रेक्षा नहीं की जाती तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। इसमें संयमविराधना और आत्मविराधना- दोनों होती हैं। हज्ज अणगंगा ण पुण सेसा । ५८६६.अहिगारो असंसत्ते, संकप्पादी तु देस संसत्ते । संसज्जिमं तु तहियं, ओदण- सत्तू-दधि - दवाई ॥ जिस देश में भक्तपान त्रसजीवों से संसक्त नहीं होता वहां असंसक्त का अधिकार है अर्थात् साधुओं को वहीं विहरण करना चाहिए। संसक्त देश में संकल्प आदि पद होते हैं उसका प्रायश्चित्त होता है। वहां संसक्तियोग्य ओदन, सक्तु, दही, द्रव आदि द्रव्य होते हैं। ५८६७.संकप्पे पयभिंदण, पंथे पत्ते तहेव आवण्णे । चत्तारि छच्च लहु गुरु सट्ठाणं चेव आवण्णे ।। जिस देश में भक्त आदि प्राणियों से संसक्त होते हैं, वहां जाने का संकल्प करने पर चतुर्लघु, पदभेद करने पर चतुर्गुरु, मार्ग में चलने पर षड्लघु, उस देश में चले जाने पर षड्गुरु, वहीं द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों का संघट्टन करने पर स्वस्थान प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy